अथ नवमोऽध्यायः
(हिन्दीभाष्य-'अनुशीलन'-समीक्षा सहित)
(राजधर्मान्तर्गत व्यवहारनिर्णय)
(९.१ से ९.२५० तक)
(१६) स्त्री-पुरुष-धर्मसम्बन्धी विवाद और उसका निर्णय (९.१ से १०२ तक)
पुरुषस्य स्त्रियाश्चैव धर्मे वर्त्मनि तिष्ठतोः।
संयोगे विप्रयोगेच धर्मान् वक्ष्यामि शाश्वतान्॥१॥ (१)
[अब मैं] (धर्मे वर्त्मनि तिष्ठतोः) दाम्पत्य धर्म के मार्ग पर चलने वाले (स्त्रियाः च पुरुषस्य एव) स्त्री-पुरुष के (संयोग च विप्रयोगे) संयोगकालीन=साथ रहने तथा वियोगकालीन=अलग रहने के (शाश्वतान् धर्मान् वक्ष्यामि) सदैव पालन करने योग्य धर्मों=कर्त्तव्यों को कहूंगा―॥१॥
स्त्री के प्रति कर्त्तव्यपालन न करने वाले पिता, पति, पुत्र निन्दा के पात्र―
कालेऽदाता पिता वाच्यो वाच्यश्चानुपयन् पतिः।
मृते भर्तरि पुत्रस्तु वाच्यो मातुररक्षिता॥४॥ (२)
(काले) विवाह की अवस्था होने पर (अदाता) कन्या को न देने वाला अर्थात् विवाह न करने वाला (पिता वाच्यः) पिता निन्दनीय और दोषी होता है (च) और (अनुपयन् पतिः) [विवाह-पश्चात् ऋतुदिनों के अनन्तर] संगम न करने वाला पति निन्दनीय और दोषी होता है (भर्तरि मृते) पति की मृत्यु होने के बाद (मातुः+अरक्षिता पुत्रः वाच्यः) माता की [भरण-पोषण, सेवा आदि से] रक्षा न करने वाला पुत्र निन्दनीय और दोषी होता है॥४॥
छोटे से कुसंग से भी स्त्रियों की रक्षा अवश्य करें―
सूक्ष्मेभ्योऽपि प्रसङ्गेभ्यः स्त्रियो रक्ष्या विशेषतः।
द्वयोर्हि कुलयोः शोकमावहेयुररक्षिताः॥५॥ (३)
(सूक्ष्मेभ्यः प्रसंगेभ्यः अपि) छोटे-छोटे कुसंग के अवसरों से भी (स्त्रियः विशेषतः रक्ष्याः) स्त्रियों की विशेषरूप से रक्षा करनी चाहिए (हि) क्योंकि (अरक्षिताः) अरक्षित स्त्रियां [उनके साथ घटित किसी भी अप्रिय घटना के कारण] (द्वयोः कुलयोः शोकम्+आवहेयुः) दोनों कुलों=पति तथा पिता दोनों के कुलों के शोकसंतप्त होने का कारण बन जाती हैं॥५॥
इमं हि सर्ववर्णानां पश्यन्तो धर्ममुत्तमम्।
यतन्ते रक्षितुं भार्यां भर्तारो दुर्बला अपि॥६॥ (४)
(सर्ववर्णानाम् इमम् उत्तमं धर्मं पश्यन्तः) सब वर्णों के इस पूर्वोक्त धर्म को श्रेष्ठ समझते हुए (दुर्बलाः भर्तारः अपि) शरीर, धन या सामर्थ्य से दुर्बल पति भी (भार्यां रक्षितुं यतन्ते) अपनी पत्नी के सम्मान की और कुसंगों से उसकी रक्षा करने के लिए यत्नशील रहते हैं॥६॥
स्त्री पर ही परिवार की प्रतिष्ठा निर्भर―
स्वां प्रसूतिं चरित्रं च कुलमात्मानमेव च।
स्वं च धर्मं प्रयत्नेन जायां रक्षन् हि रक्षति॥७॥ (५)
(प्रयत्नेन जायां रक्षन् हि) प्रयत्नपूर्वक अपनी स्त्री के सम्मान की और उसकी कुसंगति से रक्षा करता हुआ अर्थात् संरक्षण में रखता हुआ व्यक्ति ही (स्वां प्रसूतिम्) अपनी सन्तान (चरित्रम्) दम्पती का आचरण (कुलं च आत्मानम्+एव) कुल और अपनी (च) तथा (स्वं धर्मम्) अपने धर्म की (रक्षति) रक्षा करता है अर्थात् स्त्री के कुसंग में पड़ जाने से सब ही कुछ बिगड़ जाता है, क्योंकि स्त्री ही सुख और धर्म का आधार है [९.२८]॥७॥
जाया का लक्षण―
पतिर्भार्यां सम्प्रविश्य गर्भो भूत्वेह जायते।
जायायास्तद्धि जायात्वं यदस्यां जायते पुनः॥८॥ (६)
(पतिः भार्यां संप्रविश्य) पति वीर्य=बीज रूप में स्त्री के गर्भाशय में प्रवेश करके (गर्भः भूत्वा+इह जायते) गर्भ बनकर फिर सन्तानरूप में संसार में उत्पन्न होता है (जायायाः तत्+हि जायात्वम्) स्त्री का यही जायापन=स्त्रीपन है (यत्) जो (अस्यां पुनः जायते) इस स्त्री में सन्तानरूप में पति पुनः उत्पन्न होता है अर्थात् सन्तान को उत्पन्न करने वाली होने के कारण ही स्त्री 'जाया' कहाती है।
जैसा पति वैसी सन्तान―
यादृशं भजते हि स्त्री सुतं सूते तथाविधम्।
तस्मात् प्रजाविशुद्ध्यर्थं स्त्रियं रक्षेत् प्रयत्नतः॥९॥ (७)
(स्त्री यादृशं हि भजते) स्त्री जैसे पारिवारिक वातावरण या परिवेश में रहती है, और जैसा पति का व्यवहार होता है (तथाविधं सुतं सूते) उसी प्रकार के संस्कारों वाली सन्तान को उत्पन्न करती है। (तस्मात्) इसलिए (प्रजाविशुद्ध्यर्थम्) सन्तान की श्रेष्ठता की लिए (प्रयत्नतः स्त्रियं रक्षेत्) प्रयत्नपूर्वक स्त्री को कुसंग और अप्रिय वातावरण से बचाकर रखें॥९॥
स्त्रियों की रक्षा बलपूर्वक नहीं हो सकती―
न कश्चिद्योषितः शक्तः प्रसह्य परिरक्षितुम्।
एतैरुपाययोगैस्तु शक्यास्ताः परिरक्षितुम्॥१०॥ (८)
(कश्चित्) कोई भी व्यक्ति (प्रसह्य) बलात् या दबाव के साथ (योषितः परिरक्षितुं न शक्तः) स्त्रियों की कुसंगों से रक्षा नहीं कर सकता (तु) किन्तु (एतैः+उपाययोगैः) इन आगे कहे उपायों में लगाने से (ताः परिरक्षितुं शक्याः) उनकी रक्षा की जा सकती है॥१०॥
स्त्रियों को गृह एवं धर्मकार्मों में व्यस्त रखें―
अर्थस्य संग्रहे चैनां व्यये चैव नियोजयेत्।
शौचे धर्मेऽन्नपक्त्यां च परिणाह्यस्य वेक्षणे॥११॥ (९)
(एनाम्) अपनी स्त्री को (अर्थात् संग्रहे च व्यये) धन की संभाल और उसके व्यय की जिम्मेदारी में, (शौचे) घर एवं घर के पदार्थों की स्वच्छता-शुद्धि में, (धर्मे) धर्मसम्बन्धी [६.९३] अनुष्ठान=अग्निहोत्र, संध्या, स्वाध्याय आदि में, (अन्नपक्त्याम्) भोजन पकाने की व्यवस्था में, (च) और (परिणाह्यस्य वेक्षणे) घर की सभी वस्तुओं की देखभाल में (नियोजयेत्) नियुक्त करें अर्थात् उक्त कार्य पत्नी के अधिकार में रखें॥११॥
स्त्रियां आत्मनियन्त्रण से ही बुराइयों से बच सकती हैं―
अरक्षिता गृहे रुद्धाः पुरुषैराप्तकारिभिः।
आत्मानमात्मना यास्तु रक्षेयुस्ताः सुरक्षिताः॥१२॥ (१०)
क्योंकि (आप्तकारिभिः पुरुषैः) घनिष्ठ आज्ञाकर्ता पिता, माता, पति आदि द्वारा (गृहे रुद्धाः) घर में बलात् रोककर रखी हुई अर्थात् निगरानी में रखी जाती हुई स्त्रियां भी (असुरक्षिताः) असुरक्षित हैं=बुराइयों से बच नहीं पाती किन्तु (याः तु) जो तो (आत्मानम् आत्मना रक्षेयुः) अपनी रक्षा स्वयं अपने विवेक से करती हैं (ताः सुरक्षिताः) वस्तुतः वे ही गलत कार्यों में न पड़कर सुरक्षित रहती हैं॥१२॥
स्त्रियों के दूषण में छह कारण―
पानं दुर्जनसंसर्गः पत्या च विरहोऽटनम्।
स्वप्नोऽन्यगेहवासश्च नारीसंदूषणानि षट्॥१३॥ (११)
(पानम्) मदिरा, भांग आदि मादक पदार्थों का सेवन करना, (दुर्जनसंसर्गः) बुरे लोगों का संग करना, (पत्या विरहः) पति से लम्बे समय तक वियोग रहना (च) और (अटनम्) इधर-उधर व्यर्थ घूमते रहना, (अन्य गेहवासः च स्वप्नः) दूसरों के घर में अधिक निवास और रात्रि में शयन करना (नारी संदूषणानि षट्) नारी को पथभ्रष्ट करने वाले ये छह प्रमुख कारण या दुर्गुण हैं॥१३॥
सन्तानोत्पत्ति-सम्बन्धी धर्म―
एषोदिता लोकयात्रा नित्यं स्त्रीपुंसयोः शुभा।
प्रेत्येह च सुखोदकर्कान् प्रजाधर्मान् निबोधत्॥२५॥ (१२)
(एषा) यह [९.१-१३] (स्त्रीपुसयोः नित्यं शुभा) स्त्री-पुरुषों के लिये सदा शुभ=कल्याणकारी (लोकयात्रा उदिता) परस्पर का लोकव्यवहार कहा, अब (प्रेत्य च इह सुखोदर्कान्) परजन्म और इस जन्म में परिणाम में सुखदायक (प्रजाधर्मान् निबोधत) सन्तानोत्पत्ति सम्बन्धी धर्मों को सुनो॥२५॥
स्त्रियाँ घर की लक्ष्मी हैं―
प्रजनार्थं महाभागाः पूजार्हा गृहदीप्तयः।
स्त्रियः श्रियश्च गेहेषु न विशेषोऽस्ति कश्चन॥२६॥ (१३)
स्त्रियां (प्रजनार्थम्) सन्तान को उत्पन्न करके वंश को आगे बढ़ाने वाली हैं, (महाभागाः) स्वयं सौभाग्यशाली हैं और परिवार का भाग्योदय करने वाली हैं, (पूजार्हाः) वे पूजा अर्थात् सम्मान की अधिकारिणी हैं, (गृहदीप्तयः) प्रसन्नता और सुख से घर को प्रकाशित=प्रसन्न करने वाली हैं, यों समझिये कि (गेहेषु) घरों में (स्त्रियः च श्रियः कश्चन विशेषः न अस्ति) स्त्रियों और लक्ष्मी तथा शोभा में कोई विशेष अन्तर नहीं है अर्थात् स्त्रियां घर की लक्ष्मी और शोभा हैं॥२६॥
स्त्रियां लोकयात्रा का आधार है―
उत्पादनमपत्यस्य जातस्य परिपालनम्।
प्रत्यहं लोकयात्रायाः प्रत्यक्षं स्त्री निबन्धनम्॥२७॥ (१४)
(अपत्यस्य उत्पादनम्) सन्तान को उत्पन्न करना, (जातस्य परिपालनम्) उत्पन्न सन्तान का पालन-पोषण करना और (प्रत्यहं लोकयात्रायाः) प्रतिदिन के लोकव्यवहार (जैसे गृहप्रबन्ध, अतिथि सेवा आदि) को सम्पन्न करना आदि कार्यों की (स्त्री प्रत्यक्षं निबन्धनम्) पत्नी ही मूल आधार है अर्थात् गृहस्थ आश्रम के सफल संचालन में पत्नी ही मुख्य कारण और संयोजिका है॥२७॥
घर का सुख स्त्री पर निर्भर है―
अपत्यं धर्मकार्याणि शुश्रूषा रतिरुत्तमा।
दाराधीनस्तथा स्वर्गः पितॄणामात्मनश्च ह॥२८॥ (१५)
(अपत्यम्) सन्तानोत्पत्ति करके वंश को चलाना (धर्मकार्याणि) पंच महायज्ञ आदि धार्मिक अनुष्ठानों को करना-कराना, (शुश्रूषा) परिजनों की सेवा-संभाल, (उत्तमा रतिः) रोग आदि रहित रति-सुख (आत्मनः च पितॄणां स्वर्गः) पति और उसके माता-पिता आदि पितृजनों का सुखमय जीवन (दारा+अधीनः ह) निश्चय से पत्नी के ही अधीन है, घर में पत्नी न हो तो उक्त सुख प्राप्त नहीं होते॥२८॥
पुत्र पर अधिकार के सम्बन्ध में आख्यान―
पुत्रं प्रत्युदितं सद्भिः पूर्वजैश्च महर्षिभिः।
विश्वजन्यमिमं पुण्यमुपन्यासं निबोधत॥३१॥ (१६)
(सद्भिः च पूर्वजैः महर्षिभिः) श्रेष्ठ तथा प्राचीन महर्षियों ने (पुत्रं प्रति) पुत्र के विषय में जो (विश्वजन्यं पुण्यम् उदितम्) सर्वजनहितकारी और पुण्यदायक विचार कहा है (इमम् उपन्यासं निबोधत) उस 'शिक्षाप्रद विचार' को सुनो―॥३१॥
पुत्र पर अधिकार-सम्बन्धी मतान्तर―
भर्तुः पुत्रं विजानन्ति श्रुतिद्वैधं तु भर्तरि।
आहुरुत्पादकं केचिदपरे क्षेत्रिणं विदुः॥३२॥ (१७)
विधान में ('भर्तुः पुत्रम्' विजानन्ति) 'स्त्री के पति का ही पुत्र होता है' ऐसा माना जाता है (भर्तरि तु श्रुतिद्वैधम्) किन्तु पति के विषय में ऋषियों के दो विचार हैं—(केचित् उत्पादकम् आहुः) कुछ लोग पुत्र उत्पन्न करने वाले का ही पुत्र पर कानूनी अधिकार है, यह कहते हैं (अपरे क्षेत्रिणं विदुः) दूसरे कुछ लोग क्षेत्र अर्थात् स्त्री के स्वामी को पुत्र का अधिकारी मानते हैं [चाहे उत्पादक कोई भी हो, जैसे दत्तक पुत्र, नियोगपुत्र आदि]॥३२॥
स्त्री-पुरुष की क्षेत्र और बीज रूप में तुलना―
क्षेत्रभूता स्मृता नारी बीजभूतः स्मृतः पुमान्। क्षेत्रबीजसमायोगात्सम्भवः सर्वदेहिनाम्॥३३॥ (१८)
(नारी क्षेत्रभूता स्मृता) स्त्री को भूमि या खेत के तुल्य माना है और (पुमान् बीजभूतः स्मृतः) पुरुष को बीज के तुल्य माना है (क्षेत्र-बीज-समायोगात्) भूमि और बीज अर्थात् स्त्री और पुरुष के बीज मिलने से (सर्वदेहिनां सम्भवः) सब प्राणियों की उत्पत्ति होती है॥३३॥
परस्त्री में पुत्रोत्पत्ति करने पर पुत्र पर स्त्री का या स्त्री-स्वामी का अधिकार―
येऽक्षेत्रिणो बीजवन्तः परक्षेत्रप्रवापिणः।
ते वै सस्यस्य जातस्य न लभन्ते फलं क्वचित्॥४९॥ (१९)
[९.३३ की व्यवस्था के क्रम में सामान्यतः] (ये+अक्षेत्रिणः बीजवन्तः) जो क्षेत्ररहित हैं, किन्तु बीज वाले हैं (परक्षेत्रप्रवापिणः) तथा दूसरे के क्षेत्र में अर्थात् परस्त्री में बीज को बोते हैं=सन्तान उत्पन्न करते हैं (ते) वे निश्चय से (क्वचित्) कहीं भी (जातस्य सस्यस्य फलं न लभन्ते) दूसरे के क्षेत्र में उत्पन्न हुए अन्न की तरह सन्तान आदि के फल को नहीं प्राप्त करते अर्थात् उस सन्तान पर उस स्त्री के पति का अधिकार होता है, बीज बोने वाले का नहीं॥४९॥
पुत्र पर स्त्री या स्त्री-स्वामी के अधिकार के कारण―
फलं त्वनभिसंधाय क्षेत्रिणां बीजिनां तथा।
प्रत्यक्षं क्षेत्रिणार्थो बीजाद्योनिर्गरीयसी॥५२॥ (२०)
क्योंकि (क्षेत्रिणां तथा बीजिनाम्) खेतवालों अर्थात् पर पुरुष से सन्तान उत्पन्न करने वाली स्त्रियों में और बीजवालों अर्थात् परक्षेत्र=परस्त्री में संतान उत्पन्न करने वाले पुरुषों में (फलं तु अनभिसंधाय) उससे होने वाली फल प्राप्ति के विषय में बिना कोई पूर्व निश्चय हुए 'कि इस क्षेत्र में उत्पन्न होने वाला अन्न, सन्तान आदि फल किसका होगा' बीज-वपन करने पर यह व्यवस्था है कि (प्रत्यक्षं क्षेत्रिणाम्+अर्थः) वह फल स्पष्टरूप से क्षेत्रस्वामी का होता है; अर्थात् वह सन्तान स्त्री की ही होती है, क्योंकि (बीजात् योनिः गरीयसी) ऐसी स्थिति में बीज से योनि अर्थात् जन्मदात्री स्त्री बलवती होती है॥५२॥
समझौतापूर्वक पुत्रोत्पत्ति में पुत्र पर स्त्री-पुरुष दोनों का समानाधिकार―
क्रियाऽभ्युपगमात्त्वेतद् बीजार्थं यत्प्रदीयते।
तस्येह भागिनौ दृष्टौ बीजी क्षेत्रिक एव च॥५३॥ (२१)
(यत्) परन्तु यदि (क्रिया+अभ्युपगमात्) परस्पर मिलकर यह समझौता करके कि इससे प्राप्त फल रूपी पुत्र 'अमुक का' या दोनों का होगा [जैसे कि नियोग में किया जाता है], इस समझौते के साथ (एतत् बीजार्थं प्रदीयते) जैसे खेत बीज बोने के लिये दिया जाता है ऐसे ही स्त्री यदि समझौते के साथ किसी के लिए सन्तान उत्पन्न करती है तो उस अवस्था में (इह तस्य) इस लोक में समझौते के अनुसार उसके (बीजी च क्षेत्रिकः+एव भागिनौ दृष्टौ) बीजवाला और खेतवाला दोनों ही पुत्ररूप फल के अधिकारी होते हैं॥५३॥
एतद्वः सारफल्गुत्वं बीजयोन्योः प्रकीर्तितम्।
अतः परं प्रवक्ष्यामि योषितां धर्ममापदि॥५६॥ (२२)
(एतत्) [यह ९.३१-५३] (बीजयोन्योः सारफल्गुत्वम्) बीज और योनि की प्रधानता और अप्रधानता (वः प्रकीर्तितम्) तुमसे मैंने कही। (अतः परम्) इसके बाद अब मैं (आपदि योषितां धर्मम्) आपत्काल में अर्थात् सन्तानाभाव में स्त्रियों के धर्म कर्त्तव्य को (प्रवक्ष्यामि) कहूँगा―॥५६॥
बड़ी भाभी को गुरु-पत्नी के समान, छोटी को पुत्रवधू के समान माने―
भ्रातुर्ज्येष्ठस्य भार्या वा गुरुपत्न्यनुजस्य सा।
यवीयसस्तु या भार्या स्नुषा ज्येष्ठस्य सा स्मृता॥५७॥ (२३)
(ज्येष्ठस्य भ्रातुः या भार्या) बड़े भाई की जो पत्नी होती है (सा अनुजस्य गुरुपत्नी) वह छोटे भाई के लिए गुरुपत्नी के समान होती है (तु) किन्तु) (या यवीयसः भार्या) जो छोटे भाई की पत्नी है (सा ज्येष्ठस्य स्नुषा) वह बड़े भाई के लिए पुत्रवधू के समान (स्मृता) कही गयी है, अर्थात् भाई को भाई की पत्नी में उक्त प्रकार की पवित्र भावना से पारस्परिक व्यवहार करना चाहिए॥५७॥
उनके साथ गमन में पाप―
ज्येष्ठो यवीयसो भार्यां यवीयान् वाग्रजस्त्रियम्।
पतितौ भवतो गत्वा नियुक्तावप्यनापदि॥५८॥ (२४)
(ज्येष्ठः यवीयसः भार्याम्) बड़ा भाई छोटे भाई की स्त्री के साथ और (यवीयान्+अग्रज-स्त्रियम्) छोटा भाई बड़े भाई की स्त्री के साथ (अनापदि) आपत्तिकाल [=सन्तानाभाव] के बिना (नियुक्तौ+अपि गत्वा) नियोग-विधिपूर्वक भी यदि संभोग करें तो वे (पतितौ भवतः) पतित=अपराधी माने गये हैं॥५८॥
सन्तानाभाव में नियोग से सन्तानप्राप्ति―
देवराद् वा सपिण्डाद् वा स्त्रिया सम्यङ्नियुक्तया।
प्रजेप्सिताधिगन्तव्या सन्तानस्य परिक्षये॥५९॥ (२५)
(सन्तानस्य परिक्षये) पति से सन्तान न होने पर, सन्तानरहित अवस्था में पति की मृत्यु होने पर अथवा किसी भी कारण से सन्तान का अभाव होने पर (सम्यक् नियुक्तया स्त्रिया) परिजनों के द्वारा शास्त्रोक्त विधि से [परिवार और समाज में विवाहवत् प्रसिद्धिपूर्वक] नियोग के लिए नियुक्त स्त्री को (देवरात् वा सपिंडात् वा) देवर=वर्णस्थ या अपने से उत्तम वर्णस्थ पुरुष से अथवा पति की छ: पीढ़ियों में पति के छोटे या बड़े भाई से (ईप्सिता प्रजा अधिगन्तव्या) इच्छित सन्तान प्राप्त कर लेनी चाहिए अर्थात् जितनी सन्तान अभीष्ट हो उतनी प्राप्त कर ले॥५९॥
नियोग से पुत्र-प्राप्ति के बाद शरीर-सम्बन्ध अपराध है―
विधवायां नियोगार्थे निर्वृत्ते तु यथाविधि।
गुरुवच्च स्नुषावच्च वर्तेयातां परस्परम्॥६२॥ (२६)
(यथाविधि) विधि अनुसार (विधवायां नियोगार्थे निर्वृत्ते तु) विधवा में नियोग का उद्देश्य पूर्ण हो जाने के बाद (गुरुवत् च स्नुषावत् च परस्परं वर्तेयाताम्) बड़े भाई तथा छोटे भाई की स्त्री से क्रमशः गुरुपत्नी तथा पुत्रवधू के समान [९.५७] परस्पर बर्ताव करें॥६२॥
नियुक्तौ यो विधिं हित्वा वर्तेयातां तु कामतः।
तावुभौ पतितौ स्यातां स्नुषाग-गुरुतल्पगौ॥६३॥ (२७)
(नियुक्तौ यौ) नियोग के लिए नियुक्त बड़ा या छोटा भाई यदि (विधिं हित्वा) नियोग की विधि=व्यवस्था [समाज या परिवार में किये गये पूर्व निश्चयों को छोड़कर (कामतः वर्तेयाताम्) काम के वशीभूत होकर संभोगादि करें (तु) तो (तौ+उभौ) वे दोनों (स्नुषाग-गुरुतल्पगौ पतितौ स्याताम्) पुत्रवधूगमन और गुरुपत्नीगमन दोष के अपराधी माने जायेंगे [९.५८]॥६३॥
सगाई के बाद पति की मृत्यु होने पर अन्य विवाह का विधान―
यस्या म्रियेत कन्याया वाचा सत्ये कृते पतिः।
तामनेन विधानेन निजो विन्देत देवरः॥६९॥ (२८)
(वाचा सत्ये कृते) वाग्दान=सगाई निश्चित करने के बाद [और विवाह से पूर्व] (यस्याः कन्यायाः पतिः म्रियेत) जिस कन्या का पति मर जाये (ताम्) उस कन्या को (निजः देवरः) पति का छोटा भाई अथवा दूसरा पति (अनेन विधानेन विन्देत) पूर्ववर्णित विवाह के विधान के अनुसार [३.२७-३०] प्राप्त कर ले॥६९॥
स्त्री को जीविका देकर पुरुष प्रवास में जाये―
विधाय वृत्तिं भार्यायाः प्रवसेत् कार्यवान्नरः।
अवृत्तिकर्षिता हि स्त्री प्रदुष्येत् स्थितिमत्यपि॥७४॥ (२९)
(कार्यवान् नरः) किसी आवश्यक कार्य के लिए परदेश में जाने वाला मनुष्य (भार्यायाः वृत्तिं विधाय प्रवसेत्) अपनी पत्नी के भरण-पोषण की जीविका का प्रबन्ध करके परदेश में जाये (हि) क्योंकि (अवृत्तिकर्षिता स्थितिमती+अपि स्त्री) जीविका के अभाव से पीड़ित होकर शुद्ध आचरण वाली स्त्री भी (प्रदुष्येत्) दूषित=पथभ्रष्ट हो सकती है॥७४॥
विधाय प्रोषिते वृत्तिं जीवेन्नियममास्थिता।
प्रोषिते त्वविधायैव जीवेच्छिल्पैरगर्हितैः॥७५॥ (३०)
(वृत्तिं विधाय प्रोषिते) जीविका का प्रबन्ध करके पति के परदेश जाने पर (नियमम्+आस्थिता जीवेत्) पत्नी अपने पातिव्रत्य नियमों का पालन करती हुई जीवनयात्रा चलाये (अविधाय+एव तु प्रोषिते) यदि किसी आपात् स्थिति में पति बिना जीविका का प्रबन्ध किये परदेश चला जाये तो (अगर्हितैः शिल्पैः जीवेत्) अनिन्दित शिल्पकार्यों [सिलाई करना, बुनना, कातना आदि] को करके अपनी जीवनयात्रा चलाये॥७५॥
पति की प्रतीक्षा की अवधि और उसके पश्चात् नियोग अथवा पुनर्विवाह―
प्रोषितो धर्मकार्यार्थं प्रतीक्ष्योऽष्टौ नरः समाः।
विद्यार्थं षट् यशोऽर्थं वा कामार्थं त्रींस्तु वत्सरान्॥७६॥ (३१)
पत्नी (धर्मकार्यार्थं प्रोषितः नरः) किसी धर्मसम्बन्धी कार्य के लिए परदेश गये हुए पति की (अष्टौ समाः प्रतीक्ष्यः) आठ वर्ष तक आने की प्रतीक्षा करे, (विद्यार्थं षट्) विद्या प्राप्ति के लिए गये हुए की छह वर्ष तक आने की प्रतीक्षा करे, (वा यशः+अर्थम्) और यश प्राप्ति के लिये गये हुए की भी छह वर्ष तक आने की प्रतीक्षा करे, (कामार्थं तु त्रीन् वत्सरान्) धनप्राप्ति आदि कामनाओं की प्राप्ति के लिए परदेश गये हुए पति की तीन वर्ष तक आने की प्रतीक्षा करे, [इसके पश्चात् पुनर्विवाह कर ले। अर्थान्तर में, २. इसके पश्चात नियोग से सन्तानोत्पत्ति कर ले, अथवा ३. इसके पश्चात् पत्नी पति के पास चली जाये]॥७६॥
संवत्सरं प्रतीक्षेत द्विषन्तीं योषितं पतिः।
ऊर्ध्वं संवत्सरात्त्वेनां दायं हृत्वा न संवसेत्॥७७॥ (३२)
(पतिः द्विषन्तीं योषितं) पति अपने से द्वेष करने वाली पत्नी की (संवत्सरं प्रतीक्षेत) एक वर्ष तक [सुधरने की] प्रतीक्षा करे (संवत्सरात् ऊर्ध्वं तु+एनाम्) एक वर्ष तक न सुधरे तो उसके पश्चात् इसको (दायं हृत्वा) अपने दिये धन, आभूषण आदि वापस लेकर (न संवसेत्) उसे अपने पास न रखे अर्थात् त्याग दे॥७७॥
अतिक्रामेत् प्रमत्तं या मत्तं रोगार्तमेव वा।
सा त्रीन्मासान् परित्याज्या विभूषणपरिच्छदा॥७८॥ (३३)
(या) जो पत्नी (प्रमत्तं मत्तं वा रोगार्तम्+एव अतिक्रामेत्) प्रमाद से कोई हानि होने पर, विक्षिप्त अथवा रोगपीड़ित होने पर अपने पति की अवहेलना करे (सा) उसे (विभूषणपरिच्छदा) अपने दिये आभूषण, वस्त्र आदि लेकर (त्रीन् मासान् परित्याज्या) तीन मास तक छोड़ देवे॥७८॥
उन्मत्तं पतितं क्लीबमबीजं पापरोगिणम्।
न त्यागोऽस्ति द्विषन्त्याश्च न च दायापवर्तनम्॥७९॥ (३४)
(उन्मत्तं पतितं क्लीबम्+अबीजं पापरोगिणं द्विषन्त्याः) स्थायी पागल, अपराध के कारण पतित, नपुंसक, निर्बीज वीर्य वाले, पापरोगी=घृणित असाध्य रोग से पीड़ित पति की उपेक्षा करने वाली पत्नी को त्यागः न अस्ति) नहीं छोड़ा जा सकता (च) और (न दाय+अपवर्तनम्) न उससे दिया हुआ धन आदि छीना जा सकता है॥७९॥
मद्यपाऽसाधुवृत्ता च प्रतिकूला च या भवेत्।
व्याधिता वाऽधिवेत्तव्या हिंस्रर्थघ्नी च सर्वथा॥८०॥ (३५)
(या) जो पत्नी (मद्यपा) शराब पीने वाली, (असाधुवृत्ता) दुराचरण वाली, (प्रतिकूला) पति के प्रतिकूल आचरण करने वाली, (व्याधिता) संक्रामक स्थायी व्याधिग्रस्त, (हिंस्रा) पति आदि को मारने वाली, (च) और (सर्वदा अर्थघ्नी) सदा धन को नष्ट करने वाली (भवेत्) हो तो (अधिवेत्तव्या) उसे छोड़कर दूसरा विवाह कर लेना चाहिए॥८०॥
पुरुष दूसरी स्त्री से सन्तानप्राप्ति करे―
वन्ध्याष्टमेऽधिवेद्याब्दे दशमे तु मृतप्रजा।
एकादशे स्त्रीजननी सद्यस्त्वप्रियवादिनी॥८१॥ (३६)
(वन्ध्या+अष्टमे अब्दे) यदि पत्नी वन्ध्या हो तो आठवें वर्ष में, (मृतप्रजाः तु दशमे) यदि मृत सन्तान उत्पन्न होती है अथवा हो कर मर जाती हो तो दसवें वर्ष में, (स्त्रीजननी एकादशे) केवल कन्याएं ही उत्पन्न होती हों तो ग्यारहवें वर्ष में, (अप्रियवादिनी तु सद्यः) यदि अप्रिय बोलने वाली हो तो यथाशीघ्र उसे त्यागकर (अधिवेद्या) पति दूसरा विवाह कर ले। [पहली पत्नी का साथ रहना-न रहना दोनों की सहमति पर निर्भर है]॥८१॥
या रोगिणी स्यात्तु हिता सम्पन्ना चैव शीलतः।
सानुज्ञाप्याधिवेत्तव्या नावमान्या च कर्हिचित्॥८२॥ (३७)
(या रोगिणी स्यात्) जो स्त्री स्थायी रोगिणी हो (तु) किन्तु (हिता च शीलतः सम्पन्नाः) पति की हितैषिणी और सुशील आचरण वाली हो (सा+अनुज्ञाप्य+अधिवेत्तव्या) पति उससे अनुमति लेकर दूसरा विवाह कर ले (च) और (कर्हिचित् न+अवमान्या) उसकी कभी अवमानना न करे॥८२॥
अधिविन्ना तु या नारी निर्गच्छेद्रुषिता गृहात्।
सा सद्यः संनिरोद्धव्या त्याज्या वा कुलसन्निधौ॥८३॥ (३८)
(अधिविन्ना तु या नारी) [पूर्ववर्णित ९.८०-८१ अवस्था में] दूसरा विवाह करने पर जो स्त्री (रुषिता गृहात् निर्गच्छेत्) क्रोध में आकर घर से निकल जाये (सा सद्यः संनिरोद्धव्या) उसको तुरन्त रोककर रखे (वा) अथवा (कुलसन्निधौ त्याज्या) उसके परिवार वालों के पास छोड़ आये॥८३॥
प्रतिषिद्धापि चेद्या तु मद्यमभ्युदयेष्वपि।
प्रेक्षासमाजं गच्छेद्वा सा दण्ड्या कृष्णलानि षट्॥८४॥ (३९)
(या तु) जो स्त्री (प्रतिषिद्धा+अपि) पति के द्वारा निषेध करने पर भी (अभ्युदयेषु मद्यम् अपि) प्रसन्नता के आयोजनों, उत्सवों में मद्यपान करे (वा) अथवा (प्रेक्षासमाजं गच्छेत्) सार्वजनिक नाचने-गाने आदि की जगह जाये (सा षट् कृष्णलानि दण्ड्या) उसे छह कृष्णल [८.१३४] सुवर्ण से राजा दण्डित करे॥८४॥
उत्तम वर मिलने पर कन्या का विवाह शीघ्र कर दें―
उत्कृष्टायाभिरूपाय वराय सदृशाय च।
अप्राप्तामपि तां तस्मै कन्यां दद्याद्यथाविधि॥८८॥ (४०)
(उत्कृष्टाय-अभिरूपाय च सदृशाय वराय) यदि कुल-आचार आदि की दृष्टि से उत्तम, सुन्दर और कन्या के योग्य गुण वाला वर मिल गया हो तो (तस्मै) उसको (अप्राप्ताम्+अपि तां कन्याम्) विवाह योग्य सोलह वर्ष की अवस्था पूर्ण होने में यदि कुछ कमी भी हो तो उस कन्या को (यथाविधि दद्यात्) विवाह विधि के अनुसार विवाहित कर दे। [यह केवल अपवाद विधि है ९.८९ के संदर्भ में]॥८८॥
काममामरणात्तिष्ठेद् गृहे कन्यर्तुमत्यपि।
न चैवैनां प्रयच्छेत्तु गुणहीनाय कर्हिचित्॥८९॥ (४१)
गुणहीन पुरुष से विवाह न करें―
(कामम्) भले ही (कन्या) (आमरणात्) मरणपर्यन्त (गृहे) पिता के घर में (तिष्ठेत्) बिना विवाह के बैठी भी रहे (तु) परन्तु (गुणहीनाय) गुणहीन पुरुष के साथ (एनां कर्हिचित् न प्रयच्छेत्) अपनी कन्या का विवाह कभी न कन्या करे॥८९॥
कन्या स्वयंवर विवाह करे―
त्रीणि वर्षाण्युदीक्षेत कुमार्यृतुमती सती।
ऊर्ध्वं तु कालादेतस्माद् विन्देत सदृशं पतिम्॥९०॥ (४२)
(कुमारी) कन्या (ऋतुमती सती) रजस्वला हो जाने पर (एतस्मात् कालात्+ऊर्ध्वम्) इस समय के बाद (त्रीणि वर्षाणि+उदीक्षेत) तीन वर्षों तक विवाह की प्रतीक्षा करे, तदनन्तर (सदृशं पतिं विन्देत) अपने योग्य पति का वरण करे॥९०॥
स्वयंवर विवाह में दोष नहीं―
अदीयमाना भर्तारमधिगच्छेद् यदि स्वयम्।
नैनः किञ्चिदवाप्नोति न च यं साऽधिगच्छति॥९१॥ (४३)
(अदीयमाना) पिता आदि अभिभावक के द्वारा विवाह न करने पर (यदि स्वयं भर्तारम्+अधिगच्छेत्) जो कन्या यदि स्वयं पति का वरण कर ले तो (किंचित् एनः न अवाप्नोति) वह कन्या किसी पाप-अपराध की भागी नहीं होती (च) और (न सा यम् अधिगच्छति) न उसे कोई पाप=दोष या अपराध होता है जिस पति को यह वरण करती है॥९१॥
स्त्री पुरुष की अर्द्धांगिनी―
प्रजनार्थं स्त्रियः सृष्टाः सन्तानार्थं च मानवाः।
तस्मात् साधारणो धर्मः श्रुतौ पत्न्या सहोदितः॥९६॥ (४४)
(प्रजनार्थं स्त्रियः सृष्टाः) गर्भधारण करके सन्तानों की उत्पत्ति करने के लिए स्त्रियों की रचना हुई है (च) और (सन्तानार्थं मानवाः) गर्भाधान करने के लिए पुरुषों की रचना हुई है [दोनों एक दूसरे के पूरक होने के कारण] (तस्मात्) इसलिए (श्रुतौ) वेदों में (साधारणः धर्मः) साथ मिलकर विहित साधारण अनुष्ठान और पंचयज्ञ आदि धर्मकार्य के अनुष्ठान के (पत्न्या सह+उदितः) पत्नी के साथ करने का विधान किया है॥९६॥
पति-पत्नी पारस्परिक मर्यादा का अतिक्रमण न करें―
अन्योन्यस्याव्यभिचारो भवेदामरणान्तिकः।
एष धर्मः समासेन ज्ञेयः स्त्रीपुंसयोः परः॥१०१॥ (४५)
(आमरणान्तिकः) मरणपर्यन्त (अन्योन्यस्य+अव्यभिचारः भवेत्) पति-पत्नी में परस्पर किसी भी प्रकार की मर्यादा का उल्लंघन न होने पाये (स्त्रीपुंसयोः) पति-पत्नी का (समासेन) संक्षेप में (एषः परः धर्मः ज्ञेयः) यही साररूप मुख्य धर्म है॥१०१॥
पति-पत्नी बिछुड़ने के अवसर न आने दें―
तथा नित्यं यतेयातां स्त्रीपुंसौ तु कृतक्रियौ।
यथा नाभिचरेतां तौ वियुक्तावितरेतरम्॥१०२॥ (४६)
(कृतक्रियौ स्त्रीपुंसौ) विवाहित स्त्री-पुरुष (यथा) जिस प्रकार से कि (तौ) वे (इतरेतरम्) एक-दूसरे से (वियुक्तौ न+अभिचरेताम्) मतभेद न हो और अगल न हों=वैवाहिक सम्बन्धविच्छेद न हो पाये (तथा नित्यं यतेयाताम्) वैसा उपाय करने का सदा प्रयत्न रखें॥१०२॥
(१७) दायभाग विवाद-वर्णन
[९.१०३-२१९]
एष स्त्रीपुंसयोरुक्तो धर्मो वो रतिसंहितः। आपद्यपत्यप्राप्तिश्च दायभागं निबोधत॥१०३॥ (४७)
(एषः) यह [९.१ से १०२ पर्यन्त] (स्त्रीपुंसयोः) स्त्री-पुरुष के (रति-संहितः धर्मः) रति= स्नेह या संयोग सहित [वियोगकाल के भी] धर्म (च) और (आपदि+अपत्यप्राप्तिः) आपत्काल में नियोगविधि से सन्तान-प्राप्ति [९.५६-६३] की बात (वः उक्तः) तुमसे कही। (दायभागं निबोधत) अब दायभाग का विधान सुनो—॥१०३॥
अलग होते समय दायभाग का बराबर विभाजन―
ऊर्ध्वं पितुश्च मातुश्च समेत्य भ्रातरः समम्।
भजेरन् पैतृकं रिक्थ्मनीशास्ते हि जीवतोः॥१०४॥ (४८)
(पितुः च मातुः ऊर्ध्वम्) पिता और माता के मरने के पश्चात् (भ्रातरः समेत्य) सब भाई एकत्रित होकर (पैतृकं रिक्थं समं भजेरन्) पैतृक सम्पत्ति को बराबर-बराबर बांट लें (जीवतोः ते हि अनीशाः) माता-पिता के जीवित रहते हुए वे उनके धन के स्वामी नहीं हो सकते हैं॥१०४॥
सम्मिलित रहने पर विभाजन का दूसरा विकल्प―
ज्येष्ठ एव तु गृह्णीयात् पित्र्यं धनमशेषतः।
शेषास्तमुपजीवेयुर्यथैव पितरं तथा॥१०५॥ (४९)
[अथवा सम्मिलित रूप में रहना हो तो] (पित्र्यं धनम्+अशेषतः ज्येष्ठः एव तु गृह्णीयात्) पिता के सारे धन को बड़ा पुत्र ही ग्रहण कर ले (शेषाः) और बाकी सब भाई (यथा+एव पितरम्) जैसे पिता के साथ रहते थे (तथा तम्+उपजीवेयुः) उसी प्रकार बड़े भाई के साथ रहकर जीवन चलावें॥१०५॥
बड़े भाई का छोटों के प्रति कर्त्तव्य―
पितेव पालयेत् पुत्रान्-ज्येष्ठो भ्रातॄन् यवीयसः। पुत्रवच्चापि वर्तेरन्-ज्येष्ठे भ्रातरि धर्मतः॥१०८॥ (५०)
[ज्येष्ठ पुत्र के साथ ९.१०५ के अनुसार सम्मिलित रहते हुए] (ज्येष्ठः) बड़ा भाई (यवीयसः भ्रातॄन्) अपने छोटे भाइयों को (पिता+इव पुत्रान्) जैसे पिता अपने पुत्रों का पालन-पोषण करता है ऐसे (पालयेत्) पाले (च) और (ज्येष्ठे भ्रातरि) छोटे भाई बड़े भाई में (धर्मतः) धर्म से=कर्त्तव्य के अनुसार (पुत्रवत्+अपि वर्तेरन्) पुत्र के अनुसार बर्ताव करें अर्थात् उसे पिता के समान मानें॥१०८॥
छोटों का बड़े भाई के प्रति कर्त्तव्य―
यो ज्येष्ठो ज्येष्ठवृत्तिः स्यान्मातेव स पितेव सः।
अज्येष्ठवृत्तिर्यस्तु स्यात् सः सम्पूज्यस्तु बन्धुवत्॥११०॥ (५१)
किन्तु (यः ज्येष्ठः) जो बड़ा भाई (ज्येष्ठवृत्तिः स्यात्) बड़ों अर्थात् पिता आदि के समान छोटे भाइयों का पालन-पोषण करने वाला हो तो (सः पिता+इव, सः माता+इव संपूज्यः) वह पिता और माता के समान माननीय है (यः तु) और जो (अज्येष्ठवृत्तिः स्यात्) बड़ों अर्थात् पिता आदि के समान पालन-पोषण करने वाला न हो तो (सः तु बन्धुवत्) वह केवल भाई या मित्र की तरह ही मानने योग्य होता है॥११०॥
एवं सह वसेयुर्वा पृथग् वा धर्मकाम्यया।
पृथग् विवर्धते धर्मस्तस्माद्धर्म्या पृथक् क्रिया॥१११॥ (५२)
(एवम्) इस प्रकार (सह वसेयुः) सब भाई साथ मिलकर [८.१०५, १०८, ११०] रहें (वा) अथवा (धर्म-काम्यया) गृहस्थ धर्म के पालन की कामना से (पृथक्) अलग-अलग [९.१०४] रहें। (पृथक् धर्मः विवर्धते) क्योंकि पृथक-पृथक् रहने से धर्म का [सबके द्वारा अलग-अलग पञ्चमहायज्ञ आदि करने के कारण] विस्तार होता है (तस्मात्) इस कारण (पृथक् क्रिया धर्म्या) पृथक् रहना भी धर्मानुकूल है॥१११॥
इकट्ठे रहकर अलग होने पर 'उद्धार' अंश का विभाजन―
ज्येष्ठस्य विंश उद्धारः सर्वद्रव्याच्च यद्वरम्।
ततोऽर्धं मध्यमस्य स्यात्तुरीयं तु यवीयसः॥११२॥ (५३)
[सम्मिलित रहते हुए अगर बड़े भाई छोटों का पालन-पोषण करें तो उसके बाद अलग होते हुए] (ज्येष्ठस्य विंशः उद्धारः) पिता के धन में से बड़े भाई का बीसवां भाग 'उद्धार' [ =अतिरिक्त भागविशेष होता है] (च) और (सर्वद्रव्यात् यत् वरम्) सब पदार्थों में से जो सबसे श्रेष्ठ पदार्थ हो वह भी (ततः+अर्धम्) बड़े के 'उद्धार' से आधा उद्धार (मध्यमस्य) मझले भाई का अर्थात् चालीसवां भाग (तुरीयं तु यवीयसः स्यात्)
एवं समुद्धृतोद्धारे समानंशान् प्रकल्पयेत्।
उद्धारेऽनुद्धृते त्वेषामियं स्यादंशकल्पना॥११६॥ (५४)
(एवम् समुद्धृत+उद्धारे) इस प्रकार [९.११२ के अनुसार] 'उद्धार' [=अतिरिक्त धनविशेष] के निकालने के बाद (समान्-अंशान् प्रकल्पयेत्) शेष धन को समान भागों में बांट लें (तु उद्धारे+अनुद्धृते) यदि 'उद्धार' पृथक् से नहीं निकालें तो (एषाम् अंशकल्पना इयं स्यात्) उन भाइयों के भाग का बंटवारा इस प्रकार करे॥११६॥
एकाधिकं हरेज्ज्येष्ठः पुत्रोऽध्यर्धं ततोऽनुजः।
अंशमंशं यवीयांस इति धर्मो व्यवस्थितः॥११७॥ (५५)
(ज्येष्ठः पुत्रः एक-अधिकं हरेत्) बड़ा पुत्र अथवा बड़ा भाई ‘एक अधिक' अर्थात् दो भाग धन ग्रहण करे (तत्+अनुजः पुत्रः अध्यर्धम्) उससे छोटा भाई अर्थात् डेढ़ भाग ले (यवीयांसः अंशम्+अशंम्) छोटे भाई एक-एक भाग सम्पत्ति का ग्रहण करें (इति धर्म: व्यवस्थितः) यही दायभाग विभाजन के धर्म की व्यवस्था है॥११७॥
स्वेभ्योंऽशेभ्यस्तु कन्याभ्यः प्रदद्युर्भ्रातरः पृथक्। स्वात्स्वादंशाच्चतुर्भागं पतिताः स्युरदित्सवः॥११८॥ (५६)
(भ्रातरः) सब भाई (कन्याभ्यः) अविवाहित बहनों के लिए पृथक् (चतुर्भागम्) पृथक्-पृथक् चतुर्थांश भाग (स्वेभ्यः प्रदधुः) अपने भागों से देवें (स्वात् स्वात्+अंशात् अदित्सवः) अपने-अपने भाग से चतुर्थांश भाग न देने वाले भाई (पतिताः स्युः) पतित=दोषी और निन्दनीय माने जायेंगे॥११८॥
अजाविकं सैकशफं न जातु विषमं भजेत्।
अजाविकं तु विषमं ज्येष्ठस्यैव विधीयते॥११९॥ (५७)
(अजा+अविकं स+एकशफं विषमम्) बकरी, भेड़, एक खुरवाली घोड़ी आदि पशुओं के विषम होने पर (न जातु भजेत्) उन्हें [बेचकर धनराशि के रूप में] विभाजित न करें (विषमम् अजाविकं तु) विषम रूप में बचे बकरी-भेड़ आदि पशु (ज्येष्ठस्य+एव विधीयते) बड़े भाई को ही प्राप्त होते हैं॥११९॥
नियोग से उत्पन्न सन्तानों की पत्नियों के अनुसार दायव्यवस्था―
यवीयान्-ज्येष्ठभार्यायां पुत्रमुत्पादयेद्यदि।
समस्तत्र विभागः स्यादिति धर्मो व्यवस्थितः॥१२०॥ (५८)
(यदि यवीयान्) यदि छोटा भाई (ज्येष्ठ-भार्यायां पुत्रम्+उत्पादयेत्) बड़े भाई की स्त्री में 'नियोग' [९.५८-६२] से पुत्र उत्पन्न करे तो (तत्र) उस स्थिति में (समः विभागः स्यात्) उस पुत्र को अपने चाचा आदि के समान पिता का भाग प्राप्त होगा अर्थात् वह अपने असली पिता के सम्पूर्ण भाग का अधिकारी होगा किन्तु उद्धार भाग [९.११२-११४] का नहीं (इति धर्मः व्यवस्थितः) ऐसी धर्म की व्यवस्था है॥१२०॥
उपसर्जनं प्रधानस्य धर्मतो नोपपद्यते।
पिता प्रधानं प्रजने तस्माद्धर्मेण तं भजेत्॥१२१॥ (५९)
(उपसर्जनम्) गौणपुत्र अर्थात् जो नियोगविधि से छोटे भाई के द्वारा बड़े भाई की स्त्री में उत्पन्न हुआ है, वह (धर्मतः) धर्मानुसार (प्रधानस्य न+उपपद्यते) प्रधान-पुत्र अर्थात् छोटों का पालन-पोषण करने वाले अपने ही पिता से उत्पन्न पुत्र के पूर्ण उद्धारादि भाग [९.११२-११४] का अधिकारी नहीं होता, (प्रजने प्रधानं पिता) सन्तानोत्पत्ति में पिता की ही अर्थात् बीज की ही प्रधानता होती है (तस्मात्) इस कारण (धर्मेण तं भजेत्) धर्मानुसार वह पुत्र पितृव्यों के समान समभाग को ही ले ले॥१२१॥
पुत्रिका करने का उद्देश्य―
अपुत्रोऽनेन विधिना सुतां कुर्वीत पुत्रिकाम्।
यदपत्यं भवेदस्यां तन्मम स्यात्स्वधाकरम्॥१२७॥ (६०)
(अपुत्रः) पुत्रहीन पिता (अस्यां यत्+अपत्यं भवेत् तत् मम स्वधाकरं स्यात्) मेरी इस कन्या से जो पुत्र उत्पन्न होगा वह मुझे वृद्धावस्था में पुत्रवत् अन्नभोजन आदि से पालन-पोषण करने वाला होगा और सेवा द्वारा सुख देने वाला होगा' (अनेन विधिना सुतां पुत्रिकां कुर्वीत) ऐसा दामाद से कहकर अपनी कन्या को 'पुत्रिका' करे [ऐसी स्थिति में पुत्रहीन पिता के धन की उत्तराधिकारिणी पुत्री होगी या नाती होगा [९.१३१]॥१२७॥
पुत्र के अभाव में सारे धन की पुत्री अधिकारिणी―
यथैवात्मा तथा पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा।
तस्यामात्मनि तिष्ठन्त्यां कथमन्यो धनं हरेत्॥१३०॥ (६१)
(यथा+एव आत्मा तथा पुत्रः) जैसी अपनी आत्मा है वैसा ही पुत्र होता है अर्थात् पुत्र माता-पिता का अंग रूप होता है और (पुत्रेण दुहिता समा) पुत्र जैसी ही आत्मारूप पुत्री होती है (तस्याम्+आत्मनि तिष्ठन्त्याम्) उस आत्मारूप पुत्री के रहते हुये (अन्यः धनं कथं हरेत्) कोई दूसरा दाय धन को कैसे ले सकता है? अर्थात् नहीं ले सकता। भाव यह है कि पुत्र के अभाव में पुत्री ही पिता-माता के धन की अधिकारिणी होती है॥१३०॥
माता का धन पुत्रियों का ही होता है―
मातुस्तु यौतकं यत् स्यात् कुमारीभाग एव सः।
दौहित्र एव च हरेदपुत्रस्याखिलं धनम्॥१३१॥ (६२)
(मातुः तु यत् यौतकं स्यात्) माता का जो किसी भी अवसर पर प्राप्त निजी धन होता है (सः कुमारीभागः एव) वह अविवाहित कन्या का ही भाग होता है (च) तथा (अपुत्रस्य अखिलं धनं दौहित्रः एव हरेत्) पुत्रहीन नाना के सम्पूर्ण धन को धेवता ही प्राप्त कर लेवे॥१३१॥
पुत्रिका करने पर भी पुत्र होने की अवस्था में दाय व्यवस्था―
पुत्रिकायां कृतायां तु यदि पुत्रोऽनुजायते।
समस्तत्र विभागः स्याज्ज्येष्ठता नास्ति हि स्त्रियाः॥१३४॥ (६३)
(पुत्रिकायां कृतायां तु) पूर्वोक्त विधि से [९.१२७] 'पुत्रिका' कर लेने के बाद (यदि पुत्रः+अनुजायते) यदि किसी को पुत्र उत्पन्न हो जाये तो (तत्र समः विभागः स्यात्) उस स्थिति में उन दोनों को [धेवता और निजपुत्र को] धन का समान भाग मिलेगा (हि) क्योंकि (स्त्रियाः ज्येष्ठता न+अस्ति) स्त्री को उद्धार भाग में ज्येष्ठत्व नहीं है अर्थात् बड़े पुत्र की भांति 'उद्धार' भाग [९.११२] नहीं प्राप्त होता। अतः धेवते को भी वह 'उद्धार' भाग नहीं प्राप्त होगा॥१३५॥
पुत्र का लक्षण―
पुंनाम्नो नरकाद्यस्मात् त्रायते पितरं सुतः।
तस्मात् पुत्र इति प्रोक्तः स्वयमेव स्वयंभुवा॥१३८॥ (६४)
(यः) जो (सुतः) पुत्र (पितरम्) माता-पिता की (पुम्नाम्नः नरकात्) 'पुम्=सन्तान के अभाव रूप कष्ट और वृद्धावस्था, रोग आदि से उत्पन्न होने वाले दुःख रूप नरक से (त्रायते) रक्षा करता है' (तस्मात्) इस कारण से (स्वयंभुवा स्वयमेव 'पुत्रः' इति प्रोक्तः) स्वयंभू ईश्वर ने वेदों में बेटे को पुत्र' संज्ञा से अभिहित किया है [द्रष्टव्य है―'सर्वेषां तु स नामानि........... वेदशब्देभ्य एवादौ......निर्ममे" १.२३]॥१३८॥
दत्तकपुत्र के दायभाग का विधान―
उपपन्नो गुणैः सर्वैः पुत्रो यस्य तु दत्त्रिमः ।
स हरेतैव तद्रिक्थं सम्प्राप्तोऽप्यन्यगोत्रतः॥१४१॥ (६५)
(यस्य तु दत्त्रिमः पुत्रः) जिसका 'दत्तक'=गोद लिया हुआ पुत्र (सर्वैः गुणैः उपपन्नः) सभी श्रेष्ठ या वर्णोचित पुत्रगुणों से [९.१३८] सम्पन्न हो, (अन्यगोत्रतः सम्प्राप्तः+अपि) चाहे वह दूसरे वंश का ही क्यों न हो (सः तत् रिक्थं हरेत+एव) वह उस गोद लेने वाले पिता के धन को उत्तराधिकार में निश्चित रूप से प्राप्त करता है॥१४१॥
हरेत्तत्र नियुक्तायां जातः पुत्रो यथौरसः।
क्षेत्रिकस्य तु तद्बीजं धर्मतः प्रसवश्च सः॥१४५॥ (६६)
(तत्र नियुक्तायाम्) नियोग के लिए नियुक्त स्त्री में (यथा+औरसः जातः पुत्रः) औरस=सगे पुत्र के समान हुआ क्षेत्रज पुत्र (हरेत्) पितृधन का भागी होता है; क्योंकि (यत् क्षेत्रिकस्य बीजम्) वह क्षेत्रिक=क्षेत्र स्वामी का ही बीज माना जाता है, यतोहि (सः धर्मतः प्रसवः) वह धर्मानुसार नियोग से [९.५९] उत्पन्न होता है॥१४५॥
धनं यो बिभृयाद् भ्रातुर्मृतस्य स्त्रियमेव च।
सोऽपत्यं भ्रातुरुत्पाद्य दद्यात्तस्यैव तद्धनम्॥१४६॥ (६७)
(मृतस्य भ्रातुः) मरे हुए भाई के (धनं च स्त्रियम्+एव यः बिभृयात्) धन और स्त्री की जो भाई रक्षा करे (सः+अपत्यम्+उत्पाद्य) वह भाई की स्त्री में सन्तान उत्पन्न करके (भ्रातुः तत् धनं तस्यैव दद्यात्) भाई का वह प्राप्त सब धन उस पुत्र को ही दे देवे॥१४६॥
नियोगविधि के बिना उत्पन्न पुत्र दायभाग का अनधिकारी―
याऽनियुक्ताऽन्यतः पुत्रं देवराद्वाऽप्यवाप्नुयात्।
तं कामजमरिक्थीयं वृथोत्पन्नं प्रचक्षते॥१४७॥ (६८)
(या अनियुक्ता) जो स्त्री नियोगविधि [९.५९] के बिना (अन्यतः वा देवरात् अपि) अन्य कुलबाह्य पुरुष से या देवर से भी (पुत्रम् अवाप्नुयात्) पुत्र प्राप्त करे (तम्) उस पुत्र को (कामजं वृथोत्पन्नम् अरिक्थीयम्) 'कामज'=कामवासना के वशीभूत होकर [९.५८, ६३] व्यभिचार से उत्पन्न किया गया और 'वृथोत्पन्न'=व्यर्थ में उत्पन्न कहा गया है, और वह पितृधन का अनधिकारी (प्रचक्षते)
अक्षतयोनि के पुनर्विवाह का विधान―
सा चेदक्षतयोनिः स्याद् गतप्रत्यागताऽपि वा।
पौनर्भवेन भर्त्रा सा पुनः संस्कारमर्हति॥१७६॥ (६९)
(सा चेत्+अक्षतयोनिः स्यात्) वह स्त्री यदि 'अक्षतयोनि'=जिनका संभोगसम्बन्ध न हुआ हो, ऐसी हो (वा) चाहे वह (गत-प्रत्यागता+अपि) पति के घर गई-आई हुई भी हो, (सा) वह (पौनर्भवेन भर्त्रा) दूसरे पति के साथ (पुनः संस्कारम्+अर्हति) पुनः विवाह कर सकती है॥१७६॥
[मातृधन का विभाग]
मातृधन को भाई-बहन बराबर बांट लें―
जनन्यां संस्थितायां तु समं सर्वे सहोदराः।
भजेरन्मातृकं रिक्थं भगिन्यश्च सनाभयः॥१९२॥ (७०)
(जनन्यां संस्थितायां तु) माता के मर जाने पर (सर्वे सहोदराः च सनाभयः भगिन्यः) सब सगे भाई और सब सगी बहनें (मातृकं रिक्थं समं भजेरन्) माता के पारिवारिक धन को बराबर-बराबर बांट लें॥१९२॥
यास्तासां स्युर्दुहितरस्तासामपि यथार्हतः।
मातामह्या धनात्किंचित्प्रदेयं प्रीतिपूर्वकम्॥१९३॥ (७१)
(तासां याः दुहितरः स्युः) उन सभी बहनों की जो पुत्रियां हों (तासां+अपि यथार्हतः) उनको भी यथायोग्य (प्रीतिपूर्वकं मातामह्याः धनात् किंचित् प्रदेयम्) प्रेमपूर्वक नानी के धन में से कुछ देना चाहिए॥१९३॥
स्त्रीधन छह प्रकार का―
अध्यग्न्यध्यावाहनिकं दत्तं च प्रीतिकर्मणि।
भ्रातृमातृपितृप्राप्तं षड्विधं स्त्रीधनं स्मृतम्॥१९४॥ (७२)
(स्त्रीधनं षड्विधं स्मृतम्) स्त्रीधन छः प्रकार का माना गया है—१. (अधि+अग्नि) विवाहसंस्कार के समय प्राप्त धन, २. (अधि+आवाहनिकम्) पति के घर जाती हुई कन्या को पिता के घर से प्राप्त हुआ धन, ३. (प्रीति कर्मणि च दत्तम्) प्रसन्नता के किसी अवसर पर पति आदि के द्वारा दिया गया धन, ४. (भ्रातृ-मातृ-पितृ-प्राप्तम्) भाई से प्राप्त धन, ५. माता से प्राप्त धन, ६. पिता से प्राप्त धन॥१९४॥
अन्वाधेयं च यद्दत्तं पत्या प्रीतेन चैव यत्।
पत्यौ जीवति वृत्तायाः प्रजायास्तद्धनं भवेत्॥१९५॥ (७३)
(यत् अन्वाधेयम्) जो अन्वाधेय अर्थात् विवाह के पश्चात् पिता या पति द्वारा दिया गया है, वह धन (च) और (यत् प्रीतेन पत्या दत्तम्) जो प्रीतिपूर्वक पति के द्वारा दिया गया धन है (पत्यौ जीवति) पति के जीवित रहते भी (वृत्तायाः) पत्नी के मरने पर (तत्धनं प्रजायाः भवेत्) वह धन पुत्र-पुत्रियों का ही होता है॥१९५॥
ब्राह्मादि विवाहों में स्त्रीधन का अधिकारी पति―
ब्राह्मदैवार्षगान्धर्वप्राजापत्येषु यद्वसु।
अप्रजायामतीतायां भर्तुरेव तदिष्यते॥१९६॥ (७४)
(ब्राह्म-दैव-आर्ष-गान्धर्व-प्राजापत्येषु यत् वसु) ब्राह्म, आर्ष, गान्धर्व, प्राजापत्य विवाहों में जो स्त्री को धन प्राप्त हुआ है (अप्रजायाम्+अतीतायाम्) स्त्री के सन्तानहीन मर जाने पर (तत् भर्तुः+एव इष्यते) उस धन पर पति का ही अधिकार माना गया है॥१९६॥
आसुरादि विवाहों में स्त्रीधन के उत्तराधिकारी―
यत्त्वस्याः स्याद्धनं दत्तं विवाहेष्वासुरादिषु।
अप्रजायामतीतायां मातापित्रोस्तदिष्यते॥१९७॥ (७५)
(यत् तु अस्याः) और जो इसे (आसुरादिषु विवाहेषु दत्तं धनं स्यात्) 'आसुर' गन्धर्व, राक्षस, पैशाच [३.२१] विवाहों में दिया गया धन हो (अप्रजायाम्+अतीतायाम्) पत्नी के निःसन्तान मर जाने पर (तत् माता पित्रोः इष्यते) वह धन स्त्री के माता-पिता का हो जाता है॥१९७॥
स्त्रियाँ कुटुम्ब से छिपाकर धन न जोड़ें―
न निर्हारिं स्त्रियः कुर्युः कुटुम्बाद् बहुमध्यगात्।
स्वकादपि च वित्ताद्धि स्वस्य भर्तुरनाज्ञया॥१९९॥ (७६)
(स्त्रियः) स्त्रियाँ (बहुमध्यगात् कुटुम्बात्) बहुत सदस्यों वाले कुटुम्ब से चुपके से धन ले-लेकर (निर्हारिं न कुर्युः) अपने लिए धनसंग्रह और व्यय न करें (च) और (स्वका वित्तात् अपि हि) अपने धन में से भी (स्वस्य भर्तुः+अनाज्ञया) अपने पति की सहमति के बिना व्यय न करें॥१९९॥
पत्यौ जीवति यः स्त्रीभिरलंकारो धृतो भवेत्।
न तं भजेरन्दायादा भजमानाः पतन्ति ते॥२००॥ (७७)
(पत्यौ जीवति) पति के जीते हुए (स्त्रीभिः यः अलंकारः धृतः भवेत्) स्त्रियों ने जो आभूषण धारण किये हैं, [पति के मर जाने पर] (दायादाः तं न भजेरन्) माता-पिता के दायभाग के अधिकारी पति के भाई या पुत्र आदि [माता के जीवित रहते] उसको न बांटें (भजमानाः ते पतन्ति) यदि वे उन्हें लेते हैं तो 'पतित'=दोषी कहलाते हैं॥२००॥
धन के अनधिकारी विकलांग―
अनंशौ क्लीबपतितौ जात्यन्धबधिरौ तथा।
उन्मत्तजडमूकाश्च ये च केचिन्निरिन्द्रियाः॥२०१॥ (७८)
(क्लीब-पतितौ) नपुंसक, दुष्ट कर्मों में संलग्न अपराधी (जाति+अन्ध-बधिरौ) जन्म से अन्धे और बहरे (उन्मत्त-जड़-मूकाः च) पागल, वज्रमूर्ख और गूंगे (च) और (ये केचित् निरिन्द्रियाः) जो कोई किसी इन्द्रिय से पूर्ण विकलांग हैं और असमर्थ हैं (अनंशौ) ये विकलांग आदि पूरे दाय-धन के भागीदार नहीं होते, क्योंकि ये धन की सुरक्षा और उपयोग में सक्षम नहीं अयोग्य होते हैं॥२०१॥
इन्हें भोजन-छादन देते रहें―
सर्वेषामपि तु न्याय्यं दातुं शक्त्या मनीषिणा। ग्रासाच्छादनमत्यन्तं पतितो ह्यददद्भवेत्॥२०२॥ (७९)
किन्तु (मनीषिणा) इनके धनगृहीता सहृदय मनुष्य को चाहिए कि (सर्वेषाम्+अपि शक्त्या) इन सबको यथाशक्ति (ग्रास+आच्छादनम्) भोजन, वस्त्र आदि (अत्यन्तम्) अनिवार्य रूप से (दातुम्) देना (न्याय्यम्) न्यायोचित है, यह समझकर उक्त पदार्थ दे, (अददत् हि पतितः भवेत्) उक्त सुविधाएं न देने वाला धनगृहीता 'पतित'=दोषी माना जायेगा॥२०२॥
यद्यर्थिता तु दारैः स्यात्क्लीबादीनां कथंचन।
तेषामुत्पन्नतन्तूनामपत्यं दायमर्हति॥२०३॥ (८०)
(यदि क्लीबादीनां कथंचन दारैः अर्थिता स्यात्) यदि नपुंसक आदि इन पूर्वोक्तों [९.२०१] को भी विवाह करने की इच्छा हो तो (तेषाम्+ उत्पन्नतन्तूनाम्) इनके उत्पन्न 'क्षेत्रज'=नियोगज पुत्र आदि (अपत्यम्) सन्तान (दायम्+अर्हति) इनके धन की भागी होती है॥२०३॥
विद्याधनं तु यद्यस्य तत्तस्यैव धनं भवेत्।
मैत्र्यमौद्वाहिकं चैव माधुपर्किकमेव च॥२०६॥ (८१)
(विद्याधनम् मैत्र्यम् च औद्वाहिकं च माधुर्किकम्+एव) विद्या के कारण प्राप्त, मित्र से प्राप्त, विवाह में प्राप्त और पूज्यता के कारण आदर-सत्कार में प्राप्त (यत् यस्य धनम्) जो जिसका धन है (तत् तस्य+एव भवेत्) वह उसी का ही होता है॥२०६॥
भ्रातॄणां यस्तु नेहेत धनं शक्तः स्वकर्मणा।
स निर्भाज्यः स्वकादंशात्किंचिद्दत्त्वोपजीवनम्॥२०७॥ (८२)
(भ्रातॄणां यः तु स्वकर्मणा शक्तः) भाइयों में जो भाई अपने उद्योग से समृद्ध हो और (धनं न ईहेत) पितृधन का भाग न लेना चाहे तो (सः) उसको भी (स्वकात्+अंशात् किंचित् उपजीवनं दत्त्वा) अपने-अपने पितृधन के हिस्सों से कुछ धन देकर (निर्भाज्यः) अलग करना चाहिए, बिल्कुल बिना दिये नहीं॥२०७॥
अनुपघ्नन् पितृद्रव्यं श्रमेण यदुपार्जितम्।
स्वयमीहितलब्धं तन्नाकामो दातुमर्हति॥२०८॥ (८३)
(पितृधनम् अनुपघ्नन्) पितृ-धन को बिल्कुल भी उपयोग में न लाता हुआ यदि कोई पुत्र (श्रमेण यत्+उपार्जितम्) केवल अपने परिश्रम से संचित धन में से (दातुम् अकामः) किसी भाई को कुछ न देना चाहे तो (न अर्हति) न देवे अर्थात् देने के लिए वह बाध्य नहीं है॥२०८॥
पैतृकं तु पिता द्रव्यमनवाप्तं यदाप्नुयात्।
न तत्पुत्रैर्भजेत्सार्धमकामः स्वयमर्जितम्॥२०९॥ (८४)
(पिता तु) यदि कोई पिता (अन्+अवाप्तं पैतृकं द्रव्यम्) दायरूप में अप्राप्त पैतृक धन अर्थात् ऐसा धन जो है तो परम्परा से पैतृक, किन्तु किसी कारण से वह उसके पिता के अधिकार में नहीं रहा, इस कारण उसे पैतृक दायभाग के रूप में भी नहीं मिला, उसको (तत्+आप्नुयात्) यदि वह स्वयं अपने परिश्रम या उपाय से प्राप्त कर ले तो (तत् स्वयम्+अर्जितम् धनम्) उस स्वयं के परिश्रम से प्राप्त किये धन को [जैसे गिरवी रखा हुआ धन] (अकामः) यदि वह न चाहे तो (पुत्रैः सार्धम् न भजेत्) अपने पुत्रों में न बांटे अर्थात् ऐसा धन पिता के द्वारा स्वयं कमाये हुए धन जैसा है। उसका देना-न देना या विभाजन करना पिता की इच्छा पर निर्भर है। वह जैसा चाहे कर सकता है॥२०९॥
पुनः एकत्र होकर पृथक् होने पर उद्धार भाग नहीं―
विभक्ताः सह जीवन्तो विभजेरन् पुनर्यदि।
समस्तत्र विभागः स्याज्ज्यैष्ठ्यं तत्र न विद्यते॥२१०॥ (८५)
सब भाई (विभक्ताः) एक बार विभाग का बंटवारा करके (सहजीवन्तः) फिर सम्मिलित होकर (यदि पुनः विभजेरन्) यदि फिर अलग होना चाहें तो (तत्र समः विभागः स्यात्) उस स्थिति में सबको समान भाग प्राप्त होगा (तत्र ज्यैष्ठ्यं न विद्यते) तब उसमें ज्येष्ठ भाई का 'उद्धार भाग' [९.११२-११५] नहीं होता॥२१०॥
भाई के मरने पर उसके धन का विभाग―
येषां ज्येष्ठः कनिष्ठो वा हीयेतांशप्रदानतः।
म्रियेतान्यतरो वाऽपि तस्य भागो न लुप्यते॥२११॥ (८६)
(येषां ज्येष्ठः वा कनिष्ठः) जिन भाइयों में से बड़ा या छोटा भाई (अंशप्रदानतः हीयेत) किसी कारण से अपने भाग से वंचित रह जाये, (म्रियेत वा अन्यतरः अपि) मर जाये अथवा अन्य किसी गृहत्याग आदि कारण से अपना भाग न ले पावे तो (तस्य भागः न लुप्यते) उसका भाग नष्ट नहीं होता अर्थात् उसके पुत्र पत्नी आदि को प्राप्त होता है॥२११॥
सोदर्या विभजेरंस्तं समेत्य सहिताः समम्।
भ्रातरो ये च संसृष्टा भगिन्यश्च सनाभयः॥२१२॥ (८७)
[यदि पुत्र, स्त्री आदि न हों तो] (सहिताः सोदर्याः) सभी सगे भाई (च) और (ये संसृष्टाः भ्रातरः) जो सम्मिलित भाई (च) तथा (सनाभयः भगिन्यः) सब सगी बहनें हैं, वे (समेत्य) एकत्रित होकर (तं समं विभजेरन्) उस धन को समान-समान बांट लेवें॥२१२॥
कर्त्तव्यपालन न करने पर बड़े भाई को उद्धार भाग नहीं―
यो ज्येष्ठो विनिकुर्वीत लोभाद् भ्रातॄन् यवीयसः। सोऽज्येष्ठः स्यादभागश्च नियन्तव्यश्च राजभिः॥२१३॥ (८८)
(यः ज्येष्ठः) जो बड़ा भाई (लोभात् यवीयसः भ्रातॄन् विनिकुर्वीत) लोभ में आकर छोटे भाइयों को ठगे, पूरा भाग न दे तो (सः+अज्येष्ठः) उसको बड़े के रूप में नहीं मानना चाहिए (च) और (अभागः स्यात्) उसे बड़े भाई के नाम का 'उद्धार भाग' [९.११२-११५] भी नहीं देना चाहिए (च) और (राजभिः नियन्तव्यः) वह राजा के द्वारा दण्डनीय होता है अर्थात् राजा उसको कानून के द्वारा वश में करे और छोटों का भाग दिलवाये॥२१३॥
दायधन से वंचित लोग―
सर्व एव विकर्मस्था नार्हन्ति भ्रातरो धनम्।
न चादत्त्वा कनिष्ठेभ्यो ज्येष्ठः कुर्वीत यौतकम्॥२१४॥ (८९)
(विकर्मस्थाः सर्वे+एव भ्रातरः) [जुआ खेलना, चोरी करना, डाका डालना आदि] बुरे कामों में सलंग्न रहने वाले सभी भाई (धनं न+अर्हन्ति)बिना बांटे (ज्येष्ठः यौतकं न कुर्वीत) बड़ा भाई अपने लिए पितृधन में से अलग से धन न ले अर्थात् किसी भी धन को अकेला अपने लिए न रखे॥२१४॥ धनभाग को प्राप्त करने के अधिकारी नहीं होते (च) और (कनिष्ठेभ्यः अदत्त्वा) छोटे भाइयों को बिना दिये=बिना

0 टिप्पणियाँ
If you have any Misunderstanding Please let me know