श्री राम चरित मानस
॥ राम ॥
श्रीगणेशाय नमः
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
श्रीरामचरितमानस
चतुर्थ सोपान
( किष्किन्धाकाण्ड)
श्लोक
कुन्देन्दीवरसुन्दरावतिबलौ विज्ञानधामावुभौ
शोभाढ्यौ वरधन्विनौ श्रुतिनुतौ गोविप्रवृन्दप्रियौ।
मायामानुषरूपिणौ रघुवरौ सद्धर्मवर्मौं हितौ
सीतान्वेषणतत्परौ पथिगतौ भक्तिप्रदौ तौ हि नः ॥ १ ॥
ब्रह्माम्भोधिसमुद्भवं कलिमलप्रध्वंसनं चाव्ययं
श्रीमच्छम्भुमुखेन्दुसुन्दरवरे संशोभितं सर्वदा।
संसारामयभेषजं सुखकरं श्रीजानकीजीवनं
धन्यास्ते कृतिनः पिबन्ति सततं श्रीरामनामामृतम् ॥ २ ॥
सो. मुक्ति जन्म महि जानि ग्यान खानि अघ हानि कर
जहँ बस संभु भवानि सो कासी सेइअ कस न ॥
जरत सकल सुर बृंद बिषम गरल जेहिं पान किय।
तेहि न भजसि मन मंद को कृपाल संकर सरिस ॥
आगें चले बहुरि रघुराया। रिष्यमूक परवत निअराया ॥
तहँ रह सचिव सहित सुग्रीवा। आवत देखि अतुल बल सींवा ॥
अति सभीत कह सुनु हनुमाना। पुरुष जुगल बल रूप निधाना ॥
धरि बटु रूप देखु तैं जाई। कहेसु जानि जियँ सयन बुझाई ॥
पठए बालि होहिं मन मैला। भागौं तुरत तजौं यह सैला ॥
बिप्र रूप धरि कपि तहँ गयऊ। माथ नाइ पूछत अस भयऊ ॥
को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा। छत्री रूप फिरहु बन बीरा ॥
कठिन भूमि कोमल पद गामी। कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी ॥
मृदुल मनोहर सुंदर गाता। सहत दुसह बन आतप बाता ॥
की तुम्ह तीनि देव महँ कोऊ। नर नारायन की तुम्ह दोऊ ॥
दो. जग कारन तारन भव भंजन धरनी भार।
की तुम्ह अकिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार ॥ १ ॥
कोसलेस दसरथ के जाए । हम पितु बचन मानि बन आए ॥
नाम राम लछिमन दऊ भाई। संग नारि सुकुमारि सुहाई ॥
इहाँ हरि निसिचर बैदेही। बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही ॥
आपन चरित कहा हम गाई। कहहु बिप्र निज कथा बुझाई ॥
प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना। सो सुख उमा नहिं बरना ॥
पुलकित तन मुख आव न बचना। देखत रुचिर बेष कै रचना ॥
पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही। हरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही ॥
मोर न्याउ मैं पूछा साईं। तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं ॥
तव माया बस फिरउँ भुलाना। ता ते मैं नहिं प्रभु पहिचाना ॥
दो. एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान।
पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान ॥ २ ॥
जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें। सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें ॥
नाथ जीव तव मायाँ मोहा। सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा ॥
ता पर मैं रघुबीर दोहाई। जानउँ नहिं कछु भजन उपाई ॥
सेवक सुत पति मातु भरोसें। रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें ॥
अस कहि परेउ चरन अकुलाई। निज तनु प्रगटि प्रीति उर छाई ॥
तब रघुपति उठाइ उर लावा। निज लोचन जल सींचि जुड़ावा ॥
सुनु कपि जियँ मानसि जनि ऊना। तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना ॥
समदरसी मोहि कह सब कोऊ। सेवक प्रिय अनन्यगति सोऊ ॥
दो. सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत ॥ ३ ॥
देखि पवन सुत पति अनुकूला। हृदयँ हरष बीती सब सूला ॥
नाथ सैल पर कपिपति रहई। सो सुग्रीव दास तव अहई ॥
तेहि सन नाथ मयत्री कीजे। दीन जानि तेहि अभय करीजे ॥
सो सीता कर खोज कराइहि। जहँ तहँ मरकट कोटि पठाइहि ॥
एहि बिधि सकल कथा समुझाई। लिए दुऔ जन पीठि चढ़ाई ॥
जब सुग्रीवँ राम कहुँ देखा। अतिसय जन्म धन्य करि लेखा ॥
सादर मिलेउ नाइ पद माथा। भैंटेउ अनुज सहित रघुनाथा ॥
कपि कर मन बिचार एहि रीती। करिहहिं बिधि मो सन ए प्रीती ॥
दो. तब हनुमंत उभय दिसि की सब कथा सुनाइ ॥
पावक साखी देइ करि जोरी प्रीती दृढ़ाइ ॥ ४ ॥
कीन्ही प्रीति कछु बीच न राखा। लछमिन राम चरित सब भाषा ॥
कह सुग्रीव नयन भरि बारी। मिलिहि नाथ मिथिलेसकुमारी ॥
मंत्रिन्ह सहित इहाँ एक बारा। बैठ रहेउँ मैं करत बिचारा ॥
गगन पंथ देखी मैं जाता। परबस परी बहुत बिलपाता ॥
राम राम हा राम पुकारी। हमहि देखि दीन्हेउ पट डारी ॥
मागा राम तुरत तेहिं दीन्हा। पट उर लाइ सोच अति कीन्हा ॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। तजहु सोच मन आनहु धीरा ॥
सब प्रकार करिहउँ सेवकाई। जेहि बिधि मिलिहि जानकी आई ॥
दो. सखा बचन सुनि हरषे कृपासिधु बलसींव।
कारन कवन बसहु बन मोहि कहहु सुग्रीव ॥ ५ ॥
नात बालि अरु मैं द्वौ भाई। प्रीति रही कछु बरनि न जाई ॥
मय सुत मायावी तेहि नाऊँ। आवा सो प्रभु हमरें गाऊँ ॥
अर्ध राति पुर द्वार पुकारा। बाली रिपु बल सहै न पारा ॥
धावा बालि देखि सो भागा। मैं पुनि गयउँ बंधु सँग लागा ॥
गिरिबर गुहाँ पैठ सो जाई। तब बालीं मोहि कहा बुझाई ॥
परिखेसु मोहि एक पखवारा। नहिं आवौं तब जानेसु मारा ॥
मास दिवस तहँ रहेउँ खरारी। निसरी रुधिर धार तहँ भारी ॥
बालि हतेसि मोहि मारिहि आई। सिला देइ तहँ चलेउँ पराई ॥
मंत्रिन्ह पुर देखा बिनु साईं। दीन्हेउ मोहि राज बरिआई ॥
बालि ताहि मारि गृह आवा। देखि मोहि जियँ भेद बढ़ावा ॥
रिपु सम मोहि मारेसि अति भारी। हरि लीन्हेसि सर्बसु अरु नारी ॥
ताकें भय रघुबीर कृपाला। सकल भुवन मैं फिरेउँ बिहाला ॥
इहाँ साप बस आवत नाहीं। तदपि सभीत रहउँ मन माहीँ ॥
सुनि सेवक दुख दीनदयाला। फरकि उठीं द्वै भुजा बिसाला ॥
दो. सुनु सुग्रीव मारिहउँ बालिहि एकहिं बान।
ब्रम्ह रुद्र सरनागत गएँ न उबरिहिं प्रान ॥ ६ ॥
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी ॥
निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना ॥
जिन्ह कें असि मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई ॥
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटे अवगुनन्हि दुरावा ॥
देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई ॥
बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा ॥
आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई ॥
जा कर चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहि भलाई ॥
सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी ॥
सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें ॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। बालि महाबल अति रनधीरा ॥
दुंदुभी अस्थि ताल देखराए। बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए ॥
देखि अमित बल बाढ़ी प्रीती। बालि बधब इन्ह भइ परतीती ॥
बार बार नावइ पद सीसा। प्रभुहि जानि मन हरष कपीसा ॥
उपजा ग्यान बचन तब बोला। नाथ कृपाँ मन भयउ अलोला ॥
सुख संपति परिवार बड़ाई। सब परिहरि करिहउँ सेवकाई ॥
ए सब रामभगति के बाधक। कहहिं संत तब पद अवराधक ॥
सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीं। माया कृत परमारथ नाहीं ॥
बालि परम हित जासु प्रसादा। मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा ॥
सपनें जेहि सन होइ लराई। जागें समुझत मन सकुचाई ॥
अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँती। सब तजि भजनु करौं दिन राती ॥
सुनि बिराग संजुत कपि बानी। बोले बिहँसि रामु धनुपानी ॥
जो कछु कहेहु सत्य सब सोई। सखा बचन मम मृषा न होई ॥
नट मरकट इव सबहि नचावत। रामु खगेस बेद अस गावत ॥
लै सुग्रीव संग रघुनाथा। चले चाप सायक गहि हाथा ॥
तब रघुपति सुग्रीव पठावा। गर्जेसि जाइ निकट बल पावा ॥
सुनत बालि क्रोधातुर धावा। गहि कर चरन नारि समुझावा ॥
सुनु पति जिन्हहि मिलेउ सुग्रीवा। ते द्वौ बंधु तेज बल सींवा ॥
कोसलेस सुत लछिमन रामा। कालहु जीति सकहिं संग्रामा ॥
दो. कह बालि सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ।
जौं कदाचि मोहि मारहिं तौ पुनि होउँ सनाथ ॥ ७ ॥
अस कहि चला महा अभिमानी। तृन समान सुग्रीवहि जानी ॥
भिरे उभौ बाली अति तर्जा । मुठिका मारि महाधुनि गर्जा ॥
तब सुग्रीव बिकल होइ भागा। मुष्टि प्रहार बज्र सम लागा ॥
मैं जो कहा रघुबीर कृपाला। बंधु न होइ मोर यह काला ॥
एकरूप तुम्ह भ्राता दोऊ। तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ ॥
कर परसा सुग्रीव सरीरा। तनु भा कुलिस गई सब पीरा ॥
मेली कंठ सुमन कै माला। पठवा पुनि बल देइ बिसाला ॥
पुनि नाना बिधि भई लराई। बिटप ओट देखहिं रघुराई ॥
दो. बहु छल बल सुग्रीव कर हियँ हारा भय मानि।
मारा बालि राम तब हृदय माझ सर तानि ॥ ८ ॥
परा बिकल महि सर के लागें। पुनि उठि बैठ देखि प्रभु आगें ॥
स्याम गात सिर जटा बनाएँ। अरुन नयन सर चाप चढ़ाएँ ॥
पुनि पुनि चितइ चरन चित दीन्हा। सुफल जन्म माना प्रभु चीन्हा ॥
हृदयँ प्रीति मुख बचन कठोरा। बोला चितइ राम की ओरा ॥
धर्म हेतु अवतरेहु गोसाई। मारेहु मोहि ब्याध की नाई ॥
मैं बैरी सुग्रीव पिआरा। अवगुन कबन नाथ मोहि मारा ॥
अनुज बधू भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी ॥
इन्हहि कुद्दष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई ॥
मुढ़ तोहि अतिसय अभिमाना। नारि सिखावन करसि न काना ॥
मम भुज बल आश्रित तेहि जानी। मारा चहसि अधम अभिमानी ॥
दो. सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरी मोरि।
प्रभु अजहूँ मैं पापी अंतकाल गति तोरि ॥ ९ ॥
सुनत राम अति कोमल बानी। बालि सीस परसेउ निज पानी ॥
अचल करौं तनु राखहु प्राना। बालि कहा सुनु कृपानिधाना ॥
जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं ॥
जासु नाम बल संकर कासी। देत सबहि सम गति अविनासी ॥
मम लोचन गोचर सोइ आवा। बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा ॥
छं. सो नयन गोचर जासु गुन नित नेति कहि श्रुति गावहीं।
जिति पवन मन गो निरस करि मुनि ध्यान कबहुँक पावहीं ॥
मोहि जानि अति अभिमान बस प्रभु कहेउ राखु सरीरही।
अस कवन सठ हठि काटि सुरतरु बारि करिहि बबूरही ॥ १ ॥
अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ।
जेहिं जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ ॥
यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिऐ।
गहि बाहँ सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिऐ ॥ २ ॥
दो. राम चरन दृढ़ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग।
सुमन माल जिमि कंठ ते गिरत न जानइ नाग ॥ १० ॥
राम बालि निज धाम पठावा। नगर लोग सब ब्याकुल धावा ॥
नाना बिधि बिलाप कर तारा। छूटे केस न देह सँभारा ॥
तारा बिकल देखि रघुराया । दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया ॥
छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा ॥
प्रगट सो तनु तव आगें सोवा। जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा ॥
उपजा ग्यान चरन तब लागी। लीन्हेसि परम भगति बर मागी ॥
उमा दारु जोषित की नाई। सबहि नचावत रामु गोसाई ॥
तब सुग्रीवहि आयसु दीन्हा। मृतक कर्म बिधिबत सब कीन्हा ॥
राम कहा अनुजहि समुझाई। राज देहु सुग्रीवहि जाई ॥
रघुपति चरन नाइ करि माथा। चले सकल प्रेरित रघुनाथा ॥
दो. लछिमन तुरत बोलाए पुरजन बिप्र समाज।
राजु दीन्ह सुग्रीव कहँ अंगद कहँ जुबराज ॥ ११ ॥
उमा राम सम हित जग माहीं। गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं ॥
सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती ॥
बालि त्रास ब्याकुल दिन राती। तन बहु ब्रन चिंताँ जर छाती ॥
सोइ सुग्रीव कीन्ह कपिराऊ। अति कृपाल रघुबीर सुभाऊ ॥
जानतहुँ अस प्रभु परिहरहीं। काहे न बिपति जाल नर परहीं ॥
पुनि सुग्रीवहि लीन्ह बोलाई। बहु प्रकार नृपनीति सिखाई ॥
कह प्रभु सुनु सुग्रीव हरीसा। पुर न जाउँ दस चारि बरीसा ॥
गत ग्रीषम बरषा रितु आई। रहिहउँ निकट सैल पर छाई ॥
अंगद सहित करहु तुम्ह राजू। संतत हृदय धरेहु मम काजू ॥
जब सुग्रीव भवन फिरि आए। रामु प्रबरषन गिरि पर छाए ॥
दो. प्रथमहिं देवन्ह गिरि गुहा राखेउ रुचिर बनाइ।
राम कृपानिधि कछु दिन बास करहिंगे आइ ॥ १२ ॥
सुंदर बन कुसुमित अति सोभा। गुंजत मधुप निकर मधु लोभा ॥
कंद मूल फल पत्र सुहाए। भए बहुत जब ते प्रभु आए ॥
देखि मनोहर सैल अनूपा। रहे तहँ अनुज सहित सुरभूपा ॥
मधुकर खग मृग तनु धरि देवा। करहिं सिद्ध मुनि प्रभु कै सेवा ॥
मंगलरुप भयउ बन तब ते । कीन्ह निवास रमापति जब ते ॥
फटिक सिला अति सुभ्र सुहाई। सुख आसीन तहाँ द्वौ भाई ॥
कहत अनुज सन कथा अनेका। भगति बिरति नृपनीति बिबेका ॥
बरषा काल मेघ नभ छाए। गरजत लागत परम सुहाए ॥
दो. लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पैखि।
गृही बिरति रत हरष जस बिष्नु भगत कहुँ देखि ॥ १३ ॥
घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा ॥
दामिनि दमक रह न घन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं ॥
बरषहिं जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ ॥
बूँद अघात सहहिं गिरि कैंसें । खल के बचन संत सह जैसें ॥
छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई ॥
भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी ॥
समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा ॥
सरिता जल जलनिधि महुँ जाई। होई अचल जिमि जिव हरि पाई ॥
दो. हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ।
जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ ॥ १४ ॥
दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई ॥
नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका ॥
अर्क जबास पात बिनु भयऊ। जस सुराज खल उद्यम गयऊ ॥
खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी। करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी ॥
ससि संपन्न सोह महि कैसी। उपकारी कै संपति जैसी ॥
निसि तम घन खद्योत बिराजा। जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा ॥
महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं । जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं ॥
कृषी निरावहिं चतुर किसाना। जिमि बुध तजहिं मोह मद माना ॥
देखिअत चक्रबाक खग नाहीं। कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं ॥
ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा। जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा ॥
बिबिध जंतु संकुल महि भ्राजा। प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा ॥
जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना। जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना ॥
दो. कबहुँ प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं।
जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं ॥ १५(क) ॥
कबहुँ दिवस महँ निबिड़ तम कबहुँक प्रगट पतंग।
बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग ॥ १५(ख) ॥
बरषा बिगत सरद रितु आई। लछिमन देखहु परम सुहाई ॥
फूलें कास सकल महि छाई। जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई ॥
उदित अगस्ति पंथ जल सोषा। जिमि लोभहि सोषइ संतोषा ॥
सरिता सर निर्मल जल सोहा। संत हृदय जस गत मद मोहा ॥
रस रस सूख सरित सर पानी। ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी ॥
जानि सरद रितु खंजन आए। पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए ॥
पंक न रेनु सोह असि धरनी। नीति निपुन नृप कै जसि करनी ॥
जल संकोच बिकल भइँ मीना। अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना ॥
बिनु धन निर्मल सोह अकासा। हरिजन इव परिहरि सब आसा ॥
कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी थोरी। कोउ एक पाव भगति जिमि मोरी ॥
दो. चले हरषि तजि नगर नृप तापस बनिक भिखारि।
जिमि हरिभगत पाइ श्रम तजहि आश्रमी चारि ॥ १६ ॥
सुखी मीन जे नीर अगाधा। जिमि हरि सरन न एकउ बाधा ॥
फूलें कमल सोह सर कैसा। निर्गुन ब्रम्ह सगुन भएँ जैसा ॥
गुंजत मधुकर मुखर अनूपा। सुंदर खग रव नाना रूपा ॥
चक्रबाक मन दुख निसि पैखी। जिमि दुर्जन पर संपति देखी ॥
चातक रटत तृषा अति ओही। जिमि सुख लहइ न संकरद्रोही ॥
सरदातप निसि ससि अपहरई। संत दरस जिमि पातक टरई ॥
देखि इंदु चकोर समुदाई। चितवतहिं जिमि हरिजन हरि पाई ॥
मसक दंस बीते हिम त्रासा। जिमि द्विज द्रोह किएँ कुल नासा ॥
दो. भूमि जीव संकुल रहे गए सरद रितु पाइ।
सदगुर मिले जाहिं जिमि संसय भ्रम समुदाइ ॥ १७ ॥
बरषा गत निर्मल रितु आई। सुधि न तात सीता कै पाई ॥
एक बार कैसेहुँ सुधि जानौं। कालहु जीत निमिष महुँ आनौं ॥
कतहुँ रहउ जौं जीवति होई। तात जतन करि आनेउँ सोई ॥
सुग्रीवहुँ सुधि मोरि बिसारी। पावा राज कोस पुर नारी ॥
जेहिं सायक मारा मैं बाली। तेहिं सर हतौं मूढ़ कहँ काली ॥
जासु कृपाँ छूटहीं मद मोहा। ता कहुँ उमा कि सपनेहुँ कोहा ॥
जानहिं यह चरित्र मुनि ग्यानी। जिन्ह रघुबीर चरन रति मानी ॥
लछिमन क्रोधवंत प्रभु जाना। धनुष चढ़ाइ गहे कर बाना ॥
दो. तब अनुजहि समुझावा रघुपति करुना सींव ॥
भय देखाइ लै आवहु तात सखा सुग्रीव ॥ १८ ॥
इहाँ पवनसुत हृदयँ बिचारा। राम काजु सुग्रीवँ बिसारा ॥
निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा। चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा ॥
सुनि सुग्रीवँ परम भय माना। बिषयँ मोर हरि लीन्हेउ ग्याना ॥
अब मारुतसुत दूत समूहा। पठवहु जहँ तहँ बानर जूहा ॥
कहहु पाख महुँ आव न जोई। मोरें कर ता कर बध होई ॥
तब हनुमंत बोलाए दूता। सब कर करि सनमान बहूता ॥
भय अरु प्रीति नीति देखाई। चले सकल चरनन्हि सिर नाई ॥
एहि अवसर लछिमन पुर आए। क्रोध देखि जहँ तहँ कपि धाए ॥
दो. धनुष चढ़ाइ कहा तब जारि करउँ पुर छार।
ब्याकुल नगर देखि तब आयउ बालिकुमार ॥ १९ ॥
चरन नाइ सिरु बिनती कीन्ही। लछिमन अभय बाँह तेहि दीन्ही ॥
क्रोधवंत लछिमन सुनि काना। कह कपीस अति भयँ अकुलाना ॥
सुनु हनुमंत संग लै तारा। करि बिनती समुझाउ कुमारा ॥
तारा सहित जाइ हनुमाना। चरन बंदि प्रभु सुजस बखाना ॥
करि बिनती मंदिर लै आए। चरन पखारि पलँग बैठाए ॥
तब कपीस चरनन्हि सिरु नावा। गहि भुज लछिमन कंठ लगावा ॥
नाथ बिषय सम मद कछु नाहीं। मुनि मन मोह करइ छन माहीं ॥
सुनत बिनीत बचन सुख पावा। लछिमन तेहि बहु बिधि समुझावा ॥
पवन तनय सब कथा सुनाई। जेहि बिधि गए दूत समुदाई ॥
दो. हरषि चले सुग्रीव तब अंगदादि कपि साथ।
रामानुज आगें करि आए जहँ रघुनाथ ॥ २० ॥
नाइ चरन सिरु कह कर जोरी। नाथ मोहि कछु नाहिन खोरी ॥
अतिसय प्रबल देव तब माया। छूटइ राम करहु जौं दाया ॥
बिषय बस्य सुर नर मुनि स्वामी। मैं पावँर पसु कपि अति कामी ॥
नारि नयन सर जाहि न लागा। घोर क्रोध तम निसि जो जागा ॥
लोभ पाँस जेहिं गर न बँधाया। सो नर तुम्ह समान रघुराया ॥
यह गुन साधन तें नहिं होई। तुम्हरी कृपाँ पाव कोइ कोई ॥
तब रघुपति बोले मुसकाई। तुम्ह प्रिय मोहि भरत जिमि भाई ॥
अब सोइ जतनु करहु मन लाई। जेहि बिधि सीता कै सुधि पाई ॥
दो. एहि बिधि होत बतकही आए बानर जूथ।
नाना बरन सकल दिसि देखिअ कीस बरुथ ॥ २१ ॥
बानर कटक उमा में देखा। सो मूरुख जो करन चह लेखा ॥
आइ राम पद नावहिं माथा। निरखि बदनु सब होहिं सनाथा ॥
अस कपि एक न सेना माहीं। राम कुसल जेहि पूछी नाहीं ॥
यह कछु नहिं प्रभु कइ अधिकाई। बिस्वरूप ब्यापक रघुराई ॥
ठाढ़े जहँ तहँ आयसु पाई। कह सुग्रीव सबहि समुझाई ॥
राम काजु अरु मोर निहोरा। बानर जूथ जाहु चहुँ ओरा ॥
जनकसुता कहुँ खोजहु जाई। मास दिवस महँ आएहु भाई ॥
अवधि मेटि जो बिनु सुधि पाएँ। आवइ बनिहि सो मोहि मराएँ ॥
दो. बचन सुनत सब बानर जहँ तहँ चले तुरंत ।
तब सुग्रीवँ बोलाए अंगद नल हनुमंत ॥ २२ ॥
सुनहु नील अंगद हनुमाना। जामवंत मतिधीर सुजाना ॥
सकल सुभट मिलि दच्छिन जाहू। सीता सुधि पूँछेउ सब काहू ॥
मन क्रम बचन सो जतन बिचारेहु। रामचंद्र कर काजु सँवारेहु ॥
भानु पीठि सेइअ उर आगी। स्वामिहि सर्ब भाव छल त्यागी ॥
तजि माया सेइअ परलोका। मिटहिं सकल भव संभव सोका ॥
देह धरे कर यह फलु भाई। भजिअ राम सब काम बिहाई ॥
सोइ गुनग्य सोई बड़भागी । जो रघुबीर चरन अनुरागी ॥
आयसु मागि चरन सिरु नाई। चले हरषि सुमिरत रघुराई ॥
पाछें पवन तनय सिरु नावा। जानि काज प्रभु निकट बोलावा ॥
परसा सीस सरोरुह पानी। करमुद्रिका दीन्हि जन जानी ॥
बहु प्रकार सीतहि समुझाएहु। कहि बल बिरह बेगि तुम्ह आएहु ॥
हनुमत जन्म सुफल करि माना। चलेउ हृदयँ धरि कृपानिधाना ॥
जद्यपि प्रभु जानत सब बाता। राजनीति राखत सुरत्राता ॥
दो. चले सकल बन खोजत सरिता सर गिरि खोह।
राम काज लयलीन मन बिसरा तन कर छोह ॥ २३ ॥
कतहुँ होइ निसिचर सैं भेटा। प्रान लेहिं एक एक चपेटा ॥
बहु प्रकार गिरि कानन हेरहिं। कोउ मुनि मिलत ताहि सब घेरहिं ॥
लागि तृषा अतिसय अकुलाने। मिलइ न जल घन गहन भुलाने ॥
मन हनुमान कीन्ह अनुमाना। मरन चहत सब बिनु जल पाना ॥
चढ़ि गिरि सिखर चहूँ दिसि देखा। भूमि बिबिर एक कौतुक पेखा ॥
चक्रबाक बक हंस उड़ाहीं। बहुतक खग प्रबिसहिं तेहि माहीं ॥
गिरि ते उतरि पवनसुत आवा। सब कहुँ लै सोइ बिबर देखावा ॥
आगें कै हनुमंतहि लीन्हा। पैठे बिबर बिलंबु न कीन्हा ॥
दो. दीख जाइ उपवन बर सर बिगसित बहु कंज।
मंदिर एक रुचिर तहँ बैठि नारि तप पुंज ॥ २४ ॥
दूरि ते ताहि सबन्हि सिर नावा। पूछें निज बृत्तांत सुनावा ॥
तेहिं तब कहा करहु जल पाना। खाहु सुरस सुंदर फल नाना ॥
मज्जनु कीन्ह मधुर फल खाए। तासु निकट पुनि सब चलि आए ॥
तेहिं सब आपनि कथा सुनाई। मैं अब जाब जहाँ रघुराई ॥
मूदहु नयन बिबर तजि जाहू। पैहहु सीतहि जनि पछिताहू ॥
नयन मूदि पुनि देखहिं बीरा। ठाढ़े सकल सिंधु कें तीरा ॥
सो पुनि गई जहाँ रघुनाथा। जाइ कमल पद नाएसि माथा ॥
नाना भाँति बिनय तेहिं कीन्ही। अनपायनी भगति प्रभु दीन्ही ॥
दो. बदरीबन कहुँ सो गई प्रभु अग्या धरि सीस ।
उर धरि राम चरन जुग जे बंदत अज ईस ॥ २५ ॥
इहाँ बिचारहिं कपि मन माहीं। बीती अवधि काज कछु नाहीं ॥
सब मिलि कहहिं परस्पर बाता। बिनु सुधि लएँ करब का भ्राता ॥
कह अंगद लोचन भरि बारी। दुहुँ प्रकार भइ मृत्यु हमारी ॥
इहाँ न सुधि सीता कै पाई। उहाँ गएँ मारिहि कपिराई ॥
पिता बधे पर मारत मोही। राखा राम निहोर न ओही ॥
पुनि पुनि अंगद कह सब पाहीं। मरन भयउ कछु संसय नाहीं ॥
अंगद बचन सुनत कपि बीरा। बोलि न सकहिं नयन बह नीरा ॥
छन एक सोच मगन होइ रहे। पुनि अस वचन कहत सब भए ॥
हम सीता कै सुधि लिन्हें बिना। नहिं जैंहैं जुबराज प्रबीना ॥
अस कहि लवन सिंधु तट जाई। बैठे कपि सब दर्भ डसाई ॥
जामवंत अंगद दुख देखी। कहिं कथा उपदेस बिसेषी ॥
तात राम कहुँ नर जनि मानहु। निर्गुन ब्रम्ह अजित अज जानहु ॥
दो. निज इच्छा प्रभु अवतरइ सुर महि गो द्विज लागि।
सगुन उपासक संग तहँ रहहिं मोच्छ सब त्यागि ॥ २६ ॥
एहि बिधि कथा कहहि बहु भाँती गिरि कंदराँ सुनी संपाती ॥
बाहेर होइ देखि बहु कीसा। मोहि अहार दीन्ह जगदीसा ॥
आजु सबहि कहँ भच्छन करऊँ। दिन बहु चले अहार बिनु मरऊँ ॥
कबहुँ न मिल भरि उदर अहारा। आजु दीन्ह बिधि एकहिं बारा ॥
डरपे गीध बचन सुनि काना। अब भा मरन सत्य हम जाना ॥
कपि सब उठे गीध कहँ देखी। जामवंत मन सोच बिसेषी ॥
कह अंगद बिचारि मन माहीं। धन्य जटायू सम कोउ नाहीं ॥
राम काज कारन तनु त्यागी । हरि पुर गयउ परम बड़ भागी ॥
सुनि खग हरष सोक जुत बानी । आवा निकट कपिन्ह भय मानी ॥
तिन्हहि अभय करि पूछेसि जाई। कथा सकल तिन्ह ताहि सुनाई ॥
सुनि संपाति बंधु कै करनी। रघुपति महिमा बधुबिधि बरनी ॥
दो. मोहि लै जाहु सिंधुतट देउँ तिलांजलि ताहि ।
बचन सहाइ करवि मैं पैहहु खोजहु जाहि ॥ २७ ॥
अनुज क्रिया करि सागर तीरा। कहि निज कथा सुनहु कपि बीरा ॥
हम द्वौ बंधु प्रथम तरुनाई । गगन गए रबि निकट उडाई ॥
तेज न सहि सक सो फिरि आवा । मै अभिमानी रबि निअरावा ॥
जरे पंख अति तेज अपारा । परेउँ भूमि करि घोर चिकारा ॥
मुनि एक नाम चंद्रमा ओही। लागी दया देखी करि मोही ॥
बहु प्रकार तेंहि ग्यान सुनावा । देहि जनित अभिमानी छड़ावा ॥
त्रेताँ ब्रह्म मनुज तनु धरिही। तासु नारि निसिचर पति हरिही ॥
तासु खोज पठइहि प्रभू दूता। तिन्हहि मिलें तैं होब पुनीता ॥
जमिहहिं पंख करसि जनि चिंता । तिन्हहि देखाइ देहेसु तैं सीता ॥
मुनि कइ गिरा सत्य भइ आजू । सुनि मम बचन करहु प्रभु काजू ॥
गिरि त्रिकूट ऊपर बस लंका । तहँ रह रावन सहज असंका ॥
तहँ असोक उपबन जहँ रहई ॥ सीता बैठि सोच रत अहई ॥
दो. मैं देखउँ तुम्ह नाहि गीघहि दष्टि अपार ॥
बूढ भयउँ न त करतेउँ कछुक सहाय तुम्हार ॥ २८ ॥
जो नाघइ सत जोजन सागर । करइ सो राम काज मति आगर ॥
मोहि बिलोकि धरहु मन धीरा । राम कृपाँ कस भयउ सरीरा ॥
पापिउ जा कर नाम सुमिरहीं। अति अपार भवसागर तरहीं ॥
तासु दूत तुम्ह तजि कदराई। राम हृदयँ धरि करहु उपाई ॥
अस कहि गरुड़ गीध जब गयऊ। तिन्ह कें मन अति बिसमय भयऊ ॥
निज निज बल सब काहूँ भाषा। पार जाइ कर संसय राखा ॥
जरठ भयउँ अब कहइ रिछेसा। नहिं तन रहा प्रथम बल लेसा ॥
जबहिं त्रिबिक्रम भए खरारी। तब मैं तरुन रहेउँ बल भारी ॥
दो. बलि बाँधत प्रभु बाढेउ सो तनु बरनि न जाई।
उभय धरी महँ दीन्ही सात प्रदच्छिन धाइ ॥ २९ ॥
अंगद कहइ जाउँ मैं पारा। जियँ संसय कछु फिरती बारा ॥
जामवंत कह तुम्ह सब लायक। पठइअ किमि सब ही कर नायक ॥
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना ॥
पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना ॥
कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं ॥
राम काज लगि तब अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्वताकारा ॥
कनक बरन तन तेज बिराजा। मानहु अपर गिरिन्ह कर राजा ॥
सिंहनाद करि बारहिं बारा। लीलहीं नाषउँ जलनिधि खारा ॥
सहित सहाय रावनहि मारी। आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी ॥
जामवंत मैं पूँछउँ तोही। उचित सिखावनु दीजहु मोही ॥
एतना करहु तात तुम्ह जाई। सीतहि देखि कहहु सुधि आई ॥
तब निज भुज बल राजिव नैना। कौतुक लागि संग कपि सेना ॥
छं. -कपि सेन संग सँघारि निसिचर रामु सीतहि आनिहैं।
त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानिहैं ॥
जो सुनत गावत कहत समुझत परम पद नर पावई।
रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावई ॥
दो. भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहि जे नर अरु नारि।
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करिहि त्रिसिरारि ॥ ३०(क) ॥
सो. नीलोत्पल तन स्याम काम कोटि सोभा अधिक।
सुनिअ तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खग बधिक ॥ ३०(ख) ॥
मासपारायण, तेईसवाँ विश्राम
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इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने
चतुर्थ सोपानः समाप्तः।
(किष्किन्धाकाण्ड समाप्त)
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