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मंझली दीदी : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय (बांग्ला उपन्यास)

 मंझली दीदी : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय (बांग्ला उपन्यास)

प्रकरण - 1


किशन की मां चने-मुरमुचे भून-भूनकर और रात-दिन चिन्ता करके वहुत ही गरीबी में उसे चौदह वर्ष का करके मर गई। किशन के लिए गांव में कही खडे होने के लिए भी जगह नहीं रही। उसकी सौतेली वडी बहन कादम्बिनी की आर्थिक स्थिति अच्छी थी इसलिए सभी लोगों ने राय दी, “किशन, तुम बडी बहन के घर चले जाओ। वह बडे आदमी हैं, तुम वहां अच्छी तरह रहोगे।”


मां के शोक में रोते-रोते किशन ने बुखार बुला लिया था । अन्त में अच्छे हो जाने पर उसने भीख मांग कर मां का श्रद्धा किया और मुंडे सिर पर एक छोटी सी पोटली रखकर अपनी बड़ी बहन के घर राजघाट पहुंच गया। बहन उसे पहचानती नहीं थी। जब उसका परिचय मिला और उसके आने का कारण मालूप हुआ तो एकदम आग बबूला हो गई। वह मजे में अपने बाल बच्चों के साथ गृहस्थी जमाए बैठी थी। अचानक यह क्या उपद्रव खडा हो गया?


गांव का बूढा जो उसे रास्ता दिखाने के लिए यहां तक आया था, उसे दो-चार कडी बातें सुनाने के बाद कादम्बिनी ने कहा, “खूब, मेरे सगे को बुला लाए, रोटियां तोडने के लिए।” और फिर सौतेली मां को सम्बोधित करके वोली, “बदजात जब तक जीती रही तव तक तो एक बार भी नहीं पूछा। अब मरने के बाद बेटे को भेजकर कुशब पूछ रही है। जाओ बाबा, पराए को यहां से ले जाओ, मुझे यह सब झंझट नहीं चाहिए।”


बूढा जाति का नाई था किशन की मां पर उसकी श्रद्धा थी। उसे मां कहकर पुकारा करता था। इसलिए इतनी कडी-कडवी बातें सुनने पर भी उसने पीछा नहीं छोडा, आरजू-मिन्नत करके बोला, “तुम्हारा घर लक्ष्मी का भण्डार है। न जाने कितने दास-दासी, अतिथि-भिखारी, कुत्ते-बिल्लीयां तुम्हारे घर में पलते हैं। यह लडका भी मुठ्ठी भर भात खाकर बाहर पडा रहेगा, तुम्हें पत्ता भी नहीं चलेगा। बहुत शांत स्वभाव का समझदार लडका है। अगर भाई समझकर न रख सको तो ब्राह्मण का एक दुःखी और अनाथ लडका समझकर ही घर के किसी कोने की जगह दे दो बिटीया।”


ऐसी खुशामद से तो पुलिस के दरोगा का भी पसीज जाता है, फिर कादम्बिनी तो केवल एक औरत थी इसलिए चुब रह गई। बूढे ने किशन को आड में ले जाकर दो चार बातें आंखें पोछता हुआ वापस लौट गया।


किशन को आश्रय मिल गया।


कादम्बिनी के पति नवीन चन्द्र मुकर्जी की धान और चावलों की आढत थी। जब वह दोपहर बाहर बजे लौटकर घर आए, तब उन्होंने किशन को टेढी नजरों से देखते हुए पूछा, “कौन है यह?”


कादम्बिनी ने भारी सा मुहं बनाकर उत्तर दिया, - “तुम्हारे सगे रिश्तेदार है - साले हैं। इन्हें खिलाओ-पहनाओ, आदमी बनाआ। तुम्हारा परलोक सुधर जाएगा।”


नवीन अपनी सौतेली सास की मृत्यु का समाचार सुन चुके थे। सारी बातें सुनकर तथा समझकर बोले- “ठीक है खूब सुन्दर सुडौल देह है।”


पत्नी ने कहा - “शरीर सुडौल क्यों न होगा? पिता जो कुछ धन सम्पत्ति छोड़कर गए थे कलमुंही ने सारी इसी पेट मे तो ठूस दी है। देह हैं।”


शायद यहां बताने की जरूरत न होगी कि उससे पिता धन-सम्पत्ति के नाम पर सिर्फ एक मिट्टी की झोंपडी और उसके पास खडा एक जंबीरी नींबू का पेड़ छोड़ गए थे। उसी झोपड़ी में बेचारी विधवा किसी तरह सिर छिपाकर रहा करती थी और नींबू बेचकर लड़के का स्कूल की फीस जूटा पाती थी।


नवीन ने गुस्सा दबाकर कहा, “अच्छी बात है।”


कादम्बिनी ने कहा, “अच्छी नहीं तो क्या बूरी वात है? तुम्हारे बड़े रिश्तेदार ठहरेे उसी तरह रखना पड़ेगा। इसके रहते मेरे पांचू, गोपाल के भाग्य में एक जून भी खाने को जुटा जाए, तो यही बहुत है। नहीं तो देशभर में बदनामी जो फैल जाएगी।”


यह कहकर कादम्बिनी ने पास वाले मकान के दूसरी मंजिल के एक कमरे की खुली हुई खिड़की की और अपनी क्रोध भरी आंखें उठाकर अग्नि वर्षा की। यह मकान उसबी मझली देवरानी हेमांगिनी का था।


उधर बरामदे में एक किनारे सिर नीचा किए बैठा किशन लज्जा के मारे मरा जा रहा था।


भंडार घर में जाकर कादम्बिनी नारियल की भेरटी से थोड़ा-सा तेल निकाल लाई और किशन के पास रखकर बोली, “अब झूठ-मूठ टसूए बहाने की जरूरत नहीं। जाओं, ताल में नहा आओ। तुम्हें तेल-फुलेल लगाने की आदत तो नहीं है?”


इसके बाद उसने जरा ऊचीं आवाज में अपने पति से कहा, “तुम नहाने जाओ तो इन बाबू साहब को भी लेते जाना। कहीं डूब-डाब गए तो घरभर के हाथों में रस्सी पड़ जाएगी।”


किशन भोजन करने बैठा था। एक तो उसे कुछ अधिक खाने की आदत थी। उस पर कल दोपहर के बाद से उसने कुछ खाया नहीं था। आज इतनी दूर पैदल चलकर आया था और अब दिन भी ढल गया था। इन कई कारणों से थाली में परोसा सारा भात खत्म् हो जाने पर भी उसकी भूख नहीं मिटी। नवीन पास ही बैठे भोजन कर रहे थे। यह देखकर उन्होंने कहा, “किशन को थोड़ा भात और दो।”


देती हूं, कहकर कादम्बिनी उठी और भात से खचाखच भरी एक थाली लाकर पूरी थाली किशन की थाली में उलट दी। इसके बाद जोर से हंसती हुई बोली, यह तो खूब हुआ। रोजाना इस हाथी की खुराक जुटाने में तो हमारी सारी आढ़त खाली हो जाएगी। शाम को दुकान से दो मन मोटा चावल भेज देना नहीं तो दिवालिया होना पड़ेगा, बताए देती हूं।


मर्मबेधी लज्जा के कारण किशन का चहेरा और भी झुक गया। वह अपनी मां का एक ही लड़का था। यह तो हमें मालूम नहीं कि अपनी दुखियारी मां के यहां उसे महिने बढ़िया चावल मिला करता था या नहीं, लेकिन इतना जरूर मालूम है कि भरपेट भात खाने का अपराध में उसे कभी लज्जा से सिर नीचा नहीं करना पड़ता था। उसे याद आया कि हजार अधिक खा लेने पर भी वह अपनी मां की खिलाने की साध कभी पूरी नहीं कर पाता था। उसे यह भी याद आया कि कुछ ही दिन पहले गुड्डी और चर्खी खरीदने के लिए उसने दो करछुल भात अधिक खाकर मां से पैसे वसूल किए थे।


उसकी दोनों आंखों से आसुंओं की बड़ी-बड़ी बूदें निकलकर चुपचाप खाने लगा। वह इतनी भी हिम्मत नहीं कर सका कि बायां हाथ उठाकर आंसू पोंछ डालता। वह डरता था कि कहीं बहन देख न ले। अभी थोड़ी देर पहबे ही वह झूठ-मूठ टसूए वहाने के अपराध में झिड़की खा चुका था। और उसे झिड़की ने इतने दारूण मातृ शोक की गर्दन भी दबा दी थी।


प्रकरण - 2


दोनों भाइयों ने पैतृक मकान आपस में बांट लिया था।


पास वाला दो मंजिला मकान मझबे भाई विपिन का है। छोटे भाई की बहुत दिन पहले मृत्यु हो गई थी। विपिन भी धान और चावल का ही व्यापार करता है। है तो उसकी स्थिति भी अच्छी लेकिन बड़े भाई नवीन जैसी नहीं है। तो भी उसका मकान दो मंजिला है। मंझबी बहू हेमांगिनी शहर की लड़की है। वह दास-दासी रखकर चार आदमियों को खिला-पिलाकर ठाठ से रहना पसंद करती है। वह पैसा बचाकर गरीबों की तरह नहीं रहेती, इसीलिए लगभग चार साल पहले दोनों देवरानी जिठानी कलह करके अलग-अलग हो गई थीं। तब से अब तक खुलकर कई बार झगडे हुए है और मिटा भी गए है, लेकिन मनमुटाव एक दिन के लिए भी कभी नहीं मिटा। इसका कारण एकमात्र जिठानी कादम्बिनी के हाथ में था। वह खूब पक्की है और भली-भातिं समझती है कि टूटी हुई हांडी में कभी जोड नहीं लग सकता, लेकिन मनमुटाव एक दिन के लिए भी कभी नहीं मिटा। इसका कारण एकमात्र जिठानी कादम्बिनी के हाथ में था। वह खूब पक्की है और भली-भांति समझती है कि टूटी हुई हांडी में कभी जोड़ नहीं लग सकता, लेकिन मंझली बहू इतनी पक्की नहीं है। वह इस ढंग से सोच भी नहीं सकती। यह ठीक है कि झगड़े का आरभ्भ मंझली बहू करती है। लेकिन फिर मिटाने के लिए, बातें करने के लिए और खिबाने-पिलाने के लिए वह मन-ही-मन छटपटाया भी करती है और फिर एक दिन धीरे से पास आ बैठती है। अन्त में हाथ-पैर जोड़कर, रो-धोकर, क्षमा-याचना करके जिठानी को अपने घर पकड़कर ले जाती है और खूब आदर स्नेह करती। दोनों के इतने दिन इसी तरह कट गए है।


आज लगभग तीन-साढ़े तीन बजे हेमांगिनी इस मकान मे आ पहूंची। कुएं के पास ही सीमेंट के चबूतरे पर धूप में बैठा किशन ढेर सारे कपड़ों में साबून लगाकर उन्हें साफ कर रहा था। कादम्बिनी दूर खड़ी थोडे साबुन से शरीर की अधिक ताकत लगाकर कप़़ड़े धोने का कौशल सिखा रही थी। कैसे गंदे और मैले-कुचैबे कपड़े पहनकर आया है।


बात ठीक थी। किशन जैसी लाल किनारी की धोती पहनकर और दुपट्टा ओढकर कोई अपनी रिश्तेदारी में नहीं जाता। उन दोनों कपड़ों को साफ करने की जरूरत अवश्य थी, लेकिन धोबी के अभाव के कारण सबसे अधिक आवश्यकता थी पुत्र पांचू गोपाल के दो जोड़ी और उसके पिता के दो जोड़ी कपड़ों को साफ करने की, और किशन वही कर रहा था। हेमांगिनी देखते ही समझ गई थी कि कपड़े किसके है, लेकिन इस बात की कोई चर्चा न करके उसने पूछा, “जीजी, यह लड़का कौन है”


लेकिन इससे पहले ही वह अपने घर में बैठी आड़ से सारी बातें सुन चुकी थी। जिठानी को टालमटोल करते देख, उसने फिर कहा, “लड़का तो बहूत सुन्दर है। इसका चहेरा तो बिलकुल तुम्हारे जैसा है जीजी। क्या तुम्हारे मैके का ही कोई है”?


कादम्बिनी ने बड़े विरक्त भाव से चेहरे पर गंभीरता लाकर कहा, “हूं-मेरा सौतेला भाई है। अरे औ किशना, अपनी मंझली बहन को प्रणाम तो करा राम-राम! कितना असभ्य है। बड़ों को प्रणाम करतना होता है-क्या यह भी तेरी अभागिनी मां सिखाकर नहीं मरी?”


किशन हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ और कादम्बिनी के पैरों के पास आकर प्रणाम करना ही चाहता था कि वह बिगड़कर बोली, “अरे मर-क्या पागल और बहरा है? किसे प्रणाम करने को कहा और किसे प्रणाम करने लगा।”


असब में जब से किशन यहां आया है तभी से निरन्तर होती तिरस्कार और अपमान की चोटों से उसका दिमाग ठिकाने नहीं रह गया है। उस फटकार से परेशान और हितबुद्धि-सा होकर ज्यों ही उसने हेमांगिनी के पैरों के पास आकर सिर झुकाया त्यों ही उसने हाथ पकड़ कर उसे उठा लिया और उसकी ठोढ़ी छुकर आशीर्वाद देते हुए बोली, “बस, बस, बस! रहने दो भैया, हो चुका। तुम जीते रहो।”


किशन मूर्ख की तरह उसके चहरे की ओर देखता रहा। मानों यह बात उसके दिमाग में बैठी ही न हो कि इस देश में कोई इस तरह भी बातें कह सकता है।


उसका वह कुंठित, भयभीत और असहाय मुख देखते ही हेमांगिनी का कलेजा हिल गया। अन्दर से रुलाई-सी फूट पड़ी। वह अपने आपको संभाल नहीं सकी। जल्दी से उस अभागे अनाथ बालक को खींचकर सीने से चिपटा लिया और उसका थकान तथा पसीने से डूबा चेहेरा अपने आचंल से पोंछते हुए जिठानी से बोली, “हाय हाय जीजी! भला इससे कपड़े धुलवाए जाते हैं। किसी नौकर को क्यों नहीं बुला लिया?”


कादम्बिनी सहसा आवाक् रह गई। उत्तर न दे सकी, लेकिन दूसरे ही पल अपने-आपको संभालकर बोली, “मंझली बहू, मैं तुम्हारी तरह धनवान नहीं हूं जो घर में दस-बीस नौकर-चाकर रख सकूं। हमारे गृहस्थों के घर...!”


लेकिन उसकी बात समाप्त होने से पहले ही हेमांगिनी अपने घर की ओर मुंह करके लड़की को जोर से पुकार कर बोली, “उमा, शिब्बू को तो यहां भेज दे बेटी!” जरा आकर जेठानी के और पांचू के मैले कपड़े ताल में धोकर लाए और सुखा दे।”


इसके बाद उसने जिठानी की ओर मुड़कर कहा, ‘आज शाम को किशन और पांचू-गोपाल दोनों ही मेरे यहां खाएंगे। पांचू के स्कूल से आते ही मेरे यहां भेज देना। तब तक मैं इसे लिए जाती हूं।’


इसके बाद उसने किशन से कहा, ‘किशन, इनकी तरह मैं भी तुम्हारी बहन हूं, आओ मेरे साथ आओ।’


कहकर वह किशन का हाथ पड़कर अपने धर ले गई।


कादम्बिनी ने कोई वाधा नहीं डाली। उलटे उसने हेमांगिनी का दिया हुआ इतना वड़ा ताना भी चुपचाप हजम कर लिया, क्योंकि जिसने ताना दिया था उससे इस जून का खर्च भी बचा दिया था। कादम्बिनी के लिए संसार में पैसे से बढ़कर और कुछ नहीं था, इसलिण गाय दूध देते समय अगर लात मारती है तो वह उसे भी सहन कर लेती है।


प्रकरण - 3


संध्या के समय कादम्बिनी ने पूछा, ‘क्यों रे किशन, वहां क्या खा आया?’


किशन ने बहुत लज्जित भाव से सिर झुकाकर कहा, ‘पूड़ी।’


‘काहे के साथ खाई थी?’


किशन ने फिर उसी प्रकार कहा, ‘रोहू मछली के मूंड की तरकारी, सन्देश, रसगु...।’


‘अरे में पुछती हूं की मंझबी बहू ने मछली की मूंड किसकी थाली में परोसी थी?’


सहसा यह प्रश्न सुनकर किशन का चहेरा लाल पीला पड़ गया। प्रहार के लिए उठे हुए हथियार को देखकर रस्सी सें बंधे हुए जानवर की जो हालत होती है, किशन की भी वही हालत होने लगी। देर करते हुए देखकर कादम्बिनी ने पूछा, ‘तेरी ही थाली में परोसा था ने?’


नवीन ने संक्षेप में केवल ‘हूं’ करके फिर तम्बाकू का कश खींचा।


कादम्बिनी गर्म होकर कहने लगी, ‘यह अपनी है। जरा इस सगी चाची का व्यवहार तो देखो। वह क्या नहीं जानती कि मेरे पांचू गोपाल को मछली का मूंड़ कितना अच्छा लगता है? तब उसने क्या समझकर वह मूंड़ उसकी थाली में परोस कर इस तरह बेकार ही बर्बाद किया? अरे हां रे किशन, संदेश और रसगुल्ले तो तूने पेट भर कर खाए न? कभी सात जन्म में भी तूने ऐसी चीजें न देखी होंगी।’


इसके बाद फिर पति की ओर देखकर कहा, ‘जिसके लिए मुठ्ठी भर भात गनीमत हो, उसे पूड़ी और सन्देश खिलाकर क्या होगा? लेकिन मैं तुमसे कहे देती हूं कि मंझबी बहू अगर किशन को बिगा़ड़ सकेगी, लेकिन उनकी पत्नी को स्वयं अपने आप पर ही विश्वास नहीं था। बल्कि उसे इस बात का सोलह आने डर था कि मैं सीधी-सादी और भली मानुस हूं। मुझे जो भी चाहे ठग सकता है, इसीलिए उसने तभी से अपने छोटे भाई के मानसिक उत्थान और पतन के प्रति अपनी पैनी नजरें बिछा दीं।’


दूसरे ही दिन दो नौकरों में से एक नौकर की छुट्टी कर दी गई। किशन नवीन की धान और चावब वाली आढ़त में काम करने लगा। वहां वह चावल आदि तौलता, बेचता। चार-पांच कोस को चक्कर लगाकर गांवों से नमूने ले आता और जब दोपहर को नवीन भोजन करने आते तब दुकान देखता।


दो दिन बाद की बात है। नवीन भोजन करने के बाद नींद समाप्त करके लौटकर दुकान पर गए और किशन खाना खाने घर आया। उस समय तीन बजे थे। वह तालाब में नहाकर लौटा तो उसने देखा, बहन सो रही है। उस समय उसे इतनी जोर की भूख लग रही थी कि आवश्यक होता तो शायद वह बाध के मूंह से भी खाना निकाल लाता, लेकिन बहन के जगाने का वह साहस नहीं कर पाया।


वह रसोई के बाहर वाले बरामदे में एक कोने में चुपचाप बैठा बहन के जागने की प्रतीक्षा कर रहा था कि अचानक उसने पुकार सुनी, ‘किशन!’


वह आवाज उसके कानों को बड़ी भली लगी। उसने सिर उठाकर देखा-मंझली बहन अपनी दूसरी मंजिल के कमरे में खिड़की के पास खड़ी है। किशन ने एक बार देखा और फिर सिर झुका लिया। थोड़ी देर में हेमांगिनी नीचे उतर आई और उसके सामने आकर खड़ी हो गई। फिर बोली, ‘कई दिन से दिखाई नहीं दिया किशन! यहां चुपचाप क्यों बैठा है?’


एक तो भूख में वैसे ही आंखे छलक उठती हैं। उस पर ऐसी स्नेह भरी आवाज! उसकी आंखों में आंसू मचल उठे। वह सिर झूकाए चुपचाप बैठा रहा। कोई उत्तर न दे सका।


मंझली चाची को सभी बच्चें प्यार करते हैं। उसकी आवाज सुनकर कादम्बिनी की छोटी लड़की बाहर निकल आई और चिल्लाकर बोली, ‘किशन मामा, रसोईघर में तुम्हारे लिए भात ढका हुआ रखा है, जाकर खा लो। मां खा-पीकर सो गई हैं।’


हेमांगिनी ने चकित होकर कहा, ‘किशन ने अभी तक खाना नहीं खाया? और तेरी मां खा-पीकर सो गई? क्यों रे किशन, आज इतनी देर क्यों हो गई?’


किशन सिर झुकाए बैठा रहा। टुनी ने उसकी ओर से उत्तर दिया, ‘मामा को तो रोजाना ही इतनी देर हो जाती है। जब बाबूजी खा-पीकर दुकान पर पहूच जाते है तभी यह खाना खाने आते है।’


हेमांगिनी समझ गई कि किशन को दुकान के काम पर लगा दिया गया है। उसे यह आशा तो कभी नहीं थी कि उसे खाली बैठाकर खाने को दिया जाएगा। फिर भी इस ढलती हुई बेला को देखकर और भूख-प्यास से बेचैन बालक के मुंहको निहारकर उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। वह आंचल से आंसू पोंछती हुई अपने घर चली गई और कोई दो ही मिनट के बाद हाथ में दूध से भरा हुआ एक कटोरा लेकर आ गई।


लेकिन रसोई घर में पहुचते ही वह कांप उठी और मुंह फेरकर खड़ी हो गई।


किशन खाना खा रहा था। पीतल की एक थाली में ठंड़ा, सूखा और ढेले जैसे बना हुआ भात था। एक ओर थोड़ी-सी दाल थी और पास ही तरकारी जैसी चीज। दूध पाकर उसका उदास चेहरा खुशी से चमक उठा।


हेमांगिनी दरवाजे से बाहर आकर खड़ी रही। भोजन समाप्त करके किशन जब ताल पर कुल्ला करने चला गया, तब उसने झांककर देखा, थाली में भात का एक दाना भी नहीं बचा है। भूख के मारे वह सारा भात खा गया है।


हेमांगिनी का लड़का भी लगभग इसी उम्र का था। वह सोचने लगी कि अगर कहीं मैं न रहूं और मेरे लड़के की यह दशा हो तो? इस कल्पना मात्र से रुलाई की एक लहर उसके अंतर से उठी और गले तक आकर फेनिल हो उठी। उस रुलाई को दबाए हुए वह अपने घर चली गई।


प्रकरण - 4


हेमांगिनी को बीच-बीच में सर्दी के कारण बुखार हो जाता था और दो-तीन दिन रहकर आप-ही-आप ठीक हो जाता था। कुछ दिनों के बाद उसे इसी तरह बुखार हो आया। शाम के समय वह अपने बिस्तर पर लेटी हुई थी। घर में और कोई नहीं था, अचानक उसे लगा कि बाहर खिड़की की आड़ में खड़ा कोई अंदर की ओर झांक रहा है। उसने पुकारा ‘बाहर कौन खड़ा है? ललित?’


किसी ने उत्तर नहीं दिया। जब उसने फिर उसी तरह पुकारा तब उत्तर मिला, ‘में हुं।’


‘कौन?.... मैं कोन? आ, अन्दर आ।’


किशन बड़े संकोच से कमरे में आकर दीवार के साथ सटकर खड़ा हो गया। हेमांगिनी उठकर बैठ गई और उसे अपने पास बुलाकर बड़े प्यार से बोली, “क्यों रे किशन...! क्या बात है?”


किशन कुछ और आगे खिसक आया और अपने मैले दुपट्टे का छोर खोल कर दो अधपके अमरूद निकालकर बोला, ‘बुखार में यह बहुत फायदा करते हैं।’


हेमांगिनी ने बड़े आग्रह से हाथ बढ़ाकर पूछा, ‘यह तुझे कहां मिले? मैं तो कल से लोगों की कितनी खुशामद कर रही हूं लेकिन किसी ने लाकर नहीं दिए।’


यह कहकर हेमांगिनी ने अमरूद सहित किशन का हाथ पकड़कर उसे अपने पास बैठा लिया मारे लज्जा और आनन्द के किशन का झुका हुआ चेहरा लाल पड़ गया। हालांकि यह अमरूद के दिन नहीं थे और हेमांगिनी अमरूद खाने के लिए बिलकुब लालायित भी नहीं थी। तो भी यह दो अमरूद खोजकर लाने में दोपहर की सारी धूप किशन ने अपने सिर पर से निकाली थी।


हेमांगिनी ने पूछा, ‘हां रे किशन, तुझसे किसने कहा था कि मुझे बुखार आया है?’


किशन ने कोई उत्तर नहीं दिया।


हेमांगिनी ने फिर पूछा, ‘और यह किसने कहा कि मैं अमरूद खाना चाहती हूं?’


किशन ने इसका भी कोई उत्तर न दिया। उसने जो सिर नीचा किया सो फिर उस ऊपर उठाया ही नहीं।


हेमांगिनी ने पहले ही जान लिया था कि लड़का स्वभाव से बहुत ही डरपोक और लज्जालु है। उसने उसके सिर पर हाथ फेरकर बड़े प्यार से भैया कहा और न जाने कितनी चतुराई से उसका भय दूर करके उससे बहुत-सी बातें जान लीं। उसने पहले तो बड़ी जिज्ञासा प्रदर्शित करके बड़े प्यार से पूछा कि तुम्हे यह अमरूद कहां और किस तरह मिले और फिर धीरे-धीरे उसने गांव-घर की बातें मां के बारे में, यहां तक कि खाने-पीने की व्यवस्था और दुकान पर उसे जो-जो काम करने पड़ते हे उन सबका विवरण एक-एक करके पूछ लिया और तब अपनी आंखें पोंछते हुए बोली, ‘देख किशन, तू अपनी इस मंझली बहन से कभी कोई बात मत छिपाना। जब भी जिस चीज की भी जरूरत हो चुपचाप यहां आकर मांग लेना। मांग लेना न?’


किशन ने बड़ी प्रसन्नता पूर्वक सिर हिलाकर कहा, ‘अच्छा।’


वास्तविक स्नेह किसे कहते है? यह किशन ने अपनी गरीब माता से सीखा था। इस मंझली बहन में उसी स्नेह की झलक पाकर उसका रुका हुआ मातृ शोक पिधलकर बहने लगा। उठते समय उसने मंझली बहन के चरणों की धूल अपने माथे लगाई और फिर जैसे हवा पर उड़ता हुआ बाहर निकल गया।


लेकिन उसकी बड़ी बहन की अप्रसन्नता और क्रोध दिन-पर-दिन बढ़ता ही गया, क्योंकि वह सौतेली मां का लड़का है। बिलकुब असहाय और मजबूर है। जरूरी होने पर भी बदनामी के डर से घर से भगाया नहीं जा सकता और किसी को दिया भी नहीं जा सकता, इसलिए जब उसे घर में रखना ही है तो जितने दिन उसका शरीर चले, उतने दिन उससे खूब कस कर मेहनत करा लेना ही ठीक है।


घर लौटकर आते ही बहन पीछे पड़ गई, ‘क्यों रे किशन, तू दुकान से भागकर सारी दोपहर कहां रहा?’


किशन चुप रहा। कादम्बिनी ने बहुत ही बिगड़कर कहा, ‘बता जल्दी।’


लेकिन किशन ने फिर भी कोई उत्तर नहीं दिया।


कादम्बिनी उन लोगों में से नहीं थी जिनका क्रोध किसी को चुप रहते देखकर कम हो जाता है, इसलिए वह बात उगलवाने के लिए जितनी जिद करती गई बात न उगलवा पाने के कारण उसका क्रोध उतना ही बढ़ता गया। अंत में उसने पांचू गोपाल को बुलाकर उसके कान मलवाए और रात को उसके लिए हांडी में चावल भी नहीं डाले।


चोट चाहे कितनी ही गहरी क्यो न हो लेकिन यदि उसे छुआ न जाए तो महसूस नहीं होता। पर्वत की चोटी से गिरते ही मनुष्य के हाथ, पांव नहीं टूट जाते। वह तभी टूटते हैं, जब पैरों के नीचे की कठोर धरती उस वेग को रोक देती है। ठीक यही बात किशन के बारे में हुई। माता की मृत्यु ने जिस समय उसके पैरों के नीचे का आधार एकदम खिसका दिया था तब से बाहर की कोई भी चोट उसे धूल में नहीं मिला सकी थी। वह गरीब का लड़का जरूर था, फिर भी उसने कभी दुःख नहीं भोगा था और धुड़की-झिड़की से भी उसका कभी परिचय नहीं हुआ था। तो भी यहां आने के बाद से अब तक उसने कादम्बिनी द्वारा दिए गए कठोर दुःख और कष्टों को चूपचाप झेल लिया था, क्योंकि उसके पैरों के नीचे कोई सहारा नहीं था, लेकिन आज वह इस अत्याचार को सहन नहीं कर पाया, क्योंकि आज वह हेमांगिनी के मातृ-स्नेह की मजबूत दीवार पर खड़ा था और इसीलिए आज के इस अत्याचार और अपमान ने उसे एकदम धूल में मिला दिया। माता और पुत्र दोनों मिलकर उस निरपराध बालक पर शासन करके, झिड़कियां देकर, अपमान करके दंड देकर चले गए और वह अंधेरे में जमीन पर पड़ा बहुत दिनों के बाद अपनी मां की याद करके और मंझली बहन का नाम ले-लेकर फूट-फूटकर रोता रहा।


प्रकरण - 5


दूसरे दिन सवेरे ही किशन चुपचाप हेमांगिनी के घर पहुंचकर उसके बिस्तर पर पैरों की ओर जाकर बैठ गया। हेमांगिनी ने अपने पैर थोड़े से ऊपर खींच लिए और बड़े प्यार से कहा, ‘किशन, दुकान पर नहीं जाएगा?’


‘अब जाऊंगा।’


‘देर मत कर भैया! इसी समय चला जा। वरना गालियां देने लगेंगी।’


किशन का चहेरा एक बार लाल पड़ा और फिर पीला पड़ा गया, ‘अच्छा जाता हूं,’ कहकर वह उठ खड़ा हुआ। उसने कुछ कहने की कोशिश की लेकिन फिर चुप हो गया। हेमांगिनी ने जैसे उसके मन की बात समझ ली, पूछा - ‘क्या मुझसे कुछ कहना चाहता है भैया?’


किशन ने जमीन की ओर देखते हुए बहुत ही कोमल स्वर से कहा, ‘मंझली दीदी! कल से कुछ भी नहीं खाया।’


‘हैं, कल से कुछ भी नहीं खाया? क्या कहता है किशन?’


कुछ देर तक तो हेमांगिनी चुप रही। फिर तुरन्त ही उसकी आंखों में आंसू भर आए और धीरे-धीरे झर-झर करके बहने लगे। उसने उसका हाथ पकड़कर अपनी ओर खींच लिया, और अपने पास बैठाकर जब एक-एक करके सारी बातें जान ली तो कहा, ‘कल रात को ही यहां क्यों नहीं चला आया?’


किशन चुप बैठा रहा। हेमांगिनी ने आंचल से आंसू पोंछते हुए कहा, ‘भाई! तुझे मेरे सिर की सौगंध। आज से मुझे अपनी मरी हुई मां की जगह ही समझना।’


कुछ समय के बाद ही यह सब बातें कादम्बिनी के कानों तक पहुंच गई। उसने अपने घर से ही मंझली बहु को पुकारकर कहा, ‘क्या मैं अपने भाई को खिला नहीं सकती, जो तुमने उसके गले पड़कर इतनी बातें कही?’


बातों का ढंग देखकर हेमांगिनी के सारे बदन में आग लग गई। लेकिन क्रोध को छिपाकर बोली, ‘अगर मैंने गले पड़कर कुछ कहा भी है तो इसमें दोष क्या हो गया?’


कादम्बिनी ने कहा, ‘अगर मैं तुम्हारे लड़के को बुलाकर उससे इस तरह की बातें कहूं तो तुम्हीं बताओ, तुम्हारी क्या इज्जत रह जाएगी? अगर तुम उसे इस तरह बढ़ावा दोगी तो मैं उसे नियन्त्रण में कैसे रख सकूंगी?’


अब हेमांगिनी बर्दाशत नहीं कर सकी। उसने कहा, ‘बहन, पन्द्रह-सोलकह साल तुम्हारे साथ रहकर गृहस्थी चला चूकी हूं। मैं तुम्हें अच्छी तरह पहचानती हूं। पहले अपने लड़के को भूखा रखकर उस पर शासन करो तब दूसरे के लड़के पर करना। तब गले पड़कर कुछ कहने नहीं आऊंगी।’


कादम्बिनी ने भड़ककर कहा, ‘मेरे पांचू गोपाल के साथ उसकी तुलना? देवता के साथ बन्दर की बराबरी? मंझली बहू, मैं सोचती हूं इसके बाद तुम न जाने और भी क्या-क्या कहती फिरोगी?’


मंझली बहु ने उत्तर दिया, ‘मैं जानती हूं कि कौन देवता हे और कौन बंदर है, लेकिन जीजी, अब मैं कुछ भी नहीं कहूंगी। अगर कहूंगी तो केवल यही कि तुम जैसी निष्ठुर और तुम जेसी बेहया औरत इस संसार में और दूसरी नहीं है।’


यह कहकर उत्तर की अपेक्षा किए बिना हेमांगिनी ने अपनी खिड़की बंद कर ली।


उस दिन शाम को जब घर में मालिकों के लौट आने का समय हुआ कादम्बिनी ने अपने घर के आंगन में खड़े होकर दासी को निशाना बनाकर ऊंची आवाज में गरजना-बरसना शुरू कर दिया, ‘जो रात-दिन काम करते हैं वहीं इसकी व्यवस्था करेंगे। देखती हूं, मां से बढ़कर मौसी को दर्द है। अपने भाई का दुःख-दर्द नहीं समझाती, समझते हैं पराए। कभी भला नहीं होगा अगर कोई भाई-बहन को लड़ाएगा और ख़ड़ा-खड़ा तमारशा देखेगा। धर्म भी इसे बर्दाशत नहीं कर सकेगा। यह मैं कहे देंती हूं।’


यह कहकर कादम्बिनी अपने रसोईघर में चली गई।


देवरानी-जेठानी में इस ढंग की गाली-गलौज और कोसा-काटी अनेक बार ओर अनेक तरीके से हो चुकी थी, लेकिन आज वह अस्वस्थ थी इसलिए बर्दाशत न कर सकी। उठकर खिड़की के पास आ खड़ी हुई और बोली, ‘जीजी, इतना ही कहकर चुप क्यों हो गई? शायद भगवान ने अभी तक तुम्हारी पुकार न सुनी हो। थोड़ी देर और हमारे सर्वनाश की कामना करो। जेठानी घर आएं वह सुन लें। तब तक वह भी आ जाएं और वह भी सुन लें। अगर इतने में हीं तुम थककर चुप हो जाओगी तो काम कैसे चलेगा?’


कादम्बिनी तत्काल झपटकर आंगन में आ गई और सिर ऊपर उठाकर चिल्ला उठी, ‘मैंने क्या किसी सत्यानाशी का नाम लिया है?’


हेमांगिनी ने बड़े संयत स्वर में कहा, ‘भला तुम किसी का नाम क्यों लेने लगी जीजी! नाम लेने का अधिकार तुम्हें है ही नहीं। लेकिन क्या तुम यह समझाती हो कि दुनिया में केवल एक तुम ही सयानी और समझदार हो, और बाकी सब बेवकूफ है? ठोकर मारकर किसका सिर तोड़ रही हो, यह क्या कोई समझाता नहीं?’


अब कादम्बिनी ने अपना वास्तविक स्वरूप धारण कर लिया और खूब मुंह बिचका-बिचाकर हाथ-पैंर नचा-नचा कर कहना शूरू कर दिया, -भले ही कोई समझ ले। जिसका दोष होगा उसी को तो बुरा लगेगा, और फिर क्या तुम ही सारी बातें समझती हो? मैं नहीं समझती। जब किशन आया था तो दो चाटे खाकर नहीं करता था। जो कहती थी चुपचाप वही करता था। लेकिन आज दोपहर को किसी ताकत पर जवाब दे गया? जरा पूछ कर देखो इस प्रसन्न की मां से’, और फिर दासी की ओर उंगली से इशारा कर दिया।


प्रसन्न की मां ने कहा, ‘हां मंझली बहू, यह तो ठीक है। आज दोपहर को जब इस भात के लिए बिना छोड़कर उठ खड़ा हुआ, तब मालकिन ने कहा, जब इस भात के लिए बिना यमराज के घर जाना पड़ेगा, तब इतनी अकड़ किसलिए? इस पर वह कह गया, अपनी मंझली बहन के होते हुए मैं किसी से नहीं डरता।’


कादम्बिनी ने ब़ड़े गर्व से कहा, अब तो मालूम हो गया? बताओ, किससे बल पर उसे इतनी अकड़ है? आज मैं तुमसे साफ-साफ कहे देती हूं, तुम उसे बार-बार मत बुलाया करो। भाई-बहन के बीच में तुम मत पड़ो।’


हेमांगिनी ने फिर कुछ नहीं कहा। एक केंचुए ने भी सांप की तरह कुंडली मार कर काटा है यह सुनकर उसके आश्चर्य की सीमा नहीं रही। वह खिड़की के सामने से हटकर सोचने लगी कि कितने भारी अत्याचारों को सहते रहने के बाद उस मासूम बच्चे के द्वारा यह संभव हुआ होगा?


हेमांगिनी का सिर भारी हो गया और ज्वर मालूम होने लगा। इसीलिए वह असमय ही पलंग पर बेजान-सी पड़ गई। उसके पति कमरे में आए और उसकी ओर ध्यान दिए बिना ही गुस्से में भरकर कहने लगे, ‘आज भाभी के बारे भाई के में क्या झगड़ा कर बैठी हो? किसी के मना करने पर भी सुनोगी नहीं और चाहे जिस अभागे दरिद्र के पीछे कमर बांधकर खड़ी हो जाओगी। मुझसे यह आए दिन का बखेड़ा सहा नहीं जाता है। आज भाभी ने नाहक मुझे दस बातें सूना दी।’


हेमांगिनी ने थकी-थकी आवाज में कहा, ‘तुम्हारी भाभी हक की बात ही कब कहती हैं जो आज ही नाहक दस बातें सूना दी।’


‘नहीं, आज तो उन्होंने जो कुछ कहा है ठीक ही कहा है। मैं तो तुम्हारा स्वभाव जानता हूं। उस बार घर के ग्वाले के बारे में भी ऐसा ही किया था। मोती कुम्हार के भानजे का इतना अच्छा बाग तुम्हारे कारण ही मुट्ठी से निकल गया, उलटे पुलिस को चुप करने के लिए गांठ से सौ रुपए देने पड़े। क्या तुम अपना भला-बुरा भी नहीं समझती? आखिर तुम्हारा स्वभाव कब बदलेगा?’


हेमांगिनी उठकर बैठ गई और अपने पति के चेहरे की ओर देखकर बोली, ‘मेरा स्वभाव तो मरने पर ही बदलेगा, इससे पहले नहीं। मैं भी मां हूं, मेरी गोद में लड़के-बच्चे भी हैं और ऊपर भगवान है। इससे अधिक मैं बड़ो की शिकायत करना नहीं चाहती। मेरी तबीयत खराब है, इस समय मुझसे बकझक मत करो, जाओ।’


यह कहकर वह चादर खींचकर करवट बदल कर लेट गई।


विपिन को और अधिक तर्क-वितर्क करने का साहस नहीं हुआ। लेकिन मन-ही-मन अपनी पत्नी और विशेष रूप से गले पड़ीं बला अभागे किशन से बहुत ही चिढ़ गए।


प्रकरण - 6


दूसरे दिन सवेरे खिड़की खोलते ही हेमांगिनी के कानों में जेठानी के तीखे स्वर की झनकार पड़ी । वह पति से कह रही थी, ‘यह लड़का कल से ही भागा हुआ है। तुमने उसकी बिलकुल ही खोज-खबर नहीं ली है।’


पति ने उत्तर दिया, ‘चूल्हे में चला जाए। खोज-खबर लेने की जरूरत ही क्या है?’


पत्नी मुहल्ले भर को सुनाती हुई बोली, ‘अब तो निन्दा के मारे इस गांव में रहना कठिन हो जाएगा। हमारे यहां दुश्मनों की भी कभी नहीं है। अगर कहीं गिर पड़कर मर-मरा गया तो कहे देती हूं, छोटे-बड़े सबको जेलखाना जाना पड़ेगा।’


हेमांगिनी ने सारी बातें समझ लीं और खिड़की बन्द करके एक लम्बी सांस लेकर दूसरे कमरे में चली गई।


दोपहर के समय यह रसोई के बरामदे में बैठी खाना खा रही थी कि सामने से चारों की तरह दबे पांव किशन आ खड़ा हुआ। उसके बाल रूखे थे और मुंह सूखा था।


हेमांगिनी ने पूछा, ‘कहां भाग गया थे रे, किशन?’


‘भागा तो नहीं था। कल शाम के बाद दुकान पर ही सो गया था, जब नींद खुली तो देखा, आधी रात हो गयी है। मंझली बहन, भूख लगी है।’


‘जा उसी घर में जाकर खा,’ कह कर हेमांगिनी खाना खाने लगी।


लगभग एक मिनिट तक चुपचाप खड़ा रहने के बाद जब किशन जाने लगा तो हेमांगिनी ने उसे बुलाकर बैठाया और रसोईदारिन से उसे वहीं जगह करके उस भात परोस देने के लिए कहा।


किशन अभी आधा ही खा पाया था कि बाहर से उमा घबरायी हुई आयी और उसने इशारे से चुपचाप बताया कि बाबूजी आ रहे हैं।


लड़की का भाव देखकर मां को अचम्मा हुआ, ‘आते हैं तो तू इस तरह घबरा क्यों रही है?’


उमा किशन के पीछे खड़ी थी। उसने उत्तर में किशन की ओर इशारा किया और आंखे मुंह मटकाकर इशारे से बताया कि वह खा जो रहा है।


किशन ने कौतूहल से अपनी गर्दन पीछे की ओर मोड़ ली और बड़ी उत्कंठा से उसके शंकित चेहरे के संकेत को देखा पल भर में उसका चेहरा सफेद पड़ गया। उसके मन में कितना डर पैदा हुआ यह तो वही जाने।


‘मंझली बहन, जीजाजी आ रहे है,’ उसने कहा और भात की थाली छोड़कर रसोई घर के दरवाजे की आड़ में जाकर खड़ा हो गया। उसकी देखा-देखी उमा भी एक ओर भाग गई। मकान मालिक के आ पहुंचने पर जैसा आचारण चोर किया करते हैं ठीक वही आचारण उन्होंने किया।


पहले तो हेमांगिनी ने हैरान होकर एक बार इधर और एक बार उधर देखा और फिर थकी-सी दीवार के सहारे झुक गई। जैसे लज्जा और अपमान का तीर उसके कलेजे में इक पार से उस पार हो गया हो। तभी विपिन आ गये और सामने ही पत्नी को इस पार से उस पार हो गया हो। तभी विपिन आ गये और सामने ही पत्नी को इस तरह बैठी देख पास आकर बेचैनी से पूछने लगे, ‘यह क्या?’ खाना सामने रखकर इस तरह क्यों बैठी हो?’


हेमांगिनी ने कोई उत्तर नहीं दिया।


विपिन ने और भी उत्सुकता से पूछी, ‘क्या फिर बुखार हो गया ललित?’


इसके बाद उनकी नजर उस थाली पर पड़ी जिसमें आघा भात पड़ा हुआ था। पूछा, ‘इतना भात थाली में छोडकर कौन उठ गया?’


हेमांगिनी उठ कर बैठ गई और बोली, ‘नहीं, उस धर का किशन खा रहा था। तुम्हारे डर के मारे किवाड़ की आड़ में छिप गया है।’


‘क्यों?’


‘क्यों? सो तुम अच्छी तरह जानते हो और केवल वही नहीं, तुम्हारे आने की खबर देकर उमा भी भाग गई है।’


विपिन ने मन-ही-मन समझ लिया कि पत्नी की बातें टेढ़े रास्ते जा रही हैं इसीलिए उन्होंने सीधे रास्ते पर लाने के लिए हंसते हुए कहा, ‘आखिर वह किस डर से भागी?’


हेमांगिनी ने कहा, ‘क्या जानू? शायद मां का अपमान अपनी आंखों देखने के भय से भाग गई हो,’ फिर एक ठण्डी सांस लेकर बोली, ‘किशन पराया लड़का ठहरा। यह तो छिपेगा ही, लेकिन पेट की लड़की तक यह विश्वास नहीं कर सकी कि मां को इतना भी अधिकार हे कि वह किसी को एक कौर भात भी खिला सके।’


अल विपिन ने समझा कि मामला सचमुच बिगड़ गया है। कही आगे बढ़कर उग्र रूप धारण न कर ले, इसलिए उन्होंने इस अभियोग को एक साधारण मजाक में बदलकर आंखें मटकाकर और गर्दन हिलाकर कही, ‘नहीं, तुम्हें कोई अघिकार नहीं है। कोई भिखमंगा आए तो उसे भीख तक देने का अधिकार नहीं है। अच्छा इन सब बातों को बाने दो। कल से तुम्हारे सिर में फिर दर्द तो नहीं हुआ? मैं सोचता हूं कि शहर के केदार ड़ोक्टर को बुलवा लूं और नहीं तो फिर एक बार कलक्ता...!’


रोग और इलाज का मशवरा यही रुक गया। हेमांगिनी ने पूछा, ‘तुमने उमा के सामने किशन को कुछ कहा था?’


विपिन जैसे आकाश से नीचे आ गिरा। बोले, ‘मैंने?’ कहां? नहीं तो। ओह! याग आ गया। उस दिन शायद कुछ कहा था। भाभी नाराज होती हैं। भैया बिगड़ते हैं। मालूम होता है उमा वहां खड़ी थी। जानती हो...?’


‘जानती हूं,’ कहकर हेमांगिनी ने वात दबा दी। विपिन के रसोई घर से जाते ही उसने किशन को बुलाकर कहा, ‘किशन, यहा चार पैसे ले ले और जाकर दुकान से कुछ चने-मुरमुरे खरीद कर खा ले। भूख लगने पर अब मेरे पास मत आना। तेरी मंझली बहन की इतनी ताकत नहीं कि वह बाहर के आदमी को एक कौर भात भी खिला सके।’


किशन चुपचाप चला गया। अन्दर खड़े विपिन ने उसकी ओर देखकर दांत पीस लिए।


प्रकरण - 7


पांच-छः दिन बाद एक दिन तीसरे पहर विपिन ने झल्लाण हुए चेहरे से घर में कदम रखते ही कहा, ‘आखिर तुमने यग क्या बखेड़ा शूरू कर रखा है? किशन तुम्हारा कौन है, जो उस पराये लड़के के लिए दिन-रात अपने आदमियों से झगड़ा किया करती हो? मैंने आज देखा कि भैया तक सख्त नाराज है।’


इससे कुछ देर पहले अपने घर में बैठकर कादम्बिनी ने अपने पति को सुनाकर और मंझली बहू को निशाना बनाकर खूब जोर-जोर से चिल्ला-चिल्लाकर अपशब्दों के जो तीर छोड़े थे, उनमें से एक भी निष्फल नहीं गया था। उन सभी तीरों ने हेमांगिनी को छेद डाला था और हर तीर ने अपनी नोक से हेमांगिनी के शरीर में इतना जहर भर दिया था कि उसकी आग उसे बूरी तरह जला रही थी, लेकिन बीच में जेठजी बैठे थे इसलिए सब कुछ सहने के सिवा उनसे बचने और उन्हें रोकने का उसे कोई मार्ग नहीं मिल सका था।


प्राचीन काल में जिस तरह यवन युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए गाय को समाने खड़ा करके पीछे से राजपूतो की सेना पर बाणो की वर्षा करते थे, कादम्बिनी भी मंझली बहू पर आजकल इसी तरह वार किया करती थी।


पति की बात से हेमांगिनी भड़क उठी। उसने कहा, ‘कहते क्या हैं? जेठजी तक नाराज हो गए हैं। इतने बड़े आश्चर्य की बात पर एकदम तो विश्वास नहीं होता। अब बताओ क्या करने से उनका क्रोध शान्त हो सकता है?’


विपिन मन-ही-मन बहूत नाराज हुए, लेकिन अपनी नाराजगी प्रकट करने का उनका स्वभाव नहीं था, इसीलिए उन्होंने मने का भाव मन में ही छिपाकर सहज भाव से कहा, ‘हजार हो, फिर भी बड़ों के संबंध में क्या...?’


बात पूरी भी नहीं होने पाई थी कि हेमांगिनी ने कहा, ‘मैं सब जानती हूं। कोई अनजान बच्ची नहीं हूं जो बड़ों की मान-मर्यादा ने समझती होऊं, लेकिन मैं इस लड़के को चाहती हूं इसलिए वह मुझे उस पर दिखा-दिखाकर उस पर दिन-रात अत्याचार करती रहती है।’


उसकी आवाज कुछ नर्म हो गई, क्योंकि अचानक जेठ के सम्बन्ध में ताना मार कर यह कुछ सकपका गई थी, लेकिन उसके शरीर में आग लग रही थी, इसलिए क्रोध पर काबू न पा सकी। विपिन अन्दर-ही-अन्दर उन लोगों के पक्ष में थे, क्योंकि एक पराये लड़के के लिए अपने बड़े भाई से बेकार ही झगड़ा करना उन्हे पसन्द नहीं था। पत्नी की इस सकपकाहट को देखकर मौका पाकर उन्होंने कुछ जोर देकर कहा, ‘अत्याचार कुछ भी नहीं करते, अपने लड़के को कायदे में रखते हैं। काम-धन्धा सिखाते हैं। इसमें अगर तुम्हें कष्ट हो तो कैसे काम चलेगा? और फिर वह ठहरे बड़े लोग, जो भी चाहे करें।’


हेमांगिनी अपने पति की बात सुनकर पहले तो हैरान रह गई, क्योंकि वह इस गृहस्थी को पिछले पन्द्रह-सोलह वर्षो से चला रही थी, लेकिन इससे पहले उसने अपने पति में भाई के प्रति इतनी भक्ति-भावना कभी नहीं देखी थी। उसके समूचे शरीर में आग-सी लग गई। उसने कहा, ‘अगर वह पूज्य हैं, बड़े हैं, तो मैं भी मां हूं। अगर बड़े लोग अपना सम्मान आप ही नष्ट कर डालेंगे तो मैं कहां से उनकी भरपाई करूंगी?’


विपिन शायद इसका कुछ उत्तर देना चाहते थे लेकिन रूक गए, क्योंकि तभी दरवाजे के बाहर किसी ने दुःखी आवाज में बड़ी विनम्रता से पूकारा, ‘मंझली बहन।’


पति-पत्नी ने एक दूसरे की ओर देखा। विपिन कुछ हंसे लेकिन उस हंसी में स्नेह नहीं था। पत्नी होंठ दबाकर दरवाजे के पास पहुंच गई और चुपचाप किशन के चेहरे की ओर देखने लगी। उसे देखते ही किशन का चेहरा खुशी से चमक उठा। उसके मुंह से पहले ही यही निकला, ‘मंझली बहन, तबियत कैसी है?’


हेमांगिनी पल भर तो कुछ बोल नहीं सकी। जिसके लिए अभी-अभी पति-पत्नी में इतना झगड़ा हुआ था अचानक उसी को सामने पाकर झगड़े का सारा क्रोध उसी के सिर पर बरस पड़ा। हेमांगिनी ने धीरे से लेकिन कठोर स्वर से कहा, ‘क्यों क्या है? तू रोज यहां क्यों आता है?’


किशन का कलेजा धड़क उठा। हेमांगिनी का यह कठोर स्वर उसे वास्तव में इतना कठोर सुनाई दिया कि उस अभागे बालक को यह समझने में देर नहीं लगी कि हेमांगिनी नाराज है।


भय, आश्चर्य और लज्जा से उसका चेहरा काला पड़ गया। उसने धीरे से कहा, ‘देखने आया हूं।’


विपिन ने हंसकर कहा, ‘तुम्हें देखने के लिए आया है।’


इस हंसी ने जैसे मुंह चिढ़ाकर उसने नजरे फेर लीं और किशन से बोली, ‘अब तू यहां मत आना, जा’


‘अच्छा, ’ किशन ने इतना कहकर अपने चेहरे पर बिखरी कालिमा को हंसी से ढकने का प्रयत्न किया, लेकिन इससे उसका चेहरा और भी स्याह और भद्दा बन गया। वह मुंह नीचा करके चला गया।


उस चेहरे की काली छाया अपने चेहरे पर लिए हेमांगिनी ने एक बार पति की ओर देखा ओर जल्दी से कमरे से निकल गई।


चार-पांच दिन बीत गए, लेकिन हेमांगिनी का ज्वर कम न हुआ। डोक्टर पिछले दिन कह गया था कि सीन में सर्दी बैठ गई है।


अभी-अभी शाम का दिया जला था। तभी ललित अच्छे-अच्छे कपड़े पहन कर कमरे में आकर बोला, ‘मां, आज दत्त बाबू के यहां कठपूतली का नाच होगा। मैं जाकर देख आऊं?’


मां ने कुछ हंसकर कहा, ‘क्यों रे ललित, आज पांच-छः दिन से तेरी मां बीमार पड़ी है, तू कभी एक बार भी पास आकर नहीं बैठा।’


ललित लज्जित होकर सिरहाने आ बैठा। मां ने बड़े प्यार से बेटे की पीठ पर हाथ रखकर पूछा, ‘अगर मेरी बीमारी अच्छी न हो और मैं मर जाऊं, तो तू क्या करेगा? खूब रोयेगा न?’


‘हटो-तुम अच्छी हो जाओगी,’ इतना कहकर ललित ने मां के सीने पर हाथ रख दिया।


मां बेटे का हाथ अपने हाथ में लेकर चुप हो गई। ज्वर के समय पुत्र के हाथ का यह स्पर्श उसके समूचे बदन को शीतल करने लगा। जी चाहा यह इसी तरह बैठा रहे, लेकिन थोड़ी देर बाद ही ललित जाने के लिए छटपटाने लगा। शायद कठपूलियों का नाच शरू हो गया हो। यह सोचते-साचते उसका मन अन्दर-ही-अन्दर अस्थिर हो उठा। बेटे के मन की बात समझकर मां ने मन-ही-मन हंसते हुए कहा, ‘अच्छा जा, देख आ, लेकिन ज्यादा रात मत करना।’


‘नहीं मां, मैं जल्दी ही आ जाऊंगा।’


इतना कहकर ललित चला गया, लेकिन दो मिनट बाद ही वह लौट आया और बोला, ‘मां, एक बात कहूं?’


मां ने हंसते हुए कहा,‘एक रूपया चाहिए न? उस ताक पर रखे हैं ले ले, लेकिन एक से ज्यादा मत लेना।’


‘नहीं मां, रुपया नहीं चाहिए। बताओ मेरी बात मानोगी?’


मां ने आश्चर्यसे कहा, ‘रुपया नहीं चाहिणे तो फिर क्या बात है?’


ललित खिसक कर मां के और भी पास पहुंच गया और बोला, ‘जरा किशन को आने दोगी? कमरे में नहीं आएंगे। दरवाजे के पास ही एक बार तुम्हें देखकर चले जाएंगे। वह कल भी बाहर आकर बैठे थे। आज भी बैठे हुए है।’


हेमांगिनी हड़बड़ा कर उठ बैठी और बोली, ‘जा जा ललित! अभी बुला ला। हाय! हाय बेचारा बाहर बैठा है और तुम लोगों ने मुझे बताया भी नहीं।’


‘डर के मारे अन्दर आना नहीं चाहते।’ इतना कहकर ललित चला गया। एक ही मिनट के बाद किशन कमरे में आया और जमीन की ओर सिर झुका कर दीवार के सहारे खड़ा हो गया।


हेमांगिनी ने कहा, ‘आ भैया आ।’


किशन उसी तरह चुपचाप खड़ा रहा। तब हेमांगिनी ने खुद ही उठकर उसका हाथ पकड़ा और बिछौने पर बैठा लिया। फिर उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘हां रे किशन, उस दिन बकझक की थी। इसलिए शायद तू अपनी मंझली बहन को भूल गया।’


सहसा किशन फूट-फूट कर रोने लगा। हेमांगिनी को कुछ आश्चर्य हुआ क्योंकि आज तक किशन को किसी ने रोते हुए नहीं देखा था। अनेक दुःख और यातनाएं मिलने पर भी वह चुपचाप सिर झुका लेता है। कभी किसी के सामने रोता नहीं है। उसके स्वभाव से हेमांगिनी परिचित थी, इसलिए आश्चर्य से बोली, ‘छिः! रोना किसलिए? राजा बेटे कही आंसू बहाया करते है?’


उत्तर में किशन ने धोती के छोर को मुंह में भरकर यथाशक्ति रुलाई को रोकने की कोशिश करते हुए कहा, ‘ड़ॉक्टर ने कहा है कि कलेजे में सर्दी बैठ गयी है?’


हेमांगिनी हंसते हुए बोली, ‘बस इसलिए? राम-राम, तू भी केसा लड़का है?’


इतना कहते ही हेमांगिनी की आंखो से टप-टप दो बूंद आंसू टपक पड़े। उन्हें बाएं हाथ से पोछकर उसके माथे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘सर्दी बैठ गई है। डॉक्टर ने भले यह कहा हो। अगर मैं मर जाऊं तो तू और ललित दोनों मिलकर मुझे गंगा जी तो पहुंचा आओगे? क्यों, पहुंचा आओगे ना?’


उसी समय ‘मंझली बहू, आज कैसी तबीयत है?’ कहती हुई कादम्बिनी आकर दरवाजे पर खड़ी हो गई।


थोड़ी देर तक तो वह किशन की ओर घूमकर देखती रही, फिर बोली, ‘लो यह तो यहां बैठा है? और यह क्या मंझली बहू के सामने रोकर दुलार हो रहा है। यह ढोंगी कितने छल-छंद जानता है?’


बहुत थक जाने के कारण हेमांगिनी अभी-अभी तकिए के सहारे लेटी थी, लेकिन तत्काल तीर की तरह सीधी होकर उठ बैठी और बोली, ‘जीजी, मुझे आज छः-सात दिन से बुखार आ रहा है। तुम्हारे पैरों पड़ती हूं। इस समय तुम चली जाओ।’


कादम्बिनी पहले तो कुछ सकपकाई लेकिन तुरन्त ही अपने-आपको संभालकर बोली, ‘मंझली बहू, तुमसे तो कुछ नहीं कहा। अपने भाई को डांट रही हूं। इस पर तुम काटने को क्यों दौड़ रही हो?’


हेमांगिनी ने कहा, ‘तुम्हारी डांट-डपट तो रात-दिन चलती ही रहती है। उसे घर जाकर करना। यहां मेरे सामने करने की जरूरत नहीं है और न मैं करने दूंगी।’


‘क्यों, क्या तुम घर से निकाल दोगी?’


हेमांगिनी ने हाथ जोड़कर कहा, ‘जीजी, मेरी तबीयत खराब है। मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूं, या तो चुप रहो या चली जाओ।’


कादम्बिनी बोली, ‘अपने भाई से भी कुछ नहीं कह सकती?’


हेमांगिनी ने उत्तर दिया, ‘अपने घर जाकर कहना।’


‘हां, सो तो अच्छी तरह कहूंगी। मेरे नाम खूब लगाई-बुझाई की जाती है। वह सब मैं आज निकाल दूंगी। बदजात, झूठा कहीं का। मैंने कहा था कि गाय के गले में बांधने के रस्सी नहीं है किशन! जरा जाकर दो अंटिया पाट काट लो,’ तो बोला, ‘बहन, तुम्हारे पैरों पड़ता हूं। जरा कठपूतली का नाच देख आऊं। यही न कठपूतली का नाच देखा जा रहा है?’


यह कहकर कादम्बिनी छम-छम पैर पटकती हुई वहां से चली गई।


हेमांगिनी कुछ देर तक काठ ही तरह बैठी रही। फिर लेटकर बोली, ‘किशन, तू कठपूतली का नाच देखने क्यों नहीं गया? चला गया होता तो वह सब बातें न सुननी पडतीं। जब वह लोग तुझे नहीं आने देते तब भैया हमारे यहां तू मत आया कर।’


किशन बिना कुछ कहे-सूने चुपचाप चला गया, लेकिन थोड़ी देर बाद ही लौट आया और बोला, ‘बहन, हमारे गांव की विशालाक्षी देवी की बहूत ही जागती कला है। पूजा देने से सारे रोग, शोक दूर हो जाते हैं। मंझली बहन, दे दो न उनकी पूजा?’


अभी-अभी बेकार ही झगड़ा हो जाने के कारण हेमांगिनी का मन बहुत हो झल्ला उठा था। लड़ाई-झग़़ड़ां होता ही रहता है, लेकिन ऐसा बढ़िया बहाना मिल जाने पर इस अभागे की क्या दर्दशा होगी यह सोचकर उसकी छाती दुःख, क्रोध और बेबसी से जल उठी थी। किशन जब फिर लौटकर आया तो हेमांगिनी उठकर बैठ गई। उसे अपने पास बैठा कर उसकी पीठ पर हाथ फेरती हुई रो पड़ी। फिर आंसू पोंछकर बोली, ‘अच्छी हो जाऊंगी तब तुझे बुलाकर पूजा देने के लिए भेज दूंगी। अकेले जा तो सकेगा न?’


किशन प्रसन्नता से आंखे फाड़कर बोला, ‘बड़े मजे से अकेला चला जाऊंगा मंझली बहन! तुम आज ही मुझे एक रुपया देकर भेज दो न, मैं कल सवेरे ही पूजा देकर तुम्हें प्रसाद ला दूंगा। उसे खाते ही तुम्हारे रोग दूर हो जाएंगे। मुझे आज ही भेज दो न मंझली बहन।’


हेमांगिनी ने देखा कि अब उससे ठहरा नहीं जा रहा। बोली, ‘लेकिन कल लौटने पर यह लोग तुझे बहुत मारेंगे।’


मार-पीट का नाम सुनकर पहले तो किशन कुछ सहम उठा, लेकिन फिर खुश होकर बोला, ‘भले ही मारें, तुम्हारा रोग तो दूर हो जाएगा।’


हेमांगिनी की आंखो से फिर आंसू बहने लगे। उसने कहा, ‘क्यों रे, किशन! मैं तो तेरी कोई भी नहीं हूं। फिर मेरे लिए तुझे इतनी चिन्ता क्यों हैं?’


भला इस प्रश्न का उत्तर किशन कहां से खोज पाता? वह केसे समझाए कि उसका दुःखी और पीड़ित मन रात-दिन रो-रोकर अपनी मां को खोजता फिरता है।


थोड़़ी देर तक हेमांगिनी की ओर देखकर बोला, ‘तुम्हारा रोग जो दूर नहीं होता है, मंझली बहन! छाती में सर्दी बैठ गई है।’


हेमांगिनी हंस पड़ी, ‘मेरी छाती में सर्दी बैठ गई हे तो इससे तुझे क्या? तुझे इतनी चिन्ता क्यों है?’


किशन ने हैरानी से कहा, ‘मुझे चिन्ता न होगी मंझली बहन! छाती में सर्दी बैठ जाना बहुत ही खराब है। अगर बीमारी बढ़ जाए तो?’


‘तो फिर तुझे बुलवा लूंगी, लेकिन बिना बुलाए मत आना भैया!’


‘क्यों मंझली बहन?’


हेमांगिनी ने सिर हिलाकर दृढंता से कहा, ‘नहीं, अब मैं तुझे यहां नहीं आने दूंगी। बिना बुलाए अगर तू आएगा तो मैं बहूत नाराज होऊंगी।’


किशन ने उसके मुंह की ओर देखकर डरते हुए पूछा, ‘अच्छा तो बताओ कल सवेरे कब बुलाओगी?’


‘क्या, कल सवेरे तुझे फिर आना चाहिए?’


किशन ने विवश होकर कहा, ‘अच्छा सवेरे न सही, दोपहर को आ जाऊंगा ठीक हे मंझली बहन?’


उस समय उसकी आंखों में और चेहरे पर ऐसी आकुल प्रार्थना फूट पड़ी कि हेमांगिनी को मन-ही-मन बहुत दुःख हुआ, लेकिन अब बिना कठोर हुए काम नहीं चल सकता। सभी ने मिलकर इस मासूम और एकदम असहाय बालक को जो यातनाएं देनी आरंभ की हैं, उसे किसी भी तरह और बढ़ा देने से काम नहीं चल सकता। शायद वह उस सह सकता है। मंझली बहन के पास आने-जाने का दंड कितना ही भारी क्यों न हो उसे सह लेने से तो शायद वह पीछे नहीं हटेगा, लेकिन हेमांगिनी इसे कैसे सह पाएगी?


हेमांगिनी की आंखो से आंसू बहने लगे। मुंह फेरकर रूखे स्वर में बोली, ‘मुझे तंग न कर किशन! यहां से चला जा। जब बुलाऊं तब आना। इस तरह जब जी चाहे आकर मुझे तंग मत करना।’


‘नहीं, तंग तो मैं नहीं करता....!’


इतना कहकर अपना भयभीत और लज्जित मुख नीचा करसे जल्दी से चला गया।


हेमांगिनी की आंखो से झरने की तरह आंसू झरने लगे। उसे स्पष्ट दिखाई देने लगा कि वह अनाथ और बेसहारा बालक अपनी मां को गंवाकर मुझे अपनी मां समझने लगा है। मेरे आंचल का थोड़ा-सा भाग अपने माथे पर खींच लेने के लिए कंगाल की तरह जाने क्या-क्या करता फिरता है।


हेमांगिनी ने आंसू पोंछकर मन-ही-मन ‘किशन, तू यहां से इतना उदास और दुःखी होकर चला गया भाई! लेकिन तेरी मंझली बहन तो तुझसे भी बढ़कर बेबस है। उसमें इतनी भी सामर्थ्य नहीं हे कि तुझे जबरदस्ती खींचकर कलेजे से लगा ले।’


उमा ने आकर कहा, ‘मां, कल किशन मामा तगाहे को न जाकर तुम्हारे पास आ बैठे थे, इसलिए उन्हें ताऊजी ने इतना मारा कि नाक से...!’


हेमांगिनी ने धमकाकर कहा, ‘अच्छा, अच्छा, हो गया। रहने दे, तू भाग जा यहां से।’


अचानक झिड़की खाकर उमा चौंक पड़ी। वह चुपचाप जाने लगी तो मां ने पुकार कर पूछा, ‘अरी सुन तो, क्या नाक से बहुत खून निकला है?’


‘नही, बहुत-सा नहीं, थोडा-सा,’ उमा लौटकर बोली।


दरवाजे के पास पहुंचते ही उमा बोली उठी, ‘मां, किशन मामा तो यहां ही खड़े हैं।’


किशन ने यह बात सुन ली। इसे बुलावा समझकर शर्मीली हंसी के साथे बोला, ‘मंझली बहन, कैसा जी है?’


दुःख, अभिमान और क्षोम से हेमांगिनी पागलों की तरह चीख उठी, ‘यहां क्या करने आया है? जा, जल्दी जा यहां से। कहती हूं दूर हो जा...!’


किशन मुर्ख की तरह आंसे फाड़-फाड़कार देखने लगा, हेमांगिनी ने और भी चिल्लाकर कहा, ‘कमबख्त, फिर भी खड़ा है, गया नहीं?’


‘जाता हूं’, किशन ने सिर झुकाकर कहा और चला गया।


उसके जाने के बाद हेमांगिनी बेजान-सी बिछौने के एक किनारे पड़ गई और बड़बड़ाते हुए कहने लगी, ‘कमबख्त से सौ बार कह दिया कि मेरे पास मत आया कर, फिर भी वह ‘मंझली बहन...’ उमा जाकर शिब्बू से कह दे कि अब उसे घर के अन्दर न आने दिया करे।’


उमा चुपचाप बाहर चली गई।


प्रकरण 8


रात हेमांगिनी ने अपने पति को बुलाकर रुंधे गले से कहा, ‘आज तक तो मैंने तुमसे कभी कुछ नहीं मांगा, लेकिन आज इस बीमारी के समय एक भिक्षा मांगती हुं, दोगे?’


विपिन ने संदिग्ध स्वर में कहा, ‘क्या चाहती हो?’


‘किशन को मुझे दे दो। वह बेचारा बहुत दुःखी है। उसके मां-बाप नहीं हैं। वह लोग उसे मार डालते हैं। यह मुझसे देखा नहीं जाता।’


विपिन ने कुछ मुस्कुराकर कहा, ‘तो आंखे मूंद लो। बस, सारा झगड़ा मिट जाएगा।’


पति का यह क्रूर मजाक हेमांगिनी के कलेजे में तीर की तरह बिंध गया और किसी हालत में तो वह इसे सह लेती लेकिन आज मारे दुःख के उसके प्राण निकलने लगे थे, इसलिए उसने सह लिया और हाथ जोड़कर बोली, ‘तुम्हारी सौगन्ध खाकर कहती हूं, उसे मैं अपने पेट के बेटे की तरह चाहती हूं, मुझे दे दो। उसे पालकर बड़ा करूंगी, खिलाऊंगी, पहनाऊंगी। इसके बाद तुम लोगों की जो इच्छा हो करना। जब वह सयाना हो जाएगा तब मैं कुछ नहीं कहूंगी।’


विपिन ने कुछ नर्म होकर कहा, ‘यह क्या कोई मेरी दुकान का धान या चावल हैं जो मैं लाकर दे दूंगा। दूसरे का भाई है। दूसरे के घर आया है। तुम बीच में पड़कर इतना दर्द क्यों महसूस करती हो।’


हेमांगिनी रो पडी। थोड़ी देर बाद उसने आंसू पोंछते हुए कहा, ‘अगर तुम चाहो तो जेठजी और जेठानी जी से कहकर मजे से ला सकते हो। मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूं, उसे ला दो।’


विपिन ने कहा, ‘अच्छा मान लो ऐसा हो जाए तो हम कहां के इतने बड़े आदमी हैं, जो उसका पालन-पोषण कर पाएंगे।’


हेमांगिनी बोली, ‘पहले तो तुमने मेरी किसी भी इच्छा को नहीं ठुकराया। फिर अब मैंने कौन-सा अपराध किया है जो तुम ऐसा कह रहे हो। मेरे प्राण निकले जै रहे हैं और तुम मेरी इतनी मामूली-सी बात नहीं मान रहे? वह अभागा है तो क्या तुम सब मिलकर उसे मार ही डालोगे?’ मैं उसे अपने यहां आने को कहूंगी, देखती हूं वह लौग क्या करते हैं?’


विपिन ने अप्रसन्नता से कहा, ‘मैं उस खिला-पिला नहीं सकूंगा।’


‘मैं खिला-पिला सकूंगी। क्या मैं कल ही उसे बुलाकर अपने पास रखूंगी और अगर जिठानी उसे जबरदस्ती रोकेंगी तो मैं उसे थाने में दरोगा के पास भेज दूंगी।’


पत्नी की बात सुनकर विपिन क्रोध और अभिमान से क्षण भर के लिए हक्का-बक्का रह गए। फिर बोले, ‘अच्छा देखा जाएगा।’


और यह कहकर चले गए।


दूसरे दिन सुबह से ही वर्षा होने लगी। हेमांगिनी अपने कमरे की खिड़की खोलकर आकाश की और देख रही थी। सहसा उसे पांचू गोपाल की ऊंची आवाज सूनाई दी। वह चिल्लाकर कर रहा था, ‘मां, अपने गुनी भाई को देखो, पानी में भीगते हुए हाजिर हो गए हैं।’


‘झाडू कहां हैं रे? मैं आती हूं,’ कहती हुई और हुंकार करती हुई कादम्बिनी जल्दी से बाहर निकली और सिर पर अंगोछा डालकर सदर दरवाजे पर पहूंच गई।


हेमांगिनी की छाती कांप उठी। उसने ललित को बुलाकर कहा, ‘जा तो बेटा, उस मकान में और देख तेरे किशन मामा कहां से आए हैं?’


ललित दौड़ा हुआ गया और थोड़ी देर बाद ही लौटकर बोला, ‘पांचू भैया ने उन्हें उकडूं बैठा रखा है, और उनके सिर पर दो ईंटे रखी हुई हैं।’


हेमांगिनी ने सूखे मुंह से पूछा, ‘उसने क्या किया था?’


ललित ने कहा, ‘कल दोपहर को उन्हें ग्वालों के यहां तगादे के लिए भेजा था। वहां से तीन रुपये वसूल करके भाग गए और तीनों रुपये खर्च करके अब आए हैं।’


हेमांगिनी को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ। उसने पूछा, ‘किसने कहा है कि उसने रुपये वसूल किए थे?’


‘लक्ष्मण खुद ही आकर कह गया है।’


यह कहकर ललित पढंने चला गया। लगभग तीन घंटे तक कोई शोर सुनाई नही दिया। दस बजे के लगभग रसोईदारिन खाना दे गई। हेमांगिनी उठना ही चाहती थी कि तभी उसके कमरे के बाहर कुरुक्षेत्र का दृश्य उपस्थित हो गया। बड़ी बहू के पीछे-पीछे पांचू गोपाल किशन का कान पकड़कर घसीटता हुआ ला रहा था। साथ में विपिन के बड़े भाई भी हैं। विपिन को बुलाने के लिए आदमी दुकान पर भेजा गया है।


हेमांगिनी ने घबराकर सिर ढक लिया और उठकर कमरे में एक किनारे खड़ी हो गई।


आते ही जेठजी ने चीख-चीखकर कहना आरंभ कर दिया, ‘मंझली बहू, देखता हूं की तुम्हारे कारण हम लोग इस मकान में नहीं रह सकेंगे। विपिन से कह दो कि हमारे मकान की कीमत दे दे, जिससे हम लोग कहीं और जाकर रहें।’


हेमांगिनी आश्चर्य से हत्बुद्धि-सी चुपचाप खड़ी रही। तब बड़ी बहू ने युद्ध-संचालन अपने हाथ में लिया और दरवाजे के ठीक सामने आकर खूब हाथ-मूंह नचा-नचाकर कहने लगी, ‘मंझली बहू, मैं तुम्हारी जेठानी हूं। तुम मुझे कुत्ते और गीदड़़ की तरह समझती हो, सो अच्छा ही करती हो, लेकिन मैंने तुमसे हजार बार कहा है कि झूठमूठ का दिखावटी प्रेम दिखाकर मेरे भाई को चौपट मत करो। क्यों, जो कहा था आखिर वही हुआ ने? दो दिन का दुलार आसान है लेकिन हंमेशा को बोझ तो तुम उठाने से रहीं। वह तो हमें ही उठाना पड़ेगा।’


हेमांगिनी ने सिर्फ यही समझा कि इन कड़वे बोलों से उस पर आक्रमण किया जा रहा है। उसने बहुत ही कोमल स्वर में पूछा, ‘आखिर हुआ क्या?’


कादम्बिनी ने और भी अधिक हाथ-मूह मटकाकर कहा, ‘बहुत अच्छा हुआ है, बहुत बढिया हुआ है। तुम्हारी सीख मिलने से वसूल किए हुए रुपये चुराना सीख गया है। और दो-तीन दिन अपने पास बुलाकर सिखाओ-पढ़ाओ तो सन्दूक का ताला तोड़ना और सेंध लगाना भी सीख जाएगा।’


एक तो हेमांगिनी बीमार थी, उस पर यह निन्दनीय, धृणित और मिथ्या अभियोग सुनकर वह अपना ज्ञान खो बैठी। आज तक उसने जेठ के सामने मुंह नहीं खोला था, लेकिन आज उससे नहीं रहा गया। बड़े कोमल स्वर में बोली, ‘क्या मैंने ही उसे चोरी करना और डाका डालना सिखाया है जीजी?’


कादम्बिनी बोली, ‘मैं कैसे जानूं कि तुमने सिखाया है या नहीं, लेकिन पहले तो उसका यह स्वभाव था नहीं। फिर आखिर तुम लोगों से छिप-छिपकर इसकी बातें क्या होती है? उसे इतना वढ़ावा क्यों दिया जाता हैं?’


थोड़ी देर के लिए हेमांगिनी हक्का-बक्का-सी रह गई। यह बात उसके दिमाग में नहीं बैठ सकी कि कोई मनुष्य कभी किसी दूसरे मनुष्य पर इस प्रकार का आघात करके उसे इस तरह अपमानित कर सकता है? लेकिन यह दशा कुछ पल तक ही रही। दूसरे ही पल वह चोट खाई सिंहनी के समान बाहर निकल आई। उसकी आंखे अंगारे तरह जल रही थीं। जेठ को सामने देखकर सिर पर का कपड़ा तो थोडा-सा आगे खींच लिया। लेकिन अपने क्रोध पर काबू नहीं रख पाई। उसने जेठानी को सम्बोधित करते मीठे लेकिन अत्यन्त कठोर स्वर में कहा, ‘तुम इतनी बड़ी चमारिन हो कि तुम्हारे साथ बात करने में भी मुझे घृणा होती है। तुम इतनी बेशर्म हो कि इस लड़के को अपना भाई भी कहती हो। अगर आदमी एक जानवर पालता है तो उसे भी भरपेट खाना खाने को देता है, लेकिन इस अभागे से तो सभी तरह के छोटे-से-छोटे काम लेकर भी तुमने इसे कभी भरपेट खाने को नहीं दिया। अगर मैं न होती तो अब तक वह भूखों मर गया होता। यह केवल पेट की आग के कारण मेरे पास दौड़ा आता है। प्यार-दुलार पाने के लिए नहीं।’


कादम्बिनी ने कहा, ‘हम लोग खाने को नहीं देते। खाली काम लेते हैं और तुमने उसे खिला-पिला कर बचा रखा है।’


मैं बिल्कुल ठीक कहती हूं। आज तक तुमने कभी उसे दोनों समये भरपेट खाना नहीं दिया। सिर्फ मार-पीट की है और जहां तक काम करा सकती हो काम कराती हो। तुम लोगों के डर से मैंने इसे हजार बार आने को मना किया है, लेकिन जब भूख बर्दाशत नहीं होती तब सिर्फ इसलिए भागा चला आता है कि यहां उसे भरपेट खाना मिल जाता है। चोरी, डकैती की सलाह लेने नहीं आता, लेकिन तुम लोग इतने ईष्यार्लु हो कि अपनी आंखो से यह भी नहीं देख सकते।’


अबकी बार जेठ ने उत्तर दिया। उन्होंने किशन को सामन खींच उसकी धोती की छोर में से केले के पत्ते का एक दोना निकाला और क्रद्ध होकर बोले, ‘हम ईर्ष्या करने वाले लोग असे अच्छी तरह से क्यों नहीं देख सकते यह तुम अपनी आंखो से ही देख लो। मंझली बहू, तुम्हारे सिखाने का ही यह नतीजा है कि यह सारे रुपये चुरकार तुम्हारे हित के लिए ने जाने किस देवी की पूजा देकर प्रसाद लाया है, यह लो।’


इतना कहकर उन्होंन उस दोने में से दो सन्देश, कुछ फूल और बेलपत्र आदि निकालकर दिखा दिए।


कादम्बिनी की आंखे कपाल पर चढ गई। उसने कहा, ‘अरे मैयारी, कैसा चुप्पा शैतान है, कैसा धूर्त और मक्कार है। ठीक है मंझली बहू, अब तुम ही बताओ कि इसने चोरी क्यों की? क्या मेरे हित के लिए?’


क्रोंध के मारे हेमांगिनी अपना आपा खो बैठी। एक तो उसका अस्वस्थ शरीर, उस पर यह झूठा इल्जाम। उसने जल्दी से आगे बढ़कर किशन के दोनों गालों पर जोर-जोर से दो तमाचे जड़ दिए और कहा, ‘हरामजादे चोर, मैंने तुझे चोरी करना सिखाया है? कितनी बार तुझे मना किया कि मेरे घर मत आया कर। कितनी बार तुझे भया दिया। अब मुझे लग रहा है कि तू चोरी करने के इरादे से ही जब तब मेरे यहां आकर झांका करता था।’


अब तक घर के सारे लोग इकटठे हो चुके थे। शिब्बू ने कहा, मां, मैंने अपनी आंखों से देखा है। परसों रात यह तुम्हारे कमरे के सामने अंधेरे में खड़ा था। मुझे देखते ही भाग गया था। अगर मैं न आता तो जरूर तुम्हारे कमरे में घुसकर चोरी करता।’


पांचू गोपाल ने कहा, ‘यह जानता है कि चाची कि तबीयत ठीक नहीं है, इसलिए शाम को ही सो जाती है। यह क्या कम चालाक है।’


किशन के साथ मंझली बहू के आज के इस व्यवहार से कादम्बिनी को जितनी प्रसन्नता हुई पिछले सोलह वर्षो में कभी नहीं हुई थी। अत्यधिक प्रसन्न होकर बोली, ‘अब कैसा भीगी बिल्ली की तरह खड़ा है? मंझली बहू, भला मैं कैसे जानती कि तुमने इसे अपने घर आने से मना कर दिया है। यह तो सबसे कहता फिरता है कि मंझली बहू मुझे मां से भी बढ़कर चाहती है।’ इसके बाद उसने दोने सहित प्रसाद उठाकर दूर फेकते हुए कहा, ‘तीन रूपये चुराकर न जाने कहां से दो-चार-फूल-पत्तियां उठा लाया है। हरामजादा चोर।’


घर ले जाकर कादम्बिनी के पति ने चोर को सजा देनी शरू कर दी। उसे बड़ी बेरहमी से मारने लगे, लेकिन न तो उसने मुंह से कुछ कहा, न रोया। जब इधर मारते तो उधर मुंह फेर लेता। अत्यधिक बोझ से भरी गा़ड़ी में जुता हुआ बैल कीचड़ में फंस जाने पर जिस तरह मार खाता है उसी तरह किशन भी चुपचाप मार खाता रहा। यहां तक कि कादम्बिनी तक ने इस बात को स्वीकार कर लिया कि उसने मार खाना खूब अच्छी तरह से सीखा है, लेकिन भगवान जानते हैं कि यहां आने से पहले उस सीधे-साधे लड़के पर किसी ने कभी हाथ तक नहीं उठाया था।


हेमांगिनी अपने कमरे की सभी खिड़कियों को बन्द कर काठ की मूर्ति की तरह चुपचाप बैठी है। उमा मार देखने गई थी। उसने लौटकर कहा, ताईजी कहती हैं कि किशन मामा बड़ा डाकू बनेगा। उसके गांव में न जाने कौन देवी है...!’


‘उमा...!’


अपनी मां की रुंधी और फटी हुई आवाज सुनकर उमा चौंक पड़ी। उसने पास आकर डरते-डरते पूछा, ‘क्या है मां?’


‘क्यों री, क्या अब भी उसे सब मिलकर मार रहे है?’


इतना कहकर हेमांगिनी जमीन पर मुंह के बल लोट गई और रोने लगी। उसे रोता देख उमा भी रोने लगी। फिर मां के पास बैठकर उसके आंसू पोंछती हुई बोली, ‘प्रसन्न की मां किशन को खींचकर बाहर ले गई हैं।’


हेमांगिनी ने और कुछ और नहीं कहा। वह चुपचाप उस जगह पड़ी रही।


दोपहर को दो-तीन बजे के लगभग उसे सर्दी लगकर बहुत जोरों का बुखार चढं गया। आज कोई दिनों के बाद वह पथ्य लेने बैठी थी। वह पथ्य अब भी एक ओर पड़ा सूख रहा था।


शाम के बाद विपिन उस मकान से अपनी भाभी से सारा हल सुनकर क्रोध से झल्लाते हुए अपने कमरे में जा रहे थे कि उमा ने पास आकर धीरे से कहा, ‘मां तो बुखार में बेहोश पड़ी हैं।’


विपिन ने चौककर पूछा, ‘यह क्या हुआ? इधर तीन-चार दिन से तो बुखार था ही नहीं।’


विपिन मन-ही-मन अपनी पत्नी को बहुत चाहते हैं। कितना चाहते हैं यह तो चार-पांच वर्ष पहले ही अपने भाई और भाभी से अलग होते समय मालूम हो गया था। वह घबराए हुए कमरे में पहुंचे। देखा अभी तक हेमांगिनी जमीन पर पड़ी है। उन्होंने घबराकर पलंग पर लिटाने के लिँ जैसे ही उसके शरीर पर हाथ लगाया उसने आंखें खोल दीं। थोड़ी देर तक विपिन के चेहरे की ओर देखकर अचानक उसने उनके दोंनों पैर पकड़ लिए और रोते हुए बोली, ‘किशन को आश्रय दे दो। नहीं तो बुखार नहीं छूटेगा। दुर्गा मैया मुझे किसी भी तरह क्षमा नहीं करेंगी।’


विपिन अपने पैर छुड़ाकर उसके पास बैठ गए और सिर पर हाथ फेरते हुए तसल्ली देने लगे।


हेमांगिनी ने पूछा, ‘दोगे आश्रय?’


विपिन ने उसकी आंसू भरी आंखें पोछते हुए कहा, ‘तुम जो चाहोगी वही होगा। तुम अच्छी हो जाओ।’


हेमांगिनी बिना कुछ कहे बिछौने पर जा लेटी। रात को बुखार उत्तर गया। दूसरे दिन विपिन ने उठकर देखा, बुखार नहीं है। वह बहुत प्रसन्न हुए। नहा-धोकर और जलपान करके जब वह दुकान पर जाने लगे तो हेमांगिनी ने उसके पास आकर कहा, ‘मार पड़ने से किशन को बहुत तेज बुखार आ गया है। उसे मैं यहां ले आती हूं।’


विपिन ने झल्लाकर कहा, ‘नहीं, उसे यहां लाने की जरूरत है। जहां है वही रहने दो।’


हेमांगिनी सन्नाटे में खड़ी रह गई। फिर बोली, ‘कल रात तो तुमने वचन दिया था कि आश्रय दोगे?’


विपिन न उपेक्षा से सिर हिलाकर कहा, ‘वह अपना कौन है जो उसे घर लेकर पालन-पोषण करोगी?’ तुम भी खुब हो।’


कल रात को अपनी पत्नी को अत्यत्न बीमार देखकर जो स्वीकार किया था, आज सवेरे उसे स्वस्थ देखकर उन्होंने इंकार कर दिया। छाता बगल में दबाकर उठते हुए बोले, ‘पागलपन मत करो, भैया और भाभी दोनों चिढ़ जाएंगे।’


हेमांगिनी ने शान्त और दृढ़ स्वर में कहा, ‘वह लोग चिढ़कर क्या उसका खून कर डालेंगे? क्या मैं उस लाऊंगी तो दुनिया में कोई उसे रोक सकेगा? मेरे दो बच्चे हैं। कल से तीन हो गए हैं। मैं किशन की मां हूं।’


‘अच्छा देखा जाएगा,’ कहकर विपिन जाने लगे तो हेमांगिनी सामने आकर खड़ी हो गई और बोली, ‘क्या उसे इस घर में नहीं लाने दोगे?’


‘हटो, हटो, कैसा पागलपन करती हो,’ विपिन ने कहा और लाल आंखे दिखाकर चले गए।


हेमांगिनी ने पुकारकर शिब्बू से कहा, ‘शिब्बू जा तो एक बैलगाड़ी ले आ। मैं अपने मैके जाऊंगी।’


विपिन यह सुनकर मन-ही-मन हंस पड़े और बोले, ‘उंह, डर दिखाया जा रहा है।’ फिर वह दुकान पर चले गए।


किशन चंडी मंडप के पास एक ओर फटी चटाई पर बुखार में शरीर की पीड़ा और शायद ह्दय की पीड़ा के कारण बेहोश-सा पड़ा था।


हेमांगिनी ने पुकारा, ‘किशन...।’


किशन इस तरह उठकर खड़ा हो गया जैसे पहले से ही तैयार था।


‘क्या मंझली बहन,’ उसने कहा और इसके साथ ही सलज्ज हंसी से उसका चहेरा चमक उठा जैसे उसके शरीर में कोई रोग या पीड़ा है ही नहीं। वह बड़ी फुर्ती से खड़ा हो गया और अपने दुपट्टे के छोर से फटी हुई चटाई को झाड़ते हुए बोला, ‘बैठो।’


हेमांगिनी ने हाथ पकड़कर उसे कलेजे से लगा लिया और फिर बोली- ‘नहीं भैया, मैं बैठूंगी नहीं, तू मेरे साथ चल। आज तुझे मेरे साथ चलकर मुझे मैके पहुंचा आना होगा।’


‘चलो’, कहकर किशन ने अपनी टूटी हुई छड़ी बगल में दबा ली और फटा हुआ अंगोछा कन्धे पर डाल लिया।


हेमांगिनी के घर के सामने बैलगाड़ी खड़ी थी। किशन को साथ लेकर हेमांगिनी बैल गाड़ी में जा बैठी।


बैलगाड़ी जब गांव से बाहर निकल गई, तब पीछे से पुकार और चिल्लाहट सुनकर गाड़ीवान ने उसे रोक लिया। पसीने से लथपथ और लाल मुंह लिए विपिन वहां पहुंच गए और डरते-डरते पूछने लगे, ‘कहां जा रही हो?’


हेमांगिनी ने किशन की और इशारा करके कहा, ‘इसके गांव जा रही हूं।’


‘लौटोगी कब तक?’


हेमांगिनी ने गंभीर और दृढ़ स्वर में उत्तर दिया, ‘जब भगवान लौटाएंगे तभी लौटूंगी।’


‘क्या मतलब?’


हेमांगिनी ने किशन की ओर हाथ उठाकर कहा, ‘इसे जब कहीं आश्रय मिल जाएगा तभी न अकेली लौटकर आ सकूंगी? नहीं तो इसे लेकर ही रहना पड़ेगा।’


विपिन को याद आ गया कि उस दिन भी उन्होंने अपनी पत्नी के मुख पर यही भाव देखा था और ऐसे ही आवाज सुनी थी, जिस दिन मोती कुम्हार के निस्सहाय भानजे के बाग को बचाने के लिए वह अकेली ही सब लोगों के मुकाबले में खड़ी हो गई थी। उन्हें यह भी याद हो आया कि यह वह मंझली बहू नहीं है, जिसे आंखें दिखाकर किसी काम से रोका जा सके।


विपिन ने नर्मी से कहा, ‘अच्छा, अब क्षमा कर दो ओर घर चलो।’


हेमांगिनी ने हाथ जोड़कर कहा, ‘नहीं, तुम मुझे क्षमा कर दो। मैं काम पूरा किए बिना किसी भी तरह घर लौट नहीं सकूंगी।’


विपिन एक क्षण अपनी पत्नी के शान्त लेकिन दृढ़ चेहरे की ओर देखते रहे। फिर सहसा उन्होंने झुकारर किशन का का दायां हाथ पकड़कर कहा, ‘किशन, अपनी मंझली बहन को घर लौटा ले चल भाई! मैं सौगन्ध खाता हूं कि जब तक मैं जीवित रहूंगा, तब तक दोनों भाई बहन को कोई भी अलग न कर सकेगा। चल भाई अपनी मंझली बहन को घर ले चल।’


समाप्त


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