सेवासदन मुंशी प्रेमचंद
1
पश्चाताप के कड़वे फल कभी-न-कभी
सभी को चखने पड़ते हैं,
लेकिन और लोग बुराईयों पर पछताते हैं, दारोगा
कृष्णचन्द्र अपनी भलाइयों पर पछता रहे थे। उन्हें थानेदारी करते हुए पच्चीस वर्ष
हो गए, लेकिन उन्होंने अपनी नीयत को कभी बिगड़ने नहीं दिया
था। यौवनकाल में भी, जब चित्त भोग-विलास के लिए व्याकुल रहता
है, उन्होंने निस्पृह भाव से अपना कर्तव्य पालन किया था।
लेकिन इतने दिनों के बाद आज वह अपनी सरलता और विवेक पर हाथ मल रहे थे।
उनकी पत्नी गंगाजली सती-साध्वी
पुत्री थी। उसने सदैव अपने पति को कुमार्ग से बचाया था। पर इस समय वह चिंता में
डूबी हुई थी। उसे स्वयं संदेह हो रहा था कि जीवन-भर की सच्चरित्रता बिल्कुल व्यर्थ
तो नहीं हो गयी।
दारोगा कृष्णचन्द्र रसिक, उदार
और बड़े सज्जन पुरुष थे। मातहतों के साथ वह भाईचारे का-सा व्यवहार करते थे किंतु
मातहतों की दृष्टि में उनके इस व्यवहार का कुछ मूल्य न था। वह कहा करते थे कि यहां
हमारा पेट नहीं भरता, हम उनकी भलमनसी को लेकर क्या
करें-चाटें ? हमें घुड़की, डांट-डपट,
सख्ती सब स्वीकार है, केवल हमारा पेट भरना
चाहिए। रूखी रोटियां चांदी के थाल में परोसी जाएं वे पूरियाँ न हो जाएंगी।
दारोगाजी के अफसर भी उनसे प्रायः
प्रसन्न न रहते। वह दूसरे थाने में जाते तो उनका बड़ा आदर-सत्कार होता था, उनके
अहलमद, मुहर्रिर और अरदली खूब दावतें उड़ाते। अहलमद को
नजराना मिलता, अरदली इनाम पाता और अफसरों को नित्य डालियाँ
मिलती थीं, पर कृण्णचन्द्र के यहाँ यह आदर-सत्कार कहां ?
वह न दावतें करते थे, न डालियां ही लगाते थे।
जो किसी से लेता नहीं वह किसी को देगा कहां से ? दारोगा
कृष्णचन्द्र की इस शुष्कता को लोग अभिमान समझते थे।
लेकिन इतना निर्लोभ होने पर भी
दारोगाजी के स्वभाव में किफायत का नाम न था। वह स्वयं तो शौकीन न थे, लेकिन
अपने घरवालों को आराम देना अपना कर्तव्य समझते थे। उनके सिवा घर में तीन प्राणी और
थे; स्त्री और दो लड़कियाँ। दारोगाजी इन लड़कियों को प्राण
से भी अधिक प्यार करते थे। उनके लिए अच्छे-अच्छे कपड़े लाते और शहर से नित्य
तरह-तरह की चीजें मंगाया करते। बाजार में कोई तहदार कपड़ा देखकर उनका जी नहीं
मानता था, लड़कियों के लिए अवश्य ले आते थे। घर में सामान
जमा करने की उन्हें धुन थी। सारा मकान कुर्सियों, मेजों,
अलमारियों से भरा हुआ था। नगीने के कलमदान, झाँसी
के कालीन, आगरे की दरियां बाजार में नजर आ जातीं, तो उन पर लट्टू हो जाते। कोई लूट के धन पर भी इस भाँति न टूटता होगा।
लड़कियों को पढ़ाने और सीना-पिरोना सिखाने के लिए उन्होंने एक ईसाई लेडी रख ली थी।
कभी-कभी वे स्वयं उनकी परीक्षा लिया करते थे।
गंगाजली चतुर स्त्री थी। उन्हें
समझाया करती थी जरा हाथ रोककर खर्च करो। जीवन में यदि और कुछ नहीं करना है तो
लड़कियों का विवाह तो करना ही पड़ेगा, उस समय किसके सामने हाथ
फैलाते फिरोगे ? अभी तो उन्हें मखमली जूतियाँ पहनाते हो,
कुछ इसकी भी चिंता है कि आगे क्या होगा ? दरोगाजी
इन बातों को हँसी में उड़ा देते, कहते, जैसे और सब काम चलते हैं, वैसे ही यह काम भी हो
जाएगा। कभी झुंझलाकर कहते ऐसी बात करके मेरे ऊपर चिंता का बोझ मत डालो।
इस प्रकार दिन बातते चले गये थे।
दोनों लड़कियां कमल के समान खिलती जाती थीं, बड़ी लड़की सुमन सुंदर,
चंचल और अभिमानी थी, छोटी लड़की शान्ता भोली,
गंभीर, सुशील थी। सुमन दूसरों से बढ़कर रहना
चाहती थी। यदि बाजार से दोनों बहनों के लिए एक ही प्रकार की साड़ियाँ आतीं। तो
सुमन मुँह फुला लेती थी। शान्ता को जो कुछ मिल जाता, उसी में
प्रसन्न रहती।
गंगाजली पुराने विचार के अनुसार
लड़कियों के ऋण से शीघ्र मुक्त होना चाहती थी। पर दरोगाजी कहते, यह
अभी विवाह योग्य नहीं है। शास्त्रों में लिखा है कन्या का विवाह सोलह वर्ष की आयु
से पहले करना पाप है। वह इस प्रकार मन को समझाकर टालते जाते थे। समाचार पत्रों में
जब दहेज-विरोधी के बड़े–बड़े लेख पढ़ते, तो बहुत प्रसन्न होते। गंगाजली से कहते कि अब एक दो साल में ही यह कुरीति
मिटी जाती है। चिंता की कोई जरूरत नहीं। यहां तक कि इसी तरह सुमन का सोलहवां वर्ष
लग गया।
अब कृष्णचन्द्र अपने को अधिक धोखा
नहीं दे सके। उनकी पूर्व निश्चिंतता वैसी न थी, जो अपने सामर्थ्य के
ज्ञान से उत्पन्न होती है। उसका मूल कारण उनकी अकर्मण्यता थी। उस पथिक की भाँति,
जो दिन भर किसी वृक्ष के नीचे आराम से सोने के बाद संध्या को उठे और
सामने एक ऊँचा पहाड़ देखकर हिम्मत हार बैठे। दारोगाजी भी घबरा गए। वर की खोज में
दौड़ने लगे, कई जगहों से टिप्पणियां मंगवाईं। वह शिक्षित
परिवार चाहते थे। वह समझते थे कि ऐसे घरों में लेन-देन की चर्चा न होगी, पर उन्हें यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि वरों का मोल उनकी शिक्षा के
अनुसार है। राशि वर्ण ठीक हो जाने पर जब लेन-देन की बातें होने लगतीं, तब कृष्णचन्द्र की आँखों के सामने अंधेरा छा जाता था। कोई चार हजार
सुनाता। कोई पांच हजार। और कोई इससे भी आगे बढ़ जाता। बेचारे निराश होकर लौट आते।
आज छह महीने से दरोगाजी इसी चिंता में पड़े हैं। बुद्धि काम नहीं करती। इसमें
संदेह नहीं कि शिक्षित सज्जनों को उनसे सहानुभूति थी; पर वह
एक-न एक ऐसी पख निकाल देते थे कि कि दारोगाजी को निरुत्तर हो जाना पड़ता था। एक
सज्जन ने कहा- महाशय, मैं स्वयं इस कुप्रथा का जानी दुश्मन
हूँ, लेकिन क्या करूँ अभी पिछले साल लड़की का विवाह किया,
दो हजार रुपये केवल दहेज में देने पड़े दो हजार और खाने पीने में
खर्च करने पडे़, आप ही कहिए यह कमी कैसे पूरी हो ?
दूसरे महाशय इनसे अधिक नीतिकुशल
थे। बोले-दारोगाजी,
मैंने लड़के को पाला है, सहस्रों रुपये उसकी
पढ़ाई में खर्च किए हैं। आपकी लड़की को इससे उतना ही लाभ होगा, जितना मेरे लड़के को। तो आप ही न्याय कीजिए कि यह सारा भार मैं अकेला कैसे
उठा सकता हूँ ?
कृष्णचन्द्र को अपनी ईमानदारी और
सच्चाई पर पश्चाताप होने लगा। अपनी निस्पृहता पर उन्हें जो घमंड था टूट गया। वह
सोच रहे थे कि यदि मैं पाप से न डरता, तो आज मुझे यों मुझे
ठोकरें न खानी पड़तीं। इस समय दोनों स्त्री-पुरुष चिंता में डूबे बैठे थे। बड़ी
देर के बाद कृष्णचन्द्र बोले-देख लिया, संसार में संमार्ग पर
चलने का यह फल होता है। यदि आज मैंने लोगों को लूटकर अपना घर भर लिया होता,
तो लोग मुझसे संबंध करना अपना सौभाग्य समझते, नहीं
तो कोई सीधे मुंह बात नहीं करता है।
परमात्मा के दरबार में यह न्याय
होता है ! अब दो ही उपाय हैं, या तो सुमन को किसी कंगाल के पल्ले
बाँध दूँ या कोई सोने की चिड़िया फसाऊँ। पहली बात तो होने से रही। बस अब सोने की
चिड़िया की खोज में निकलता हूँ। धर्म का मजा चख लिया, सुनीति
का हल भी देख चुका। अब लोगों को खूब दबाऊँगा; खूब रिश्वत
लूँगा, यही अंतिम उपाय है, संसार यही
चाहता है, और कदाचित् ईश्वर भी यही चाहता है। यही सही। आज से
मैं भी वहीं करूँगा, जो सब करते हैं। गंगाजली सिर झुकाए अपने
पति की बातें सुन कर दुःखित हो रही थी। वह चुप थी। आँखों में आँसू भरे हुए थे।
2
दारोगाजी के हल्के में एक महन्त
रामदास रहते थे। वह साधुओं की एक गद्दी के महंत थे। उनके यहाँ सारा कारोबार ‘श्री
बांकेबिहारीजी’ के नाम पर होता था। ‘श्री
बांकेबिहारीजी’ लेन-देन करते थे और बत्तीस रुपये प्रति
सैकड़े से कम सूद न लेते थे। वही मालगुजारी वसूल करते थे, रेहननामे-बैनामे
लिखाते थे। ‘श्री बांकेबिहारीजी’ की
रकम दबाने का किसी को साहस न होता था और न अपनी रकम के लिए कोई दूसरा आदमी उनसे
लड़ाई कर सकता था। ‘श्री बांकेबिहारी जी’ को रुष्ट करके उस, इलाके में रहना कठिन था। महंत
रामदास के यहाँ दस-बीस मोटे-ताजे साधु स्थायी रूप से रहते थे। वह अखाड़े में दंड
पेलते, भैंस का ताजा दूध पीते संध्या को दूधिया भंग छानते और
गांजे-चरस की चिलम तो कभी ठंडी न होने पाती थी। ऐसे बलवान जत्थे के विरुद्ध कौन
सिर उठाता ?
महंतजी का अधिकारियों में खूब मान
था। ‘श्री बांकेबिहारी जी’ उन्हें खूब मोती चूर के लड्डू
और मोहनभोग खिलाते थे। उनके प्रसाद से कौन इनकार कर सकता था ? ठाकुरजी संसार में आकर संसार की नीति पर चलते थे।
महंत रामदास जब अपने इलाके की
निगरानी करने निकलते तो उनका जुलूस राजसी ठाटबाट के साथ चलता था। सबके आगे हाथी पर
‘श्रीबांकेबिहारीजी’ की सवारी होती थी। उनके पीछे
पालकी पर महंत जी चलते थे, उसके बाद साधुओं की सेना घोड़ों
पर सवार, राम-राम के झंडे लिए अपनी विचित्र शोभा दिखाती थी,
ऊँटों पर छोलदारियाँ, डेरे और शामियाने लदे
होते थे। यह दल जिस गाँव में जा पहुँचता था, उसकी शामत आ
जाती थी।
इस साल महंतजी तीर्थयात्रा करने गए
थे। वहाँ से आकर उन्होंने एक बड़ा यज्ञ किया था। एक महीने तक हवनकुंड जलता रहा, महीनों
तक कड़ाह न उतरे, पूरे दस हजार महात्माओं का निमंत्रण था।
इस यज्ञ के लिए इलाके के प्रत्येक
आसामी से हल पीछे पाँच रूपय चंदा उगाहा गया था। किसी ने खुशी से दे दिया, किसी
ने उधार लेकर और जिनके पास न था, उसे रुक्का ही लिखना पड़ा। ‘श्रीबांकेबिहारीजी’ की आज्ञा को कौन टाल सकता था ?
यदि ठाकुर जी को हार माननी पड़ी, तो केवल एक
अहीर से, जिसका नाम चैतू था। वह बूढ़ा दरिद्र आदमी था। कई
साल से उसकी फसल खराब हो रही थी। थोड़े ही दिन हुए ‘श्रीबांकेबिहारी
जी’ ने उस पर इजाफा लगान की नालिश करके उसे ऋण के बोझ से दबा
दिया था। उसने यह चंदा देने से इनकार किया यहां तक कि रुक्का भी नहीं लिखा। ठाकुर
जी भला ऐसे द्रोही को कैसे क्षमा करते ? एक दिन कई महात्मा
चैतू को पकड़ लाए। ठाकुरद्वारे के सामने उस पर मार पड़ने लगी। चैतू भी बिगड़ा। हाथ
तो बँधे हुए थे, मुँह से लात धुंसो का जवाब देता रहा और जब
तक जबान बंद न हो गई, चुप न हुआ इतना कष्ट देकर ठाकुरजी को
संतोष न हुआ, उसी रात को उसके प्राण हर लिए। प्रातः काल
चौकीदार ने थाने में रिपोर्ट की।
दरोगा कृष्णचन्द्र को मालूम हुआ, मानो
ईश्वर ने बैठे-बिठाये सोने की चिड़ियाँ उनके पास भेज दी। तहकीकात करने चले।
लेकिन महंत जी की उस इलाके में ऐसी
धाक जमी हुई थी कि दारोगाजी को कोई गवाही न मिल सकी। लोग एकांत में आकर उनसे सारा
वृतांत कह जाते थे,
पर कोई अपना बयान नहीं देता था।
इस प्रकार तीन-चार दिन बीत गए।
महंत पहले तो बहुत अकड़े रहे। उन्हें निश्चय था कि यह भेद न खुल सकेगा। लेकिन जब
पता चला कि दारोगाजी ने कई आदमियों को फोड़ लिया है, तो कुछ नरम पड़े।
अपने मुख्तार को दरोगाजी के पास भेजा। कुबेर की शरण ली। लेन-देन की बातचीत होने
लगी। कृष्णचन्द्र ने कहा-मेरा हाल तो आप लोग जानते हैं कि रिश्वत को काला नाग
समझता हूँ। मुख्तार ने कहा-हाँ यह तो मालूम है, किंतु
साधु-संतों पर कृपा रखनी ही चाहिए। इसके बाद दोनों सज्जनों में कानाफूसी हुई
मुख्तार ने कहा-नहीं सरकार। पांच हजार बहुत होते हैं। महंतजी को आप जानते हैं। वह
अपनी टेक पर आ जाएंगे, तो चाहे फांसी ही हो जाए जौ-भर न
हटेंगे। ऐसा कीजिए कि उनको कष्ट न हो, आपका भी काम निकल जाए।
अंत में तीन हजार में बात पक्की हो गयी।
वह कड़वी दवा खरीदकर लाने, उसका
काढ़ा बनाने और उसे उठाकर पीने में बहुत अंतर है। मुख्तार तो महंत के पास गया और
कृष्णचन्द्र सोचने लगे, यह मैं क्या कर रहा हूँ ?’
एक ओर रुपयों का ढेर था और
चिन्ता-व्याधि से मुक्त होने की आशा, दूसरी ओर आत्मा का
सर्वनाश और परिणाम का भय। न हां करते बनता था न नहीं।
जन्म भर निर्लोभ रहने के बाद इस
समय अपनी आत्मा का बलिदान करने में दारोगाजी को बड़ा दुःख होता था। वह सोचते थे, यदि
यही करना था तो आज से पच्चीस साल पहले क्यों न किया, अब तक
सोने की दीवार खड़ी कर दी होती। इलाके ले लिए होते। इतने दिनों तक त्याग का आनंद
उठाने के बाद बुढ़ापे में यह कलंक, पर मन कहता था इसमें
तुम्हारा क्या अपराध ? तुमने जब तक निभ सका, निबाहा। भोग-विलास के पीछे अधर्म नहीं किया; लेकिन
जब देश, काल, प्रथा और अपने बन्धुओं का
लोभ तुम्हें कुमार्ग की ओर ले जा रहे हैं तो तुम्हरा दोष ? तुम्हारी
आत्मा अब भी पवित्र है । तुम ईश्वर के सामने अब भी निरपराध हो। इस प्रकार तर्क कर
के दरोगा जी ने अपनी आत्मा को समझा लिया।
लेकिन परिमाण का भय किसी तरह पीछा
न छोड़ता था । उन्होंने कभी रिश्वत नहीं ली थी । हिम्मत न खुली थी । जिसने कभी किसी
पर हाथ न उठाया हो,
वह सहसा तलवार का वार नहीं कर सकता। यदि कही बात खुल गई तो जेलखाने
के सिवा और कहीं ठिकाना नहीं; सारी नेकनामी धूल में मिल
जायगी । आत्मा तर्क से परास्त हो सकती है, पर परिणाम का भय,
तर्क से दूर नहीं होता । वह पर्दा चाहता है । दारोगा जी ने यथासम्भव
इस मामले को गुप्त रक्खा । मुख्तार से ताकीद कर दी कि इस बात की भनक भी किसी के
कान में न पड़ने पावे । थाने के कान्सटेबिलों और अमलों से भी सारी बातें गुप्त रखी
गईं।
रात के नौ बजे थे। दारोगाजी ने
अपने तीनों कान्सटेबिलों को किसी बहाने से थाने के बाहर भेज दिया था । चौकीदारों
को भी रसद का सामान जुटाने के लिए इधर-उधर भेज दिया था और आप अकेले बैठे हुए
मुख्तार की राह देख रहे थे । मुख्तार अभी तक नहीं लौटा, कर
क्या रहा है ? चौकीदार सब आकर घेर लेंगे तो बडी मुश्किल
पड़ेगी । इसी से मैंने कह दिया था कि जल्द आना । अच्छा मान लो, जो महन्त तीन हजार पर भी राजी न हुआ तो ? नहीं,
इससे कम न लूंगा । इससे कम में विवाह हो ही नहीं सकता।
दारोगाजी मन-ही-मन हिसाब लगाने लगे
कि कितने रुपये दहेज में दूँगा और कितने खाने-पीने में खर्च करूँगा।
कोई आध घण्टे के बाद मुख्तार के
आने की आहट मिली। उनकी छाती धडकने लगी। चारपाई से उठ बैठे, फिर
पानदान खोल कर पान लगाने लगे कि इतने में मुख्तार भीतर आया ।
कृष्णचन्द्र—कहिए
?
मुख्तार—महन्त
जी ......
कृष्णचन्द्र ने दरवाजे की तरफ देख
कर कहा,
रुपये लाये या नहीं ?
मुख्तार—जी
हाँ, लाया हूँ, पर महन्त जी ने ....
कृष्णचन्द्र ने चारों तरफ देखकर
चौकन्नी आंखों से देख कर कहा—मैं एक कोटी भी कम न करूँगा।
मुख्तार——अच्छा
मेरा हक तो दीजियेगा न?
कृष्ण—अपना
हक महन्त जी से लेना ।
मुख्तार——पांच
रुपया सैंकडा तो हमारा बँधा हुआ है ।
कृष्ण-—इसमें
से एक कौड़ी भी न मिलेगी । मैं अपनी आत्मा बेच रहा हूँ, कुछ
लूट नहीं रहा हूँ।
मुख्तार—आपकी
जैसी मरजी, पर मेरा हक मारा जाता है।
कृष्ण--मेरे साथ घर तक चलना
पड़ेगा।
तुरन्त बहली तैयार हुई और दोनों
आदमी उस पर बैठ कर चले । बहली के आगे-पीछे, चौकीदारों का दल था।
कृष्णचन्द्र उड़कर घर पहुंचना चाहते थे । गाड़ीवान को बार बार हांकने के लिए कह कर
कहते कहते, अरे क्या सो रहा है ? हाके
चल ।
११ बजते-बजते लोग घर पहुंचे ।
दारोगा जी मुख्तार को लिए हुए अपने कमरे में गये और किवाड़ बन्द कर दिये । मुख्तार
ने थैली निकाली । कुछ गीन्नियां थी, कुछ नोट और नगद रुपये ।
कृष्णचन्द्र ने झट थैली ले ली और बिना देखे सुने उसे अपने सन्दूक में डाल कर ताला
लगा दिया।
गंगाजली अभी तक उनकी राह देख रही
थी। कृष्णचन्द्र मुख्तार को बिदा करके घर में गये । गंगाजली ने पूछा, इतनी
देर क्यों की ?
कृष्ण-—काम
ही ऐसा आ पड़ा और दूर भी बहुत है।
भोजन कर के दारोगा जी लेटे, पर
नींद न आती थी । स्त्री से रुपये की बात कहते उन्हें संकोच हो रहा था । गंगाजली को
भी नींद न आती थी । वह बार-बार पति के मुंह की ओर देखती, मानों
पूछ रही थी कि बचे या डूबे।
अन्त में कृष्णचन्द्र बोले- यदि
तुम नदी के किनारे खड़ी हो और पीछे से एक शेर तुम्हारे ऊपर झपटे तो क्या करोगी ?
गंगाजली इस प्रश्न का अभिप्राय समझ
गई । बोली,
नदी में चली जाऊँगी।
कृष्ण-चाहे डूब ही जाओ ?
गंगा –हाँ
डूब जाना शेर के मुंह पड़ने से अच्छा है ।
कृष्ण—अच्छा,
यदि तुम्हारे घर में आग लगी हो और दरवाजे से निकलने का रास्ता न हो
तो क्या करोगी ?
गंगा-छत पर चढ़ जाऊँगी और नीचे कूद
पड़ूंगी ।
कृष्ण-इन प्रश्नों का मतलब
तुम्हारी समझ में आया ?
गंगाजली ने दीनभाव से पति की ओर
देख कर कहा,
तब क्या ऐसी बेसमझ हूँ ?
कृष्ण-मैं कूद पडा़ हूँ । बचूंगा
या डूब जाऊँगा,
यह मालूम नहीं ।
3
पण्डित कृष्णचन्द्र रिश्वत लेकर
उसे छिपाने के साधन न जानते थे । इस विषय में अभी नोसिखुए थे । उन्हें मालूम न था
कि हराम का माल अकेले मुश्किल से पचता है । मुख्तार ने अपने मन मे कहा, हमीं
ने सब कुछ किया और हमीं से यह चाल ! हमें क्या पड़ी थी कि इस झगड़े में पड़ते और
रात दिन बैठे तुम्हारी खुशामद करते । महन्त फसते या बचते, मेरी
बला से, मुझे तो अपने साथ न ले जाते । तुम खुश होते या नाराज,
मेरी बला से, मेरा क्या बिगाड़ते ? मैंने जो इतनी दौड़-धूप की, वह कुछ आशा ही रख कर की
थी ।
वह दारोगा जी के पास से उठ कर सीधे
थाने में आया और बातों ही बातों में सारा भण्डा फोड़ गया।
थाने के अमलों ने कहा, वाह
हमसे यह चाल ! हमसे छिपा-छिपा कर यह रकम उड़ाई जाती है । मानो हम सरकार के नौकर ही
नहीं हैं । देखें यह माल कैसे हजम होता है । यदि इस बगुला भगत को मजा न चखा दिया
तो देखना ।
कृणचन्द्र तो विवाह की तैयारियों
में मग्न थे । वर सुन्दर,
सुशील सुशिक्षित था । कुछ ऊँचा और धनी । दोनों ओर से लिखा-पढी हो
रही थी । उधर हाकिमों के पास गुप्त चिट्ठियाँ पहुँच रही थी । उनमें सारी घटना ऐसी
सफाई से बयान की गयी थी, आक्षेपों के ऐसे सबल प्रमाण दिये गए
थे, व्यवस्या की ऐसी उत्तम विवेचना की गई थी कि हाकिमों के
मन में सन्देह उत्पन्न हो गया। उन्होने गुप्त रीति से तहकीकात की। संदेह जाता रहा
। सारा रहस्य खुल गया।
एक महीना बीत चुका था । कल तिलक
जाने की साइत थी । दारोगा जी संध्या समय थाने में मसनद लगाये बैठे थे, उस
समय सामने से सुपरिन्टेन्डेन्ट पुलिस आता हुआ दिखाई दिया । उसके पीछे दो थानेदार
और कई कान्सटेबल चले आ रहे थे । कृष्णचन्द्र उन्हें देखते ही घबरा कर उठे कि एक
थानेदार ने बढ़ कर उन्हें गिरफ्तारी का वारण्ट दिखाया । कृष्णचन्द्र का मुख पीला
पड़ गया। वह जड़मूर्ति की भांति चुपचाप खड़े हो गए और सिर झुका लिया । उनके चेहरे
पर भय न था, लज्जा थी । यह वही दोनो थानेदार थे, जिनके सामने वह अभिमान से सिर उठा कर चलते थे, जिन्हें
वह नीच समझते थे । पर आज उन्हीं के सामने वह सिर नीचा किये खड़े थे । जन्म भर की
नेक-नामी एक क्षण में धूल में मिल गयी । थाने के अमलों ने मन में कहा, और अकेले-अकेले रिश्वत उड़ाओ ।
सुपरिन्टेन्डेन्ट ने कहा,-वेल
किशनचन्द्र, तुम अपने बारे में कुछ कहना चाहता है ?
कृष्णचन्द्र ने सोचा--क्या कहूँ ? क्या
कह दूं कि मैं बिल्कुल निरपराध हूँ, यह सब मेरे शत्रुओं की
शरारत है, थानेवालों ने मेरी ईमानदारी से तंग आकर मुझे यहाँ
से निकालने के लिए यह चाल खेली है ?
पर वह पापाभिनय में ऐसे सिद्धहस्त
न थे । उनकी आत्मा स्वयं अपने अपराध के बोझ से दबी जा रही थी। वह अपनी ही दृष्टि
में गिर गए थे ।
जिस प्रकार बिरले ही दुराचारियों
को अपने कुकर्मों का दण्ड मिलता है उसी प्रकार सज्जन का दंड पाना अनिवार्य है ।
उसका चेहरा,
उसकी आँखें,उसके आकार-प्रकार, सब जिह्वा बन-बन कर उसके प्रतिकूल साक्षी देते हैं । उसकी आत्मा स्वयं
अपना न्यायाधीश बन जाती है । सीधे मार्ग पर चलने वाला मनुष्य पेचीदा गलियों में
पड़ जाने पर अवश्य राह भूल जाता है ।
कृष्ण--सुनो, यह
रोने धोने का समय नही है । मै कानून के पन्जे में फँसा हूँ और किसी तरह नही बच
सकता । धैर्य से काम लो, परमात्मा की इच्छा होगी तो फिर भेंट
होगी ।
यह कहकर वह बाहर की ओर चले कि दोनो
लड़कियाँ आकर उनके पैरों से चिमट गई । गंगाजली ने दोनों हाथों से उनकी कमर पकड़ ली
और तीनों चिल्लाकर रोने लगीं।
कृष्णचन्द्र भी कातर हो गए ।
उन्होंने सोचा,
इन अबलाओं की क्या गति होगी ? परमात्मा ! तुम
दीनों के रक्षक हो, इनकी भी रक्षा करना ।
एक क्षण में वह अपने को छुडा़कर
बाहर चले गये । गंगाजली ने उन्हें पकड़ने को हाथ फैलाये, पर
उसके दोनों हाथ फैले ही रह गये, जैसे गोली खाकर गिरनेवाली
किसी चिड़िया के दोनों पंख खुले रह जाते हैं ।
4
कृष्णचन्द्र अपने कस्बे में
सर्वप्रिय थे । यह खबर फैलते ही सारी बस्ती में हलचल मच गई । कई भले आदमी उनकी
जमानत करने आये लेकिन साहब ने जमानत न ली ।
इसके एक सप्ताह बाद कृष्णचन्द्र पर
रिश्वत लेने का अभियोग चलाया गया। महन्त रामदास भी गिरफ्तार हुए ।
दोनों मुकदमे महीने भर तक चलते रहे
। हाकिम ने उन्हें दीरे सुपुर्द कर दिया ।
वहाँ भी एक महीना लगा । अन्त मे
कृष्णचन्द्र को पाँच वर्ष की कैद हुई । महन्त जी सात वर्ष के लिए गये और दोनों
चेलों को कालेपानी का दण्ड मिला ।
गंगाजली के एक सगे भाई पण्डित
उमानाथ थे । कृष्णचन्द्र की उनसे जरा भी न बनती थी। वह उन्हें धूर्त और पाखंडी कहा
करते,
उनके लम्बे तिलक की चुटकी लेते । इसलिए उमानाथ उनके यहाँ बहुत कम
आते थे ।
लेकिन इस दुर्घटना का समाचार पाकर
उमानाथ से न रहा गया । वह आकर अपनी बहन और भांजियों को अपने घर ले गए ।
कृष्णचन्द्र को सगा भाई न था । चाचा के दो लड़के थे, पर वह अलग रहते थे
। उन्होने बात तक न पूछी ।
कृष्णचन्द्र ने चलते-चलते गंगाजली
को मना किया था कि रामदास के रुपयों में से एक कौड़ी भी मुकदमे में न खर्च करना।
उन्हें निश्चय था कि मेरी सजा अवश्य होगी । लेकिन गंगाजली का जी न माना । उसने दिल
खोलकर रुपये खर्च किए । वकील लोग अन्त समय तक यही कहते रहे कि वे छूट जायेंगे ।
जज के फैसले की हाईकोर्ट में अपील
हुई । महन्तजी की सजा में कमी न हुई । पर कृष्णचन्द्रजी की सजा घट गई । पाँच के
चार वर्ष रह गए ।
गंगाजली आने को तो मैके आई, पर
अपनी भूल पर पछताया करती थी । यह वह मैका न था जहाँ उसने अपनी बालकपन की गुडियाँ
खेली थीं, मिट्टी के घरौंदे बनाये थे, माता
पिता की गोद में पली थी। माता पिता का स्वर्गवास हो चुका था, गाँव में वह आदमी न दिखाई देते थे । यहाँ तक कि पेड़ों की जगह खेत और खेतों
की जगह पेड़ लगे हुए थे । वह अपना घर भी मुश्किल से पहचान सकी और सबसे दुःखकी बात
यह थी कि वहाँ उसका प्रेम या आदर न था । उसकी भावज जाह्नवी उससे मुंह फुलाये रहती
। जाह्नवी अब अपने घर बहुत कम रहती । पड़ोसियों के यहाँ बैठी हुई गंगाजली का दुखड़ा
रोया करती । उसके दो लड़कियाँ थीं । वह भी सुमन और शान्ता से दूर-दूर रहतीं ।
गंगाजली के पास रामदास के रुपयों
मे से कुछ न बचा था। यही चार पाँच सौ रुपये रह गये थे जो उसने पहले काट कपटकर जमा
किए थे । इसलिए वह उमानाथ से सुमन के विवाह के विषय में कुछ न कहती । यहाँ तक कि
छः महीने बीत गये। कृष्णचंद्र ने जहाँ पहला संबंध ठीक किया था, वहाँ
से साफ जवाब आ चुका था।
लेकिन उमानाथ को यह चिंता बराबर
लगी रहती थी। उन्हें जब अवकाश मिलता तो दो-चार दिन के लिए वर की खोज में निकल
जाते। ज्योंही वह किसी गाँव में पहुँचते वहाँ हलचल मच जाती। युवक गठरियों से वह
कपड़े निकालते जिन्हें वह बारातों में पहना करते थे। अँगूठियाँ और मोहनमाले मँगनी
माँग कर पहन लेते। माताएँ अपने बालकों को नहला-धुलाकर आँखों में काजल लगा देती और
धुले हुए कपड़े पहनाकर खेलने को भेजतीं। विवाह के इच्छुक बूढ़े नाइयों से मोछ
कंटवाते और पके हुए बाल चुनवाने लगते | गाँव के नाई और कहार
खेतों से बुला लिए जाते, कोई अपना बड़प्पन दिखाने के लिए
उनसे पैर दबवाता, कोई धोती छँटवाता। जब तक उमानाथ वहाँ रहते,
स्त्रियाँ घरों से न निकलती, कोई अपने हाथ से
पानी न भरता, कोई खेत में न जाता। पर उमानाथ की आँखों में यह
घर न जँचते थे। सुमन कितनी रूपवती, कितनी गुणशील, कितनी पढ़ी-लिखी लड़की है, इन मूर्खों के घर पड़कर
उसका जीवन नष्ट हो जायेगा।
अंत में उमानाथ ने निश्चय किया कि
शहर में कोई वर ढूँढ़ना चाहिए। सुमन के योग्य वर देहात में नहीं मिल सकता।
शहरवालों की लम्बी-चौड़ी बातें सुनीं तो उनके होश उड़ गये, बड़े
आदमियों का तो कहना ही क्या, दफ्तरों में मुसद्दी और क्लर्क
भी हजारों का राग अलापते थे। लोग उनकी सूरत देखकर भड़क जाते। दो-चार सज्जन उनकी
कुल-मर्यादा का हाल सुनकर विवाह करने को उत्सुक हुए, पर कहीं
तो कुंडली न मिली और कहीं उमानाथ का मन ही न भरा। वह अपनी कुल-मर्यादा से नीचे न
उतरना चाहते थे।
इस प्रकार पूरा एक साल बीत गया।
उमानाथ दौड़ते-दौड़ते तंग आ गये, यहाँ तक कि उनकी दशा औषधियों के
विज्ञापन बाँटनेवाले उस मनुष्य की-सी हो गयी जो दिन भर बाबू संप्रदाय को विज्ञापन
देने के बाद सन्ध्या को अपने पास विज्ञापनों का एक भारी पुलिंदा पड़ा हुआ पाता है
और उस बोझ से मुक्त होने के लिए उन्हें सर्वसाधारण को देने लगता है। उन्होंने मान,
विद्या, रूप और गुण की ओर से आँखे बंद करके
कुलीनता को पकड़ा। इसे वह किसी भाँति न छोड़ सकते थे।
माघ का महीना था। उमानाथ स्नान
करने गये। घर लौटे तो सीधे गंगाजली के पास जाकर बोले-लो बहन, मनोरथ
पूरा हो गया। बनारस में विवाह ठीक हो गया।
गंगा०-भला, किसी
तरह तुम्हारी दौड़-धूप तो ठिकाने लगी। लड़का पढ़ता है न?
उमानाथ- पढ़ता नहीं, नौकर
है। एक कारखाने में १५) का बाबू है।
गंगा०--घर-द्वार है न?
उमा०-शहर में किसके घर होता है। सब
किराये के घर में रहते हैं।
गंगा०-भाई-बंद, माँ-बाप
हैं?
उमा०-माँ-बाप दोनों मर चुके हैं और
भाई-बंद शहर में किसके होते है?
गंगा०-उमर क्या है?
उमा०-यही, कोई
तीस साल के लगभग होगी।
गंगा०-देखने-सुनने में कैसा है?
उमा०-सौ में एक। शहर में कोई कुरूप
तो होता ही नहीं। सुन्दर बाल, उजले कपड़े सभी के होते हैं और गुण,
शील, बातचीत का तो पूछना ही क्या है? बात करते मुँह से फूल झड़ते हैं। नाम गजाधर प्रसाद है।
गंगा०-तो दुआह होगा?
उमा०-हाँ, है
तो दुआह, पर इससे क्या? शहर में कोई
बुड्ढा तो होता ही नहीं। जवान लड़के होते हैं और बुड्ढे जवान; उनकी जवानी सदा बहार होती है। वही हँसी-दिललगी, वही
तेल-फुलेल का शौक। लोग जवान ही रहते हैं और, जवान ही मर जाते
हैं ।
गंगा- कुल कैसा है ?
उमा- बहुत ऊँचा । हमसे भी दो
विश्वे बड़ा है । पसन्द है न ? गंगाजली ने उदासीन भाव से कहा,
जब तुम्हें पसन्द है तो मुझे भी पसन्द ही है ।
(अधूरी रचना)
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