अनूठी
उदारता
भगवान् श्रीराम ने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया । अश्व का विधिवत पूजन करने
के बाद उन्होंने अपने भ्राता शत्रुघ्न को सदल- बल अश्व के साथ रवाना कर दिया ।
भरतजी को देश - भर से यज्ञ में भाग लेने आने वाले अतिथियों के स्वागत- सत्कार का
दायित्व सौंपा गया ।
श्रीराम ने अपने प्रिय भ्राता लक्ष्मण से कहा, भैया, इस यज्ञ में आए हुए समस्त ऋषि-मुनि, संन्यासी-ब्राह्मण, राजागण, गृहस्थ, वानप्रस्थ आदि को
पूर्ण संतुष्ट रखने का दायित्व तुम्हारा है । हमारे इस अत्यंत महत्त्वपूर्ण यज्ञ
में सभी वर्गों के लोग उपस्थित रहेंगे । यज्ञ का आयोजक होने के नाते हमारे परिवार
का यह दायित्व है कि सभी को सेवा के माध्यम से प्रसन्न और संतुष्ट रखा जाए । इसलिए
जो भी अभ्यागत जो - जो कामना करें , वे जो - जो चाहें, तुम उन्हें वह सब मुझसे बिना पूछे ही दे देना ।किसी को निराश
नहीं करना । यज्ञ का एक उद्देश्य यह भी होता है कि प्रजा के तमाम लोग पूर्ण तृप्त
और संतुष्ट हों ।
कुछ क्षण रुककर श्रीराम ने कहा , यदि कोई तुमसे अयोध्या भी माँग ले, कामधेनु की इच्छा
करे , मणि माणिक्य की अभिलाषा व्यक्त करे ,
तो भी उसे निराश करने की आवश्यकता नहीं है ।
श्रीलक्ष्मणजी श्रीराम की उदारता देखकर हतप्रभ हो गए । भरत तथा लक्ष्मणजी ने
यज्ञ में उपस्थित सभी अतिथियों की ऐसी सेवा की कि प्रत्येक व्यक्ति वहाँ से पूर्ण
संतुष्ट होकर लौटा ।
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