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श्री राम चरित मानस अरण्यकाण्ड

 श्री राम चरित मानस 


          श्री गणेशाय नमः

        श्री जानकीवल्लभो विजयते

         श्री रामचरितमानस

          ----------

          तृतीय सोपान

          (अरण्यकाण्ड)

           श्लोक

      मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददं

      वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्।

      मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शङ्करं

      वन्दे ब्रह्मकुलं कलंकशमनं श्रीरामभूपप्रियम् ॥ १ ॥ 


      सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुन्दरं

      पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम्

      राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं

      सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे ॥ २ ॥ 


 सो.  उमा राम गुन गूढ़ पंडित मुनि पावहिं बिरति। 

      पावहिं मोह बिमूढ़ जे हरि बिमुख न धर्म रति ॥ 

पुर नर भरत प्रीति मैं गाई। मति अनुरूप अनूप सुहाई ॥ 

अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन। करत जे बन सुर नर मुनि भावन ॥ 

एक बार चुनि कुसुम सुहाए। निज कर भूषन राम बनाए ॥ 

सीतहि पहिराए प्रभु सादर। बैठे फटिक सिला पर सुंदर ॥ 

सुरपति सुत धरि बायस बेषा। सठ चाहत रघुपति बल देखा ॥ 

जिमि पिपीलिका सागर थाहा। महा मंदमति पावन चाहा ॥ 

सीता चरन चौंच हति भागा। मूढ़ मंदमति कारन कागा ॥ 

चला रुधिर रघुनायक जाना। सींक धनुष सायक संधाना ॥ 


 दो.  अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह। 

      ता सन आइ कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह ॥ १ ॥ 


प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा। चला भाजि बायस भय पावा ॥ 

धरि निज रुप गयउ पितु पाहीं। राम बिमुख राखा तेहि नाहीं ॥ 

भा निरास उपजी मन त्रासा। जथा चक्र भय रिषि दुर्बासा ॥ 

ब्रह्मधाम सिवपुर सब लोका। फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका ॥ 

काहूँ बैठन कहा न ओही। राखि को सकइ राम कर द्रोही ॥ 

मातु मृत्यु पितु समन समाना। सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना ॥ 

मित्र करइ सत रिपु कै करनी। ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी ॥ 

सब जगु ताहि अनलहु ते ताता। जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता ॥ 

नारद देखा बिकल जयंता। लागि दया कोमल चित संता ॥ 

पठवा तुरत राम पहिं ताही। कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही ॥ 

आतुर सभय गहेसि पद जाई। त्राहि त्राहि दयाल रघुराई ॥ 

अतुलित बल अतुलित प्रभुताई। मैं मतिमंद जानि नहिं पाई ॥ 

निज कृत कर्म जनित फल पायउँ। अब प्रभु पाहि सरन तकि आयउँ ॥ 

सुनि कृपाल अति आरत बानी। एकनयन करि तजा भवानी ॥ 


 सो.  कीन्ह मोह बस द्रोह जद्यपि तेहि कर बध उचित। 

      प्रभु छाड़ेउ करि छोह को कृपाल रघुबीर सम ॥ २ ॥ 


रघुपति चित्रकूट बसि नाना। चरित किए श्रुति सुधा समाना ॥ 

बहुरि राम अस मन अनुमाना। होइहि भीर सबहिं मोहि जाना ॥ 

सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई। सीता सहित चले द्वौ भाई ॥ 

अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ। सुनत महामुनि हरषित भयऊ ॥ 

पुलकित गात अत्रि उठि धाए। देखि रामु आतुर चलि आए ॥ 

करत दंडवत मुनि उर लाए। प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए ॥ 

देखि राम छबि नयन जुड़ाने। सादर निज आश्रम तब आने ॥ 

करि पूजा कहि बचन सुहाए। दिए मूल फल प्रभु मन भाए ॥ 


 सो.  प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि। 

      मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत ॥ ३ ॥ 


 छं.  नमामि भक्त वत्सलं। कृपालु शील कोमलं ॥ 

      भजामि ते पदांबुजं। अकामिनां स्वधामदं ॥ 

      निकाम श्याम सुंदरं। भवाम्बुनाथ मंदरं ॥ 

      प्रफुल्ल कंज लोचनं। मदादि दोष मोचनं ॥ 

      प्रलंब बाहु विक्रमं। प्रभोऽप्रमेय वैभवं ॥ 

      निषंग चाप सायकं। धरं त्रिलोक नायकं ॥ 

      दिनेश वंश मंडनं। महेश चाप खंडनं ॥ 

      मुनींद्र संत रंजनं। सुरारि वृंद भंजनं ॥ 

      मनोज वैरि वंदितं। अजादि देव सेवितं ॥ 

      विशुद्ध बोध विग्रहं। समस्त दूषणापहं ॥ 

      नमामि इंदिरा पतिं। सुखाकरं सतां गतिं ॥ 

      भजे सशक्ति सानुजं। शची पतिं प्रियानुजं ॥ 

      त्वदंघ्रि मूल ये नराः। भजंति हीन मत्सरा ॥ 

      पतंति नो भवार्णवे। वितर्क वीचि संकुले ॥ 

      विविक्त वासिनः सदा। भजंति मुक्तये मुदा ॥ 

      निरस्य इंद्रियादिकं। प्रयांति ते गतिं स्वकं ॥ 

      तमेकमभ्दुतं प्रभुं। निरीहमीश्वरं विभुं ॥ 

      जगद्गुरुं च शाश्वतं। तुरीयमेव केवलं ॥ 

      भजामि भाव वल्लभं। कुयोगिनां सुदुर्लभं ॥ 

      स्वभक्त कल्प पादपं। समं सुसेव्यमन्वहं ॥ 

      अनूप रूप भूपतिं। नतोऽहमुर्विजा पतिं ॥ 

      प्रसीद मे नमामि ते। पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥ 

      पठंति ये स्तवं इदं। नरादरेण ते पदं ॥ 

      व्रजंति नात्र संशयं। त्वदीय भक्ति संयुता ॥ 


 दो.  बिनती करि मुनि नाइ सिरु कह कर जोरि बहोरि। 

      चरन सरोरुह नाथ जनि कबहुँ तजै मति मोरि ॥ ४ ॥ 


          श्री गणेशाय नमः

        श्री जानकीवल्लभो विजयते

         श्री रामचरितमानस

          ----------

          तृतीय सोपान

          (अरण्यकाण्ड)

           श्लोक

      मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददं

      वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्।

      मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शङ्करं

      वन्दे ब्रह्मकुलं कलंकशमनं श्रीरामभूपप्रियम् ॥ १ ॥ 


      सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुन्दरं

      पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम्

      राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं

      सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे ॥ २ ॥ 


 सो.  उमा राम गुन गूढ़ पंडित मुनि पावहिं बिरति। 

      पावहिं मोह बिमूढ़ जे हरि बिमुख न धर्म रति ॥ 

पुर नर भरत प्रीति मैं गाई। मति अनुरूप अनूप सुहाई ॥ 

अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन। करत जे बन सुर नर मुनि भावन ॥ 

एक बार चुनि कुसुम सुहाए। निज कर भूषन राम बनाए ॥ 

सीतहि पहिराए प्रभु सादर। बैठे फटिक सिला पर सुंदर ॥ 

सुरपति सुत धरि बायस बेषा। सठ चाहत रघुपति बल देखा ॥ 

जिमि पिपीलिका सागर थाहा। महा मंदमति पावन चाहा ॥ 

सीता चरन चौंच हति भागा। मूढ़ मंदमति कारन कागा ॥ 

चला रुधिर रघुनायक जाना। सींक धनुष सायक संधाना ॥ 


 दो.  अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह। 

      ता सन आइ कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह ॥ १ ॥ 


प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा। चला भाजि बायस भय पावा ॥ 

धरि निज रुप गयउ पितु पाहीं। राम बिमुख राखा तेहि नाहीं ॥ 

भा निरास उपजी मन त्रासा। जथा चक्र भय रिषि दुर्बासा ॥ 

ब्रह्मधाम सिवपुर सब लोका। फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका ॥ 

काहूँ बैठन कहा न ओही। राखि को सकइ राम कर द्रोही ॥ 

मातु मृत्यु पितु समन समाना। सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना ॥ 

मित्र करइ सत रिपु कै करनी। ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी ॥ 

सब जगु ताहि अनलहु ते ताता। जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता ॥ 

नारद देखा बिकल जयंता। लागि दया कोमल चित संता ॥ 

पठवा तुरत राम पहिं ताही। कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही ॥ 

आतुर सभय गहेसि पद जाई। त्राहि त्राहि दयाल रघुराई ॥ 

अतुलित बल अतुलित प्रभुताई। मैं मतिमंद जानि नहिं पाई ॥ 

निज कृत कर्म जनित फल पायउँ। अब प्रभु पाहि सरन तकि आयउँ ॥ 

सुनि कृपाल अति आरत बानी। एकनयन करि तजा भवानी ॥ 


 सो.  कीन्ह मोह बस द्रोह जद्यपि तेहि कर बध उचित। 

      प्रभु छाड़ेउ करि छोह को कृपाल रघुबीर सम ॥ २ ॥ 


रघुपति चित्रकूट बसि नाना। चरित किए श्रुति सुधा समाना ॥ 

बहुरि राम अस मन अनुमाना। होइहि भीर सबहिं मोहि जाना ॥ 

सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई। सीता सहित चले द्वौ भाई ॥ 

अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ। सुनत महामुनि हरषित भयऊ ॥ 

पुलकित गात अत्रि उठि धाए। देखि रामु आतुर चलि आए ॥ 

करत दंडवत मुनि उर लाए। प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए ॥ 

देखि राम छबि नयन जुड़ाने। सादर निज आश्रम तब आने ॥ 

करि पूजा कहि बचन सुहाए। दिए मूल फल प्रभु मन भाए ॥ 


 सो.  प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि। 

      मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत ॥ ३ ॥ 


 छं.  नमामि भक्त वत्सलं। कृपालु शील कोमलं ॥ 

      भजामि ते पदांबुजं। अकामिनां स्वधामदं ॥ 

      निकाम श्याम सुंदरं। भवाम्बुनाथ मंदरं ॥ 

      प्रफुल्ल कंज लोचनं। मदादि दोष मोचनं ॥ 

      प्रलंब बाहु विक्रमं। प्रभोऽप्रमेय वैभवं ॥ 

      निषंग चाप सायकं। धरं त्रिलोक नायकं ॥ 

      दिनेश वंश मंडनं। महेश चाप खंडनं ॥ 

      मुनींद्र संत रंजनं। सुरारि वृंद भंजनं ॥ 

      मनोज वैरि वंदितं। अजादि देव सेवितं ॥ 

      विशुद्ध बोध विग्रहं। समस्त दूषणापहं ॥ 

      नमामि इंदिरा पतिं। सुखाकरं सतां गतिं ॥ 

      भजे सशक्ति सानुजं। शची पतिं प्रियानुजं ॥ 

      त्वदंघ्रि मूल ये नराः। भजंति हीन मत्सरा ॥ 

      पतंति नो भवार्णवे। वितर्क वीचि संकुले ॥ 

      विविक्त वासिनः सदा। भजंति मुक्तये मुदा ॥ 

      निरस्य इंद्रियादिकं। प्रयांति ते गतिं स्वकं ॥ 

      तमेकमभ्दुतं प्रभुं। निरीहमीश्वरं विभुं ॥ 

      जगद्गुरुं च शाश्वतं। तुरीयमेव केवलं ॥ 

      भजामि भाव वल्लभं। कुयोगिनां सुदुर्लभं ॥ 

      स्वभक्त कल्प पादपं। समं सुसेव्यमन्वहं ॥ 

      अनूप रूप भूपतिं। नतोऽहमुर्विजा पतिं ॥ 

      प्रसीद मे नमामि ते। पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥ 

      पठंति ये स्तवं इदं। नरादरेण ते पदं ॥ 

      व्रजंति नात्र संशयं। त्वदीय भक्ति संयुता ॥ 


 दो.  बिनती करि मुनि नाइ सिरु कह कर जोरि बहोरि। 

      चरन सरोरुह नाथ जनि कबहुँ तजै मति मोरि ॥ ४ ॥ 


अनुसुइया के पद गहि सीता। मिली बहोरि सुसील बिनीता ॥ 

रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई। आसिष देइ निकट बैठाई ॥ 

दिब्य बसन भूषन पहिराए। जे नित नूतन अमल सुहाए ॥ 

कह रिषिबधू सरस मृदु बानी। नारिधर्म कछु ब्याज बखानी ॥ 

मातु पिता भ्राता हितकारी। मितप्रद सब सुनु राजकुमारी ॥ 

अमित दानि भर्ता बयदेही। अधम सो नारि जो सेव न तेही ॥ 

धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी ॥ 

बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। अधं बधिर क्रोधी अति दीना ॥ 

ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना ॥ 

एकइ धर्म एक ब्रत नेमा। कायँ बचन मन पति पद प्रेमा ॥ 

जग पति ब्रता चारि बिधि अहहिं। बेद पुरान संत सब कहहिं ॥ 

उत्तम के अस बस मन माहीं। सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं ॥ 

मध्यम परपति देखइ कैसें। भ्राता पिता पुत्र निज जैंसें ॥ 

धर्म बिचारि समुझि कुल रहई। सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई ॥ 

बिनु अवसर भय तें रह जोई। जानेहु अधम नारि जग सोई ॥ 

पति बंचक परपति रति करई। रौरव नरक कल्प सत परई ॥ 

छन सुख लागि जनम सत कोटि। दुख न समुझ तेहि सम को खोटी ॥ 

बिनु श्रम नारि परम गति लहई। पतिब्रत धर्म छाड़ि छल गहई ॥ 

पति प्रतिकुल जनम जहँ जाई। बिधवा होई पाई तरुनाई ॥ 


 सो.  सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहइ। 

      जसु गावत श्रुति चारि अजहु तुलसिका हरिहि प्रिय ॥ ५क ॥ 


      सनु सीता तव नाम सुमिर नारि पतिब्रत करहि। 

      तोहि प्रानप्रिय राम कहिउँ कथा संसार हित ॥ ५ख ॥ 


सुनि जानकीं परम सुखु पावा। सादर तासु चरन सिरु नावा ॥ 

तब मुनि सन कह कृपानिधाना। आयसु होइ जाउँ बन आना ॥ 

संतत मो पर कृपा करेहू। सेवक जानि तजेहु जनि नेहू ॥ 

धर्म धुरंधर प्रभु कै बानी। सुनि सप्रेम बोले मुनि ग्यानी ॥ 

जासु कृपा अज सिव सनकादी। चहत सकल परमारथ बादी ॥ 

ते तुम्ह राम अकाम पिआरे। दीन बंधु मृदु बचन उचारे ॥ 

अब जानी मैं श्री चतुराई। भजी तुम्हहि सब देव बिहाई ॥ 

जेहि समान अतिसय नहिं कोई। ता कर सील कस न अस होई ॥ 

केहि बिधि कहौं जाहु अब स्वामी। कहहु नाथ तुम्ह अंतरजामी ॥ 

अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि धीरा। लोचन जल बह पुलक सरीरा ॥ 


 छं.  तन पुलक निर्भर प्रेम पुरन नयन मुख पंकज दिए। 

      मन ग्यान गुन गोतीत प्रभु मैं दीख जप तप का किए ॥ 

      जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पावई। 

      रधुबीर चरित पुनीत निसि दिन दास तुलसी गावई ॥ 


 दो.   कलिमल समन दमन मन राम सुजस सुखमूल। 

       सादर सुनहि जे तिन्ह पर राम रहहिं अनुकूल ॥ ६(क) ॥ 


 सो.  कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप।

      परिहरि सकल भरोस रामहि भजहिं ते चतुर नर ॥ ६(ख) ॥ 


मुनि पद कमल नाइ करि सीसा। चले बनहि सुर नर मुनि ईसा ॥ 

आगे राम अनुज पुनि पाछें। मुनि बर बेष बने अति काछें ॥ 

उमय बीच श्री सोहइ कैसी। ब्रह्म जीव बिच माया जैसी ॥ 

सरिता बन गिरि अवघट घाटा। पति पहिचानी देहिं बर बाटा ॥ 

जहँ जहँ जाहि देव रघुराया। करहिं मेध तहँ तहँ नभ छाया ॥ 

मिला असुर बिराध मग जाता। आवतहीं रघुवीर निपाता ॥ 

तुरतहिं रुचिर रूप तेहिं पावा। देखि दुखी निज धाम पठावा ॥ 

पुनि आए जहँ मुनि सरभंगा। सुंदर अनुज जानकी संगा ॥ 


 दो.  देखी राम मुख पंकज मुनिबर लोचन भृंग। 

      सादर पान करत अति धन्य जन्म सरभंग ॥ ७ ॥ 


कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला। संकर मानस राजमराला ॥ 

जात रहेउँ बिरंचि के धामा। सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा ॥ 

चितवत पंथ रहेउँ दिन राती। अब प्रभु देखि जुड़ानी छाती ॥ 

नाथ सकल साधन मैं हीना। कीन्ही कृपा जानि जन दीना ॥ 

सो कछु देव न मोहि निहोरा। निज पन राखेउ जन मन चोरा ॥ 

तब लगि रहहु दीन हित लागी। जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी ॥ 

जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा। प्रभु कहँ देइ भगति बर लीन्हा ॥ 

एहि बिधि सर रचि मुनि सरभंगा। बैठे हृदयँ छाड़ि सब संगा ॥ 


 दो.  सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम। 

      मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरुप श्रीराम ॥ ८ ॥ 


अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। राम कृपाँ बैकुंठ सिधारा ॥ 

ताते मुनि हरि लीन न भयऊ। प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ ॥ 

रिषि निकाय मुनिबर गति देखि। सुखी भए निज हृदयँ बिसेषी ॥ 

अस्तुति करहिं सकल मुनि बृंदा। जयति प्रनत हित करुना कंदा ॥ 

पुनि रघुनाथ चले बन आगे। मुनिबर बृंद बिपुल सँग लागे ॥ 

अस्थि समूह देखि रघुराया। पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया ॥ 

जानतहुँ पूछिअ कस स्वामी। सबदरसी तुम्ह अंतरजामी ॥ 

निसिचर निकर सकल मुनि खाए। सुनि रघुबीर नयन जल छाए ॥ 


 दो.  निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह। 

      सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह ॥ ९ ॥ 


मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना। नाम सुतीछन रति भगवाना ॥ 

मन क्रम बचन राम पद सेवक। सपनेहुँ आन भरोस न देवक ॥ 

प्रभु आगवनु श्रवन सुनि पावा। करत मनोरथ आतुर धावा ॥ 

हे बिधि दीनबंधु रघुराया। मो से सठ पर करिहहिं दाया ॥ 

सहित अनुज मोहि राम गोसाई। मिलिहहिं निज सेवक की नाई ॥ 

मोरे जियँ भरोस दृढ़ नाहीं। भगति बिरति न ग्यान मन माहीं ॥ 

नहिं सतसंग जोग जप जागा। नहिं दृढ़ चरन कमल अनुरागा ॥ 

एक बानि करुनानिधान की। सो प्रिय जाकें गति न आन की ॥ 

होइहैं सुफल आजु मम लोचन। देखि बदन पंकज भव मोचन ॥ 

निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी। कहि न जाइ सो दसा भवानी ॥ 

दिसि अरु बिदिसि पंथ नहिं सूझा। को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा ॥ 

कबहुँक फिरि पाछें पुनि जाई। कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई ॥ 

अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई। प्रभु देखैं तरु ओट लुकाई ॥ 

अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा। प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा ॥ 

मुनि मग माझ अचल होइ बैसा। पुलक सरीर पनस फल जैसा ॥ 

तब रघुनाथ निकट चलि आए। देखि दसा निज जन मन भाए ॥ 

मुनिहि राम बहु भाँति जगावा। जाग न ध्यानजनित सुख पावा ॥ 

भूप रूप तब राम दुरावा। हृदयँ चतुर्भुज रूप देखावा ॥ 

मुनि अकुलाइ उठा तब कैसें। बिकल हीन मनि फनि बर जैसें ॥ 

आगें देखि राम तन स्यामा। सीता अनुज सहित सुख धामा ॥ 

परेउ लकुट इव चरनन्हि लागी। प्रेम मगन मुनिबर बड़भागी ॥ 

भुज बिसाल गहि लिए उठाई। परम प्रीति राखे उर लाई ॥ 

मुनिहि मिलत अस सोह कृपाला। कनक तरुहि जनु भेंट तमाला ॥ 

राम बदनु बिलोक मुनि ठाढ़ा। मानहुँ चित्र माझ लिखि काढ़ा ॥      


 दो.  तब मुनि हृदयँ धीर धीर गहि पद बारहिं बार। 

      निज आश्रम प्रभु आनि करि पूजा बिबिध प्रकार ॥ १० ॥ 


कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी। अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी ॥ 

महिमा अमित मोरि मति थोरी। रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी ॥ 

श्याम तामरस दाम शरीरं। जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं ॥ 

पाणि चाप शर कटि तूणीरं। नौमि निरंतर श्रीरघुवीरं ॥ 

मोह विपिन घन दहन कृशानुः। संत सरोरुह कानन भानुः ॥ 

निशिचर करि वरूथ मृगराजः। त्रातु सदा नो भव खग बाजः ॥ 

अरुण नयन राजीव सुवेशं। सीता नयन चकोर निशेशं ॥ 

हर ह्रदि मानस बाल मरालं। नौमि राम उर बाहु विशालं ॥ 

संशय सर्प ग्रसन उरगादः। शमन सुकर्कश तर्क विषादः ॥ 

भव भंजन रंजन सुर यूथः। त्रातु सदा नो कृपा वरूथः ॥ 

निर्गुण सगुण विषम सम रूपं। ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं ॥ 

अमलमखिलमनवद्यमपारं। नौमि राम भंजन महि भारं ॥ 

भक्त कल्पपादप आरामः। तर्जन क्रोध लोभ मद कामः ॥ 

अति नागर भव सागर सेतुः। त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः ॥ 

अतुलित भुज प्रताप बल धामः। कलि मल विपुल विभंजन नामः ॥ 

धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः। संतत शं तनोतु मम रामः ॥ 

जदपि बिरज ब्यापक अबिनासी। सब के हृदयँ निरंतर बासी ॥ 

तदपि अनुज श्री सहित खरारी। बसतु मनसि मम काननचारी ॥ 

जे जानहिं ते जानहुँ स्वामी। सगुन अगुन उर अंतरजामी ॥ 

जो कोसल पति राजिव नयना। करउ सो राम हृदय मम अयना।

अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे ॥ 

सुनि मुनि बचन राम मन भाए। बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए ॥ 

परम प्रसन्न जानु मुनि मोही। जो बर मागहु देउ सो तोही ॥ 

मुनि कह मै बर कबहुँ न जाचा। समुझि न परइ झूठ का साचा ॥ 

तुम्हहि नीक लागै रघुराई। सो मोहि देहु दास सुखदाई ॥ 

अबिरल भगति बिरति बिग्याना। होहु सकल गुन ग्यान निधाना ॥ 

प्रभु जो दीन्ह सो बरु मैं पावा। अब सो देहु मोहि जो भावा ॥ 


 दो.  अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम। 

      मम हिय गगन इंदु इव बसहु सदा निहकाम ॥ ११ ॥ 


एवमस्तु करि रमानिवासा। हरषि चले कुभंज रिषि पासा ॥ 

बहुत दिवस गुर दरसन पाएँ। भए मोहि एहिं आश्रम आएँ ॥ 

अब प्रभु संग जाउँ गुर पाहीं। तुम्ह कहँ नाथ निहोरा नाहीं ॥ 

देखि कृपानिधि मुनि चतुराई। लिए संग बिहसै द्वौ भाई ॥ 

पंथ कहत निज भगति अनूपा। मुनि आश्रम पहुँचे सुरभूपा ॥ 

तुरत सुतीछन गुर पहिं गयऊ। करि दंडवत कहत अस भयऊ ॥ 

नाथ कौसलाधीस कुमारा। आए मिलन जगत आधारा ॥ 

राम अनुज समेत बैदेही। निसि दिनु देव जपत हहु जेही ॥ 

सुनत अगस्ति तुरत उठि धाए। हरि बिलोकि लोचन जल छाए ॥ 

मुनि पद कमल परे द्वौ भाई। रिषि अति प्रीति लिए उर लाई ॥ 

सादर कुसल पूछि मुनि ग्यानी। आसन बर बैठारे आनी ॥ 

पुनि करि बहु प्रकार प्रभु पूजा। मोहि सम भाग्यवंत नहिं दूजा ॥ 

जहँ लगि रहे अपर मुनि बृंदा। हरषे सब बिलोकि सुखकंदा ॥ 


 दो.  मुनि समूह महँ बैठे सन्मुख सब की ओर। 

      सरद इंदु तन चितवत मानहुँ निकर चकोर ॥ १२ ॥ 


तब रघुबीर कहा मुनि पाहीं। तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाही ॥ 

तुम्ह जानहु जेहि कारन आयउँ। ताते तात न कहि समुझायउँ ॥ 

अब सो मंत्र देहु प्रभु मोही। जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही ॥ 

मुनि मुसकाने सुनि प्रभु बानी। पूछेहु नाथ मोहि का जानी ॥ 

तुम्हरेइँ भजन प्रभाव अघारी। जानउँ महिमा कछुक तुम्हारी ॥ 

ऊमरि तरु बिसाल तव माया। फल ब्रह्मांड अनेक निकाया ॥ 

जीव चराचर जंतु समाना। भीतर बसहि न जानहिं आना ॥ 

ते फल भच्छक कठिन कराला। तव भयँ डरत सदा सोउ काला ॥ 

ते तुम्ह सकल लोकपति साईं। पूँछेहु मोहि मनुज की नाईं ॥ 

यह बर मागउँ कृपानिकेता। बसहु हृदयँ श्री अनुज समेता ॥ 

अबिरल भगति बिरति सतसंगा। चरन सरोरुह प्रीति अभंगा ॥ 

जद्यपि ब्रह्म अखंड अनंता। अनुभव गम्य भजहिं जेहि संता ॥ 

अस तव रूप बखानउँ जानउँ। फिरि फिरि सगुन ब्रह्म रति मानउँ ॥ 

संतत दासन्ह देहु बड़ाई। तातें मोहि पूँछेहु रघुराई ॥ 

है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ। पावन पंचबटी तेहि नाऊँ ॥ 

दंडक बन पुनीत प्रभु करहू। उग्र साप मुनिबर कर हरहू ॥ 

बास करहु तहँ रघुकुल राया। कीजे सकल मुनिन्ह पर दाया ॥ 

चले राम मुनि आयसु पाई। तुरतहिं पंचबटी निअराई ॥ 


 दो.  गीधराज सैं भैंट भइ बहु बिधि प्रीति बढ़ाइ ॥ 

      गोदावरी निकट प्रभु रहे परन गृह छाइ ॥ १३ ॥ 


जब ते राम कीन्ह तहँ बासा। सुखी भए मुनि बीती त्रासा ॥ 

गिरि बन नदीं ताल छबि छाए। दिन दिन प्रति अति हौहिं सुहाए ॥ 

खग मृग बृंद अनंदित रहहीं। मधुप मधुर गंजत छबि लहहीं ॥ 

सो बन बरनि न सक अहिराजा। जहाँ प्रगट रघुबीर बिराजा ॥ 

एक बार प्रभु सुख आसीना। लछिमन बचन कहे छलहीना ॥ 

सुर नर मुनि सचराचर साईं। मैं पूछउँ निज प्रभु की नाई ॥ 

मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा। सब तजि करौं चरन रज सेवा ॥ 

कहहु ग्यान बिराग अरु माया। कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया ॥ 


 दो.   ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ ॥ 

       जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ ॥ १४ ॥ 


थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई। सुनहु तात मति मन चित लाई ॥ 

मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया ॥ 

गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई ॥ 

तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। बिद्या अपर अबिद्या दोऊ ॥ 

एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा। जा बस जीव परा भवकूपा ॥ 

एक रचइ जग गुन बस जाकें। प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें ॥ 

ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं। देख ब्रह्म समान सब माही ॥ 

कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी ॥ 


 दो.  माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव। 

      बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव ॥ १५ ॥ 


धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना। ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना ॥ 

जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई। सो मम भगति भगत सुखदाई ॥ 

सो सुतंत्र अवलंब न आना। तेहि आधीन ग्यान बिग्याना ॥ 

भगति तात अनुपम सुखमूला। मिलइ जो संत होइँ अनुकूला ॥ 

भगति कि साधन कहउँ बखानी। सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी ॥ 

प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती। निज निज कर्म निरत श्रुति रीती ॥ 

एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा। तब मम धर्म उपज अनुरागा ॥ 

श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़ाहीं। मम लीला रति अति मन माहीं ॥ 

संत चरन पंकज अति प्रेमा। मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा ॥ 

गुरु पितु मातु बंधु पति देवा। सब मोहि कहँ जाने दृढ़ सेवा ॥ 

मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा ॥ 

काम आदि मद दंभ न जाकें। तात निरंतर बस मैं ताकें ॥ 


 दो.  बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम ॥ 

      तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा बिश्राम ॥ १६ ॥ 


भगति जोग सुनि अति सुख पावा। लछिमन प्रभु चरनन्हि सिरु नावा ॥ 

एहि बिधि गए कछुक दिन बीती। कहत बिराग ग्यान गुन नीती ॥ 

सूपनखा रावन कै बहिनी। दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी ॥ 

पंचबटी सो गइ एक बारा। देखि बिकल भइ जुगल कुमारा ॥ 

भ्राता पिता पुत्र उरगारी। पुरुष मनोहर निरखत नारी ॥ 

होइ बिकल सक मनहि न रोकी। जिमि रबिमनि द्रव रबिहि बिलोकी ॥ 

रुचिर रुप धरि प्रभु पहिं जाई। बोली बचन बहुत मुसुकाई ॥ 

तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी। यह सँजोग बिधि रचा बिचारी ॥ 

मम अनुरूप पुरुष जग माहीं। देखेउँ खोजि लोक तिहु नाहीं ॥ 

ताते अब लगि रहिउँ कुमारी। मनु माना कछु तुम्हहि निहारी ॥ 

सीतहि चितइ कही प्रभु बाता। अहइ कुआर मोर लघु भ्राता ॥ 

गइ लछिमन रिपु भगिनी जानी। प्रभु बिलोकि बोले मृदु बानी ॥ 

सुंदरि सुनु मैं उन्ह कर दासा। पराधीन नहिं तोर सुपासा ॥ 

प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा। जो कछु करहिं उनहि सब छाजा ॥ 

सेवक सुख चह मान भिखारी। ब्यसनी धन सुभ गति बिभिचारी ॥ 

लोभी जसु चह चार गुमानी। नभ दुहि दूध चहत ए प्रानी ॥ 

पुनि फिरि राम निकट सो आई। प्रभु लछिमन पहिं बहुरि पठाई ॥ 

लछिमन कहा तोहि सो बरई। जो तृन तोरि लाज परिहरई ॥ 

तब खिसिआनि राम पहिं गई। रूप भयंकर प्रगटत भई ॥ 

सीतहि सभय देखि रघुराई। कहा अनुज सन सयन बुझाई ॥ 


 दो.  लछिमन अति लाघवँ सो नाक कान बिनु कीन्हि। 

       ताके कर रावन कहँ मनौ चुनौती दीन्हि ॥ १७ ॥ 


नाक कान बिनु भइ बिकरारा। जनु स्त्रव सैल गैरु कै धारा ॥ 

खर दूषन पहिं गइ बिलपाता। धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता ॥ 

तेहि पूछा सब कहेसि बुझाई। जातुधान सुनि सेन बनाई ॥ 

धाए निसिचर निकर बरूथा। जनु सपच्छ कज्जल गिरि जूथा ॥ 

नाना बाहन नानाकारा। नानायुध धर घोर अपारा ॥ 

सुपनखा आगें करि लीनी। असुभ रूप श्रुति नासा हीनी ॥ 

असगुन अमित होहिं भयकारी। गनहिं न मृत्यु बिबस सब झारी ॥ 

गर्जहि तर्जहिं गगन उड़ाहीं। देखि कटकु भट अति हरषाहीं ॥ 

कोउ कह जिअत धरहु द्वौ भाई। धरि मारहु तिय लेहु छड़ाई ॥ 

धूरि पूरि नभ मंडल रहा। राम बोलाइ अनुज सन कहा ॥ 

लै जानकिहि जाहु गिरि कंदर। आवा निसिचर कटकु भयंकर ॥ 

रहेहु सजग सुनि प्रभु कै बानी। चले सहित श्री सर धनु पानी ॥ 

देखि राम रिपुदल चलि आवा। बिहसि कठिन कोदंड चढ़ावा ॥ 


 छं.  कोदंड कठिन चढ़ाइ सिर जट जूट बाँधत सोह क्यों। 

      मरकत सयल पर लरत दामिनि कोटि सों जुग भुजग ज्यों ॥ 

      कटि कसि निषंग बिसाल भुज गहि चाप बिसिख सुधारि कै ॥ 

      चितवत मनहुँ मृगराज प्रभु गजराज घटा निहारि कै ॥ 


 सो.  आइ गए बगमेल धरहु धरहु धावत सुभट। 

      जथा बिलोकि अकेल बाल रबिहि घेरत दनुज ॥ १८ ॥ 


प्रभु बिलोकि सर सकहिं न डारी। थकित भई रजनीचर धारी ॥ 

सचिव बोलि बोले खर दूषन। यह कोउ नृपबालक नर भूषन ॥ 

नाग असुर सुर नर मुनि जेते। देखे जिते हते हम केते ॥ 

हम भरि जन्म सुनहु सब भाई। देखी नहिं असि सुंदरताई ॥ 

जद्यपि भगिनी कीन्ह कुरूपा। बध लायक नहिं पुरुष अनूपा ॥ 

देहु तुरत निज नारि दुराई। जीअत भवन जाहु द्वौ भाई ॥ 

मोर कहा तुम्ह ताहि सुनावहु। तासु बचन सुनि आतुर आवहु ॥ 

दूतन्ह कहा राम सन जाई। सुनत राम बोले मुसकाई ॥ 

हम छत्री मृगया बन करहीं। तुम्ह से खल मृग खौजत फिरहीं ॥ 

रिपु बलवंत देखि नहिं डरहीं। एक बार कालहु सन लरहीं ॥ 

जद्यपि मनुज दनुज कुल घालक। मुनि पालक खल सालक बालक ॥ 

जौं न होइ बल घर फिरि जाहू। समर बिमुख मैं हतउँ न काहू ॥ 

रन चढ़ि करिअ कपट चतुराई। रिपु पर कृपा परम कदराई ॥ 

दूतन्ह जाइ तुरत सब कहेऊ। सुनि खर दूषन उर अति दहेऊ ॥ 

 छं.  उर दहेउ कहेउ कि धरहु धाए बिकट भट रजनीचरा। 

 सर चाप तोमर सक्ति सूल कृपान परिघ परसु धरा ॥ 

 प्रभु कीन्ह धनुष टकोर प्रथम कठोर घोर भयावहा। 

 भए बधिर ब्याकुल जातुधान न ग्यान तेहि अवसर रहा ॥ 


 दो.  सावधान होइ धाए जानि सबल आराति। 

      लागे बरषन राम पर अस्त्र सस्त्र बहु भाँति ॥ १९(क) ॥ 


      तिन्ह के आयुध तिल सम करि काटे रघुबीर।

      तानि सरासन श्रवन लगि पुनि छाँड़े निज तीर ॥ १९(ख) ॥ 


 छं.  तब चले जान बबान कराल। फुंकरत जनु बहु ब्याल ॥ 

      कोपेउ समर श्रीराम। चले बिसिख निसित निकाम ॥ 

      अवलोकि खरतर तीर। मुरि चले निसिचर बीर ॥ 

      भए क्रुद्ध तीनिउ भाइ। जो भागि रन ते जाइ ॥ 

      तेहि बधब हम निज पानि। फिरे मरन मन महुँ ठानि ॥ 

      आयुध अनेक प्रकार। सनमुख ते करहिं प्रहार ॥ 

      रिपु परम कोपे जानि। प्रभु धनुष सर संधानि ॥ 

      छाँड़े बिपुल नाराच। लगे कटन बिकट पिसाच ॥ 

      उर सीस भुज कर चरन। जहँ तहँ लगे महि परन ॥ 

      चिक्करत लागत बान। धर परत कुधर समान ॥ 

      भट कटत तन सत खंड। पुनि उठत करि पाषंड ॥ 

      नभ उड़त बहु भुज मुंड। बिनु मौलि धावत रुंड ॥ 

      खग कंक काक सृगाल। कटकटहिं कठिन कराल ॥ 


 छं.  कटकटहिं ज़ंबुक भूत प्रेत पिसाच खर्पर संचहीं। 

      बेताल बीर कपाल ताल बजाइ जोगिनि नंचहीं ॥ 

      रघुबीर बान प्रचंड खंडहिं भटन्ह के उर भुज सिरा। 

      जहँ तहँ परहिं उठि लरहिं धर धरु धरु करहिं भयकर गिरा ॥ 

      अंतावरीं गहि उड़त गीध पिसाच कर गहि धावहीं ॥ 

      संग्राम पुर बासी मनहुँ बहु बाल गुड़ी उड़ावहीं ॥ 

      मारे पछारे उर बिदारे बिपुल भट कहँरत परे। 

      अवलोकि निज दल बिकल भट तिसिरादि खर दूषन फिरे ॥ 

      सर सक्ति तोमर परसु सूल कृपान एकहि बारहीं। 

      करि कोप श्रीरघुबीर पर अगनित निसाचर डारहीं ॥ 

      प्रभु निमिष महुँ रिपु सर निवारि पचारि डारे सायका। 

      दस दस बिसिख उर माझ मारे सकल निसिचर नायका ॥ 

      महि परत उठि भट भिरत मरत न करत माया अति घनी। 

      सुर डरत चौदह सहस प्रेत बिलोकि एक अवध धनी ॥ 

      सुर मुनि सभय प्रभु देखि मायानाथ अति कौतुक कर् यो। 

      देखहि परसपर राम करि संग्राम रिपुदल लरि मर् यो ॥ 


 दो.  राम राम कहि तनु तजहिं पावहिं पद निर्बान। 

      करि उपाय रिपु मारे छन महुँ कृपानिधान ॥ २०(क) ॥ 


      हरषित बरषहिं सुमन सुर बाजहिं गगन निसान।

      अस्तुति करि करि सब चले सोभित बिबिध बिमान ॥ २०(ख) ॥ 


जब रघुनाथ समर रिपु जीते। सुर नर मुनि सब के भय बीते ॥ 

तब लछिमन सीतहि लै आए। प्रभु पद परत हरषि उर लाए। 

सीता चितव स्याम मृदु गाता। परम प्रेम लोचन न अघाता ॥ 

पंचवटीं बसि श्रीरघुनायक। करत चरित सुर मुनि सुखदायक ॥ 

धुआँ देखि खरदूषन केरा। जाइ सुपनखाँ रावन प्रेरा ॥ 

बोलि बचन क्रोध करि भारी। देस कोस कै सुरति बिसारी ॥ 

करसि पान सोवसि दिनु राती। सुधि नहिं तव सिर पर आराती ॥ 

राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा ॥ 

बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ। श्रम फल पढ़े किएँ अरु पाएँ ॥ 

संग ते जती कुमंत्र ते राजा। मान ते ग्यान पान तें लाजा ॥ 

प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी। नासहि बेगि नीति अस सुनी ॥ 


 सो.  रिपु रुज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि। 

      अस कहि बिबिध बिलाप करि लागी रोदन करन ॥ २१(क) ॥ 


 दो.  सभा माझ परि ब्याकुल बहु प्रकार कह रोइ। 

      तोहि जिअत दसकंधर मोरि कि असि गति होइ ॥ २१(ख) ॥ 


सुनत सभासद उठे अकुलाई। समुझाई गहि बाहँ उठाई ॥ 

कह लंकेस कहसि निज बाता। केँइँ तव नासा कान निपाता ॥ 

अवध नृपति दसरथ के जाए। पुरुष सिंघ बन खेलन आए ॥ 

समुझि परी मोहि उन्ह कै करनी। रहित निसाचर करिहहिं धरनी ॥ 

जिन्ह कर भुजबल पाइ दसानन। अभय भए बिचरत मुनि कानन ॥ 

देखत बालक काल समाना। परम धीर धन्वी गुन नाना ॥ 

अतुलित बल प्रताप द्वौ भ्राता। खल बध रत सुर मुनि सुखदाता ॥ 

सोभाधाम राम अस नामा। तिन्ह के संग नारि एक स्यामा ॥ 

रुप रासि बिधि नारि सँवारी। रति सत कोटि तासु बलिहारी ॥ 

तासु अनुज काटे श्रुति नासा। सुनि तव भगिनि करहिं परिहासा ॥ 

खर दूषन सुनि लगे पुकारा। छन महुँ सकल कटक उन्ह मारा ॥ 

खर दूषन तिसिरा कर घाता। सुनि दससीस जरे सब गाता ॥ 


 दो.  सुपनखहि समुझाइ करि बल बोलेसि बहु भाँति। 

      गयउ भवन अति सोचबस नीद परइ नहिं राति ॥ २२ ॥ 


सुर नर असुर नाग खग माहीं। मोरे अनुचर कहँ कोउ नाहीं ॥ 

खर दूषन मोहि सम बलवंता। तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता ॥ 

सुर रंजन भंजन महि भारा। जौं भगवंत लीन्ह अवतारा ॥ 

तौ मै जाइ बैरु हठि करऊँ। प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ ॥ 

होइहि भजनु न तामस देहा। मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा ॥ 

जौं नररुप भूपसुत कोऊ। हरिहउँ नारि जीति रन दोऊ ॥ 

चला अकेल जान चढि तहवाँ। बस मारीच सिंधु तट जहवाँ ॥ 

इहाँ राम जसि जुगुति बनाई। सुनहु उमा सो कथा सुहाई ॥ 


 दो.  लछिमन गए बनहिं जब लेन मूल फल कंद। 

      जनकसुता सन बोले बिहसि कृपा सुख बृंद ॥ २३ ॥ 


सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला ॥ 

तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा ॥ 

जबहिं राम सब कहा बखानी। प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी ॥ 

निज प्रतिबिंब राखि तहँ सीता। तैसइ सील रुप सुबिनीता ॥ 

लछिमनहूँ यह मरमु न जाना। जो कछु चरित रचा भगवाना ॥ 

दसमुख गयउ जहाँ मारीचा। नाइ माथ स्वारथ रत नीचा ॥ 

नवनि नीच कै अति दुखदाई। जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई ॥ 

भयदायक खल कै प्रिय बानी। जिमि अकाल के कुसुम भवानी ॥ 


 दो.  करि पूजा मारीच तब सादर पूछी बात। 

      कवन हेतु मन ब्यग्र अति अकसर आयहु तात ॥ २४ ॥ 


दसमुख सकल कथा तेहि आगें। कही सहित अभिमान अभागें ॥ 

होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी। जेहि बिधि हरि आनौ नृपनारी ॥ 

तेहिं पुनि कहा सुनहु दससीसा। ते नररुप चराचर ईसा ॥ 

तासों तात बयरु नहिं कीजे। मारें मरिअ जिआएँ जीजै ॥ 

मुनि मख राखन गयउ कुमारा। बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा ॥ 

सत जोजन आयउँ छन माहीं। तिन्ह सन बयरु किएँ भल नाहीं ॥ 

भइ मम कीट भृंग की नाई। जहँ तहँ मैं देखउँ दोउ भाई ॥ 

जौं नर तात तदपि अति सूरा। तिन्हहि बिरोधि न आइहि पूरा ॥ 


 दो.  जेहिं ताड़का सुबाहु हति खंडेउ हर कोदंड ॥ 

      खर दूषन तिसिरा बधेउ मनुज कि अस बरिबंड ॥ २५ ॥ 


जाहु भवन कुल कुसल बिचारी। सुनत जरा दीन्हिसि बहु गारी ॥ 

गुरु जिमि मूढ़ करसि मम बोधा। कहु जग मोहि समान को जोधा ॥ 

तब मारीच हृदयँ अनुमाना। नवहि बिरोधें नहिं कल्याना ॥ 

सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी। बैद बंदि कबि भानस गुनी ॥ 

उभय भाँति देखा निज मरना। तब ताकिसि रघुनायक सरना ॥ 

उतरु देत मोहि बधब अभागें। कस न मरौं रघुपति सर लागें ॥ 

अस जियँ जानि दसानन संगा। चला राम पद प्रेम अभंगा ॥ 

मन अति हरष जनाव न तेही। आजु देखिहउँ परम सनेही ॥                            


 छं.   निज परम प्रीतम देखि लोचन सुफल करि सुख पाइहौं। 

      श्री सहित अनुज समेत कृपानिकेत पद मन लाइहौं ॥ 

      निर्बान दायक क्रोध जा कर भगति अबसहि बसकरी। 

      निज पानि सर संधानि सो मोहि बधिहि सुखसागर हरी ॥ 


 दो.  मम पाछें धर धावत धरें सरासन बान। 

      फिरि फिरि प्रभुहि बिलोकिहउँ धन्य न मो सम आन ॥ २६ ॥ 


तेहि बन निकट दसानन गयऊ। तब मारीच कपटमृग भयऊ ॥ 

अति बिचित्र कछु बरनि न जाई। कनक देह मनि रचित बनाई ॥ 

सीता परम रुचिर मृग देखा। अंग अंग सुमनोहर बेषा ॥ 

सुनहु देव रघुबीर कृपाला। एहि मृग कर अति सुंदर छाला ॥ 

सत्यसंध प्रभु बधि करि एही। आनहु चर्म कहति बैदेही ॥ 

तब रघुपति जानत सब कारन। उठे हरषि सुर काजु सँवारन ॥ 

मृग बिलोकि कटि परिकर बाँधा। करतल चाप रुचिर सर साँधा ॥ 

प्रभु लछिमनिहि कहा समुझाई। फिरत बिपिन निसिचर बहु भाई ॥ 

सीता केरि करेहु रखवारी। बुधि बिबेक बल समय बिचारी ॥ 

प्रभुहि बिलोकि चला मृग भाजी। धाए रामु सरासन साजी ॥ 

निगम नेति सिव ध्यान न पावा। मायामृग पाछें सो धावा ॥ 

कबहुँ निकट पुनि दूरि पराई। कबहुँक प्रगटइ कबहुँ छपाई ॥ 

प्रगटत दुरत करत छल भूरी। एहि बिधि प्रभुहि गयउ लै दूरी ॥ 

तब तकि राम कठिन सर मारा। धरनि परेउ करि घोर पुकारा ॥ 

लछिमन कर प्रथमहिं लै नामा। पाछें सुमिरेसि मन महुँ रामा ॥ 

प्रान तजत प्रगटेसि निज देहा। सुमिरेसि रामु समेत सनेहा ॥ 

अंतर प्रेम तासु पहिचाना। मुनि दुर्लभ गति दीन्हि सुजाना ॥ 


 दो.  बिपुल सुमन सुर बरषहिं गावहिं प्रभु गुन गाथ। 

      निज पद दीन्ह असुर कहुँ दीनबंधु रघुनाथ ॥ २७ ॥ 


खल बधि तुरत फिरे रघुबीरा। सोह चाप कर कटि तूनीरा ॥ 

आरत गिरा सुनी जब सीता। कह लछिमन सन परम सभीता ॥ 

जाहु बेगि संकट अति भ्राता। लछिमन बिहसि कहा सुनु माता ॥ 

भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई। सपनेहुँ संकट परइ कि सोई ॥ 

मरम बचन जब सीता बोला। हरि प्रेरित लछिमन मन डोला ॥ 

बन दिसि देव सौंपि सब काहू। चले जहाँ रावन ससि राहू ॥ 

सून बीच दसकंधर देखा। आवा निकट जती कें बेषा ॥ 

जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं ॥ 

सो दससीस स्वान की नाई। इत उत चितइ चला भड़िहाई ॥ 

इमि कुपंथ पग देत खगेसा। रह न तेज बुधि बल लेसा ॥ 

नाना बिधि करि कथा सुहाई। राजनीति भय प्रीति देखाई ॥ 

कह सीता सुनु जती गोसाईं। बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं ॥ 

तब रावन निज रूप देखावा। भई सभय जब नाम सुनावा ॥ 

कह सीता धरि धीरजु गाढ़ा। आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाढ़ा ॥ 

जिमि हरिबधुहि छुद्र सस चाहा। भएसि कालबस निसिचर नाहा ॥ 

सुनत बचन दससीस रिसाना। मन महुँ चरन बंदि सुख माना ॥ 


 दो.  क्रोधवंत तब रावन लीन्हिसि रथ बैठाइ। 

      चला गगनपथ आतुर भयँ रथ हाँकि न जाइ ॥ २८ ॥ 


हा जग एक बीर रघुराया। केहिं अपराध बिसारेहु दाया ॥ 

आरति हरन सरन सुखदायक। हा रघुकुल सरोज दिननायक ॥ 

हा लछिमन तुम्हार नहिं दोसा। सो फलु पायउँ कीन्हेउँ रोसा ॥ 

बिबिध बिलाप करति बैदेही। भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही ॥ 

बिपति मोरि को प्रभुहि सुनावा। पुरोडास चह रासभ खावा ॥ 

सीता कै बिलाप सुनि भारी। भए चराचर जीव दुखारी ॥ 

गीधराज सुनि आरत बानी। रघुकुलतिलक नारि पहिचानी ॥ 

अधम निसाचर लीन्हे जाई। जिमि मलेछ बस कपिला गाई ॥ 

सीते पुत्रि करसि जनि त्रासा। करिहउँ जातुधान कर नासा ॥ 

धावा क्रोधवंत खग कैसें। छूटइ पबि परबत कहुँ जैसे ॥ 

रे रे दुष्ट ठाढ़ किन होही। निर्भय चलेसि न जानेहि मोही ॥ 

आवत देखि कृतांत समाना। फिरि दसकंधर कर अनुमाना ॥ 

की मैनाक कि खगपति होई। मम बल जान सहित पति सोई ॥ 

जाना जरठ जटायू एहा। मम कर तीरथ छाँड़िहि देहा ॥ 

सुनत गीध क्रोधातुर धावा। कह सुनु रावन मोर सिखावा ॥ 

तजि जानकिहि कुसल गृह जाहू। नाहिं त अस होइहि बहुबाहू ॥ 

राम रोष पावक अति घोरा। होइहि सकल सलभ कुल तोरा ॥ 

उतरु न देत दसानन जोधा। तबहिं गीध धावा करि क्रोधा ॥ 

धरि कच बिरथ कीन्ह महि गिरा। सीतहि राखि गीध पुनि फिरा ॥ 

चौचन्ह मारि बिदारेसि देही। दंड एक भइ मुरुछा तेही ॥ 

तब सक्रोध निसिचर खिसिआना। काढ़ेसि परम कराल कृपाना ॥ 

काटेसि पंख परा खग धरनी। सुमिरि राम करि अदभुत करनी ॥ 

सीतहि जानि चढ़ाइ बहोरी। चला उताइल त्रास न थोरी ॥ 

करति बिलाप जाति नभ सीता। ब्याध बिबस जनु मृगी सभीता ॥ 

गिरि पर बैठे कपिन्ह निहारी। कहि हरि नाम दीन्ह पट डारी ॥ 

एहि बिधि सीतहि सो लै गयऊ। बन असोक महँ राखत भयऊ ॥ 


 दो.  हारि परा खल बहु बिधि भय अरु प्रीति देखाइ। 

      तब असोक पादप तर राखिसि जतन कराइ ॥ २९(क) ॥ 


          नवान्हपारायण, छठा विश्राम

      जेहि बिधि कपट कुरंग सँग धाइ चले श्रीराम।

      सो छबि सीता राखि उर रटति रहति हरिनाम ॥ २९(ख) ॥ 


रघुपति अनुजहि आवत देखी। बाहिज चिंता कीन्हि बिसेषी ॥ 

जनकसुता परिहरिहु अकेली। आयहु तात बचन मम पेली ॥ 

निसिचर निकर फिरहिं बन माहीं। मम मन सीता आश्रम नाहीं ॥ 

गहि पद कमल अनुज कर जोरी। कहेउ नाथ कछु मोहि न खोरी ॥  

अनुज समेत गए प्रभु तहवाँ। गोदावरि तट आश्रम जहवाँ ॥ 

आश्रम देखि जानकी हीना। भए बिकल जस प्राकृत दीना ॥ 

हा गुन खानि जानकी सीता। रूप सील ब्रत नेम पुनीता ॥ 

लछिमन समुझाए बहु भाँती। पूछत चले लता तरु पाँती ॥ 

हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी ॥ 

खंजन सुक कपोत मृग मीना। मधुप निकर कोकिला प्रबीना ॥ 

कुंद कली दाड़िम दामिनी। कमल सरद ससि अहिभामिनी ॥ 

बरुन पास मनोज धनु हंसा। गज केहरि निज सुनत प्रसंसा ॥ 

श्रीफल कनक कदलि हरषाहीं। नेकु न संक सकुच मन माहीं ॥ 

सुनु जानकी तोहि बिनु आजू। हरषे सकल पाइ जनु राजू ॥ 

किमि सहि जात अनख तोहि पाहीं । प्रिया बेगि प्रगटसि कस नाहीं ॥ 

एहि बिधि खौजत बिलपत स्वामी। मनहुँ महा बिरही अति कामी ॥ 

पूरनकाम राम सुख रासी। मनुज चरित कर अज अबिनासी ॥ 

आगे परा गीधपति देखा। सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा ॥ 


 दो.  कर सरोज सिर परसेउ कृपासिंधु रधुबीर ॥ 

      निरखि राम छबि धाम मुख बिगत भई सब पीर ॥ ३० ॥ 


तब कह गीध बचन धरि धीरा । सुनहु राम भंजन भव भीरा ॥ 

नाथ दसानन यह गति कीन्ही। तेहि खल जनकसुता हरि लीन्ही ॥ 

लै दच्छिन दिसि गयउ गोसाई। बिलपति अति कुररी की नाई ॥ 

दरस लागी प्रभु राखेंउँ प्राना। चलन चहत अब कृपानिधाना ॥ 

राम कहा तनु राखहु ताता। मुख मुसकाइ कही तेहिं बाता ॥ 

जा कर नाम मरत मुख आवा। अधमउ मुकुत होई श्रुति गावा ॥ 

सो मम लोचन गोचर आगें। राखौं देह नाथ केहि खाँगेँ ॥ 

जल भरि नयन कहहिँ रघुराई। तात कर्म निज ते गतिं पाई ॥ 

परहित बस जिन्ह के मन माहीँ। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीँ ॥ 

तनु तजि तात जाहु मम धामा। देउँ काह तुम्ह पूरनकामा ॥ 


 दो.  सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ ॥ 

      जौँ मैँ राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ ॥ ३१ ॥ 


गीध देह तजि धरि हरि रुपा। भूषन बहु पट पीत अनूपा ॥ 

स्याम गात बिसाल भुज चारी। अस्तुति करत नयन भरि बारी ॥ 


 छं.  जय राम रूप अनूप निर्गुन सगुन गुन प्रेरक सही। 

      दससीस बाहु प्रचंड खंडन चंड सर मंडन मही ॥ 

      पाथोद गात सरोज मुख राजीव आयत लोचनं। 

      नित नौमि रामु कृपाल बाहु बिसाल भव भय मोचनं ॥ १ ॥ 


      बलमप्रमेयमनादिमजमब्यक्तमेकमगोचरं।

      गोबिंद गोपर द्वंद्वहर बिग्यानघन धरनीधरं ॥ 

      जे राम मंत्र जपंत संत अनंत जन मन रंजनं। 

      नित नौमि राम अकाम प्रिय कामादि खल दल गंजनं ॥ २।


      जेहि श्रुति निरंजन ब्रह्म ब्यापक बिरज अज कहि गावहीं ॥ 

      करि ध्यान ग्यान बिराग जोग अनेक मुनि जेहि पावहीं ॥ 

      सो प्रगट करुना कंद सोभा बृंद अग जग मोहई। 

      मम हृदय पंकज भृंग अंग अनंग बहु छबि सोहई ॥ ३ ॥ 


      जो अगम सुगम सुभाव निर्मल असम सम सीतल सदा। 

      पस्यंति जं जोगी जतन करि करत मन गो बस सदा ॥ 

      सो राम रमा निवास संतत दास बस त्रिभुवन धनी। 

      मम उर बसउ सो समन संसृति जासु कीरति पावनी ॥ ४ ॥ 


 दो.  अबिरल भगति मागि बर गीध गयउ हरिधाम। 

      तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम ॥ ३२ ॥ 


कोमल चित अति दीनदयाला। कारन बिनु रघुनाथ कृपाला ॥ 

गीध अधम खग आमिष भोगी। गति दीन्हि जो जाचत जोगी ॥ 

सुनहु उमा ते लोग अभागी। हरि तजि होहिं बिषय अनुरागी ॥ 

पुनि सीतहि खोजत द्वौ भाई। चले बिलोकत बन बहुताई ॥ 

संकुल लता बिटप घन कानन। बहु खग मृग तहँ गज पंचानन ॥ 

आवत पंथ कबंध निपाता। तेहिं सब कही साप कै बाता ॥ 

दुरबासा मोहि दीन्ही सापा। प्रभु पद पेखि मिटा सो पापा ॥ 

सुनु गंधर्ब कहउँ मै तोही। मोहि न सोहाइ ब्रह्मकुल द्रोही ॥ 


 दो.  मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव। 

      मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताकें सब देव ॥ ३३ ॥ 


सापत ताड़त परुष कहंता। बिप्र पूज्य अस गावहिं संता ॥ 

पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना ॥ 

कहि निज धर्म ताहि समुझावा। निज पद प्रीति देखि मन भावा ॥ 

रघुपति चरन कमल सिरु नाई। गयउ गगन आपनि गति पाई ॥ 

ताहि देइ गति राम उदारा। सबरी कें आश्रम पगु धारा ॥ 

सबरी देखि राम गृहँ आए। मुनि के बचन समुझि जियँ भाए ॥ 

सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला ॥ 

स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई ॥ 

प्रेम मगन मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा ॥ 

सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुंदर आसन बैठारे ॥ 


 दो.  कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि। 

      प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि ॥ ३४ ॥ 


पानि जोरि आगें भइ ठाढ़ी। प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी ॥ 

केहि बिधि अस्तुति करौ तुम्हारी। अधम जाति मैं जड़मति भारी ॥ 

अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी ॥ 

कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता ॥ 

जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई ॥ 

भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा ॥ 

नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं ॥ 

प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ॥ 


 दो.  गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान। 

      चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान ॥ ३५ ॥ 


मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा ॥ 

छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा ॥ 

सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा ॥ 

आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा ॥ 

नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना ॥ 

नव महुँ एकउ जिन्ह के होई। नारि पुरुष सचराचर कोई ॥ 

सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें ॥ 

जोगि बृंद दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई ॥ 

मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा ॥ 

जनकसुता कइ सुधि भामिनी। जानहि कहु करिबरगामिनी ॥ 

पंपा सरहि जाहु रघुराई। तहँ होइहि सुग्रीव मिताई ॥ 

सो सब कहिहि देव रघुबीरा। जानतहूँ पूछहु मतिधीरा ॥ 

बार बार प्रभु पद सिरु नाई। प्रेम सहित सब कथा सुनाई ॥ 


 छं.  कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदयँ पद पंकज धरे। 

      तजि जोग पावक देह हरि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे ॥ 

      नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू। 

      बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू ॥ 


 दो.  जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि। 

      महामंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि ॥ ३६ ॥ 


चले राम त्यागा बन सोऊ। अतुलित बल नर केहरि दोऊ ॥ 

बिरही इव प्रभु करत बिषादा। कहत कथा अनेक संबादा ॥ 

लछिमन देखु बिपिन कइ सोभा। देखत केहि कर मन नहिं छोभा ॥ 

नारि सहित सब खग मृग बृंदा। मानहुँ मोरि करत हहिं निंदा ॥ 

हमहि देखि मृग निकर पराहीं। मृगीं कहहिं तुम्ह कहँ भय नाहीं ॥ 

तुम्ह आनंद करहु मृग जाए। कंचन मृग खोजन ए आए ॥ 

संग लाइ करिनीं करि लेहीं। मानहुँ मोहि सिखावनु देहीं ॥ 

सास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिअ। भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ ॥ 

राखिअ नारि जदपि उर माहीं। जुबती सास्त्र नृपति बस नाहीं ॥ 

देखहु तात बसंत सुहावा। प्रिया हीन मोहि भय उपजावा ॥ 


 दो.  बिरह बिकल बलहीन मोहि जानेसि निपट अकेल। 

      सहित बिपिन मधुकर खग मदन कीन्ह बगमेल ॥ ३७(क) ॥ 


      देखि गयउ भ्राता सहित तासु दूत सुनि बात।

      डेरा कीन्हेउ मनहुँ तब कटकु हटकि मनजात ॥ ३७(ख) ॥ 


बिटप बिसाल लता अरुझानी। बिबिध बितान दिए जनु तानी ॥ 

कदलि ताल बर धुजा पताका। दैखि न मोह धीर मन जाका ॥ 

बिबिध भाँति फूले तरु नाना। जनु बानैत बने बहु बाना ॥ 

कहुँ कहुँ सुन्दर बिटप सुहाए। जनु भट बिलग बिलग होइ छाए ॥ 

कूजत पिक मानहुँ गज माते। ढेक महोख ऊँट बिसराते ॥ 

मोर चकोर कीर बर बाजी। पारावत मराल सब ताजी ॥ 

तीतिर लावक पदचर जूथा। बरनि न जाइ मनोज बरुथा ॥ 

रथ गिरि सिला दुंदुभी झरना। चातक बंदी गुन गन बरना ॥ 

मधुकर मुखर भेरि सहनाई। त्रिबिध बयारि बसीठीं आई ॥ 

चतुरंगिनी सेन सँग लीन्हें। बिचरत सबहि चुनौती दीन्हें ॥ 

लछिमन देखत काम अनीका। रहहिं धीर तिन्ह कै जग लीका ॥ 

एहि कें एक परम बल नारी। तेहि तें उबर सुभट सोइ भारी ॥ 


 दो.  तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ। 

      मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुँ छोभ ॥ ३८(क) ॥ 


      लोभ कें इच्छा दंभ बल काम कें केवल नारि।

      क्रोध के परुष बचन बल मुनिबर कहहिं बिचारि ॥ ३८(ख) ॥ 


गुनातीत सचराचर स्वामी। राम उमा सब अंतरजामी ॥ 

कामिन्ह कै दीनता देखाई। धीरन्ह कें मन बिरति दृढ़ाई ॥ 

क्रोध मनोज लोभ मद माया। छूटहिं सकल राम कीं दाया ॥ 

सो नर इंद्रजाल नहिं भूला। जा पर होइ सो नट अनुकूला ॥ 

उमा कहउँ मैं अनुभव अपना। सत हरि भजनु जगत सब सपना ॥ 

पुनि प्रभु गए सरोबर तीरा। पंपा नाम सुभग गंभीरा ॥ 

संत हृदय जस निर्मल बारी। बाँधे घाट मनोहर चारी ॥ 

जहँ तहँ पिअहिं बिबिध मृग नीरा। जनु उदार गृह जाचक भीरा ॥ 


 दो.  पुरइनि सबन ओट जल बेगि न पाइअ मर्म। 

      मायाछन्न न देखिऐ जैसे निर्गुन ब्रह्म ॥ ३९(क) ॥ 


      सुखि मीन सब एकरस अति अगाध जल माहिं।

      जथा धर्मसीलन्ह के दिन सुख संजुत जाहिं ॥ ३९(ख) ॥ 


बिकसे सरसिज नाना रंगा। मधुर मुखर गुंजत बहु भृंगा ॥ 

बोलत जलकुक्कुट कलहंसा। प्रभु बिलोकि जनु करत प्रसंसा ॥ 

चक्रवाक बक खग समुदाई। देखत बनइ बरनि नहिं जाई ॥ 

सुन्दर खग गन गिरा सुहाई। जात पथिक जनु लेत बोलाई ॥ 

ताल समीप मुनिन्ह गृह छाए। चहु दिसि कानन बिटप सुहाए ॥ 

चंपक बकुल कदंब तमाला। पाटल पनस परास रसाला ॥ 

नव पल्लव कुसुमित तरु नाना। चंचरीक पटली कर गाना ॥ 

सीतल मंद सुगंध सुभाऊ। संतत बहइ मनोहर बाऊ ॥ 

कुहू कुहू कोकिल धुनि करहीं। सुनि रव सरस ध्यान मुनि टरहीं ॥ 


 दो.  फल भारन नमि बिटप सब रहे भूमि निअराइ। 

      पर उपकारी पुरुष जिमि नवहिं सुसंपति पाइ ॥ ४० ॥ 


देखि राम अति रुचिर तलावा। मज्जनु कीन्ह परम सुख पावा ॥ 

देखी सुंदर तरुबर छाया। बैठे अनुज सहित रघुराया ॥ 

तहँ पुनि सकल देव मुनि आए। अस्तुति करि निज धाम सिधाए ॥ 

बैठे परम प्रसन्न कृपाला। कहत अनुज सन कथा रसाला ॥ 

बिरहवंत भगवंतहि देखी। नारद मन भा सोच बिसेषी ॥ 

मोर साप करि अंगीकारा। सहत राम नाना दुख भारा ॥ 

ऐसे प्रभुहि बिलोकउँ जाई। पुनि न बनिहि अस अवसरु आई ॥ 

यह बिचारि नारद कर बीना। गए जहाँ प्रभु सुख आसीना ॥ 

गावत राम चरित मृदु बानी। प्रेम सहित बहु भाँति बखानी ॥ 

करत दंडवत लिए उठाई। राखे बहुत बार उर लाई ॥ 

स्वागत पूँछि निकट बैठारे। लछिमन सादर चरन पखारे ॥ 


 दो.   नाना बिधि बिनती करि प्रभु प्रसन्न जियँ जानि। 

      नारद बोले बचन तब जोरि सरोरुह पानि ॥ ४१ ॥ 


सुनहु उदार सहज रघुनायक। सुंदर अगम सुगम बर दायक ॥ 

देहु एक बर मागउँ स्वामी। जद्यपि जानत अंतरजामी ॥ 

जानहु मुनि तुम्ह मोर सुभाऊ। जन सन कबहुँ कि करउँ दुराऊ ॥ 

कवन बस्तु असि प्रिय मोहि लागी। जो मुनिबर न सकहु तुम्ह मागी ॥ 

जन कहुँ कछु अदेय नहिं मोरें। अस बिस्वास तजहु जनि भोरें ॥ 

तब नारद बोले हरषाई । अस बर मागउँ करउँ ढिठाई ॥ 

जद्यपि प्रभु के नाम अनेका। श्रुति कह अधिक एक तें एका ॥ 

राम सकल नामन्ह ते अधिका। होउ नाथ अघ खग गन बधिका ॥ 


 दो.  राका रजनी भगति तव राम नाम सोइ सोम। 

      अपर नाम उडगन बिमल बसुहुँ भगत उर ब्योम ॥ ४२(क) ॥ 


      एवमस्तु मुनि सन कहेउ कृपासिंधु रघुनाथ।

      तब नारद मन हरष अति प्रभु पद नायउ माथ ॥ ४२(ख) ॥ 


अति प्रसन्न रघुनाथहि जानी। पुनि नारद बोले मृदु बानी ॥ 

राम जबहिं प्रेरेउ निज माया। मोहेहु मोहि सुनहु रघुराया ॥ 

तब बिबाह मैं चाहउँ कीन्हा। प्रभु केहि कारन करै न दीन्हा ॥ 

सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा। भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा ॥ 

करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी ॥ 

गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई। तहँ राखइ जननी अरगाई ॥ 

प्रौढ़ भएँ तेहि सुत पर माता। प्रीति करइ नहिं पाछिलि बाता ॥ 

मोरे प्रौढ़ तनय सम ग्यानी। बालक सुत सम दास अमानी ॥ 

जनहि मोर बल निज बल ताही। दुहु कहँ काम क्रोध रिपु आही ॥ 

यह बिचारि पंडित मोहि भजहीं। पाएहुँ ग्यान भगति नहिं तजहीं ॥ 


 दो.  काम क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह कै धारि। 

      तिन्ह महँ अति दारुन दुखद मायारूपी नारि ॥ ४३ ॥ 


सुनि मुनि कह पुरान श्रुति संता। मोह बिपिन कहुँ नारि बसंता ॥ 

जप तप नेम जलाश्रय झारी। होइ ग्रीषम सोषइ सब नारी ॥ 

काम क्रोध मद मत्सर भेका। इन्हहि हरषप्रद बरषा एका ॥ 

दुर्बासना कुमुद समुदाई। तिन्ह कहँ सरद सदा सुखदाई ॥ 

धर्म सकल सरसीरुह बृंदा। होइ हिम तिन्हहि दहइ सुख मंदा ॥ 

पुनि ममता जवास बहुताई। पलुहइ नारि सिसिर रितु पाई ॥ 

पाप उलूक निकर सुखकारी। नारि निबिड़ रजनी अँधिआरी ॥ 

बुधि बल सील सत्य सब मीना। बनसी सम त्रिय कहहिं प्रबीना ॥ 


 दो.  अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुख खानि। 

      ताते कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जियँ जानि ॥ ४४ ॥ 


सुनि रघुपति के बचन सुहाए। मुनि तन पुलक नयन भरि आए ॥ 

कहहु कवन प्रभु कै असि रीती। सेवक पर ममता अरु प्रीती ॥ 

जे न भजहिं अस प्रभु भ्रम त्यागी। ग्यान रंक नर मंद अभागी ॥ 

पुनि सादर बोले मुनि नारद। सुनहु राम बिग्यान बिसारद ॥ 

संतन्ह के लच्छन रघुबीरा। कहहु नाथ भव भंजन भीरा ॥ 

सुनु मुनि संतन्ह के गुन कहऊँ। जिन्ह ते मैं उन्ह कें बस रहऊँ ॥ 

षट बिकार जित अनघ अकामा। अचल अकिंचन सुचि सुखधामा ॥ 

अमितबोध अनीह मितभोगी। सत्यसार कबि कोबिद जोगी ॥ 

सावधान मानद मदहीना। धीर धर्म गति परम प्रबीना ॥ 


 दो.  गुनागार संसार दुख रहित बिगत संदेह ॥ 

      तजि मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहुँ देह न गेह ॥ ४५ ॥ 


निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं ॥ 

सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल सुभाउ सबहिं सन प्रीती ॥ 

जप तप ब्रत दम संजम नेमा। गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा ॥ 

श्रद्धा छमा मयत्री दाया। मुदिता मम पद प्रीति अमाया ॥ 

बिरति बिबेक बिनय बिग्याना। बोध जथारथ बेद पुराना ॥ 

दंभ मान मद करहिं न काऊ। भूलि न देहिं कुमारग पाऊ ॥ 

गावहिं सुनहिं सदा मम लीला। हेतु रहित परहित रत सीला ॥ 

मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते। कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते ॥ 


 छं.  कहि सक न सारद सेष नारद सुनत पद पंकज गहे। 

      अस दीनबंधु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे ॥ 

      सिरु नाह बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए ॥ 

      ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए ॥ 


 दो.  रावनारि जसु पावन गावहिं सुनहिं जे लोग। 

      राम भगति दृढ़ पावहिं बिनु बिराग जप जोग ॥ ४६(क) ॥ 


      दीप सिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग।

      भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग ॥ ४६(ख) ॥ 


         मासपारायण, बाईसवाँ विश्राम

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      इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने

         तृतीयः सोपानः समाप्तः।

          (अरण्यकाण्ड समाप्त)

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