ब्रह्म क्या कैसा क्यों कहा है?
देवता: अग्निर्देवता ऋषि: परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः छन्द:
निचृद् ब्राह्मी पङ्क्तिः, स्वर: पञ्चमः
धृष्टि॑र॒स्यपा॑ऽग्नेऽअ॒ग्निमा॒मादं॑ जहि॒ निष्क्र॒व्याद॑ से॒धा
दे॑व॒यजं॑ वह। ध्रु॒वम॑सि पृथि॒वीं दृ॑ह ब्रह्म॒वनि॑ त्वा क्षत्र॒वनि॑
सजात॒वन्युप॑दधामि॒ भ्रातृ॑व्यस्य व॒धाय॑ ॥१७॥
पद पाठ
धृष्टिः। अ॒सि। अप॑।
अ॒ग्ने॒। अ॒ग्निम्। आ॒माद॒मित्या॑मऽअद॑म्। ज॒हि॒। निष्क्र॒व्याद॒मिति
निष्क्रव्य॒ऽअद॑म्। सेध॒। आ। दे॒व॒यज॒मिति। देव॒ऽयज॑म्। व॒ह॒। ध्रु॒वम्। अ॒सि॒।
पृ॒थिवी॑म्। दृ॒ह॒। ब्र॒ह्म॒वनीति ब्रह्म॒ऽवनि॑। त्वा॒। क्ष॒त्र॒वनीति॑
क्षत्र॒ऽवनि॑। स॒जा॒त॒वनीति॑ सजात॒ऽवनि॑। उप॑ऽद॒धा॒मि॒। भ्रातृ॑व्यस्य व॒धाय॑ ॥१७॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब अग्निशब्द से किस-किस का ग्रहण किया जाता और इससे क्या क्या कार्य्य होता
है, इस विषय का उपदेश
अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) परमेश्वर ! आप (धृष्टिः) प्रगल्भ अर्थात्
अत्यन्त निर्भय (असि) हैं, इस कारण (निष्क्रव्यादम्) पके हुए भस्म आदि पदार्थों को छोड़ के (आमादम्)
कच्चे पदार्थ जलाने और (देवयजम्) विद्वान् वा श्रेष्ठ गुणों से मिलाप करानेवाले
(अग्निम्) भौतिक वा विद्युत् अर्थात् बिजुलीरूप अग्नि को आप (सेध) सिद्ध कीजिये।
इस प्रकार हम लोगों के मङ्गल अर्थात् उत्तम-उत्तम सुख होने के लिये शास्त्रों की
शिक्षा कर के दुःखों को (अपजहि) दूर कीजिये और आनन्द को (आवह) प्राप्त कीजिये तथा
हे परमेश्वर ! आप (ध्रुवम्) निश्चल सुख देनेवाले (असि) हैं, इस से (पृथिवीम्) विस्तृतभूमि वा उसमें
रहनेवाले मनुष्यों को (दृंह) उत्तम गुणों से वृद्धियुक्त कीजिये। हे अग्ने
जगदीश्वर ! जिस कारण आप अत्यन्त प्रशंसनीय हैं, इससे मैं (भ्रातृव्यस्य) दुष्ट वा शत्रुओं के (वधाय) विनाश के
लिये (ब्रह्मवनि) (क्षत्रवनि) (सजातवनि) ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा प्राणिमात्र के सुख वा दुःख व्यवहार के देनेवाले
(त्वा) आप को (उपदधामि) हृदय में स्थापन करता हूँ ॥ यह इस मन्त्र का प्रथम अर्थ
हुआ ॥ तथा हे विद्वान् यजमान ! जिस कारण यह (अग्ने) भौतिक अग्नि (धृष्टिः)
अतितीक्ष्ण (असि) है तथा निकृष्ट पदार्थों को छोड़ कर उत्तम पदार्थों से (देवयजम्)
विद्वान् वा दिव्य गुणों को प्राप्त करानेवाले यज्ञ को (आवह) प्राप्त कराता है, इससे तुम (निष्क्रव्यादम्) पके हुए भस्म आदि
पदार्थों को छोड़ के (आमादम्) कच्चे पदार्थ जलाने और (देवयजम्) विद्वान् वा दिव्य
गुणों के प्राप्त करानेवाले (अग्निम्) प्रत्यक्ष वा बिजुलीरूप अग्नि को (आवह)
प्राप्त करो तथा उसके जानने की इच्छा करनेवाले लोगों को शास्त्रों की उत्तम-उत्तम
शिक्षाओं के साथ उसका उपदेश (सेध) करो तथा उसके अनुष्ठान में जो दोष हों, उनको (अपजहि) विनाश करो। जिस कारण यह अग्नि
सूर्य्यरूप से (ध्रुवम्) निश्चल (असि) है, इसी कारण यह आकर्षणशक्ति से (पृथिवीम्) विस्तृत भूमि वा उसमें
रहनेवाले प्राणियों को (दृंह) दृढ़ करता है, इसी से मैं (त्वा) उस (ब्रह्मवनि) (क्षत्रवनि) (सजातवनि)
ब्राह्मण, क्षत्रिय वा
जीवमात्र के सुख दुःख को अलग-अलग करानेवाले भौतिक अग्नि को (भ्रातृव्यस्य) दुष्ट
वा शत्रुओं के (वधाय) विनाश के लिये हवन करने की वेदी वा विमान आदि यानों में
(उपदधामि) स्थापन करता हूँ ॥ यह दूसरा अर्थ हुआ ॥१७॥
भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। सर्वशक्तिमान् ईश्वर ने यह
भौतिक अग्नि आम अर्थात् कच्चे पदार्थ जलानेवाला बनाया है, इस कारण भस्मरूप पदार्थों के जलाने को समर्थ
नहीं है। जिससे कि मनुष्य कच्चे-कच्चे पदार्थों को पका कर खाते हैं [वह आमात्] तथा
जिस करके सब प्राणियों का खाया हुआ अन्न आदि द्रव्य पकता है [वह जाठर] और जिस करके
मनुष्य लोग मरे हुए शरीर को जलाते हैं, वह क्रव्यात् अग्नि कहाता है और जिससे दिव्य गुणों को प्राप्त
करानेवाली विद्युत् बनी है तथा जिससे पृथिवी का धारण और आकर्षण करनेवाला सूर्य्य
बना है और जिसे वेदविद्या के जाननेवाले ब्राह्मण वा धनुर्वेद के जाननेवाले
क्षत्रिय वा सब प्राणिमात्र सेवन करते हैं तथा जो सब संसारी पदार्थों में
वर्त्तमान परमेश्वर है, वही सब मनुष्यों का उपास्य देव है तथा जो क्रियाओं की सिद्धि के लिये भौतिक
अग्नि है, यह भी
यथायोग्य कार्य्य द्वारा सेवा करने के योग्य है ॥१७॥
अग्नियों में जो सर्वश्रेष्ठ
प्रगल्भ अर्थात जो अत्यन्त निर्भय है, वही दिव्य अग्नि मानव शरीर में सभी खाद्य पदार्थों
के रस को पका कर मानव के साथ सभी जीवों का आधारभूत स्तम्भन करने वाले अस्तित्व
संरचना करने वाले शुद्ध वीर्य को बनाने वाली है। इसी वीर्य से मानव अपने जीवन के
समस्त कष्टों में सबसे बड़ा कष्ट मृत्यु को जितने में समर्थ होता है।
इसी शुद्ध वीर्य रूपी ब्रह्म से ही मानव चेतना पराक्रम करती हुई, शूरवीरता
के साथ अपने जीवन में आने वाली प्रत्येक कठिनाइयों को दूर करता हुआ, स्वयं को विकसित
करता है, क्योंकि यह जोमानव शरीर में रसों से उत्पन्न होने वाला ब्रह्म जो
प्रत्येक पदार्थ में सुसुप्तता अवस्था में रहता वह जब मानव शरीर में जागृत मानव
चेतना के द्वारा किया जाता है, तो वह पूर्ण चैतन्य ब्रह्म जो वह स्वयं है, उसको
छोड़कर अपूर्ण मानव मस्तिष्क को विकसित कर संघर्षों की भट्टी में उसको तपा कर सर्व
गुणों में परिष्कृत कर उसे पूर्ण मानव के रूप में सिद्ध करता है। इसी वीर्य रूपी
ब्रह्म की साधना के द्वारा दिव्य पुरुष अर्थात जो देवता हैं, उन्होंने स्वयं को
सिद्ध किया है, इसी को प्राप्त करके मानव मन मस्तिष्क शरीर और उसकी स्वयं की आत्मा
स्वयं जानने के योग्य होती है, और इसी ब्रह्म रूपी वीर्य को धारण करने से मानव
चेतना शाश्वत निश्चल आनन्द को अपने मानव जीवन में प्राप्त कर लेता है, और इस
पृथ्वी पर स्वयं के दृढ़ता पूर्वक उत्तम गुणों को धारण कर स्वयं को सभी मनुष्यों
में श्रेष्ठ स्वयं को ब्राह्मण अर्थात ब्रह्म को जानने वाला, क्षत्रिय समस्त संसार
की रक्षा करने वाला बन कर, संपूर्ण मानव जनमानस के साथ सभी प्राणियों के कल्याणार्थ
साम्राज्य स्थापना और उसका संचालन करके सबको सुखी और ऐश्वर्यशाली बनाती है, और
इसके विपरीत जो अराजकता को फैलाने वाले मानव या जो दुष्ट प्राणी होते हैं उनका
संहार करके संपूर्ण जगत को भय से मुक्त करने के ब्रह्म प्रण अर्थात ब्रह्म की अपनी
स्वयं की प्रतिज्ञा का पालन करता है। जैसा की मंत्र का प्रारंभ ही निर्भयता के साथ
होता है, और यह भयहीन करने वाला ब्रह्म ही है, जो मानव शरीर में स्वयं को अवतरित
करता है, जैसा की बहुत सारे अवतार हैं, राम कृष्ण ब्रह्म विष्णु और महेश इत्यादि।
manoj padey
president of
GVB the university of Veda.

0 टिप्पणियाँ
If you have any Misunderstanding Please let me know