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सङ्गच्छध्वं सं व॑दध्व॒ स वो मनांसि जानताम् । दे॒वा भागं यथा पूर्वे सञ्जाना॒ना उ॒पासते ॥१॥*

 *सङ्गच्छध्वं सं व॑दध्व॒ स वो मनांसि जानताम् । दे॒वा भागं यथा पूर्वे सञ्जाना॒ना उ॒पासते ॥१॥* 

ऋ० अ० ८। अ० ८। व० ४९ । मं० २॥



भाषार्थ-अब वेदों की रीति से धर्म के लक्षणों का वर्णन किया जाता है- (सं गच्छध्वं) देखो, परमेश्वर हम सभी के लिये धर्म का उपदेश करता है कि, हे मनुष्य लोगो ! जो पक्षपातरहित न्याय सत्याचरण से युक्त धर्म है, तुम लोग उसी को ग्रहण करो, उस से विपरीत कभी मत चलो, किन्तु उसी की प्राप्ति के लिए विरोध को छोड़ के परस्पर सम्मति में रहो, जिस से तुम्हारा उत्तम सुख सब दिन बढ़ता जाय और किसी प्रकार का दुःख न हो (संवदध्वं०) तुम लोग विरुद्ध वाद को छोड़ के परस्पर अर्थात् आपस में प्रीति के साथ पढ़ना पढ़ाना, प्रश्न उत्तर सहित संवाद करो, जिस से तुम्हारी सत्यविद्या नित्य बढ़ती रहे (सं वो मनांसि जानताम्) तुम लोग अपने यथार्थ ज्ञान को नित्य बढ़ाते रहो, जिस से तुम्हारा मन प्रकाशयुक्त होकर पुरुषार्थ को नित्य बढ़ावे, जिस से तुम लोग ज्ञानी होके नित्य आनन्द में बने रहो और तुम लोगों को धर्म का ही सेवन करना चाहिए, अधर्म का नहीं । (देवा भागं यथा०) जैसे पक्षपातरहित धर्मात्मा विद्वान् लोग वेदरीति से सत्यधर्म का आचरण करते हैं, उसी प्रकार से तुम भी करो। क्योंकि धर्म का ज्ञान तीन प्रकार से होता है-एक तो धर्मात्मा विद्वानों की शिक्षा, दूसरा आत्मा की शुद्धि तथा सत्य को जानने की इच्छा, और तीसरा परमेश्वर की कही वेदविद्या को जानने से ही मनुष्यों को सत्य असत्य का यथावत् बोध होता है, अन्यथा नहीं ।।१।।

(ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका )

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