श्री राम चरित मानस
श्री गणेशाय नमः
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
श्रीरामचरितमानस
सप्तम सोपान
(उत्तरकाण्ड)
श्लोक
केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नं
शोभाढ्यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम्।
पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं
नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम् ॥ १ ॥
कोसलेन्द्रपदकञ्जमञ्जुलौ कोमलावजमहेशवन्दितौ।
जानकीकरसरोजलालितौ चिन्तकस्य मनभृङ्गसड्गिनौ ॥ २ ॥
कुन्दइन्दुदरगौरसुन्दरं अम्बिकापतिमभीष्टसिद्धिदम्।
कारुणीककलकञ्जलोचनं नौमि शंकरमनंगमोचनम् ॥ ३ ॥
दो. रहा एक दिन अवधि कर अति आरत पुर लोग।
जहँ तहँ सोचहिं नारि नर कृस तन राम बियोग ॥
सगुन होहिं सुंदर सकल मन प्रसन्न सब केर।
प्रभु आगवन जनाव जनु नगर रम्य चहुँ फेर ॥
कौसल्यादि मातु सब मन अनंद अस होइ।
आयउ प्रभु श्री अनुज जुत कहन चहत अब कोइ ॥
भरत नयन भुज दच्छिन फरकत बारहिं बार।
जानि सगुन मन हरष अति लागे करन बिचार ॥
रहेउ एक दिन अवधि अधारा। समुझत मन दुख भयउ अपारा ॥
कारन कवन नाथ नहिं आयउ। जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ ॥
अहह धन्य लछिमन बड़भागी। राम पदारबिंदु अनुरागी ॥
कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा। ताते नाथ संग नहिं लीन्हा ॥
जौं करनी समुझै प्रभु मोरी। नहिं निस्तार कलप सत कोरी ॥
जन अवगुन प्रभु मान न काऊ। दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ ॥
मोरि जियँ भरोस दृढ़ सोई। मिलिहहिं राम सगुन सुभ होई ॥
बीतें अवधि रहहि जौं प्राना। अधम कवन जग मोहि समाना ॥
दो. राम बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत।
बिप्र रूप धरि पवन सुत आइ गयउ जनु पोत ॥ १(क) ॥
बैठि देखि कुसासन जटा मुकुट कृस गात।
राम राम रघुपति जपत स्त्रवत नयन जलजात ॥ १(ख) ॥
देखत हनूमान अति हरषेउ। पुलक गात लोचन जल बरषेउ ॥
मन महँ बहुत भाँति सुख मानी। बोलेउ श्रवन सुधा सम बानी ॥
जासु बिरहँ सोचहु दिन राती। रटहु निरंतर गुन गन पाँती ॥
रघुकुल तिलक सुजन सुखदाता। आयउ कुसल देव मुनि त्राता ॥
रिपु रन जीति सुजस सुर गावत। सीता सहित अनुज प्रभु आवत ॥
सुनत बचन बिसरे सब दूखा। तृषावंत जिमि पाइ पियूषा ॥
को तुम्ह तात कहाँ ते आए। मोहि परम प्रिय बचन सुनाए ॥
मारुत सुत मैं कपि हनुमाना। नामु मोर सुनु कृपानिधाना ॥
दीनबंधु रघुपति कर किंकर। सुनत भरत भेंटेउ उठि सादर ॥
मिलत प्रेम नहिं हृदयँ समाता। नयन स्त्रवत जल पुलकित गाता ॥
कपि तव दरस सकल दुख बीते। मिले आजु मोहि राम पिरीते ॥
बार बार बूझी कुसलाता। तो कहुँ देउँ काह सुनु भ्राता ॥
एहि संदेस सरिस जग माहीं। करि बिचार देखेउँ कछु नाहीं ॥
नाहिन तात उरिन मैं तोही। अब प्रभु चरित सुनावहु मोही ॥
तब हनुमंत नाइ पद माथा। कहे सकल रघुपति गुन गाथा ॥
कहु कपि कबहुँ कृपाल गोसाईं। सुमिरहिं मोहि दास की नाईं ॥
छं. निज दास ज्यों रघुबंसभूषन कबहुँ मम सुमिरन कर् यो।
सुनि भरत बचन बिनीत अति कपि पुलकित तन चरनन्हि पर् यो ॥
रघुबीर निज मुख जासु गुन गन कहत अग जग नाथ जो।
काहे न होइ बिनीत परम पुनीत सदगुन सिंधु सो ॥
दो. राम प्रान प्रिय नाथ तुम्ह सत्य बचन मम तात।
पुनि पुनि मिलत भरत सुनि हरष न हृदयँ समात ॥ २(क) ॥
सो. भरत चरन सिरु नाइ तुरित गयउ कपि राम पहिं।
कही कुसल सब जाइ हरषि चलेउ प्रभु जान चढ़ि ॥ २(ख) ॥
हरषि भरत कोसलपुर आए। समाचार सब गुरहि सुनाए ॥
पुनि मंदिर महँ बात जनाई। आवत नगर कुसल रघुराई ॥
सुनत सकल जननीं उठि धाईं। कहि प्रभु कुसल भरत समुझाई ॥
समाचार पुरबासिंह पाए। नर अरु नारि हरषि सब धाए ॥
दधि दुर्बा रोचन फल फूला। नव तुलसी दल मंगल मूला ॥
भरि भरि हेम थार भामिनी। गावत चलिं सिंधु सिंधुरगामिनी ॥
जे जैसेहिं तैसेहिं उटि धावहिं। बाल बृद्ध कहँ संग न लावहिं ॥
एक एकन्ह कहँ बूझहिं भाई। तुम्ह देखे दयाल रघुराई ॥
अवधपुरी प्रभु आवत जानी। भई सकल सोभा कै खानी ॥
बहइ सुहावन त्रिबिध समीरा। भइ सरजू अति निर्मल नीरा ॥
दो. हरषित गुर परिजन अनुज भूसुर बृंद समेत।
चले भरत मन प्रेम अति सन्मुख कृपानिकेत ॥ ३(क) ॥
बहुतक चढ़ी अटारिन्ह निरखहिं गगन बिमान।
देखि मधुर सुर हरषित करहिं सुमंगल गान ॥ ३(ख) ॥
राका ससि रघुपति पुर सिंधु देखि हरषान।
बढ़यो कोलाहल करत जनु नारि तरंग समान ॥ ३(ग) ॥
इहाँ भानुकुल कमल दिवाकर। कपिन्ह देखावत नगर मनोहर ॥
सुनु कपीस अंगद लंकेसा। पावन पुरी रुचिर यह देसा ॥
जद्यपि सब बैकुंठ बखाना। बेद पुरान बिदित जगु जाना ॥
अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ। यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ ॥
जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि। उत्तर दिसि बह सरजू पावनि ॥
जा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा। मम समीप नर पावहिं बासा ॥
अति प्रिय मोहि इहाँ के बासी। मम धामदा पुरी सुख रासी ॥
हरषे सब कपि सुनि प्रभु बानी। धन्य अवध जो राम बखानी ॥
दो. आवत देखि लोग सब कृपासिंधु भगवान।
नगर निकट प्रभु प्रेरेउ उतरेउ भूमि बिमान ॥ ४(क) ॥
उतरि कहेउ प्रभु पुष्पकहि तुम्ह कुबेर पहिं जाहु।
प्रेरित राम चलेउ सो हरषु बिरहु अति ताहु ॥ ४(ख) ॥
आए भरत संग सब लोगा। कृस तन श्रीरघुबीर बियोगा ॥
बामदेव बसिष्ठ मुनिनायक। देखे प्रभु महि धरि धनु सायक ॥
धाइ धरे गुर चरन सरोरुह। अनुज सहित अति पुलक तनोरुह ॥
भेंटि कुसल बूझी मुनिराया। हमरें कुसल तुम्हारिहिं दाया ॥
सकल द्विजन्ह मिलि नायउ माथा। धर्म धुरंधर रघुकुलनाथा ॥
गहे भरत पुनि प्रभु पद पंकज। नमत जिन्हहि सुर मुनि संकर अज ॥
परे भूमि नहिं उठत उठाए। बर करि कृपासिंधु उर लाए ॥
स्यामल गात रोम भए ठाढ़े। नव राजीव नयन जल बाढ़े ॥
छं. राजीव लोचन स्त्रवत जल तन ललित पुलकावलि बनी।
अति प्रेम हृदयँ लगाइ अनुजहि मिले प्रभु त्रिभुअन धनी ॥
प्रभु मिलत अनुजहि सोह मो पहिं जाति नहिं उपमा कही।
जनु प्रेम अरु सिंगार तनु धरि मिले बर सुषमा लही ॥ १ ॥
बूझत कृपानिधि कुसल भरतहि बचन बेगि न आवई।
सुनु सिवा सो सुख बचन मन ते भिन्न जान जो पावई ॥
अब कुसल कौसलनाथ आरत जानि जन दरसन दियो।
बूड़त बिरह बारीस कृपानिधान मोहि कर गहि लियो ॥ २ ॥
दो. पुनि प्रभु हरषि सत्रुहन भेंटे हृदयँ लगाइ।
लछिमन भरत मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ ॥ ५ ॥
भरतानुज लछिमन पुनि भेंटे। दुसह बिरह संभव दुख मेटे ॥
सीता चरन भरत सिरु नावा। अनुज समेत परम सुख पावा ॥
प्रभु बिलोकि हरषे पुरबासी। जनित बियोग बिपति सब नासी ॥
प्रेमातुर सब लोग निहारी। कौतुक कीन्ह कृपाल खरारी ॥
अमित रूप प्रगटे तेहि काला। जथाजोग मिले सबहि कृपाला ॥
कृपादृष्टि रघुबीर बिलोकी। किए सकल नर नारि बिसोकी ॥
छन महिं सबहि मिले भगवाना। उमा मरम यह काहुँ न जाना ॥
एहि बिधि सबहि सुखी करि रामा। आगें चले सील गुन धामा ॥
कौसल्यादि मातु सब धाई। निरखि बच्छ जनु धेनु लवाई ॥
छं. जनु धेनु बालक बच्छ तजि गृहँ चरन बन परबस गईं।
दिन अंत पुर रुख स्त्रवत थन हुंकार करि धावत भई ॥
अति प्रेम सब मातु भेटीं बचन मृदु बहुबिधि कहे।
गइ बिषम बियोग भव तिन्ह हरष सुख अगनित लहे ॥
दो. भेटेउ तनय सुमित्राँ राम चरन रति जानि।
रामहि मिलत कैकेई हृदयँ बहुत सकुचानि ॥ ६(क) ॥
लछिमन सब मातन्ह मिलि हरषे आसिष पाइ।
कैकेइ कहँ पुनि पुनि मिले मन कर छोभु न जाइ ॥ ६ ॥
सासुन्ह सबनि मिली बैदेही। चरनन्हि लागि हरषु अति तेही ॥
देहिं असीस बूझि कुसलाता। होइ अचल तुम्हार अहिवाता ॥
सब रघुपति मुख कमल बिलोकहिं। मंगल जानि नयन जल रोकहिं ॥
कनक थार आरति उतारहिं। बार बार प्रभु गात निहारहिं ॥
नाना भाँति निछावरि करहीं। परमानंद हरष उर भरहीं ॥
कौसल्या पुनि पुनि रघुबीरहि। चितवति कृपासिंधु रनधीरहि ॥
हृदयँ बिचारति बारहिं बारा। कवन भाँति लंकापति मारा ॥
अति सुकुमार जुगल मेरे बारे। निसिचर सुभट महाबल भारे ॥
दो. लछिमन अरु सीता सहित प्रभुहि बिलोकति मातु।
परमानंद मगन मन पुनि पुनि पुलकित गातु ॥ ७ ॥
लंकापति कपीस नल नीला। जामवंत अंगद सुभसीला ॥
हनुमदादि सब बानर बीरा। धरे मनोहर मनुज सरीरा ॥
भरत सनेह सील ब्रत नेमा। सादर सब बरनहिं अति प्रेमा ॥
देखि नगरबासिंह कै रीती। सकल सराहहि प्रभु पद प्रीती ॥
पुनि रघुपति सब सखा बोलाए। मुनि पद लागहु सकल सिखाए ॥
गुर बसिष्ट कुलपूज्य हमारे। इन्ह की कृपाँ दनुज रन मारे ॥
ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे। भए समर सागर कहँ बेरे ॥
मम हित लागि जन्म इन्ह हारे। भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे ॥
सुनि प्रभु बचन मगन सब भए। निमिष निमिष उपजत सुख नए ॥
दो. कौसल्या के चरनन्हि पुनि तिन्ह नायउ माथ ॥
आसिष दीन्हे हरषि तुम्ह प्रिय मम जिमि रघुनाथ ॥ ८(क) ॥
सुमन बृष्टि नभ संकुल भवन चले सुखकंद।
चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नगर नारि नर बृंद ॥ ८(ख) ॥
कंचन कलस बिचित्र सँवारे। सबहिं धरे सजि निज निज द्वारे ॥
बंदनवार पताका केतू। सबन्हि बनाए मंगल हेतू ॥
बीथीं सकल सुगंध सिंचाई। गजमनि रचि बहु चौक पुराई ॥
नाना भाँति सुमंगल साजे। हरषि नगर निसान बहु बाजे ॥
जहँ तहँ नारि निछावर करहीं। देहिं असीस हरष उर भरहीं ॥
कंचन थार आरती नाना। जुबती सजें करहिं सुभ गाना ॥
करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें ॥
पुर सोभा संपति कल्याना। निगम सेष सारदा बखाना ॥
तेउ यह चरित देखि ठगि रहहीं। उमा तासु गुन नर किमि कहहीं ॥
दो. नारि कुमुदिनीं अवध सर रघुपति बिरह दिनेस।
अस्त भएँ बिगसत भईं निरखि राम राकेस ॥ ९(क) ॥
होहिं सगुन सुभ बिबिध बिधि बाजहिं गगन निसान।
पुर नर नारि सनाथ करि भवन चले भगवान ॥ ९(ख) ॥
प्रभु जानी कैकेई लजानी। प्रथम तासु गृह गए भवानी ॥
ताहि प्रबोधि बहुत सुख दीन्हा। पुनि निज भवन गवन हरि कीन्हा ॥
कृपासिंधु जब मंदिर गए। पुर नर नारि सुखी सब भए ॥
गुर बसिष्ट द्विज लिए बुलाई। आजु सुघरी सुदिन समुदाई ॥
सब द्विज देहु हरषि अनुसासन। रामचंद्र बैठहिं सिंघासन ॥
मुनि बसिष्ट के बचन सुहाए। सुनत सकल बिप्रन्ह अति भाए ॥
कहहिं बचन मृदु बिप्र अनेका। जग अभिराम राम अभिषेका ॥
अब मुनिबर बिलंब नहिं कीजे। महाराज कहँ तिलक करीजै ॥
दो. तब मुनि कहेउ सुमंत्र सन सुनत चलेउ हरषाइ।
रथ अनेक बहु बाजि गज तुरत सँवारे जाइ ॥ १०(क) ॥
जहँ तहँ धावन पठइ पुनि मंगल द्रब्य मगाइ।
हरष समेत बसिष्ट पद पुनि सिरु नायउ आइ ॥ १०(ख) ॥
नवान्हपारायण, आठवाँ विश्राम
अवधपुरी अति रुचिर बनाई। देवन्ह सुमन बृष्टि झरि लाई ॥
राम कहा सेवकन्ह बुलाई। प्रथम सखन्ह अन्हवावहु जाई ॥
सुनत बचन जहँ तहँ जन धाए। सुग्रीवादि तुरत अन्हवाए ॥
पुनि करुनानिधि भरतु हँकारे। निज कर राम जटा निरुआरे ॥
अन्हवाए प्रभु तीनिउ भाई। भगत बछल कृपाल रघुराई ॥
भरत भाग्य प्रभु कोमलताई। सेष कोटि सत सकहिं न गाई ॥
पुनि निज जटा राम बिबराए। गुर अनुसासन मागि नहाए ॥
करि मज्जन प्रभु भूषन साजे। अंग अनंग देखि सत लाजे ॥
दो. सासुन्ह सादर जानकिहि मज्जन तुरत कराइ।
दिब्य बसन बर भूषन अँग अँग सजे बनाइ ॥ ११(क) ॥
राम बाम दिसि सोभति रमा रूप गुन खानि।
देखि मातु सब हरषीं जन्म सुफल निज जानि ॥ ११(ख) ॥
सुनु खगेस तेहि अवसर ब्रह्मा सिव मुनि बृंद।
चढ़ि बिमान आए सब सुर देखन सुखकंद ॥ ११(ग) ॥
प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा। तुरत दिब्य सिंघासन मागा ॥
रबि सम तेज सो बरनि न जाई। बैठे राम द्विजन्ह सिरु नाई ॥
जनकसुता समेत रघुराई। पेखि प्रहरषे मुनि समुदाई ॥
बेद मंत्र तब द्विजन्ह उचारे। नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे ॥
प्रथम तिलक बसिष्ट मुनि कीन्हा। पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा ॥
सुत बिलोकि हरषीं महतारी। बार बार आरती उतारी ॥
बिप्रन्ह दान बिबिध बिधि दीन्हे। जाचक सकल अजाचक कीन्हे ॥
सिंघासन पर त्रिभुअन साई। देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाईं ॥
छं. नभ दुंदुभीं बाजहिं बिपुल गंधर्ब किंनर गावहीं।
नाचहिं अपछरा बृंद परमानंद सुर मुनि पावहीं ॥
भरतादि अनुज बिभीषनांगद हनुमदादि समेत ते।
गहें छत्र चामर ब्यजन धनु असि चर्म सक्ति बिराजते ॥ १ ॥
श्री सहित दिनकर बंस बूषन काम बहु छबि सोहई।
नव अंबुधर बर गात अंबर पीत सुर मन मोहई ॥
मुकुटांगदादि बिचित्र भूषन अंग अंगन्हि प्रति सजे।
अंभोज नयन बिसाल उर भुज धन्य नर निरखंति जे ॥ २ ॥
दो. वह सोभा समाज सुख कहत न बनइ खगेस।
बरनहिं सारद सेष श्रुति सो रस जान महेस ॥ १२(क) ॥
भिन्न भिन्न अस्तुति करि गए सुर निज निज धाम।
बंदी बेष बेद तब आए जहँ श्रीराम ॥ १२(ख) ॥
प्रभु सर्बग्य कीन्ह अति आदर कृपानिधान।
लखेउ न काहूँ मरम कछु लगे करन गुन गान ॥ १२(ग) ॥
छं. जय सगुन निर्गुन रूप अनूप भूप सिरोमने।
दसकंधरादि प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुज बल हने ॥
अवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे।
जय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे ॥ १ ॥
तव बिषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे।
भव पंथ भ्रमत अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे ॥
जे नाथ करि करुना बिलोके त्रिबिधि दुख ते निर्बहे।
भव खेद छेदन दच्छ हम कहुँ रच्छ राम नमामहे ॥ २ ॥
जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी।
ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी ॥
बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे।
जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिं भव नाथ सो समरामहे ॥ ३ ॥
जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी।
नख निर्गता मुनि बंदिता त्रेलोक पावनि सुरसरी ॥
ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे।
पद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे ॥ ४ ॥
अब्यक्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने।
षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने ॥
फल जुगल बिधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे।
पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे ॥ ५ ॥
जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं।
ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं ॥
करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं।
मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं ॥ ६ ॥
दो. सब के देखत बेदन्ह बिनती कीन्हि उदार।
अंतर्धान भए पुनि गए ब्रह्म आगार ॥ १३(क) ॥
बैनतेय सुनु संभु तब आए जहँ रघुबीर।
बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर ॥ १३(ख) ॥
छं. जय राम रमारमनं समनं। भव ताप भयाकुल पाहि जनं ॥
अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो ॥ १ ॥
दससीस बिनासन बीस भुजा। कृत दूरि महा महि भूरि रुजा ॥
रजनीचर बृंद पतंग रहे। सर पावक तेज प्रचंड दहे ॥ २ ॥
महि मंडल मंडन चारुतरं। धृत सायक चाप निषंग बरं ॥
मद मोह महा ममता रजनी। तम पुंज दिवाकर तेज अनी ॥ ३ ॥
मनजात किरात निपात किए। मृग लोग कुभोग सरेन हिए ॥
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे। बिषया बन पावँर भूलि परे ॥ ४ ॥
बहु रोग बियोगन्हि लोग हए। भवदंघ्रि निरादर के फल ए ॥
भव सिंधु अगाध परे नर ते। पद पंकज प्रेम न जे करते ॥ ५ ॥
अति दीन मलीन दुखी नितहीं। जिन्ह के पद पंकज प्रीति नहीं ॥
अवलंब भवंत कथा जिन्ह के ॥ प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें ॥ ६ ॥
नहिं राग न लोभ न मान मदा ॥ तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा ॥
एहि ते तव सेवक होत मुदा। मुनि त्यागत जोग भरोस सदा ॥ ७ ॥
करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ। पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ ॥
सम मानि निरादर आदरही। सब संत सुखी बिचरंति मही ॥ ८ ॥
मुनि मानस पंकज भृंग भजे। रघुबीर महा रनधीर अजे ॥
तव नाम जपामि नमामि हरी। भव रोग महागद मान अरी ॥ ९ ॥
गुन सील कृपा परमायतनं। प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं ॥
रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं। महिपाल बिलोकय दीन जनं ॥ १० ॥
दो. बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग ॥ १४(क) ॥
बरनि उमापति राम गुन हरषि गए कैलास।
तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास ॥ १४(ख) ॥
सुनु खगपति यह कथा पावनी। त्रिबिध ताप भव भय दावनी ॥
महाराज कर सुभ अभिषेका। सुनत लहहिं नर बिरति बिबेका ॥
जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं। सुख संपति नाना बिधि पावहिं ॥
सुर दुर्लभ सुख करि जग माहीं। अंतकाल रघुपति पुर जाहीं ॥
सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई। लहहिं भगति गति संपति नई ॥
खगपति राम कथा मैं बरनी। स्वमति बिलास त्रास दुख हरनी ॥
बिरति बिबेक भगति दृढ़ करनी। मोह नदी कहँ सुंदर तरनी ॥
नित नव मंगल कौसलपुरी। हरषित रहहिं लोग सब कुरी ॥
नित नइ प्रीति राम पद पंकज। सबकें जिन्हहि नमत सिव मुनि अज ॥
मंगन बहु प्रकार पहिराए। द्विजन्ह दान नाना बिधि पाए ॥
दो. ब्रह्मानंद मगन कपि सब कें प्रभु पद प्रीति।
जात न जाने दिवस तिन्ह गए मास षट बीति ॥ १५ ॥
बिसरे गृह सपनेहुँ सुधि नाहीं। जिमि परद्रोह संत मन माही ॥
तब रघुपति सब सखा बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिरु नाए ॥
परम प्रीति समीप बैठारे। भगत सुखद मृदु बचन उचारे ॥
तुम्ह अति कीन्ह मोरि सेवकाई। मुख पर केहि बिधि करौं बड़ाई ॥
ताते मोहि तुम्ह अति प्रिय लागे। मम हित लागि भवन सुख त्यागे ॥
अनुज राज संपति बैदेही। देह गेह परिवार सनेही ॥
सब मम प्रिय नहिं तुम्हहि समाना। मृषा न कहउँ मोर यह बाना ॥
सब के प्रिय सेवक यह नीती। मोरें अधिक दास पर प्रीती ॥
दो. अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम।
सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम ॥ १६ ॥
सुनि प्रभु बचन मगन सब भए। को हम कहाँ बिसरि तन गए ॥
एकटक रहे जोरि कर आगे। सकहिं न कछु कहि अति अनुरागे ॥
परम प्रेम तिन्ह कर प्रभु देखा। कहा बिबिध बिधि ग्यान बिसेषा ॥
प्रभु सन्मुख कछु कहन न पारहिं। पुनि पुनि चरन सरोज निहारहिं ॥
तब प्रभु भूषन बसन मगाए। नाना रंग अनूप सुहाए ॥
सुग्रीवहि प्रथमहिं पहिराए। बसन भरत निज हाथ बनाए ॥
प्रभु प्रेरित लछिमन पहिराए। लंकापति रघुपति मन भाए ॥
अंगद बैठ रहा नहिं डोला। प्रीति देखि प्रभु ताहि न बोला ॥
दो. जामवंत नीलादि सब पहिराए रघुनाथ।
हियँ धरि राम रूप सब चले नाइ पद माथ ॥ १७(क) ॥
तब अंगद उठि नाइ सिरु सजल नयन कर जोरि।
अति बिनीत बोलेउ बचन मनहुँ प्रेम रस बोरि ॥ १७(ख) ॥
सुनु सर्बग्य कृपा सुख सिंधो। दीन दयाकर आरत बंधो ॥
मरती बेर नाथ मोहि बाली। गयउ तुम्हारेहि कोंछें घाली ॥
असरन सरन बिरदु संभारी। मोहि जनि तजहु भगत हितकारी ॥
मोरें तुम्ह प्रभु गुर पितु माता। जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता ॥
तुम्हहि बिचारि कहहु नरनाहा। प्रभु तजि भवन काज मम काहा ॥
बालक ग्यान बुद्धि बल हीना। राखहु सरन नाथ जन दीना ॥
नीचि टहल गृह कै सब करिहउँ। पद पंकज बिलोकि भव तरिहउँ ॥
अस कहि चरन परेउ प्रभु पाही। अब जनि नाथ कहहु गृह जाही ॥
दो. अंगद बचन बिनीत सुनि रघुपति करुना सींव।
प्रभु उठाइ उर लायउ सजल नयन राजीव ॥ १८(क) ॥
निज उर माल बसन मनि बालितनय पहिराइ।
बिदा कीन्हि भगवान तब बहु प्रकार समुझाइ ॥ १८(ख) ॥
भरत अनुज सौमित्र समेता। पठवन चले भगत कृत चेता ॥
अंगद हृदयँ प्रेम नहिं थोरा। फिरि फिरि चितव राम कीं ओरा ॥
बार बार कर दंड प्रनामा। मन अस रहन कहहिं मोहि रामा ॥
राम बिलोकनि बोलनि चलनी। सुमिरि सुमिरि सोचत हँसि मिलनी ॥
प्रभु रुख देखि बिनय बहु भाषी। चलेउ हृदयँ पद पंकज राखी ॥
अति आदर सब कपि पहुँचाए। भाइन्ह सहित भरत पुनि आए ॥
तब सुग्रीव चरन गहि नाना। भाँति बिनय कीन्हे हनुमाना ॥
दिन दस करि रघुपति पद सेवा। पुनि तव चरन देखिहउँ देवा ॥
पुन्य पुंज तुम्ह पवनकुमारा। सेवहु जाइ कृपा आगारा ॥
अस कहि कपि सब चले तुरंता। अंगद कहइ सुनहु हनुमंता ॥
दो. कहेहु दंडवत प्रभु सैं तुम्हहि कहउँ कर जोरि।
बार बार रघुनायकहि सुरति कराएहु मोरि ॥ १९(क) ॥
अस कहि चलेउ बालिसुत फिरि आयउ हनुमंत।
तासु प्रीति प्रभु सन कहि मगन भए भगवंत ॥ !९(ख) ॥
कुलिसहु चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि।
चित्त खगेस राम कर समुझि परइ कहु काहि ॥ १९(ग) ॥
पुनि कृपाल लियो बोलि निषादा। दीन्हे भूषन बसन प्रसादा ॥
जाहु भवन मम सुमिरन करेहू। मन क्रम बचन धर्म अनुसरेहू ॥
तुम्ह मम सखा भरत सम भ्राता। सदा रहेहु पुर आवत जाता ॥
बचन सुनत उपजा सुख भारी। परेउ चरन भरि लोचन बारी ॥
चरन नलिन उर धरि गृह आवा। प्रभु सुभाउ परिजनन्हि सुनावा ॥
रघुपति चरित देखि पुरबासी। पुनि पुनि कहहिं धन्य सुखरासी ॥
राम राज बैंठें त्रेलोका। हरषित भए गए सब सोका ॥
बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप बिषमता खोई ॥
दो. बरनाश्रम निज निज धरम बनिरत बेद पथ लोग।
चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग ॥ २० ॥
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा ॥
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती ॥
चारिउ चरन धर्म जग माहीं। पूरि रहा सपनेहुँ अघ नाहीं ॥
राम भगति रत नर अरु नारी। सकल परम गति के अधिकारी ॥
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा ॥
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना ॥
सब निर्दंभ धर्मरत पुनी। नर अरु नारि चतुर सब गुनी ॥
सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी। सब कृतग्य नहिं कपट सयानी ॥
दो. राम राज नभगेस सुनु सचराचर जग माहिं ॥
काल कर्म सुभाव गुन कृत दुख काहुहि नाहिं ॥ २१ ॥
भूमि सप्त सागर मेखला। एक भूप रघुपति कोसला ॥
भुअन अनेक रोम प्रति जासू। यह प्रभुता कछु बहुत न तासू ॥
सो महिमा समुझत प्रभु केरी। यह बरनत हीनता घनेरी ॥
सोउ महिमा खगेस जिन्ह जानी। फिरी एहिं चरित तिन्हहुँ रति मानी ॥
सोउ जाने कर फल यह लीला। कहहिं महा मुनिबर दमसीला ॥
राम राज कर सुख संपदा। बरनि न सकइ फनीस सारदा ॥
सब उदार सब पर उपकारी। बिप्र चरन सेवक नर नारी ॥
एकनारि ब्रत रत सब झारी। ते मन बच क्रम पति हितकारी ॥
दो. दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज।
जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र कें राज ॥ २२ ॥
फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन। रहहि एक सँग गज पंचानन ॥
खग मृग सहज बयरु बिसराई। सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई ॥
कूजहिं खग मृग नाना बृंदा। अभय चरहिं बन करहिं अनंदा ॥
सीतल सुरभि पवन बह मंदा। गूंजत अलि लै चलि मकरंदा ॥
लता बिटप मागें मधु चवहीं। मनभावतो धेनु पय स्त्रवहीं ॥
ससि संपन्न सदा रह धरनी। त्रेताँ भइ कृतजुग कै करनी ॥
प्रगटीं गिरिन्ह बिबिध मनि खानी। जगदातमा भूप जग जानी ॥
सरिता सकल बहहिं बर बारी। सीतल अमल स्वाद सुखकारी ॥
सागर निज मरजादाँ रहहीं। डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं ॥
सरसिज संकुल सकल तड़ागा। अति प्रसन्न दस दिसा बिभागा ॥
दो. बिधु महि पूर मयूखन्हि रबि तप जेतनेहि काज।
मागें बारिद देहिं जल रामचंद्र के राज ॥ २३ ॥
कोटिन्ह बाजिमेध प्रभु कीन्हे। दान अनेक द्विजन्ह कहँ दीन्हे ॥
श्रुति पथ पालक धर्म धुरंधर। गुनातीत अरु भोग पुरंदर ॥
पति अनुकूल सदा रह सीता। सोभा खानि सुसील बिनीता ॥
जानति कृपासिंधु प्रभुताई। सेवति चरन कमल मन लाई ॥
जद्यपि गृहँ सेवक सेवकिनी। बिपुल सदा सेवा बिधि गुनी ॥
निज कर गृह परिचरजा करई। रामचंद्र आयसु अनुसरई ॥
जेहि बिधि कृपासिंधु सुख मानइ। सोइ कर श्री सेवा बिधि जानइ ॥
कौसल्यादि सासु गृह माहीं। सेवइ सबन्हि मान मद नाहीं ॥
उमा रमा ब्रह्मादि बंदिता। जगदंबा संततमनिंदिता ॥
दो. जासु कृपा कटाच्छु सुर चाहत चितव न सोइ।
राम पदारबिंद रति करति सुभावहि खोइ ॥ २४ ॥
सेवहिं सानकूल सब भाई। राम चरन रति अति अधिकाई ॥
प्रभु मुख कमल बिलोकत रहहीं। कबहुँ कृपाल हमहि कछु कहहीं ॥
राम करहिं भ्रातन्ह पर प्रीती। नाना भाँति सिखावहिं नीती ॥
हरषित रहहिं नगर के लोगा। करहिं सकल सुर दुर्लभ भोगा ॥
अहनिसि बिधिहि मनावत रहहीं। श्रीरघुबीर चरन रति चहहीं ॥
दुइ सुत सुन्दर सीताँ जाए। लव कुस बेद पुरानन्ह गाए ॥
दोउ बिजई बिनई गुन मंदिर। हरि प्रतिबिंब मनहुँ अति सुंदर ॥
दुइ दुइ सुत सब भ्रातन्ह केरे। भए रूप गुन सील घनेरे ॥
दो. ग्यान गिरा गोतीत अज माया मन गुन पार।
सोइ सच्चिदानंद घन कर नर चरित उदार ॥ २५ ॥
प्रातकाल सरऊ करि मज्जन। बैठहिं सभाँ संग द्विज सज्जन ॥
बेद पुरान बसिष्ट बखानहिं। सुनहिं राम जद्यपि सब जानहिं ॥
अनुजन्ह संजुत भोजन करहीं। देखि सकल जननीं सुख भरहीं ॥
भरत सत्रुहन दोनउ भाई। सहित पवनसुत उपबन जाई ॥
बूझहिं बैठि राम गुन गाहा। कह हनुमान सुमति अवगाहा ॥
सुनत बिमल गुन अति सुख पावहिं। बहुरि बहुरि करि बिनय कहावहिं ॥
सब कें गृह गृह होहिं पुराना। रामचरित पावन बिधि नाना ॥
नर अरु नारि राम गुन गानहिं। करहिं दिवस निसि जात न जानहिं ॥
दो. अवधपुरी बासिंह कर सुख संपदा समाज।
सहस सेष नहिं कहि सकहिं जहँ नृप राम बिराज ॥ २६ ॥
नारदादि सनकादि मुनीसा। दरसन लागि कोसलाधीसा ॥
दिन प्रति सकल अजोध्या आवहिं। देखि नगरु बिरागु बिसरावहिं ॥
जातरूप मनि रचित अटारीं। नाना रंग रुचिर गच ढारीं ॥
पुर चहुँ पास कोट अति सुंदर। रचे कँगूरा रंग रंग बर ॥
नव ग्रह निकर अनीक बनाई। जनु घेरी अमरावति आई ॥
महि बहु रंग रचित गच काँचा। जो बिलोकि मुनिबर मन नाचा ॥
धवल धाम ऊपर नभ चुंबत। कलस मनहुँ रबि ससि दुति निंदत ॥
बहु मनि रचित झरोखा भ्राजहिं। गृह गृह प्रति मनि दीप बिराजहिं ॥
छं. मनि दीप राजहिं भवन भ्राजहिं देहरीं बिद्रुम रची।
मनि खंभ भीति बिरंचि बिरची कनक मनि मरकत खची ॥
सुंदर मनोहर मंदिरायत अजिर रुचिर फटिक रचे।
प्रति द्वार द्वार कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रन्हि खचे ॥
दो. चारु चित्रसाला गृह गृह प्रति लिखे बनाइ।
राम चरित जे निरख मुनि ते मन लेहिं चोराइ ॥ २७ ॥
सुमन बाटिका सबहिं लगाई। बिबिध भाँति करि जतन बनाई ॥
लता ललित बहु जाति सुहाई। फूलहिं सदा बंसत कि नाई ॥
गुंजत मधुकर मुखर मनोहर। मारुत त्रिबिध सदा बह सुंदर ॥
नाना खग बालकन्हि जिआए। बोलत मधुर उड़ात सुहाए ॥
मोर हंस सारस पारावत। भवननि पर सोभा अति पावत ॥
जहँ तहँ देखहिं निज परिछाहीं। बहु बिधि कूजहिं नृत्य कराहीं ॥
सुक सारिका पढ़ावहिं बालक। कहहु राम रघुपति जनपालक ॥
राज दुआर सकल बिधि चारू। बीथीं चौहट रूचिर बजारू ॥
छं. बाजार रुचिर न बनइ बरनत बस्तु बिनु गथ पाइए।
जहँ भूप रमानिवास तहँ की संपदा किमि गाइए ॥
बैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहुँ कुबेर ते।
सब सुखी सब सच्चरित सुंदर नारि नर सिसु जरठ जे ॥
दो. उत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गंभीर।
बाँधे घाट मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर ॥ २८ ॥
दूरि फराक रुचिर सो घाटा। जहँ जल पिअहिं बाजि गज ठाटा ॥
पनिघट परम मनोहर नाना। तहाँ न पुरुष करहिं अस्नाना ॥
राजघाट सब बिधि सुंदर बर। मज्जहिं तहाँ बरन चारिउ नर ॥
तीर तीर देवन्ह के मंदिर। चहुँ दिसि तिन्ह के उपबन सुंदर ॥
कहुँ कहुँ सरिता तीर उदासी। बसहिं ग्यान रत मुनि संन्यासी ॥
तीर तीर तुलसिका सुहाई। बृंद बृंद बहु मुनिन्ह लगाई ॥
पुर सोभा कछु बरनि न जाई। बाहेर नगर परम रुचिराई ॥
देखत पुरी अखिल अघ भागा। बन उपबन बापिका तड़ागा ॥
छं. बापीं तड़ाग अनूप कूप मनोहरायत सोहहीं।
सोपान सुंदर नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहीं ॥
बहु रंग कंज अनेक खग कूजहिं मधुप गुंजारहीं।
आराम रम्य पिकादि खग रव जनु पथिक हंकारहीं ॥
दो. रमानाथ जहँ राजा सो पुर बरनि कि जाइ।
अनिमादिक सुख संपदा रहीं अवध सब छाइ ॥ २९ ॥
जहँ तहँ नर रघुपति गुन गावहिं। बैठि परसपर इहइ सिखावहिं ॥
भजहु प्रनत प्रतिपालक रामहि। सोभा सील रूप गुन धामहि ॥
जलज बिलोचन स्यामल गातहि। पलक नयन इव सेवक त्रातहि ॥
धृत सर रुचिर चाप तूनीरहि। संत कंज बन रबि रनधीरहि ॥
काल कराल ब्याल खगराजहि। नमत राम अकाम ममता जहि ॥
लोभ मोह मृगजूथ किरातहि। मनसिज करि हरि जन सुखदातहि ॥
संसय सोक निबिड़ तम भानुहि। दनुज गहन घन दहन कृसानुहि ॥
जनकसुता समेत रघुबीरहि। कस न भजहु भंजन भव भीरहि ॥
बहु बासना मसक हिम रासिहि। सदा एकरस अज अबिनासिहि ॥
मुनि रंजन भंजन महि भारहि। तुलसिदास के प्रभुहि उदारहि ॥
दो. एहि बिधि नगर नारि नर करहिं राम गुन गान।
सानुकूल सब पर रहहिं संतत कृपानिधान ॥ ३० ॥
जब ते राम प्रताप खगेसा। उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा ॥
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका। बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका ॥
जिन्हहि सोक ते कहउँ बखानी। प्रथम अबिद्या निसा नसानी ॥
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने। काम क्रोध कैरव सकुचाने ॥
बिबिध कर्म गुन काल सुभाऊ। ए चकोर सुख लहहिं न काऊ ॥
मत्सर मान मोह मद चोरा। इन्ह कर हुनर न कवनिहुँ ओरा ॥
धरम तड़ाग ग्यान बिग्याना। ए पंकज बिकसे बिधि नाना ॥
सुख संतोष बिराग बिबेका। बिगत सोक ए कोक अनेका ॥
दो. यह प्रताप रबि जाकें उर जब करइ प्रकास।
पछिले बाढ़हिं प्रथम जे कहे ते पावहिं नास ॥ ३१ ॥
भ्रातन्ह सहित रामु एक बारा। संग परम प्रिय पवनकुमारा ॥
सुंदर उपबन देखन गए। सब तरु कुसुमित पल्लव नए ॥
जानि समय सनकादिक आए। तेज पुंज गुन सील सुहाए ॥
ब्रह्मानंद सदा लयलीना। देखत बालक बहुकालीना ॥
रूप धरें जनु चारिउ बेदा। समदरसी मुनि बिगत बिभेदा ॥
आसा बसन ब्यसन यह तिन्हहीं। रघुपति चरित होइ तहँ सुनहीं ॥
तहाँ रहे सनकादि भवानी। जहँ घटसंभव मुनिबर ग्यानी ॥
राम कथा मुनिबर बहु बरनी। ग्यान जोनि पावक जिमि अरनी ॥
दो. देखि राम मुनि आवत हरषि दंडवत कीन्ह।
स्वागत पूँछि पीत पट प्रभु बैठन कहँ दीन्ह ॥ ३२ ॥
कीन्ह दंडवत तीनिउँ भाई। सहित पवनसुत सुख अधिकाई ॥
मुनि रघुपति छबि अतुल बिलोकी। भए मगन मन सके न रोकी ॥
स्यामल गात सरोरुह लोचन। सुंदरता मंदिर भव मोचन ॥
एकटक रहे निमेष न लावहिं। प्रभु कर जोरें सीस नवावहिं ॥
तिन्ह कै दसा देखि रघुबीरा। स्त्रवत नयन जल पुलक सरीरा ॥
कर गहि प्रभु मुनिबर बैठारे। परम मनोहर बचन उचारे ॥
आजु धन्य मैं सुनहु मुनीसा। तुम्हरें दरस जाहिं अघ खीसा ॥
बड़े भाग पाइब सतसंगा। बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा ॥
दो. संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ।
कहहि संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ ॥ ३३ ॥
सुनि प्रभु बचन हरषि मुनि चारी। पुलकित तन अस्तुति अनुसारी ॥
जय भगवंत अनंत अनामय। अनघ अनेक एक करुनामय ॥
जय निर्गुन जय जय गुन सागर। सुख मंदिर सुंदर अति नागर ॥
जय इंदिरा रमन जय भूधर। अनुपम अज अनादि सोभाकर ॥
ग्यान निधान अमान मानप्रद। पावन सुजस पुरान बेद बद ॥
तग्य कृतग्य अग्यता भंजन। नाम अनेक अनाम निरंजन ॥
सर्ब सर्बगत सर्ब उरालय। बससि सदा हम कहुँ परिपालय ॥
द्वंद बिपति भव फंद बिभंजय। ह्रदि बसि राम काम मद गंजय ॥
दो. परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम।
प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम ॥ ३४ ॥
देहु भगति रघुपति अति पावनि। त्रिबिध ताप भव दाप नसावनि ॥
प्रनत काम सुरधेनु कलपतरु। होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु ॥
भव बारिधि कुंभज रघुनायक। सेवत सुलभ सकल सुख दायक ॥
मन संभव दारुन दुख दारय। दीनबंधु समता बिस्तारय ॥
आस त्रास इरिषादि निवारक। बिनय बिबेक बिरति बिस्तारक ॥
भूप मौलि मन मंडन धरनी। देहि भगति संसृति सरि तरनी ॥
मुनि मन मानस हंस निरंतर। चरन कमल बंदित अज संकर ॥
रघुकुल केतु सेतु श्रुति रच्छक। काल करम सुभाउ गुन भच्छक ॥
तारन तरन हरन सब दूषन। तुलसिदास प्रभु त्रिभुवन भूषन ॥
दो. बार बार अस्तुति करि प्रेम सहित सिरु नाइ।
ब्रह्म भवन सनकादि गे अति अभीष्ट बर पाइ ॥ ३५ ॥
सनकादिक बिधि लोक सिधाए। भ्रातन्ह राम चरन सिरु नाए ॥
पूछत प्रभुहि सकल सकुचाहीं। चितवहिं सब मारुतसुत पाहीं ॥
सुनि चहहिं प्रभु मुख कै बानी। जो सुनि होइ सकल भ्रम हानी ॥
अंतरजामी प्रभु सभ जाना। बूझत कहहु काह हनुमाना ॥
जोरि पानि कह तब हनुमंता। सुनहु दीनदयाल भगवंता ॥
नाथ भरत कछु पूँछन चहहीं। प्रस्न करत मन सकुचत अहहीं ॥
तुम्ह जानहु कपि मोर सुभाऊ। भरतहि मोहि कछु अंतर काऊ ॥
सुनि प्रभु बचन भरत गहे चरना। सुनहु नाथ प्रनतारति हरना ॥
दो. नाथ न मोहि संदेह कछु सपनेहुँ सोक न मोह।
केवल कृपा तुम्हारिहि कृपानंद संदोह ॥ ३६ ॥
करउँ कृपानिधि एक ढिठाई। मैं सेवक तुम्ह जन सुखदाई ॥
संतन्ह कै महिमा रघुराई। बहु बिधि बेद पुरानन्ह गाई ॥
श्रीमुख तुम्ह पुनि कीन्हि बड़ाई। तिन्ह पर प्रभुहि प्रीति अधिकाई ॥
सुना चहउँ प्रभु तिन्ह कर लच्छन। कृपासिंधु गुन ग्यान बिचच्छन ॥
संत असंत भेद बिलगाई। प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई ॥
संतन्ह के लच्छन सुनु भ्राता। अगनित श्रुति पुरान बिख्याता ॥
संत असंतन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चंदन आचरनी ॥
काटइ परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देइ सुगंध बसाई ॥
दो. ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग बल्लभ श्रीखंड।
अनल दाहि पीटत घनहिं परसु बदन यह दंड ॥ ३७ ॥
बिषय अलंपट सील गुनाकर। पर दुख दुख सुख सुख देखे पर ॥
सम अभूतरिपु बिमद बिरागी। लोभामरष हरष भय त्यागी ॥
कोमलचित दीनन्ह पर दाया। मन बच क्रम मम भगति अमाया ॥
सबहि मानप्रद आपु अमानी। भरत प्रान सम मम ते प्रानी ॥
बिगत काम मम नाम परायन। सांति बिरति बिनती मुदितायन ॥
सीतलता सरलता मयत्री। द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री ॥
ए सब लच्छन बसहिं जासु उर। जानेहु तात संत संतत फुर ॥
सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं। परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं ॥
दो. निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज।
ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुख पुंज ॥ ३८ ॥
सनहु असंतन्ह केर सुभाऊ। भूलेहुँ संगति करिअ न काऊ ॥
तिन्ह कर संग सदा दुखदाई। जिमि कलपहि घालइ हरहाई ॥
खलन्ह हृदयँ अति ताप बिसेषी। जरहिं सदा पर संपति देखी ॥
जहँ कहुँ निंदा सुनहिं पराई। हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई ॥
काम क्रोध मद लोभ परायन। निर्दय कपटी कुटिल मलायन ॥
बयरु अकारन सब काहू सों। जो कर हित अनहित ताहू सों ॥
झूठइ लेना झूठइ देना। झूठइ भोजन झूठ चबेना ॥
बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा। खाइ महा अति हृदय कठोरा ॥
दो. पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद।
ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद ॥ ३९ ॥
लोभइ ओढ़न लोभइ डासन। सिस्त्रोदर पर जमपुर त्रास न ॥
काहू की जौं सुनहिं बड़ाई। स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई ॥
जब काहू कै देखहिं बिपती। सुखी भए मानहुँ जग नृपती ॥
स्वारथ रत परिवार बिरोधी। लंपट काम लोभ अति क्रोधी ॥
मातु पिता गुर बिप्र न मानहिं। आपु गए अरु घालहिं आनहिं ॥
करहिं मोह बस द्रोह परावा। संत संग हरि कथा न भावा ॥
अवगुन सिंधु मंदमति कामी। बेद बिदूषक परधन स्वामी ॥
बिप्र द्रोह पर द्रोह बिसेषा। दंभ कपट जियँ धरें सुबेषा ॥
दो. ऐसे अधम मनुज खल कृतजुग त्रेता नाहिं।
द्वापर कछुक बृंद बहु होइहहिं कलिजुग माहिं ॥ ४० ॥
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ॥
निर्नय सकल पुरान बेद कर। कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर ॥
नर सरीर धरि जे पर पीरा। करहिं ते सहहिं महा भव भीरा ॥
करहिं मोह बस नर अघ नाना। स्वारथ रत परलोक नसाना ॥
कालरूप तिन्ह कहँ मैं भ्राता। सुभ अरु असुभ कर्म फल दाता ॥
अस बिचारि जे परम सयाने। भजहिं मोहि संसृत दुख जाने ॥
त्यागहिं कर्म सुभासुभ दायक। भजहिं मोहि सुर नर मुनि नायक ॥
संत असंतन्ह के गुन भाषे। ते न परहिं भव जिन्ह लखि राखे ॥
दो. सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक।
गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक ॥ ४१ ॥
श्रीमुख बचन सुनत सब भाई। हरषे प्रेम न हृदयँ समाई ॥
करहिं बिनय अति बारहिं बारा। हनूमान हियँ हरष अपारा ॥
पुनि रघुपति निज मंदिर गए। एहि बिधि चरित करत नित नए ॥
बार बार नारद मुनि आवहिं। चरित पुनीत राम के गावहिं ॥
नित नव चरन देखि मुनि जाहीं। ब्रह्मलोक सब कथा कहाहीं ॥
सुनि बिरंचि अतिसय सुख मानहिं। पुनि पुनि तात करहु गुन गानहिं ॥
सनकादिक नारदहि सराहहिं। जद्यपि ब्रह्म निरत मुनि आहहिं ॥
सुनि गुन गान समाधि बिसारी ॥ सादर सुनहिं परम अधिकारी ॥
दो. जीवनमुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान।
जे हरि कथाँ न करहिं रति तिन्ह के हिय पाषान ॥ ४२ ॥
एक बार रघुनाथ बोलाए। गुर द्विज पुरबासी सब आए ॥
बैठे गुर मुनि अरु द्विज सज्जन। बोले बचन भगत भव भंजन ॥
सनहु सकल पुरजन मम बानी। कहउँ न कछु ममता उर आनी ॥
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई। सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई ॥
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई। मम अनुसासन मानै जोई ॥
जौं अनीति कछु भाषौं भाई। तौं मोहि बरजहु भय बिसराई ॥
बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथिन्ह गावा ॥
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा ॥
दो. सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाइ ॥ ४३ ॥
एहि तन कर फल बिषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई ॥
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं ॥
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई। गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई ॥
आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी ॥
फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा ॥
कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही ॥
नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो ॥
करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा ॥
दो. जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ ॥ ४४ ॥
जौं परलोक इहाँ सुख चहहू। सुनि मम बचन ह्रृदयँ दृढ़ गहहू ॥
सुलभ सुखद मारग यह भाई। भगति मोरि पुरान श्रुति गाई ॥
ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका। साधन कठिन न मन कहुँ टेका ॥
करत कष्ट बहु पावइ कोऊ। भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ ॥
भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी ॥
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अंता ॥
पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा। मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा ॥
सानुकूल तेहि पर मुनि देवा। जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा ॥
दो. औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि।
संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि ॥ ४५ ॥
कहहु भगति पथ कवन प्रयासा। जोग न मख जप तप उपवासा ॥
सरल सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई ॥
मोर दास कहाइ नर आसा। करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा ॥
बहुत कहउँ का कथा बढ़ाई। एहि आचरन बस्य मैं भाई ॥
बैर न बिग्रह आस न त्रासा। सुखमय ताहि सदा सब आसा ॥
अनारंभ अनिकेत अमानी। अनघ अरोष दच्छ बिग्यानी ॥
प्रीति सदा सज्जन संसर्गा। तृन सम बिषय स्वर्ग अपबर्गा ॥
भगति पच्छ हठ नहिं सठताई। दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई ॥
दो. मम गुन ग्राम नाम रत गत ममता मद मोह।
ता कर सुख सोइ जानइ परानंद संदोह ॥ ४६ ॥
सुनत सुधासम बचन राम के। गहे सबनि पद कृपाधाम के ॥
जननि जनक गुर बंधु हमारे। कृपा निधान प्रान ते प्यारे ॥
तनु धनु धाम राम हितकारी। सब बिधि तुम्ह प्रनतारति हारी ॥
असि सिख तुम्ह बिनु देइ न कोऊ। मातु पिता स्वारथ रत ओऊ ॥
हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ॥
स्वारथ मीत सकल जग माहीं। सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं ॥
सबके बचन प्रेम रस साने। सुनि रघुनाथ हृदयँ हरषाने ॥
निज निज गृह गए आयसु पाई। बरनत प्रभु बतकही सुहाई ॥
दो. -उमा अवधबासी नर नारि कृतारथ रूप।
ब्रह्म सच्चिदानंद घन रघुनायक जहँ भूप ॥ ४७ ॥
एक बार बसिष्ट मुनि आए। जहाँ राम सुखधाम सुहाए ॥
अति आदर रघुनायक कीन्हा। पद पखारि पादोदक लीन्हा ॥
राम सुनहु मुनि कह कर जोरी। कृपासिंधु बिनती कछु मोरी ॥
देखि देखि आचरन तुम्हारा। होत मोह मम हृदयँ अपारा ॥
महिमा अमित बेद नहिं जाना। मैं केहि भाँति कहउँ भगवाना ॥
उपरोहित्य कर्म अति मंदा। बेद पुरान सुमृति कर निंदा ॥
जब न लेउँ मैं तब बिधि मोही। कहा लाभ आगें सुत तोही ॥
परमातमा ब्रह्म नर रूपा। होइहि रघुकुल भूषन भूपा ॥
दो. -तब मैं हृदयँ बिचारा जोग जग्य ब्रत दान।
जा कहुँ करिअ सो पैहउँ धर्म न एहि सम आन ॥ ४८ ॥
जप तप नियम जोग निज धर्मा। श्रुति संभव नाना सुभ कर्मा ॥
ग्यान दया दम तीरथ मज्जन। जहँ लगि धर्म कहत श्रुति सज्जन ॥
आगम निगम पुरान अनेका। पढ़े सुने कर फल प्रभु एका ॥
तब पद पंकज प्रीति निरंतर। सब साधन कर यह फल सुंदर ॥
छूटइ मल कि मलहि के धोएँ। घृत कि पाव कोइ बारि बिलोएँ ॥
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई। अभिअंतर मल कबहुँ न जाई ॥
सोइ सर्बग्य तग्य सोइ पंडित। सोइ गुन गृह बिग्यान अखंडित ॥
दच्छ सकल लच्छन जुत सोई। जाकें पद सरोज रति होई ॥
दो. नाथ एक बर मागउँ राम कृपा करि देहु।
जन्म जन्म प्रभु पद कमल कबहुँ घटै जनि नेहु ॥ ४९ ॥
अस कहि मुनि बसिष्ट गृह आए। कृपासिंधु के मन अति भाए ॥
हनूमान भरतादिक भ्राता। संग लिए सेवक सुखदाता ॥
पुनि कृपाल पुर बाहेर गए। गज रथ तुरग मगावत भए ॥
देखि कृपा करि सकल सराहे। दिए उचित जिन्ह जिन्ह तेइ चाहे ॥
हरन सकल श्रम प्रभु श्रम पाई। गए जहाँ सीतल अवँराई ॥
भरत दीन्ह निज बसन डसाई। बैठे प्रभु सेवहिं सब भाई ॥
मारुतसुत तब मारूत करई। पुलक बपुष लोचन जल भरई ॥
हनूमान सम नहिं बड़भागी। नहिं कोउ राम चरन अनुरागी ॥
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई। बार बार प्रभु निज मुख गाई ॥
दो. तेहिं अवसर मुनि नारद आए करतल बीन।
गावन लगे राम कल कीरति सदा नबीन ॥ ५० ॥
मामवलोकय पंकज लोचन। कृपा बिलोकनि सोच बिमोचन ॥
नील तामरस स्याम काम अरि। हृदय कंज मकरंद मधुप हरि ॥
जातुधान बरूथ बल भंजन। मुनि सज्जन रंजन अघ गंजन ॥
भूसुर ससि नव बृंद बलाहक। असरन सरन दीन जन गाहक ॥
भुज बल बिपुल भार महि खंडित। खर दूषन बिराध बध पंडित ॥
रावनारि सुखरूप भूपबर। जय दसरथ कुल कुमुद सुधाकर ॥
सुजस पुरान बिदित निगमागम। गावत सुर मुनि संत समागम ॥
कारुनीक ब्यलीक मद खंडन। सब बिधि कुसल कोसला मंडन ॥
कलि मल मथन नाम ममताहन। तुलसीदास प्रभु पाहि प्रनत जन ॥
दो. प्रेम सहित मुनि नारद बरनि राम गुन ग्राम।
सोभासिंधु हृदयँ धरि गए जहाँ बिधि धाम ॥ ५१ ॥
गिरिजा सुनहु बिसद यह कथा। मैं सब कही मोरि मति जथा ॥
राम चरित सत कोटि अपारा। श्रुति सारदा न बरनै पारा ॥
राम अनंत अनंत गुनानी। जन्म कर्म अनंत नामानी ॥
जल सीकर महि रज गनि जाहीं। रघुपति चरित न बरनि सिराहीं ॥
बिमल कथा हरि पद दायनी। भगति होइ सुनि अनपायनी ॥
उमा कहिउँ सब कथा सुहाई। जो भुसुंडि खगपतिहि सुनाई ॥
कछुक राम गुन कहेउँ बखानी। अब का कहौं सो कहहु भवानी ॥
सुनि सुभ कथा उमा हरषानी। बोली अति बिनीत मृदु बानी ॥
धन्य धन्य मैं धन्य पुरारी। सुनेउँ राम गुन भव भय हारी ॥
दो. तुम्हरी कृपाँ कृपायतन अब कृतकृत्य न मोह।
जानेउँ राम प्रताप प्रभु चिदानंद संदोह ॥ ५२(क) ॥
नाथ तवानन ससि स्रवत कथा सुधा रघुबीर।
श्रवन पुटन्हि मन पान करि नहिं अघात मतिधीर ॥ ५२(ख) ॥
राम चरित जे सुनत अघाहीं। रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं ॥
जीवनमुक्त महामुनि जेऊ। हरि गुन सुनहीं निरंतर तेऊ ॥
भव सागर चह पार जो पावा। राम कथा ता कहँ दृढ़ नावा ॥
बिषइन्ह कहँ पुनि हरि गुन ग्रामा। श्रवन सुखद अरु मन अभिरामा ॥
श्रवनवंत अस को जग माहीं। जाहि न रघुपति चरित सोहाहीं ॥
ते जड़ जीव निजात्मक घाती। जिन्हहि न रघुपति कथा सोहाती ॥
हरिचरित्र मानस तुम्ह गावा। सुनि मैं नाथ अमिति सुख पावा ॥
तुम्ह जो कही यह कथा सुहाई। कागभसुंडि गरुड़ प्रति गाई ॥
दो. बिरति ग्यान बिग्यान दृढ़ राम चरन अति नेह।
बायस तन रघुपति भगति मोहि परम संदेह ॥ ५३ ॥
नर सहस्र महँ सुनहु पुरारी। कोउ एक होइ धर्म ब्रतधारी ॥
धर्मसील कोटिक महँ कोई। बिषय बिमुख बिराग रत होई ॥
कोटि बिरक्त मध्य श्रुति कहई। सम्यक ग्यान सकृत कोउ लहई ॥
ग्यानवंत कोटिक महँ कोऊ। जीवनमुक्त सकृत जग सोऊ ॥
तिन्ह सहस्र महुँ सब सुख खानी। दुर्लभ ब्रह्मलीन बिग्यानी ॥
धर्मसील बिरक्त अरु ग्यानी। जीवनमुक्त ब्रह्मपर प्रानी ॥
सब ते सो दुर्लभ सुरराया। राम भगति रत गत मद माया ॥
सो हरिभगति काग किमि पाई। बिस्वनाथ मोहि कहहु बुझाई ॥
दो. राम परायन ग्यान रत गुनागार मति धीर।
नाथ कहहु केहि कारन पायउ काक सरीर ॥ ५४ ॥
यह प्रभु चरित पवित्र सुहावा। कहहु कृपाल काग कहँ पावा ॥
तुम्ह केहि भाँति सुना मदनारी। कहहु मोहि अति कौतुक भारी ॥
गरुड़ महाग्यानी गुन रासी। हरि सेवक अति निकट निवासी ॥
तेहिं केहि हेतु काग सन जाई। सुनी कथा मुनि निकर बिहाई ॥
कहहु कवन बिधि भा संबादा। दोउ हरिभगत काग उरगादा ॥
गौरि गिरा सुनि सरल सुहाई। बोले सिव सादर सुख पाई ॥
धन्य सती पावन मति तोरी। रघुपति चरन प्रीति नहिं थोरी ॥
सुनहु परम पुनीत इतिहासा। जो सुनि सकल लोक भ्रम नासा ॥
उपजइ राम चरन बिस्वासा। भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा ॥
दो. ऐसिअ प्रस्न बिहंगपति कीन्ह काग सन जाइ।
सो सब सादर कहिहउँ सुनहु उमा मन लाइ ॥ ५५ ॥
मैं जिमि कथा सुनी भव मोचनि। सो प्रसंग सुनु सुमुखि सुलोचनि ॥
प्रथम दच्छ गृह तव अवतारा। सती नाम तब रहा तुम्हारा ॥
दच्छ जग्य तब भा अपमाना। तुम्ह अति क्रोध तजे तब प्राना ॥
मम अनुचरन्ह कीन्ह मख भंगा। जानहु तुम्ह सो सकल प्रसंगा ॥
तब अति सोच भयउ मन मोरें। दुखी भयउँ बियोग प्रिय तोरें ॥
सुंदर बन गिरि सरित तड़ागा। कौतुक देखत फिरउँ बेरागा ॥
गिरि सुमेर उत्तर दिसि दूरी। नील सैल एक सुन्दर भूरी ॥
तासु कनकमय सिखर सुहाए। चारि चारु मोरे मन भाए ॥
तिन्ह पर एक एक बिटप बिसाला। बट पीपर पाकरी रसाला ॥
सैलोपरि सर सुंदर सोहा। मनि सोपान देखि मन मोहा ॥
दो. -सीतल अमल मधुर जल जलज बिपुल बहुरंग।
कूजत कल रव हंस गन गुंजत मजुंल भृंग ॥ ५६ ॥
तेहिं गिरि रुचिर बसइ खग सोई। तासु नास कल्पांत न होई ॥
माया कृत गुन दोष अनेका। मोह मनोज आदि अबिबेका ॥
रहे ब्यापि समस्त जग माहीं। तेहि गिरि निकट कबहुँ नहिं जाहीं ॥
तहँ बसि हरिहि भजइ जिमि कागा। सो सुनु उमा सहित अनुरागा ॥
पीपर तरु तर ध्यान सो धरई। जाप जग्य पाकरि तर करई ॥
आँब छाहँ कर मानस पूजा। तजि हरि भजनु काजु नहिं दूजा ॥
बर तर कह हरि कथा प्रसंगा। आवहिं सुनहिं अनेक बिहंगा ॥
राम चरित बिचीत्र बिधि नाना। प्रेम सहित कर सादर गाना ॥
सुनहिं सकल मति बिमल मराला। बसहिं निरंतर जे तेहिं ताला ॥
जब मैं जाइ सो कौतुक देखा। उर उपजा आनंद बिसेषा ॥
दो. तब कछु काल मराल तनु धरि तहँ कीन्ह निवास।
सादर सुनि रघुपति गुन पुनि आयउँ कैलास ॥ ५७ ॥
गिरिजा कहेउँ सो सब इतिहासा। मैं जेहि समय गयउँ खग पासा ॥
अब सो कथा सुनहु जेही हेतू। गयउ काग पहिं खग कुल केतू ॥
जब रघुनाथ कीन्हि रन क्रीड़ा। समुझत चरित होति मोहि ब्रीड़ा ॥
इंद्रजीत कर आपु बँधायो। तब नारद मुनि गरुड़ पठायो ॥
बंधन काटि गयो उरगादा। उपजा हृदयँ प्रचंड बिषादा ॥
प्रभु बंधन समुझत बहु भाँती। करत बिचार उरग आराती ॥
ब्यापक ब्रह्म बिरज बागीसा। माया मोह पार परमीसा ॥
सो अवतार सुनेउँ जग माहीं। देखेउँ सो प्रभाव कछु नाहीं ॥
दो. -भव बंधन ते छूटहिं नर जपि जा कर नाम।
खर्च निसाचर बाँधेउ नागपास सोइ राम ॥ ५८ ॥
नाना भाँति मनहि समुझावा। प्रगट न ग्यान हृदयँ भ्रम छावा ॥
खेद खिन्न मन तर्क बढ़ाई। भयउ मोहबस तुम्हरिहिं नाई ॥
ब्याकुल गयउ देवरिषि पाहीं। कहेसि जो संसय निज मन माहीं ॥
सुनि नारदहि लागि अति दाया। सुनु खग प्रबल राम कै माया ॥
जो ग्यानिन्ह कर चित अपहरई। बरिआई बिमोह मन करई ॥
जेहिं बहु बार नचावा मोही। सोइ ब्यापी बिहंगपति तोही ॥
महामोह उपजा उर तोरें। मिटिहि न बेगि कहें खग मोरें ॥
चतुरानन पहिं जाहु खगेसा। सोइ करेहु जेहि होइ निदेसा ॥
दो. अस कहि चले देवरिषि करत राम गुन गान।
हरि माया बल बरनत पुनि पुनि परम सुजान ॥ ५९ ॥
तब खगपति बिरंचि पहिं गयऊ। निज संदेह सुनावत भयऊ ॥
सुनि बिरंचि रामहि सिरु नावा। समुझि प्रताप प्रेम अति छावा ॥
मन महुँ करइ बिचार बिधाता। माया बस कबि कोबिद ग्याता ॥
हरि माया कर अमिति प्रभावा। बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा ॥
अग जगमय जग मम उपराजा। नहिं आचरज मोह खगराजा ॥
तब बोले बिधि गिरा सुहाई। जान महेस राम प्रभुताई ॥
बैनतेय संकर पहिं जाहू। तात अनत पूछहु जनि काहू ॥
तहँ होइहि तव संसय हानी। चलेउ बिहंग सुनत बिधि बानी ॥
दो. परमातुर बिहंगपति आयउ तब मो पास।
जात रहेउँ कुबेर गृह रहिहु उमा कैलास ॥ ६० ॥
तेहिं मम पद सादर सिरु नावा। पुनि आपन संदेह सुनावा ॥
सुनि ता करि बिनती मृदु बानी। परेम सहित मैं कहेउँ भवानी ॥
मिलेहु गरुड़ मारग महँ मोही। कवन भाँति समुझावौं तोही ॥
तबहि होइ सब संसय भंगा। जब बहु काल करिअ सतसंगा ॥
सुनिअ तहाँ हरि कथा सुहाई। नाना भाँति मुनिन्ह जो गाई ॥
जेहि महुँ आदि मध्य अवसाना। प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना ॥
नित हरि कथा होत जहँ भाई। पठवउँ तहाँ सुनहि तुम्ह जाई ॥
जाइहि सुनत सकल संदेहा। राम चरन होइहि अति नेहा ॥
दो. बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग ॥ ६१ ॥
मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किएँ जोग तप ग्यान बिरागा ॥
उत्तर दिसि सुंदर गिरि नीला। तहँ रह काकभुसुंडि सुसीला ॥
राम भगति पथ परम प्रबीना। ग्यानी गुन गृह बहु कालीना ॥
राम कथा सो कहइ निरंतर। सादर सुनहिं बिबिध बिहंगबर ॥
जाइ सुनहु तहँ हरि गुन भूरी। होइहि मोह जनित दुख दूरी ॥
मैं जब तेहि सब कहा बुझाई। चलेउ हरषि मम पद सिरु नाई ॥
ताते उमा न मैं समुझावा। रघुपति कृपाँ मरमु मैं पावा ॥
होइहि कीन्ह कबहुँ अभिमाना। सो खौवै चह कृपानिधाना ॥
कछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा। समुझइ खग खगही कै भाषा ॥
प्रभु माया बलवंत भवानी। जाहि न मोह कवन अस ग्यानी ॥
दो. ग्यानि भगत सिरोमनि त्रिभुवनपति कर जान।
ताहि मोह माया नर पावँर करहिं गुमान ॥ ६२(क) ॥
मासपारायण, अट्ठाईसवाँ विश्राम
सिव बिरंचि कहुँ मोहइ को है बपुरा आन।
अस जियँ जानि भजहिं मुनि माया पति भगवान ॥ ६२(ख) ॥
गयउ गरुड़ जहँ बसइ भुसुंडा। मति अकुंठ हरि भगति अखंडा ॥
देखि सैल प्रसन्न मन भयऊ। माया मोह सोच सब गयऊ ॥
करि तड़ाग मज्जन जलपाना। बट तर गयउ हृदयँ हरषाना ॥
बृद्ध बृद्ध बिहंग तहँ आए। सुनै राम के चरित सुहाए ॥
कथा अरंभ करै सोइ चाहा। तेही समय गयउ खगनाहा ॥
आवत देखि सकल खगराजा। हरषेउ बायस सहित समाजा ॥
अति आदर खगपति कर कीन्हा। स्वागत पूछि सुआसन दीन्हा ॥
करि पूजा समेत अनुरागा। मधुर बचन तब बोलेउ कागा ॥
दो. नाथ कृतारथ भयउँ मैं तव दरसन खगराज।
आयसु देहु सो करौं अब प्रभु आयहु केहि काज ॥ ६३(क) ॥
सदा कृतारथ रूप तुम्ह कह मृदु बचन खगेस।
जेहि कै अस्तुति सादर निज मुख कीन्हि महेस ॥ ६३(ख) ॥
सुनहु तात जेहि कारन आयउँ। सो सब भयउ दरस तव पायउँ ॥
देखि परम पावन तव आश्रम। गयउ मोह संसय नाना भ्रम ॥
अब श्रीराम कथा अति पावनि। सदा सुखद दुख पुंज नसावनि ॥
सादर तात सुनावहु मोही। बार बार बिनवउँ प्रभु तोही ॥
सुनत गरुड़ कै गिरा बिनीता। सरल सुप्रेम सुखद सुपुनीता ॥
भयउ तासु मन परम उछाहा। लाग कहै रघुपति गुन गाहा ॥
प्रथमहिं अति अनुराग भवानी। रामचरित सर कहेसि बखानी ॥
पुनि नारद कर मोह अपारा। कहेसि बहुरि रावन अवतारा ॥
प्रभु अवतार कथा पुनि गाई। तब सिसु चरित कहेसि मन लाई ॥
दो. बालचरित कहिं बिबिध बिधि मन महँ परम उछाह।
रिषि आगवन कहेसि पुनि श्री रघुबीर बिबाह ॥ ६४ ॥
बहुरि राम अभिषेक प्रसंगा। पुनि नृप बचन राज रस भंगा ॥
पुरबासिंह कर बिरह बिषादा। कहेसि राम लछिमन संबादा ॥
बिपिन गवन केवट अनुरागा। सुरसरि उतरि निवास प्रयागा ॥
बालमीक प्रभु मिलन बखाना। चित्रकूट जिमि बसे भगवाना ॥
सचिवागवन नगर नृप मरना। भरतागवन प्रेम बहु बरना ॥
करि नृप क्रिया संग पुरबासी। भरत गए जहँ प्रभु सुख रासी ॥
पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए। लै पादुका अवधपुर आए ॥
भरत रहनि सुरपति सुत करनी। प्रभु अरु अत्रि भेंट पुनि बरनी ॥
दो. कहि बिराध बध जेहि बिधि देह तजी सरभंग ॥
बरनि सुतीछन प्रीति पुनि प्रभु अगस्ति सतसंग ॥ ६५ ॥
कहि दंडक बन पावनताई। गीध मइत्री पुनि तेहिं गाई ॥
पुनि प्रभु पंचवटीं कृत बासा। भंजी सकल मुनिन्ह की त्रासा ॥
पुनि लछिमन उपदेस अनूपा। सूपनखा जिमि कीन्हि कुरूपा ॥
खर दूषन बध बहुरि बखाना। जिमि सब मरमु दसानन जाना ॥
दसकंधर मारीच बतकहीं। जेहि बिधि भई सो सब तेहिं कही ॥
पुनि माया सीता कर हरना। श्रीरघुबीर बिरह कछु बरना ॥
पुनि प्रभु गीध क्रिया जिमि कीन्ही। बधि कबंध सबरिहि गति दीन्ही ॥
बहुरि बिरह बरनत रघुबीरा। जेहि बिधि गए सरोबर तीरा ॥
दो. प्रभु नारद संबाद कहि मारुति मिलन प्रसंग।
पुनि सुग्रीव मिताई बालि प्रान कर भंग ॥ ६६((क) ॥
कपिहि तिलक करि प्रभु कृत सैल प्रबरषन बास।
बरनन बर्षा सरद अरु राम रोष कपि त्रास ॥ ६६(ख) ॥
जेहि बिधि कपिपति कीस पठाए। सीता खोज सकल दिसि धाए ॥
बिबर प्रबेस कीन्ह जेहि भाँती। कपिन्ह बहोरि मिला संपाती ॥
सुनि सब कथा समीरकुमारा। नाघत भयउ पयोधि अपारा ॥
लंकाँ कपि प्रबेस जिमि कीन्हा। पुनि सीतहि धीरजु जिमि दीन्हा ॥
बन उजारि रावनहि प्रबोधी। पुर दहि नाघेउ बहुरि पयोधी ॥
आए कपि सब जहँ रघुराई। बैदेही कि कुसल सुनाई ॥
सेन समेति जथा रघुबीरा। उतरे जाइ बारिनिधि तीरा ॥
मिला बिभीषन जेहि बिधि आई। सागर निग्रह कथा सुनाई ॥
दो. सेतु बाँधि कपि सेन जिमि उतरी सागर पार।
गयउ बसीठी बीरबर जेहि बिधि बालिकुमार ॥ ६७(क) ॥
निसिचर कीस लराई बरनिसि बिबिध प्रकार।
कुंभकरन घननाद कर बल पौरुष संघार ॥ ६७(ख) ॥
निसिचर निकर मरन बिधि नाना। रघुपति रावन समर बखाना ॥
रावन बध मंदोदरि सोका। राज बिभीषण देव असोका ॥
सीता रघुपति मिलन बहोरी। सुरन्ह कीन्ह अस्तुति कर जोरी ॥
पुनि पुष्पक चढ़ि कपिन्ह समेता। अवध चले प्रभु कृपा निकेता ॥
जेहि बिधि राम नगर निज आए। बायस बिसद चरित सब गाए ॥
कहेसि बहोरि राम अभिषैका। पुर बरनत नृपनीति अनेका ॥
कथा समस्त भुसुंड बखानी। जो मैं तुम्ह सन कही भवानी ॥
सुनि सब राम कथा खगनाहा। कहत बचन मन परम उछाहा ॥
सो. गयउ मोर संदेह सुनेउँ सकल रघुपति चरित।
भयउ राम पद नेह तव प्रसाद बायस तिलक ॥ ६८(क) ॥
मोहि भयउ अति मोह प्रभु बंधन रन महुँ निरखि।
चिदानंद संदोह राम बिकल कारन कवन। ६८(ख) ॥
देखि चरित अति नर अनुसारी। भयउ हृदयँ मम संसय भारी ॥
सोइ भ्रम अब हित करि मैं माना। कीन्ह अनुग्रह कृपानिधाना ॥
जो अति आतप ब्याकुल होई। तरु छाया सुख जानइ सोई ॥
जौं नहिं होत मोह अति मोही। मिलतेउँ तात कवन बिधि तोही ॥
सुनतेउँ किमि हरि कथा सुहाई। अति बिचित्र बहु बिधि तुम्ह गाई ॥
निगमागम पुरान मत एहा। कहहिं सिद्ध मुनि नहिं संदेहा ॥
संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही। चितवहिं राम कृपा करि जेही ॥
राम कृपाँ तव दरसन भयऊ। तव प्रसाद सब संसय गयऊ ॥
दो. सुनि बिहंगपति बानी सहित बिनय अनुराग।
पुलक गात लोचन सजल मन हरषेउ अति काग ॥ ६९(क) ॥
श्रोता सुमति सुसील सुचि कथा रसिक हरि दास।
पाइ उमा अति गोप्यमपि सज्जन करहिं प्रकास ॥ ६९(ख) ॥
बोलेउ काकभसुंड बहोरी। नभग नाथ पर प्रीति न थोरी ॥
सब बिधि नाथ पूज्य तुम्ह मेरे। कृपापात्र रघुनायक केरे ॥
तुम्हहि न संसय मोह न माया। मो पर नाथ कीन्ह तुम्ह दाया ॥
पठइ मोह मिस खगपति तोही। रघुपति दीन्हि बड़ाई मोही ॥
तुम्ह निज मोह कही खग साईं। सो नहिं कछु आचरज गोसाईं ॥
नारद भव बिरंचि सनकादी। जे मुनिनायक आतमबादी ॥
मोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव न जेही ॥
तृस्नाँ केहि न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा ॥
दो. ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार।
केहि कै लौभ बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार ॥ ७०(क) ॥
श्री मद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि।
मृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि ॥ ७०(ख) ॥
गुन कृत सन्यपात नहिं केही। कोउ न मान मद तजेउ निबेही ॥
जोबन ज्वर केहि नहिं बलकावा। ममता केहि कर जस न नसावा ॥
मच्छर काहि कलंक न लावा। काहि न सोक समीर डोलावा ॥
चिंता साँपिनि को नहिं खाया। को जग जाहि न ब्यापी माया ॥
कीट मनोरथ दारु सरीरा। जेहि न लाग घुन को अस धीरा ॥
सुत बित लोक ईषना तीनी। केहि के मति इन्ह कृत न मलीनी ॥
यह सब माया कर परिवारा। प्रबल अमिति को बरनै पारा ॥
सिव चतुरानन जाहि डेराहीं। अपर जीव केहि लेखे माहीं ॥
दो. ब्यापि रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड ॥
सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाषंड ॥ ७१(क) ॥
सो दासी रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि।
छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोपि ॥ ७१(ख) ॥
जो माया सब जगहि नचावा। जासु चरित लखि काहुँ न पावा ॥
सोइ प्रभु भ्रू बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा ॥
सोइ सच्चिदानंद घन रामा। अज बिग्यान रूपो बल धामा ॥
ब्यापक ब्याप्य अखंड अनंता। अखिल अमोघसक्ति भगवंता ॥
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सबदरसी अनवद्य अजीता ॥
निर्मम निराकार निरमोहा। नित्य निरंजन सुख संदोहा ॥
प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी। ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ॥
इहाँ मोह कर कारन नाहीं। रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ॥
दो. भगत हेतु भगवान प्रभु राम धरेउ तनु भूप।
किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनुरूप ॥ ७२(क) ॥
जथा अनेक बेष धरि नृत्य करइ नट कोइ।
सोइ सोइ भाव देखावइ आपुन होइ न सोइ ॥ ७२(ख) ॥
असि रघुपति लीला उरगारी। दनुज बिमोहनि जन सुखकारी ॥
जे मति मलिन बिषयबस कामी। प्रभु मोह धरहिं इमि स्वामी ॥
नयन दोष जा कहँ जब होई। पीत बरन ससि कहुँ कह सोई ॥
जब जेहि दिसि भ्रम होइ खगेसा। सो कह पच्छिम उयउ दिनेसा ॥
नौकारूढ़ चलत जग देखा। अचल मोह बस आपुहि लेखा ॥
बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादीं। कहहिं परस्पर मिथ्याबादी ॥
हरि बिषइक अस मोह बिहंगा। सपनेहुँ नहिं अग्यान प्रसंगा ॥
मायाबस मतिमंद अभागी। हृदयँ जमनिका बहुबिधि लागी ॥
ते सठ हठ बस संसय करहीं। निज अग्यान राम पर धरहीं ॥
दो. काम क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त दुखरूप।
ते किमि जानहिं रघुपतिहि मूढ़ परे तम कूप ॥ ७३(क) ॥
निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोइ।
सुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होइ ॥ ७३(ख) ॥
सुनु खगेस रघुपति प्रभुताई। कहउँ जथामति कथा सुहाई ॥
जेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही। सोउ सब कथा सुनावउँ तोही ॥
राम कृपा भाजन तुम्ह ताता। हरि गुन प्रीति मोहि सुखदाता ॥
ताते नहिं कछु तुम्हहिं दुरावउँ। परम रहस्य मनोहर गावउँ ॥
सुनहु राम कर सहज सुभाऊ। जन अभिमान न राखहिं काऊ ॥
संसृत मूल सूलप्रद नाना। सकल सोक दायक अभिमाना ॥
ताते करहिं कृपानिधि दूरी। सेवक पर ममता अति भूरी ॥
जिमि सिसु तन ब्रन होइ गोसाई। मातु चिराव कठिन की नाईं ॥
दो. जदपि प्रथम दुख पावइ रोवइ बाल अधीर।
ब्याधि नास हित जननी गनति न सो सिसु पीर ॥ ७४(क) ॥
तिमि रघुपति निज दासकर हरहिं मान हित लागि।
तुलसिदास ऐसे प्रभुहि कस न भजहु भ्रम त्यागि ॥ ७४(ख) ॥
राम कृपा आपनि जड़ताई। कहउँ खगेस सुनहु मन लाई ॥
जब जब राम मनुज तनु धरहीं। भक्त हेतु लील बहु करहीं ॥
तब तब अवधपुरी मैं ज़ाऊँ। बालचरित बिलोकि हरषाऊँ ॥
जन्म महोत्सव देखउँ जाई। बरष पाँच तहँ रहउँ लोभाई ॥
इष्टदेव मम बालक रामा। सोभा बपुष कोटि सत कामा ॥
निज प्रभु बदन निहारि निहारी। लोचन सुफल करउँ उरगारी ॥
लघु बायस बपु धरि हरि संगा। देखउँ बालचरित बहुरंगा ॥
दो. लरिकाईं जहँ जहँ फिरहिं तहँ तहँ संग उड़ाउँ।
जूठनि परइ अजिर महँ सो उठाइ करि खाउँ ॥ ७५(क) ॥
एक बार अतिसय सब चरित किए रघुबीर।
सुमिरत प्रभु लीला सोइ पुलकित भयउ सरीर ॥ ७५(ख) ॥
कहइ भसुंड सुनहु खगनायक। रामचरित सेवक सुखदायक ॥
नृपमंदिर सुंदर सब भाँती। खचित कनक मनि नाना जाती ॥
बरनि न जाइ रुचिर अँगनाई। जहँ खेलहिं नित चारिउ भाई ॥
बालबिनोद करत रघुराई। बिचरत अजिर जननि सुखदाई ॥
मरकत मृदुल कलेवर स्यामा। अंग अंग प्रति छबि बहु कामा ॥
नव राजीव अरुन मृदु चरना। पदज रुचिर नख ससि दुति हरना ॥
ललित अंक कुलिसादिक चारी। नूपुर चारू मधुर रवकारी ॥
चारु पुरट मनि रचित बनाई। कटि किंकिन कल मुखर सुहाई ॥
दो. रेखा त्रय सुन्दर उदर नाभी रुचिर गँभीर।
उर आयत भ्राजत बिबिध बाल बिभूषन चीर ॥ ७६ ॥
अरुन पानि नख करज मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर ॥
कंध बाल केहरि दर ग्रीवा। चारु चिबुक आनन छबि सींवा ॥
कलबल बचन अधर अरुनारे। दुइ दुइ दसन बिसद बर बारे ॥
ललित कपोल मनोहर नासा। सकल सुखद ससि कर सम हासा ॥
नील कंज लोचन भव मोचन। भ्राजत भाल तिलक गोरोचन ॥
बिकट भृकुटि सम श्रवन सुहाए। कुंचित कच मेचक छबि छाए ॥
पीत झीनि झगुली तन सोही। किलकनि चितवनि भावति मोही ॥
रूप रासि नृप अजिर बिहारी। नाचहिं निज प्रतिबिंब निहारी ॥
मोहि सन करहीं बिबिध बिधि क्रीड़ा। बरनत मोहि होति अति ब्रीड़ा ॥
किलकत मोहि धरन जब धावहिं। चलउँ भागि तब पूप देखावहिं ॥
दो. आवत निकट हँसहिं प्रभु भाजत रुदन कराहिं।
जाउँ समीप गहन पद फिरि फिरि चितइ पराहिं ॥ ७७(क) ॥
प्राकृत सिसु इव लीला देखि भयउ मोहि मोह।
कवन चरित्र करत प्रभु चिदानंद संदोह ॥ ७७(ख) ॥
एतना मन आनत खगराया। रघुपति प्रेरित ब्यापी माया ॥
सो माया न दुखद मोहि काहीं। आन जीव इव संसृत नाहीं ॥
नाथ इहाँ कछु कारन आना। सुनहु सो सावधान हरिजाना ॥
ग्यान अखंड एक सीताबर। माया बस्य जीव सचराचर ॥
जौं सब कें रह ग्यान एकरस। ईस्वर जीवहि भेद कहहु कस ॥
माया बस्य जीव अभिमानी। ईस बस्य माया गुनखानी ॥
परबस जीव स्वबस भगवंता। जीव अनेक एक श्रीकंता ॥
मुधा भेद जद्यपि कृत माया। बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया ॥
दो. रामचंद्र के भजन बिनु जो चह पद निर्बान।
ग्यानवंत अपि सो नर पसु बिनु पूँछ बिषान ॥ ७८(क) ॥
राकापति षोड़स उअहिं तारागन समुदाइ ॥
सकल गिरिन्ह दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ ॥ ७८(ख) ॥
ऐसेहिं हरि बिनु भजन खगेसा। मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा ॥
हरि सेवकहि न ब्याप अबिद्या। प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या ॥
ताते नास न होइ दास कर। भेद भगति भाढ़इ बिहंगबर ॥
भ्रम ते चकित राम मोहि देखा। बिहँसे सो सुनु चरित बिसेषा ॥
तेहि कौतुक कर मरमु न काहूँ। जाना अनुज न मातु पिताहूँ ॥
जानु पानि धाए मोहि धरना। स्यामल गात अरुन कर चरना ॥
तब मैं भागि चलेउँ उरगामी। राम गहन कहँ भुजा पसारी ॥
जिमि जिमि दूरि उड़ाउँ अकासा। तहँ भुज हरि देखउँ निज पासा ॥
दो. ब्रह्मलोक लगि गयउँ मैं चितयउँ पाछ उड़ात।
जुग अंगुल कर बीच सब राम भुजहि मोहि तात ॥ ७९(क) ॥
सप्ताबरन भेद करि जहाँ लगें गति मोरि।
गयउँ तहाँ प्रभु भुज निरखि ब्याकुल भयउँ बहोरि ॥ ७९(ख) ॥
मूदेउँ नयन त्रसित जब भयउँ। पुनि चितवत कोसलपुर गयऊँ ॥
मोहि बिलोकि राम मुसुकाहीं। बिहँसत तुरत गयउँ मुख माहीं ॥
उदर माझ सुनु अंडज राया। देखेउँ बहु ब्रह्मांड निकाया ॥
अति बिचित्र तहँ लोक अनेका। रचना अधिक एक ते एका ॥
कोटिन्ह चतुरानन गौरीसा। अगनित उडगन रबि रजनीसा ॥
अगनित लोकपाल जम काला। अगनित भूधर भूमि बिसाला ॥
सागर सरि सर बिपिन अपारा। नाना भाँति सृष्टि बिस्तारा ॥
सुर मुनि सिद्ध नाग नर किंनर। चारि प्रकार जीव सचराचर ॥
दो. जो नहिं देखा नहिं सुना जो मनहूँ न समाइ।
सो सब अद्भुत देखेउँ बरनि कवनि बिधि जाइ ॥ ८०(क) ॥
एक एक ब्रह्मांड महुँ रहउँ बरष सत एक।
एहि बिधि देखत फिरउँ मैं अंड कटाह अनेक ॥ ८०(ख) ॥
एहि बिधि देखत फिरउँ मैं अंड कटाह अनेक ॥ ८०(ख) ॥
लोक लोक प्रति भिन्न बिधाता। भिन्न बिष्नु सिव मनु दिसित्राता ॥
नर गंधर्ब भूत बेताला। किंनर निसिचर पसु खग ब्याला ॥
देव दनुज गन नाना जाती। सकल जीव तहँ आनहि भाँती ॥
महि सरि सागर सर गिरि नाना। सब प्रपंच तहँ आनइ आना ॥
अंडकोस प्रति प्रति निज रुपा। देखेउँ जिनस अनेक अनूपा ॥
अवधपुरी प्रति भुवन निनारी। सरजू भिन्न भिन्न नर नारी ॥
दसरथ कौसल्या सुनु ताता। बिबिध रूप भरतादिक भ्राता ॥
प्रति ब्रह्मांड राम अवतारा। देखउँ बालबिनोद अपारा ॥
दो. भिन्न भिन्न मै दीख सबु अति बिचित्र हरिजान।
अगनित भुवन फिरेउँ प्रभु राम न देखेउँ आन ॥ ८१(क) ॥
सोइ सिसुपन सोइ सोभा सोइ कृपाल रघुबीर।
भुवन भुवन देखत फिरउँ प्रेरित मोह समीर ॥ ८१(ख)
भ्रमत मोहि ब्रह्मांड अनेका। बीते मनहुँ कल्प सत एका ॥
फिरत फिरत निज आश्रम आयउँ। तहँ पुनि रहि कछु काल गवाँयउँ ॥
निज प्रभु जन्म अवध सुनि पायउँ। निर्भर प्रेम हरषि उठि धायउँ ॥
देखउँ जन्म महोत्सव जाई। जेहि बिधि प्रथम कहा मैं गाई ॥
राम उदर देखेउँ जग नाना। देखत बनइ न जाइ बखाना ॥
तहँ पुनि देखेउँ राम सुजाना। माया पति कृपाल भगवाना ॥
करउँ बिचार बहोरि बहोरी। मोह कलिल ब्यापित मति मोरी ॥
उभय घरी महँ मैं सब देखा। भयउँ भ्रमित मन मोह बिसेषा ॥
दो. देखि कृपाल बिकल मोहि बिहँसे तब रघुबीर।
बिहँसतहीं मुख बाहेर आयउँ सुनु मतिधीर ॥ ८२(क) ॥
सोइ लरिकाई मो सन करन लगे पुनि राम।
कोटि भाँति समुझावउँ मनु न लहइ बिश्राम ॥ ८२(ख) ॥
देखि चरित यह सो प्रभुताई। समुझत देह दसा बिसराई ॥
धरनि परेउँ मुख आव न बाता। त्राहि त्राहि आरत जन त्राता ॥
प्रेमाकुल प्रभु मोहि बिलोकी। निज माया प्रभुता तब रोकी ॥
कर सरोज प्रभु मम सिर धरेऊ। दीनदयाल सकल दुख हरेऊ ॥
कीन्ह राम मोहि बिगत बिमोहा। सेवक सुखद कृपा संदोहा ॥
प्रभुता प्रथम बिचारि बिचारी। मन महँ होइ हरष अति भारी ॥
भगत बछलता प्रभु कै देखी। उपजी मम उर प्रीति बिसेषी ॥
सजल नयन पुलकित कर जोरी। कीन्हिउँ बहु बिधि बिनय बहोरी ॥
दो. सुनि सप्रेम मम बानी देखि दीन निज दास।
बचन सुखद गंभीर मृदु बोले रमानिवास ॥ ८३(क) ॥
काकभसुंडि मागु बर अति प्रसन्न मोहि जानि।
अनिमादिक सिधि अपर रिधि मोच्छ सकल सुख खानि ॥ ८३(ख) ॥
ग्यान बिबेक बिरति बिग्याना। मुनि दुर्लभ गुन जे जग नाना ॥
आजु देउँ सब संसय नाहीं। मागु जो तोहि भाव मन माहीं ॥
सुनि प्रभु बचन अधिक अनुरागेउँ। मन अनुमान करन तब लागेऊँ ॥
प्रभु कह देन सकल सुख सही। भगति आपनी देन न कही ॥
भगति हीन गुन सब सुख ऐसे। लवन बिना बहु बिंजन जैसे ॥
भजन हीन सुख कवने काजा। अस बिचारि बोलेउँ खगराजा ॥
जौं प्रभु होइ प्रसन्न बर देहू। मो पर करहु कृपा अरु नेहू ॥
मन भावत बर मागउँ स्वामी। तुम्ह उदार उर अंतरजामी ॥
दो. अबिरल भगति बिसुध्द तव श्रुति पुरान जो गाव।
जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव ॥ ८४(क) ॥
भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपा सिंधु सुख धाम।
सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम ॥ ८४(ख) ॥
एवमस्तु कहि रघुकुलनायक। बोले बचन परम सुखदायक ॥
सुनु बायस तैं सहज सयाना। काहे न मागसि अस बरदाना ॥
सब सुख खानि भगति तैं मागी। नहिं जग कोउ तोहि सम बड़भागी ॥
जो मुनि कोटि जतन नहिं लहहीं। जे जप जोग अनल तन दहहीं ॥
रीझेउँ देखि तोरि चतुराई। मागेहु भगति मोहि अति भाई ॥
सुनु बिहंग प्रसाद अब मोरें। सब सुभ गुन बसिहहिं उर तोरें ॥
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। जोग चरित्र रहस्य बिभागा ॥
जानब तैं सबही कर भेदा। मम प्रसाद नहिं साधन खेदा ॥
दों.माया संभव भ्रम सब अब न ब्यापिहहिं तोहि।
जानेसु ब्रह्म अनादि अज अगुन गुनाकर मोहि ॥ ८५(क) ॥
मोहि भगत प्रिय संतत अस बिचारि सुनु काग।
कायँ बचन मन मम पद करेसु अचल अनुराग ॥ ८५(ख) ॥
अब सुनु परम बिमल मम बानी। सत्य सुगम निगमादि बखानी ॥
निज सिद्धांत सुनावउँ तोही। सुनु मन धरु सब तजि भजु मोही ॥
मम माया संभव संसारा। जीव चराचर बिबिधि प्रकारा ॥
सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए ॥
तिन्ह महँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी। तिन्ह महुँ निगम धरम अनुसारी ॥
तिन्ह महँ प्रिय बिरक्त पुनि ग्यानी। ग्यानिहु ते अति प्रिय बिग्यानी ॥
तिन्ह ते पुनि मोहि प्रिय निज दासा। जेहि गति मोरि न दूसरि आसा ॥
पुनि पुनि सत्य कहउँ तोहि पाहीं। मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीं ॥
भगति हीन बिरंचि किन होई। सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई ॥
भगतिवंत अति नीचउ प्रानी। मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी ॥
दो. सुचि सुसील सेवक सुमति प्रिय कहु काहि न लाग।
श्रुति पुरान कह नीति असि सावधान सुनु काग ॥ ८६ ॥
एक पिता के बिपुल कुमारा। होहिं पृथक गुन सील अचारा ॥
कोउ पंडिंत कोउ तापस ग्याता। कोउ धनवंत सूर कोउ दाता ॥
कोउ सर्बग्य धर्मरत कोई। सब पर पितहि प्रीति सम होई ॥
कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा। सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा ॥
सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना। जद्यपि सो सब भाँति अयाना ॥
एहि बिधि जीव चराचर जेते। त्रिजग देव नर असुर समेते ॥
अखिल बिस्व यह मोर उपाया। सब पर मोहि बराबरि दाया ॥
तिन्ह महँ जो परिहरि मद माया। भजै मोहि मन बच अरू काया ॥
दो. पुरूष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ।
सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ ॥ ८७(क) ॥
सो. सत्य कहउँ खग तोहि सुचि सेवक मम प्रानप्रिय।
अस बिचारि भजु मोहि परिहरि आस भरोस सब ॥ ८७(ख) ॥
कबहूँ काल न ब्यापिहि तोही। सुमिरेसु भजेसु निरंतर मोही ॥
प्रभु बचनामृत सुनि न अघाऊँ। तनु पुलकित मन अति हरषाऊँ ॥
सो सुख जानइ मन अरु काना। नहिं रसना पहिं जाइ बखाना ॥
प्रभु सोभा सुख जानहिं नयना। कहि किमि सकहिं तिन्हहि नहिं बयना ॥
बहु बिधि मोहि प्रबोधि सुख देई। लगे करन सिसु कौतुक तेई ॥
सजल नयन कछु मुख करि रूखा। चितइ मातु लागी अति भूखा ॥
देखि मातु आतुर उठि धाई। कहि मृदु बचन लिए उर लाई ॥
गोद राखि कराव पय पाना। रघुपति चरित ललित कर गाना ॥
सो. जेहि सुख लागि पुरारि असुभ बेष कृत सिव सुखद।
अवधपुरी नर नारि तेहि सुख महुँ संतत मगन ॥ ८८(क) ॥
सोइ सुख लवलेस जिन्ह बारक सपनेहुँ लहेउ।
ते नहिं गनहिं खगेस ब्रह्मसुखहि सज्जन सुमति ॥ ८८(ख) ॥
मैं पुनि अवध रहेउँ कछु काला। देखेउँ बालबिनोद रसाला ॥
राम प्रसाद भगति बर पायउँ। प्रभु पद बंदि निजाश्रम आयउँ ॥
तब ते मोहि न ब्यापी माया। जब ते रघुनायक अपनाया ॥
यह सब गुप्त चरित मैं गावा। हरि मायाँ जिमि मोहि नचावा ॥
निज अनुभव अब कहउँ खगेसा। बिनु हरि भजन न जाहि कलेसा ॥
राम कृपा बिनु सुनु खगराई। जानि न जाइ राम प्रभुताई ॥
जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती ॥
प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई ॥
सो. बिनु गुर होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ बिराग बिनु।
गावहिं बेद पुरान सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु ॥ ८९(क) ॥
कोउ बिश्राम कि पाव तात सहज संतोष बिनु।
चलै कि जल बिनु नाव कोटि जतन पचि पचि मरिअ ॥ ८९(ख) ॥
बिनु संतोष न काम नसाहीं। काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं ॥
राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा। थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा ॥
बिनु बिग्यान कि समता आवइ। कोउ अवकास कि नभ बिनु पावइ ॥
श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई। बिनु महि गंध कि पावइ कोई ॥
बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा। जल बिनु रस कि होइ संसारा ॥
सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई। जिमि बिनु तेज न रूप गोसाई ॥
निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा। परस कि होइ बिहीन समीरा ॥
कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा। बिनु हरि भजन न भव भय नासा ॥
दो. बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु ॥ ९०(क) ॥
सो. अस बिचारि मतिधीर तजि कुतर्क संसय सकल।
भजहु राम रघुबीर करुनाकर सुंदर सुखद ॥ ९०(ख) ॥
निज मति सरिस नाथ मैं गाई। प्रभु प्रताप महिमा खगराई ॥
कहेउँ न कछु करि जुगुति बिसेषी। यह सब मैं निज नयनन्हि देखी ॥
महिमा नाम रूप गुन गाथा। सकल अमित अनंत रघुनाथा ॥
निज निज मति मुनि हरि गुन गावहिं। निगम सेष सिव पार न पावहिं ॥
तुम्हहि आदि खग मसक प्रजंता। नभ उड़ाहिं नहिं पावहिं अंता ॥
तिमि रघुपति महिमा अवगाहा। तात कबहुँ कोउ पाव कि थाहा ॥
रामु काम सत कोटि सुभग तन। दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन ॥
सक्र कोटि सत सरिस बिलासा। नभ सत कोटि अमित अवकासा ॥
दो. मरुत कोटि सत बिपुल बल रबि सत कोटि प्रकास।
ससि सत कोटि सुसीतल समन सकल भव त्रास ॥ ९१(क) ॥
काल कोटि सत सरिस अति दुस्तर दुर्ग दुरंत।
धूमकेतु सत कोटि सम दुराधरष भगवंत ॥ ९१(ख) ॥
प्रभु अगाध सत कोटि पताला। समन कोटि सत सरिस कराला ॥
तीरथ अमित कोटि सम पावन। नाम अखिल अघ पूग नसावन ॥
हिमगिरि कोटि अचल रघुबीरा। सिंधु कोटि सत सम गंभीरा ॥
कामधेनु सत कोटि समाना। सकल काम दायक भगवाना ॥
सारद कोटि अमित चतुराई। बिधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई ॥
बिष्नु कोटि सम पालन कर्ता। रुद्र कोटि सत सम संहर्ता ॥
धनद कोटि सत सम धनवाना। माया कोटि प्रपंच निधाना ॥
भार धरन सत कोटि अहीसा। निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा ॥
छं. निरुपम न उपमा आन राम समान रामु निगम कहै।
जिमि कोटि सत खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै ॥
एहि भाँति निज निज मति बिलास मुनिस हरिहि बखानहीं।
प्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सुख मानहीं ॥
दो. रामु अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोइ।
संतन्ह सन जस किछु सुनेउँ तुम्हहि सुनायउँ सोइ ॥ ९२(क) ॥
सो. भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन।
तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीता रवन ॥ ९२(ख) ॥
सुनि भुसुंडि के बचन सुहाए। हरषित खगपति पंख फुलाए ॥
नयन नीर मन अति हरषाना। श्रीरघुपति प्रताप उर आना ॥
पाछिल मोह समुझि पछिताना। ब्रह्म अनादि मनुज करि माना ॥
पुनि पुनि काग चरन सिरु नावा। जानि राम सम प्रेम बढ़ावा ॥
गुर बिनु भव निधि तरइ न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई ॥
संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता। दुखद लहरि कुतर्क बहु ब्राता ॥
तव सरूप गारुड़ि रघुनायक। मोहि जिआयउ जन सुखदायक ॥
तव प्रसाद मम मोह नसाना। राम रहस्य अनूपम जाना ॥
दो. ताहि प्रसंसि बिबिध बिधि सीस नाइ कर जोरि।
बचन बिनीत सप्रेम मृदु बोलेउ गरुड़ बहोरि ॥ ९३(क) ॥
प्रभु अपने अबिबेक ते बूझउँ स्वामी तोहि।
कृपासिंधु सादर कहहु जानि दास निज मोहि ॥ ९३(ख) ॥
तुम्ह सर्बग्य तन्य तम पारा। सुमति सुसील सरल आचारा ॥
ग्यान बिरति बिग्यान निवासा। रघुनायक के तुम्ह प्रिय दासा ॥
कारन कवन देह यह पाई। तात सकल मोहि कहहु बुझाई ॥
राम चरित सर सुंदर स्वामी। पायहु कहाँ कहहु नभगामी ॥
नाथ सुना मैं अस सिव पाहीं। महा प्रलयहुँ नास तव नाहीं ॥
मुधा बचन नहिं ईस्वर कहई। सोउ मोरें मन संसय अहई ॥
अग जग जीव नाग नर देवा। नाथ सकल जगु काल कलेवा ॥
अंड कटाह अमित लय कारी। कालु सदा दुरतिक्रम भारी ॥
सो. तुम्हहि न ब्यापत काल अति कराल कारन कवन।
मोहि सो कहहु कृपाल ग्यान प्रभाव कि जोग बल ॥ ९४(क) ॥
दो. प्रभु तव आश्रम आएँ मोर मोह भ्रम भाग।
कारन कवन सो नाथ सब कहहु सहित अनुराग ॥ ९४(ख) ॥
गरुड़ गिरा सुनि हरषेउ कागा। बोलेउ उमा परम अनुरागा ॥
धन्य धन्य तव मति उरगारी। प्रस्न तुम्हारि मोहि अति प्यारी ॥
सुनि तव प्रस्न सप्रेम सुहाई। बहुत जनम कै सुधि मोहि आई ॥
सब निज कथा कहउँ मैं गाई। तात सुनहु सादर मन लाई ॥
जप तप मख सम दम ब्रत दाना। बिरति बिबेक जोग बिग्याना ॥
सब कर फल रघुपति पद प्रेमा। तेहि बिनु कोउ न पावइ छेमा ॥
एहि तन राम भगति मैं पाई। ताते मोहि ममता अधिकाई ॥
जेहि तें कछु निज स्वारथ होई। तेहि पर ममता कर सब कोई ॥
सो. पन्नगारि असि नीति श्रुति संमत सज्जन कहहिं।
अति नीचहु सन प्रीति करिअ जानि निज परम हित ॥ ९५(क) ॥
पाट कीट तें होइ तेहि तें पाटंबर रुचिर।
कृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान सम ॥ ९५(ख) ॥
स्वारथ साँच जीव कहुँ एहा। मन क्रम बचन राम पद नेहा ॥
सोइ पावन सोइ सुभग सरीरा। जो तनु पाइ भजिअ रघुबीरा ॥
राम बिमुख लहि बिधि सम देही। कबि कोबिद न प्रसंसहिं तेही ॥
राम भगति एहिं तन उर जामी। ताते मोहि परम प्रिय स्वामी ॥
तजउँ न तन निज इच्छा मरना। तन बिनु बेद भजन नहिं बरना ॥
प्रथम मोहँ मोहि बहुत बिगोवा। राम बिमुख सुख कबहुँ न सोवा ॥
नाना जनम कर्म पुनि नाना। किए जोग जप तप मख दाना ॥
कवन जोनि जनमेउँ जहँ नाहीं। मैं खगेस भ्रमि भ्रमि जग माहीं ॥
देखेउँ करि सब करम गोसाई। सुखी न भयउँ अबहिं की नाई ॥
सुधि मोहि नाथ जन्म बहु केरी। सिव प्रसाद मति मोहँ न घेरी ॥
दो. प्रथम जन्म के चरित अब कहउँ सुनहु बिहगेस।
सुनि प्रभु पद रति उपजइ जातें मिटहिं कलेस ॥ ९६(क) ॥
पूरुब कल्प एक प्रभु जुग कलिजुग मल मूल ॥
नर अरु नारि अधर्म रत सकल निगम प्रतिकूल ॥ ९६(ख) ॥
तेहि कलिजुग कोसलपुर जाई। जन्मत भयउँ सूद्र तनु पाई ॥
सिव सेवक मन क्रम अरु बानी। आन देव निंदक अभिमानी ॥
धन मद मत्त परम बाचाला। उग्रबुद्धि उर दंभ बिसाला ॥
जदपि रहेउँ रघुपति रजधानी। तदपि न कछु महिमा तब जानी ॥
अब जाना मैं अवध प्रभावा। निगमागम पुरान अस गावा ॥
कवनेहुँ जन्म अवध बस जोई। राम परायन सो परि होई ॥
अवध प्रभाव जान तब प्रानी। जब उर बसहिं रामु धनुपानी ॥
सो कलिकाल कठिन उरगारी। पाप परायन सब नर नारी ॥
दो. कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ।
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ ॥ ९७(क) ॥
भए लोग सब मोहबस लोभ ग्रसे सुभ कर्म।
सुनु हरिजान ग्यान निधि कहउँ कछुक कलिधर्म ॥ ९७(ख) ॥
बरन धर्म नहिं आश्रम चारी। श्रुति बिरोध रत सब नर नारी ॥
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन। कोउ नहिं मान निगम अनुसासन ॥
मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा। पंडित सोइ जो गाल बजावा ॥
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई। ता कहुँ संत कहइ सब कोई ॥
सोइ सयान जो परधन हारी। जो कर दंभ सो बड़ आचारी ॥
जौ कह झूँठ मसखरी जाना। कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना ॥
निराचार जो श्रुति पथ त्यागी। कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी ॥
जाकें नख अरु जटा बिसाला। सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला ॥
दो. असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं ॥ ९८(क) ॥
सो. जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ।
मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ ॥ ९८(ख) ॥
नारि बिबस नर सकल गोसाई। नाचहिं नट मर्कट की नाई ॥
सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना। मेलि जनेऊ लेहिं कुदाना ॥
सब नर काम लोभ रत क्रोधी। देव बिप्र श्रुति संत बिरोधी ॥
गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी। भजहिं नारि पर पुरुष अभागी ॥
सौभागिनीं बिभूषन हीना। बिधवन्ह के सिंगार नबीना ॥
गुर सिष बधिर अंध का लेखा। एक न सुनइ एक नहिं देखा ॥
हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुर घोर नरक महुँ परई ॥
मातु पिता बालकन्हि बोलाबहिं। उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं ॥
दो. ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात।
कौड़ी लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात ॥ ९९(क) ॥
बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि।
जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि ॥ ९९(ख) ॥
पर त्रिय लंपट कपट सयाने। मोह द्रोह ममता लपटाने ॥
तेइ अभेदबादी ग्यानी नर। देखा में चरित्र कलिजुग कर ॥
आपु गए अरु तिन्हहू घालहिं। जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं ॥
कल्प कल्प भरि एक एक नरका। परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका ॥
जे बरनाधम तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवारा ॥
नारि मुई गृह संपति नासी। मूड़ मुड़ाइ होहिं सन्यासी ॥
ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं। उभय लोक निज हाथ नसावहिं ॥
बिप्र निरच्छर लोलुप कामी। निराचार सठ बृषली स्वामी ॥
सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना। बैठि बरासन कहहिं पुराना ॥
सब नर कल्पित करहिं अचारा। जाइ न बरनि अनीति अपारा ॥
दो. भए बरन संकर कलि भिन्नसेतु सब लोग।
करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज सोक बियोग ॥ १००(क) ॥
श्रुति संमत हरि भक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक।
तेहि न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पंथ अनेक ॥ १००(ख) ॥
छं. बहु दाम सँवारहिं धाम जती। बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती ॥
तपसी धनवंत दरिद्र गृही। कलि कौतुक तात न जात कही ॥
कुलवंति निकारहिं नारि सती। गृह आनिहिं चेरी निबेरि गती ॥
सुत मानहिं मातु पिता तब लौं। अबलानन दीख नहीं जब लौं ॥
ससुरारि पिआरि लगी जब तें। रिपरूप कुटुंब भए तब तें ॥
नृप पाप परायन धर्म नहीं। करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं ॥
धनवंत कुलीन मलीन अपी। द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी ॥
नहिं मान पुरान न बेदहि जो। हरि सेवक संत सही कलि सो।
कबि बृंद उदार दुनी न सुनी। गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी ॥
कलि बारहिं बार दुकाल परै। बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै ॥
दो. सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेष पाषंड।
मान मोह मारादि मद ब्यापि रहे ब्रह्मंड ॥ १०१(क) ॥
तामस धर्म करहिं नर जप तप ब्रत मख दान।
देव न बरषहिं धरनीं बए न जामहिं धान ॥ १०१(ख) ॥
छं. अबला कच भूषन भूरि छुधा। धनहीन दुखी ममता बहुधा ॥
सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता। मति थोरि कठोरि न कोमलता ॥ १ ॥
नर पीड़ित रोग न भोग कहीं। अभिमान बिरोध अकारनहीं ॥
लघु जीवन संबतु पंच दसा। कलपांत न नास गुमानु असा ॥ २ ॥
कलिकाल बिहाल किए मनुजा। नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा।
नहिं तोष बिचार न सीतलता। सब जाति कुजाति भए मगता ॥ ३ ॥
इरिषा परुषाच्छर लोलुपता। भरि पूरि रही समता बिगता ॥
सब लोग बियोग बिसोक हुए। बरनाश्रम धर्म अचार गए ॥ ४ ॥
दम दान दया नहिं जानपनी। जड़ता परबंचनताति घनी ॥
तनु पोषक नारि नरा सगरे। परनिंदक जे जग मो बगरे ॥ ५ ॥
दो. सुनु ब्यालारि काल कलि मल अवगुन आगार।
गुनउँ बहुत कलिजुग कर बिनु प्रयास निस्तार ॥ १०२(क) ॥
कृतजुग त्रेता द्वापर पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग ॥ १०२(ख) ॥
कृतजुग सब जोगी बिग्यानी। करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी ॥
त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहीं। प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं ॥
द्वापर करि रघुपति पद पूजा। नर भव तरहिं उपाय न दूजा ॥
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा ॥
कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना ॥
सब भरोस तजि जो भज रामहि। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि ॥
सोइ भव तर कछु संसय नाहीं। नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं ॥
कलि कर एक पुनीत प्रतापा। मानस पुन्य होहिं नहिं पापा ॥
दो. कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमलँ भव तर बिनहिं प्रयास ॥ १०३(क) ॥
प्रगट चारि पद धर्म के कलिल महुँ एक प्रधान।
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान ॥ १०३(ख) ॥
नित जुग धर्म होहिं सब केरे। हृदयँ राम माया के प्रेरे ॥
सुद्ध सत्व समता बिग्याना। कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना ॥
सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा। सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा ॥
बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस। द्वापर धर्म हरष भय मानस ॥
तामस बहुत रजोगुन थोरा। कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा ॥
बुध जुग धर्म जानि मन माहीं। तजि अधर्म रति धर्म कराहीं ॥
काल धर्म नहिं ब्यापहिं ताही। रघुपति चरन प्रीति अति जाही ॥
नट कृत बिकट कपट खगराया। नट सेवकहि न ब्यापइ माया ॥
दो. हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं।
भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिं ॥ १०४(क) ॥
तेहि कलिकाल बरष बहु बसेउँ अवध बिहगेस।
परेउ दुकाल बिपति बस तब मैं गयउँ बिदेस ॥ १०४(ख) ॥
गयउँ उजेनी सुनु उरगारी। दीन मलीन दरिद्र दुखारी ॥
गएँ काल कछु संपति पाई। तहँ पुनि करउँ संभु सेवकाई ॥
बिप्र एक बैदिक सिव पूजा। करइ सदा तेहि काजु न दूजा ॥
परम साधु परमारथ बिंदक। संभु उपासक नहिं हरि निंदक ॥
तेहि सेवउँ मैं कपट समेता। द्विज दयाल अति नीति निकेता ॥
बाहिज नम्र देखि मोहि साईं। बिप्र पढ़ाव पुत्र की नाईं ॥
संभु मंत्र मोहि द्विजबर दीन्हा। सुभ उपदेस बिबिध बिधि कीन्हा ॥
जपउँ मंत्र सिव मंदिर जाई। हृदयँ दंभ अहमिति अधिकाई ॥
दो. मैं खल मल संकुल मति नीच जाति बस मोह।
हरि जन द्विज देखें जरउँ करउँ बिष्नु कर द्रोह ॥ १०५(क) ॥
सो. गुर नित मोहि प्रबोध दुखित देखि आचरन मम।
मोहि उपजइ अति क्रोध दंभिहि नीति कि भावई ॥ १०५(ख) ॥
एक बार गुर लीन्ह बोलाई। मोहि नीति बहु भाँति सिखाई ॥
सिव सेवा कर फल सुत सोई। अबिरल भगति राम पद होई ॥
रामहि भजहिं तात सिव धाता। नर पावँर कै केतिक बाता ॥
जासु चरन अज सिव अनुरागी। तातु द्रोहँ सुख चहसि अभागी ॥
हर कहुँ हरि सेवक गुर कहेऊ। सुनि खगनाथ हृदय मम दहेऊ ॥
अधम जाति मैं बिद्या पाएँ। भयउँ जथा अहि दूध पिआएँ ॥
मानी कुटिल कुभाग्य कुजाती। गुर कर द्रोह करउँ दिनु राती ॥
अति दयाल गुर स्वल्प न क्रोधा। पुनि पुनि मोहि सिखाव सुबोधा ॥
जेहि ते नीच बड़ाई पावा। सो प्रथमहिं हति ताहि नसावा ॥
धूम अनल संभव सुनु भाई। तेहि बुझाव घन पदवी पाई ॥
रज मग परी निरादर रहई। सब कर पद प्रहार नित सहई ॥
मरुत उड़ाव प्रथम तेहि भरई। पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई ॥
सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा। बुध नहिं करहिं अधम कर संगा ॥
कबि कोबिद गावहिं असि नीती। खल सन कलह न भल नहिं प्रीती ॥
उदासीन नित रहिअ गोसाईं। खल परिहरिअ स्वान की नाईं ॥
मैं खल हृदयँ कपट कुटिलाई। गुर हित कहइ न मोहि सोहाई ॥
दो. एक बार हर मंदिर जपत रहेउँ सिव नाम।
गुर आयउ अभिमान तें उठि नहिं कीन्ह प्रनाम ॥ १०६(क) ॥
सो दयाल नहिं कहेउ कछु उर न रोष लवलेस।
अति अघ गुर अपमानता सहि नहिं सके महेस ॥ १०६(ख) ॥
मंदिर माझ भई नभ बानी। रे हतभाग्य अग्य अभिमानी ॥
जद्यपि तव गुर कें नहिं क्रोधा। अति कृपाल चित सम्यक बोधा ॥
तदपि साप सठ दैहउँ तोही। नीति बिरोध सोहाइ न मोही ॥
जौं नहिं दंड करौं खल तोरा। भ्रष्ट होइ श्रुतिमारग मोरा ॥
जे सठ गुर सन इरिषा करहीं। रौरव नरक कोटि जुग परहीं ॥
त्रिजग जोनि पुनि धरहिं सरीरा। अयुत जन्म भरि पावहिं पीरा ॥
बैठ रहेसि अजगर इव पापी। सर्प होहि खल मल मति ब्यापी ॥
महा बिटप कोटर महुँ जाई ॥ रहु अधमाधम अधगति पाई ॥
दो. हाहाकार कीन्ह गुर दारुन सुनि सिव साप ॥
कंपित मोहि बिलोकि अति उर उपजा परिताप ॥ १०७(क) ॥
करि दंडवत सप्रेम द्विज सिव सन्मुख कर जोरि।
बिनय करत गदगद स्वर समुझि घोर गति मोरि ॥ १०७(ख) ॥
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विंभुं ब्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरींह। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं ॥
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं ॥
करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं ॥
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं ॥
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा ॥
चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं ॥
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं। प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥
प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं ॥
त्रयःशूल निर्मूलनं शूलपाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं ॥
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनान्ददाता पुरारी ॥
चिदानंदसंदोह मोहापहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥
न यावद् उमानाथ पादारविन्दं। भजंतीह लोके परे वा नराणां ॥
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं ॥
न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं ॥
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो ॥
श्लोक-रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥ ९ ॥
दो. -सुनि बिनती सर्बग्य सिव देखि ब्रिप्र अनुरागु।
पुनि मंदिर नभबानी भइ द्विजबर बर मागु ॥ १०८(क) ॥
जौं प्रसन्न प्रभु मो पर नाथ दीन पर नेहु।
निज पद भगति देइ प्रभु पुनि दूसर बर देहु ॥ १०८(ख) ॥
तव माया बस जीव जड़ संतत फिरइ भुलान।
तेहि पर क्रोध न करिअ प्रभु कृपा सिंधु भगवान ॥ १०८(ग) ॥
संकर दीनदयाल अब एहि पर होहु कृपाल।
साप अनुग्रह होइ जेहिं नाथ थोरेहीं काल ॥ १०८(घ) ॥
एहि कर होइ परम कल्याना। सोइ करहु अब कृपानिधाना ॥
बिप्रगिरा सुनि परहित सानी। एवमस्तु इति भइ नभबानी ॥
जदपि कीन्ह एहिं दारुन पापा। मैं पुनि दीन्ह कोप करि सापा ॥
तदपि तुम्हार साधुता देखी। करिहउँ एहि पर कृपा बिसेषी ॥
छमासील जे पर उपकारी। ते द्विज मोहि प्रिय जथा खरारी ॥
मोर श्राप द्विज ब्यर्थ न जाइहि। जन्म सहस अवस्य यह पाइहि ॥
जनमत मरत दुसह दुख होई। अहि स्वल्पउ नहिं ब्यापिहि सोई ॥
कवनेउँ जन्म मिटिहि नहिं ग्याना। सुनहि सूद्र मम बचन प्रवाना ॥
रघुपति पुरीं जन्म तब भयऊ। पुनि तैं मम सेवाँ मन दयऊ ॥
पुरी प्रभाव अनुग्रह मोरें। राम भगति उपजिहि उर तोरें ॥
सुनु मम बचन सत्य अब भाई। हरितोषन ब्रत द्विज सेवकाई ॥
अब जनि करहि बिप्र अपमाना। जानेहु संत अनंत समाना ॥
इंद्र कुलिस मम सूल बिसाला। कालदंड हरि चक्र कराला ॥
जो इन्ह कर मारा नहिं मरई। बिप्रद्रोह पावक सो जरई ॥
अस बिबेक राखेहु मन माहीं। तुम्ह कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥
औरउ एक आसिषा मोरी। अप्रतिहत गति होइहि तोरी ॥
दो. सुनि सिव बचन हरषि गुर एवमस्तु इति भाषि।
मोहि प्रबोधि गयउ गृह संभु चरन उर राखि ॥ १०९(क) ॥
प्रेरित काल बिधि गिरि जाइ भयउँ मैं ब्याल।
पुनि प्रयास बिनु सो तनु जजेउँ गएँ कछु काल ॥ १०९(ख) ॥
जोइ तनु धरउँ तजउँ पुनि अनायास हरिजान।
जिमि नूतन पट पहिरइ नर परिहरइ पुरान ॥ १०९(ग) ॥
सिवँ राखी श्रुति नीति अरु मैं नहिं पावा क्लेस।
एहि बिधि धरेउँ बिबिध तनु ग्यान न गयउ खगेस ॥ १०९(घ) ॥
त्रिजग देव नर जोइ तनु धरउँ। तहँ तहँ राम भजन अनुसरऊँ ॥
एक सूल मोहि बिसर न काऊ। गुर कर कोमल सील सुभाऊ ॥
चरम देह द्विज कै मैं पाई। सुर दुर्लभ पुरान श्रुति गाई ॥
खेलउँ तहूँ बालकन्ह मीला। करउँ सकल रघुनायक लीला ॥
प्रौढ़ भएँ मोहि पिता पढ़ावा। समझउँ सुनउँ गुनउँ नहिं भावा ॥
मन ते सकल बासना भागी। केवल राम चरन लय लागी ॥
कहु खगेस अस कवन अभागी। खरी सेव सुरधेनुहि त्यागी ॥
प्रेम मगन मोहि कछु न सोहाई। हारेउ पिता पढ़ाइ पढ़ाई ॥
भए कालबस जब पितु माता। मैं बन गयउँ भजन जनत्राता ॥
जहँ जहँ बिपिन मुनीस्वर पावउँ। आश्रम जाइ जाइ सिरु नावउँ ॥
बूझत तिन्हहि राम गुन गाहा। कहहिं सुनउँ हरषित खगनाहा ॥
सुनत फिरउँ हरि गुन अनुबादा। अब्याहत गति संभु प्रसादा ॥
छूटी त्रिबिध ईषना गाढ़ी। एक लालसा उर अति बाढ़ी ॥
राम चरन बारिज जब देखौं। तब निज जन्म सफल करि लेखौं ॥
जेहि पूँछउँ सोइ मुनि अस कहई। ईस्वर सर्ब भूतमय अहई ॥
निर्गुन मत नहिं मोहि सोहाई। सगुन ब्रह्म रति उर अधिकाई ॥
दो. गुर के बचन सुरति करि राम चरन मनु लाग।
रघुपति जस गावत फिरउँ छन छन नव अनुराग ॥ ११०(क) ॥
मेरु सिखर बट छायाँ मुनि लोमस आसीन।
देखि चरन सिरु नायउँ बचन कहेउँ अति दीन ॥ ११०(ख) ॥
सुनि मम बचन बिनीत मृदु मुनि कृपाल खगराज।
मोहि सादर पूँछत भए द्विज आयहु केहि काज ॥ ११०(ग) ॥
तब मैं कहा कृपानिधि तुम्ह सर्बग्य सुजान।
सगुन ब्रह्म अवराधन मोहि कहहु भगवान ॥ ११०(घ) ॥
तब मुनिष रघुपति गुन गाथा। कहे कछुक सादर खगनाथा ॥
ब्रह्मग्यान रत मुनि बिग्यानि। मोहि परम अधिकारी जानी ॥
लागे करन ब्रह्म उपदेसा। अज अद्वेत अगुन हृदयेसा ॥
अकल अनीह अनाम अरुपा। अनुभव गम्य अखंड अनूपा ॥
मन गोतीत अमल अबिनासी। निर्बिकार निरवधि सुख रासी ॥
सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा। बारि बीचि इव गावहि बेदा ॥
बिबिध भाँति मोहि मुनि समुझावा। निर्गुन मत मम हृदयँ न आवा ॥
पुनि मैं कहेउँ नाइ पद सीसा। सगुन उपासन कहहु मुनीसा ॥
राम भगति जल मम मन मीना। किमि बिलगाइ मुनीस प्रबीना ॥
सोइ उपदेस कहहु करि दाया। निज नयनन्हि देखौं रघुराया ॥
भरि लोचन बिलोकि अवधेसा। तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा ॥
मुनि पुनि कहि हरिकथा अनूपा। खंडि सगुन मत अगुन निरूपा ॥
तब मैं निर्गुन मत कर दूरी। सगुन निरूपउँ करि हठ भूरी ॥
उत्तर प्रतिउत्तर मैं कीन्हा। मुनि तन भए क्रोध के चीन्हा ॥
सुनु प्रभु बहुत अवग्या किएँ। उपज क्रोध ग्यानिन्ह के हिएँ ॥
अति संघरषन जौं कर कोई। अनल प्रगट चंदन ते होई ॥
दो. -बारंबार सकोप मुनि करइ निरुपन ग्यान।
मैं अपनें मन बैठ तब करउँ बिबिध अनुमान ॥ १११(क) ॥
क्रोध कि द्वेतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान।
मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान ॥ १११(ख) ॥
कबहुँ कि दुख सब कर हित ताकें। तेहि कि दरिद्र परस मनि जाकें ॥
परद्रोही की होहिं निसंका। कामी पुनि कि रहहिं अकलंका ॥
बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हें। कर्म कि होहिं स्वरूपहि चीन्हें ॥
काहू सुमति कि खल सँग जामी। सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी ॥
भव कि परहिं परमात्मा बिंदक। सुखी कि होहिं कबहुँ हरिनिंदक ॥
राजु कि रहइ नीति बिनु जानें। अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें ॥
पावन जस कि पुन्य बिनु होई। बिनु अघ अजस कि पावइ कोई ॥
लाभु कि किछु हरि भगति समाना। जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना ॥
हानि कि जग एहि सम किछु भाई। भजिअ न रामहि नर तनु पाई ॥
अघ कि पिसुनता सम कछु आना। धर्म कि दया सरिस हरिजाना ॥
एहि बिधि अमिति जुगुति मन गुनऊँ। मुनि उपदेस न सादर सुनऊँ ॥
पुनि पुनि सगुन पच्छ मैं रोपा। तब मुनि बोलेउ बचन सकोपा ॥
मूढ़ परम सिख देउँ न मानसि। उत्तर प्रतिउत्तर बहु आनसि ॥
सत्य बचन बिस्वास न करही। बायस इव सबही ते डरही ॥
सठ स्वपच्छ तब हृदयँ बिसाला। सपदि होहि पच्छी चंडाला ॥
लीन्ह श्राप मैं सीस चढ़ाई। नहिं कछु भय न दीनता आई ॥
दो. तुरत भयउँ मैं काग तब पुनि मुनि पद सिरु नाइ।
सुमिरि राम रघुबंस मनि हरषित चलेउँ उड़ाइ ॥ ११२(क) ॥
उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध ॥
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध ॥ ११२(ख) ॥
सुनु खगेस नहिं कछु रिषि दूषन। उर प्रेरक रघुबंस बिभूषन ॥
कृपासिंधु मुनि मति करि भोरी। लीन्हि प्रेम परिच्छा मोरी ॥
मन बच क्रम मोहि निज जन जाना। मुनि मति पुनि फेरी भगवाना ॥
रिषि मम महत सीलता देखी। राम चरन बिस्वास बिसेषी ॥
अति बिसमय पुनि पुनि पछिताई। सादर मुनि मोहि लीन्ह बोलाई ॥
मम परितोष बिबिध बिधि कीन्हा। हरषित राममंत्र तब दीन्हा ॥
बालकरूप राम कर ध्याना। कहेउ मोहि मुनि कृपानिधाना ॥
सुंदर सुखद मिहि अति भावा। सो प्रथमहिं मैं तुम्हहि सुनावा ॥
मुनि मोहि कछुक काल तहँ राखा। रामचरितमानस तब भाषा ॥
सादर मोहि यह कथा सुनाई। पुनि बोले मुनि गिरा सुहाई ॥
रामचरित सर गुप्त सुहावा। संभु प्रसाद तात मैं पावा ॥
तोहि निज भगत राम कर जानी। ताते मैं सब कहेउँ बखानी ॥
राम भगति जिन्ह कें उर नाहीं। कबहुँ न तात कहिअ तिन्ह पाहीं ॥
मुनि मोहि बिबिध भाँति समुझावा। मैं सप्रेम मुनि पद सिरु नावा ॥
निज कर कमल परसि मम सीसा। हरषित आसिष दीन्ह मुनीसा ॥
राम भगति अबिरल उर तोरें। बसिहि सदा प्रसाद अब मोरें ॥
दो. -सदा राम प्रिय होहु तुम्ह सुभ गुन भवन अमान।
कामरूप इच्धामरन ग्यान बिराग निधान ॥ ११३(क) ॥
जेंहिं आश्रम तुम्ह बसब पुनि सुमिरत श्रीभगवंत।
ब्यापिहि तहँ न अबिद्या जोजन एक प्रजंत ॥ ११३(ख) ॥
काल कर्म गुन दोष सुभाऊ। कछु दुख तुम्हहि न ब्यापिहि काऊ ॥
राम रहस्य ललित बिधि नाना। गुप्त प्रगट इतिहास पुराना ॥
बिनु श्रम तुम्ह जानब सब सोऊ। नित नव नेह राम पद होऊ ॥
जो इच्छा करिहहु मन माहीं। हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं ॥
सुनि मुनि आसिष सुनु मतिधीरा। ब्रह्मगिरा भइ गगन गँभीरा ॥
एवमस्तु तव बच मुनि ग्यानी। यह मम भगत कर्म मन बानी ॥
सुनि नभगिरा हरष मोहि भयऊ। प्रेम मगन सब संसय गयऊ ॥
करि बिनती मुनि आयसु पाई। पद सरोज पुनि पुनि सिरु नाई ॥
हरष सहित एहिं आश्रम आयउँ। प्रभु प्रसाद दुर्लभ बर पायउँ ॥
इहाँ बसत मोहि सुनु खग ईसा। बीते कलप सात अरु बीसा ॥
करउँ सदा रघुपति गुन गाना। सादर सुनहिं बिहंग सुजाना ॥
जब जब अवधपुरीं रघुबीरा। धरहिं भगत हित मनुज सरीरा ॥
तब तब जाइ राम पुर रहऊँ। सिसुलीला बिलोकि सुख लहऊँ ॥
पुनि उर राखि राम सिसुरूपा। निज आश्रम आवउँ खगभूपा ॥
कथा सकल मैं तुम्हहि सुनाई। काग देह जेहिं कारन पाई ॥
कहिउँ तात सब प्रस्न तुम्हारी। राम भगति महिमा अति भारी ॥
दो. ताते यह तन मोहि प्रिय भयउ राम पद नेह।
निज प्रभु दरसन पायउँ गए सकल संदेह ॥ ११४(क) ॥
मासपारायण, उन्तीसवाँ विश्राम
भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महारिषि साप।
मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन प्रताप ॥ ११४(ख) ॥
जे असि भगति जानि परिहरहीं। केवल ग्यान हेतु श्रम करहीं ॥
ते जड़ कामधेनु गृहँ त्यागी। खोजत आकु फिरहिं पय लागी ॥
सुनु खगेस हरि भगति बिहाई। जे सुख चाहहिं आन उपाई ॥
ते सठ महासिंधु बिनु तरनी। पैरि पार चाहहिं जड़ करनी ॥
सुनि भसुंडि के बचन भवानी। बोलेउ गरुड़ हरषि मृदु बानी ॥
तव प्रसाद प्रभु मम उर माहीं। संसय सोक मोह भ्रम नाहीं ॥
सुनेउँ पुनीत राम गुन ग्रामा। तुम्हरी कृपाँ लहेउँ बिश्रामा ॥
एक बात प्रभु पूँछउँ तोही। कहहु बुझाइ कृपानिधि मोही ॥
कहहिं संत मुनि बेद पुराना। नहिं कछु दुर्लभ ग्यान समाना ॥
सोइ मुनि तुम्ह सन कहेउ गोसाईं। नहिं आदरेहु भगति की नाईं ॥
ग्यानहि भगतिहि अंतर केता। सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता ॥
सुनि उरगारि बचन सुख माना। सादर बोलेउ काग सुजाना ॥
भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव संभव खेदा ॥
नाथ मुनीस कहहिं कछु अंतर। सावधान सोउ सुनु बिहंगबर ॥
ग्यान बिराग जोग बिग्याना। ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना ॥
पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँती। अबला अबल सहज जड़ जाती ॥
दो. -पुरुष त्यागि सक नारिहि जो बिरक्त मति धीर ॥
न तु कामी बिषयाबस बिमुख जो पद रघुबीर ॥ ११५(क) ॥
सो. सोउ मुनि ग्याननिधान मृगनयनी बिधु मुख निरखि।
बिबस होइ हरिजान नारि बिष्नु माया प्रगट ॥ ११५(ख) ॥
इहाँ न पच्छपात कछु राखउँ। बेद पुरान संत मत भाषउँ ॥
मोह न नारि नारि कें रूपा। पन्नगारि यह रीति अनूपा ॥
माया भगति सुनहु तुम्ह दोऊ। नारि बर्ग जानइ सब कोऊ ॥
पुनि रघुबीरहि भगति पिआरी। माया खलु नर्तकी बिचारी ॥
भगतिहि सानुकूल रघुराया। ताते तेहि डरपति अति माया ॥
राम भगति निरुपम निरुपाधी। बसइ जासु उर सदा अबाधी ॥
तेहि बिलोकि माया सकुचाई। करि न सकइ कछु निज प्रभुताई ॥
अस बिचारि जे मुनि बिग्यानी। जाचहीं भगति सकल सुख खानी ॥
दो. यह रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानइ कोइ।
जो जानइ रघुपति कृपाँ सपनेहुँ मोह न होइ ॥ ११६(क) ॥
औरउ ग्यान भगति कर भेद सुनहु सुप्रबीन।
जो सुनि होइ राम पद प्रीति सदा अबिछीन ॥ ११६(ख) ॥
सुनहु तात यह अकथ कहानी। समुझत बनइ न जाइ बखानी ॥
ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी ॥
सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाई ॥
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई ॥
तब ते जीव भयउ संसारी। छूट न ग्रंथि न होइ सुखारी ॥
श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई। छूट न अधिक अधिक अरुझाई ॥
जीव हृदयँ तम मोह बिसेषी। ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी ॥
अस संजोग ईस जब करई। तबहुँ कदाचित सो निरुअरई ॥
सात्त्विक श्रद्धा धेनु सुहाई। जौं हरि कृपाँ हृदयँ बस आई ॥
जप तप ब्रत जम नियम अपारा। जे श्रुति कह सुभ धर्म अचारा ॥
तेइ तृन हरित चरै जब गाई। भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई ॥
नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा। निर्मल मन अहीर निज दासा ॥
परम धर्ममय पय दुहि भाई। अवटै अनल अकाम बिहाई ॥
तोष मरुत तब छमाँ जुड़ावै। धृति सम जावनु देइ जमावै ॥
मुदिताँ मथैं बिचार मथानी। दम अधार रजु सत्य सुबानी ॥
तब मथि काढ़ि लेइ नवनीता। बिमल बिराग सुभग सुपुनीता ॥
दो. जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ।
बुद्धि सिरावैं ग्यान घृत ममता मल जरि जाइ ॥ ११७(क) ॥
तब बिग्यानरूपिनि बुद्धि बिसद घृत पाइ।
चित्त दिआ भरि धरै दृढ़ समता दिअटि बनाइ ॥ ११७(ख) ॥
तीनि अवस्था तीनि गुन तेहि कपास तें काढ़ि।
तूल तुरीय सँवारि पुनि बाती करै सुगाढ़ि ॥ ११७(ग) ॥
सो. एहि बिधि लेसै दीप तेज रासि बिग्यानमय ॥
जातहिं जासु समीप जरहिं मदादिक सलभ सब ॥ ११७(घ) ॥
सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा ॥
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा ॥
प्रबल अबिद्या कर परिवारा। मोह आदि तम मिटइ अपारा ॥
तब सोइ बुद्धि पाइ उँजिआरा। उर गृहँ बैठि ग्रंथि निरुआरा ॥
छोरन ग्रंथि पाव जौं सोई। तब यह जीव कृतारथ होई ॥
छोरत ग्रंथि जानि खगराया। बिघ्न अनेक करइ तब माया ॥
रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई। बुद्धहि लोभ दिखावहिं आई ॥
कल बल छल करि जाहिं समीपा। अंचल बात बुझावहिं दीपा ॥
होइ बुद्धि जौं परम सयानी। तिन्ह तन चितव न अनहित जानी ॥
जौं तेहि बिघ्न बुद्धि नहिं बाधी। तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी ॥
इंद्रीं द्वार झरोखा नाना। तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना ॥
आवत देखहिं बिषय बयारी। ते हठि देही कपाट उघारी ॥
जब सो प्रभंजन उर गृहँ जाई। तबहिं दीप बिग्यान बुझाई ॥
ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा। बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा ॥
इंद्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई। बिषय भोग पर प्रीति सदाई ॥
बिषय समीर बुद्धि कृत भोरी। तेहि बिधि दीप को बार बहोरी ॥
दो. तब फिरि जीव बिबिध बिधि पावइ संसृति क्लेस।
हरि माया अति दुस्तर तरि न जाइ बिहगेस ॥ ११८(क) ॥
कहत कठिन समुझत कठिन साधन कठिन बिबेक।
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक ॥ ११८(ख) ॥
ग्यान पंथ कृपान कै धारा। परत खगेस होइ नहिं बारा ॥
जो निर्बिघ्न पंथ निर्बहई। सो कैवल्य परम पद लहई ॥
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद। संत पुरान निगम आगम बद ॥
राम भजत सोइ मुकुति गोसाई। अनइच्छित आवइ बरिआई ॥
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई। कोटि भाँति कोउ करै उपाई ॥
तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई। रहि न सकइ हरि भगति बिहाई ॥
अस बिचारि हरि भगत सयाने। मुक्ति निरादर भगति लुभाने ॥
भगति करत बिनु जतन प्रयासा। संसृति मूल अबिद्या नासा ॥
भोजन करिअ तृपिति हित लागी। जिमि सो असन पचवै जठरागी ॥
असि हरिभगति सुगम सुखदाई। को अस मूढ़ न जाहि सोहाई ॥
दो. सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि ॥
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि ॥ ११९(क) ॥
जो चेतन कहँ ज़ड़ करइ ज़ड़हि करइ चैतन्य।
अस समर्थ रघुनायकहिं भजहिं जीव ते धन्य ॥ ११९(ख) ॥
कहेउँ ग्यान सिद्धांत बुझाई। सुनहु भगति मनि कै प्रभुताई ॥
राम भगति चिंतामनि सुंदर। बसइ गरुड़ जाके उर अंतर ॥
परम प्रकास रूप दिन राती। नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती ॥
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा। लोभ बात नहिं ताहि बुझावा ॥
प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई। हारहिं सकल सलभ समुदाई ॥
खल कामादि निकट नहिं जाहीं। बसइ भगति जाके उर माहीं ॥
गरल सुधासम अरि हित होई। तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई ॥
ब्यापहिं मानस रोग न भारी। जिन्ह के बस सब जीव दुखारी ॥
राम भगति मनि उर बस जाकें। दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें ॥
चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीं। जे मनि लागि सुजतन कराहीं ॥
सो मनि जदपि प्रगट जग अहई। राम कृपा बिनु नहिं कोउ लहई ॥
सुगम उपाय पाइबे केरे। नर हतभाग्य देहिं भटमेरे ॥
पावन पर्बत बेद पुराना। राम कथा रुचिराकर नाना ॥
मर्मी सज्जन सुमति कुदारी। ग्यान बिराग नयन उरगारी ॥
भाव सहित खोजइ जो प्रानी। पाव भगति मनि सब सुख खानी ॥
मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा ॥
राम सिंधु घन सज्जन धीरा। चंदन तरु हरि संत समीरा ॥
सब कर फल हरि भगति सुहाई। सो बिनु संत न काहूँ पाई ॥
अस बिचारि जोइ कर सतसंगा। राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा ॥
दो. ब्रह्म पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर आहिं।
कथा सुधा मथि काढ़हिं भगति मधुरता जाहिं ॥ १२०(क) ॥
बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि।
जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि ॥ १२०(ख) ॥
पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ। जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ ॥
नाथ मोहि निज सेवक जानी। सप्त प्रस्न कहहु बखानी ॥
प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा। सब ते दुर्लभ कवन सरीरा ॥
बड़ दुख कवन कवन सुख भारी। सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी ॥
संत असंत मरम तुम्ह जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु ॥
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला। कहहु कवन अघ परम कराला ॥
मानस रोग कहहु समुझाई। तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई ॥
तात सुनहु सादर अति प्रीती। मैं संछेप कहउँ यह नीती ॥
नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही ॥
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी ॥
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मंद मंद तर ॥
काँच किरिच बदलें ते लेही। कर ते डारि परस मनि देहीं ॥
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं ॥
पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया ॥
संत सहहिं दुख परहित लागी। परदुख हेतु असंत अभागी ॥
भूर्ज तरू सम संत कृपाला। परहित निति सह बिपति बिसाला ॥
सन इव खल पर बंधन करई। खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई ॥
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी। अहि मूषक इव सुनु उरगारी ॥
पर संपदा बिनासि नसाहीं। जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं ॥
दुष्ट उदय जग आरति हेतू। जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू ॥
संत उदय संतत सुखकारी। बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी ॥
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा। पर निंदा सम अघ न गरीसा ॥
हर गुर निंदक दादुर होई। जन्म सहस्र पाव तन सोई ॥
द्विज निंदक बहु नरक भोगकरि। जग जनमइ बायस सरीर धरि ॥
सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी। रौरव नरक परहिं ते प्रानी ॥
होहिं उलूक संत निंदा रत। मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत ॥
सब के निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं ॥
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा ॥
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला ॥
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा ॥
प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई ॥
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना ॥
ममता दादु कंडु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई ॥
पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई ॥
अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ ॥
तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिध ईषना तरुन तिजारी ॥
जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लागि कहौं कुरोग अनेका ॥
दो. एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि ॥ १२१(क) ॥
नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान ॥ १२१(ख) ॥
एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी ॥
मानक रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए ॥
जाने ते छीजहिं कछु पापी। नास न पावहिं जन परितापी ॥
बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे। मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे ॥
राम कृपाँ नासहि सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संयोगा ॥
सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा ॥
रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी ॥
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं ॥
जानिअ तब मन बिरुज गोसाँई। जब उर बल बिराग अधिकाई ॥
सुमति छुधा बाढ़इ नित नई। बिषय आस दुर्बलता गई ॥
बिमल ग्यान जल जब सो नहाई। तब रह राम भगति उर छाई ॥
सिव अज सुक सनकादिक नारद। जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद ॥
सब कर मत खगनायक एहा। करिअ राम पद पंकज नेहा ॥
श्रुति पुरान सब ग्रंथ कहाहीं। रघुपति भगति बिना सुख नाहीं ॥
कमठ पीठ जामहिं बरु बारा। बंध्या सुत बरु काहुहि मारा ॥
फूलहिं नभ बरु बहुबिधि फूला। जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला ॥
तृषा जाइ बरु मृगजल पाना। बरु जामहिं सस सीस बिषाना ॥
अंधकारु बरु रबिहि नसावै। राम बिमुख न जीव सुख पावै ॥
हिम ते अनल प्रगट बरु होई। बिमुख राम सुख पाव न कोई ॥
दो०=बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल ॥ १२२(क) ॥
मसकहि करइ बिंरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन।
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन ॥ १२२(ख) ॥
श्लोक- विनिच्श्रितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे।
हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते ॥ १२२(ग) ॥
कहेउँ नाथ हरि चरित अनूपा। ब्यास समास स्वमति अनुरुपा ॥
श्रुति सिद्धांत इहइ उरगारी। राम भजिअ सब काज बिसारी ॥
प्रभु रघुपति तजि सेइअ काही। मोहि से सठ पर ममता जाही ॥
तुम्ह बिग्यानरूप नहिं मोहा। नाथ कीन्हि मो पर अति छोहा ॥
पूछिहुँ राम कथा अति पावनि। सुक सनकादि संभु मन भावनि ॥
सत संगति दुर्लभ संसारा। निमिष दंड भरि एकउ बारा ॥
देखु गरुड़ निज हृदयँ बिचारी। मैं रघुबीर भजन अधिकारी ॥
सकुनाधम सब भाँति अपावन। प्रभु मोहि कीन्ह बिदित जग पावन ॥
दो. आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब बिधि हीन।
निज जन जानि राम मोहि संत समागम दीन ॥ १२३(क) ॥
नाथ जथामति भाषेउँ राखेउँ नहिं कछु गोइ।
चरित सिंधु रघुनायक थाह कि पावइ कोइ ॥ १२३ ॥
सुमिरि राम के गुन गन नाना। पुनि पुनि हरष भुसुंडि सुजाना ॥
महिमा निगम नेति करि गाई। अतुलित बल प्रताप प्रभुताई ॥
सिव अज पूज्य चरन रघुराई। मो पर कृपा परम मृदुलाई ॥
अस सुभाउ कहुँ सुनउँ न देखउँ। केहि खगेस रघुपति सम लेखउँ ॥
साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी। कबि कोबिद कृतग्य संन्यासी ॥
जोगी सूर सुतापस ग्यानी। धर्म निरत पंडित बिग्यानी ॥
तरहिं न बिनु सीँ मम स्वामी। राम नमामि नमामि नमामी ॥
सरन गएँ मो से अघ रासी। होहिं सुद्ध नमामि अबिनासी ॥
दो. जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल।
सो कृपालु मोहि तो पर सदा रहउ अनुकूल ॥ १२४(क) ॥
सुनि भुसुंडि के बचन सुभ देखि राम पद नेह।
बोलेउ प्रेम सहित गिरा गरुड़ बिगत संदेह ॥ १२४(ख) ॥
मै कृत्कृत्य भयउँ तव बानी। सुनि रघुबीर भगति रस सानी ॥
राम चरन नूतन रति भई। माया जनित बिपति सब गई ॥
मोह जलधि बोहित तुम्ह भए। मो कहँ नाथ बिबिध सुख दए ॥
मो पहिं होइ न प्रति उपकारा। बंदउँ तव पद बारहिं बारा ॥
पूरन काम राम अनुरागी। तुम्ह सम तात न कोउ बड़भागी ॥
संत बिटप सरिता गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह कै करनी ॥
संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना ॥
निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता ॥
जीवन जन्म सुफल मम भयऊ। तव प्रसाद संसय सब गयऊ ॥
जानेहु सदा मोहि निज किंकर। पुनि पुनि उमा कहइ बिहंगबर ॥
दो. तासु चरन सिरु नाइ करि प्रेम सहित मतिधीर।
गयउ गरुड़ बैकुंठ तब हृदयँ राखि रघुबीर ॥ १२५(क) ॥
गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन।
बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं बेद पुरान ॥ १२५(ख) ॥
कहेउँ परम पुनीत इतिहासा। सुनत श्रवन छूटहिं भव पासा ॥
प्रनत कल्पतरु करुना पुंजा। उपजइ प्रीति राम पद कंजा ॥
मन क्रम बचन जनित अघ जाई। सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई ॥
तीर्थाटन साधन समुदाई। जोग बिराग ग्यान निपुनाई ॥
नाना कर्म धर्म ब्रत दाना। संजम दम जप तप मख नाना ॥
भूत दया द्विज गुर सेवकाई। बिद्या बिनय बिबेक बड़ाई ॥
जहँ लगि साधन बेद बखानी। सब कर फल हरि भगति भवानी ॥
सो रघुनाथ भगति श्रुति गाई। राम कृपाँ काहूँ एक पाई ॥
दो. मुनि दुर्लभ हरि भगति नर पावहिं बिनहिं प्रयास।
जे यह कथा निरंतर सुनहिं मानि बिस्वास ॥ १२६ ॥
सोइ सर्बग्य गुनी सोइ ग्याता। सोइ महि मंडित पंडित दाता ॥
धर्म परायन सोइ कुल त्राता। राम चरन जा कर मन राता ॥
नीति निपुन सोइ परम सयाना। श्रुति सिद्धांत नीक तेहिं जाना ॥
सोइ कबि कोबिद सोइ रनधीरा। जो छल छाड़ि भजइ रघुबीरा ॥
धन्य देस सो जहँ सुरसरी। धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी ॥
धन्य सो भूपु नीति जो करई। धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई ॥
सो धन धन्य प्रथम गति जाकी। धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी ॥
धन्य घरी सोइ जब सतसंगा। धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा ॥
दो. सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत।
श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत ॥ १२७ ॥
मति अनुरूप कथा मैं भाषी। जद्यपि प्रथम गुप्त करि राखी ॥
तव मन प्रीति देखि अधिकाई। तब मैं रघुपति कथा सुनाई ॥
यह न कहिअ सठही हठसीलहि। जो मन लाइ न सुन हरि लीलहि ॥
कहिअ न लोभिहि क्रोधहि कामिहि। जो न भजइ सचराचर स्वामिहि ॥
द्विज द्रोहिहि न सुनाइअ कबहूँ। सुरपति सरिस होइ नृप जबहूँ ॥
राम कथा के तेइ अधिकारी। जिन्ह कें सतसंगति अति प्यारी ॥
गुर पद प्रीति नीति रत जेई। द्विज सेवक अधिकारी तेई ॥
ता कहँ यह बिसेष सुखदाई। जाहि प्रानप्रिय श्रीरघुराई ॥
दो. राम चरन रति जो चह अथवा पद निर्बान।
भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान ॥ १२८ ॥
राम कथा गिरिजा मैं बरनी। कलि मल समनि मनोमल हरनी ॥
संसृति रोग सजीवन मूरी। राम कथा गावहिं श्रुति सूरी ॥
एहि महँ रुचिर सप्त सोपाना। रघुपति भगति केर पंथाना ॥
अति हरि कृपा जाहि पर होई। पाउँ देइ एहिं मारग सोई ॥
मन कामना सिद्धि नर पावा। जे यह कथा कपट तजि गावा ॥
कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं। ते गोपद इव भवनिधि तरहीं ॥
सुनि सब कथा हृदयँ अति भाई। गिरिजा बोली गिरा सुहाई ॥
नाथ कृपाँ मम गत संदेहा। राम चरन उपजेउ नव नेहा ॥
दो. मैं कृतकृत्य भइउँ अब तव प्रसाद बिस्वेस।
उपजी राम भगति दृढ़ बीते सकल कलेस ॥ १२९ ॥
यह सुभ संभु उमा संबादा। सुख संपादन समन बिषादा ॥
भव भंजन गंजन संदेहा। जन रंजन सज्जन प्रिय एहा ॥
राम उपासक जे जग माहीं। एहि सम प्रिय तिन्ह के कछु नाहीं ॥
रघुपति कृपाँ जथामति गावा। मैं यह पावन चरित सुहावा ॥
एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा ॥
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि ॥
जासु पतित पावन बड़ बाना। गावहिं कबि श्रुति संत पुराना ॥
ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई। राम भजें गति केहिं नहिं पाई ॥
छं. पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना।
गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना ॥
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे।
कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते ॥ १ ॥
रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं।
कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं ॥
सत पंच चौपाईं मनोहर जानि जो नर उर धरै।
दारुन अबिद्या पंच जनित बिकार श्रीरघुबर हरै ॥ २ ॥
सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो।
सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को ॥
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ।
पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ ॥ ३ ॥
दो. मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर ॥ १३०(क) ॥
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम ॥ १३०(ख) ॥
श्लोक-यत्पूर्व प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं
श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम्।
मत्वा तद्रघुनाथमनिरतं स्वान्तस्तमःशान्तये
भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम् ॥ १ ॥
पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं
मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।
श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये
ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः ॥ २ ॥
मासपारायण, तीसवाँ विश्राम
नवान्हपारायण, नवाँ विश्राम
---------
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने
सप्तमः सोपानः समाप्तः।
(उत्तरकाण्ड समाप्त)
--------
आरति श्रीरामायनजी की। कीरति कलित ललित सिय पी की ॥
गावत ब्रह्मादिक मुनि नारद। बालमीक बिग्यान बिसारद।
सुक सनकादि सेष अरु सारद। बरनि पवनसुत कीरति नीकी ॥ १ ॥
गावत बेद पुरान अष्टदस। छओ सास्त्र सब ग्रंथन को रस।
मुनि जन धन संतन को सरबस। सार अंस संमत सबही की ॥ २ ॥
गावत संतत संभु भवानी। अरु घटसंभव मुनि बिग्यानी।
ब्यास आदि कबिबर्ज बखानी। कागभुसुंडि गरुड के ही की ॥ ३ ॥
कलिमल हरनि बिषय रस फीकी। सुभग सिंगार मुक्ति जुबती की।
दलन रोग भव मूरि अमी की। तात मात सब बिधि तुलसी की ॥ ४ ॥
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