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ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (दयानन्दसरस्वतीविरचिता)/२९. प्रतिज्ञाविषयः

 

अथ प्रतिज्ञाविषयः संक्षेपतः

अत्र वेदभाष्ये कर्मकाण्डस्य वर्णनं शब्दार्थतः करिष्यते। परन्त्वेतैर्वेदमन्त्रैः कर्मकाण्ड- विनियोजितैर्यत्र यत्राऽग्निहोत्राद्यश्वमेधान्ते यद्यत् कर्त्तव्यं तत्तदत्र विस्तरतो न वर्णयिष्यते। कुतः ? कर्मकाण्डानुष्ठानस्यैतरेय-शतपथब्राह्मण-पूर्वमीमांसाश्रौतसूत्रादिषु यथार्थं विनियोजितत्वात् पुनस्तत्कथनेनानृषिकृतग्रन्थवत् पुनरुक्तपिष्टपेषणदोषापत्तेश्चेति। तस्माद्युक्तिसिद्धो वेदादिप्रमाणानुकूलो मन्त्रार्थानुसृतस्तदुक्तोऽपि विनियोगो ग्रहीतुं योग्योऽस्ति।


तथैवोपासनाकाण्डस्यापि प्रकरणशब्दानुसारतो हि प्रकाशः करिष्यते। कुतोऽस्यैकत्र विशेषस्तु पातञ्जल-योगशास्त्रादिभिर्विज्ञेयोऽस्तीत्यतः। एवमेव ज्ञानकाण्डस्यापि। कुतः ? अस्य विशेषस्तु सांख्यवेदान्तोपनिषदादिशास्त्रानुगतो द्रष्टव्यः। एवं काण्डत्रयेण बोधान्निष्पत्त्युपकारौ गृह्येते , तच्च विज्ञानकाण्डम्। परन्त्वेतत्काण्डचतुष्टयस्य वेदानुसारेण विस्तरस्तद्व्याख्यानेषु ग्रन्थेष्वस्ति। स एव सम्यक् परीक्ष्याविरुद्धोऽर्थो ग्रहीतव्यः। कुतः ? मूलाभावे। शाखादीनामप्रवृत्तेः। एवमेव व्याकरणादिभिर्वेदाङ्गैर्वैदिकशब्दानामुदात्तादिस्वर-विज्ञानं यथार्थं कर्त्तव्यमुच्चारणं च। तत्र यथार्थमुक्तत्वादत्र न वर्ण्यते। एवं पिङ्गलसूत्रच्छन्दोग्रन्थे यथालिखितं छन्दोलक्षणं विज्ञातव्यम्। ' स्वराः षड्जऋषभगान्धारमध्यमपञ्चमधैवतनिषादाः॥1॥


- पिङ्गलशास्त्रे, अ॰ 3। सू॰ 94॥'


इति पिङ्गलाचार्य्यकृतसूत्रानुसारेण प्रतिच्छन्दः स्वरा लेखिष्यन्ते। कुतः ? इदानीं यच्छन्दोऽन्वितो यो मन्त्रस्तस्य स्वस्वरेणैव वादित्रवादनपूर्वक-गानव्यवहाराप्रसिद्धेः। एवमेव वेदानामुपवेदैरायुर्वेदादिभिर्वैद्यकविद्यादयो विशेषा विज्ञेयाः। तथैते सर्वे विशेषार्था अपि वेदमन्त्रार्थभाष्ये बहुधा प्रकाशयिष्यन्ते। एवं वेदार्थप्रकाशेन विज्ञानेन सयुक्तिदृढेन जातेनैव सर्वमनुष्याणां सकलसन्देहनिवृत्तिर्भविष्यति।


अत्र वेदमन्त्राणां संस्कृतप्राकृतभाषाभ्यां सप्रमाणः पदशोऽर्थो लेखिष्यते। यत्र यत्र व्याकरणादि-प्रमाणावश्यकत्वमस्ति तत्तदपि तत्र तत्र लेखिष्यते। येनेदानीन्तनानां वेदार्थविरुद्धानां सनातनव्याख्यानग्रन्थप्रतिकूलानामनर्थकानां वेदव्याख्यानानां निवृत्त्या सर्वेषां मनुष्याणां वेदानां सत्यार्थदर्शनेन तेष्वत्यन्ता प्रीतिर्भविष्यतीति बोध्यम्। संहितामन्त्राणां यथाशास्त्रं यथाबुद्धि च सत्यार्थप्रकाशेन यत्सायणाचार्य्यादिभिः स्वेच्छानुचारतो लोकप्रवृत्त्यनुकूलतश्च लोके प्रतिष्ठार्थं भाष्यं लिखित्वा प्रसिद्धीकृतमनेनात्रानर्थो महान् जातः। तद्द्वारा यूरोपखण्डवासिनामपि वेदेषु भ्रमो जात इति। यदास्मिन्नीश्वरानुग्रहेणर्षिमुनि-महर्षिमहामुनिभिरार्य्यैर्वेदार्थ-गर्भितेष्वैतरेय-ब्राह्मणादिषूक्तप्रमाणान्विते मया कृते भाष्ये प्रसिद्धे जाते सति सर्वमनुष्याणां महान् सुखलाभो भविष्यतीति विज्ञायते।


अथात्र यस्य यस्य मन्त्रस्य पारमार्थिकव्यावहारिकयोर्द्वयोरर्थयोः। श्लेषालङ्कारादिना सप्रमाणः सम्भवोऽस्ति , तस्य तस्य द्वौ द्वावर्थौ विधास्येते। परन्तु नैवेश्वरस्यैकस्मिन्नपि मन्त्रार्थेऽत्यन्तं त्यागो भवति। कुतः निमित्तकारणस्येश्वरस्यास्मिन् कार्य्ये जगति सर्वाङ्गव्याप्तिमत्त्वात् , कार्य्यस्येश्वरेण सहान्वयाच्च। यत्र खलु व्यावहारिकोऽर्थो भवति , तत्रापीश्वररचनानुकूलतयैव सर्वेषां पृथिव्यादिद्रव्याणां सद्भावाच्च एवमेव पारमार्थिकेऽर्थे कृते तस्मिन् कार्य्याऽर्थसम्बन्धात् सोऽप्यर्थ आगच्छतीति।


भाषार्थ - इस वेदभाष्य में शब्द और उनके अर्थद्वारा कर्मकाण्ड का वर्णन करेंगे। परन्तु लोगों को कर्मकाण्ड में लगाये हुए वेदमन्त्रों में से जहां जहां जो जो कर्म अग्निहोत्र से लेके अश्वमेध के अन्त पर्यन्त करने चाहिए, उन का वर्णन यहां नहीं किया जायेगा। क्योंकि उन के अनुष्ठान का यथार्थ विनियोग ऐतरेय शतपथादि ब्राह्मण, पूर्वमीमांसा, श्रौत और गृह्यसूत्रादिकों में कहा हुआ है। उसी को फिर कहने से पिसे को पीसने के समतुल्य अल्पज्ञ पुरुषों के लेख के समान दोष इस भाष्य में भी आ जा सकता है। इसलिये जो जो कर्मकाण्ड वेदानुकूल युक्तिप्रमाणसिद्ध है, उसी को मानना योग्य है, अयुक्त को नहीं।


ऐसे ही उपासनाकाण्डविषयक मन्त्रों के विषय में भी पातञ्जल, सांख्य, वेदान्तशास्त्र और उपनिषदों की रीति से ईश्वर की उपासना जान लेना। परन्तु केवल मूलमन्त्रों ही के अर्थानुकूल का अनुष्ठान और प्रतिकूल का परित्याग करना चाहिए। क्योंकि जो जो मन्त्रार्थ वेदोक्त हैं, सो सब स्वतःप्रमाणरूप और ईश्वर के कहे हुए हैं, और जो जो ग्रन्थ वेदों से भिन्न हैं, वे केवल वेदार्थ के अनुकूल होने से ही प्रामाणिक हैं, ऐसे न हों तो नहीं।


ऐसे ही व्याकरणादि शास्त्रों के बोध से उदात्त, अनुदात्त, स्वरित, एकश्रुति आदि स्वरों का ज्ञान और उच्चारण तथा पिङ्गल सूत्र से छन्दों और षड्जादि स्वरों का ज्ञान अवश्य करना चाहिए। जैसे 'अग्निमीळे॰' यहां अकार के नीचे अनुदात्त का चिह्न, 'ग्नि' उदात्त है, इसलिये उस पर चिह्न नहीं लगाया गया है। 'मी' के ऊपर स्वरित का चिह्न है, 'डे' में प्रचय और एकश्रुति स्वर है यह बात ध्यान में रखना। इसी प्रकार जो जो व्याकरणादि के विषय लिखने के योग्य होंगे, वे सब संक्षेप से आगे लिखे जायेंगे, क्योंकि मनुष्यों को उन के समझने में कठिनता होती है। इसलिये उन के साथ में अन्य प्रामाणिक ग्रन्थों के भी विषय लिखे जायेंगे कि जिन के सहाय से वेदों का अर्थ अच्छी प्रकार विदित हो सके।


इस भाष्य में पद पद का अर्थ पृथक् पृथक् क्रम से लिखा जायगा कि जिस से नवीन टीकाकारों के लेख से जो वेदों में अनेक दोषों की कल्पना की गई हैं, उन सब की निवृत्ति होकर उन के सत्य अर्थों का प्रकाश हो जायगा। तथा जो जो सायण, माधव, महीधर और अग्रेजी वा अन्य भाषा में उलथे वा भाष्य किये जाते वा गये हैं, तथा जो जो देशान्तरभाषाओं में टीका हैं उन अनर्थ व्याख्यानों का निवारण होकर मनुष्यों को वेदों के सत्य अर्थों के देखने से अत्यन्त सुखलाभ पहुंचेगा। क्योंकि विना सत्यार्थ-प्रकाश के देखे मनुष्यों की भ्रमनिवृत्ति कभी नहीं हो सकती। जैसे प्रामाण्याप्रामाण्यविषय में सत्य और असत्य कथाओं के देखने से भ्रम की निवृत्ति हो सकती है, ऐसे ही यहां भी समझ लेना चाहिए। इत्यादि प्रयोजनों के लिये इस वेदभाष्य के बनाने का आरम्भ किया है।


॥इति प्रतिज्ञाविषयः संक्षेपतः॥29॥


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