प्रेमाश्रम मुंशी प्रेम चंद
1.
सन्ध्या हो गई है। दिन भर के
थके-माँदे बैल खेत से आ गये हैं। घरों से धुएँ के काले बादल उठने लगे। लखनपुर में
आज परगने के हाकिम की परताल थी। गाँव के नेतागण दिनभर उनके घोड़े के पीछे-पीछे
दौड़ते रहे थे। इस समय वह अलाव के पास बैठे हुए नारियल पी रहे हैं और हाकिमों के
चरित्र पर अपना-अपना मत प्रकट कर रहे हैं। लखनपुर बनारस नगर से बाहर मील पर उत्तर
की ओर एक बड़ा गाँव है। यहाँ अधिकांश कुर्मी और ठाकुरों की बस्ती है, दो-चार
घर अन्य जातियों के भी हैं।
मनोहर ने कहा, भाई
हाकिम तो अँगरेज अगर यह न होते तो इस देश के हाकिम हम लोगों को पीसकर पी जाते।
दुखरन भगत ने इस कथन का समर्थन
किया –
जैसा उनका अकबाल है, वैसा ही नारायण ने स्वभाव
भी दिया है। न्याय करना यही जानते हैं, दूध का दूध और पानी
का पानी, घूस-रिसवत से कुछ मतलब नहीं। आज छोटे साहब को देखो,
मुँह-अंधेरे घोड़े पर सवार हो गए और दिन भर परताल की। तहसीलदार,
पेसकार, कानूनगोय एक भी उनके साथ नहीं पहुँचता
था।
सुक्खू कुर्मी ने कहा – यह
लोग अंगरेजों की क्या बराबरी करेंगे ? बस खाली गाली देना और
इजलास पर गरजना जानते हैं। घर से तो निकलते ही नहीं। जो कुछ चपरासी या पटवारी ने
कह दिया वही मान गए। दिन भर पड़े-पड़े आलसी हो जाते हैं।
मनोहर – सुनते
हैं अँगरेज लोग घी नहीं खाते।
सुक्खू-घी क्यों नहीं खाते ? बिना
घी दूध के इतना बूता कहाँ से होगा ? वह मसक्कत करते हैं,
इसी से उन्हें घी-दूध पच जाता है। हमारे दशी हाकिम खाते तो बहुत हैं
पर खाट पर पड़े रहते हैं। इसी से उनका पेट बढ़ जाता है।
दुखरन भगत – तहसीलदार
साहब तो ऐसे मालूम होते हैं जैसे कोल्हू। अभी पहले आए थे तो कैसे दुबले-पतले थे,
लेकिन दो ही साल में उन्हें न जाने कहाँ की मोटाई लग गई।
सुक्खू – रिसवत
का पैसा देह फुला देता है।
मनोहर – यह
कहने की बात है। तहसीलदार एक पैसा भी नहीं लेते।
सुक्खू – बिना
हराम की कौड़ी खाए देह फूल ही नहीं सकती। मनोहर ने हँसकर कहा-पटवारी की देह क्यों
नहीं फूल जाती, चुचके आम बने हुए हैं।
सुक्खू – पटवारी
सैकड़े-हजार की गठरी थोड़े ही उड़ाता है जब बहुत दाँव-पेंच किया तो दो-चार रुपए
मिल गए। उसकी तनख्वाह तो कानूनगोय ले लेते हैं। इसी छीनझपट पर निर्वाह करता है,
तो देह कहाँ से फूलेगी ? तकावी में देखा नहीं,
तहसीलदार साहब ने हजारों पर हाथ फेर दिया।
दुखरन – कहते
हैं कि विद्या से आदमी की बुद्धि ठीक हो जाती है, पर यहाँ
उलटा ही देखने में आता है। यह हाकिम और अमले तो पढ़े-लिखे विद्वान होते हैं,
लेकिन किसी को दया-धर्म का विचार नहीं होता।
सुक्खू – जब
देश के अभाग आते हैं तो सभी बातें उलटी हो जाती हैं। जब बीमार के मरने के दिन आ
जाते हैं तो औषधि भी औगुन करती है।
मनोहर – हमीं
लोग तो रिसवत देकर उनकी आदत बिगाड़ देते हैं। हम न दें तो वह कैसे पाएँ ! बुरे तो
हम हैं। लेने वाला मिलता हुआ धन थोड़े ही छोड़ देगा ? यहाँ
तो आपस में ही एक दूसरे को खोए जाते हैं। तुम हमें लूटने को तैयार हम तुम्हें
लूटने को तैयार। इसका और क्या फल होगा ?
दुखरन – अरे
तो हम मूरख, गँवार, अपढ़ हैं, वह लोग तो विद्यावान हैं। उन्हें न सोचना चाहिए कि यह गरीब लोग हमारे ही
भाईबन्द हैं। हमें भगवान ने विद्या दी है, तो इन पर निगाह
रखें। इन विद्यावानों से तो हम मूरख ही अच्छे। अन्याय सह लेना अन्याय करने से तो
अच्छा है।
सुक्खू – यह
विद्या का दोष नहीं, देश का अभाग है।
मनोहर – न
विद्या का दोष है, न देश का अभाग, यह
हमारी फूट का फल है। सब अपना दोष है। विद्या से और कुछ नहीं होता तो दूसरों का धन
ऐंठना तो आ जाता है। मूरख रहने से तो अपना धन गँवाना पड़ता है।
सुक्खू – हाँ,
तुमने यह ठीक कहा कि विद्या से दूसरों का धन लेना आ जाता है। हमारे
बड़े सरकार जब तक रहे दो साल की मालगुजारी बाकी पड़ जाती थी, तब भी डाँट-डपट कर छोड़ देते थे। छोटे सरकार जब से मालिक हुए हैं, देखते हो कैसा उपद्रव कर रहे हैं। रात-दिन जाफा, बेदखली,
अखराज की धूम मची हुई है।
दुखरन – कारिन्दा
साहब कल कहते थे कि अबकी इस गाँव की बारी है, देखो क्या होता
है ?
मनोहर – होगा
क्या, तुम हमारे खेत चढ़ोगे, हम
तुम्हारे खेत पर चढ़ेंगे, छोटे सरकार की चाँदी होगी। सरकार
की आँखें तो तब खुलतीं जब कोई किसी के खेत पर दाँव न लगाता। सब कौल कर लेते। लेकिन
यह कहाँ होने वाला है। सबसे पहले सुक्खू महतो दौड़ेंगे।
सुक्खू – कौन
कहे कि मनोहर न दौड़ेंगे।
मनोहर – मुझसे
चाहे गंगाजली उठवा लो, मैं खेत पर न जाऊँगा कैसे, कुछ घर में पूँजी भी तो हो। अभी रब्बी में महीनों की देर है और घर अनाज का
दाना नहीं है। गुड़ एक सौ रुपये से कुछ ऊपर ही हुआ है, लेकिन
बैल बैठाऊँ हो गया है, डेढ़ सौ लगेंगे तब कहीं एक बैल आएगा।
दुखरन – क्या
जाने क्या हो गया कि अब खेती में बरक्कत ही नहीं रही। पाँच बीघे रब्बी बोयी थी,
लेकिन दस मन की भी आशा नहीं है और गुड़ का तो तुम जानते ही हो,
जो हाल हुआ है। कोल्हाड़े में ही विसेसर साह ने तौल लिया। बाल
बच्चों के लिए शीरा तक न बचा। देखें भगवान् कैसे पार लगाते हैं।
अभी यही बातें हो रही थीं कि गिरवर
महाराज आते हुए दिखाई दिए। लम्बा डील था, भरी हुआ बदन, तनी हुई छाती, सिर पर एक पगड़ी, बदन पर एक चुस्त मिरजई। मोटा-सा लट्ठ कन्धे पर रखे हुए थे। उन्हें देखते
ही सब लोग माँचों से उतरकर जमीन पर बैठ गए। यह महाशय जमींदार के चपरासी थे। जबान
से सबके दोस्त, दिल से सब के दुश्मन थे। जमींदार के सामने
जमींदार की-सी कहते थे, असामियों के सामने असमियों की-सी।
इसलिए उनके पीठ पीछे लोग चाहे उनकी कितनी ही बुराइयाँ करें, मुँह
पर कोई कुछ न कहता था।
सुक्खू ने पूछा – कहो
महाराज किधर से ?
गिरधर ने इस ढंग से कहा, मानो
जीवन से असंतुष्ट हैं – किधर से बतायें ज्ञान बाबू के मारे
नाकों दम है। अब हुकुम हुआ है कि असमियों को घी के लिए रुपये दे दो। रुपये सेर का
भाव कटेगा। दिन भर दौड़ते हो गया।
मनोहर – कितने
का घी मिला ?
गिरधर – अभी
तो खाली रुपया बाँट रहे हैं। बड़े सरकार की बरसी होने वाली है। उसी की तैयारी है।
आज कोई 50 रुपये बाँटे हैं।
मनोहर – लेकिन
बाजार-भाव तो दस छटाँक का है।
गिरधर – भाई
हम तो हुक्म के गुलाम है। बाजार में छटाँक भर बिके, हमको तो
सेर भर लेने का हुक्म है। इस गाँव में भी 50 रुपये देने हैं।
बोलो सुक्खू महतो कितना लेते हो ?
सुक्खू ने सिर नीचा करके कहा, जितना
चाहे दे दो, तुम्हारी जमीन में बसे हुए हैं, भाग के कहाँ जाएँगे ?
गिरधर – तुम
बड़े असामी हो। भला दस रुपये तो लो और दुखरन भगत, तुम्हें
कितना दें ?
दुखरन – हमें
भी पाँच रुपये दे दो।
मनोहर – मेरे
घर तो एक ही भैंस लगती है, उसका दूध बाल-बच्चों में उठ जाता
है, घी होता ही नहीं। अगर गाँव में कोई कह दे कि मैंने एक
पैसे का भी घी बेचा है तो 50 रुपये लेने पर तैयार हूँ।
गिरधर – अरे
क्या 5 रुपये भी न लोगे ? भला भगत के
बराबर तो हो जाओ।
मनोहर – भगत
के घर में भैंस लगती है, घी बिकता है, वह
जितना चाहें ले लें। मैं रुपये ले लूँ तो मुझे बाजार में दस छटाँक को मोल लेकर
देना पड़ेगा।
गिरधर – जो
चाहो करो, पर सरकार का हुक्म तो मानना ही पड़ेगा। लालगंज में
30 रुपये दे आया हूँ। वहाँ गाँव में एक भैंस भी नहीं है। लोग
बाजार से ही लेकर देंगे। पड़ाव में 20 रुपये दिए हैं। वहाँ
भी जानते हो किसी के भैंस नहीं है।
मनोहर – भैंस
न होगी तो पास रुपये होंगे। यहाँ तो गाँठ में कौड़ी भी नहीं है।
गिरधर – जब
जमींदार की जमीन जोतते हो तो उसके हुक्म के बाहर नहीं जा सकते।
मनोहर – जमीन
कोई खैरात जोतते हैं। उसका लगान देते हैं। एक किस्त भी बाकी पड़ जाए तो नालिस होती
है।
गिरधर – मनोहर,
घी तो तुम दोगे दोड़ते हुए, पर चार बातें
सुनकर। जमींदार के गाँव में रहकर उससे हेकड़ी नहीं चल सकती। अभी कारिन्दा साहब
बुलाएँगे तो रुपये भी दोगे, हाथ-पैर भी पड़ोगे, मैं सीधे कहता हूँ तो तेवर बदलते हो।
मनोहर ने गरम होकर कहा-कारिन्दा
कोई काटू है न जमींदार कोई हौवा है। यहाँ कोई दबेल नहीं है। जब कौड़ी-कौड़ी लगान
चुकाते है तो धौंस क्यों सहें ?
गिरधर – सरकार
को अभी जानते नहीं हो। बड़े सरकार का जमाना अब नहीं है। इनके चंगुल में एक बार आ
जाओगे तो निकलते न बनेगा।
मनोहर ने क्रोधाग्नि और भी प्रचण्ड
हुई। बोला,
अच्छा जाओ, तोप पर उड़वा देना। गिरधर महाराज
उठ खड़े हुए। सुक्खू और दुखरन ने अब मनोहर के साथ बैठना उचित न समझा। वह भी गिरधर
के साथ चले गए। मनोहर ने इन दोनों आदमियों को तीव्र दृष्टि से देखा और नारियल पीने
लगा।
2.
लखनपुर के जमींदारों का मकान काशी
में औरंगाबाद के निकट था। मकान के दो खण्ड आमने-सामने बने हुए थे। एक जनाना मकान
था,
दूसरी मरदानी बैठक। दोनों खण्डों के बीच की जमीन बेल-बूटे से सजी
हुई थी, दोनों ओर ऊँची दीवारें खींचीं हुई थीं; लेकिन दोनों ही खण्ड जगह-जगह टूट-फूट गये थे। कहीं कोई कड़ी टूट गई थी और
उसे थूनियों के सहारे रोका गया था, कहीं दीवार फट गई थी और
कहीं छत धँस पड़ी थी एक वृद्ध रोगी की तरह जो लाठी के सहारे चलता हो।
किसी समय यह परिवार नगर में बहुत
प्रतिष्ठित था,
किन्तु ऐश्वर्य के अभिमान और कुल-मर्यादा पालन ने उसे धीरे-धीरे
इतना गिरा दिया कि अब मोहल्ले का बनिया पैसे-धेले की चीज भी उनके नाम पर उधार न
देता था। लाला जटाशंकर मरते-मरते मर गए, पर जब घर से निकले
तो पालकी पर। लड़के-लड़कियों के विवाह किये तो हौसले से। कोई उत्सव आता तो हृदय
सरिता की भाँति उमड़ आता था, कोई मेहमान आ जाता तो उसे सर
आँखों पर बैठाते, साधु-सत्कार और अतिथि-सेवा में उन्हें
हार्दिक आनन्द होता था। इसी मर्यादा-रक्षा में जायदाद का बड़ा भाग बिक गया,
कुछ रेहन हो गया और अब लखनपुर के सिवा चार और छोटे-छोटे गाँव रह गये
थे जिनसे कोई चार हजार वार्षिक लाभ होता था।
लाला जटाशंकर के एक छोटे भाई थे।
उनका नाम प्रभाशंकर था। यही सियाह और सफेद के मालिक थे। बड़े लाला साहब को अपनी
भागवत और गीता से परमानुराग था। घर का प्रबंध छोटे भाई के हाथों में था। दोनों
भाइयों में इतना प्रेम था कि उनके बीच में कभी कटु वाक्यों की नौबत न आई थी।
स्त्रियों में तू-तू मैं-मैं होती थी, किन्तु भाइयों पर इसका
असर न पड़ता था। प्रभाशंकर स्वयं कितना ही कष्ट उठाएँ अपने भाई से कभी भूलकर
शिकायत न करते थे। जटाशंकर भी उनके किसी काम में हस्तक्षेप न करते थे।
लाला जटाशंकर का एक साल पूर्व
देहान्त हो गया था। उनकी स्त्री उनके पहले ही मर चुकी थी। उनके दो पुत्र थे, प्रेमशंकर
और ज्ञानशंकर। दोनों के विवाह हो चुके थे। प्रेमशंकर चार-पाँच वर्षों से लापता थे।
उनकी पत्नी श्रद्धा घर में पड़ी उनके नाम को रोया करती थी। ज्ञानशंकर ने गतवर्ष
बी.ए. की उपाधि प्राप्त की थी और इस हारमोनियम बजाने में मग्न रहते थे। उनके एक
पुत्र था, मायाशंकर। लाला प्रभाशंकर की स्त्री जीवित थी।
उनके तीन बेटे और दो बेटियाँ। बड़े बेटे दयाशंकर सब-इंस्पेक्टर थे। विवाह हो चुका
था। बाकी दोनों लड़के अभी मदरसे में अँगरेजी पढ़ते थे। दोनों पुत्रियाँ भी कुँवारी
थीं।
प्रेमशंकर ने बी.ए. की डिग्री लेने
के बाद अमेरिका जाकर आगे पढ़ने की इच्छा की थी, पर जब अपने चाचा को इसका
विरोध करते देखा तो एक दिन चुपके से भाग निकले। घर-वालों से पत्र-व्यवहार करना भी
बंद कर दिया उनके पीछे ज्ञानशंकर ने बाप और चाचा से लड़ाई ठानी। उनकी फजूलखर्चियों
की आलोचना किया करते। कहते, क्या आप हमारे लिए कुछ भी नहीं
छोड़ जाएँगे ? क्या आपकी यह इच्छा है कि हम रोटियों को
मोहताज हो जाएँ ? किन्तु इसका जवाब नहीं मिलता, भाई हम लोग तो जिस प्रकार अब तक निभाते आए हैं उसी प्रकार निभाएँगे। यदि
तुम इससे उत्तम प्रबंध कर सकते हो तो करो, जरा हम भी देखें।
ज्ञानशंकर उस समय कॉलेज में थे, यह चुनौती सुनकर चुप हो जाते
थे। पर जब से वह डिग्री लेकर आए थे और इधर उनके पिता का देहान्त हो चुका था,
घर के प्रबंध में संशोधन करने का यत्न शुरू किया था, जिसका फल यह हुआ था कि उस मेल-मिलाप में बहुत कुछ अन्तर पड़ चुका था,
जो पिछले साठ वर्षों से चला आता था। न चाचा का प्रबंध भतीजे को
पसन्द था, न भतीजे का चाचा को। आए दिन शाब्दिक संग्राम होते
रहते। ज्ञानशंकर कहते, आपने सारी जायदाद चौपट कर दी। हम
लोगों को कहीं का न रखा। सारा जीवन खाट पर पड़े-पड़े पूर्वजों की कमाई खाने में
काट दिया। मर्यादा-रक्षा की तारीफ तो तब थी जब अपने बाहुबल से कुछ करते, या जायदाद को बचाकर करते। घर बेचकर तमाशा देखना और कौन-सा मुश्किल काम है।
लाला प्रभाशंकर यह कटु वाक्य सुनकर अपने भाई को याद करते और उनका नाम लेकर रोने
लगते। यह चोटें उनसे सही न जाती थीं।
लाला जटाशंकर की बरसी के लिए
प्रभाशंकर ने दो हजार का अनुमान किया था। एक हजार ब्राह्मणों का भोज होने वाला था।
नगर भर के समस्त प्रतिष्ठित पुरुषों का निमंत्रण देने का विचार था। इसके सिवा
चाँदी के बर्तन,
कालीन, पलंग, वस्त्र आदि
महापात्र देने के लिए बन रहे थे। ज्ञानशंकर इसे धन का अपव्यय समझते थे। उनकी राय
थी कि इस कार्य में दो रुपये से अधिक खर्च न किया जाए। जब घर की दशा ऐसी चिन्ताजनक
है तो इतने रुपये खर्च करना सर्वथा अनुचित है; किन्तु
प्रभाशंकर कहते थे, जब मैं मर जाऊँ तब तुम चाहे अपने बाप को
एक-एक बूँद पानी के लिए तरसाना; पर जब तक मेरे दम में दम है,
मैं उनकी आत्मा को दु:खी नहीं कर सकता। सारे नगर में उनकी उदारता की
धूम थी। बड़े-बड़े उनके सामने सिर झुका लेते थे। ऐसे प्रतिभाशाली पुरुष की बरसी भी
यथायोग्य होनी चाहिए। यही हमारी श्रद्धा और प्रेम का अन्तिम प्रमाण है।
ज्ञानशंकर के हृदय में भावी उन्नति
की बड़ी-बड़ी अभिलाषाएँ थीं। वह अपने परिवार को फिर समृद्ध और सम्मान के शिखर पर
ले जाना चाहते थे। घोड़े और फिटन की उन्हें बड़ी-बड़ी आकांक्षा थी। वह शान से फिटन
पर बैठकर निकलना चाहते थे कि हठात् लोगों की आँखें उनकी तरफ उठ जाएँ और लोग कहें
कि लाला जटाशंकर के बेटे हैं। वह अपने दीवान खाने को नाना प्रकार की सामग्रियों से
सजाना चाहते थे। मकान को भी आवश्यकतानुसार बढ़ाना चाहते थे। वे घण्टों एकाग्र बैठे
हुए इन्हीं विचारों में मग्न रहते थे। चैन से जीवन व्यतीत हो, यही
उनका ध्येय था। वर्तमान दशा में मितव्ययिता के सिवा उन्हें कोई दूसरा उपाय न सूझता
था। कोई छोटी-मोटी नौकरी करने में वह अपमान समझते थे; वकालत
से उन्हें अरुचि थी और उच्चधिकारों का द्वार उनके लिए बन्द था। उनका घराना शहर में
चाहे कितना ही सम्मानित हो पर देश-विधाताओं की दृष्टि में उसे वह गौरव प्राप्त न
था जो उच्चाधिकार-सिद्धि का अनुष्ठान है। लाला जटाशंकर तो विरक्त ही थे और
प्रभाशंकर केवल जिलाधीशों की कृपा-दृष्टि को अपने लिए काफी समझते थे। इसका फल जो
कुछ हो सकता था वह उन्हें मिल चुका था। उनके बड़े बेटे दयाशंकर सब-इंसपेक्टर हो गए
थे। ज्ञानशंकर कभी-कभी इस अकर्मण्यता के लिए अपने चाचा से उलझा करते थे – आपने अपना सारा जीवन नष्ट कर दिया। लाखों की जायदाद भोग-विलास में उड़ा
दी। सदा आतिथ्य सत्कार और मर्यादा-रक्षा पर जान देते रहे। अगर इस उत्साह का एक अंश
भी अधिकारी वर्ग के सेवा-सत्कार में समर्पण करते तो आज मैं डिप्टी कलेक्टर होता
खानेवाले खा-खाकर चल दिए। अब उन्हें याद भी नहीं रहा कि आपने कभी उन्हें खिलाया या
नहीं। खस्ता कचौड़ियाँ और सोने के पत्र लगे हुए पान के बीड़े खिलाने से परिवार की
उन्नति नहीं होती, इसके और ही रास्ते हैं। बेचारे प्रभाशंकर
यह तिरस्कार सुनकर व्यथित होते और कहते, बेटा, ऐसी-ऐसी बातें करके हमें न जलाओ। तुम फिटन और घोड़ा, कुर्सी और मेज, आईने और तस्वीरों पर जान देते हो।
तुम चाहते हो कि हम अच्छे से अच्छा खाएँ, अच्छे से अच्छा
पहनें, लेकिन खाने पहनने से दूसरों को क्या सुख होगा ?
तुम्हारे धन और सम्पत्ति से दूसरे
क्या लाभ उठाएँगे ?
हमने भोग-विलास में जीवन नहीं बिताया। वह कुल-मर्यादा की रक्षा थी।
विलासिता यह है, जिसके पीछे तुम उन्मत्त हो। हमने जो कुछ
किया नाम के लिए किया। घर में उपवास हो गया है, लेकिन जब कोई
मेहमान आ गया तो उसे सिर और आँखों पर लेते थे तुमको बस अपना पेट भरने की, अपने शौक की, अपने विलास की धुन है। यह जायदाद बनाने
के नहीं बिगाड़ने के लक्षण हैं। अन्तर इतना ही है कि हमने दूसरों के लिए बिगाड़ा
तुम अपने लिए बिगाड़ोगे। मुसीबत यह थी कि स्त्री विद्यावती भी इन विचारों में अपने
पति से सहमत न थी। उसके विचार बहुत-कुछ विचार लाला प्रभाशंकर से मिलते थे। उसे
परमार्थ पर स्वार्थ से अधिक श्रद्धा थी। उसे बाबू ज्ञानशंकर को अपने चाचा से
वाद-विवाद करते देखकर खेद होता था और अक्सर मिलने पर वह उन्हें समझाने की चेष्टा
करती थी। पर ज्ञानशंकर उसे झिड़क दिया करता थे। वह इतने शिक्षित होकर भी स्त्री का
आदर उससे अधिक न करते थे, जितना अपने पैर के जूतों का। अतएव
उनका दाम्पत्य जीवन भी, जो चित्त की शान्ति का एक प्रधान
साधन था, सुखकर न था।
3.
मनोहर अक्खड़पन की बातें तो कर
बैठा;
किन्तु जब क्रोध शान्त हुआ तो मालूम हुआ कि मुझसे बड़ी भूल हुई।
गाँव वाले सब-के-सब मेरे दुश्मन हैं। वह इस समय चौपाल में बैठे मेरी निन्दा कर रहे
होंगे। कारिंदा न जाने कौन-से उपद्रव मचाए। बेचारे दुर्जन को बात-की-बात में
मटियामेट कर दिया, तो फिर मुझे बिगाड़ते क्या देर लगती है।
मैं अपनी जबान से लाचार हूँ। कितना ही उसे बस में रखना चाहता हूँ, पर नहीं रख सकता। यही न होता कि जहाँ और सब लेना-देना है वहाँ दस रुपये और
हो जाते, नक्कू तो न बनता। लेकिन इन विचारों ने एक क्षण में
फिर पलटा खाया। मनुष्य जिस काम को हृदय से बुरा नहीं समझता, उसके
कुपरिणाम का भय एक गौरवपूर्ण धैर्य की शरण लिया करता है। मनोहर अब इस विचार से
अपने को शान्ति देने लगा, मैं बिगड़ जाऊँगा तो बला से,
पर किसी की धौंस तो न सहूँगा, किसी के सामने
सिर तो नीचा नहीं करता। जमींदार भी देख लें कि गाँव में सब-के-सब भाँड़ ही नहीं
हैं। अगर कोई मामला खड़ा किया तो अदालत में हाकिम के सामने सारा भण्डा फोड़ दूँगा,
जो कुछ होगा, देखा जाएगा। इसी उधेड़बुन में वह
भोजन करने लगा। चौके में एक मिट्टी के तेल का चिराग जल रहा था; किन्तु छत में धुआँ इतना भरा हुआ था कि उसका प्रकाश मन्द पड़ गया था। उसकी
स्त्री बिलासी ने एक पीतल की थाली में बथुए की भाजी और जौं की कई मोटी-मोटी
रोटियाँ परस दीं। मनोहर इस भाँति रोटियाँ तोड़-तोड़ मुँह में रखता था, जैसे कोई दवा खा रहा हो। इतनी ही रुचि से वह घास भी खाता। बिलासी ने पूछा,
क्या साग अच्छा नहीं ? गुड़ दूँ ?
मनोहर – नहीं,
साग तो अच्छा है।
बिलासी – क्या
भूख नहीं ?
मनोहर – भूख
क्यों नहीं है, खा तो रहा हूँ।
बिलासी – खाते
तो नहीं हो, जैसे औंघ रहे हो। किसी से कुछ कहा-सुनी तो नहीं
हुई है ?
मनोहर – नहीं,
कहा-सुनी किससे होती ?
इतने में एक युवक कोठरी में आकर
खड़ा हो गया। उसका शरीर खूब गठीला हृष्ठ-पुष्ठ था, छाती चौड़ी और भरी
हुई थी। आँखों से तेज झलक रहा था। उसके गले में सोने का यन्त्र था और दाहिने बाँह
में चाँदी का एक अनन्त। यह मनोहर का पुत्र बलराज था।
बिलासी – कहाँ
घूम रहे हो ? आओ, खा लो, थाली परसूँ।
बलराज ने धुएँ से आँखें मलते हुए
कहा,
काहे दादा, आज गिरधर महाराज तुमसे क्यों बिगड़
रहे थे ? लोग कहते हैं कि बहुत लाल-पीले हो रहे थे ?
मनोहर – कुछ
नहीं; तुमने कौन कहता था ?
बलराज – सभी
लोग तो कह रहे हैं। तुमसे घी माँगते थे; तुमने कहा, मेरे पास घी नहीं है, बस इसी पर तन गए।
मनोहर – अरे
तो कोई झगड़ा थोड़े ही हुआ। गिरधर महाराज ने कहा तुम्हें घी देना पड़ेगा, हमने कह दिया, जब घी हो जाएगा तब देंगे, अभी तो नहीं है। इसमें भला झगड़ने की कौन सी बात थी ?
बलराज – झगड़ने
की बात क्यों नहीं है। कोई हमसे क्यों घी माँगे ? किसी का
दिया खाते हैं कि किसी के घर माँगने जाते हैं ? अपना तो एक
पैसा नहीं छोड़ते, तो हम क्यों धौंस सहें ? न हुआ मैं, नहीं तो दिखा देता। क्या हमको भी दुर्जन
समझ लिया है ?
मनोहर की छाती अभिमान से फूली जाती
थी,
पर इसके साथ ही यह चिन्ता भी थी कि कहीं यह कोई उजड्डपन न कर बैठे। बोला,
चुपके से बैठकर खाना खा लो, बहुत बहकना अच्छा
नहीं होता। कोई सुन लेगा तो वहाँ जाकर एक की चार जड़ आएगा। यहाँ कोई मित्र नहीं
है।
बलराज – सुन
लेगा तो क्या किसी से छिपा के कहते हैं। जिसे बहुत घमण्ड हो आकर देख ले । एक-एक का
सिर तोड़ के रख दें। यही न होगा, कैद होकर चला आऊँगा। इससे
कौन डरता है ? महात्मा गांधी भी तो कैद हो आए हैं।
बिलासी ने मनोहर की ओर तिरस्कार के
भाव से देखकर कहा,
तुम्हारी कैसी आदत है कि जब देखो एक-न-एक बखेड़ा मचाए ही रहते हो।
जब सारा गाँव घी दे रहा है तब हम क्या गाँव से बाहर हैं ? जैसा
बन पड़ोगा देंगे। इसमें कोई अपनी हेठी थोड़े ही हुई जाती है। हेठा तो नारायण ने ही
बना दिया है। तो क्या अकड़ने से ऊँचे हो जाएँगे ? थोड़ा-सा
हाँड़ी में है, दो-चार दिन में और बटोर लूँगी, जाकर तौल आना।
बलराज – क्यों
दे आएँ ? किसी के दबैल हैं।
बिलासी – नहीं,
तुम तो लाट गर्वनर हो। घर में भूनी भाँग नहीं, उस पर इतना घमण्ड ?
बलराज – हम
दरिद्र सही, किसी से माँगने तो नहीं जाते ?
बिलासी – अरे
जा बैठ, आया है बड़ा जोधा बनके। ऊँट जब तक पहाड़ पर नहीं
चढ़ता तब तक समझता है कि मुझसे ऊँचा और कौन ? जमींदार से बैर
कर गाँव में रहना सहज नहीं है। (मनोहर से) सुनते हो महापुरुष; कल कारिंदा के पास जाके कह सुन आओ।
मनोहर – मैं
तो अब नहीं जाऊँगा।
बिलासी – क्यों
?
मनोहर – क्यों
क्या, अपनी खुशी है। जाएँ क्या, अपने
ऊपर तालियाँ लगवाएँ ?
बिलासी – अच्छा,
तो मुझे जाने दोगे ?
मनोहर – तुम्हें
भी नहीं जाने दूँगा। कारिन्दा हमारा कर ही क्या सकता है ? बहुत
करेगा अपना सिकमी खेत छोड़ा लेगा। न दो हल चलेंगे, एक ही
सही।
यद्यपि मनोहर बढ़-बढ़ कर बातें कर
रहा था,
पर वास्तव में उसका इन्कार अब परास्त तर्क के समान था। यदि बिना
दूसरों की दृष्टि में अपमान उठाए बिगड़ा हुआ खेल बन जाए तो उसे कोई आपत्ति नहीं
थी। हाँ, वह स्वयं क्षमा प्रार्थना करने में अपनी हेठी समझता
था। एक बार तनकर फिर झुकना उसके लिए बड़ी लज्जा की बात थी। बलराज की उद्दण्डता उसे
शान्त करने में हानि के भय से भी अधिक सफल हुई थी।
प्रात: काल बिलासी चौपाल जाने को
तैयार हुई;
पर न मनोहर साथ चलने को राजी होता था, न
बलराज। अकेली जाने की उसकी हिम्मत न पड़ती थी। इतने में कादिर मियाँ ने घर में
प्रवेश किया। बूढ़ा आदमी थे, ठिंगना डील, लंबी दाढ़ी, घुटने के ऊपर तक धोती, एक गाढे की मिरजई पहने हुए थे। गाँव के नाते वह मनोहर के बड़े भाई होते थे
बिलासी ने उन्हें देखते ही थोड़ा-सा घूँघट निकाल लिया।
कादिर ने चिन्तापूर्ण भाव से कहा, अरे
मनोहर, कल तुम्हें क्या सूझ गई ? जल्दी
जाकर कारिन्दा साहब को मना लो, नहीं तो फिर कुछ करते-धरते न
बनेगी। सुना है वह तुम्हारी शिकायत करने मालिकों के पास जा रहे हैं। सुक्खू भी साथ
जाने को तैयार है। नहीं मालूम, दोनों में क्या साँठ-गाँठ हुई
है।
बिलासी – भाई
जी, यह बूढ़े हो गए; लेकिन इनका लड़कपन
अभी नहीं गया। कितना समझाती हूँ, बस अपने ही मन की करते हैं।
इन्हीं की देखा-देखी एक लड़का है वह भी हाथ से निकला जाता है। जिससे देखो उसी से
उलझ पड़ता है। भला इनसे पूछा जाए कि सारे गाँव ने घी के रुपये लिये तो तुम्हें
नाहीं करने में क्या पड़ी थी ?
कादिर – इनकी
भूल है और क्या ? दस रुपये हमें भी लेने पड़े, क्या करते ? और यह कोई नयी बात थोड़ी ही है ?
बड़े सरकार थे तब भी तो एक-न-एक बेगार लगी ही रहती थी।
मनोहर-भैया, तब
की बातें जाने दो तब साल-दो-साल की देन बाकी पड़ जाती थी। मुदा मालिक कभी कुड़की
बेदखली नहीं करते थे। जब कोई काम-काज पड़ता था, तब हमको
नेवता मिलता था। लड़कियों के ब्याह के लिए उनके यहाँ से लकड़ी, चारा और 25 रु. बंधा हुआ था। यह सब जानते हो कि नहीं?
जब वह अपने लड़कों की तरह पालते थे तो रैयत भी हँसी-खुशी उनकी बेगार
करती थी। अब यह बातें तो गईं, बस एक-न-एक पच्चड़ लगा ही रहता
है। तो जब उनकी ओर से यह कड़ाई है तो हम भी कोई मिट्टी के लोंदे थोड़े ही हैं?
कादिर-तब की बातें छोड़ो, अब
जो सामने है उसे देखो । चलो, जल्दी करो, मैं इसीलिए तुम्हारे पास आया हूँ। मेरे बैल खेत में खड़े हैं।
मनोहर-दादा, मैं
तो न जाऊँगा।
बिलासी-इनकी चूड़ियाँ मैली हो
जायेंगी,
चलो मैं चलती हूँ।
कादिर और बिलासी दोनों चौपाल चले।
वहाँ इस वक्त बहुत से आदमी जमा थे। कुछ लोग लगान के रुपये दाखिल करने आए। कुछ घी
के रुपये लेने के लिए और केवल तमाशा देखने और ठकुरसुहाती करने के लिए। कारिन्दे का
नाप गुलाम गौस खौँ था। वह बृहदाकार मनुष्य थे, सावला रंग, लम्बी दाढ़ी, चेहरे से कठोरता झलकती थी। अपनी जवानी
में वह पलटन में नौकर थे और हवलदार के दरजे तक पहुँचे थे। जब सीमा प्रान्त में कुछ
छेड़छाड़ हुई तब बीमारी की छुट्टी लेकर घर भाग आए और यहीं से इस्तीफा पेश कर दिया।
वह अब भी अपने सैनिक जीवन की कथाएँ मजे ले-ले कर कहते थे। इस समय वह तख्त पर बैठे
हुए हुक््का पी रहे थे। सुक्खू और दुखरन तख्त के नीचे बैठे हुए थे।
सुक्खू ने कहा, हम
मजदूर ठहरे, हम घमण्ड करें तो हमारी भूल है। जमींदार की जमीन
में बसते हैं, उसका दिया खाते हैं, उससे
बिगड़ कहाँ जाएँगे-क्यों दुखरन?
दुखरन-हाँ, ठीक
ही है।
सुक्खू-नारायण हमें चार पैसे दें, दस
मन अनाज दें तो क्या हम अपने मालिकों से लड़ें, मारे घमण्ड
के धरती पर पैर न रखें?
दुखरन-यही मद तो आदमी को खराब करता
है। इसी मद ने रावण को मिटाया, इसी के कारण जरासंध और दुरयोधन का
सर्वनाश हो गया। तो भला हमारी-तुम्हारी कौन बात है?
इतने में कादिर मियाँ चौपाल में
आए। उनके पीछे-पीछे बिलासी भी आई। कादिर ने कहा, खाँ साहब, यह मनोहर की घरवाली आई है, जितने रुपये चाहें घी के
लिए दे दें। बेचारी डर के मारे आती न थी।
गौस खाँ ने कटु स्वर से कहा, वह
कहाँ है मनोहर, क्या उसे आते शरम आती थी?
बिलासी ने दीनता पूर्वक कहा, सरकार
उनकी बातों का कुछ ख्याल न करें आपकी गुलामी करने को मैं तैयार हूँ?
कादिर-यूँ तो गऊ है, किन्तु
आज न जाने उसके सिर कैसे भूत सवार हो गया। क्यों सुक्खू महतो, आज तक गाँव में किसी से लड़ाई हुई है?
कादिर-अब बैठा रो रहा है। कितना
समझाया कि चल के खाँ साहब से कसूर माफ करा ले; लेकिन शरम से आता नहीं
है।
गौस खाँ-शर्म नहीं, शरारत
है। उसके सिर पर जो भूत चढ़ा हुआ है उसका उतार मेरे पास है। उसे गरूर हो गया।
कादिर-अरे खाँ साहब, बेचारा
मजूर गरूर किस बात पर करेगा? मूरख उजड्ड आदमी है, बात करने का सहूर नहीं है।
गौस खाँ-तुम्हें वकालत करने की
जरूरत नहीं। मैं अपना काम खूब जानता हूँ। इस तरह दबने लगा तब तो मुझसे
कारिन्दागिरी हो चुकी। आज एक ने तेवर बदले हैं, कल उसके दूसरे भाई शेर हो
जाएँगे। फिर जमींदारी को कौन पूछता है। अगर पलटन में किसी ने ऐसी शरारत की होती तो
उसे गोली मार दी जाती। जमींदार से आँखें बदलना खाला जी का घर नहीं है।
यह कहकर गौस खाँ टाँगन पर सवार
होने चले। बिलासी रोती हुई उनके सामने हाथ बाँधकर खड़ी हो गई और बोली, सरकार
कहीं की न रहूँगी। जो डाँड़ चाहें लगा दीजिए, जो सजा चाहे
दीजिए, मालिकों के कान में यह बात न डालिए। लेकिन खाँ साहब
ने सुक्खू महतो को हत्थे पर चढ़ा लिया था। वह सूखी करुणा को अपनी कपट-चाल में बाधक
बनाना नहीं चाहते थे। तुरन्त घोड़े पर सवार हो गए और सुक्खू को आगे-आगे चलने का
हुक्म दिया। कादिर मियां ने धीरे से गिरधर महाराज के कान में कहा, क्या महाराज, बेचारे मनोहर का सत्यानाश करके ही दम
लोगे?
गिरधर ने गौरवयुक्त भाव से कहा, जब
तुम हमसे आँखें दिखलाओगे तो हम भी अपनी-सी करके रहेंगे। हमसे कोई एक अंगुल दबे तो
हम उससे हाथ भर दबने को तैयार हैं। जो हमसे जौ भर तनेगा हम उससे गज भर तन जाएँगे।
कादिर- यह तो सुपद ही है, तुम
हक से दबने लगोगे तो तुम्हें कौन पूछेगा? मुदा अब मनोहर के
लिए कोई राह निकालो। उसका सुभाव तो जानते हो। गुस्सैल आदमी है। पहले बिगड़ जाता है,
फिर बैठकर रोता है। बेचारा मिट्टी में मिल जाएगा।
गिरधर-भाई, अब
तो तीर हमारे हाथ से निकल गया।
कादिर-मनोहर की हत्या तुम्हारे ऊपर
ही पड़ेगी।
गिरधर-एक उपाय मेरी समझ में आता
है। जाकर मनोहर से कह दो कि मालिक के पास जाकर हाथ-पैर पड़े। वहाँ मैं भी कुछ
कह-सुन दूँगा। तुम लोगों के साथ नेकी करने का जी तो नहीं चाहता, काम
पड़ने पर घिघियाते हो, काम निकल गया तो सीधे ताकते भी नहीं।
लेकिन अपनी-अपनी करनी अपने साथ है। जाकर उसे भेज दो।
कादिर और बिलासी मनोहर के पास गए।
वह शंका और चिन्ता की मूर्ति बना हुआ उसी रास्ते की ओर ताक रहा था। कादिर ने जाते
ही यहाँ का समाचार कहा और गिरधर महाराज का आदेश भी सुना दिया। मनोहर क्षण भर सोचकर
बोला,
वहाँ मेरी और भी दुर्गति होगी। अब तो सिर पर पड़ी ही है। जो कुछ भी
होगा देखा जाएगा।
कादिर-नहीं, तुम्हें
जाना चाहिए। मैं भी चलूँगा।
मनोहर-मेरे पीछे तुम्हारी भी ले-दे
होगी।
बिलासी ने कादिर की ओर अत्यन्त
विनीत भाव से देखकर कहा,
दादा जी, वह न जाएँगे, मैं
ही तुम्हारे साथ चली चलूँगी।
कादिर-तुम क्या चलोगी, वहाँ
बड़े आदमियों के सामने मुँह तो खुलना चाहिए।
बिलासी-न कुछ कहते बनेगा, रो
तो लूँगी।
कादिर-यह न जाने देंगे?
बिलासी-जाने क्यों न देंगे, कुछ
माँगती हूँ? इन्हें अपना बुरा-भला न सूझता हो, मुझे तो सूझता है।
कादिर-तो फिर देर न करनी चाहिए, नहीं
तो वह लोग पहले से ही मालिकों का कान भर देंगे।
मनोहर ज्यों का त्यों मूरत की तरह
बैठा रहा |
बिलासी घर में गई, अपने गहने निकालकर पहने,
चादर ओढ़ी और बाहर निकलकर खड़ी हो गई। कादिर मियाँ संकोच में पड़े
हुए थे। उन्हें आशा थी कि अब भी मनोहर उठेगा; किन्तु जब वह
अपनी जगह से जरा भी न हिला तब धीरे-धीरे आगे चले। बिलासी भी पीछे-पीछे चली। पर रह
कर कातर नेत्रों से मनोहर की ओर ताकती जाती थी। जब वह गाँव के बाहर निकल गए,
तो मनोहर कुछ सोचकर उठा और लपका हुआ कादिर मियाँ के समीप आकर बिलासी
से बोला, जा घर बैठ, मैं जाता हूँ।
4.
तीसरा पहर था। ज्ञानशंकर दीवानखाने
में बैठे हुए एक किताब पढ़ रहे थे कि कहार ने आकर कहा, बाबू
साहब पूछते हैं, कै बजे हैं? ज्ञानशंकर
ने चिढ़कर कहा, जा कह दे, आपको नीचे
बुलाते हैं? क्या सारे दिन सोते रहेंगे?
इन महाशय का नाम बाबू ज्वालासिंह
था। ज्ञानशंकर के सहपाठी थे और आज ही इस जिले में डिप्टी कलेक्टर होकर आए। दोपहर
तक दोनों मित्रों में बातचीत होती रही। ज्वालासिंह रात भर के जागे थे, सो
गए। ज्ञानशंकर को नींद नहीं आई। इस समय उनकी छाती पर साँप सा लोट रहा था। सब के सब
बाजी लिये जाते हैं और मैं कहीं का न हुआ। कभी अपने ऊपर क्रोध आता, कभी अपने पिता और चाचा के ऊपर। पुराना सौहार्द द्वेष का रूप ग्रहण करता
जाता था। यदि इस समय अकस्मात् ज्वालासिंह के पद-च्युत होने का समाचार मिल जाता तो
शायद ज्ञानशंकर के हृदय को शान्ति होती। वह इस क्षुद्र भाव को मन में न आने देना
चाहते थे। अपने को समझते थे कि यह अपना-अपना भाग्य है। अपना मित्र कोई ऊँचा पद पाए
तो हमें प्रसन्न होना चाहिए, किन्तु उनकी विकलता इन सद्
विचारों से न मिटती थी और बहुत यत्न करने पर भी परस्पर सम्भाषण में उनकी लघुता
प्रकट हो जाती थी। ज्वालापिंह को विदित हो रहा था कि मेरी यह तरक्की इन्हें जला
रही है, किन्तु यह सर्वथा ज्ञानशंकर की ईर्ष्या-वृत्ति का ही
दोष न था। ज्वालासिंह के बात-व्यवहार में वह पहले की सी स्नेहमय सरलता न थी;
वरन् उसकी जगह एक अज्ञात सहृदयता, एक कृत्रिम
वात्सल्य, एक गौरव-युक्त सधुता पाई जाती थी, जो ज्ञानशंकर के घाव पर नमक का काम कर रही थी। इसमें सन्देह नहीं कि
ज्वालासिंह का यह दुःस्वभाव इच्छित न था, वह इतनी नीच
प्रकृति के पुरुष न थे, पर अपनी सफलता ने उन्हें उन्मत्त कर
दिया था। इधर ज्ञानशंकर इतने उदार न थे कि इससे मानव चरित्र के अध्ययन का आनन्द
उठाते।
कहान के जाने के क्षण भर पीछे
ज्वालासिंह उतर पड़े और बोले, यार बताओ क्या समय है? जरा साहब से मिलने जाना है। ज्ञानशंकर ने कहा, अजी
मिल लेना ऐसी क्या जल्दी है?
ज्वालासिंह- नहीं भाई, एक
बार मिलना जरूरी है, जरा मालूम तो हो जाए किस ढंग का आदमी है,
खुश कैसे होता है?
ज्ञान-वह इस बात से खुश होता है कि
आप दिन में तीन बार उसके द्वार पर नाक रगड़ें।
ज्वालासिंह ने हँसकर कहा, तो
कुछ मुश्किल नहीं, मैं पाँच बार सिजदे किया करूँगा।
ज्ञान-और वह इस बात से खुश होता है
कि आप कायदे-कानून को तिलांजलि दीजिए, केवल उसकी इच्छा को कानून
समझिए।
ज्वालासिंह-ऐसा ही करूँगा।
ज्ञान-इनकम टैक्स बढ़ाना पड़ेगा।
किसी अभियुक्त को भूल कर भी छोड़ा तो बहुत बुरी तरह खबर लेगा।
ज्वाला-भाई, तुम
बना रहे हो, ऐसा क्या होगा।
ज्ञान-नहीं, विश्वास
मानिए, वह ऐसा ही विचित्र जीव है।
ज्वाला-तब तो उसके साथ मेरा निबाह
कठिन है।
ज्ञान-जरा भी नहीं। आज आप ऐसी
बातें कर रहे हैं,
कल को उसके इशारों पर नाचेंगे। इस घमण्ड में न रहिए कि आपको अधिकार
प्राप्त हुआ है, वास्तव में आपने गुलामी लिखाई है। यहाँ आपको
आत्मा की स्वाधीनता से हाथ धोना पड़ेगा, न्याय और सत्य का
गला घोंटना पड़ेगा, यही आपकी उन्नति और सम्मान के साधन हैं।
मैं तो ऐसे अधिकार पर लात मारता हूँ। यहाँ तो अल्लाह-ताला भी आसमान से उतर आएँ और
अन्याय करने को कहें तो उनका हुक्म न मानूँ।
ज्वालासिंह समझ गए कि यह जले हुए
दिल के फफोले हैं बोले,
अभी ऐसी दूर की ले रहे हो, कल को नामजद हो जाओ,
तो यह बातें भूल जाएँ।
ज्ञानशंकर-हाँ बहुत सम्भव है, क्योंकि
मैं भी तो मनुष्य हूँ, लेकिन संयोग से मेरे इस परीक्षा में
पड़ने की कोई सम्भावना नहीं है और हो भी तो मैं आत्मा की रक्षा करना सर्वोपरि
समझूँगा।
ज्वालासिंह गर्म होकर बोले–आपको
यह अनुभव करने का क्या अधिकार है कि और लोग अपनी आत्मा का आपसे कम आदर करते हैं?
मेरा विचार तो यह है कि संसार में रहकर मनुष्य आत्मा की जितनी रक्षा
कर सकता है, उससे अधिकार उसे वंचित नहीं कर सकता। अगर आप
समझते हों कि वकालत या डॉक्टरी विशेष रूप से आत्म-रक्षा के अनुकूल हैं तो आपकी भूल
है। मेरे चाचा साहब वकील हैं, बड़े भाई साहब डॉक्टरी करते
हैं, पर वह लोग केवल धन कमाने की मशीने हैं, मैंने उन्हें कभी असद-सद के झगड़े में पड़ते हुए नहीं पाया?
ज्ञानशंकर–वह
चाहें तो आत्मा की रक्षा कर सकते हैं।
ज्वालासिंह–बस,
उतनी ही जितनी कि एक सरकारी नौकर कर सकता है। वकील को ही ले लीजिए,
यदि विवेक की रक्षा करे तो रोटियाँ चाहे भले खाये, समृद्घिशाली नहीं हो सकता। अपने पेशे में उन्नति करने के लिए उसे
अधिकारियों का कृपा-पात्र बनना परमावश्यक है और डॉक्टरों का तो जीवन ही रईसों की
कृपा पर निर्भर है, गरीबों से उन्हें क्या मिलेगा? द्वार पर सैकड़ों गरीब रोगी खड़े रहते हैं, लेकिन
जहाँ किसी रईस का आदमी पहुँचा, वह उनको छोड़कर फिटन पर सवार
हो जाते हैं। इसे मैं आत्मा की स्वाधीनता नहीं कह सकता।
इतने में गौस खाँ, गिरधर
महाराज और सुक्खू ने कमरे में प्रवेश किया। गौस तो सलाम करके फर्श पर बैठ गये,
शेष दोनों आदमी खड़े रहे। लाला प्रभाशंकर बरामदे में बैठे हुए थे।
पूछा, आदमियों को घी के रुपये बाँट दिए?
गौस खाँ–जी
हाँ, हुजूर के इकबाल से सब रुपये तकसीम हो गये, मगर इलाके में चन्द आदमी ऐसे सरकश हो गये हैं कि खुदा की पनाह। अगर उनकी
तंबीह न की गई तो एक दिन मेरी इज्जत में फर्क आ जायेगा और क्या अजब है जान से भी
हाथ धोऊँ!
ज्ञानशंकर–(विस्मित
होकर) देहात में भी यह हवा चली?
गौस खाँ ने रोती सूरत बनाकर कहा–हूजूर,
कुछ न पूछिए, गिरधर महाराज भाग न खड़े हों तो
इनके जान की खैरयित नहीं थी।
ज्ञान–उन
आदमियों को पकड़ के पिटवाया क्यों नहीं?
गौस–तो थानेदार साहब के
लिए थैली कहाँ से लाता?
ज्ञान–आप
लोगों को तो सैकड़ों हथकण्डे मालूम हैं, किसी भी शिकंजे में
कस लीजिए?
गौस–हुजूर, मौरूसी असामी हैं, यह सब ज़मींदार को कुछ नहीं
समझते। उनमें एक का नाम मनोहर है। बीस बीघे जोतता है और कुल ५०) लगान देता है। आज
उसी आसानी का किसी दूसरे असामी से बन्दोबस्त हो सकता तो १०० रुपये कहीं नहीं गये
थे।
ज्ञानशंकर ने चचा की ओर देखकर पूछा, आपके
अधिकांश असामी दखलदार क्यों कर हो गये?
प्रभाशंकर ने उदासीनता से कहा–जो
कुछ किया इन्हीं कारिन्दों ने किया होगा, मुझे क्या खबर?
ज्ञानशंकर–(व्यंग्य
से) तभी तो इलाका चौपट हो गया।
प्रभाशंकर ने झुँझलाकर कहा–अब
तो भगवान् की दया से तुमने हाथ-पैर सँभाले, इलाके का प्रबन्ध
क्यों नहीं करते?
ज्ञान–आपके
मारे जब मेरी कुछ चले तब तो।
प्रभा–मुझसे
कसम ले लो, जो तुम्हारे बीच कुछ बोलूँ, यह काम करते बहुत दिन हो गये, इसके लिए लोलुप नहीं
हूँ।
ज्ञान–तो
फिर मैं भी दिखा दूँगा कि सुप्रबन्ध से क्या हो सकता है?
इसी समय कादिर खाँ और मनोहर आकर
द्वार पर खड़े हो गये। गौस खाँ ने कहा, हुजूर यह वही असामी है,
जिसका अभी मैं जिक्र कर रहा था।
ज्ञानशंकर ने मनोहर की ओर क्रोध से
देखकर कहा–क्यों रे, जिस पत्तल पर खाता है उसी में छेद करता है?
१०० रुपये की जमीन ५० रुपये में जोतता है, उस
पर जब थोड़ा–सा बल खाने का अवसर पड़ा तो जामे से बाहर हो गया?
मनोहर की जबान बन्द हो गई। रास्ते
में जितनी बातें कादिर खाँ ने सिखाई थीं, वह सब भूल गया।
ज्ञानशंकर ने उसी स्वर में कहा–दुष्ट
कहीं का! तू समझता होगा कि मैं दखलदार हूँ, ज़मींदार मेरा कर
ही क्या सकता है? लेकिन मैं तुझे दिखा दूँगा कि ज़मींदार
क्या कर सकता है! तेरा इतना हियाव है कि तू मेरे आदमियों पर हाथ उठाये?
मनोहर निर्बल क्रोध से काँप और सोच
रहा था,
मैंने घी के रुपये नहीं दिये, वह कोई पाप नहीं
है। मुझे लेना चाहिए था, दबाव के भय से नहीं, केवल इसलिए कि बड़े सरकार हमारे ऊपर दया रखते थे। उसे लज्जा आयी कि मैंने
ऐसे दयालू स्वामी की आत्मा के साथ कृतघ्नता की, किन्तु इसका
दण्ड गाली और अपमान नहीं है। उसका अपमानाहत हृदय उत्तर देने के लिए व्यग्र होने
लगा! किन्तु कादिर ने उसे बोलने का अवसर नहीं दिया। बोला, हुजूर,
हम लोगों की मजाल ही क्या है कि सरकार के आदमियों के सामने सिर उठा
सकें? हाँ, अपढ़ गँवार ठहरे बातचीत
करने का सहूर नहीं है, उजड्डपन की बातें मुँह से निकल आती
हैं। क्या हम नहीं जानते कि हुजूर चाहें तो आज हमारा कहीं ठिकाना न लगे! तब तो यही
विनती है कि जो खता हुई, माफी दी जाये।
लाला प्रभाशंकर को मनोहर पर दया आ
गई,
सरल प्रकृति के मनुष्य थे। बोले–तुम लोग हमारे
पुराने असामी हो, क्या नहीं जानते हो कि असामियों पर सख्ती
करना हमारे यहाँ का दस्तूर नहीं है? ऐसा ही कोई काम आ पड़ता
है तो तुमसे बेगार ली जाती है और तुम हमेशा उसे हँसी-खुशी देते रहे हो। अब भी उसी
तरह निभाते चलो। नहीं तो भाई, अब जमाना नाजुक है, हमने तो भली-बुरी तरह अपना निभा दिया, मगर इस तरह
लड़कों से न निभेगी। उनका खून गरम ठहरा, इसलिए सब सँभलकर रहो,
चार बातें सह लिया करो, जाओ, फिर ऐसा काम न करना। घर से कुछ खाकर चले न होगे। दिन भी चढ़ आया, यहीं खा-पी कर विश्राम करो, दिन ढले चले जाना।
प्रभाशंकर ने अपने निर्द्वन्द्व
स्वभाव के अनुसार इस मामले को टालना चाहा; किन्तु ज्ञानशंकर ने उनकी
ओर तीव्र नेत्रों से देखकर कहा–आप मेरे बीच में क्यों बोलते
हैं? इस नरमी ने तो इन आदमियों को शेर बना दिया है। अगर आप
इस तरह तेरे कामों में हस्तक्षेप करते रहेंगे तो मैं इलाके का प्रबन्ध कर चुका।
अभी आपने वचन दिया है कि इलाके से कोई सरोकार न रखूँगा। अब आपको बोलने का कोई
अधिकार नहीं है।
प्रभाशंकर यह तिरस्कार न सह सके, रुष्ट
होकर बोले–अधिकार क्यों नहीं है? क्या
मैं मर गया हूँ?
ज्ञानशंकर–नहीं,
आपको कोई अधिकार नहीं है। आपने सारा इलाका चौपट कर दिया, अब क्या चाहते हैं कि बचा-खुचा है, उसे धूल में मिला
दें।
प्रभाशंकर के कलेजे में चोट लग गई।
बोले–बेटा! ऐसी बातें करके क्यों दिल दुखाते हो? तुम्हारे
पूज्य पिता मर गये, लेकिन कभी मेरी बात नहीं दुलखी। अब तुम
मेरी जबान बन्द कर देना चाहते हो, किन्तु यह नहीं हो सकता कि
अन्याय देखा करूँ और मुँह न खोलूँ। जब तक जीवित हूँ, तुम यह
अधिकार मुझसे नहीं छीन सकते।
ज्वालासिंह ने दिलासा दिया–नहीं
साहब, आप घर के मालिक हैं, यह आपकी गोद
के पाले हुए लड़के हैं, इनकी अबोध बातों पर ध्यान न दीजिए।
इसकी भूल है जो कहते हैं कि आपका कोई अधिकार नहीं है। आपको सब कुछ अधिकार है,
आप घर के स्वामी हैं।
गौस खाँ ने कहा–हुजूर
का फर्माना बहुत दुरुस्त है। आप खानदान के सरपस्त और मुरब्बी हैं। आपके मन्सब से
किसे इनकार हो सकता है?
ज्ञानशंकर समझ गये कि ज्वालासिंह
ने मुझसे बदला ले लिया। उन्हें यह खेद हुआ कि ऐसी अविनय मैंने क्यों की! खेद केवल
यह था कि ज्वालासिंह यहाँ बैठे थे और उनके सामने वह सज्जनता नहीं प्रकट करना चाहते
थे। बोले–अधिकार से मेरा यह आशय नहीं था जो आपने समझा। मैं केवल यह कहना चाहता था
कि जब आपने इलाके का प्रबन्ध मेरे सुपुर्द कर दिया है तो मुझी को करने दीजिए। यह
शब्द अनायास मेरे मुँह से निकल गया। मैं इसके लिए बहुत लज्जित हूँ। भाई ज्वालासिंह,
मैं चचा साहब का जितना अदब करता हूँ उतना अपने पिता का भी नहीं
किया। मैं स्वयं गरीब आदमियों पर सख्ती करने का विरोधी हूँ। इस विषय में आप मेरे
विचारों से भली-भाँति परिचित हैं। किन्तु इसका यह आशय नहीं है कि हम दीन-पालन की
धुन में इलाके से ही हाथ धो बैठें? पुराने जमाने की बात और
थी। तब जीवन संग्राम इतना भयंकर न था हमारी आवश्यकताएँ परिमित थीं, सामाजिक अवस्था इतनी उन्नत न थी और सबसे बड़ी बात तो यह है कि भूमि का
मूल्य इतना चढ़ा हुआ न था। मेरे कई गाँव जो दो-दो हजार पर बिक गये हैं, उनके दाम आज बीस-बीस हजार लगे हुए हैं। उन दिनों असामी मुश्किल से मिलते
थे, अब एक टुकड़े कि लिए सौ-सौ आदमी मुँह फैलाए हुए हैं। यह
कैसे हो सकता है कि इस आर्थिक दशा का असर ज़मींदार पर न पड़े?
लाला प्रभाशंकर को अपने अप्रिय
शब्दों का बहुत दुःख हुआ,
जिस भाई को वे देवतुल्य समझते थे, उसी के
पुत्र से द्वेष करने पर उन्हें बड़ी ग्लानि हुई। बोले–भैया,
इन बातों को तुम जितना समझोगे, मैं बूढ़ा आदमी
उतना क्या समझूँगा? तुम घर के मालिक हो। मैंने भूल की कि बीच
में कूद पड़ा। मेरे लिए एक टुकड़ा रोटी के सिवा और किसी चीज की आवश्यकता नहीं है।
तुम जैसे चाहो वैसे घर को सँभालो।
थोड़ी देर सब लोग चुपचाप बैठे रहे।
अन्त में गौस खाँ ने पूछा–हुजूर, मनोहर के बारे में क्या हुक्म होता है?
ज्ञानशंकर–इजाफा
लगान का दावा कीजिए?
कादिर–सरकार,
बड़ा गरीब आदमी है, मर जायेगा?
ज्ञानशंकर–अगर
इसकी जोत में कुछ सिकमी जमीन हो तो निकाल लीजिए?
कादिर–सरकार,
बेचारा बिना मारे मर जायेगा।
ज्ञानशंकर–उसकी
परवाह नहीं, असामियों की कमी नहीं है।
कादिर–सरकार
जरा…
ज्ञानशंकर–बस
कह दिया कि जबान मत खोलो।
मनोहर अब तक चुपचाप खड़ा था।
प्रभाशंकर की बात सुनकर उसे आशा हुई थी कि यहाँ आना निष्फल नहीं हुआ। उनकी
विनयशीलता ने वशीभूत कर लिया था ज्ञानशंकर के कटु व्यवहार के सामने प्रभाशंकर की
नम्रता उसे देवोचित प्रतीत होती थी। उसके हृदय में उत्कण्ठा हो रही थी कि अपना
सर्वस्व लाकर इनके सामने रख दूँ और कह दूँ कि यह मेरी ओर से बड़े सरकार की भेंट
है। लेकिन ज्ञानशंकर के अन्तिम शब्दों ने इन भावनाओं को पद-दलित कर दिया। विशेषतः
कादिर मियाँ का अपमान उसे असह्य हो गया। तेवर बदल कर बोला–दादा,
इस दरबार से अब दया-धर्म उठ गया। चलो, भगवान
की जो इच्छा होगी, वह होगा। जिसने मुँह चीरा वह खाने को भी
देगा। भीख नहीं तो परदेश तो कहीं नहीं गया है?
यह कहकर उसने कादिर का हाथ पकड़ा
और उसे जबरदस्ती खींचता दीवानखाने से बाहर निकल गया। ज्ञानशंकर को इस समय इतना
क्रोध आ रहा था कि यदि कानून का भय न होता तो वह उसे जीता चुनवा देते। अगर इसका
कुछ अंश मनोहर को डाँटने-फटकारने में निकल जाता तो कदाचित् उनकी ज्वाला कुछ शान्त
हो जाती,
किन्तु अब हृदय में खौलने के सिवा उनके निकलने का कोई रास्ता न था।
उनकी दशा उस बालक की-सी हो रही थी, जिसका हमजोली उसे दाँत
काटकर भाग गया हो। इस ज्ञान से उन्हें शान्ति न होती थी कि मैं इस मनुष्य के भाग
का विधाता हूँ आज इसे पैरों तले कुचल सकता हूँ। क्रोध को दुर्वचन से विशेष रुचि
होती है।
ज्वालासिंह मौनी बने बैठे थे।
उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि ज्ञानशंकर में इतनी दयाहीन स्वार्थपरता कहाँ से आ गई? अभी
क्षण-भर पहले यह महाशय न्याय और लोक-सेवा का कैसा महत्वपूर्ण वर्णन कर रहे थे।
इतनी ही देर में यह कायापलट। विचार और व्यवहार में इतना अन्तर? मनोहर चला गया तो ज्ञानशंकर से बोले–इजाफा लगान का
दावा कीजिएगा तो क्या उसकी ओर से उज्रदारी न होगी? आप केवल
एक असामी पर दावा नहीं कर सकते।
ज्ञानशंकर–हाँ,
यह आप ठीक कहते हैं। खाँ साहब, आप उन असामियों
की एक सूची तैयार कीजिए, जिन पर कायदे के अनुसार इजाफा हो
सकता है। क्या हरज है, लगे हाथ सारे गाँव पर दावा हो जाये?
ज्वालासिंह ने मनोहर की रक्षा के
लिए यह शंका की थी। उसका यह विपरीत फल देखकर उन्हें फिर कुछ कहने का साहस न हुआ।
उठकर ऊपर चले गये।
5.
एक महीना बीत गया, गौस
खाँ ने असामियों की सूची न तैयार की और न ज्ञानशंकर ने ही फिर ताकीद की | गौस खाँ के स्वहित और स्वामिहित में विरोध हो रहा था और ज्ञानशंकर सोच रहे
थे कि जब इजाफे से सारे परिवार का लाभ होगा तो मुझको क्या पड़ी है कि बैठे-बिठाए
सिर-दर्द मोल लूँ। सैकड़ों गरीबों का गला तो मैं दबाऊँ और चैन सारा घर करे। वह इस
सारे अन्याय का लाभ अकेले ही उठाना चाहते थे, और लोग भी शरीक
हों, यह उन्हें स्वीकार नहीं था। अब उन्हें रात-दिन यही
दुश्चिन्ता रहती थी कि किसी तरह चचा साहब से अलग हो जाऊँ। यह विचार सर्वथा उनके
स्वार्थानुकूल था। उनके ऊपर केवल तीन प्राणियों के भरण-पोषण का भार था-आप, स्त्री और भावज। लड़का अभी दूध पीता था। इलाके की आमदनी का बड़ा भाग
प्रभाशंकर के काम आता था। जिनके तीन पुत्र थे, दो पुत्रियाँ
एक बहू, एक पोता और और स्त्री-पुरुष आप। ज्ञानशंकर अपने पिता
के परिवार-पालन पर झुँझलाया करते। आज से तीन साल पहले वह अलग हो गए होते तो आज
हमारी दशा ऐसी खराब न होती । चचा के सिर जो पड़ती उसे झेलते, खाते चाहे उपवास करते, हमसे तो कोई मतलब न रहता
बल्कि उस दशा में हम उनकी कुछ सहायता करते तो वह इसे ऋण समझते, नहीं तो आज झाड़-लीप कर हाथ काला करने के सिवा और क्या मिला? प्रभाशंकर दुनिया देखे हुए थे। भतीजे का यह भाव देखकर दबते थे, अनुचित बातें सुनकर भी अनुसुनी कर जाते। दयाशंकर उनकी कुछ सहायता, करने के बदले उलटे उन्हीं के सामने हाथ फैलाते रहते थे, इसलिए दब कर रहने में ही उनका कल्याण था।
ज्ञानशंकर दम्भ और द्वेष के आवेग
में बहने लगे। एक नौकर चचा का काम करता तो दूसरे को खामखाह अपने किसी न किसी काम
में उलझा रखते। इसी फेर में पड़े रहते कि चचा के आठ प्राणियों पर जितना व्यय होता
है उतना मेरे तीन प्राणियों पर हो। भोजन करने जाते तो बहुत-सा खाना जूठा करके छोड़
देते। इतने पर भी सन्तोष न हुआ तो दो कुत्ते पाले। उन्हें साथ बैठाकर खिलाते।
यहाँ तक कि प्रभाशंकर डॉक्टर के यहाँ से कोई दवा लाते तो आप उतने ही मूल्य की औषधि
अवश्य लाते,
चाहे उसे फेंक ही क्यों न दें! इतने अन्याय पर भी चित्त को शान्ति
न होती थी। चाहते थे कि महिलाओं में भी बमचख मचे। विद्या की शालीनता उन्हें नागवर
मालूम होती, उसे समझाते कि तुम्हें अपने भले-बुरे की जरा भी
परवा नहीं। मरदों को इतना अवकाश कहाँ कि जरा-जरा-सी बात पर ध्यान रखें। यह
स्त्रियों का खास काम है, यहाँ तक कि इसी कारण उन्हें घर में
आग लगाने का दोष लगाया जाता है, लेकिन तुम्हें किसी बात की
सुधि ही नहीं रहती। आँखों से देखती हो कि घी घड़ा लुढ़का जाता है, पर जबान नहीं हिलती। विद्यावती यह शिक्षा पाकर भी उसे ग्रहण न करती थी।
इसी बीच में एक ऐसी घटना हो गई, जिसने
इस विरोधाग्नि को और भी भड़का दिया। दयाशंकर यों तो पहले से ही अपने थाने में
अन्धेर मचाए हुए थे। लेकिन जब से ज्वालासिंह उनके इलाके के मजिस्ट्रेट हो गए थे तब
से तो वह पूरे बादशाह बन बैठे थे। उन्हें यह मालूम ही था कि डिप्टी साहब ज्ञानशंकर
के मित्र हैं। इतना सहारा मेलजोल पैदा करने के लिए काफी था। कभी उनके पास चिड़िया
भेजते; कभी मछलियाँ, कभी दूध-घी। स्वयं
उनसे मिलने जाते तो मित्रवत् व्यवहार करते। इधर सम्मान बढ़ा तो भय कम हुआ,
इलाके को लूटने लगे। ज्वालासिंह के पास शिकायतें पहुँचीं, लेकिन वह लिहाज के मारे न तो दयाशंकर से और न उनके घरवालों से ही इनकी
चर्चा कर सके। लोगों ने जब देखा कि डिप्टी साहब भी हमारी फरियाद नहीं सुनते तो हार
मानकर चुप हो बैठे। दयाशंकर और भी शेर हुए। पहले दाँव-घात देखकर हाथ चलाते थे,
अब निःशंक हो गए। यहाँ तक कि प्याला लबालब हो गया। इलाके में एक
भारी डाका पड़ा। वह उसकी तहकीकात करने गए। एक जमींदार पर सन्देह हुआ तुरन्त उसके
घर की तलाशी लेनी शुरू की, चोरी का कुछ माल बरामद हो गया।
फिर क्या था, उसी दम उसे हिरासत में ले लिया। जमींदार ने
कुछ दे-दिला कर बला टाली। पर अभिमानी मनुष्य था, यह अपमान न
सहा गया। उसने दूसरे दिन ज्वालासिंह के इजलास में दारोगा साहब पर मुकदमा दायर कर
दिया। इलाके में आग सुलग रही थी, हवा पाते ही भड़क उठी।
चारों तरफ से झूठे-सच्चे इस्तगासे होने लगे। अन्त में ज्यालासिंह को विवश होकर इन
मामलों की छानबीन करनी पड़ी, सारा रहस्य खुल गया। उन्होंने
पुलिस के अधिकारियों को रिपोर्ट की। दयाशंकर मुअत्तल हो गए, उन
पर रिसवत लेने और झूठे मुकदमे बनाने के अभियोग चलने लगे। पाँसा पलट गया; उन्होंने जमींदार को हिरासत में लिया था। अब खुद हिरासत में आ गए। लाला
प्रभाशंकर उद्योग से जमानत मंजूर हो गई, लेकिन अभियोग इतने
सप्रमाण थे कि दयाशंकर के बचने की बहुत कम आशा थी। वह स्वयं निराश थे।
सिट्टी-पट्टी भूल गई, मानो किसी ने बुद्धि हर ली हो। जो जबान
थाने की दीवारों को कम्पित कर दिया करती थी, वह अब हिलती भी
न थी। वह बुद्धि जो हवा में किले बनाती रहती, अब इस गुत्थी
को भी न सुलझा सकती थी। कोई कुछ पूछता तो शून्य भाव से दीवार की ओर ताकने लगते।
उन्हें खेद न था, लज्जा न थी, केवल
विस्मय था कि मैं इस दलदल में कैसे फँस गया? वह मौन दशा में
बैठे सोचा करते, मुझसे यह भूल हो गई, अमुक
बात बिगड़ गई, नहीं तो कदापि नहीं फँसता। विपत्ति में भी जिस
हृदय में सदज्ञान न उत्पन्न हो वह सूखा वृक्ष है, जो पानी
पाकर पनपता नहीं बल्कि सड़ जाता है। ज्ञानशंकर इस दुरवस्था में अपने सम्बन्धियों
की सहायता करना अपना धर्म समझते थे; किन्तु इस विषय में
उन्हें किसी से कुछ कहते हुए संकोच ही नहीं होता, वरन् जब
कोई दयाशंकर के व्यवहार की आलोचना करने लगता, तब वह उसका
प्रतिवाद करने के बदले उससे सहमत हो जाते थे।
लाला प्रभाशंकर ने बेटे को बरी
कराने के लिए कोई बात उठा नहीं रखी। वह रात-दिन इसी चिन्ता में डूबे रहते थे।
पुत्र-प्रेम तो था ही पर कदाचित् उससे भी अधिक लोकनिन्दा की लाज थी। जो घराना
सारे शहर में सम्मानित हो उसका यह पतन हृदय-विदारक था। जब वह चारों तरफ से
दौड़-धूप कर निराश हो गए तब एक दिन ज्ञानशंकर से बोले, आज
जरा ज्वालासिंह के पास चले जाते; तुम्हारे मित्र हैं,
शायद कुछ रियायत करें।
ज्ञानशंकर ने विस्मित भाव से कहा, मेरा
इस वक्त-उनके पास जाना सर्वधा अनुचित है। ज्ञानशंकर-मैं जानता हूँ और इसीलिए अब
तक तुमसे जिक्र नहीं किया लेकिन अब इसके बिना काम नहीं चलता दिखाई देता। डिप्टी
साहब अपने इजलास से बरी कर दें फिर आगे हम देख लेंगे। वह चाहें तो सबूतों को
निर्बल बना सकते हैं।
ज्ञान-पर आप इसकी कैसे आशा रखते
हैं कि मेरे कहने से वह अपने ईमान का खून करने पर तैयार हो जाएँगे।
प्रभाशंकर ने आग्रह पूर्वक कहा, मित्रों
के कहने सुनने का बड़ा असर होता है।
बूढ़ों की बातें बहुधा वर्तमान
सभ्य प्रथा के प्रतिकूल होती हैं। युवकगण इन बातों पर अधीर हो उठते हैं। उन्हें
बूढ़ों का यह अज्ञान-अक्षम्य-सा जान पड़ता है ज्ञानशंकर चिढ़कर बोले, जब
आपकी समझ में बात ही नहीं आती तो मैं क्या करूँ मैं अपने को दूसरों की निगाह में
गिराना नहीं चाहता।
प्रभाशंकर ने पूछा, क्या
अपने भाई की सिफारिश करने से अपमान होता है?
ज्ञानशंकर ने कटु भाव से कहा, सिफारिश
चाहे किसी काम के लिए हो, नीची बात है, विशेष करके ऐसे मामले में।
प्रभाशंकर बोले, इसका
अर्थ तो यह है कि मुसीबत में भाई से मदद की आशा न रखनी चाहिए।
“मुसीबत उन कठिनाइयों का
नाम है जो देवी और अनिवार्य कारणों से उत्पन्न हों, जान-बूझ
कर आग में कूदना मुसीबत नहीं है।
“लेकिन जो जान-बूझ कर आग
में कूदे, क्या उसकी प्राण-रक्षा न करनी चाहिए?'
इतने में बड़ी बहू दरवाजे पर आकर
खड़ी हो गई और बोली,
चलकर लल्लू (दयाशंकर) को जरा समझा क्यों नहीं देते? रात को भी खाना नहीं ख़ाया और इस वक्त अभी तक हाथ-मुँह नहीं धोया।
प्रभाशंकर खिन्न होकर बोले, कहाँ तक समझाऊँ? समझाते-समझाते तो हार गया। बेटा! मेरे चित्त की इस समय जो दशा है, वह बयान नहीं कर सकता। तुमने जो बातें कहीं हैं वह बहुत माकूल हैं,
लेकिन मुझ पर इतनी दया करो, आज डिप्टी साहब के
पास जरा चले आओ। मेरा मन कहता है, कि तुम्हारे जाने से
कुछ-न-कुछ उपकार अवश्य होगा।
ज्ञानशंकर बगलें झाँक रहे थे कि
बड़ी बहू बोल उठी,
यह जा चुके। लल्लू कहते थे कि ज्ञान झूठ भी जाकर कुछ कह दें तो सारा
काम बन जाए, लेकिन इन्हें क्या परवाह है, चाहे कोई चूल्हे भाड़ में जाए। फँसाना होता तो चाहे दौड़-धूप करते भी,
बचाने कैसे जाएँ, हेठी न हो जाएगी।
प्रभाशंकर ने तिरस्कार के भाव से
कहा,
क्या बेबात की बात कहती हो? अन्दर जाकर बैठती
क्यों नहीं?
बड़ी बहू ने कुटिल नेत्रों से
ज्ञानशंकर को देखते हुए कहा, मैं तो बलाग बात कहती हूँ, किसी को भला लगे या बुरा। जो बात इनके मन में है वह मेरी आँखों के सामने
है।
ज्ञानशंकर मर्माहत होकर बोले, चाचा
साहब! आप सुनते हैं इनकी बातें? यह मुझे इतना नीच समझती हैं।
बड़ी बहू ने मुँह बनाकर कहा, यह
क्या सुनेंगे, कान भी हों? सारी उम्र
गुलामी करते कटी, अब भी वही आदत पड़ी हुई है। तुम्हारा हाल
मैं जानती हूँ।
प्रभाशंकर ने व्यथित होकर कहा, ईश्वर
के लिए चुप रहो। बड़ी बहू त्योरियाँ चढ़ा कर बोली, चुप क्यों
रहूँ, किसी का डर है? यहाँ तो जान पर
बनी हुई है और यह अपने घमण्ड में भूले हुए हैं। ऐसे आदमी का तो मुँह देखना पाप है।
प्रभाशंकर ने भतीजे की ओर दीनता से
देखकर कहा,
बेटा, यह इस समय आपे में नहीं हैं। इनकी बातों
का बुरा मत मानना। लेकिन ज्ञानशंकर ने ये बातें न सुनीं, चाची
के कठोर वाक्य उनके हृदय को मथ रहे थे। बोले, तो मैं आप लोग
के साथ रहकर कौन-सा स्वर्ग का सुख भोग रही हूँ।
बड़ी बहू-जो अभिलाषा मन में हो वह
निकाल डालो। जब अपनापन ही नहीं, तो एक घर में रहने से थोड़े ही एक हो
जाएँगे!
ज्ञान-आप लोगों की यही इच्छा है तो
यही सही,
मुझे निकाल दीजिए।
बड़ी बहू-हमारी इच्छा है? आज
महीनों से तुम्हारा रंग देख रही हूँ। ईश्वर ने आँखें दी हैं, धूप में बाल नहीं सफेद किए हैं। हम लोग तुम्हारी आँख में काँटे की तरह
खटकते हैं। तुम समझते हो यह लोग हमारा सर्वस्व खाए जाते हैं। जब तुम्हारे मन में
इतना कमीनापन आ गया तो फिर-
प्रभाशंकर ने ठण्डी साँस लेकर कहा, या
ईश्वर, मुझे मौत क्यों नहीं आ जाती बड़ी बहू ने पति को
कुपित नेत्रों से देखकर कहा, तुम्हें, यह
बहुत प्यारे हैं, तो जाकर इनकी जूतियाँ सीधी करो। जो आदमी
मुसीबत में साथ न दे, वह दुश्मन है, उससे
दूर रहना ही अच्छा है।
ज्ञान-तो यह धमकी किसे देती हो? कल
के बदले आज ही हिस्सा बाँट कर लो!
बड़ी बहू-क्या तुम समझते हो कि हम
तुम्हारा दिया खाती हैं?
बड़ी बहू-नहीं, तुम्हें
यही घमण्ड है।
ज्ञान-अगर यही घमण्ड है तो क्या
अन्याय है। जितना आपका खर्च है उतना मेरा कभी नहीं है।
बड़ी बहू ने पति की ओर देखकर
व्यंग्य भाव से कहा-कुछ सुन रहे हो सपूत की बातें! बोलते क्यों नहीं? क्या
मुँह में दही जमा हुआ है। बाप हजारों रुपये साल साधू-भिखारियों को खिला दिया करते
थे। मरते दम तक पालकी के बारह कहार दरवाजे से नहीं टले। इन्हें आज हमारी रोटियाँ
अख़र रही हैं। लाला हमारा बस मानो कि आज रईसों की तरह चैन कर रहे हो, नहीं तो मुँह में मक्खियाँ आती-जातीं ।
प्रभाशंकर यह बातें न सुन सके।
उठकर बाहर चले गए। बड़ी बहू मोर्चे पर अकेले ठहर न सकीं, घर
में चली गईं। लेकिन ज्ञानशंकर वहीं बैठे रहे । उनके हृदय में एक दाह-सी हो रही थी।
इतनी निष्ठुरता! इतनी कृतघ्नता! मैं कमीना हूँ, मैं दुश्मन
हूँ, मेरी सूरत देखना पाप है। जिन्दगी-भर हमको नोचा-खसोटा,
आज यह बातें! यह घमण्ड! देखता हूँ यह घमंड कब तक रहता है? इसे तोड़ न दिया तो कहना! ये लोग सोचते होंगे, मालिक
तो हम हैं, कुञ्जियाँ तो हमारे पास हैं, इसे जो देंगे, वह ले लेगा। एक-एक चीज का आधा करा
लूँगा। बुढ़िया के पास जरूर रुपये हैं। पिता जी ने सब कुछ इन्हीं लोगों पर छोड़
दिया था। इसने काट-कपट कर दस-बीस हजार जमा कर लिया है। बस, उसी
का घमण्ड है, और कोई बात नहीं। द्वेष में दूसरों को धनी
समझने की विशेष चेष्टा होती है।
ज्ञानशंकर इन कुकल्पनाओं से भरे हुए
बाहर आए तो चाचा को दीवानखाने में मुंशी ईजादहुसैन से बातें करते पाया | यह
मुंशी ज्वालासिंह के इजलास के अहलमद थे-बड़े बातूनी, बड़े
चलते-पुर्जे, वह कह रहे थे आप घबराएँ नहीं, खुदा ने चाहा तो बाबू दयाशंकर बेदाग बरी हो जाएँगे। मैंने महरी की मारफत
उनकी बीवी को ऐसा चंग पर चढ़ाया है कि वह दारोगा जी को विला बरी कराए डिप्टी साहब
का दामन न छोड़ेंगी। सौ-दो सौ रुपये खर्च हो जाएँगे, मगर
क्या मुजायका, आबरू तो बच जाएगी। अकस्मात् ज्ञानशंकर को
वहाँ देखकर वह कुछ झेंप गए।
प्रभाशंकर बोले, रुपये
जितने दरकार हों ले जाएँ, आपकी कोशिश से बात बन गई तो हमेशा
आपका शुक्रगुजार रहूँगा।
ईजाद हुसैन ने ज्ञानशंकर को देखते
हुए कहा,
बाबू ज्वालासिंह दोस्ती का कुछ हक तो जरूर ही अदा करेंगे। जबान से
चाहे कितने ही बेनियाज बनें लेकिन दिल में वह आपका बहुत लेहाज करते हैं। मैं भी इस
पर खूब रंग चढ़ाता हूँ। कल आपका जिक्र करते हुए मैंने कहा, वह
तो दो-तीन दिन से दाना-पानी तर्क किए हुए हैं। यह सुनकर कुछ गौर करने लगे, बाद अजाँ उठकर अन्दर चले गए।
प्रभाशंकर ने मुंशी को
श्रद्धापूर्ण नेत्रों से देखा, पर ज्ञानशंकर ने तुच्छ दृष्टि से
देखा. और ऊपर चले गए। विद्यावती उनकी राह देख रही थी, बोली,
आज देर क्यों कर रहे हो? भोजन तो कभी से
तैयार है।
ज्ञानशंकर ने उदासीनता से कहा, क्या
खाऊँ, कुछ मिले भी? मालिक और मालकिन
दोनों ने आज से मेरा निबटारा कर दिया। उन्हें मेरी सूरत देखने से पाप लगता है।
ऐसों के साथ रहने से तो मर जाना अच्छा है।
विद्यावती ने सशंक होकर पूछा, क्या
बात हुई?
ज्ञानशंकर ने इस प्रश्न का उत्तर
विस्तार के साथ दिया। उन्हें आशा थी कि इन बातों से विद्या की शान्तिप्रियता को
आघात पहुँचेगा,
किन्तु उन्हें कितनी निराशा हुई। जब उसने सारी कथा सुनने के बाद कहा,
तुम्हें ज्वालासिंह के यहाँ चले जाना चाहिए था। चाचा जी की बात रह
जाती। ऐसे ही अवसरों पर तो अपने-पराए की पहचान होती है। तुम्हारी ओर से आना-कानी
देखकर उन लोगों को क्रोध आ गया होगा। क्रोध में आदमी अपने मन की बात नहीं कहता। वह
केवल दूसरों का दिल दुखाना चाहता है।
ज्ञानशंकर खिन्न होकर बोले, तुम्हारी
बातें सुनकर जी चाहता है कि अपना और तुम्हारा दोनों का सिर फोड़ लूँ। उन लोगों के
कटु वाक्यों को फूल-पान समझ लिया, मुझी को उपदेश देने लगी।
मुझे तो यह लज्जा आ रही है कि इस गुरगे ईजाद हुसैन ने मेरी तरफ से जाने क्या रद्दे
जमाये होंगे और तुम मुझे सिफारिश करने की शिक्षा देती हो। मैं ज्वालासिंह को जता
देना चाहता हूँ कि इस विषय में सर्वथा स्वतन्त्र हूँ। गरजमन्द बनकर उनकी दृष्टि
में नीचा बनना नहीं चहता।
विद्या ने विस्मित होकर पूछा, क्या
उनसे यह कहने जाओगे?
ज्ञानशंकर-आवश्य जाऊँगा। दूसरे की
आबरू के लिए अपनी प्रतिष्ठा क्यों खोऊँ?
विद्या-भला वह अपने मन में क्या
कहेंगे?
क्या इससे तुम्हारा द्वेष न प्रकट होगा?
ज्ञानशंकर-तुम मुझे जितना मूर्ख
समझती हो,
उतना नहीं हूँ। मुझे मालूम है कौन बात किस ढंग से करनी चाहिए।
विद्या चिन्तित नेत्रों से भूमि की
ओर देखने लगी। उसे पति की संकीर्णता पर खेद हो रहा था, लेकिन
कुछ और कहते डरती थी कि कहीं उसकी दुष्कामना और भी दृढ़ न हो जाए। इतने में
दयाशंकर की स्त्री भोजन करने के लिए बुलाने आई। उधर श्रद्धा ने जाकर बड़ी बहू को
मनाना शुरू किया। विद्या ने लाला प्रभाशंकर को मनाने के लिए तेजशंकर को भेजा,
पर इनमें कोई भी भोजन करने न उठा। प्रभाशंकर को यह ग्लानि हो रही थी
कि मेरी स्त्री ने ज्ञानशंकर को अप्रिय बातें सुनाईं। बड़ी बहू को शोक था कि मेरे
पुत्र का कोई हितैषी नहीं और ज्ञानशंकर को यह जलन थी कि यह लोग मेरा खाकर मुझी को
आँखें दिखाते हैं। क्षुधाग्नि के साथ क्रोधाग्नि भी भड़क जाती थी।
विवाद में हम बहुधा अत्यन्त
नीतिपरायण बन जाते हैं,
पर वास्तव में इससे हमारा अभिप्राय यही होता है, कि विपक्षी की जबान बन्द कर दें। इन चन्द घण्टों में ही ज्ञानशंकर की
नीतिपरायणता ईर्षाग्नि में परिवर्तित हो चुकी थी। जिस प्राणी के हित के लिए
ज्वालासिंह से कुछ कहना उन्हें असंगत जान पड़ता था, उसी के
अहित के लिए वह वहाँ जाने को तैयार हो गए। उन्होंने इस प्रसंग में सारी बातें मन
में निश्चित कर ली थीं, इस प्रश्न को ऐसी कुशलता से उठाना
चाहते थे कि नीयत का परदा न खुलने पाए।
दूसरे दिन प्रातः काल ज्यों ही नौ
बजे ज्ञानशंकर ने पैरगाड़ी सँभाली और घर से निकले। द्वार पर लाला प्रभाशंकर अपने
दोनों पुत्रों के साथ टहल रहे थे। ज्ञानशंकर ने मन में कहा, 'बुड्ढा साठ वर्ष का हो गया है; पर अभी तक वही जवानी
की ऐंठ है। कैसा अकड़कर चलता है! अब देखता हूँ, मिश्री और
मक्खन कहाँ मिलता है? लौंडे मेरी ओर कैसे घूर रहे हैं। मानो
निगल जाएँगे। वर्षा का आगमन हो चुका था, घटा उमड़ी हुई थी।
मानो समुद्र आकाश पर चढ़ गया हो। सड़कों पर इतना कीचड़ था कि ज्ञानशंकर की
पैरगाड़ी मुश्किल से निकल सकी, छींटों से कपड़े खराब हो गए।
उन्हें म्युनिसिपलिटी के सदस्यों पर क्रोध आ रहा था कि सब के सब स्वार्थी, ख़ुशामदी और उचक्के हैं। चुनाव के समय भिखारियों की तरह द्वार-द्वार
घूमते-फिरते हैं, लेकिन मेम्बर होते ही राजा बन बैठते हैं।
कठिन तपस्या का फल यह निर्वाण पद प्राप्त हो जाता है।
(अभी अधूरी रचना)
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