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यजुर्वेद प्रथम मंत्र

यजुर्वेद प्रथम मंत्र

   


 यह यजुर्वेद का प्रथम मंत्र ज्ञान कर्म उपाषना के अनुकुल है। क्योंकि वेदों के सभी मंत्रों में तीन प्रकार के ज्ञान है वह ज्ञान कर्म और उपाषना ही है।  

 

        ओ३म् इषेत्वर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणऽ­­आप्यायध्वन्याऽइन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवाऽअयक्षमा मा वस्तेनऽईशत माघँसो ध्रुवाऽअस्मिन गोपतऔ स्यात बह्वीर्यजमानस्य पशून्पाहि।।

   

महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती इस मंत्र का भाष्य करते हुये कहते है।

 

    पदार्थान्वयभाषाः- हे मनुष्य लोगों ! जो (सविता) सब जगत् कि उत्तपत्ति करने वाला सम्पूर्णेएश्वर्य युक्त (देवः)सब सुखो को देने और सभी प्रकार की विद्यायों को प्रसिद्ध करने वाले परमात्मा है सो (वः) तुम हम और अपने मित्रों के जो (वायवः) सब क्रियायों को सिद्ध करने वाले स्पर्शगुणवाले प्राण अन्तःकरण और इन्द्रियां (स्थ) है उनको (श्रेष्ठतमाय) अत्युत्तम (कर्म्मणे) करने योग्य सर्वपकारक यज्ञादि कर्मों के लिये (पार्पयतु) अच्छी प्रकार संयुक्त करें। हम लोग (इषे) अन्न आदि उत्तम-उत्तम पदार्थों और विज्ञान की इच्छा और (उर्जे) पराक्रम अर्थात उत्तम रस की प्राप्ती के लिए (भागम्) सेवा करने योग्य धन और ज्ञान के भरे हुए (त्वा) उक्त गुणों वाले और (त्वा) श्रेष्ठ पराक्रमादि गुणों को देने वाले आपका सब प्रकार से आश्रय करते है। हे मित्र लोगों ! तुम भी ऐसे हो कर (आप्यायध्वम्) उन्नति को प्राप्त हो तथा हम भी हों। हे भगवन् जगदीश्वर हम लोगों के (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य की प्राप्ती के लिए (प्रजावतीः) जिनके बहुत संतान हैं तथा जो (अनमिवाः) व्याधि और (अयक्ष्माः) जिनमें राज यक्ष्माआदि रोग नहीं है वे (अध्न्याः) जो-जो गौ आदि पशु वा उन्नति करने योग्य है जो कभी हिंसा करने योग्य नहीं है कि जो इन्द्रियों या पृथिवी आदि लोक है उन को सदैव (प्रार्पयतु) नियत किजीये । हे जगदिश्वर!आपकी कृपा से हम लोगों में से दुःख देने के लिए कोइ (अघंशसः) पापी वा (स्तेनः) चोर डाकू (मा ईशत) मत उत्तपन्न हो तथा आप इस (यजमानस्य) परमेंश्वर और सर्वोपकारक धर्म का सेवन करने वाले मनुष्य के (पशून्) गौ-घोड़े और हथी आदि तथा लक्ष्मी और प्रजा की (पाहि) निरन्तर रक्षा कीजिए जिससे इन पदार्थों को हरने की पुर्वोक्त कोई दुष्ट मनुष्य समर्थ न हो (अस्मिन्) इस धार्म्मिक (गोपतौ) पृथिवी आदि पदार्थों की रक्षा चाहने वाले सज्जन मनुष्य के समिप (बह्वीः) बहुत से उक्त पदार्थ (ध्रुवाः) निश्चल सुख के हेतु (स्यात) हों ।

 

 

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       वेद मानव जीवन की अमुल्य धरोहर है, सम्पूर्ण मानव जाती के लिए इसमें परम आवश्यक सभी विषयों का संग्रह वेदों में किया गया है, वेदों के विषय में पूर्ण सत्य लोग नहीं जानने के कारण लोग बहुत प्रकार के झुठ पाखंड और आडम्बर पूर्ण जीवन जीवन जीने के लिए विवश है। ऐसा नहीं है कि वेदों पर काम नहीं हुआ है लेकिन वह अभी भी पर्याप्त नहीं है उस कमी को पुरा करने के लिये मेरा यह एक भागिरथ प्रयास है। क्योंकि यह वेद जब तक भारत में लोगों के जनमानस में अत्यधिक प्रचलित था तभी तक यह भारत सम्पूर्ण  विश्व का धर्म गुरु था , जबसे भारतियों ने वेदों का त्याग किया है तभी से भारत पतन के गर्त में निरन्तर गिरता ही जा रहा है। इसको पतन की गर्त से बचाने के लिये ही महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने अथक प्रयाश कर के वेदों की तरफ लौटो इसका नारा दिया जिसका परिणाम यह हुआ की हमारा भारत हजारों सालों की गुलामी की भयंकर जंजीरों से मुक्त हुआ, हमारे विर जवानों ने अपने जीवन की बली देकर विदेशी आक्रान्ताओं से भारत भुमी को स्वतन्त्रता दिलाने में सफलता प्राप्त की, लेकिन महर्षि स्वामी दयान्नद का कार्य अभी पूरा नहीं हुआ आज भी हमारा भारत देश अपने कुछ देश के गद्दारों के हाथों का कटपुतली बन कर रह गया है देश में हर तरफ से अज्ञान पाखंड का प्रचार निरन्तर बढ़ रहा है अपने चरम पर पहुंच चुका है। हर तरफ से भयानक विभत्स चित्कार निकल रहीं है कहीं गरीबी के नाम पर तो कहीं अमिरी के नाम पर कही रंग भेद के नाम कहीं धर्म के नाम हर तरफ से सम्पूर्ण भारत की निव चरमारा रही कब पूर्ण रूप से तबाह हो जायें यह कहना निश्चित नहीं है। यह सब देखते हुये अब वह समय आगया है की लोगों के समक्ष वेदों के वास्तविक स्वरूप को सामने लाया जाये और, लोगों को के जीवन से पाखंड, अन्याय, असत्य, झुठ को दूर करने का प्रयास किया जाये। मैं जानता हुं कि हमारा यह प्रयास इस विशाल अंधकार और अज्ञान के महासागर में उसी प्रकार से है जैसै आमावस्या की रात में सूर्य की अनुपस्थिती में दिपक से काम लिया जाये। दिपक प्रकाश ही देता है हां यह सत्य है कि उसकी मात्रा कम है लेकिन गुण वहीं प्रकाश का ही है।

 

     वेद क्या हैं ? इनके रचयिता कौन हैं ? वेदों को पढ़ने की क्या आवश्यकता है ? हम क्यों मानें कि वेदों का रचयिता ईश्वर ही है ?

 

      मनुष्य के अल्पज्ञ (थोड़ा जानने वाला) होने के कारण किसी विषय पर उसके विचारों को अन्तिम नहीं माना जा सकता इसलिए किसी विषय को प्रतिपादित करने के लिए अगर किसी के विचारों को अन्तिम माना जा सकता है तो वह केवल सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाला) ही हो सकता है। वेदों में निहित ज्ञान किन्हीं व्यक्तियों के विचार नहीं बल्कि ईश्वरीय ज्ञान है। इस बात को निम्नलिखित तर्को से सिद्ध किया जा सकता है।

 

1. अगर हम किसी टैक्निकल चीज़ को खरीदते हैं तो निर्माता की तरफ से हमें एक निर्देशित पुस्तिका दी जाती है जिसमें उस चीज़ के प्रयोग आदि की विधि लिखी होती है। अगर कम्पयूटर जैसी साधारण वस्तु के खरीददार को निर्माता द्वारा उसके उचित प्रयोग के लिए आवश्यक ज्ञान (दिशा - निर्देश) न देना असामान्य है तो यह आवश्यक है कि सृष्टि जैसी उत्कृष्ट कृति के निर्माता (र्इश्वर) द्वारा सृष्टि के उचित उपयोग के लिए, सृष्टि के आरम्भ (जब से मानव का इस सृष्टि में आगमन हुआ क्योकि वेद ज्ञान का लाभ प्राणी को मानव योनि में ही हो सकता है।) में आवश्यक ज्ञान (दिशा-निर्देश) दिया गया।यह ज्ञान र्इश्वर ने कुछ ऋषियों की आत्माओं में प्रकाशित किया। यह ज्ञान ही वेद है। (वेद का शाब्दिक अर्थ भी ज्ञान ही है। यह ज्ञान आज वेद नाम की पुस्तकों में संजो लिया गया है।

 

 

2. मनुष्य अल्पज्ञ है इसलिए उसके द्वारा निर्मित वस्तुओं में समय के साथ-साथ सुधार होता रहता है। व्यक्ति द्वारा निर्मित किसी भी वस्तु को उसकी अन्तिम अवस्था  नहीं कहा जा सकता। उदाहरणार्थ हम मनुष्य द्वारा निर्मित कम्प्युटर, मोबाईल आदि को देख सकते हैं। पिछले 10-15 वर्षों में ये दोनों लगातार परिष्कृत होकर भिन्न- भिन्न अवस्थाओं से गुज़रे हैं। इसके विपरीत र्इश्वर (क्योंकि वह सर्वज्ञ है) द्वारा निर्मित प्रत्येक वस्तु पूर्णता को प्राप्त किए हुए होती है (उनमें सुधार की कोर्इ गुंजाइश नहीं होती) उदाहरणार्थ हम अपने शरीर को ही देखें। इसकी रचना में हम किसी भी तरह की अपूर्णता अथवा त्रुटि नहीं ढूंढ सकते। वेद में कही किसी भी बात को आज तक अन्यथा सिद्ध नहीं किया जा सका।

 

3. ज्ञान की परम्परा पुरानी है और यह दूसरों से प्राप्त होता है। हम अपने गुरु से ज्ञान प्राप्त करते हैं। गुरु ने अपने गुरु से और उन्होंने भी अपने गुरु से ज्ञान प्राप्त किया। पीछे चलते जाने पर अन्त में प्रश्न होता है कि सृष्टि के प्रारम्भ में ज्ञान किससे प्राप्त होता है। तब सभी शास्त्रों का एक ही उत्तर है (जो योग दर्शन के अनुसार है) कि वह परमात्मा ही गुरुओं का गुरु है। उसी ने सृष्टि के प्रारम्भ में प्राणी मात्र के कल्याण के लिए ज्ञान दिया है, जिससे व्यक्ति संसार को, अपने-आपको और परमात्मा को जान सके। संसार क्या है ? संसार में परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व के साथ कैसे बर्तना है ? मनुष्य के इन सबके प्रति कर्तव्य कर्म क्या हैं ? मैं कौन हूँ ? मैं कहाँ से आया हूँ ? मैं क्या लेकर आया था ? मुझे क्या लेकर जाना है ? मेरा संसार में आने का उद्देश्य क्या है ? यह संसार कहां से आ गया ? संसार के इस सृष्टा का स्वरूप क्या है ? इसकी उपासना क्यों करें ? कहाँ करें ? किसलिए करें ? आदि प्रश्नों के उत्तर वेदों में है।

 

4. वेद की शिक्षाएं किसी देश, काल, लिंग, जाति या जाति समूह विशेष के लिए ही उपयोगी नहीं है। इनकी उपयोगिता प्राणी मात्र के लिए सार्वकालिक व सार्वदेशिक है। यदि कोर्इ शंका करे तो वह वेद- मन्त्रों के अभिप्राय को देखे और समझे, जिनमें आस्तिक्ता, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, विश्व मैत्री, परस्पर की सद्भावना, व्रत पालन जैसे भावों का संकलन है।

 

5. रचना में रचयिता के गुण कर्म, और स्वभाव प्रतिबिम्बित होते हैं। वेदों में पाई जाने वाली कोई भी बात ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के विपरीत नहीं है। किसी विषय के समर्थन व विरोध में वेद में कही बातें व वेदों के अनुरूप ऋषियों के वचन शब्द-प्रमाण माने जाते हैं।

 

    वेद मन्त्रों के अर्थों को जानने, समझने व कार्यान्वित करने की महत्ता को बयान करना मुश्किल है। वेद मंत्रो के सही उच्चारण की भी विशेष सार्थकता है। परन्तु अर्थों को छोड़ वेद मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण से हमें इस ज्ञान के सही तात्पर्य का पता नहीं चल सकता।

 

    ज्ञान के प्रकाश से अज्ञान का अन्धकार दूर होता है। अज्ञान ही दुखों का कारण है। जितना जितना हम ज्ञान को अर्जित करते जाते हैं उतना उतना हमारे दुखों में कमी आती जाती है। जिन परिस्थितियों के कारण हमें दुख होता हैज्ञान उन परिस्थितियों में कमी नहीं लाता बल्कि हमारे अन्दर ऐसा प्रकाश भर देता है कि हमें हमारी इच्छा के विरुद्ध परिस्थितियों के रहने पर भी दुख की अनुभूति नहीं होती । ईश्वर प्रदत्त वेद सच्चे ज्ञान का एक मात्र स्रोत है। यदि हम ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं तो हमारे पास वेदों को पढ़ने के अलावा और कोई दूसरा विकल्प नहीं है।

 

     वेद का उद्भव भारतिय ऋषियों के हृदय में हुआ परमेश्वर की असिम कृपा से श्रृष्टी के प्रारम्भ में, वेद उतने ही पुराने है जितनी यह श्रृष्टी पुरानी या अनादी है। और यह सब भारत भुमीपर ही संभव हुआ, अब प्रश्न उठता है कि यह भारतिय आखिर कौन है?  

 

 

 

      समान्यत विद्वान भारतीय इतिहास को एक संपन्न पर अर्धलिखित इतिहास बताते हैं पर भारतीय इतिहास के कई स्रोत है। सिंधु घाटी की लिपि, अशोक के शिलालेख, हेरोडोटस, फ़ा हियान, ह्वेन सांग, संगम साहित्य, मार्कोपोलो, संस्कृत लेखकों आदि से प्राचीन भारत का इतिहास प्राप्त होता है। मध्यकाल में अल-बेरुनी और उसके बाद दिल्ली सल्तनत के राजाओं की जीवनी भी महत्वपूर्ण है। बाबरनामा, आईन-ए-अकबरी आदि जीवनियाँ हमें उत्तर मध्यकाल के बारे में बताती हैं।

 

      प्रागैतिहासिक काल

 

      भीमबेटका के शैल-चित्र (३०,००० वर्ष पुराने)

  

   भारत में मानव जीवन का प्राचीनतम प्रमाण १००,००० से ८०,००० वर्ष पूर्व का है।। पाषाण युग (भीमबेटका, मध्य प्रदेश) के चट्टानों पर चित्रों का कालक्रम ४०,००० ई पू से ९००० ई पू माना जाता है। प्रथम स्थायी बस्तियां ने ९००० वर्ष पूर्व स्वरुप लिया। उत्तर पश्चिम में सिन्धु घाटी सभ्यता ७००० ई पू विकसित हुई, जो २६वीं शताब्दी ईसा पूर्व और २०वीं शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य अपने चरम पर थी। वैदिक सभ्यता का कालक्रम भी ज्योतिष के विश्लेषण से ४००० ई पू तक जाता है।

 

      राष्ट्र के रूप में उदय

 

      भारत को एक सनातन राष्ट्र माना जाता है क्योंकि यह मानव सभ्यता का पहला राष्ट्र था। श्रीमद्भागवत के पञ्चम स्कन्ध में भारत राष्ट्र की स्थापना का वर्णन आता है।

 

      भारतीय दर्शन के अनुसार सृष्टि उत्पत्ति के पश्चात ब्रह्मा के मानस पुत्र स्वायंभुव मनु ने व्यवस्था सम्भाली। इनके दो पुत्र, प्रियव्रत और उत्तानपाद थे। उत्तानपाद भक्त ध्रुव के पिता थे। इन्हीं प्रियव्रत के दस पुत्र थे। तीन पुत्र बाल्यकाल से ही विरक्त थे। इस कारण प्रियव्रत ने पृथ्वी को सात भागों में विभक्त कर एक-एक भाग प्रत्येक पुत्र को सौंप दिया। इन्हीं में से एक थे आग्नीध्र जिन्हें जम्बूद्वीप का शासन कार्य सौंपा गया। वृद्धावस्था में आग्नीध्र ने अपने नौ पुत्रों को जम्बूद्वीप के विभिन्न नौ स्थानों का शासन दायित्व सौंपा। इन नौ पुत्रों में सबसे बड़े थे नाभि जिन्हें हिमवर्ष का भू-भाग मिला। इन्होंने हिमवर्ष को स्वयं के नाम अजनाभ से जोड़कर अजनाभवर्ष प्रचारित किया। यह हिमवर्ष या अजनाभवर्ष ही प्राचीन भारत देश था। राजा नाभि के पुत्र थे ऋषभ। ऋषभदेव के सौ पुत्रों में भरत ज्येष्ठ एवं सबसे गुणवान थे। ऋषभदेव ने वानप्रस्थ लेने पर उन्हें राजपाट सौंप दिया। पहले भारतवर्ष का नाम ॠषभदेव के पिता नाभिराज के नाम पर अजनाभवर्ष प्रसिद्ध था। भरत के नाम से ही लोग अजनाभखण्ड को भारतवर्ष कहने लगे।

 

      प्राचीन भारत

 

१००० ई पू के पश्चात १६ महाजनपद उत्तर भारत में मिलते हैं। ५०० ईसवी पूर्व के बाद, कई स्वतंत्र राज्य बन गए। उत्तर में मौर्य वंश, जिसमें चन्द्रगुप्त मौर्य और अशोक सम्मिलित थे, ने भारत के सांस्कृतिक पटल पर उल्लेखनीय छाप छोड़ी | १८० ईसवी के आरम्भ से, मध्य एशिया से कई आक्रमण हुए, जिनके परिणामस्वरूप उत्तरी भारतीय उपमहाद्वीप में इंडो-ग्रीक, इंडो-स्किथिअन, इंडो-पार्थियन और अंततः कुषाण राजवंश स्थापित हुए | तीसरी शताब्दी के आगे का समय जब भारत पर गुप्त वंश का शासन था, भारत का "स्वर्णिम काल" कहलाया। दक्षिण भारत में भिन्न-भिन्न समयकाल में कई राजवंश चालुक्य, चेर, चोल, कदम्ब, पल्लव तथा पांड्य चले | विज्ञान, कला, साहित्य, गणित, खगोल शास्त्र, प्राचीन प्रौद्योगिकी, धर्म, तथा दर्शन इन्हीं राजाओं के शासनकाल में फ़ले-फ़ूले |

     

मध्यकालीन भारत

 

     12वीं शताब्दी के प्रारंभ में, भारत पर इस्लामी आक्रमणों के पश्चात, उत्तरी व केन्द्रीय भारत का अधिकांश भाग दिल्ली सल्तनत के शासनाधीन हो गया, और बाद में, अधिकांश उपमहाद्वीप मुगल वंश के अधीन। दक्षिण भारत में विजयनगर साम्राज्य शक्तिशाली निकला। हालांकि, विशेषतः तुलनात्मक रूप से, संरक्षित दक्षिण में, अनेक राज्य शेष रहे अथवा अस्तित्व में आये।

 

      17वीं शताब्दी के मध्यकाल में पुर्तगाल, डच, फ्रांस, ब्रिटेन सहित अनेकों युरोपीय देशों, जो कि भारत से व्यापार करने के इच्छुक थे, उन्होनें देश में स्थापित शासित प्रदेश, जो कि आपस में युद्ध करने में व्यस्त थे, का लाभ प्राप्त किया। अंग्रेज दुसरे देशों से व्यापार के इच्छुक लोगों को रोकने में सफल रहे और १८४० ई तक लगभग संपूर्ण देश पर शासन करने में सफल हुए। १८५७ ई में ब्रिटिश इस्ट इंडिया कम्पनी के विरुद्ध असफल विद्रोह, जो कि भारतीय स्वतन्त्रता के प्रथम संग्राम से जाना जाता है, के बाद भारत का अधिकांश भाग सीधे अंग्रेजी शासन के प्रशासनिक नियंत्रण में आ गया।

 

 

    आधुनिक भारत

 

    भारत की स्वतन्त्रता और विभाजन साथ-साथ

 

बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में अंग्रेजी शासन से स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये संघर्ष चला। इस संघर्ष के परिणामस्वरूप 15 अगस्त, 1947 ई को सफल हुआ जब भारत ने अंग्रेजी शासन से स्वतंत्रता प्राप्त की, मगर देश को विभाजन कर दिया गया। तदुपरान्त 26 जनवरी, 1950 ई को भारत एक गणराज्य बना।

 

     भारत का इतिहास कई हजार साल पुराना माना जाता है। मेहरगढ़ पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण एक स्थान है जहाँ नवपाषाण युग (७००० ईसा-पूर्व से २५०० ईसा-पूर्व) के बहुत से अवशेष मिले हैं। सिन्धु घाटी सभ्यता, जिसका आरंभ काल लगभग ३३०० ईसापूर्व से माना जाता है, प्राचीन मिस्र और सुमेर सभ्यता के साथ विश्व की प्राचीनतम सभ्यता में से एक हैं। इस सभ्यता की लिपि अब तक सफलता पूर्वक पढ़ी नहीं जा सकी है। सिंधु घाटी सभ्यता वर्तमान पाकिस्तान और उससे सटे भारतीय प्रदेशों में फैली थी। पुरातत्त्व प्रमाणों के आधार पर १९०० ईसापूर्व के आसपास इस सभ्यता का अक्स्मात पतन हो गया। आर्यों द्वारा उत्तर तथा मध्य भारत में एक विकसित सभ्यता का निर्माण किया गया, जिसे वैदिक सभ्यता भी कहते हैं। प्राचीन भारत के इतिहास में वैदिक सभ्यता सबसे प्रारंभिक सभ्यता है जिसका संबंध आर्यों के आगमन से है। इसका नामकरण आर्यों के प्रारम्भिक साहित्य वेदों के नाम पर किया गया है। आर्यों की भाषा संस्कृत थी और धर्म "वैदिक धर्म" या "सनातन धर्म" के नाम से प्रसिद्ध था, बाद में विदेशी आक्रांताओं द्वारा इस धर्म का नाम हिन्दू पड़ा।

 

     वैदिक सभ्यता सरस्वती नदी के तटीय क्षेत्र जिसमें आधुनिक भारत के पंजाब (भारत) और हरियाणा राज्य आते हैं, में विकसित हुई। आम तौर पर अधिकतर विद्वान वैदिक सभ्यता का काल २००० ईसा पूर्व से ६०० ईसा पूर्व के बीच में मानते है, परन्तु नए पुरातत्त्व उत्खननों से मिले अवशेषों में वैदिक सभ्यता से संबंधित कई अवशेष मिले है जिससे कुछ आधुनिक विद्वान यह मानने लगे हैं कि वैदिक सभ्यता भारत में ही शुरु हुई थी, आर्य भारतीय मूल के ही थे और ऋग्वेद का रचना काल ३००० ईसा पूर्व रहा होगा, क्योंकि आर्यो के भारत में आने का न तो कोई पुरातत्त्व उत्खननों पर अधारित प्रमाण मिला है और न ही डी एन ए अनुसन्धानों से कोई प्रमाण मिला है। हाल ही में भारतीय पुरातत्व परिषद् द्वारा की गयी सरस्वती नदी की खोज से वैदिक सभ्यता, हड़प्पा सभ्यता और आर्यों के बारे में एक नया दृष्टिकोण सामने आया है। हड़प्पा सभ्यता को सिन्धु-सरस्वती सभ्यता नाम दिया है, क्योंकि हड़प्पा सभ्यता की २६०० बस्तियों में से वर्तमान पाकिस्तान में सिन्धु तट पर मात्र २६५ बस्तियां थीं, जबकि शेष अधिकांश बस्तियां सरस्वती नदी के तट पर मिलती हैं, सरस्वती एक विशाल नदी थी। पहाड़ों को तोड़ती हुई निकलती थी और मैदानों से होती हुई समुद्र में जाकर विलीन हो जाती थी। इसका वर्णन ऋग्वेद में बार-बार आता है, यह आज से ४००० साल पूर्व भूगर्भी बदलाव की वजह से सूख गयी थी।

 

     ईसा पूर्व ७ वीं और शुरूआती ६ वीं शताब्दि सदी में जैन और बौद्ध धर्म सम्प्रदाय लोकप्रिय हुए। अशोक (ईसापूर्व २६५-२४१) इस काल का एक महत्वपूर्ण राजा था जिसका साम्राज्य अफगानिस्तान से मणिपुर तक और तक्षशिला से कर्नाटक तक फैल गया था। पर वो सम्पूर्ण दक्षिण तक नहीं जा सका। दक्षिण में चोल सबसे शक्तिशाली निकले। संगम साहित्य की शुरुआत भी दक्षिण में इसी समय हुई। भगवान गौतम बुद्ध के जीवनकाल में, ईसा पूर्व ७ वीं और शुरूआती ६ वीं शताब्दि के दौरान सोलह बड़ी शक्तियां (महाजनपद) विद्यमान थे। अति महत्‍वपूर्ण गणराज्‍यों में कपिलवस्‍तु के शाक्‍य और वैशाली के लिच्‍छवी गणराज्‍य थे। गणराज्‍यों के अलावा राजतंत्रीय राज्‍य भी थे, जिनमें से कौशाम्‍बी (वत्‍स), मगध, कोशल, कुरु, पान्चाल, चेदि और अवन्ति महत्‍वपूर्ण थे। इन राज्‍यों का शासन ऐसे शक्तिशाली व्‍यक्तियों के पास था, जिन्‍होंने राज्‍य विस्‍तार और पड़ोसी राज्‍यों को अपने में मिलाने की नीति अपना रखी थी। तथापि गणराज्‍यात्‍मक राज्‍यों के तब भी स्‍पष्‍ट संकेत थे जब राजाओं के अधीन राज्‍यों का विस्‍तार हो रहा था। इसके बाद भारत छोटे-छोटे साम्राज्यों में बंट गया।

 

     आठवीं सदी में सिन्ध पर अरबी अधिकार हो गाय। यह इस्लाम का प्रवेश माना जाता है। बारहवीं सदी के अन्त तक दिल्ली की गद्दी पर तुर्क दासों का शासन आ गया जिन्होंने अगले कई सालों तक राज किया। दक्षिण में हिन्दू विजयनगर और गोलकुंडा के राज्य थे। १५५६ में विजय नगर का पतन हो गया। सन् १५२६ में मध्य एशिया से निर्वासित राजकुमार बाबर ने काबुल में पनाह ली और भारत पर आक्रमण किया। उसने मुग़ल वंश की स्थापना की जो अगले ३०० सालों तक चला। इसी समय दक्षिण-पूर्वी तट से पुर्तगाल का समुद्री व्यापार शुरु हो गया था। बाबर का पोता अकबर धार्मिक सहिष्णुता के लिए विख्यात हुआ। उसने हिन्दुओं पर से जज़िया कर हटा लिया। १६५९ में औरंग़ज़ेब ने इसे फ़िर से लागू कर दिया। औरंग़ज़ेब ने कश्मीर में तथा अन्य स्थानों पर हिन्दुओं को बलात मुसलमान बनवाया। उसी समय केन्द्रीय और दक्षिण भारत में शिवाजी के नेतृत्व में मराठे शक्तिशाली हो रहे थे। औरंगज़ेब ने दक्षिण की ओर ध्यान लगाया तो उत्तर में सिखों का उदय हो गया। औरंग़ज़ेब के मरते ही (१७०७) मुगल साम्राज्य बिखर गया। अंग्रेज़ों ने डचों, पुर्तगालियों तथा फ्रांसिसियों को भगाकर भारत पर व्यापार का अधिकार सुनिश्चित किया और १८५७ के एक विद्रोह को कुचलने के बाद सत्ता पर काबिज़ हो गए। भारत को आज़ादी १९४७ में मिली जिसमें महात्मा गाँधी के अहिंसा आधारित आंदोलन का योगदान महत्वपूर्ण था। १९४७ के बाद से भारत में गणतांत्रिक शासन लागू है। आज़ादी के समय ही भारत का विभाजन हुआ जिससे पाकिस्तान का जन्म हुआ और दोनों देशों में कश्मीर सहित अन्य मुद्दों पर तनाव बना हुआ है। यह जानकारी पूर्ण नहीं है भारत के बारे में बहुत सुक्ष्म जानकारियां दि गई है जबकि भारत का ईतिहास अरबों साल पुराना श्रृष्टि के साथ वेदों के साथ आरहा है।

 

      दृश्यतेह्यनेनेति दर्शनम् (दृष्यते हि अनेन इति दर्शनम्)

 

अर्थात् असत् एवं सत् पदार्थों का ज्ञान ही दर्शन है। पाश्चात्य फिलॉस्पी शब्द फिलॉस (प्रेम का)+सोफिया (प्रज्ञा) से मिलकर बना है। इसलिए फिलॉसफी का शाब्दिक अर्थ है बुद्धि प्रेम। पाश्चात्य दार्शनिक (फिलॉसफर) बुद्धिमान या प्रज्ञावान व्यक्ति बनना चाहता है। पाश्चात्य दर्शन के इतिहास से यह बात झलक जाती है कि पाश्चात्य दार्शनिक ने विषय ज्ञान के आधार पर ही बुद्धिमान होना चाहा है। इसके विपरीत कुछ उदाहरण अवश्य मिलेंगें जिसमें आचरण शुद्धि तथा मनस् की परिशुद्धता के आधार पर परमसत्ता के साथ साक्षात्कार करने का भी आदर्श पाया जाता है। परंतु यह आदर्श प्राच्य है न कि पाश्चात्य। पाश्चात्य दार्शनिक अपने ज्ञान पर जोर देता है और अपने ज्ञान के अनुरूप अपने चरित्र का संचालन करना अनिवार्य नहीं समझता। केवल पाश्चात्य रहस्यवादी और समाधिवादी विचारक ही इसके अपवाद हैं।

 

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः| स्वं स्वं चरित्रें शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः||

 

      अर्थात् समग्र विश्व भुमंण्डल के मानव भारतवर्ष के लोगों से चरित्र की शिक्षा ग्रहण करके अपने चरित्र को बिशुद्ध बनावें इसी देश के प्राणायाम विद्युतिय ज्ञान से देश में सब प्रकार की सुख शान्ति थी|

 

   भारतीय दर्शन में परम सत्ता के साथ साक्षात्कार करने का दूसरा नाम ही दर्शन हैं। भारतीय परंपरा के अनुसार मनुष्य को परम सत्ता का साक्षात् ज्ञान हो सकता है। इस प्रकार साक्षात्कार के लिए भक्ति ज्ञान तथा योग के मार्ग बताए गए हैं। परंतु दार्शनिक ज्ञान को वैज्ञानिक ज्ञान से भिन्न कहा गया है। वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त करने में आलोच्य विषय में परिवर्तन करना पड़ता है ताकि उसे अपनी इच्छा के अनुसार वश में किया जा सके और फिर उसका इच्छित उपयोग किया जा सके। परंतु प्राच्य दर्शन के अनुसार दार्शनिक ज्ञान जीवन साधना है। ऐसे दर्शन से स्वयं दार्शनिक में ही परिवर्तन हो जाता है। उसे दिव्य दृष्टि प्राप्त हो जाती है। जिसके द्वारा वह समस्त प्राणियों को अपनी समष्टि दृष्टि से देखता है। समसामयिक विचारधारा में प्राच्य दर्शन को धर्म-दर्शन माना जाता है और पाश्चात्य दर्शन को भाषा सुधार तथा प्रत्ययों का स्पष्टिकरण कहा जाता है।

 

   यह जानने से पहले थोड़ा हमें और समझना होगा कि भारत कैसे, कहां से उपस्थित हुआ? इस भुमंडल पर। इससे पहले हमें यह जानना चाहेंगे कि यह पृथीवी कैसे प्रकट हो गईदृश्य मय इस सौर मंडल में उससे पहले यह सौर्य मंडल सूर्य आदि कैसे आये ? ऐसे बहुत सारे सौर्यमंडल आकाशगंगा में विद्यमान है ऐसी बहुत सारी आकाश गंगाये है जो ब्रह्माण्ड में विद्ययमान है। अब प्रश्न उठता है कि यह आकाशगंगाओं को धारण करने वाला ब्रह्माण्ड कैसे आया ? बहुत सारे लम्बें समय तक कई साल मैंने सोध किया इन सारे प्रश्नों के उत्तर को जानने के लियेजिससे मुझे सबसे श्रेष्ठ प्रमाणिक ज्ञान मिला उसको मैं संक्षिप्त रूप से आप सबके सामने आप सब को बाटने के लिये उपस्थित हुआ हुं। इसको मैंने बहुत अधिक संघर्ष और अथाह दुःखों के पहाड़ों, समंदर और रेगिस्तान की यात्रा करने के बाद बहुत सारे दिव्य गुरुओं के सानिध्य में कई सालों तक बिताने के बाद मिला, इसके लिये मुझे संपूर्ण भारत वर्ष का भ्रमण करना पड़ा जिसके उपरान्त यह दिव्य अद्भुत ज्ञान की प्राप्ती हुई यह किसी प्रकार के मुल्य से उपलब्ध होने योग्य नहीं है। इसमे योगियोंविद्वानों वैज्ञानिको और बहुत प्रकार के श्रोतो के माध्यम से यह ज्ञान प्राप्त हुआ है। जिसमें मैने कुछ अपने वुद्धि से सोध के जरिये भी जो कुछ अनुभव किया है उसको भी जोड़ा है।

 

   यह सब ज्ञान प्राप्त करने के लिए मैंने बहुत सारे शास्त्रों का बहुत गहराई से व्यक्तिगत रूप से अध्यन, चिन्तन, मनन, स्वाध्याय करके ज्ञान को संश्लेषित किया जिसमें सबसे प्रमुख है । वेदवैदिक षट् दर्शन, उपनिषद्, १८ पुराण और इसके अतिरिक्त नास्तिक दर्शन बौद्ध, जैन, चार्वाक दर्शन पाश्चात्य दर्शन इत्यादि के साथ आधुनिक साहित्य गद्य, पद्, लगभग हर प्रकार के उन सब श्रोतों का उपयोग किया जिससे मुझे लगा कि मुझे कुछ जानकारी ज्ञान प्राप्त हो सकती है। जिससे अपने ज्ञान को विकषित किया जा सकता है। वह सब साधन मैंने उपयोग किया, मेरे जो सामर्थ के अनुसार था। वह सब किया जो मेरे सामर्थ्य का चर्मेत्कर्ष है।

 

    सबसे प्रमुख जो इस भुमंडल का सबसे श्रेष्ठ अद्वितिय, अजेय, अद्भुत, अलौकिक ज्ञान का श्रोत है जिनसे लग-भग हमारे सारे प्रश्न का और समस्या का समाधान मुझको मिला वह एक मुक्त कन्ठ शब्दों में कहा जाये तो वह वेद ही है। तो फिर हम सर्व प्रथम कालजई, अपौरुषेश, ईश्वर कृत वेद के बारे में जानते है। उससे पहले हम हम सर्वप्रथम ईश्वर को पाते है। इसलिये यह ज्ञान के श्रोत को परमेश्वर के ज्ञान से ही सुरु करते है। सर्व प्रथम ईश्वर क्या है? कहां है कैसा है? क्योंकि सर्वप्रथम ईश्वर ही था, है और वही रहेगा। यह सब हमें शब्द के माध्यम से प्राप्त हुआ है, इसलिए इन्हें शब्द ब्रह्म कहा गया। अर्थात ईश्वर शब्द रुप है उसे शब्दों के माध्यम से जान सकते है शब्द रहस्य पूर्ण है जो सबसे श्रेष्ठ शब्द है उनसे ही ईश्वर प्रकट होता है। हमारी खोज में जो सबसे श्रेष्ठ शब्द का संकलन है ईश्वर के बारे में वह निसंदेह एक सार्वभौमिक सत्य है कि वह वेद ही है इसलिये हम वेद के मंत्रों को समझते है जो ईश्वर के संबन्ध में है। जो ईश्वर के गुण, कर्मस्वभाव स हमे परीचित कराते है।

 

  ओ३म् तदेवाग्निस्तदादित्ययस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्रं तद् ब्रह्मा ताऽआपः स प्रजापतिः।। यजुर्वेद ३२,

 

      हे मनुष्यों! वह परमेश्वर सर्वज्ञ सर्वव्यापी सनातन अनादि सर्वाधार सच्चिदानन्दस्वरूप नित्य, शुद्ध, बुद्धमुक्तस्वभाव, न्यायकारी, दयालु जगत विश्व ब्रह्माण्ड का श्रष्टा, धारण करता और सब का अन्तर्यामी है। ज्ञानस्वरूप और स्वयं प्रकाशित होने से वह अग्नि के समान है। वह आदित्य सूर्य के समान बलवान शक्ति का जिसके कोई पार नहीं है प्रलय के समय सब को ग्रहण करने से आदित्य के समान जिस प्रकार सूर्य अपनी गुरुत्वाकर्षण की शक्ती से सम्पूर्ण सौर्य मंडल के ग्रहों को धारण कर रहा हैठीक ऐसे ही इससे भी बड़े जिसमें अनन्त ब्रह्माण्ड है उसको भी परमेश्वर धारण कर रहा है। वह परमेश्वर वायु के समान अनन्त बलवान् और सबका कर्ता होने से वायु नाम से भी जाना जाता है। जैसा कि ऋगवेद का मंत्र कहता है।

 

(ओ३म् द्वाविमौ वातौ वात आसिन्धोरा परावतः| दक्षं ते अन्य आवतु परान्यो वातु यद्रपः|| ऋग्वेद   १० , १३७-२

 

     यहां दो प्रकार के वायु बहते है एक वायु भीतर हृदय तक बहता है दूसरा बाहर वायुमंडल में बहता है| उसमें एक तेरे अन्दर तेरे लिये शक्ती बल को बहा कर लाये दूसरा तेरे से बाहर तेरे रोग बिमारी को बाहर बहा कर ले आवे |) वह परमेश्वर आनन्दस्वरूप और आनन्द कारक होने से चन्द्रमा के समान है। वही परमेश्वर शुक्रम शीघ्रकारी अथवा शुद्ध भाव से शुक्र विर्य के कण के समान है। वह महान होने से ब्रह्मा सर्वत्र व्यापक होने से प्रजापति। भी कहलाता है।

 

     वेद क्या है कितने पुराने है?

 

    एक समय वह भी था जब सारे संसार का एक ही धर्म था-वैदिक धर्म। एक ही धर्मग्रन्थ था वेद। एक ही गुरु मंत्र था-गायत्री। सभी का एक ही अभिवादन था-नमस्ते। एक ही विश्वभाषा थी-संस्कृत। और एक ही उपास्य देव था-सृष्टि का रचयिता परमपिता परमेश्वर, जिसका मुख्य नाम ओ३म् है। तब संसार के सभी मनुष्यों की एक ही संज्ञा थी-आर्य। सारा विश्व एकता के इस सप्त सूत्रों में बँधा, प्रभु का प्यार प्राप्त कर सुख शान्ति से रहता था। दुनिया भर के लोग आर्यावर्त कहलाने वाले इस देश भारत में विद्या ग्रहण करने आते थे। अध्यात्म और योग में इसका कोई सानी नहीं था।

 

   किन्तु महाभारत युद्ध के पश्चात् ब्राह्मण वर्णीय जनों के 'अनभ्यासेन वेदानां' अर्थात् वेदों के अनभ्यास तथा आलस्य और स्वार्थ बुद्धि के कारण स्थिति बदली और क्षत्रियों में "जिसकी लाठी उसकी भैंस" वाली एकतांत्रिक सामन्तवादी प्रणाली चल पड़ी। धर्म के नाम पर पाखंडियों अर्थात् वेदनिन्दक ,वेदविरुद्ध आचरण करने वालों की बीन बजने लगी,यह विश्वसम्राट् एवं जगतगुरु भारत विदेशियों का क्रीतदास बनकर रह गया। जो जगतगुरु सबका सरताज कहलाने वाला था उसे मोहताज बना दिया गया।

 

   दासता की इन्हीं बेड़ियों को काटने और धर्म का वास्तविक स्वरुप बताने के लिए युगों-युगों के पश्चात् इस भारत भूमि गुजरात प्रान्त के टंकारा ग्राम की मिट्टी से एक रत्न पैदा हुआ जिसका नाम मूलशंकर रखा गया। जो बाद में'महर्षि दयानन्द सरस्वती' के नाम से विश्वविख्यात् हुआ। जब उसने धर्म के नाम पर पल रहे घोर अधर्म, अन्धविश्वास, रुढ़िवाद, गुरुड़मवाद, जन्मगत मिथ्या जात्याभिमान, बहुदेववाद, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध और मूर्ति पूजा आदि बुराइयों के विरुद्ध पाखण्ड-खण्डिनी पताका को फहराते हुए निर्भय नाद किया तो सारा भूमंडल टंकारा वाले ऋषि की जय जयकार कर उठा।

 

  उसकी इस विजय के पीछे सबसे बड़ा कारण चिरकाल से सोई हुई मानव जाति को उसके वास्तविक धर्म से परिचित कराना था। महर्षि ने धर्म के नाम पर लुटती मानवता को अज्ञान अन्धकार से बाहर निकालकर सत्य सनातन वैदिक धर्म में पुनः स्थापित किया। आज यदि हम निष्पक्ष होकर तुलना करें कि वैदिक सम्पत्ति को हमारे समक्ष किसने प्रस्तुत किया तो वह मुक्तात्मा देव दयानन्द है, जिसके ऋण से उऋण हम तभी हो सकते हैं  जब वैदिक धर्म को भली-भाँति समझकर अपने जीवन को उसके प्रकाश से आलोकित करें।

 

  वैदिक धर्म संसार के सभी मतों और सम्प्रदायों का उसी प्रकार आधार है जिस प्रकार संसार की समस्त भाषाओं का आधार संस्कृत भाषा है जो सृष्टि के प्रारम्भ से अभी तक अस्तित्व में है। संसार भर के अन्य मत ,पन्थ किसी पीर-पैगम्बर, मसीहागुरु,महात्मा आदि द्वारा चलाये गये हैं, किन्तु चारों वेदों के अपौरुषेय होने से वैदिक धर्म ईश्वरीय है, किसी मनुष्य का चलाया हुआ नहीं है।

 

      वैदिक धर्म में एक निराकार, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, न्यायकारी ईश्वर को ही पूज्य माना जाता है, उसी की उपासना की जाती है, उसके स्थान पर अन्य देवी-देवताओं की नहीं।

 

  धर्म की परिभाषा:-जिसका स्वरुप ईश्वर की आज्ञा का यथावत पालन और पक्षपातरहित न्याय सर्वहित करना है, जो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित और वेदोक्त होने से सब मनुष्यों के लिए मानने योग्य है , उसे धर्म कहते हैं। उत्तम मानवीय गुण-कर्म-स्वभाव को धारण करना ही धर्म की सार्थकता को सिद्ध करता है।

 

   अब वेद क्या है? उसको जानते है वेद विद् धातु से बनता है जिसका मतलब बिदित होना जिससे शुद्ध ज्ञान होता है। वेद मुख्यतः चार प्रकार के है जो मानव कृत नही है वेदों को परमेमश्वर ने श्रृष्टि के प्रारम्भ चार ऋषियों के हृदय में प्रकट किया था। प्रथम ऋग्वेद का साक्षात्कार अग्नि ऋषि ने किया जो ज्ञान काण्ड के रूप में जगत में विख्यात है, इसमे दस हजार से उपर मंत्र है जिनको ऋचाए कहते है। दूसरा यजुर्वेद है जिसमें १९७५ मंत्र है, जो कर्म काण्ड है जिसका साक्षात्कार वायु ऋषि ने किया था। तिसरा वेद साम वेद है जिसमें १८७५ मंत्र है। जो उपाषना काण्ड है। जिसका साक्षात्कार आदित्य ऋषि ने किया था। चौथा वेद अथर्वेद है जिसमें पांच हजार से अधिक मंत्र है इसमें प्राय सभी मंत्र पहले तिन वेदों से ही लिए गये है कुछ ही मंत्र इसके अतिरीक्त है। जो विज्ञान कांड के रूप में जाना जाता है जिसका साक्षात्कार अङ्गिरा ऋषि ने किया था। वेदों को पहले त्रई विद्या के रूप में जानते थे। इनका मुख्य विषय ज्ञान, कर्मउपाषना ही है। या ईश्वरजीवप्रकृती का ज्ञान वेदों में सर्वत्र विद्यमान है। वेदों को श्रुती भी कहते है क्योंकि लाखों करोणों अरबों सालों पहलें से गुरु शिष्य परम्परा से सुरक्षित किये गये है । कंठस्त कर करके यहां तक लाये गये है । जिसे ओरल या मौखिक भाषा कहते है। वेदों को श्रृष्टि के प्रारम्भ में दिया गया था इसलिये वेद उतने ही प्राचिन है जितना की श्रृष्टि है, श्रृष्टि की आयु आज सन दो हजार सत्तरह में एक अरब छानबें करोण आठ लाख तीरपन हजार एक सौ सत्तरह साल हो गये है। वेदों में किसी प्रकार की कोई मिलावट अब तक नहीं हुई है क्योंकि वेदों के प्रत्येक अक्षर शब्द मात्राओं को गिनती की गई है इसमें कुछ भी मिलावट नही कि जा सकती है। स्वरों से बांधा गया है हर मंत्र के तिन अर्थ होते है दैविक, दैहिकआध्यात्मिक यही तिन प्रकार के मुख्य दुःख है जिनसे मुक्त होने का केवल एक मार्ग बताया गया है यह है पुरषार्थ। इसके अतिरिक्त वेदों के छः अंग और छः उपांग है अंगों में क्रमशः शीक्षाकल्पनिरुक्तछन्द, व्याकरण और ज्योतिषी आते है। षड् दर्शन में जो वेदों के उपांग है। योग दर्शन, योगी पंतजली ऋषिसांख्य दर्शन कपिल मुनी द्वारा रचितन्याय दर्शन गौतम ऋषि द्वारा रचितवैशेषिक दर्शन कणाद ऋषि द्वारा रचित है। मिमांशा दर्शन जैमिनी ऋषी द्वारा निर्मित है। वेदान्त दर्शन महर्षि व्यास द्वारा रचित है।

 

ब्रह्माण्ड की उत्पत्ती वेदों के अनुसार-:

 

    शब्द ही प्रथम परमेश्वर के द्वारा उच्चारित किया जिसे नाद ब्रह्म कहते है। जो अदृश्य से दृश्य में प्रकट हुये, परमेंश्वर ने सर्वप्रथम अपना ही स्मरण किया और अपने निज मुख्य नाम ओ३म् का उच्चारण किया क्योंकि यह ओ३म् अपने आप अद्भुत रहस्य पूर्ण अलौकिक दिव्य आश्चर्यमय ब्रह्म है इसमें मुख्यतः तीन तत्त्व श्रृष्टि की अनादी सत्ताये विद्यमान है जिसको हम ब्रह्मा, वीष्णु, महेश, के रूप में पहचानते है। इस ओ३म् में तिन सत्तायें विद्यमान है जिसे ईश्वर, जीवप्रकृति के रूप में जानते है। अ उ म अकार उकार मकार अर्थात सत्, रजतम जिसे वैज्ञानिक भाषा में इलेक्ट्रान, न्युट्रान, प्रोटान के रूप में जानते है यह एक परमाणु रूप ब्रह्म शब्द है। यह शब्द की सुक्ष्तम ध्वनी उर्जा की प्रारम्भीक बीन्दु है जो रेडीयो तरंग से भी सुक्ष्म है और स्थुल रूप में यही परमाणु है। और एक  परमाणु में सभी प्रमुख मुल रूप से ईश्वरजीवप्रकृति के समग्र गुण विद्यमान है। जैसे पानी के एक अणु में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में पानी के रूप समंदर के मुख्य गुण है।

 

    कैसे हुई स्थूल जगत की रचना संसार चेतन (आत्मा) और योग(साधना) गुण और दोष कर्ता शरीर के अन्दर आत्मा का संघटन रूप शरीर योगी और ज्ञानी आज्ञा-चक्र आज्ञा प्रधान विधान पिण्ड और ब्रह्माण्ड रूप स्वराट और विराट शरीर आत्म-ज्योति का रहस्य सौर मण्डल अथवा सौर परिवार तेज-पुंज से पिण्ड रूप पृथ्वी हिरण्य गर्भ से गर्भ स्थित शरीर तक 'हम' अथवा 'मैं' क्या है? अज्ञानी सांसारिक व्यक्ति में हम’  ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और तथाकथित गॉड पार्टिकल नहीं रहता कण-कण में भगवान सभी आध्यात्मिक गुरु शिष्यों के लिए नहीं है परमेश्वर स्वयं में विद्यमान है।

 

     ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और तथाकथित गॉडपार्टिकल जेनेवा स्थित यूरोपियन ऑर्गनाइज़ेशन न्यूक्लियर रिसर्च (सर्न) द्वारा दुनिया के सबसे बड़े महाप्रयोग में १०० से ज्यादा देशों के करीब ८००० वैज्ञानिकों ने हिस्सा लिया और इस पर १० अरब अमेरिकी डॉलर से भी ज्यादा खर्च हुये जिसके परिणाम में तथाकथित गॉड पार्टिकल (हिग्स बोसोन) की खोज करने का दावा कर रहे वैज्ञानिकों की यह सारी खोज आधी अधूरी अपूर्ण के साथ-साथ अनुमान पर आधारित है।

 

   वैज्ञानिकों का मानना है कि हिग्स बोसोनयानि वस्तु में मिलने वाला वह सूक्ष्म कण जिसके कारण वस्तु में भार है। जिसके कारण ही सभी वस्तुएं आपस में संघठित हैं, जो अरबों साल पहले हुये एक महाविस्फोट के बाद अस्तित्व में आया जिसे ही आज के वैज्ञानिक हिग्स बोसोन, ईश्वरीय कण, ब्रह्म कण को अलग-अलग नामों से सम्बोधित कर रहे हैं। इस वैज्ञानिक खोज को भारतीय धर्म गुरु धर्माचार्य भी यह कहते हैं कि कण-कण में भगवान है जिसको विज्ञान ने भी प्रमाणित कर दिया। वैज्ञानिकों का मानना है कि हिग्स बोसोन (ब्रह्म कण) समझ लेने से ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के रहस्य को जानने में बड़ी मदद मिलेगी, यह पता चल सकेगा कि ब्रह्माण्ड जिससे हमारी धरती, चाँद, सूरज सितारे, आकाश गंगायें हैं, कैसे बना? अभीतक विज्ञान मान रहा है कि अरबों साल पहले हुये एक महाविस्फोट जिसे बिग बैंग कहा जाता है, के बाद पदार्थ बने और फिर हमारा ब्रह्माण्ड, लेकिन यह महाप्रयोग उस राज से पर्दा उठा देगा कि ऊर्जा से पदार्थ कैसे बनता हैसर्व प्रथम शब्द से उर्जा और उर्जा से पदार्थ निर्मित हुए।

 

   विज्ञान के इस आधे-अधूरे अप्रमाणित अनुमानित खोज से कई प्रश्न पैदा हो जाते हैं, जैसे कि महाविस्फोट कब और कहाँ हुआ? महाविस्फोट किन-किन पदार्थों के बीच हुआ ? महाविस्फोट में प्रयोग होने वाले पदार्थों की उत्पत्ति कैसे हुई? और कब हुई? ये हिग्स बोसोन के कारण जो वस्तुओं में भार है इसका ओरिजिन कहाँ से है? फिर इस कण से आगे यह ऊर्जा की उत्पत्ति कहाँ से हुई ? फिर यह ब्रह्माण्ड जिस विस्फोट से बना आखिर वह महाविस्फोट क्यों हुआ ? उसका कारण क्या था? महाविस्फोट में कौन कौन से पदार्थ थे और पदार्थों की उत्पत्ति कब और कैसे हुई ? ब्रह्माण्ड में पदार्थों में पायी जाने वाली ऊर्जा शक्ति की उत्पत्ति कहाँ से हुई ? आदि आदि बहुत प्रश्न हैं जिसका जवाब न तो इन वैज्ञानिक के पास है, न इन तथाकथित धर्मगुरूओं के पास है। पदार्थ में पाये जाने वाले सूक्ष्म कण हिग्स बोसोन को ही कण कण में भगवान घोषित करना आधे-अधूरे ज्ञान की पहचान है। कण कण में उर्जा है जीव भी नहीं है, चेतन भी नहीं है बल्कि जिस कण में चेतन विहीन शक्ति है, चेतन विहीन शक्ति को ही आजकल के वैज्ञानिक और आध्यात्मिक लोग परमात्मा-परमेश्वर-भगवान कह कर घोषित करने में लगे हैं और परमात्मा-परमेश्वर-भगवान-खुदा-गॉड के पृथक अस्तित्व को मिटाने में लगे हैं जो कि घन घोर भगवद्द्रोही कार्य है। जब-जब धरती पर ऐसा असुरता रूप नास्तिकता फैलता है तब-तब इस धरती पर स्वयं परम प्रभु-परमेश्वर-खुदा-गॉड-भगवान सम्पूर्ण सृष्टि ब्रह्माण्ड के रहस्यों को उजागर करने हेतु तथा विज्ञान और अध्यात्म का भी रहस्य उजागर करने के लिए अवतरित होते हैं। वास्तव में इस सृष्टि ब्रह्माण्ड का रहस्य और भगवान का रहस्य इस संसार से लेकर सम्पूर्ण सृष्टि में कोई जानता ही नहीं है। चाहे वैज्ञानिक लोग महाप्रयोग करें और आध्यात्मिक लोग जितने भी आध्यात्मिक अनुसन्धान करें, पूरा जीवन लगा दें, लाखों करोड़ों वर्ष लगा दें तब भी इस सृष्टि का और परमात्मा का रहस्य कोई नहीं जान पाएगा। यह सम्पूर्ण सृष्टि ब्रह्माण्डों का रचनाकार उत्पत्ति कर्ता स्वयं परमात्मा-परमेश्वर-भगवान हैं, इस सृष्टि के सम्पूर्ण रहस्य मात्र उसी के पास हैं।

 

   विज्ञान की पहुँच पदार्थ (कण) जड़ तक ही होती है। पदार्थ से पहले शक्ति का रहस्य, इसका उत्पत्ति रहस्य विज्ञान से मिलना कदापि सम्भव नहीं है। ठीक उसी प्रकार किसी भी ध्यान-साधना की अवस्था में दिखाई देने वाले आत्मा ज्योति, दिव्य ज्योति, ब्रह्म ज्योति, शिव शक्ति, अलिमे नूर की उत्पत्ति का रहस्य किसी भी योगी यति आध्यात्मिक के पास नहीं होता। अर्थात वैज्ञानिकों का जड़ पदार्थ और अध्यात्मिकों का चेतन ज्योति का रहस्य केवल अवतार (अर्थात जिसने परमेंश्वर का साक्षात्कार कर लिया है) भगवान के तत्त्वज्ञान में होता है।

 

    ऋग्वेद का नासदिय सुक्त इसके संदर्भ कुछ इस तरह से कहता है।-:

 

   “जब कहीं कुछ भी नहीं था, न यह सृष्टि था, न यह ब्रह्माण्ड, न यह ब्रह्माण्ड में दिखाई देने वाला आकाश, वायु, अग्नि, जल, थल, न सूरज, न चाँद, न तारे, न आकाश गंगायें, न पदार्थ, न चेतन न यह हिग्स बोसोन, न यह ब्रह्म कण अर्थात् जब यह सृष्टि थी ही नहीं तब वह परमात्मा-परमेश्वर-भगवान-खुदा-गॉडशब्द रूपवचन रूप में परम अदृश्य शुन्य रूप परम धाम में था। उसे ही शब्द ब्रह्म भी कहा जाता है। जिस शब्द वचन रूप परमात्मा के अन्दर सृष्टि रचना का संकल्प हुआ। संकल्प यानी कुछ हो, भव, कुछ यह भाव होते ही उस शब्द रूप परमात्मा से एक शब्द निकल कर अलग हुआ यानी एक शब्द उस परमात्मा से छिटका जो शब्द प्रचण्ड तेज पुञ्ज से युक्त था यानी उस में इतना ज्योति तेज शक्ति से युक्त था। इसको ही आदिशक्ति, मूल प्रकृति, अव्यक्त प्रकृति भी कहा जाता है। उस शब्द रूप परमात्मा से एक शब्द छिटकने के पश्चात्त भी उस परमात्मा वाले शब्द में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं हुआ बल्कि वह एक सम्पूर्ण शब्द ही बना रहा, यही इस परमात्मा की आश्चर्यमय विशेषता थी। शब्द रूप भगवान से जो शब्द निकला, जो प्रचण्ड तेज पुञ्ज अक्षय ज्योति से युक्त था उसको ही सम्पूर्ण सृष्टि का कार्य भार सौपा गया। यानी मूल प्रकृति को ही सृष्टि का कार्यभार परमात्मा ने सौंपा और सृष्टि करने के लिए इच्छा शक्ति दिया। (इसी शब्द रूप भगवान से एक शब्द निकलकर छिटककर प्रचण्ड तेज पुञ्ज हुआ इसको विज्ञान अनुमान के आधार पर महाविस्फोट कहता है ) फिर इस प्रचण्ड तेज पुञ्ज शब्द शक्ति से शक्ति उर्जा निकलकर पृथक हुई जो आगे  चलकर आकाश, वायु, अग्नि, जल और थल का रूप लिया यानी पदार्थ का रूप लिया फिर इस सृष्टि का संरचना हुआ यानी उस शब्द मय उर्जा शक्ति से ही पदार्थ बनते हुये इस ब्रह्माण्ड की रचना हुई।

 

       सृष्टि की उत्पत्ति:-

 

   आदि के पूर्व में जब मात्र परमतत्त्वम् आत्मतत्त्वम् रूप शब्द ब्रह्म ही थे। उन्हे संकल्प उत्पन्न हुआ कि कुछ हो। चूँकि वे सत्ता सामर्थ्य से युक्त थे और उनके कार्य करने का माध्यम संकल्प ही है। इसलिए कुछ हो संकल्प करते ही उन्ही शब्द ब्रह्म का अंग रूप शब्द शक्ति अदृश्य उर्जा सः (आत्मा) छिटककर अलग हो गयी,जो संकल्प रूपा आदि शक्ति अथवा मूल प्रकृति कहलायी। तत्त्व ज्ञान शब्द ब्रह्म के निर्देशन में (सः आत्मा) रूप शब्द शुन्य उर्जा शक्ति को सृष्टि उत्पत्ति सम्बन्धी कार्य भार मिला अर्थात् सृष्टि (ब्रह्माण्ड) के सम्बन्ध में निर्देशन, आज्ञा एवं आदेश परमतत्त्वम् आत्मतत्त्वम् रूप शब्द ब्रह्म स्वयं अपने पास, उत्पत्ति संचालन और संहार से सम्बंधित क्रिया-कलाप (सः) आत्मा रूप शब्द शक्ति के पास सौंपा परन्तु स्वयं को इन क्रिया कलापों से परे रखा।

 

     शब्द शक्ति रूप आदि-शक्ति ही मूल प्रकृति भी कहलायी, क्योंकि प्रकृति की उत्पत्ति इसी आदिशक्ति रूप में हुई इसलिए यह मूल प्रकृति भी कहलायी। पुनः आदिशक्ति ने शब्द उर्जा अदृश्य ब्रह्म के निर्देशन एवं सत्ता-सामर्थ्य के अधीन कार्य प्रारम्भ किया। इन्हे कार्य के निष्पादन हेतु इच्छा शक्ति मिला। तत्पश्चात् आदिशक्ति ने सृष्टि उत्पत्ति की इच्छा की तो इच्छा करते ही शब्द शक्ति रूपा आदिशक्ति का तेज दो प्रकार की ज्योतियों में विभाजित हो पहला भोग प्रकृती दूसरा भोक्ता जीवात्मा हो गये, जिसमें पहली ज्योति तो आत्मा ज्योति अथवा दिव्य ज्योति कहलायी तथा दूसरी ज्योति मात्र ज्योति ही कहलायी अर्थात् पहली ज्योति आत्मा जो चेतनता से युक्त है तथा दूसरी ज्योति शक्ति कहलायी इसी से प्राकृति पदार्थ की उत्पत्ति हुई।

 

    ब्रह्माण्ड की उत्तपत्ति के विषय में वेदों में ऋग्वेद कहता है की सर्व प्रथम कुछ भी नहीं था यहां तक आकाश भी नहीं था केवल परमेश्वर था जो अपनी अद्वितिय अद्भुत सामर्थ से शांसे ले रहा था । सर्व प्रथम उसमें इच्क्षा उत्तपन्न हुई की वह विश्व ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हों, ऐसी इच्छा परमेश्वर के हृदय में आते ही शब्द रूप ब्रह्म प्रकट हुआ उसके साथ हि भोग और भेक्ता भी शब्द रूप शुन्य उर्जाये प्रकट हुई अदृश्य जगत से दृश्य जगत में, जिससे एक अद्भुत अलौकिक अकल्पनिय अचानक अग्निपिण्ड प्रकट होगया भोग रूप प्रकृति और दूसरा उसका भोग करे वाला जीव उसमें प्रवेश करके उसका विस्तार करने लगा। और उसमें निरंन्तर बिस्फोट होने लगा जिसमें अनन्त ब्रह्ममाण्डजिसमें से सबसे  छोटा ब्रह्माण्ड हमारा है। उसमें भी सबसे छोटी आकाश गंगा हमारी है। उसमें एक किनारें पर हमारा सूर्य अपने सौर्यमंडल उपस्थित है। जो आकाश गंगा के केन्द्र का अपने सम्पूर्ण ग्रहों के साथ चक्कर लगा रहा है। अनन्त आकाश गंगायें, अनन्त सौर्य मंडल के साथ बहुत सारे सूर्य पैदा हो गये छोटे सुर्य हमारे सौर्य मंडल का उत्पन्न हुआ और इसमें भी विस्फोट हुआ जिससे सभी ग्रह उत्तपन्न हुये जिसमें से ही एक हमारी पृथिवी भी है। हमारी पृथिवी लग- चार अरब वर्ष पुरानी हो चुकी है।

 

   जैसा की पृथवी हमें आज दिखाई देती है वह प्रारम्भ में ऐसा बिल्कुल नहीं थी। यह अपने प्रारम्भीक काल में, सूर्य से निकलने के कारण सूर्य के समान भयंकर ज्वलनशील गैसों का अग्निपिण्ड थी । इसको ठंडा किया गया लगातार अरबों सालों तक बारीष के कारण से, उसके बाद एक विशाल धुम केतु आकर अंतरीक्ष से हमारी पृथिवी से टकरा गया, जिसकी वजह से पृथवी दो टुकड़ों में बिभक्त हो गई, और उसके बाद एक छोटा टुकड़ा जिसे हम चंद्रमा कहते वह पृथवी से तीन लाख चौरासी हजार किलोमिटर दूर होकर पृथ्वी का चक्कर लगाने लगा। जैसा की पृथिवी सूर्य का चक्कर लगाती है । सूर्य आकाशगंगा के केन्द्र का चक्कर लगाता है। आकाशगंगायें ब्रह्माण्ड के केन्द्र का चक्कर लगाती है । और यह सारें ब्रह्माण्ड परमेंश्वर जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों का केन्द्र है अदृश्य केन्द्र बिन्दु ध्वनी रूप शब्द ब्रह्म का चक्कर लगाते है अस्तु। इस ब्रह्माण्ड में तीन प्रकार के मुख्य कार्य हो रहे है पहला कार्य ईश्वर द्रष्टा स्वरूप साक्षी बन कर निष्पक्ष हो कर सभी प्रकार के कृत्यों को देख रहा है जो भोक्ता रूप जीव जिसे आत्मा कहते वह प्रकृती रूप भोग सामग्री का किस प्रकार से उपभोग कर रहा है। दूसरा कार्य जीव नये - नये रूपों में स्वयं को निरंतर बिभक्त कर रहा है। प्रकृती के पदार्थों के आवरण के अन्दर व्यवस्थित होकर । जिसमें से एक सबसे श्रेष्ठ अद्भुत रूप मानव शरीर के रूप में भी विद्यमान है। तीसरा कार्य प्रकृती स्वयं का निष्पक्ष भाव से जीव का हर प्रकार से रक्षात्मक सहोग कवच की भाती बन कर कर रही है।

 

     जब पृथवी के दो टुकड़े हो गये उसके बाद पृथिवी पर बहुत सालों तक सूर्य का प्रकाश पृथिवी की सतह तक नहीं आसका क्योंकि धुमकेतु के टकराने से इतना भयानक बिस्फोट हुआ जिसकी कल्पना हम नही कर सकते है। चन्द्रमा पृथिवी के जिस हिस्से से अलग हुआ वहां पृथवी में बहुत बड़ा गड्ढा बन गया जो करीब बारह किलोमिटर गहरा था। जिसमें पानी जो अन्तरीक्ष से बरसता है धिरे-धिरे अपने मिट्टी के कड़ों को बहाकर ले जा कर उसमें जमा एकत्रित होने लगा। जो सबसे गहरा महा सागर प्रशान्त के रूप में आज पृथिवी पर विद्यमान है। क्योंकि चन्द्रमा के उपर का जो पर्वत है वह ठीक उतना ही उचां है जितना गहरा प्रशान्त महासागर है। अर्थात पृथिवी का वही का टुकड़ा चांद है जहां आज प्रशान्त महासागर के रूप में है।

 

      जब पृथवी से चंद्रमा अलग हुआ जिसकी वजह से धुल - धुसर का बवन्डर गुबार पृथिवी के वायुमंल में दसों दिशाओं से छा गये, और पृथिवी का सतह बहुत तिब्रता ठंडा होने लगा। जिस प्रकार से एक वाल्टी में बहुत सारे पदार्थों के कुछ बहुत हल्के कचरें को पानी घोल कर कुछ समय के लिये किसी ठंडे स्थान पर रख दे तो जो कचरा का भारी हिस्सा होगा वह तलहटी में जम जायेगा और जो हल्का होगा यह सबसे उपर पानी में तैरने लगेगा, ठीक इसी प्रकार से पृथवी के साथ हुआ। एक प्रकार से पृथिवी जैसे किसी लिफाफे में बन्द हो गई। और लाखों वर्षों तक सूर्य के प्रकाश से दूर रही। पृथिवी में उपस्थित बिभिन्न प्रकार की गैसे पानी को पाकर अपने को वास्पित करके पृथिवी की सतह से उपर उठने लगी जो गैस ज्यादा द्रव्यमान घनत्व वाली थी वह निचे रही, और जो बहुत अधिक हल्की थी वह पृथिवी की सतह से बहुत उपर उठकर अपने चर्मोत्कर्ष पर जाकर जमने लगी जैसे ओजोन की परत है। जिसके कारण सूर्य की पैरा बैगनी खतरनाक किरणें पृथिवी की सतह पर नही आ पाती है। वह ओजन की परत से टकरा कर जिस प्रकार सीसा किसी सूर्य के प्रकाश की किरणों को वापिस उसी दिशा में भेज देता है, ठीक इसी प्रकार से यह पारदर्शी ओजोन की परत पृथिवी के लिये वह अवस्था पैदा करने लगा जिससे कोई जीव यहां पर जीवित रह सकेएक प्रकार से यह ओजोन पर जीवन के लिए पृथिवी पर किसी प्राणी के लिये सुरछा कवच का कार्य करती है। ओजोन की परत आक्सिजन के दो कणों से मिल कर बनी है। पानी में आक्सिजन का केवल एक अणु है जो दो अणु हाइड्रोजन का लेकर पानी का एक परमाणु बनाता है। यह ओजोन कि परत बनने के बाद जो पानी अन्तरिक्ष से सिधा पृथिवी की सतह पर वरषता था वह भी बन्द होगया। इस परत के कारण पानी के कणों में विद्यमान आक्सिजन ओजोन के कणों के साथ रासायनिक अभीक्रिया कर ओजोन की परत को और सक्त करने लगा, जिसके कारण पानी का दूसरा कण हाइड्रोज उससे दूर सूर्य कि किरणों के साथ मिल कर वापिस अन्तरिक्ष में जाने लगा। इस प्रकार से पृथिवी पर पहले से विद्यमान पानी जब पुनः सुर्य प्रकाश का ताप पाकर पृथिवी की सतह पर आना प्रारम्भ हुआ, तब शुद्ध रूप में यह जीवन के लिये सहयोगी बना, और दूसरी तरफ पृथिवी पर उपस्थित पानी वास्पित हो कर पृथिवी के वायुमंडल में बादल के रूप में एकत्रीत होने लगा और समय-समय पर जैसे पृथिवी जब सूर्य के करीब से गुजरती तब यह बादल पानी की बुदों के रुप में बरषने लगे, इस प्रकार से पृथिवी पर ऋतुए मौसम का प्रारम्भ हो गया। सर्दि, गर्मीबरसातबसन्त पतझण इत्यादी।

 

      अभी भी पृथवी काफि गरम थी फर्क सिर्फ यह आया था की लाखों करोंणों सालों तक बारिष हुई, जब पृथिवी से चन्द्रमा अलग नहीं हुआ था । वारिष का पृथिवि पर यह असर पड़ा कि पृथिवी के सम्पर्क में आने से पहले ही पानी की बुदें वास्प में परीवर्तन होती रही, यह प्रकृया लाखों सालों तक चलता रहा। यह वास्प जब पृथवी के सतह पर बहुत सघन हो गये तो स्टिम की एक मोटी परत पृथवी के सतह से कुछ किलोमिटर उपर तक बना लिया। इस वास्प स्टिम के कई किलोमिटर उपर ठिक उससे सट कर झाग फाग कोहरे बादलों का कई एक किलोमिटर मोटाई में चारों तरफ लेयर की परत बन गई। ठीक इसके उपर बर्फ की मोटि परत कई एक किलोमिटर मोटी पर बन गई। जिस प्रकार से पृथवी का उत्तरिय और दक्षिणी ध्रुव है जहां बीसों किलोमिटर मोटाई में समन्दर के वर्फ की परत है। यहां फर्क यह है कि यह बर्फ की मोटी परत समन्दर के ठंडे पानी के उपर है । जबकि पहले जो पृथवी के चारों तरफ बर्फ की कई एक कीलोमिटर की जो परत थी वह फाग कोहरें, बादलों और स्टिम, भाप के उपर थी। उसके निचे पृथवी ज्वलन शिल भयंकर गैसों की पिंड थी पृथवी के केन्द्र से सतह के विच में लग-भग तीस से चालिस किलोमिट अन्दर तक कुछ बिल्कुल तरल बिभिन्न प्रकार की गैसे उसके उपर ठोस और सबसे उपर सतह से कुछ किलो मिटर तक भयंकर गैसों की वास्प की परत थी। जब पृथवी से धुमकेतु टकराया उसके परिणाम स्वरूप पृथिवी से चन्द्रमा अलग हुआ। और जब सूर्य कि कीरणों से पृथिवी का सिधा सम्पर्क ना होने के कारण । क्योंकि पृथिवी से धुमकेतु के टक्कर के बाद धुल -धुसर का बवन्डर कई एक ससालो तक पृथिवी के चारों तरफ फैला रहा जिसके परिणाम स्वरूप ही पृथिवी का वायुमंड बना और पृथवी पर मौसम ऋतुवों का अभिर्भाव हुआ। अब तक पृथिवी पर पानी का बहुत बड़ा भंडार जमा हो चुका था। कई लाखों साल अंतिरीक्ष से बारीष होने के कारण। जब पृथिवी पर सूर्य का प्रकाश नही आरहा था। उस समय पृथिवी की सतह ठंडी होने के कारण सारा वास्प जो पृथिवी के सतह के ठीक उपर जमा था कई एक किलोमिट वह सब जम कर बर्फ का रूप धारण करने लगे। और पृथिवी बहुत अधिक ठंडी होगई कई किलोमिटर अन्दर तक सतह से बिल्कुल ठोस रूप होगई। इस तरह धुमकेतु से जब कई सौ सालों के बाद जब सब धुल-धुसर चन्द्रमा के पृथिवी के अलग होने के कारण उठ रहे थे। सब शान्त और व्यवस्तित होगये। और उजोन की परत के कारण वायुमंडल बन गया पृथिवी पर, सूर्य का प्रकाश शुद्ध रूप से बिना बैगनी किरणों के पृथिवी की सतह तक पुनः आने लगे। तब उसके बाद सिर्फ बारीष चार महिनों तक होने लगी, चार महिने गर्मि और चार महीने सर्दी पड़ने लगी। जब बारीष होती तो वह पानी रूप तरल बन कर बर्फ के निचे बह कर हर तरफ से उस स्थान पर एकत्रीत होने लगा जो बिशाल गड्ढा पृथवी चन्द्रमा के निकलने के कारण बना था। पानी के साथ बहुत सारे रसायन मिट्टि के कण भी बर्फ की परत के निचे उस गड्ढें में जाकर एकत्रीत होने लगे, लाखों सालों तक यह प्रक्रिया चलने के कारण उस गड्ढे में सबसे उपर बर्फ उसके निचे पानी तरल रूप में खारा कई किलो मिटर निचे पृथिवी के समकछ सतह तक भर गया जिसमें कोई लहर नहीं थी ना ही उसमें कोई ज्वार भाटा ही आता था। क्योंकि सारा पानी बर्फ के निचे विद्यमान था। उस पानी के निचे जो पृथिवी के चारों तरफ से कचड़ा बह कर जाता था। वह सब पानी बर्फ के निचे एकत्रीत होने लगा। जो आगे चल कर लाखों सालों में पर्वत बन कर उभरा पृथिवी कि सतह से उपर, इसके पिछे कारण है कि पृथ्वी दोनों ध्रुओं से बधी एक बिशाल चट्टान रूप है जो फैल तो सकती नहीं, और पानी या बर्फ पृथिवी की सतह से उपर जा नही सकते क्योंकि पृथिवी इतनी तीब्रता से घुम रही है पुरब से पश्चिम की तरफ इस तरह से एक बैक्युम बन गया है। जो पृथिवी को फैलने से रोकता है जो समन्दर के अन्दर पर्वत बनने का कारण बना। इस तरह से पृथिवी पर उपस्थित समन्दर से हिमालय रूपी सर्वप्रथम पर्वत का जन्म हुआ, जो समन्दर की सतह से आज लगभग नौ किलोमिटर उचां है। और आज भी वह बढ़ रहा है। जहां आज पृथिवी पर हिमालय पर्वत है वहां कभी वहां बहुत लाखों करोड़ों साल पहले टेनिथ नामक समन्दर हुआ करता था। आज भी हिमालय पर बहुत बड़ी मात्रा में बर्फ के अतिरीक्त उसकी चोटियां नमक से ढकी है। जो यह सिद्ध करती है की यह समन्दर से आई है।

 

     जैसा की ध्रूओं पर है ऐसा ही पृथिवी के चारों तरफ बर्फ था । पहले जब हिमालय नहीं था ना ही कोई समन्दर ही था। जो अभी पृथिवी के वायुमंडल गरम होने के कारण बहुत तिब्रता से ध्रुओं की बर्फ गल कर समन्दर के पानी में मिल कर समन्दर की सतह को उचां कर रहा ऐसा ही चलता रहा तो कुछ एक सौ सालों के अन्दर ही समन्दर के किनारे जो बड़े - बडे़ देश बशायें गयें है वह सब समन्दर में डुब जायेगें। ऐसा पहले भी हो चुका है। समन्दर में महाभारत कालिन कृष्ण की द्वारीका नगरी जो अहमदाबाद के पास थी वह समन्दर में  समा गई है । समन्दर के एक या दो किलोमिटर अन्दर आज भी कृष्ण की नगरी द्वारीका का अवषेश विद्यमान है।

 

    मनुष्य वह है जो चिन्तन मनन विचार और सत्य का निर्णय करने में सक्षम हो जिसके पास यह सामर्थ नहीं वह मानव कहलाने के योग्य नहीं है। हम प्रायः दूसरे को बदलना चाहते है, दूसरे को सुन्दर समझते है दूसरे से प्रेम करते है दूसरे जैसा बनना चाहते है। हर वस्तु को अपने इच्छा, राग, द्वेश से देखते है। यहां तक हम स्वयं को भी हम पूर्णतः नही स्विकारते हमेशा हम दूसरे का ही अनुसरण करते है। क्योंकि यह तरिका बहुत परिश्रम से तैयार किया गया है जिससे मानव का शोशण भरपुर करने में सफलता निरंतर मिलती रहे। आज दुनिया एक अजायब घर या यातना गृह बन कर रह गई है, इसको बनाने वाला कोई और नहीं वही लोग है, जो दूसरे जैसा बनने में लगे है। यह हम नही जानते की हम कौन है? जब हम स्वयं को जान जायेगे तो हमारे जैसा कोई दूसरा नहीं है, हम अद्वित और अद्भुत शक्ति समपन्न है हम हमेशा दूनिया को समझना चाहते है दूनिया को बदलना चाहते या फिर दूनिया के साथ चलना चाहते है। जबकी दूनिया बहरी, लुली, लंगड़ी, अपाहिज और ब्यर्थ है यहां सब कुछ जण नश्वर है । हम स्वयं को प्रेम करें स्वयं को बदले स्वयं के लिये जिवन को जीये हमारे लिये सब कुछ संभव है, जब हमारा ध्यान स्वयं पर होगा। तभी हमें स्वयं का ज्ञान होगा। हम सबसे पहले भारतिय है हमारा पहला धर्म है, भारत को जानना भारत कोई व्यक्ति नहीं भारत एक आत्मा है जिस प्रकार बिना आत्मा के शरिर रुपी पृथ्वी बेकार उसी प्रकार बिना भारत के दुनिया का अस्तित्व संभव नही है। क्योंकि दुनिया का प्रारम्भ या श्रृष्टि का प्रथम अवतण भारतिय उप महाद्विप तिब्बत के हिमशिखर पर हुआ, यह श्रृष्ठि अमैथुन श्रृष्टि थी अर्थात बिना किसी गर्भ की सहायता के यहा पृथ्वी पर उपस्थित सभी जीवों को युवा ज्वान रूप में पैदा किया गया था। इसके पिछे बहुत बड़ा कारण था की बच्चों को पैदा किया जाता तो उनका पालन कौन करता? यदि वृद्धों को पैदा किया जाता तो उनकी सेवा कौन करता? इस कारण से सभी जीवों को युवा रुप में उत्तपन्न किया गया या दूसरे शब्दों में क्लोनिगं के रुप उत्पन्न किया गया। यह क्लोनिगं करने वाले कौन थे ? वह मनु और सप्तऋषि थे। यह मंगल ग्रह पर से आये थे क्योंकि वहां पर जब भयानक परमाणु युद्ध होना शुरु हुआ देवता और दैत्य में अर्थात आर्य और अनार्य में जिसके कारण वहां की मानवता संस्कृत सभ्यता बहुत तिब्रता से नष्ट होने लगी। इसके साथ वहां का वायुमंडल अत्यधिक गर्म होने लगा और वायुमंडल लगभग समाप्त होने के कगार पर पहुंच गया, जिसके कारण मंगल ग्रह के चनंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण कम होगया और वह मंगल के सतह से टकराने के लिये उसके तरफ बढ़ने लगा।

 

   यह ज्ञान वहा के वैज्ञानिक और सप्तऋषि मनु जो वहां के प्रमुख थे उनको हुआ तो वह जीवन और श्रृष्टि को आगे बढ़ाने के लिये सभी जीवों के जीन डि एन ए जो पहले से एकत्रित वैज्ञानिक ऋषियों के द्वारा किये गये थे वह सब लिया एक बड़े स्पैशविमान कि सहायता से हिमालय के शिखर पर आये यहां एक बिशाल लैब अस्थापित की और उसमें सभी प्रकार के जीवों की मानव समेत क्लोनिगं की। मंगल ग्रह पर उसका उप ग्रह चंद्रमा कुछ समय पश्चात टकरा गया वहां सब कुछ सर्वनाश होगया क्योंकि बिशाल ग्रहों के टक्कर के कारण कई वर्षों तक सूर्य का प्रकाश नहीं पहुंच पाया उस ग्रह पर जिसके कारण किसी जीव का जीवीत रहना संभव नहीं रह सका सिवाय कुछ सुक्ष्म वैक्टेरिया के जो अब भी वहां विद्यमान है।

 

     इस तरह से सर्वप्रथम मानव समेत सभी जीव जन्तु प्राणी का उदय पृथ्वी पर हुया, हिमालय के शिखर पर जो अब तिब्बत में है। पहले वहां पर स्वर्ग बनाया गया था यह स्वर्ग महाभारत काल तक विद्ययमान था, जहा पर देवी देवता अत्यधिक श्रेष्ठ स्त्री पुरुष रहते तो जो हजारो सालों लाखों सालों तक जीदां रहते थे। यहां साधरण जो जीव मैथुनी श्रृष्टि से पैदा होते उनको रहने की अनुमती नहीं थी इसलिये यहां रहने के लिये प्रायः युद्ध होते जिसमें वहां स्वर्ग में रहने वाले हमेंशा अपने योग बल से बिश पड़ते और साधरण जन जो मैथुनी श्रृष्टि से पैदा हुये वह देवतावों से कमजोर और उस वातावरण में जीने के योग्य भी नहीं थे। जब उनकी संख्या बहुत तेजी से बढ़ने लगी तो इन सब के लिये हिमालय के निचे घाटियों में बड़े नगर बशाये गये। जैसा की हम जानतेे है की काशी को शीव ने बशाया था जहां पर राजा हरिश्चन्द की निलामी हुई थी। और एक घटना महाभार में आती है जब अर्जुन स्वर्ग में जाकर अपने सगे पिता इन्द्र के यहां रहता है और वहां से कई प्रकार की कला और अश्त्र शश्त्र ले कर आता है। यहां हिमालय पर साधना करके शिव को प्रशन्न करके उनसे भी अश्त्र प्राप्त करता है। शीव और हनुमान महाभारत और रामायण दोनों समय में विद्यमान है जिससे सिद्ध होता है की वह लोग जो स्वर्ग में रहते थे लाखों सालों तक जीन्दा रहते थे।

 

   राजा हिरिश्चन्द राम के पुर्वज थे, राम के पीता दसरथ, दसरथ के पीता रघु और रघु के पिता अज थे। राम जिस धनुश को धारण करते थे वह अज नाम से ही जाना जाता है राम के इनसे कई पिढ़ी पहले हरिश्चन्द हुये उनके पिता त्रिशंकु थे। जो महर्षि वैज्ञानिक विश्वामित्र के बहुत बड़े भक्त थे। एक बार महर्षि को भी किसी कारण बश वहा स्वर्ग से निस्काशित कर दिया गया क्योंकि वह त्रीशंकु अपने भक्त को भी वहां स्वर्ग में स्थान दिलान या रखना चाहते थे। देवतावों ने यह प्रस्ताव ऋषी विश्वामित्र का अस्विकार कर दिया और कारण बताया की वह त्रिशंकु बिलाशी राजा है जो यहां स्वर्ग में रहने योग्य नहीं है। यह देवतावों की बात सुन कर ऋषि बिश्वामित्र को अपना अपमान समझ में आया इसलिये उन्होने स्वर्ग का त्याग कर दिया और निचे संसार में रहने लगे, देवतावों से अपने अपमान का बदला लेने के लिये उन्होंने एक बहुत बड़ी योजना बनाई त्रीशंकु के साथ मिल कर जो पृथ्वी का चक्रवर्ति सम्राट था । उसके लिये अंतरिक्ष में एक नया स्वर्ग बनाने की।

 

विश्वामित्र भी पहले एक सम्राट थे वह भी राज्य चुके थे पृथ्वी पर वह त्रीशंकु के पुर्वज थे।

 

  ऋषि विश्वामित्र के संदर्भ में एक बहुत प्रसिद्ध आख्यान प्रचलित है। एक वार ऋषि विश्वामित्र जब सम्राट हुआ करते थे, उस समय एक युद्ध इनका दैत्यों से हुवा था । उसको जित कर विश्वामित्र अपनी लाखों की सेना के साथ वापिस अपने राज्य की तरफ लौट रहे थे। उनकी सेना और वह बहुत थके  हुये थे, वह आराम चाहते थे कुछ समय के लिये, उस समय उनके पास कुछ रसद सामान शेश नही बचा हुआ था। तभी उनको उन्हे अपने गुप्तचरों द्वारा ज्ञात हुवा की यहां कुछ दूर पर  ब्रह्मऋषि वषिष्ट का आश्रम है। तो विश्वामित्र अपने एक सेवक भेजा वषिष्ट के आश्रम में भेज कर याचना की उनके लिये और उनके सेना के लिये कुछ रसद खाने पिने का सामान उपलब्ध करायें, वषिष्ट ने उत्रर में कहलवाया की ठीक है आप सब आराम करें कुछ समय में सभी सामग्री आप सब के पास पहुच जायेगी।

 

   इस तरह से विश्वामित्र की सेना और वह स्वयं आश्रम के समिप एक नदी किनार अपना पड़ाव डाल दिया। जैसा की उनको बताया गया था की कुछ समय में सभी वस्तु उनके पास पहुच जायेगी। ठीक वैसा हुवा थोड़े ही समय में सभी सेना के लिये खाने पिने रहने के लिये सभी प्रकार का परयाप्त सामान पहुचा दिया गया, यह जान कर विश्वामित्र को बहुत आश्चर्य हुवा  जो कार्य मै पुर्ण करने में बिवश हो रहा हुं इस जंगल में वह कार्य एक साधु ने इतना जल्दि कैसे संभव कर दिया। इस कारण को जानने के लिये वह स्वयं वषिष्ट से मिलने के लिये उनके आश्रम में गये, और ब्रह्म ऋषि वषिष्ट से विश्वामित्र ने पुछा की आप ने यह सब कैसे किया इतने बड़े लाव लस्कर सेना को तृप्त कर दिया। तब ब्रह्म ऋषि वषिष्ट ने अपने पास विद्यमान एक गाय काम धेनु के बारे में बताया कि यह सब तो काम धेनु गाय ने किया है। यह जानकर विश्वामित्र काम धेनु को देखना चाहा । जब ब्रह्मॠषि ने, विश्वामित्र को काम धेनु गाय का दर्शन कराया तो उसको देखकर विश्वामित्र बहुत मोहित हो गये और उन्होंने वह कामधेनु अपने महल में ले जाने की इच्छा जाहिर कर दी। यह काम धेनु जो सागर मंथन से निकली थी जिसको देवता और दैत्यों ने मिल कर किया था । ब्रह्मऋषि वषिष्ट ने कहा यह तो कामधेनु स्वयं निश्चय करती है की इसे कहा रहना है। कामधेनु ने विश्वामित्र के महल में जाने से मना कर दिया। विश्वामित्र ने अपनी सभी प्रकार की नितियों का प्रयोग किया कामधेनु को अपने मचल में लीने के लिये। साम, दामदण्ड, भेद लेकिन वह किसी प्रकार से सफल नही हुये अन्त में उन्हें अपनी पराजय स्विकार करनी पड़ी। फिर उन्होंने अपने पास के सभी विद्वान मंत्री से मंत्रणा की यहकैसे संभव हो गया की कामधेनु एकसम्राट को छोड़ कर आश्रम में क्यों रहना चाहती है? तब उनके सभी विद्वान मंत्री सहयोगीयों ने बताया की वषिष्ट कोई साधारण मानव नहीं ब्रह्मऋषि है। विश्वामित्र ने कहा की क्या वह सम्राट से बड़े है? उनको उत्तर मिला हा महाराज इसतरह से विश्वामित्र ब्रह्मऋषि वषिष्ट के सरण में आकर राज्य का त्याग कर दिया ब्रह्मऋषि के साधना में तल्लिन हो गये काफी समय बाद वह ब्रह्मऋषि की उपाधी से ब्रह्मऋषि वषिष्ट द्वारा संबोधित कीये गये। और उनको स्वर्ग में अस्थान मिल गया वहां बहुत समय रहने के बाद जब त्रीशंकु को बचन देने के कारण स्वर्ग का त्याग कर दिया और एक नया स्वर्ग बनाने में जुट गये।

 

   मनुष्य वह है जो चिन्तन, मनन, विचार और सत्य का निर्णय करने में सक्षम हो, जिसके पास यह सामर्थ नहीं है। वह मानव कहलाने के योग्य नहीं है। हम प्रायः दूसरे को बदलना चाहते है, दूसरे को सुन्दर समझते है, दूसरे से प्रेम करते है । दूसरे जैसा बनना चाहते है। हर वस्तु को अपने इच्छा, राग, द्वेश से देखते है। यहां तक हम स्वयं को भी पूर्णतः नही स्वीकारते है। हमेशा हम दूसरे का ही अनुसरण करते है। क्योंकि यह तरीका बहुत परिश्रम से तैयार किया गया है, जो मानव और मानवता के शत्रु सदा से है, जैसे बिल्ली चुहे की शत्रु के रुप में इस जगत में विद्यमान है। इन तरीको के माध्यम से ही निरंतर मानव का शोषण अबाध रूप से भरपुर करने में सफलता निरंतर मिलती रही है। आज दुनिया एक अजायब घर या यातना गृह बन कर रह गई है, इसको बनाने वाला कोई और नहीं वही लोग है, जो दूसरे जैसा बनने में लगे है। जबकी यह हम नही जानते की हम कौन है? जब हम स्वयं को जान जायेगे तो हमारे जैसा कोई दूसरा नहीं है, यह सिद्धी हमें प्राप्त होती है। अन्यथा हम दूसरों कि उपलब्धियों को देख उससे इर्ष्या आजीवन करते है। हम अद्वित और अद्भुत शक्ति से सम्पन्न है। हम हमेशा दूनिया को समझना चाहते है । दुनिया को बदलना चाहते या फिर दुनिया के साथ चलना चाहते है। जबकी दुनिया बहरी, लुली, लंगड़ी, अपाहिज और ब्यर्थ के समान है जब तक हम यहां रहने का जीने का तरिका नहीं जानते यह एक खेल नाटक अभिनय से अधिक नहीं हैसमस्या यह है कि हमें अभिनय नाटक खेलना नही आता है, हम यहां जीने के नियम से अपरचित ही रहते है जीवन तो बहुत जीते है लेकिन वह बिना अनुभव के, जैसे बड़ा हुवा ते क्या हुवा जैसे पेड़ खजुर पंछी को छाया नही फल लागे अति दूर, ऐसे ही हम सब है यहां सब कुछ जण नश्वर है । हम स्वयं को प्रेम करें स्वयं को बदले स्वयं के लिये जिवन को जीये हमारे लिये सब कुछ संभव है, जब हमारा ध्यान स्वयं पर होगा। तभी हमें स्वयं का ज्ञान होगा। हम सबसे पहले भारतिय है हमारा पहला धर्म है, भारत को जानना भारत कोई व्यक्ति नहीं भारत एक आत्मा है जिस प्रकार बिना आत्मा के शरिर रुपी पृथ्वी बेकार उसी प्रकार बिना भारत के दुनिया का अस्तित्व संभव नही है। क्योंकि दुनिया का प्रारम्भ या श्रृष्टि का प्रथम अवतण भारतिय उप महाद्विप तिब्बत के हिमालय के शिखर पर हुआ, यह श्रृष्टि अमैथुन श्रृष्टि थी अर्थात बिना किसी गर्भ की सहायता के यहां पृथ्वी पर उपस्थित सभी प्रकार के जीवों को युवा ज्वान रूप में पैदा किया गया था। इसके पिछे बहुत बड़ा कारण था की बच्चों को पैदा किया जाता तो उनका पालन कौन करता? यदि वृद्धों को पैदा किया जाता तो उनकी सेवा कौन करता? इस कारण से सभी जीवों को युवा रुप में उत्तपन्न किया गया या दूसरे शब्दों में क्लोनिगं के रुप उत्पन्न किया गया। यह क्लोनिगं करने वाले कौन थे ? वह मनु और सप्तऋषि थे। यह मंगल ग्रह पर से आये थे क्योंकि वहां पर जब भयानक परमाणु युद्ध होना शुरु हुआ देवता और दैत्य में अर्थात आर्य और अनार्य में जिसके कारण वहां की मानवता संस्कृत सभ्यता बहुत तिब्रता से नष्ट होने लगी। इसके साथ वहां का वायुमंडल अत्यधिक गर्म होने लगा और वायुमंडल लगभग समाप्त होने के कगार पर पहुंच गया, जिसके कारण मंगल ग्रह के चनंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण कम होगया और वह मंगल के सतह से टकराने के लिये उसके तरफ बढ़ने लगा।

 

   यह ज्ञान वहां के वैज्ञानिक और सप्तऋषि मनु जो वहां के प्रमुख थे उनको हुआ तो वह जीवन और श्रृष्टि के बिज को आगे बढ़ाने के लिये सभी जीवों के जीन डि एन ए जो पहले से एकत्रित वैज्ञानिक ऋषियों के द्वारा किये गये थे । वह सब लिया और एक बड़े स्पैशसिप विमान कि सहायता से हिमालय के शिखर पर आये यहां एक बिशाल लैब अस्थापित की और उसमें सभी प्रकार के जीवों की मानव समेत क्लोनिगं की गई जिसके माध्यम से श्रृष्टि के प्रक्रम को आगे बढ़ाया गया। मंगल ग्रह पर उसका उप ग्रह चंद्रमा कुछ समय पश्चात टकरा गया वहां का सब कुछ सर्वनाश होगया क्योंकि बिशाल ग्रहों के टक्कर के कारण कई वर्षों तक सूर्य का प्रकाश नहीं पहुंच पाया उस मंगल ग्रह के सतह पर, जिसके कारण मंगल ग्रह पर किसी प्रकार के जीव का जीवीत रहना संभव नहीं रह सका। सिवाय कुछ सुक्ष्म वैक्टेरिया के जो अब भी वहां विद्यमान है।

 

   इस तरह से सर्वप्रथम मानव समेत सभी जीव जन्तु प्राणी का उदय पृथ्वी पर हुया, हिमालय के शिखर पर जो अब तिब्बत में है। पहले वहां पर स्वर्ग बनाया गया था यह स्वर्ग महाभारत काल तक विद्ययमान था, जहां पर देवी - देवता अर्थात दिव्य, तपश्वी, अत्यधिक श्रेष्ठ स्त्री, पुरुष रहते तो जो हजारों सालों लाखों सालों तक जीदां रहते थे। यहां साधरण जो जीव मैथुनी श्रृष्टि से पैदा होते थे, उनको यहां स्वर्ग में रहने की अनुमती नहीं थी । इसलिये यहां रहने के लिये प्रायः युद्ध होते जिसमें वहां स्वर्ग में रहने वाले हमेंशा अपने योग बल से बिश पड़ते और साधरण जन जो मैथुनी श्रृष्टि से पैदा हुये वह देवतावों से कमजोर थे। और उस वातावरण में जीने के योग्य भी नहीं थे। जब उनकी संख्या बहुत तेजी से बढ़ने लगी तो इन सब के लिये हिमालय के निचे घाटियों में बड़े नगर बशाये गये। जैसा की हम जानतेे है की काशी को शीव ने बशाया था जहां पर राजा हरिश्चन्द की निलामी हुई थी। और एक घटना महाभारत में आती है। जब अर्जुन स्वर्ग में जाकर अपने सगे पिता इन्द्र के यहां रहता है, और वहां से कई प्रकार की कला और अश्त्र शश्त्र ले कर आता है। यहां हिमालय पर साधना करके शिव को प्रशन्न करके उनसे भी अश्त्र प्राप्त करता है। शीव और हनुमान महाभारत और रामायण दोनों समय में विद्यमान है जिससे सिद्ध होता है की वह लोग जो स्वर्ग में रहते थे लाखों सालों तक जीन्दा रहते थे।

 

   राजा हिरिश्चन्द राम के पुर्वज थे, राम के पीता दसरथ, दसरथ के पीता रघु और रघु के पिता अज थे। राम जिस धनुश को धारण करते थे वह अज नाम से ही जाना जाता है राम के इनसे कई पिढ़ी पहले हरिश्चन्द हुये उनके पिता त्रिशंकु थे। जो महर्षि वैज्ञानिक विश्वामित्र के बहुत बड़े भक्त थे। एक बार महर्षि को भी किसी कारण बश वहा स्वर्ग से निस्काशित कर दिया गया क्योंकि वह त्रीशंकु अपने भक्त को भी वहां स्वर्ग में स्थान दिलान या रखना चाहते थे। देवतावों ने यह प्रस्ताव ऋषी विश्वामित्र का अस्विकार कर दिया, और कारण बताया की वह त्रिशंकु बिलाशी राजा है जो यहां स्वर्ग में रहने योग्य नहीं है। यह देवतावों की बात सुन कर ऋषि बिश्वामित्र को अपना अपमान समझ में आया इसलिये उन्होने स्वर्ग का त्याग कर दिया और निचे संसार में रहने लगे, देवतावों से अपने अपमान का बदला लेने के लिये उन्होंने एक बहुत बड़ी योजना बनाई त्रीशंकु के साथ मिल कर जो पृथ्वी का चक्रवर्ति सम्राट था । उसके लिये अंतरिक्ष में एक नया स्वर्ग बनाने की।

 

विश्वामित्र भी पहले एक सम्राट थे वह भी राज्य कर चुके थे, पृथ्वी पर वह पहले त्रीशंकु के पुर्वज थे।

 

  ऋषि विश्वामित्र के संदर्भ में एक बहुत प्रसिद्ध आख्यान प्रचलित है। एक वार ऋषि विश्वामित्र जब सम्राट हुआ करते थे, उस समय एक युद्ध इनका दैत्यों से हुवा था । उसको जित कर विश्वामित्र अपनी लाखों की सेना के साथ वापिस अपने राज्य की तरफ लौट रहे थे। उनकी सेना और वह बहुत थके  हुये थे, वह आराम चाहते थे कुछ समय के लिये, उस समय उनके पास कुछ रसद सामान शेष नहीं बचा हुआ था। तभी उनको उन्हें अपने गुप्तचरों द्वारा ज्ञात हुवा की यहां कुछ दूर पर  ब्रह्मऋषि वषिष्ट का आश्रम है। तो विश्वामित्र ने अपने एक सेवक को भेजा वषिष्ट के आश्रम में, और यह सेवक भेज कर याचना कि उनके लिये और उनके सेना के लिये कुछ रसद खाने पिने का सामान उपलब्ध करायें, वषिष्ट ने उत्तर में कहलवाया की ठीक है, आप सब आराम करें कुछ समय में सभी सामग्री आप सब के पास पहुच जायेगी।

 

  इस तरह से विश्वामित्र की सेना और वह स्वयं आश्रम के समिप एक नदी किनार अपना पड़ाव डाल दिया। जैसा की उनको बताया गया था, कि कुछ समय में सभी वस्तु उनके पास पहुच जायेगी। ठीक वैसा हुआ थोड़े ही समय में सभी सेना के लिये खाने पिने रहने के लिये सभी प्रकार का पर्याप्त सामान पहुचा दिया गया, यह जान कर विश्वामित्र को बहुत बड़ा आश्चर्य के साथ संदेह हुवा  । कि जो कार्य मैं पूर्ण करने में बिवश हो रहा हुं, इस जंगल में, वह कार्य एक साधु ने इतना जल्दि कैसे संभव कर दिया? इस कारण को जानने के लिये वह स्वयं वषिष्ट से मिलने के लिये उनके आश्रम में गये, और ब्रह्म ऋषि वषिष्ट से विश्वामित्र ने पुछा की आप ने यह सब कैसे संभव किया ? इतने बड़े लाव लस्कर सेना को तृप्त कर दिया। तब ब्रह्म ऋषि वषिष्ट ने अपने पास विद्यमान एक गाय काम धेनु के बारे में बताया कि यह सब तो काम धेनु गाय ने किया है। यह जानकर विश्वामित्र काम धेनु को देखना चाहा । जब ब्रह्मॠषि ने, विश्वामित्र को काम धेनु गाय का दर्शन कराया गयातो उसको देखकर विश्वामित्र बहुत मोहित हो गये और उन्होंने वह कामधेनु को अपने महल में ले जाने की इच्छा जाहिर कर दी। यह काम धेनु जो सागर मंथन से निकली थी जिसको देवता और दैत्यों ने मिल कर किया था । ब्रह्मऋषि वषिष्ट ने कहा यह तो कामधेनु स्वयं निश्चय करती है कि इसे कहा रहना है। कामधेनु ने विश्वामित्र के महल में जाने से मना कर दिया। विश्वामित्र ने अपनी सभी प्रकार की नितियों का प्रयोग किया कामधेनु को अपने महल में ले जाने के लिये। साम, दामदण्ड, भेद लेकिन वह किसी प्रकार से सफल नहीं हुये । अन्त में उन्हें अपनी पराजय स्विकार करनी पड़ी। फिर उन्होंने अपने पास के सभी विद्वान मंत्री से मंत्रणा की यह कैसे संभव हो गया ? कि कामधेनु एक सम्राट को छोड़ कर आश्रम में क्यों रहना चाहती है? तब उनके सभी विद्वान मंत्रीयों और सहयोगीयों ने उन्हें बताया कि वषिष्ट कोई साधारण मानव नहीं ब्रह्मऋषि है। विश्वामित्र ने कहा क्या वह सम्राट से बड़े है? उनको उत्तर मिला हां महाराज, इस तरह से विश्वामित्र ब्रह्मऋषि वषिष्ट के सरण में आकर रहने लगे। और अपने राज्य का त्याग कर दिया, ब्रह्मऋषि के साधना में तल्लिन हो गये । काफी समय बाद वह ब्रह्मऋषि की उपाधी से, ब्रह्मऋषि वषिष्ट द्वारा संबोधित किये गये। और उनको स्वर्ग में अस्थान मिल गया, वहां बहुत समय रहने के बाद उन्होंने त्रीशंकु को बचन दिया था उसे की वह त्रीशंकु भी स्वर्ग में स्थान दिलायेंगें, लेकिन जब त्रीशंकु को स्वर्ग में स्थान न मिलने के कारण महर्षि विश्वामित्र ने भी स्वर्ग का त्याग कर दिया । और अपन भक्त त्रीशंकु और अपने लिये एक नया स्वर्ग बनाने में जुट गये।

 

  महर्षि विश्वामित्र जो एक महान वैज्ञानिक थे अपने शिष्यों के साथ मिलकर त्रीशंकु को जीवित स्वर्ग में पहुंचाने के लिये, उन्होंने एक नये उपग्रह स्वर्ग नाम से अंतरिक्ष में निर्वाण किया । और उसे पृथ्वि और चंद्रमा के मध्य में स्थापित कर दिया, वह पुरी तरह से मानव निर्मित एक उपग्रह था। वहां मानव को रहने की सभी सुबिधायें थी, वह एक कृतिम उपग्रह था। जैसा कि आज के समय में अमेरिका, चाईना, रुश आदि देशों ने अपना एक स्पैश स्टेशन अंतरिक्ष में बना रखा है, यद्यपि यह बहुत छोटे है यहां पर कुछ एक मानव वैज्ञानिक सोध करने के लिये रहते हैभविष्य में मानव यहां पर घुमने जा सकता है। जहां पर कल्पना चावला जा कर जब वापिस आ रही थी, उसका स्पैश क्राफ्ट रास्ते में ब्लास्ट कर गया, जिससे उस स्पैशक्राफ्ट के सभी सात सदस्य कल्पना चावला समेत मारे गये थे। वहां भारतिय मुल की सुनिता बिलियम्स भी जा कर आ चुकी है।

 

  विश्वामित्र का बनाया गया उपग्रह काफि बड़ा और सब प्रकार की सुख सुबिधा समपन्न था वहां पर त्रीशंकु अपने काफी आदमियों के साथ रहने लगे। लेकिन यह बात और दूसरे देवता वैज्ञानिक ऋषि जो हिमालय के स्वर्ग पर रहते थे उन्हें अच्छी नहीं लगी, कि कोई उनसे श्रेष्ठ अस्थान पर रहे और उनसे अच्छा जीवन जीये। क्योंकि जो स्वर्ग महर्षि विश्वामित्र ने बनाया था वहां रहने वाले की उम्र भी बढ़ जाती थी। और बहुत प्रकार कि सुबिधा थी, जो पृथ्वी पर विद्यमान स्वर्ग था वहां के लोगों को गवारा नहीं था। उन सब ने विश्वीमित्र को निचा दिखाने के लिये बहुत प्रकार के सणयंत्र रचने लगे। जिसमे सबसे पहले विश्वामित्र को जहां से सबसे अधिक धन मिलता था अर्थात त्रीशंकु के राज्य से जो अब उनके पुत्र राजा हरिश्चंद के अधिपत्य में चलता था। सभी देवता गड़ राजा हरिश्चंद को झुठा और असत्य सिद्ध करने के लिये संसार में प्रचारित करने लगे, गुप्त रुप से यह हरिश्चन्द को बहुत बुरा लगा। उन्होंने सम्पूर्ण संसार में अपनी प्रतिष्ठा को सिद्ध करने के लिये, यह घोषणा कर दि की जो कोई उनको झुठा सिद्ध कर देगा वह उन्हें अपना सर्वश्व दान कर देगें, यहां तक राजा हरिश्चंद ने स्वप्न में भी झुठ नही बोलने की कसम खा रखी थी। विश्वामित्र को अपने कार्यक्रम अंतरिक्ष में बनाये स्वर्ग के लिये निरनंतर धन की आवश्यक्ता थी वह जानते थे देवता गड़ राजा हरिश्चंद को यदी झुठा सिद्ध कर दिया । अपने सणयंत्र के द्वारा और उनसे राज्य और उनका धन छिन लिया तो स्वर्ग का उनका कार्यक्रम रुक सकता है । या कोई भयानक विध्न पड़ सकता है। यह बिचार कर करके उन्होंने एक योजना बनाई कि राजा हरिश्चंद को भी उनके साम्राज्य समेत स्वर्ग में स्थापित किया जाये और पृथ्वि का त्याग कर दिया जाये, जिससे यहां पृथ्वी के दैत्य हिमालय के स्वर्ग के देवता में संघर्ष होगा । और हम देवता के सणयंत्र से बच जायेगे, और हमारा अंतरिक्ष का स्वर्ग सामाराज्य के साथ सुरक्षित हो जायेगा। यह बात जब राजा हरिश्चंद को महर्षि विश्वामित्र ने उनके स्वप्न में आ कर बताया और कहा कि यह इच्छा उनके पिता की भी है। लेकिन राजा हरिश्चंद को अपनी सत्य के प्रति निष्ठा और संसार में अपनी प्रतिष्ठा अपने पिता त्रीशंकु की इच्छा से बहुत अधिक बहुमूल्य था । वह किसी किमत पर पृथ्वी को छोड़ना नहीं चाहते थे। भले हि इसके लिये उनको अपना सर्वस्व राज्य पाठ धन, सम्पदा, मान, मर्यादा सब कुछ दाव पर लगाना पड़े । वह बिल्कुल तैयार थे, उनके साथ उनकी पत्नि और उनका बेटा भी तैयार था। जब महर्षि विश्वामित्र और त्रीशंकु को यह ज्ञात हो गया, कि किसी भी प्रकार से राजा हरिश्चंद अपने बचन से अडिग नहीं होने वाला है, सत्य मार्ग से जो इसके सर पर चढ़ गया है। इससे इसका सब कुछ छिन लिया जाये तो सायद दुःखों के थपेड़ों और कष्ट पूर्ण क्लेशों कि आधियों से बौखला कर हमारी सरण में आ जाये। त्रिशंकु की सहमति से महर्षि विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद से कहा कि मैं अगले दिन सुबह तुम्हारे दरबार में आउंगा और तुम अपना सब कुछ जो राज्य पाठ तुम्हारे पिता के द्वारा तुम्हे मिला है । उनकी आज्ञा का पालन न करने के कारण मुझे दान कर देना, जिसके लिये राजा हरिश्चंद तैयार हो गये। सुबह होने पर जैसे ही दरबार लगा राजा हरिश्चंद सिंहाषन पर बिराजमान हुये तभी महर्षि विश्वामित्र उनके सामने उपस्थित हो गये, और अपना स्वप्न में आने की बात का याद दिला राज्य को लेने कि बात की, जिसके लिये राजा हरिश्चंद सहर्ष तैयार हो गये । और वह अपनी पत्नी और पुत्र को साथ लेकर भिखारी के भेष में राज्य से बाहर जाने के लिये तैयार हुये। तब महर्षि विश्वामित्र ने कहा कि यह दान जो तुमने दिया है यह तुम्हारे पिता कि बिराषत है।  तुम्हारी स्वयं की नहीं है, इसके अतिरीक्त तुम्हें दक्षिणा देना होगा पांच सहस्त्र जो तुम्हें कही और से पांच दिन में व्यवस्था करना होगाइसके लिय भी राजा हरिश्चंद तैयार होगये। और राज्य से प्रस्थान किया। बहुत दुःखों कष्टों पिड़ावों को सह- सह कर चुर हो गयें भुखे प्यासेउनकी कोई सहायता करने वाला नहीं खड़ा हुआ, क्योंकि जो उनकी सहायता करने का प्रयाश करता वह देवताओं और महर्षि विश्वामित्र के कोप का भाजन बनता था। जिससे किसी कि हिम्मत ही नहीं हुई, की वह राजा हरिश्चंद और उनके परिवार की किसी प्रकार से सहायता कर सके, इसके अतिरिक्त रोज महर्षि विश्वामित्र अपने दक्षिणा को लेने के लिये निरंतर दबाव बनाते रहते थे। क्योंकि महर्षि विश्वामित्र नहीं चाहते थे कि यह राजा हरिश्चंद केवल सत्य और अपने बचन कि रक्षा के लिये महान अशहनिय कष्टों को सहेवह समझते थे राजा हरिश्चंद झुक जायेगें, और अपने बचन से बिमुख हो जायेंगे। लेकिन यह नहीं हो सका राजा हरिश्चंद ने भयानक कष्टों को सहा, और अंत में कई दिनों में अयोद्धा से काशी शिव की नगरी पहुचें गये। जहां उनको कोई पहचानता नहीं था वहां एक चौराहे पर खड़े हो गये जहां दाश - दाशियां बिकते थे वहां पर वह अपने पत्नी और बच्चे को एक व्यापारी के हाथों में बेच दिया, और स्वयं को एक डोम ( धैइकार) को बेच दिया। जिससे उन्हे पांच शहश्त्र स्वर्ण मुद्रायें मिली जिसे उन्होंने प्रेम से महर्षि विश्वामित्र का दक्षिणा रूप ॠण दे कर उऋण हुये। स्वयं को डोम के सम्सान घाट पर मुर्दा फुंक -फुंक कर जीवको पार्जन करने में लगा लिया। और पत्नी बच्चा उस ब्यापारी के घर की दाशी बन कर जीवको पार्जन करने लगे।

 

  विश्वामित्र अपने साथ अपना सारा धन सामराज्य और स्त्री - पुरष, पशु, धन इत्यादि सामग्री को लेक कर अपने बनायें स्वर्ग में चले गयें और वहां उसका बिस्तार करने लगें ।

 

   जब हिमालय के देवताओं को अपनी योजना सफल होती नजर नहीं आई महर्षि विश्वामित्र के स्वर्ग का विस्तार उनकी आंखों तिनके की तरह दुखने लगा। वह सब यह बर्दास्त नहीं कर पा रहे थे, कि उनके स्वर्ग से निस्कासित किया गया कोई महर्षि या राजा कैसे अपने लिये अन्तरिक्ष में स्वर्ग बनाकर रह सकता है? यह उनके सम्मान और साधारण जनों में उनके प्रति लोगों की आस्था भी बहुत कम होने लगी थी। और ज्यादा से ज्यादा लोग अब महर्षि विश्वामित्र के द्वारा बनाये हुये स्वर्ग में राजा त्रिशंकु के साथ रहना चाहते थे। यह सब पृथ्वी पर उपस्थित स्वर्ग के देवताओं को कदापि गवारां नहीं था, कि उनके प्रति लोगों कि आस्था कम हो, यह उन सब के अस्तित्व को लेकर बहुत बड़ा खतरा संकेत था। और दूसरा कारण था कि पृथ्वी और चंद्रमा के मध्य में स्थित बनाये गये, महर्षि विश्वामित्र का स्वर्ग अपना सारा कार्य सौर्य उर्जा से करता था। जिसके कारण पृथ्वी पर पर्याप्त मात्रा में सुर्य का प्रकाश भी ना मिलने से पृथ्वी ठंडी होने लगी थी। और यहां पर जीवन के लिये खतरा मंडराने लगा। यदि ऐसा ही चलता रहा कुछ हजार या लाख साल में पृथ्वी पर कोई मानव जीव जन्तु प्राणी जीवित ना बचे । और दूसरा कारण बताया गया कि चन्द्रमा का गुरुत्त्वाकर्षण आकर्षण बल कम होगया। क्योंकि उस गुरुत्वाकर्षण बल का उपयोग महर्षि विश्वामित्र नें अपने स्वर्ग को व्यवस्थित रखने में बहु ज्यादा मात्रा में करने लगे थे । जिसके कारण पृथ्वी पर उपस्थित समंदर में ज्वारभाटा के समय में परि वर्तन आने लगा। सुर्य कि गर्मि कम पड़ने के कारण समंदर का पानी वास्प बहुत कम बनता था, और जिसके कारण बारिष की मात्रा पृथ्वी पर कम होगई। और इस वजह से पृथ्वी अनाज, फल, सब्जियां की पैदावार कम होने लगी थी। लोग हिंसक होने लगे जानवरों प्राणियों को मार -मार कर उनका भोजन के रुप मे उपयोग करने लगे। जिसके कारण हिंसक दैत्यों की संख्या में इजाफा होने लगा। हर प्रकार से देवताओं के साथ सभी मानवों पर गलत प्रभाव पड़ने लगा। इन सब जानकारियों  से महर्षि विश्वामित्र को परिचित कराया गया और सिफारिश की गई की वह अपने बनाये अन्तरिक्ष को नष्ट करके पृथ्वी वापस आकर बश जायें। लेकिन महर्षि विश्वामित्र ने जबाब में देवतावों को बहुत तिखा उत्तर दिया की जब देवता हमारे उपर ध्यान नहीं दिये जब हम पृथ्वि पर रहते थे, अब जब कि हम अपना सर्वस्व लगाकर बहुत आगें निकल आये है तो हमे वापिस आने कि बात करके हमे नष्ट करना चाहते है। यह कदापि संभव नहीं है हमारे लिये। यहां हमे कोई नुकसान नहीं है। आप अपनी रक्षा किजीये और मेरे से किसी प्रकार के सहयोग कि कामना ना करें।

 

    पृथ्वि के स्वर्ग के देवतावों को जब सकारात्मक परिणाम नहीं मिला तब उन्हेंने एक बहुत बुरा दूसरा सणयंत्र रचा पहले तो देवतावों का राजा इन्द्र ने त्रीशंकु के पुत्र राजा हरिश्चंद को अपनी तरफ मिलाने कि योजना बनाई।

 

   आगे चलकर गुप्त रुप से सिधा - सिधा राजा हरिश्चंद्र से ना मिल कर इनके परिवार अर्थात इनकी पत्नी शैब्या और पुत्र रोहताश्च को भी इसमें एकत्रित रुप से मिला जाये। जब शैब्या राजा हरिश्चंद्र की पत्नी अपने बेटे रोहताश्च के साथ जिस व्यापारी के यहां दासी थी । उसकी पत्नी बहुत दुष्ट और निक्रिष्ट स्वभाव की थी वह शैब्या से बहुत अधिक काम लेती बदले में उसे बहुत थोड़ा भोजन देती थी फिर भी सभी शारिरीक मानसिक।पिड़ाओं को सहकर शाब्या अपनी मालकिन को प्रशन्न रखने का हमेंशा प्रयाश करती रहती थी। फिर भी उसकी मालकिन बहुत नाराज रहती और तरह- तरह के उलाहने निरंतर शाब्या को दिया करती थी। यहां तक रोहताश्च से भी वह काम लेतीऐसा ही चल रहा था, एक दिन रोहताश्च को जंगल में लकड़ीयों को लेने भेज दिया वह लकड़ी लेकर आरहा था तभी देवताएं का राजा इन्द्र उसे काटने के लिये एक सांप भेज दिया जिसने रोहताश्च को काट लिया जिसके कारण रोहताश्च की हालत बिगड़ गईयह बात जब शैब्या को बहुत समय तक रोहताश्च लकड़ी लेकर नहीं आया। तब शाब्या उसकी तलाश में जंगल में गई जहां उसने उसे रास्ते में मृत पड़ा पया तब उसे पता चला की वह अपने प्रीय पुत्र को खो चुकी है। वह बहुत रोई बिलखी और उसे मरा हुआ मान कर उसके अंतिम संस्कार के लिये अपने गोद में लेकर नदी किनारे रात्री के समय उसी सम्शान घाट पर पहुंची जहां पर राजा हरिश्चंद्र पहरा देते थे और मुर्दा जलाने से पहले सभी मुर्दा फुकने वाले से कर लेते थे। रात्री का समय सायं - सायं करती रात चारों तरफ जलती लाशें इधर-उधरी बीखरी थी। चारों तरफ के वायुमंडल में मांस के जलने की भयानक बदबु से भर रहा था, जहां कुत्ते भौक रहें थे वह उस स्थान को और भयानक बना रहे थे। आज भी वह राजा हरिश्चंद्र का मुर्दा फुकने वाला घाट काशी (वाराणसी) में प्रशिद्ध है। जब राजा हरिश्चंद ने देखा की शब्या को और उसके गोद में उनके बेटे रोहताश्च की लाश है, वह पहचान गये लेकिन अपने सत्य धर्म की रक्षा के लिये उन्हेंने ऐसा व्यवहार किया की दोनो अपरचित है। उन्होंने शब्या से कहा यहा किसी शरीर का दाह संस्कार करने से पहले मुझे कर देना होगा उसके बाद ही तुम कोई दाह संस्कार कर सकती हो। शब्या बिलख- बिलख रोते हुये कहा मेरे पास कुछ नहीं है शिवाय यह वस्त्र जिससे मैने अपने शरिर को धक रखा है उसमें आधा ले सकतो तुम दाह संस्कार करने के बदले में। जिसके लिये रजा हरिश्चंद्र तैयार हो गये। शैब्या अपनी साड़ी को फाड़ने के लिये हाथ बढ़ाया तभी देवतावों का राजा इन्द्र उन दोनो के मध्य प्रकट हुआ और कहा कि अब बहुत हो गया तुम जीत गये राजा हरिश्चंद सत्यवादी हो धर्मात्मा हो मै तुम्हें इस कृत्य से मुक्त करता हूं और तुम्हारे पुत्र को जीवित करता तुम सब अब हमारे साथ रहो हम तुम्हे अपने साथ रखते है।

इस तरह से हरिश्चंद्र देवतावों के साथ हो लिये।

 

    राजा हरिश्चंद्र की सत्यनिष्ठा और धार्मिक्ता के प्रति समर्पण से प्रशन्न हो कर महर्षि विश्वामित्र ने उनका राज्य पुनः हरिश्चंद्र को वापिस दे दिया और स्वयं समाधि में लिन होगये। त्रीशंकु राजा हरिश्चंद्र के पिता सत्यब्रत अपना सब कुछ यहां तक स्वर्ग को भी जो महर्षि विश्वामित्र ने उनके लिये बनाया था ।  उसे भी राजा हरिश्चमद्र को  दे कर शरीर त्याग कर के परमात्मा में विलीन हो गये।इस तरह से देवतावों स्वर्ग को पृथ्वी को बचाया और महर्षि विश्वामित्र के बनाये अन्तरिक्ष में स्वर्ग को अपनी दिव्य अश्त्रों से नष्ट कर दिया।

 

 ओ३म् इषेत्वर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणऽ¬¬आप्यायध्वन्याऽइन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवाऽअयक्षमा मा वस्तेनऽईशत माघँसो ध्रुवाऽअस्मिन गोपतऔ स्यात बह्वीर्यजमानस्य पशून्पाहि।।

 

    महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती इस मंत्र का भाष्य करते हुये कहते है।

 

    पदार्थान्वयभाषाः- हे मनुष्य लोगों ! जो (सविता) सब जगत् कि उत्तपत्ति करने वाला सम्पूर्णेएश्वर्य युक्त (देवः)सब सुखो को देने और सभी प्रकार की विद्यायों को प्रसिद्ध करने वाले परमात्मा है सो (वः) तुम हम और अपने मित्रों के जो (वायवः) सब क्रियायों को सिद्ध करने वाले स्पर्शगुणवाले प्राण अन्तःकरण और इन्द्रियां (स्थ) है उनको (श्रेष्ठतमाय) अत्युत्तम (कर्म्मणे) करने योग्य सर्वपकारक यज्ञादि कर्मों के लिये (पार्पयतु) अच्छी प्रकार संयुक्त करें। हम लोग (इषे) अन्न आदि उत्तम-उत्तम पदार्थों और विज्ञान की इच्छा और (उर्जे) पराक्रम अर्थात उत्तम रस की प्राप्ती के लिए (भागम्) सेवा करने योग्य धन और ज्ञान के भरे हुए (त्वा) उक्त गुणों वाले और (त्वा) श्रेष्ठ पराक्रमादि गुणों को देने वाले आपका सब प्रकार से आश्रय करते है। हे मित्र लोगों ! तुम भी ऐसे हो कर (आप्यायध्वम्) उन्नति को प्राप्त हो तथा हम भी हों। हे भगवन् जगदीश्वर हम लोगों के (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य की प्राप्ती के लिए (प्रजावतीः) जिनके बहुत संतान हैं तथा जो (अनमिवाः) व्याधि और (अयक्ष्माः) जिनमें राज यक्ष्माआदि रोग नहीं है वे (अध्न्याः) जो-जो गौ आदि पशु वा उन्नति करने योग्य है जो कभी हिंसा करने योग्य नहीं है कि जो इन्द्रियों या पृथिवी आदि लोक है उन को सदैव (प्रार्पयतु) नियत किजीये । हे जगदिश्वर!आपकी कृपा से हम लोगों में से दुःख देने के लिए कोइ (अघंशसः) पापी वा (स्तेनः) चोर डाकू (मा ईशत) मत उत्तपन्न हो तथा आप इस (यजमानस्य) परमेंश्वर और सर्वोपकारक धर्म का सेवन करने वाले मनुष्य के (पशून्) गौ-घोड़े और हथी आदि तथा लक्ष्मी और प्रजा की (पाहि) निरन्तर रक्षा कीजिए जिससे इन पदार्थों को हरने की पुर्वोक्त कोई दुष्ट मनुष्य समर्थ न हो (अस्मिन्) इस धार्म्मिक (गोपतौ) पृथिवी आदि पदार्थों की रक्षा चाहने वाले सज्जन मनुष्य के समिप (बह्वीः) बहुत से उक्त पदार्थ (ध्रुवाः) निश्चल सुख के हेतु (स्यात) हों ।

 

     यजुर्वेद के प्रथम अध्याय का प्रथम मंत्र इसमें सर्व प्रथम परमेंश्वर के विषय में उपदेश स्वयं परमेंश्वर के द्वारा किया जा रहा है।  जैसा कि स्वामी दयान्नद जी ने वताया अव हम बिस्तार से समझते की वास्तव में मंत्र का भाव क्या-क्या है? इस प्रथम मंत्र में परमेंश्वर के सच्चे स्वरूप को अभिव्यक्त किया जा रहा है। इस मंत्र के ऋषि परमश्रेष्ठ प्रजापती परमेंश्वर ही हैऔर इस मंत्र के देवत सविता अर्थात सब का गुरु परमेंश्वर ही हैं। इस तरह से यह मंत्र सर्वश्रेष्ठ परमेंश्वर के साक्षात्कार का मंत्र है जिसका साक्षात्कार स्वयं परमेंश्वर स्वयं कर रहा है यहा परमेंश्वर स्वयं कर्ता और स्वयं कर्म भी है। इस मंत्र के द्वारा स्वयं परमेंश्वर अपना खुद का साक्षात्कार कर रहा है या स्वयं की अपनी ही तस्विर बना रहा है । परम गुरु अपने साक्षात्कार के बारें में उसके साधन के बारे में अपने शिष्यों मनुष्यों को उपदेश दे रहा है।

 

परमेंश्वर का मुख्य निज नाम ओ3म बताया है यह ओ3म अकार उकार मकार तीन तत्त्वों से मिल कर बना है। जिसको सत, रज, तम के नाम से जानते है पौराणिक भाषा में उसे ही ब्रह्मा विष्णु महेश के नाम से जानते है।    

 

                              

         

 


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