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अदल-बदल (उपन्यास) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री

 

अदल-बदल (उपन्यास) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री

Adal-Badal (Novel) : Acharya Chatursen Shastri

१ : अदल-बदल

माया भरी बैठी थी। मास्टर हरप्रसाद ने ज्योंही घर में कदम रखा, उसने विषदृष्टि से पति को देखकर तीखे स्वर में कहा---'यह अब तुम्हारे आने का समय हुआ है? इतना कह दिया था कि आज मेरा जन्मदिन है, चार मिलने वालियां आएंगी, बहुत कुछ बन्दोबस्त करना है, ज़रा जल्दी आना। सो, उल्टे आज शाम ही कर दी।'

 

'पर लाचारी थी प्रभा की मां, देर हो ही गई!'

 

'कैसे हो गई? मैं कहती हूं, तुम मुझसे इतना जलते क्यों हो?

 

इस तरह मन में आंठ-गांठ रखने से फायदा? साफ क्यों नहीं कह देते कि तुम्हें मैं फूटी आंखों भी नहीं सुहाती!'

 

'यह बात नहीं है प्रभा की मां, तनख्वाह मिलने में देर हो गई। एक तो आज इन्स्पेक्टर स्कूल में आ गए, दूसरे आज फीस का हिसाब चुकाना था, तीसरे कुछ ऑफिस का काम भी हैडमास्टर साहब ने बता दिया---सो करना पड़ा। फिर आज तनखाह मिलने का दिन नहीं था---कहने-सुनने से हैडमास्टर ने बन्दोबस्त किया।'

 

'सो उन्होंने बड़ा अहसान किया। बात करनी भी तुमसे आफत है। मैं पूछती हूं कि देर क्यों कर दी---आप लगे आल्हा गाने। देखूं, रुपये कहां हैं?

 

मास्टर साहब ने कोट अभी-अभी खूटी पर टांगा ही था, उसके जेब से पर्स निकालकर आंगन में उलट दिया। दस-दस रुपये के चार नोट जमीन पर फैल गए। उन्हें एक-एक गिनकर माया ने नाक-भौं चढ़ाकर कहा---'चालीस ही हैं, बस?'

 

'चालीस ही पाता हूं, ज्यादा कहां से मिलते?'

 

'अब इन चालीस में क्या करूं? ओढूं या बिछाऊ? कहती हूं, छोड़ दो इस मास्टरी की नौकरी को, छदाम भी तो कार की आमदनी नहीं है। तुम्हारे ही मिलने वाले तो हैं वे बाबू तोताराम ---रेल में बाबू हो गए हैं। हर वक्त घर भरा-पूरा रहता है। घी में घी, चीनी में चीनी, कपड़ा-लत्ता, और दफ्तर के दस बुली चपरासी----हाजिरी भुगताते हैं वह जुदा। वे क्या तुमसे ज्यादा पढ़े हैं? क्यों नहीं रेल-बाबू हो जाते?'

 

'वे सब तो गोदाम से माल चुराकर लाते हैं प्रभा की मां। मुझसे तो चोरी हो नहीं सकती। तनखाह जो मिलती है, उसीमें गुजर-बसर करनी होगी।

 

'करनी होगी, तुमने तो कह दिया। पर इस महंगाई के जमाने में कैसे?

 

'इससे भी कम में गुज़र करते हैं लोग प्रभा की मां।'

 

'वे होंगे कमीन, नीच। मैं ऐसे छोटे घर की बेटी नहीं हूं।'

 

'पर अपनी औकात के मुताबिक ही तो सबको अपनी गुजर-बसर करनी चाहिए। इसमें छोटे-बड़े घर की क्या बात है? अमीर आदमी ही बड़े आदमी नहीं होते, प्रभा की मां।'

 

'ना, बड़े आदमी तो तुम हो, जो अपनी जोरू को रोटी-कपड़ा भी नहीं जुटा सकते। फिर तुम्हें ऐसी ही किसी कछारिन-महरिन से ब्याह करना चाहिए था। तुम्हारे घर का धन्धा भी करती, इधर-उधर चौका-बरतन करके कुछ कमा भी लाती। बी० ए० एम० ए० होते तो वह भी बी० ए०एम० ए० आ जाती और दोनों ही बाहर मजे करते। क्या जरूरत थी गृहस्थ बसाने की?'

 

मास्टर साहब चुप हो गए। वे पत्नी से विवाद करना नहीं चाहते थे। कुछ ठहरकर उन्होंने कहा--'जाने दो प्रभा की मां, आज झगड़ा मत करो।' वे थकित भाव से उठे, अपने हाथ से एक गिलास पानी उड़ेला और पीकर चुपचाप कोट पहनने लगे। वे जानते थे कि आज चाय नहीं मिलेगी। उन्हें ट्यूशन पर जाना था।

 

माया ने कहा---'जल्दी आना, और टयूशन के रुपये भी लेते आना।'

 

मास्टरजी ने विवाद नहीं बढ़ाया। उन्होंने धीरे से कहा--'अच्छा!' और घर से बाहर हो गए।

 

बहुत रात बीते जब वे घर लौटे तो घर में खूब चहल-पहल हो रही थी। माया की सखी-सहेलियां सजी-धजी गा-बजा रही थीं। अभी उनका खाना-पीना नहीं हुआ था। माया ने बहुत-सा सामान बाजार से मंगा लिया था। पूड़ियां तली जा रही थीं और घी की सौंधी महक घर में फैल रही थी।

 

पति के लोट आने पर माया ने ध्यान नहीं दिया। वह अपनी सहेलियों की आवभगत में लगी रही। मास्टर साहब बहुत देर तक अपने कमरे में पलंग पर बैठे माया के आने और भोजन करने की प्रतीक्षा करते रहे, और न जाने कब सो गए।

 

प्रातः जागने पर माया ने पति से पूछा---'रात को भूखे ही सो रहे तुम, खाना नही खाया?'

 

'कहां, तुम काम में लगी थीं, मुझे पड़ते ही नींद आई तो फिर आंख ही नहीं खुली।'

 

'मैं तो पहले ही जानती थी कि बिना इस दासी के लाए तुम खा नहीं सकते। रोज ही चाकरी बजाती हूं। एक दिन मैं तनिक अपनी मिलने वालियों में फंस गई तो रूठकर भूखे ही सो रहे। सो एक बार नहीं सौ बार सो रहो, यहां किसीकी धौंस नहीं सहने वाले हैं।'

 

'नहीं प्रभा की मां, इसमें धौंस की क्या बात है? मुझे नींद आ ही गई।'

 

'आ गई तो अच्छा हुआ, अब महीने के खर्च का क्या होगा?'

 

'ट्यूशन ही के बीस रुपये जेब में पड़े हैं, उन्हीं में काम चलाना होगा।'

 

'ट्यूशन के बीस रुपये? वे तो रात काम में आ गए। मैंने ले लिए थे।

 

'वे भी खर्च कर दिए?'

 

'बड़ा कसूर किया, अभी फांसी चढ़ा दो।'

 

'नहीं, नहीं, प्रभा की मां, मेरा ख्याल था---चालीस रुपयों में तुम काम चला लोगी, बीस बच रहेंगे। इससे दब-भींचकर महीना कट जाएगा।'

 

'यह तो रोज का रोना है। तकदीर की बात है, यह घर मेरी ही फूटी तकदीर में लिखा था। पर क्या किया जाए, अपनी लाज तो ढकनी ही पड़ती है। लाख भूखे-नंगे हों, परायों के सामने तो नहीं रह सकते। वे सब बड़े घर की बहू-बेटियां थीं, कोई खटीक-चमारिन तो थी ही नहीं। फिर साठ-पचास रुपये की औकात ही क्या है?'

 

मास्टर साहब चिन्ता से सिर खुजलाने लगे। उन्हें कोई जवाब नहीं सूझा। महीने का खर्च चलेगा कैसे, यही चिन्ता उन्हें सता रही थी। अभी दूध वाला आएगा, धोबी आएगा। वे इस माह में जूता पहनना चाहते थे---बिलकुल काम लायक न रह गया था। परन्तु अब जूता तो एक ओर रहा, अन्य आवश्यक खर्च की चिन्ता सवार हो गई।

 

पति को चुप देखकर माया झटके से उठी। उसने कहा---'अब इस बार तो कसूर हो गया भई, पर अब किसीको न बुलाऊंगी। इस अभागे घर में तो पेट के झोले को भर लिया जाए, तो ही बहुत है।'

 

उसने रात का बासी भोजन लाकर पति के सामने रख दिया।

 

मास्टर साहब चुपचाप खाकर स्कूल को चले गए।

 

माया ने कहा---'बिना कहे तो रहा नहीं जाता---अब तेली, तम्बोली, दूधवाला आकर मेरी जान खाएंगे तो? तुम्हें तो अपनी इज्जत का ख्याल ही नहीं, पर मुझसे तो इन नीचों के तकाजे नहीं सहे जाते!'

 

मास्टरजी ने धीमे स्वर में नीची नजर करके कहा---'करूंगा प्रबन्ध, जाता हूं।'

 

२ : अदल-बदल

आजाद महिला-संघ की अध्यक्षा श्रीमती मालतीदेवी चालीस साल की विधवा थीं। अपने पति महाशय के साथ उन्होंने तीन बार सारे योरोप में भ्रमण किया था। वह योरोप की तीन-चार भाषाएं अच्छी तरह बोल सकती थीं। उनका स्वास्थ्य और शरीर का गठन बहुत अच्छा था। चालीस की दहलीज पर आने पर भी वे काफी आकर्षक थीं। मिलनसार भी वे काफी थीं। पति की बहुत बड़ी सम्पत्ति की वे स्वतन्त्र मालकिन थीं। विदेश में स्त्रियों की स्वाधीनता को देखकर उन्होंने भारत की सारी स्त्रियों को स्वाधीन करने का बीड़ा उठाया था। और भारत में आते ही आजाद महिला-संघ का सूत्रपात आरम्भ कर दिया था। इस आन्दोलन से उनकी जान-पहचान ब हुत बड़े-बड़े लोगों से तथा परिवारों में हो गई थी। उनकी बातें और बात करने का ढंग बड़ा मनोहर और आकर्षक था। दांतों की बतीसी यद्यपि नकली थी, पर जब वे अपनी मादक हंसी हंसती थीं तब आदमी का दिल बेबस हो ही जाता था। भिन्न-भिन्न प्रकृति और स्थिति के व्यक्तियों को मोहकर उन्हें अपने अनुकूल करने की विद्या में वे खूब सिद्धहस्त थीं।

 

मायादेवी की एक सहेली ने उनसे मायादेवी का परिचय कराया था। मायादेवी मालतीदेवी पर जी-जान से लहालोट थी। वह हर बात में उन्हें आदर्श मान उन्हीं के रंग-ढंग पर अपना जीवन ढालती जाती थी। परन्तु, मालतीदेवी के समान न तो वह विदुषी थी न स्वतन्त्र। उसके पति की आमदनी भी साधारण थी। अत: ज्यों-ज्यों मायादेवी मालती की राह चलती गई, त्यों-त्यों असुविधाएं उसकी राह में बढ़ती गईं, खर्च और रुपये-पैसे के मामले में उसका बहुधा पति से झगड़ा होने लगता। उसका अधिक समय आजाद महिला-संघ में, मालतीदेवी की मुसाहिबी में, गुजरता। घर से प्रायः वह बाहर रहती। इससे उनकी घर-गृहस्थी बिगड़ती चली गई। परन्तु जब उसके बढ़े हुए खर्चे में पति की सारी तनख्वाह भी खत्म होने लगी और रोज के खर्चे का झंझट बढ़ने लगा तब तो मास्टर जी का भी धैर्य छूट गया। और अब असन्तोष और गृह-कलह ने बुरा रूप धारण कर लिया। परन्तु पति के सौजन्य और नर्मी का मायादेवी गलत लाभ उठाती चली गई। उसकी आवारागर्दी, बेरुखाई, फजूलखर्ची और विवाद की भावनाएं बढ़ती ही चली गईं। उसे कर्ज लेने की भी आदत पड़ गई।

 

एक दिन मायादेवी ने मालतीदेवी से कहा---'श्रीमती मालतीदेवी, मैं आपका परामर्श चाहती हूं। मैं अपने इस जीवन से ऊब गई हूं। आप मुझे सलाह दीजिए, मैं क्या करूं।'

 

मालती ने उससे सहानुभूति प्रदर्शित करते हुए कहा---'मेरी तुमसे बहुत सहानुभूति है, और मैं तुम्हारी हर तरह सहायता करने को तैयार हूं।'

 

'तो कहिए---मैं कब तक इन पुरुषों की गुलामी करूं।'

 

'मत सहन करो बहिन, पच्छिम से तो स्वाधीनता का सूर्य उदय हुआ है। तुम स्वाधीन जीवन व्यतीत करो। जीवन बहुत बड़ी चीज है, उसे यों ही बर्वाद नहीं किया जा सकता।

 

'इन पुरुषों की प्रभुता का जुआ हमें अपने कधे पर से उतार फेंकना होगा, हमें स्वतन्त्र होना होगा। हम भी मनुष्य हैं--पुरुषों की भांति। कोई कारण नहीं जो हम उनके लिए घर-गिरस्ती करें, उनके लिए बच्चे पैदा करें और जीवनभर उनकी गुलामी करती हुई मर जाएं!'

 

'यही मैं कहती हूं और यही चाहती भी हूं, पर समझ नहीं पा रही कि हूं कैसे अगला कदम उठाऊं।'

 

'तुम आजाद महिला-संघ की सदस्या हो। तुम्हारे बिचार बड़े सुन्दर हैं, संघ तुम्हें सब तरह से मदद करेगा। वह तुम्हें जीवन देगा, मुक्ति देगा। जिसका हमें जन्मसिद्ध अधिकार है, वह हमें संघ में मिल सकता है।'

 

'देखिए, वे स्कूल चले जाते हैं, तो मैं दिनभर घर में पड़ी-पड़ी क्या उनका इन्तजार करती रहूं या उनके बच्चे की शरारत से खीझती रहूं। यह तो कभी आशा ही नहीं की जा सकती कि वे मेरे लिए काई साड़ी लाएंगे या कोई गहना बनवाएंगे। आएंगे भी तो गुमसुम, उदास मुंह बनाए। आदमी क्या हैं बीसवीं सदी के कीड़े हैं। मालतीदेवी, क्या कहूं। उन्होंने कुछ ऐसी ठण्डी तबीयत पाई है कि क्या कहूं। मुझे तो अपनी मिलने वालियों में उन्हें अपना पति कहने में शर्म लगती है।"

 

'हिन्दुस्तान में हजारों स्त्रियों की दशा तुम्हारी ही जैसी है बहिन। इससे उद्धार होने का उपाय स्त्रियों का साहस ही है।'

 

'मैं तो अब इस जीवन से ऊब गई हूं। भला यह भी कोई जीवन है?'

 

'अपने आत्मसम्मान की, अधिकारों की, स्वाधीनता की रक्षा करो।'

 

'परन्तु किस तरह, कैसे मैं इस बन्धन से मुक्ति पा सकती हूं।'

'हिन्दू कोडबिल तुम्हारे लिए आशीर्वाद लाया है, नई जिन्दगी का संदेश लाया है। यह तुम्हारी ही जैसी देवियों के पैरों में पड़ी परतन्त्रता की बेड़ियों को काटने के लिए है। इससे तुम लाभ उठाओ।'

 

माया की आंखें चमकने लगीं। उसने कहा---'यही तो मैं भी सोचती हूं श्रीमती जी। आपही कहिए, चालीस रुपये की नौकरी, फिर दूध धोए भी बना रहना चाहते हैं। आप ही कहिए, दुनिया के एक कोने में एक-से-एक बढ़कर भोग हैं, क्या मनुष्य उन्हें भोगना न चाहेगा?'

 

'क्यों नहीं, फिर वे भोग बने किसके लिए हैं? मनुष्य ही तो उन्हें भोगने का अधिकार रखता है।'

 

'यही तो। पर पुरुष ही उन्हें भोग पाते हैं। वे ही शायद मनुष्य हैं, हम स्त्रियां जैसे मनुष्यता से हीन हैं।'

 

'हमें लड़ना होगा, हमें संघर्ष करना होगा। हमें पुरुषों की बराबर का होकर जीना होगा। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमने यह आजाद महिला-संघ खोला है। तुम्हें चाहिए कि तुम इसमें सम्मिलित हो जाओ। इसमें हम न केवल स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाते हैं, बल्कि स्त्रियों को स्वावलम्बी रहने के योग्य भी बनाते हैं। हमारा एक स्कूल भी है, जिसमें सिलाई, कसीदा और भांति-भांति की दस्तकारी सिखाई जाती है। गान-नृत्य के सीखने का भी प्रबन्ध है। हम जीवन चाहती हैं, सो हमारे संघ में तुम्हें भरपूर जीवन मिलेगा।'

 

'तो में श्रीमतीजी, आपके संघ की सदस्या होती हूं। जब ये स्कूल चले जाते हैं मैं दिनभर घर में पड़ी ऊब जाती हूं। यह भी नहीं कि वे मेरे लिए कुछ उपहार लेकर आते हों या मेरे पास बैठकर दो बोल हंस-बोल लें। ईश्वर जाने कैसी ठण्डी तबियत पाई है। चुपचाप आते हैं, थके हुए, परेशान-से, और पूरे सुस्ता नहीं पाते कि ट्यूशन। प्रभा है, उनकी लड़की, उसीसे रात को हंसते-बोलते हैं। कहिए, यह कोई जीवन है? नरक, नरक सिर्फ मैं हूं जो यह सब सहती हूं।'

 

'मत सहो, मत सहो बहिन, अपने आत्मसम्मान और स्वाधीनता की रक्षा करो।'

 

'यही करूंगी श्रीमती जी। परन्तु हमारा सबसे बड़ा मुकाबला तो हमारी पराधीनता का है, माना कि कानून का सहारा पाकर हम वैवाहिक बन्धनों से मुक्त हो जाएं, परन्तु हम खाएंगी क्या? रहेंगी कहां? करेंगी क्या? हम स्त्रियां तो जैसे कटी हुई पतंग हैं, हमारा तो कहीं ठौर-ठिकाना है ही नहीं।'

 

"उसका भी बन्दोबस्त हो सकता है। पहिली बात तो यह है कि हिन्दू कोड बिल जब तुम्हें मुक्तिदान देगा तो तुम्हारे सभी बन्धन खोल देगा। तुम्हें सब तरह से आजाद कर देगा। पहले तो हिन्दू स्त्रियां पति से त्यागी जाकर पति से दूर रहकर भी विवाह नहीं कर सकती थीं, परन्तु अब तो ऐसा नहीं है। तुम मन चाहे आदमी से शादी कर सकती हो। अपनी नई गृहस्थी बना सकती हो, अपना नया जीवन-साथी चुन सकती हो। इसके अतिरिक्त तुम पढ़ी-लिखी सोशल महिला हो, तुम्हें थोड़ी भी चेष्टा करने से कहीं-न-कहीं नौकरी मिल सकती है। तुम बिना पति की गुलाम हुए, बिना विवाह किए, स्वतन्त्रतापूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर सकती हो।'

 

'तो श्रीमती मालतीदेवी, क्या आप मेरी सहायता करेंगी? क्या आपके आसरे मैं साहस करूं? मैं तो बहुत डरती हूं। समझ नहीं पाती, क्या करूं।'

 

"आरम्भ में ऐसा होता है, पर बिना साहस किए तो पैर की बेड़ी कटती नहीं बहिन! तुम जब तक स्वयं अपने पैरों पर खड़ी न होगी तब तक दूसरा कोई तुम्हें क्या सहारा देगा?'

 

'तो आप बचन देती हैं कि आप मेरी मदद करेंगी?'

 

'जरूर करूंगी।'

 

'लेकिन कानूनी झंझट का क्या होगा?'

 

'मेरे एक परिचित वकील हैं, मैं तुम्हें उनके नाम परिचय-पत्र दे दूंगी। उनसे मिलने से तुम्हारी सभी कठिनाइयां हल हो जाएंगी।'

 

'अच्छी बात है।'

 

'मैं तुम्हारा अभिनन्दन करती हूं मायादेवी, मैं चाहती हूं तुम भी पुरुषों की दासता में फंसी दूसरी हजारों स्त्रियों के लिए एक आदर्श बनो। साहसिक कदम उठाओ और नई दुनिया की स्त्रियों की पथ-प्रदर्शिका बनो। मैं तुम्हारे साथ हूं।'

 

'धन्यवाद मालतजी,आपका साहस पाकर मुझे आशा है, अब कोई भय नहीं। मैं अपने मार्ग से सभी बाधाओं को बलपूर्वक दूर करूंगी।' 'तो कल आना। हमारा वार्षिकोत्सव है, बहुत बड़ी बड़ी देवियां आएंगी, उनके भाषण होंगे, भजन होंगे, नृत्य होगा, गायन होगा, नाटक होगा, प्रस्ताव होंगे और फिर प्रीतिभोज होगा। कहो, आओगी न?'

 

'अवश्य आऊंगी।'

 

'तुम्हें देखकर चित्त प्रसन्न हुआ। याद रखो, तुम्हारी जैसी ही देवियों के पैरों में पड़ी परतन्त्रता की बेडियां काटने के लिए हमने यह संस्था खोली है।'

 

३ : अदल-बदल

मास्टर साहब टयूशन पर जाने की तैयारी में थे। माया ने कहा---'सुनते हो, मुझे एक नई खादी की साड़ी चाहिए, और कुछ रुपये। महिला-संघ का जलसा है, मैंने उसमें स्वयं-सेविकाओं में नाम लिखाया है।'

 

'किन्तु रुपये तो अभी नहीं हैं, साड़ी भी आना मुश्किल है, अगले महीने में...'

 

माया गरज पड़ी---'अगले महीने में या अगले साल में! आखिर क्या में भिखारिन हूं? मैं भी इस घर की मालकिन हूं, ब्याही आई हूं---बांदी नहीं।

 

'सो तो ठीक है प्रभा की मां, परन्तु रुपया तो नहीं है न। इधर बहुत-सा कर्जा भी तो हो गया है, तुम तो जानती ही हो..।'

 

'मुझे तुम्हारे कर्जों से क्या मतलब? कमाना मर्दों का काम है या औरतों का? कहो तो मैं कमाई करूं जाकर?'

 

'नहीं, नहीं, यह मेरा मतलब नहीं है। पर अपनी जितनी आमदनी है उतनी...'

 

'भाड़ में जाए तुम्हारी आमदनी। मुझे साड़ी चाहिए, और दस रुपये।'

 

'तो बन्दोबस्त करता हूं।' मास्टर साहब और नहीं बोले, छाता सम्भालकर चुपचाप चल दिए।

 

पूरी तैयारी के साथ सज-धजकर जब माया जलसे में गई तो हद दरजे चमत्कृत और लज्जित होकर लौटी। चमत्कृत हुई वहां के वातावरण से, व्याख्यानों से, कविताओं और नृत्य से, मनोरंजन के प्रकारों से। उसने देखा, समझा---अहा, यही तो सच्चा जीवन है, कैसा आनन्द है, कैसा उल्लास है, कैसा विनोद है! परन्तु जब उसने अपनी हीनावस्था का वहां आनेवाली प्रत्येक महिला से मुकाबला किया तो लज्जित हुई। उसने दरिद्र, निरीह पति से लेकर घर की प्रत्येक वस्तु को अत्यन्त नगण्य, अत्यन्त क्षुद्र, अत्यन्त दयनीय समझा, और वह अपने ही जीवन के प्रति एक असहनीय विद्रोह और असन्तोष-भावना लिए बहुत रात गए घर लौटी।

 

मास्टर साहब उसकी प्रतीक्षा में जागे बैठे थे। प्रभा पिता की कहानियां सुनते-सुनते थककर सो गई थी। भोजन तैयार कर,आप खा और प्रभा को खिला, पत्नी के लिए उन्होंने रख छोड़ा था।

 

माया ने आते ही एक तिरस्कार-भरी दृष्टि पति और उस शयनगार पर डाली, जो उसके कुछ क्षण पूर्व देखे हुए दृश्यों से चकाचौंध हो गई थी। उसे सब कुछ बड़ा ही अशुभ, असहनीय प्रतीत हुआ। वह बिना ही भोजन किए, बिना ही पति से एक शब्द बोले, बिना ही सोती हुई फूल-सी प्रभा पर एक दृष्टि डाले चुप-चाप जाकर सो गई।

 

मास्टर साहब ने कहा---'और खाना?'

 

'नहीं खाऊंगी।'

 

'कहां खाया?'

 

'खा लिया।'

 

और प्रश्न नहीं किया। मास्टर साहब भी सो गए।

 

माया प्रायः नित्य ही महिला-संघ में जाने लगी। उन्मुक्त वायु में स्वच्छन्द सांस लेने लगी; पढ़ी-लिखी, उन्नतिशील कहाने वाली लेडियों-महिलाओं के संपर्क में आई; जितना पढ़ सकती थी, पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ने लगी। उसने सुना---उन महामहिम महिलाओं में, जो सभाओं और जलसों में ठाठदार साड़ी धारण करके सभानेत्रियों के आसन को सुशोभित करती हैं, चारों ओर स्त्री-पुरुष जिनका आदर करते हैं, जिन्हें प्रणाम करते हैं, हंस-हंसकर झुककर जिनका सम्मान करते हैं, उनमें कोई घर को त्याग चुकी है, कोई पति को त्याग चुकी है; उनका गृहस्थ- जीवन नष्ट हो चुका है, वे स्वच्छन्द हैं, उन्मुक्त हैं, वे बाधाहीन हैं, वे कुछ घंटों ही के लिए नहीं, प्रत्युत महीनों तक चाहे जहां रह और चाहे जहां जा सकती हैं, उन्हें कोई रोकने वाला, उनकी इच्छा में बाधा डालने वाला नहीं है। उसे लगा, यही तो स्त्री का सच्चा जीवन है। वे गुलामी की बेड़ियों को तोड़ चुकी हैं, वे नारियां धन्य हैं।

 

ऐसे ही एक सामाजिक मिलन में उसका परिचय नगर के प्रख्यात डाक्टर कृष्णगोपाल से हुआ। डाक्टर से ज्योंही उसका अकस्मात् साक्षात् हुआ, उसने पहली ही दृष्टि में उसकी भूखी आंखों की याचना को जान लिया। उसने अनुभव किया कि सम्भवतः इस पुरुष से उसे मानसिक सुख मिलेगा। उधर डाक्टर भी अपने पौरुष को अनावृत करके निरीह भिखारी की भांति प्रशंसक वचनों पर उतर आया। याचक की प्रियमूर्ति, जिसके दर्शन से ही संचारीभाव का उदय होता है, और जिसका आतुर आकुल शरीर स्पर्श उष्णता प्रदान करता है, ऐसा ही यह व्यक्ति, उसे अनायास ही प्राप्त हो गया।

 

एक दिन सभा में जब सभानेत्री महोदया, तालियों की प्रचण्ड गड़गड़ाहट में ऊंची कुर्सी पर बैठी ( उपस्थित प्रमुख पुरुषों और महिलाओं ने उन्हें सादर मोटर से उतारकर फूलमालाओं से लाद दिया था ) तो माया के पास बैठी एक महिला ने मुंह बिचकाकर कहा---'लानत है इसपर; यहां ये ठाट हैं, वहां खसम ने पीटकर घर से निकाल दिया है। अब मुकदमेबाजी चल रही है।'

 

दूसरी देवी ने कुतूहल से पूछा---'क्यों? ऐसा क्यों है?'

 

'कौन अपनी औरत का रात-दिन पराये मर्दो के साथ घूमते रहना, हंस-हंसकर बातें करना पसन्द करेगा भला? घर-गिरस्ती देखना नहीं, देशोद्धार करना या महिलोद्धार करना और घर- बाहर आवारा फिरना।'

 

'तो फिर बीबी, बिना त्याग किए यों देशसेवा हो भी नहीं सकती।'

 

'खाक देशसेवा है। जो अपने पति और बाल-बच्चों की सेवा नहीं कर सकती, अपनी घर-गिरस्ती को नहीं सभाल सकती, वह देशसेवा क्या करेगी ? देश के शांत जीवन में अशांति की आग अवश्य लगाएगी।'

 

माया को ये बातें चुभ रही थीं। उससे न रहा गया, उसने तीखी होकर कहा-'क्या चकचक लगाए हो बहिन, घर-गिरस्ती जाकर संभालो न, यहां वक्त बरबाद करने क्यों आई हो?'

 

महिला चुप तो हो गई पर उसने तिरस्कार और अवज्ञा की दृष्टि से एक बार माया को और एक बार सभानेत्री को देखा।

 

माया सिर्फ स्त्रियों ही के जलसों में नहीं आती-जाती थी, यह उन जलसों में भी भाग लेने लगी, जिनमें पुरुष भी होते। बहुधा वह स्वयं सेविका बनती, और ऐसे कार्यों में तत्परता दिखाकर वाहवाही लूटती। उसकी लगन, तत्परता, स्त्री-स्वातन्त्र्य की तीव्र भावना के कारण इस जाग्रत् स्त्री-जगत में उसका परिचय काफी बढ़ गया। वह अधिक विख्यात हो गई। लीडर-स्त्रियों ने उसे अपने काम की समझा, उसका आदर बढ़ा। माया इससे और भी प्रभावित होकर इस सार्वजनिक जीवन में आगे बढ़ती गई और अब उसकी वह क्षुद्र-दरिद्र गिरस्ती, छोटी-सी पुत्री और समाज में अतिसाधारण-सा अध्यापक उसका पति, सब कुछ हेय हो गया।

 

वह बहुत कम घर आती। बहुधा मास्टर साहब को खाना स्वयं बनाना पड़ता, चाय बनाना तो उनका नित्य कर्म हो गया।

 

पुत्री प्रभा की सार-संभार भी उन्हें करनी पड़ने लगी। वे स्कूल जाएं, टयूशन करें, बच्ची को संभालें, भोजन बनाएं और घर को भी संभालें, यह सब नित्य-नित्य सम्भव नहीं रहा। घर में अव्यवस्था और अभाव बढ़ गया। माया और भी तीखी और निडर हो गई। वह पति पर इतना भार डालकर, उनकी यत्किचित् भी सहायता न करके, उनकी सारी सम्पत्ति को अधिकृत करके भी निरन्तर उनसे क्रुद्ध और असन्तुष्ट रहने लगी। पति की क्षुद्र आय का सबसे बड़ा भाग उसकी साड़ियों में, चन्दों में, तांगे के भाड़े में और मित्र-मित्राणियों के चाय-पानी में खर्च होने लगा। मास्टर साहब को मित्रों से ऋण लेना पड़ा। ऋण मास-मास बढ़ने लगा और फिर भी खर्च की व्यवस्था बनी नहीं। दूध आना बन्द हो गया, घी की मात्रा कम हो गई, साग-सब्जी में किफायत होने लगी। मास्टरजी के कपड़े फट गए, उन्होंने और एक ट्यूशन कर ली। वे रात-दिन पिसने लगे। छोटी-सी बच्ची चुपचाप अकेली घर में बैठी पिता और माता के आगमन की प्रतीक्षा करने की अभ्यस्त हो गई। बहुधा वह बहुत रात तक, सन्नाटे के आलम में, अकेली घर में डरी हुई, सहमी हुई, बैठी रहती। कभी रोती, कभी रोती-रोती सो जाती, बहुधा मूखी- प्यासी।

४ : अदल-बदल

साढ़े आठ बज चुके थे। मास्टर हरप्रसाद अपनी दस वर्ष की पुत्री प्रभा के साथ बातचीत करके उसका मन बहला रहे थे। ऊपर से वे प्रसन्न अवश्य दीख रहे थे, परन्तु भीतर से उनका मन खिन्न और उदास हो रहा था। इधर दिन-दिनभर जो उनकी पत्नी मायादेवी घर से गायब रहने लगी थी। यह उन्हें बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था। उनके समुद्र के समान शान्त और गम्भीर हृदय में भी तूफान के लक्षण प्रकट हो रहे थे। फिर भी पिता-पुत्री प्रेम से बातचीत कर रहे थे।

 

प्रभा ने कहा-'पिताजी आज आप मुझे कमरे में टंगी तस्वीरों में इन महापुरुषों को महिमा समझाइए।'

 

मास्टर ने प्रेम की दृष्टि से पुत्री की ओर देखा और फिर दीवार पर लगी बुद्ध की बड़ी-सी तस्वीर की ओर उंगली उठाकर कहा-'यह हैं भगवान बुद्ध, जिन्होंने राज-सुख त्याग कठोर संयम व्रत लिया, और विश्व को अहिंसा का संदेश दिया। उन्होंने मूक प्राणियों की ऐसी भलाई की कि आधी दुनिया इनके चरणों में झुक गई।'

 

फिर उन्होंने शंकराचार्य की मूर्ति की ओर संकेत करके कहा-'ये शंकर हैं, जिन्होंने ब्रह्म-पद पाया, संसार को मायाजाल से छुड़ाया, थोड़ी ही अवस्था में इन्होंने उत्तर से दक्षिण तक नये हिन्दू धर्म की स्थापना की।

 

मास्टर बड़ी देर तक उस मूर्ति की ओर एक टक देखते रहे, फिर उन्होंने प्रताप, शिवाजी की ओर संकेत करके कहा-'ये वीरशिरोमणि प्रताप हैं, जिन्होंने पच्चीस वर्ष वन में दुःख पाए पर शत्रु को सिर नहीं झुकाया। ये शिवाजी हैं जिन्होंने हिन्दुओं की मर्यादा रक्खी, इन्होंने ऐसी तलवार चलाई कि दक्षिण में इनकी दुहाई फिर गई।' अन्त में उन्होंने स्वामी दयानन्द की ओर देखकर कहा-'ये स्वामी दयानन्द हैं, जिन्होंने वेदों का उद्धार किया, सोते हुए हिन्दू धर्म को, सत्य का शंख फूंककर जगा दिया।'

 

फिर मास्टरजी ने गांधीजी के चित्र की ओर उंगली उठाकर कहा-'और ये...'

 

प्रभा ने उतावली से कहा-'बापू हैं, मैं जानती हूं।'

'हां, जिन्होंने भारत की दासता की बेड़ियां काटी, प्रेम की गंगा भारत में बहाई, हमें जीवन दिया और अपना जीवन बलि- दान किया। जो विश्व-क्रान्ति के पिता-अहिंसा के पुजारी और सत्य के प्रतीक थे।'

 

बड़ी देर तक मास्टरजी दीवार पर लगी हुई उन महापुरुषों की तस्वीरों की प्रशंसा करते रहे। फिर उन्होंने कहा-'पुत्री, जो कोई इन महापुरुषों के पदचिन्हों पर चलेगा, उसका जीवन धन्य हो जाएगा।'

 

प्रभा ने कहा-'पिताजी मैं बड़ी होकर इन महापुरुषों की शिक्षाओं पर चलूंगी।'

 

मास्टरजी ने पुत्री की पीठ पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा- 'पुत्री, ये सब हमारे देश के पूज्य पुरुष हैं, उनकी नित्य पूजा-सेवा करना बालकों का धर्म है।'

 

पिता-पुत्री इस प्रकार वार्तालाप में मग्न थे कि मायादेवी ने झपटते हुए घर में प्रवेश किया। सीधी अपने कमरे में चली गई।

 

प्रभा ने प्रसन्न मुद्रा से कहा-'पिताजी! माताजी आ गई।'

 

मास्टरजी ने सहज स्वर में कहा-'इतनी देर कर दी। बेचारी प्रभा भूखो बैठी है, कहती है, माताजी के साथ ही खाऊंगी।'

 

बालिका ने कहा-'माताजी, अभी पिताजी ने भी तो भोजन नहीं किया है। आओ, हमको भोजन दो।'

 

मायादेवी इस समय शृंगार-टेबुल के सामने बैठकर जल्दी-जल्दी होंठों पर लिपिस्टिक फेर रही थी, उसने वहीं से कहा-'मुझे फुर्सत नहीं है।'

 

माता का यह रूखा जवाब सुनकर भूखी पुत्री पिता की ओर देखने लगी।

 

मास्टरजी ने कहा-'खाना खा लो प्रभा की मां।'

 

'मैं तो खा आई हूं।' फिर उसने दो-तीन साड़ियां उलट-पुलट करते हुए पति की ओर देखकर पूछा-'ज़रा देखो तो,कौन-सी ठीक जंचेगी।'

 

परन्तु मास्टर ने थोड़ा क्रुद्ध होकर कहा.. 'ये साड़ियां इस वक्त क्यों देखी जा रही हैं ?

 

'मुझे जाना है।' माया ने जल्दी-जल्दी हाथ चलाते हुए कहा।

 

मास्टर ने कहा-'यह घर से बाहर जाने का समय नहीं है, बाहर से आकर आराम करने का समय है।'

 

'भाई, तुमने तो नाक में दम कर दिया। मुझे जाना है। आज आजाद महिला-सघ में डान्स है, जानते तो हो-मेरे न होने से वहां कैसा बावैला मच जाएगा।'

 

'तो दिन-दिनभर घर से बाहर रहना काफी न था, अब रात- रातभर भी घर से बाहर रहना होगा?'

 

'पिजरे में बंद पंछी की तरह रहना मुझे पसन्द नहीं है।'

 

'परन्तु नारी धर्म का निर्वाह घर ही में होता है। घर के बाहर पुरुष का संसार है। घर के बाहर स्त्री, पुरुष की छाया की भांति अनुगामिनी होकर चल सकती है, और घर के भीतर पुरुष पुरुषत्व धर्म को त्यागकर रह सकता है। यह हमारी युग-युग की पुरानी गृहस्थ-मर्यादा है।' मास्टरजी ने आवेश में आकर कहा।

 

किन्तु माया दूसरे ही मूड में थी। उसने नाक-भौं सिकोड़कर कहा-'इस सड़ी-गली मर्यादा के दिन लद गए। अब स्वतन्त्रता के सूर्य ने सबको समान अधिकार दिए हैं, अब आप नारी को बांधकर नहीं रख सकते।

 

बांधकर रखने की बात नहीं। नारी का कार्यक्षेत्र घर है, पुरुष का घर से बाहर। पुरुष अपने पुरुषार्थ से सुख-संपत्ति ढो-ढो-कर लाता है, नारी उसे सजाकर उपभोग के योग्य बनाती है पुरुष का काम प्रकट है। स्त्री का मुप्त है। पुरुष संचय करता है---स्त्री प्रेम दिखाकर उसे पुरस्कृत करती है। पुरुष संसार के झंझटों का बोझ ढो-ढोकर थका-मांदा जब घर आता है तो स्त्री प्रेम की वर्षा करके उसकी थकान दूर करती है। पुरुष का धर्म कठोर है, स्त्री का धर्म कोमल और दयनीय है। इसीलिए---नारी का स्थान प्यार है और वहीं रहकर वह पुरुषों पर अमृत की वर्षा कर सकती है।

 

'और यदि स्त्री भी घर के बाहर अपना कर्मक्षेत्र बनाए तो?'

 

'तो यह उसका सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा। संसार के झंझटों का झंझावात उसके रूप-रस को सुखाकर उसे नीरस बनाडालेगा। घर से बाहर का कठिन संसार पुरुष के मस्तिष्क और बलवान भुजाओं से ही जीता जा सकता है, स्त्री के कोमल बाहुपाश और भावुक हृदय से नहीं।'

 

'युग-युग से नारी को पुरुष ने घर के बन्धन में डालकर कमजोर बना दिया है, अब वे भी पुरुष के समान बल संचित कर घर के बाहर के संसार में विचरण करेंगी।' मायादेवी ने उपेक्षा से पति की ओर देखते हुए कहा।

 

किन्तु मास्टरजी ने सहज शान्त भाव से कहा---'तब उनमें से पुरुष को उत्साहित करने का जादू उड़छू हो जाएगा। उनके जिस स्निग्ध स्नेह-रस का पान कर पुरुष मस्त हो जाता है, वह रूप खत्म हो जाएगा। उनके पवित्र आंचल की बायु से पुरुषों की कायरता को नष्ट कर डालने के सामर्थ्य का लोप हो जाएगा। पुरुषों का घर सूना हो जाएगा। नारी का ध्रुव भंग हो जाएगा।'

 

'यों क्यों नहीं कहते कि नारी के स्वतन्त्र होने से प्रलय हो जाएगी।' मायादेवी ने तिनककर कहा।

 

अवश्य हो जाएगी। जैसे पृथ्वी अपने ध्रुव पर स्थिर होकर घूमती है, उसी प्रकार घर के केन्द्र में स्त्री को स्थापित करके ही संसार-चक्र घूमता है। स्त्री घर की लक्ष्मी है। समाज उन्हीं पर अवलम्बित है। स्त्री केन्द्र से विचलित हुई तो समाज भी छिन्न- भिन्न हो जाएगा।'

 

'ऐसा नहीं हो सकता। जैसे पुरुष स्वतन्त्र भाव से घूम-फिर-कर घर लौट आता है, वैसे स्त्री भी लौट आ सकती है।'

 

'नहीं आ सकती। पुरुष देखना और जानना चाहता है, अपनाना नहीं। क्योंकि उसमें केवल ज्ञान है। परन्तु स्त्री वस्तु-संसर्ग में आकर उससे लिप्त हो जाती है, क्योंकि उसमें निष्ठा है।'

 

'क्यों?'

 

'क्योंकि नारी की प्रतिष्ठा प्राणों में है, पुरुष की विचारों में। नारी समाज का हृदय है, पुरुष समाज का मस्तिष्क। इसलिए नारी सक्रिय है, और पुरुष निष्क्रिय है? नारी केन्द्रमुखी शक्ति है, और पुरुष केन्द्रविमुख है। इसीसे नारी को केन्द्र बनाकर पुरुष-संघ बना है जो नारी के चारों ओर चक्कर काटता रहता है।

 

'पर जीवन की सामग्री पर नारी का अधिकार है, पुरुष का नहीं।'

 

'हां, किन्तु नारी की इसी शक्ति ने नारी को पुरुषों से बांध रखा है।'

 

'परन्तु अब नारी बन्धनमुक्त होकर रहेगी।'

 

'तो वह स्वयं नष्ट होकर संसार को और समाज के संगठन को भी नष्ट कर देगी।'

 

'ये सब पुरुषों के स्वार्थ की बातें हैं।'

 

'यह वह सत्य है, जिसमें नर और नारी के दो रूप होने के भेद छिपे हैं। नर नर है, नारी नारी है।'

 

'परन्तु नर-नारी दोनों समान हैं।'

 

'समान नहीं हैं, दोनों मिलकर एक इकाई हैं। न पुरुष अकेला एक है, न स्त्री अकेली एक है। दोनों आधे हैं, दोनों मिलकर एक हैं।'

 

'ऐसा नहीं है।'

 

'ऐसा ही है। स्त्री पुरुष की भूखी है, पुरुष स्त्री का भूखा है, दोनों में दोनों की कमी है। दोनों एक-दूसरे को आत्मदान देकर जब एक होते हैं, तब वे पूर्ण इकाई बनते हैं।'

 

'स्त्रियों को भी अधिकार है।'

 

'जब स्त्री-पुरुष दोनों मिलकर एक इकाई हुए---तो पृथक अधिकार कहां रहे?'

 

'वे रहेंगे, हम उन्हें प्राप्त करेंगी।'

 

'अथवा जो प्राप्त हैं उन्हें भी खोएंगी?'

 

बातचीत हो रही थी और मायादेवी का श्रृंगार भी हो रहा था। अब कंघी-चोटी से लैस होकर उन्होंने कहा---'अच्छा, मैं जाती हूं।'

 

'यह ठीक नहीं है प्रभा की मां।'

 

'वापस आने पर मैं तुम्हारे उपदेश सुनूंगी, परन्तु अबतो समय बिलकुल नहीं है।'

 

मायादेवी तेजी से चल दी। उन्होंने उलटकर पुत्री और पति की ओर देखा भी नहीं।

 

५ : अदल-बदल

डाक्टर कृष्णगोपाल आज बहुत खुश थे। वे उमंग में भरे थे, जल्दी-जल्दी हाथ में डाक्टरी औजारों का बैग लिए घर में घुसे, टेबुल पर बैग पटका, कपड़े उतारे और बाथरूम में घुस गए। बाथरूम से सीटी की तानें आने लगी और सुगन्धित साबुन की महक घर भर में फैल गई। बाथरूम ही से उन्होंने विमलादेवी पर हुक्म चलाया कि झटपट चाइना सिल्क का सूट निकाल दें।

 

विमलादेवी ने सूट निकाल दिया, कोट की पाकेट में रूमाल रख दिया और पतलून में गेलिस चढ़ा दी। परन्तु डाक्टर कृष्ण-गोपाल जब जल्दी-जल्दी सूट पहन, मांग-पट्टी से लैस होकर बाहर जाने को तैयार हो गए---तो विमलादेवी ने उनके पास आकर धीरे से कहा---'और खाना?'

 

'खाना नहीं खाऊंगा।'

 

'क्यों?'

 

'पार्टी है, वहां खाना होगा।'

 

'लेकिन रोज-रोज की ये पार्टियां कैसी हैं?'

 

'तुम्हें इस पंचायत से वास्ता?'

 

'आप नाहक तीखे होते हैं, आखिर यह घर है कि सराय! सुबह से निकले और अब नौ बजे हैं। दिनभर गायब। अब आए सो चल दिए। शायद एक-दो बजे आएंगे, शराब में बदहवास। अबमैं कहां तक रोज-रोज यह भुगतूं। यह कोनसा जिन्दगी का तरीका है।'

 

डाक्टर ने घड़ी पर नजर फेंककर कहा---'ओफ, नौ यहीं बज गए? गजब हो गया। झटपट सेफ से दो सौ रुपये निकाल दो। देर हो रही है।'

 

'दो सौ रुपये किसलिए?'

 

'तुम्हारे क्रिया-कर्म के लिए। कहता हूं, देर हो रही है, और तुम अपनी हुज्जत ही नहीं छोड़तीं---अजीब जाहिल हो।'

 

'जाहिल ही सही, मगर तुम्हारी पत्नी हूं। मुझे भी कुछ हक है।'

 

'तो यह हक का दावा अदालत में दाखिल करना बाबा, मेरा वक्त बर्बाद न करो, रुपये निकाल दो।'

 

'मैं पूछती हूं, किसलिए?'

 

'तुम पूछने वाली कौन हो? मुझे जरूरत है।'

 

'मैं जानना चाहती हूं---क्या जरूरत है।'

 

'हद कर दी। अरी बेवकूफ औरत, मैं रुपये मांग रहा हूं, सुना कि नहीं।'

 

'और मैं यह जानना चाहती हूं कि रोज-रोज रात-रातभर घर से बाहर रहने, शराबखोरी करने और इतना रुपया फूंकने का मतलब क्या है?

 

'तबीयत कोफ्त कर दी। मैं कहता हूं, रुपया निकाल दो।'

 

'मैं कहती हूं, रुपया नहीं मिलेगा।'

 

'क्यों नहीं मिलेगा? क्या रुपया तुम्हारे बाप का है?'

 

'बाप के रुपये पर हिन्दू स्त्री का अधिकार नहीं होता। रुपया मेरे पति का है। उसपर मेरा पूरा अधिकार है।'

 

'अरी डायन, यह अधिकार तू मेरे मरने के बाद दिखाना, अभी तो मैं जिन्दा हूं और अपने रुपये का तथा हर एक चीज का मालिक मैं ही हूं।'

 

'मुझे तुमसे बहस नहीं करनी है। लेकिन मैं तुम्हें आज नहीं जाने दूंगी।'

 

'तू नहीं जाने देगी? और रुपया भी नहीं देगी?'

 

'नहीं दूंगी।'

 

'तेरी इतनी हिम्मत! मैं तुझे काटकर रख दूंगा।'

 

'ऐसा कर सकते हो।

 

डाक्टर तेजी से आगे बढ़कर एकदम विमलादेवी के निकट आ गए, और दांत किटकिटाकर कहा-'सेफ की चाभी दे !'

 

'नहीं दूंगी।'

 

'अरी चुडैल, बता चाभी कहां है ?'

 

'नहीं बताऊंगी, नहीं दूंगी।'

 

'क्या तू आज ही मरना चाहती है ?'

 

'जब मरने का वक्त आएगा, खुशी से मरूंगी?'

 

'तो मर फिर।'

 

डाक्टर ने जोर से उसका गला दबाकर उसे ऊपर उठा लिया और फिर जमीन पर पटक दिया। इसके बाद वे सेफ की चाभी घर भर में ढूंढ़ने को आलमारी और मेजों की ड्रावरों से सामान निकाल-निकालकर इधर-उधर छितराने लगे। विमला-देवी का दीवार से टकराकर सिर फट गया और वे खून में नहा गईं। पांच वर्ष की सोती हुई बच्ची जागकर चीख मार-मारकर रोने लगी। डाक्टर को आखिर चाभी मिल गई। वे सेफ की ओर लपके। पर विमलादेवी ने दौड़कर दोनों हाथों से सेफ पकड़ लिया। वह सेफ से सीना भिड़ाकर खड़ी हो गईं। डाक्टर ने तड़ा-तड़ सेफ की बड़ी चाभी की निर्दय मार विमलादेवी की उंगलियों पर मारनी शुरू की। विमलादेवी के हाथ लोहूलुहान हो गए। वे बेहोश होने लगीं । उन्हें एक ओर ढकेलकर डाक्टर कृष्णगोपाल ने सेफ का ताला खोल डाला और नोटों का बण्डल जेब में डाल तेजी से घर के बाहर हो गए। बेहोश और खून में लतपत पत्नी की ओर उन्होंने नजर नहीं डाली, भय और आतंक से माता की छाती पर सिसकती हुई पुत्री पर भी नहीं।

 

६ : अदल-बदल

डाक्टर जब क्लब में पहुंचे तो दस बज रहे थे। मायादेवी सुर्ख जार्जेट की साड़ी में मूत्तिमान मदिरा बनी हुई थीं। उन्होंने सफेद जाली की चुस्त स्लीवलेस वास्केट पहन रखी थी। अपनी कटीली बड़ी-बड़ी आंखों को उठाकर मायादेवी ने कहा- 'ओफ, अब आपको फुर्सत मिली है, मर चुकी मैं तो इन्तजार करते-करते।'

 

'मुझे अफसोस है मायादेवी, मुझे देर हो गई। क्या कहं, ऐसी जाहिल औरत से पाला पड़ा है कि जिन्दगी कोफ्त हो गई। जब देखिए-रोनी सूरत

 

मायादेवी से सटकर एक तरुण युवक और बैठा था। शीतल पेय के गिलास को टेबुल पर रख और सिगरेट का धुआं मुंह से उड़ाकर उसने कहा-'डाक्टर अव शरीफ आदमियों को जाहिल औरतों से पिण्ड छुड़ा लेना चाहिए। अच्छा मौसम है। डाक्टर अम्बेडकर साहब को दुआ दीजिए और नेहरू साहब की खैर मनाइए कि जिनकी बदौलत हिन्दू कोडबिल पास हो रहा है । अब शरीफ एजुकेटेड हिन्दू लेडीज और जेन्टलमैन दोनों को राहत, आजादी और खुशी हासिल होगी।'

 

'मगर ये कम्बख्त हिन्दू इसे कानून बनने दें तब तो ? खासकर ये ग्यारह नम्बर के चोटीधारी चण्डूल वह बावैला मचा रहे हैं कि जिसका नाम नहीं।'

 

'लेकिन दोस्त, आज नहीं तो कल, कोडबिल बनकर ही रहेगा। इन दकियानूसों की एक न चलेगी।'

 

'मगर अफसोस, तब तक तो मायादेवी बूढ़ी हो जाएंगी,इनका सब निखार ही उतर जाएगा।'

 

मायादेवी ने तिनककर कहा-'अच्छा, अब मुझे भी कोसने लगे! यों क्यों नहीं कहते कि मायादेवी तब तक मर ही

 

जाएगी।'

'लाहौल बिला कूबत, ऐसी मनहूस बात जबान पर न लाना मायादेवी, कहे देता हूं। मरें तुम्हारे दुश्मन। और इस कोडबिल ने भी तबीयत कोफ्त कर दी। लो यारो, एक-एक पैग चढ़ाओ, जिससे तबीयत ज़रा भुरभुरी हो। उन्होंने जोर से पुकारा 'बॉय।'

 

वैरा आ हाजिर हुआ। डाक्टर ने जेब से सौ का नोट निकाल कर कहा--'झटपट दो बोतल ह्विस्की, बर्फ, सोडा।'

 

'लेकिन हुजूर, आज तो ड्राई डे है!'

 

'अबे ड्राई डे के बच्चे, ड्राई डे है तो मैं क्या करूं, क्लब से ला।' उन्होंने एक सौ रुपये का नोट उस पर फेंक दिया। वैरा झुककर सलाम करता हुआ चला गया।

 

मायादेवी के साथ जो युवक था वह किसी बीमा कंपनी का एजेण्ट था। निहायत नफासत से कपड़े पहने था और पूरा हिन्दुस्तानी साहब लग रहा था। डाक्टर कृष्णगोपाल की गंजी खोपड़ी, अधपकी मूछे और कद्दू के समान कोट के बाहर उफनते हुए पेट को वह हिकारत की नजर से देख रहा था।

 

इस मण्डली में चौथे महाशय एक सेठजी थे। वे सिल्क का कुर्ता तथा महीन पाढ़ की धोती पर काला पम्पशू डाटे हुए थे। वे चुपचाप मुस्कराकर शराब पी रहे थे। रंग उनका गोरा, आंखें बड़ी-बड़ी और माथा उज्ज्वल था। उंगलियों में हीरे की अंगूठी थी। डाक्टर को ये भी तिरस्कार की नजर से देख रहे थे। बात यह थी कि ये तीनों जेंटलमैन मायादेवी के ग्राहक थे। भीतर से तीनों एक-दूसरे से द्वेष रखते थे। ऊपर से चिकनी-चुपड़ी बातें करते थे। मायादेवी सबको सुलगातीं। सबको खिलौना बनातीं। उनके साथ खेल करतीं, खिजाती थीं और उसीमें उन्हें मजा आता था।

 

उन्होंने ज़रा नाक-भौं सिकोड़कर कहा--'आखिर यह कोडबिल है क्या बला?'

 

सेठजी का नाम गोपालजी था। उन्होंने हुमसकर कहा-'मजेदार चीज है । मायादेवी, ठीक मौसमी कानून है ।' 'मौसमी कैसा?' मायादेवी ने गोपाल सेठ पर कटाक्षपात करते हुए कहा।

 

'इतना भी नहीं समझतीं? मायादेवी जब उभर आई हैं तभी कोडबिल कानून भी उनकी मदद को आ खड़ा हुआ है। उसका मंशा यह है कि मायादेवी न किसीकी जरखरीद बांदी हैं,न किसीकी ताबेदार, वे स्वतन्त्र महिला हैं । अरे साहब, स्वतन्त्र भारत की स्वतन्त्र महिला, वे अपनी कृपादृष्टि से चाहे जिसे निहाल कर दें, चाहे जिसे बर्बाद कर दें।'

 

डाक्टर ने गिलास खाली करके मेज पर रखते हुए घुड़ककर सेठजी से कहा-'बड़े बदतमीज हो, महिलाओं से बात करने का ज़रा भी सलीका नहीं है तुम्हें, कोडबिल की मंशा तो ज़रा भी नहीं समझते?

 

'तो हजूरेवाला ही समझा दें। गोपाल सेठ ने बनते हुए कहा।

 

'कोडबिल का मंशा यह है कि आजाद भारत की नारियां आजादी के वातावरण में आजादी की सांस लें। हजारों साल से पुरुष उन पर जो अपनी मिल्कियत जताते आते हैं, वह खत्म हो जाए। पुरुष के समान ही उनके अधिकार हों, पुरुष की भांति ही वे रहें, समाज में उनका दर्जा पुरुष ही के समान हो।'

 

'वाह भाई वाह ! खूब रहा!' सेठने जोर से हंसकर कहा-'तब तो वे बच्चे पैदा ही न करेंगी, उनके दाढ़ी-मूछे भी निकल आएंगी। पुरुष की भांति जब वे सब काम करेंगी तो उनका स्त्री-जाति में जन्म लेना ही व्यर्थ हो गया। तब कहो-हम-तुम किसके सहारे जिएंगे, यह बरसाती हवा और पैग का गुलाबी सुरूर सब हवा हो जाएगा!'

 

'वही गधेपन की हांकते हो। कोडबिल की यह मंशा नहीं है कि स्त्रियां मर्द हो जाएं, उनको दाढ़ी-मूछे निकल आएं या वे बच्चे न पैदा करें। यह तो कुदरत का प्रश्न है, इसमें कौन दखल दे सकता है। कोडबिल का मंशा सिर्फ यह है कि समाज में जो पुरुष उनके मालिक बनते हैं, उन्हें जबरदस्ती अपने साथ बांध रखते हैं, उनके ये मालिकाना अख्तियार खत्म हो जाएं। स्त्रियां समाज में पुरुषों के समान ही अधिकार सम्पन्न हो जाएं।'

 

'लेकिन यह हो कैसे सकता है ?' तरुण युवक ने जिसका नाम हरवंशलाल था-धुएं का बादल बनाते हुए कहा।

 

'क्यों नहीं हो सकता?' डाक्टर ने ज़रा तेज होकर कहा।

 

युवक हरवंशलाल ने कहा- 'जनाब, गुस्सा करने की जरूरत नहीं। बातचीत कीजिए। समझिए, समझाइए। पहली बात तो यह कि स्त्रियों का समाज में समान अधिकार हो ही नहीं सकता। उनकी शारीरिक बनावट, मानसिक धरातल और सामाजिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वे स्वतन्त्र रह सकें। उन्हें पुरुषों के संर- क्षण में रहना ही होगा। उसमें बुराई भी क्या है, समाज में घर के बाहर बहुत भेदिये रहते हैं, उनसे उनकी हत्या होगी। स्त्रियों की हमारे घरों में एक मर्यादा है, उन्हें हम अपने से कमजोर, नीच या दलित नहीं समझते। हम उन्हें अपनी अपेक्षा अधिक पवित्र, पूज्य और सम्माननीय समझते हैं। युग-युग से पुरुषों ने स्त्रियों की मान-मर्यादा के लिए अपने खून की नदियां बहाई हैं, वह इसलिए कि समाज में पुरुष स्त्री का संरक्षक है। अब यदि वह समाज में बराबर का दर्जा पा जाएगी-तो पुरुषों की सारी सहानुभूति और संरक्षण खो बैठेगी। तथा उनकी दशा अत्यन्त दयनीय हो जाएगी।'

 

'खाक दयनीय हो जाएगी।' मायादेवी ने उत्तेजित होकर कहा-'आप यहां चाहते है कि हम स्त्रियां आप पुरुषों की पैर की जूती बनी रहें। आप जो चाहें हमारे साथ जुल्म करें, और हमारी छाती पर मूंग दले और हम कुछ न कहें। चुपचाप बर्दाश्त करें। हजरत, अब यह नहीं हो सकता। हम लोगों ने गुलामी के इस कफन को फाड़ फेंकने तथा आजादी की हवा में सांस लेने का पक्का इरादा कर लिया है। दुनिया की कोई ताकत अब हमें इस इरादे से रोक नहीं सकती।'

 

'श्रीमती मायादेवी!' युवक ने हंसकर मादक दृष्टि से माया- देवी की ओर देखते हुए कहा-'हम मर्दो का इरादा स्त्रियों के किसी इरादे में दखल देने का नहीं है। पर सच कहने की आप यदि इजाजत दें तो मैं एक ही बात कहूंगा कि आधुनिक काल का प्रत्येक शिक्षित पुरुष जब स्त्रियों के विषय में सोचता है तो वह उनकी उन्नति, आजादी तथा भलाई की ही बात सोचता है। परन्तु आधुनिक काल की प्रत्येक शिक्षित नारी तो पुरुषों के विषय में केवल एक ही बात सोचती है-कि कैसे उन पुरुषों को कुचल दिया जाए, उन्हें पराजित कर दिया जाए। वास्तव में यह ही खतरनाक बात है।'

 

'खतरनाक क्यों है ?' मायादेवी ने कहा।

 

'इसलिए ऐसा करने से पुरुषों के हृदय में से स्त्रियों के प्रति प्रेम के जो अटूट सम्बन्ध हैं, वे टूट जाएंगे और उनमें एक परायेपन की भावना उत्पन्न हो जाएगी, तथा स्त्रियां पुरुषों के संरक्षण से बाहर निकलकर कठिनाइयों में पड़ जाएंगी।'

 

'तब आप चाहते क्या हैं ? यही कि हम लोग सदैव आपकी गुलाम बनी रहें?

 

'आपको गुलाम बनाता कौन है मायादेवी, हम पुरुष लोग तो खुद ही आप लोगों के गुलाम हैं । हमारी नकेल तो आप ही के हाथों में हैं। धन-दौलत जो कमाकर लाते हैं, घर में हम स्त्रियों को सौंप देते हैं। उन्हें हमने घर-बार की मालकिन बना दिया है।

 

संभव नहीं है कि हम उनकी रजामन्दी के विरुद्ध कोई काम भी कर सकें।'

 

'लेकिन यह भी तो कहिए कि घर में हमारी इज्जत क्या है, हमारा अधिकार क्या है?'

 

'क्या इज्जत नहीं है? छ: साल तक मुर्दो से लड़ाई करते हैं तब डाक्टर की डिग्री मिलती है। परन्तु स्त्री उससे ब्याह करते ही डाक्टरनी बन जाती है। ये सेठजी बैठे हैं पूछिए--कितनों का गला काटकर सेठ बने हैं; और इनकी बीबी तो इनसे ब्याह होते ही सेठानी बन गई। तहसीलदार की बीबी तहसीलदारिन, थानेदार की थानेदारिन स्वतः बन जाती है कि नहीं? फिर अधिकार की क्या बात? घर में तो आपका ही राज्य है मायादेवी, हमारी तो वहां थानेदारी चलती नहीं।'

 

'परन्तु आप यह भी जानते हैं कि घर के भीतर स्त्रियों ने कितने आंसू बहाए हैं।'

 

'सो हो सकता है, आप ही कहां जानती हैं कि घर के बाहर मर्दों ने कितना खून बहाया है! आंसू से तो खून ज्यादा कीमती है मायादेवी, यह तो अपनी-अपनी मर्यादा है। अपना-अपना कर्तव्य है। वक्त पर हंसना भी पड़ता है, रोना भी पड़ता है, जीना भी पड़ता है, और मरना भी पड़ता है। समाज नाम भी तो इसी मर्यादा का है?

 

सेठ गोपालजी खुश होकर बोले--'बहस मजेदार हो रही है। कहिए मायादेवी, अब आप हरवंशलाल बाबू की क्या काट करती हैं।'

 

डाक्टर ने जोश में आकर कहा--'हरवंश बाबू की बात की काट करूंगा मैं। आप यदि स्त्रियों को बच्चे पैदा करने की मशीन और अपनी वासना-पूर्ति का साधन नहीं बनाना चाहते तो जनाब आपको उन्हें आजाद करना पड़ेगा, उन्हें समाज में समानता के अधिकार देने पड़ेंगे।'

 

'लेकिन किस तरह महाशय, समानता के अधिकारों से आपका मतलब क्या है? आप यह तो नहीं चाहते कि एक बार बच्चा स्त्री जने और दूसरी बार पुरुष। मासिक धर्म एक महीने स्त्री को हो, दूसरे महीने पुरुष को।'

 

'यह आप बहस नहीं कर रहे हैं, बहस का मखौल उड़ा रहे हैं। मेरा मतलब यह है कि स्त्री-पुरुषों को समाज में समान अधिकार प्राप्त हों।'

 

'तो इस बात से कौन इन्कार करता है। बात इतनी ही तो है कि पुरुष घर के बाहर काम करते हैं, स्त्रियां घर के भीतर। अब आप उन्हें घर से बाहर काम करने की आजादी देते हैं तो मेरी समझ में तो आप उन्हें उनकी प्रतिष्ठा तथा शान्ति को खतरे में डालते हैं।'

 

'यह कैसे?'

 

'मैं देख रहा हूं। अब से बीस-पचीस वर्ष पहले हमारे घर की बहू-बेटियां घर की दहलीज से बाहर पैर नहीं धरती थीं। वे पर्दा- नशीन महिलाओं की मर्यादा धारण करती थीं। रोती थीं तब भी घर की चहारदीवारी के भीतर और हंसती थीं तब भी वहीं। वे अपने पति पर आधारित थीं। पति ही उनका देवता और सब कुछ था। वे लड़ती भी थीं और प्यार भी करती थीं। पर यह बात घर से बाहर नहीं जाती थी। बाहरी पुरुषों के सामने न उनकी आंखें उठती थीं, न जबान खुलती थी। वे अधिक पढ़ी-लिखी भी न होती थीं। घर-गृहस्थी का काम, बच्चों की सार-संभाल और पति की सेवा--बस इसीमें उनका जीवन बीत जाता था। यह क्या बुरा था?

 

'और अब?'

 

'उनको क्या? मैं तो यह देखता हूं कि अच्छे-अच्छे घरानों की लड़कियां ग्रेजुएट बन गईं। उनकी व्याह की उम्र ही बीत गई। अब वे ऑफिसों में, स्कूलों में, सिनेमा में अपने लिए काम की खोज में घूम रही हैं। इस काम से उनकी कितनी अप्रतिष्ठा हो रही है तथा कितना उनके चरित्र का नाश हो रहा है, इसे आंखवाले देख सकते हैं।'

 

मायादेवी अब तक चुप थीं। अब ज़रा जोश में आकर बोलीं-- 'तो आप यही चाहते हैं कि स्त्रियां पुरुषों की सदा गुलाम बनी रहें, उन्हीं पर आधारित रहें।'

 

'यदि थोड़ी देर के लिए यही मान लिया जाए श्रीमती मायादेवी, कि वे पुरुषों की गुलाम ही हैं तो दर-दर गुलामी की भीख मांगते फिरने से, एक पुरुष की गुलामी क्या बुरी है?'

 

'यदि वे कोई काम करती हैं, नौकरी करती हैं तो इसमें गुलामी क्या है?'

 

'अफसोस की बात तो यही है मायादेवी, कि सारा मामला रुपयों-पैसों पर आकर टिक जाता है। टीचर, डाक्टर बनकर या नौकरी करके वे जो पैदा कर सकती हैं--सिनेमा-स्टार बनकर लाखों पैदा कर सकती हैं--मोटर में शान से सैर कर सकती हैं। परन्तु सामाजिक जीवन का मापदण्ड रुपया-पैसा ही नहीं है। स्त्री-पुरुष की परस्पर की जो शारीरिक और आत्मिक भूख है, वही सबसे बड़ी चीज है। उसीकी मर्यादा में बंधकर हिन्दू गृहस्थ की स्थापना हुई है। वही हिन्दू गृहस्थ आज छिन्न-भिन्न किया जा रहा है।'

 

'पर यह हिन्दू गृहस्थ भी तो आर्थिक ही है। उसकी जड़ में तो रुपया-पैसा ही है?'

 

'कैसे?'

 

'अत्यन्त प्राचीन काल में, हिन्दुओं में गृहस्थ की मर्यादा न थी। स्त्री-पुरुष उन्मुक्त थे। स्त्रियां स्वतन्त्र थीं। वे जब जिस पुरुष से चाहतीं, सम्बन्ध स्थापित करके बच्चा पैदा कर सकती थीं। वे ही बच्चे की मालकिन कहलाती थीं, पुरुष का उससे कोई सम्बन्ध न था। बाद में जब धन-सम्पत्ति बढ़ी, नागरिकता का उदय हुआ, और पुरुष अपनी विजयिनी शक्ति के कारण उसका मालिक हुआ तो--वह धीरे-धीरे स्त्रियों का भी मालिक बनता चला गया। वह जमाना था 'जिसकी लाठी उसकी भैंस'। एक दल दूसरे से लड़ता था--तो जीतनेवाला दल हारने वाले दल का घर-बार, सामान सब लूट लेता था--उसी लूट में वह स्त्रियों को भी लूट लाता और अपने घर की दासी बनाकर रखता। तरुणी और सुन्दरी, ये विजिता दासियां आगे चलकर आधीन पत्नियां बनती गई। समाज में बहु-पत्नीत्व का प्रचलन हुआ और स्त्रियां पुरुष के अधीन हुई।'

 

'किन्तु अब?'

 

'अब स्त्रियों की आर्थिक दासता ही उनकी सामाजिक स्वाधीनता की बाधक है। वे घर में रहकर यदि गृहस्थी चलाएं तो कुछ कमा तो सकतीं नहीं। केवल पति की आमदनी पर ही उन्हें निर्भर रहना पड़ता है है। पर इतना अवश्य है कि गृहस्थी में गृहिणी पति की कमाई पर निर्भर रहकर भी उतनी निरुपाय नहीं है। उसकी बहुत बड़ी सत्ता है, बहुत भारी अधिकार है। पति तो उसके लिए सब बातों का ख्याल रखता ही है--पुत्र भी उसकी मान-मर्यादा का पालन करते हैं।'

 

मायादेवी ने तिनककर कहा--'क्या मर्यादा पालन करते हैं? पति के मरने पर वह पति की संपत्ति की मालिक नहीं बन सकती, मालिक बनते हैं लड़के लोग। जब तक पति जीवित है वह उसके आगे हाथ पसारती हैं, और उसके मरने पर पुत्रों के आगे। उसकी दशा तो असहाय भिखारिणी जैसी है।"

 

'यह ठीक है, बुरे पति और बेटे स्त्रियों को कष्ट देते हैं। इसका कानून से निराकरण अवश्य होना चाहिए। पर कोडबिल तो कुछ दूसरी ही रचना करता है। यह हिन्दू गृहस्थी को भंग करता है।"

 

'किस प्रकार?'

 

'तलाक का अधिकार देकर।'

 

'लेकिन तलाक का अधिकार तो अब रोका नहीं जा सकता।' डाक्टर ने तेज़ी से कहा।

 

'हां, मैं भी यही समझता हूं परन्तु मैं इसका कुछ दूसरा ही कारण समझता हूं, और आप दूसरा।'

 

'मेरा तो कहना यही है कि तलाक का अधिकार स्त्री को पुरुष के और पुरुष को स्त्री के जबर्दस्ती बन्धन से मुक्त करने के लिए है।' डाक्टर ने कहा।

 

'परन्तु मेरा विचार दूसरा है। असली बात यह है कि अंग्रेजों से हमने जो नई बातें अपने जीवन में समावेशित की हैं, उनमें एक नई बात 'एक पत्नीव्रत' है। हिन्दू लॉ के अनुसार हिन्दू गृहस्थ एक ही समय में एक से अनेक पत्नियों से विवाह कर और रख सकता है। आप जानते ही हैं कि प्राचीन काल के राजा-महाराजाओं के महलों में महिलाओं के रेवड़ भरे रहते थे। अंग्रेजों के संसर्ग से हमने दो बातें ही सीखीं। पहला 'एक पत्नीव्रत', दूसरा समाज में स्त्रियों का समान अधिकार। यद्यपि भारत में भी राम जैसे एक पत्नीव्रती पुरुष हो गए हैं--पर कानूनन अनेक पत्नी रखना निषिद्ध न था। अब भी हिन्दू लॉ के अधीन अनेक पत्नी रखी जा सकती हैं। परन्तु व्यवहार में यह हीन कर्म माना जाता है। अभी तक 'एक पत्नीव्रत' का कानून नहीं बना था। पुरुष चाहते तो अपनी स्त्री को त्याग दे सकते थे-- वह सिर्फ खाना-कपड़ा पाने का दावा कर सकती थी और पुरुष झट से दूसरा विवाह कर लेते थे। उसमें कोई बाधा न थी--परन्तु अब जब, 'एका पत्नीव्रत' कानूनन कायम हो जाएगा तो स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों ही का तलाक अनिवार्य बन जाएगा। बिना तलाक की स्थापना के पुरुष एक मिनट भी तो 'एक पत्नीव्रत' को सहन नहीं कर सकता।'

 

'क्यों नहीं कर सकता?'-इतनी देर बाद सेठजी ने मुंह खोला।

 

'इसलिए कि वह अपने लम्पट स्वभाव से लाचार है। 'एक पत्नीव्रत' का अर्थ ही यही है कि जब तक पत्नी है तब तक दूसरी स्त्री उसकी पत्नी नहीं बन सकती। अब यदि वह दूसरी स्त्री पर अपना अधिकार कायम रखना चाहता है तो उसे एकमात्र तलाक ही का सहारा रह जाता है। बिना तलाक दिए वह नई नवेलियों का, जीवनभर आनन्द नहीं उठा सकता।'

 

सेठजी ने जोर से हंसकर कहा–'बात तो पते की कही । हमी को देखो, अपनी बुढ़िया को घसीटे लिए जा रहे हैं । गले में चिपटी पड़ी है। मरे तो दूसरी शादी का डौल करें।'

 

'जब तलाक चल गया तो मरने की जरूरत ही न रही साहेब। तलाक दीजिए-और दूसरी शादी कीजिए।'

 

'और वह स्त्री ?

 

'वह भी दूसरी शादी करे।'

 

'बाह ! तो यों कहो कि तलाक का मसला—अदल-बदल का मसला है। अर्थात् बीबी बदलौवन ।'

 

'बेशक, मगर इसकी जड़ में दो बड़ी गहरी बुराइयां हैं। एक तो यह कि हमारे गृहस्थ में जो पति-पत्नी में गहरी एकता- विश्वास और अभंग सम्बन्ध कायम है-वह नष्ट हो जाएगा। पति-पत्नी के स्वार्थ भिन्न-भिन्न हो जाएंगे। और दाम्पत्य-जीवन छिन्न-भिन्न हो जाएगा।'

 

'और दूसरा ?'

 

'दूसरा इससे भी खराब है। आप जानते हैं कि पुरुष स्त्री के यौवन का ग्राहक है। स्त्रियों का यौवन ढलने पर उन्हें कोई नहीं पूछता। अब तक हमारे गृहस्थ की यह परिपाटी थी कि स्त्री की उम्र बढ़ती जाती थी, वह पत्नी के बाद मां, मां के बाद दादी बनती जाती थी, इसमें उसका मान-रुतबा बढ़ता ही जाता था। अब पुरुष तो पुरानी औरतों को तलाक देकर, नई नवेलियों से नया व्याह रचाएंगे। स्त्रियां भी, जब तक उनका रूप-यौवन है, नये-नये पंछी फसाएंगी। पर रूप-यौवन ढलने पर वे असहाय और अप्रतिष्ठित हो जाएंगी। उनकी बड़ी अधोगति होगी।'

 

सेठजी विचार में पड़ गए। बोले-'इस मसले पर तो हमने कोई विचार ही नहीं किया। क्या कहती हो मायादेवी ?'

 

'मैं तो आप लोगों को हिमाकत को देख रही हूं। क्या दकि- यानूसी मनहूस बहस शुरू की है। शाम का मजा किरकिरा कर दिया। जाइए आप, अपनी औरतों को बांधकर रखिए। मैं तो अन्याय को दाद न दूंगी। मैं स्त्री की आजादी के लिए पुरुषों से लड़गी, डटकर।"

 

'और श्रीमती मायादेवी, यह बन्दा इस नेक काम में जी-जान से आपकी मदद करेगा।' डाक्टर ने लबालब शराब से भरा गिलास मायादेवी की ओर बढ़ाते हुए कहा-'लीजिए, हलक तर कीजिए इसी बात पर।'

 

'शुक्रिया, पर मैं ज्यादा शौक नहीं करती। हां कहिए, श्रीमती विमलादेवी कैसी हैं । आजकल उनसे कैसी पट रही है ?'

 

'कुछ न पूछो-मुझे तो उसकी सूरत से नफरत है। जब देखो, मनहूस सूरत लिए मिनमिनाती रहती है।'

 

'तो हजरत, कभी-कभी यहां सोसाइटी ही में लाइए। तरीके सिखाइए। बातें आप बड़ी-बड़ी बनाते हैं मगर करनी कुछ नहीं। मैं कहती हूं-जो कहते हैं उस पर अमल कीजिए।'

 

'करूंगा, जरूर करूंगा मायादेवी, बस आप जरा मेरी पीठ पर रहिए।'

 

सेठजी ने हंसकर कहा-'वाह, क्या बात कही। अच्छा एक दौर चले इसी बात पर।"

 

सबने गिलास भरे और गला सींचने लगे।

 

७ : अदल-बदल

मायादेवी आकर अपने कमरे में सो गईं। दिन निकलने पर भी सोती ही रहीं। तमाम दिन वे सोती ही रहीं। मास्टर साहब यद्यपि पत्नी के स्वेच्छाचार से खुश न थे, फिर भी उन्होंने उसे एक-दो बार उठने के लिए कहा पर मायादेवी ने हर बार जवाब दिया कि तबीयत अच्छी नहीं है। विवश मास्टर बेचारे स्वयं खापकाकर पुत्री को लेकर स्कूल चले गए। स्कूल से लौटकर जब शाम को उन्होंने देखा कि मायादेवी अब भी सो रही हैं और जो भोजन वे बनाकर उनके लिए रख गए थे, वह भी उन्होंने खाया-पिया नहीं है तब वे उनके कमरे में जाकर बोले-

 

'क्या बात है प्रभा की मां, तमाम दिन बीत गया, कब तक सोती रहोगी।

 

माया ने क्रोध से कहा-'तुम बड़े निर्दयी आदमी हो। आदमी की तबीयत का भी ख्याल नहीं रखते। मैं मर रही हूं और तुम्हें परवाह नहीं।'

 

'तुम्हें हुआ क्या है ?

 

'मेरी तबीयत बहुत खराब है।'

 

मास्टर ने उसका अंग छूकर कहा-'बुखार तो मालूम नहीं होता।'

 

'तुम क्या डाक्टर हो, और तुम्हें मालूम क्योंकर होगा, मैं जब तक मर न जाऊं, तुम्हें मेरी बीमारी का विश्वास क्यों आने लगा।

 

'तो तुम चाहती क्या हो, डाक्टर बुला लाऊं?'

 

'डाक्टर क्या चाहने से बुलाया जाता है ? फिर तुम डाक्टर को बुलाओगे क्यों ? रुपया जो खर्च हो जाएगा।'

 

मास्टर ने क्षणभर सोचा। फिर धीरे से कहा-'जाता हूं,डाक्टर बुला लाता हूं।'

 

माया ने कहा-'कौनसा डाक्टर लाओगे?'

 

'किसे लाऊं?

 

'उस मुहल्ले के डाक्टर का क्या नाम है, परसों पड़ोस में आया था। एक दिन की दवा में आराम हो गया। उसीको बुलाओ!'

 

मास्टर जाकर कृष्णगोपाल को बुला लाए। डाक्टर ने मायादेवी की भली भांति जांच को। दिल देखा, नब्ज देखी, जबान देखी, पीठ उंगली से ठोकी, आंखें देखी और कुछ गहरे सोच में गुम-सुम बैठ गए।

 

मास्टर ने शंकित दृष्टि से डाक्टर को देखकर कहा-'डाक्टर साहब, क्या हालत है ?

 

डाक्टर ने मास्टर को एक तरफ ले जाकर कहा-'अभी कुछ नहीं कह सकता। बुखार तो नहीं है, मगर हथेली और तलुओं में जितनी गर्मी होनी चाहिए उतनी नहीं है, आंखों का रंग हर पल में बदलता है, ओठ सूख गए हैं, नाड़ी की चाल बहुत खराब तो नहीं है, परन्तु अनियमित है, उधर दिल की धड़कन...' डाक्टर एकाएक चुप हो गए। जैसे वे किसी गम्भीर समस्या को हल कर रहे हों।

 

मास्टर साहब ने घबराकर कहा-'कहिए, कहिए, दिल की धड़कन!'

 

डाक्टर ने हाथ की घड़ी पर एक नजर डाली। फिर कहा--

 

'मैं ज़रा द्विविधा में पड़ गया हूं।' फिर कुछ सोचकर कहा-- 'सुई लगानी ही पड़ेगी!'

 

मास्टर ने डरते-डरते कहा--'सूई!' और उन्होंने माया की ओर घबराई दृष्टि से देखा। माया ने डाक्टर की ओर एक बार देखकर आंखें नीची कर लीं। डाक्टर ने प्रिस्किप्शन लिखकर धीरे से कहा--'जी हां, सूई लगाना जरूरी है, यह प्रिस्किप्शन लीजिए और जरा जल्दी से डिस्पेन्सरी तक चले जाइए, यह दवा ले आइए।'

 

'और आप तब तक?' मास्टर ने प्रिस्किप्शन हाथ में लेकर कहा।

 

'फिक्र मत कीजिए। हां ज़रा गर्म पानी•••'

 

मास्टर ने प्रभा से कहा--'बेटी, मैं अभी दवा लेकर आता हूं। तुम ज़रा अंगीठी जलाकर पानी गर्म तो कर दो।'

 

मास्टर तेज़ी से चले गए। डाक्टर ने सीटी बजाते हुए मायादेवी की ओर देखा, फिर प्रभा से कहा--'ज़रा जल्दी करो बेटी। हां, इधर धुआं मत करो, तुम्हारी माताजी को तकलीफ होगी। अंगीठी उधर बाहर ले जाओ।'

 

प्रभा ने कहा--'बहुत अच्छा!' वह बाहर जाकर अंगीठी जलाने लगी।

 

अब डाक्टर ने इत्मीनान से मायादेवी के पास कुर्सी खींचकर बैठते हुए कहा-- 'कहिए हुजूर, क्या इरादा है? आप झूठ-मूठ किसलिए बीमार बनी हैं, देखने में तो आप असल हीरे की कनी हैं।'

 

मायादेवी ने मुस्कराकर कहा--'बड़े चंट हैं आप डाक्टर, दोनों को भेज दिया, लेकिन मैं सचमुच बीमार हूं।'

 

'बीमारी क्या है?'

 

'आप इतने बड़े डाक्टर हैं, पता लगाइए!'

 

'नहीं लगा सकता मायादेवी, अब आप ही मदद कीजिए।'

 

'आपकी डाक्टरी को ज़ंग लग गई क्या?'

 

'ज़ंग ही लग गई समझिए, आप हैं ही ऐसी कि देखते ही आदमी की अक्ल पर पत्थर पड़ जाते हैं!'

 

'अच्छा ही है, मगर मैं परेशान हूं!'

 

'किससे?'

 

'बीमारी से और किससे!'

 

'लेकिन हुजूर, बीमारी क्या है?'

 

'रातभर नींद नहीं आती।'

 

'वाह, इस बीमारी का तो मैं स्पेशलिस्ट हूं। मगर यह कहिए कि आपके दिल में कुछ अनोखे-अनोखे खयाल तो नहीं आते?'

 

'अनोखे खयाल?'

 

'जी हां, जिनमें दिल की उमंगें उमड़ती हों, बढ़े-चढ़े हौसले हों, जीवन का भरपूर सुख लेने, दुनिया को जी भरकर देखने के इरादे हों।'

 

'हां, हां आते हैं, परन्तु यह भी कोई बीमारी है?'

 

'बड़ी भारी बीमारी है, मगर यह कहिए मायादेवी, इस भैंसे के साथ आपकी कैसे पटती होगी। माशाअल्ला, आप एक अप- टुडेट, ऊंचे खयाल की स्मार्ट लेडी हैं, ऐसा मालूम होता है जैसे आपका जन्म खुश होने और खेलने-खाने के लिए ही हुआ हो। लेकिन बुरा मत मानिए मायादेवी, मास्टर साहब अजब बागड़- बिल्ला--मेरा मतलब आपके लायक तो वे किसी हालत में नहीं मालूम होते।'

 

'ओफ, आप यह क्या कह रहे हैं?'

 

'श्रीमतीजी, स्त्री का जन्म प्रेम के लिए हुआ है। जो स्त्री प्रेम के तत्त्व को जानती है, मैं उसके चरणों का दास हूं।'

 

'आपने तो मेरा दुःख बढ़ा दिया। मेरा दुखता फोड़ा छू दिया।'

 

'अब इस फोड़े को चीरकर इसका सब मवाद निकालकर अच्छा करूंगा।'

 

'डाक्टर, आप आशाओं का बहुत बोझ मत लादिए।'

 

'वाह, आशा का संदेश तो आप ही की में है।' डाक्टर ने मायादेवी की तरफ एक दुष्टताभरी दृष्टि से देखकर हंस दिया।

 

मायादेवी ने नकली क्रोध से कहा--'ओफ, आप गोली मारकर हंसते हैं डाक्टर!'

 

'गोली मारना वीरता का काम है, और गोली मारकर हंसना, तो वीरता से भी बढ़कर है। तो आपके कथन का मतलब यह हुआ कि मैं अपने से भी बड़ा हूं।'

 

इतना कहकर उस डाक्टर ने एकाएक मायादेवी का हाथ पकड़ लिया,और कहा--'मायादेवी, मैं समझता हूं कि तुम गलत जगह पर आई हो, मैं तुम्हारा हाथ पकड़कर संसार में उतर पड़ना चाहता हूं।'

 

'मैं ऊब गई हूं।' माया ने वेग से सांस लेकर कहा।

 

'तो साहस करो!' डाक्टर ने माया का नर्म हाथ अपनी मुट्ठी में कस लिया।

 

'मगर कैसे?' मायादेवी ने बेचैन होकर कहा।

 

'हिन्दू कोडबिल हम पर आशीर्वाद की वर्षा करेगा, समझ लो, वह तुम्हारे और मेरे लिए ही बन रहा है। आओ, दुनिया के सामने नया आदर्श उपस्थित करो।'

 

मायादेवी ने घबराकर अपना हाथ डाक्टर के हाथ से खींचकर कहा--'ठहरो, मुझे कुछ सोचने दो।'

 

इसी समय मास्टर साहब ने झपटते हुए आकर पुत्री को पुकारकर कहा---

 

'पानी गर्म हुआ बेटी?'

 

'जी हां, गर्म हो गया।'

 

डाक्टर ने सूई लगाकर कहा---'मास्टर, साहब,श्रीमतीजी को शायद बारह सूई लगानी पड़ेंगी। मेरा निरन्तर आना मुश्किल है, बहुत काम रहता है। अच्छा होता, श्रीमतीजी बारह-एक बजे दोपहर को डिस्पेन्सरी में आ जाया करें, उसी समय ज़रा फुर्सत रहती है। ज्यादा समय नहीं लगेगा।'

 

मास्टर साहब ने सिर खुजाकर कहा---'लेकिन वह तो मेरे स्कूल जाने का समय है।'

 

'तो क्या हर्ज है, श्रीमतीजी बच्चे के साथ या किसी नौकर को लेकर आ सकती हैं, ज्यादा दूर भी तो नहीं है।'

 

मास्टर साहब ने कहा---'तब ठीक है, ऐसा ही होगा। आपका मैं बहुत कृतज्ञ हूं।' उन्होंने फीस देकर डाक्टर को विदा किया।

८ : अदल-बदल

डाक्टर कृष्णगोपाल ने श्रीमती मायादेवी का ठीक-ठीक इलाज कर दिया। उनका प्रतिदिन डिस्पेन्सरी में आना, यथेष्ट समय तक वहां ठहरना, गपशप उड़ाना, ठहाके लगाना, बालिका की आंखों में धूल झोंकना, सब कुछ हुआ। मायादेवी की धृष्टता और साहस बहुत बढ़ गया। डाक्टर से, प्रथम संकेत में साफ-साफ उसकी बात हो गई। प्रेम के बहुत-बहुत प्रवचन हुए, वायदे हुए, मान-मनौवल हुई। अन्त में दोनों ही इस परिणाम पर पहुंचे कि दोनों को एक होकर रहने ही में उनका और संसार का भला है।

 

इसका परिणाम यह हुआ कि मायादेवी का मन अपने पति, पुत्री और घर से बिल्कुल उतर गया और उसका मन इन सबसे विद्रोह करने को उन्मत्त हो उठा। स्त्री-स्वातन्त्र्य की आड़ में वासना और अज्ञान का जो अस्तित्व था, उस पर उसने विचार नहीं किया।

 

डाक्टर कृष्णगोपाल दुनिया देखे हुए चंट आदमी थे। मायादेवी पर उनकी बहुत दिन से नजर थी। अब ज्योंही उन्हें मायादेवी की मानसिक दुर्बलता का पता चला तो उन्होंने उसे स्त्रियों की स्वाधीनता की वासना से अभिभूत कर दिया। मायादेवी के सिर पर स्त्री-स्वातन्त्र्य का ऐसा भूत सवार हुआ कि उन्होंने इसके लिए बड़े-से-बड़ा खतरा उठाना स्वीकार कर लिया। और एक दिन डाक्टर से उसकी खुलकर इस सम्बन्ध में बातचीत हुई।

 

डाक्टर ने कहा--'अब आंखमिचौनी खेलने का क्या काम है मायादेवी! जो करना है वह कर डालिए।'

 

'मैं भी यही चाहती हूं। परन्तु आपसे डरती हूं। सच पूछा जाए तो मैं पुरुष मात्र पर तनिक भी विश्वास नहीं करती।'

 

'क्या मुझपर भी?'

 

'क्यों, आप में क्या सुरखाब के पर लगे हैं?'

 

'मेरा तो कुछ ऐसा ही ख्याल था।'

 

'वह किस आधार पर?'

 

'श्रीमती मायादेवी इस दास पर इतनी कृपादृष्टि रखती हैं, इसी आधार पर!'

 

'तो आप मुंह धो रखिए! मैं पुरुषों की, कानी कौड़ी के बरा बर भी इज्जत नहीं करती, मैं उनके फंदे में फंसकर अपनी स्वाधीनता नष्ट करना नहीं चाहती। मुझे क्या पड़ी है कि एक बन्धन छोड़ दूसरे में गर्दन फंसाऊं।'

 

'तो आपके बिचार से किसीको प्रेम करना गुनाह हो गया।'

 

'यह तो मैं नहीं जानती, परन्तु मैं पुरुषों के प्रेम पर कोई भरोसा नहीं करती। उनका प्रेम वास्तव में स्त्रियों को फंसाने का जाल है।'

 

'यह महज आपका ख्याल ही ख्याल है। मायादेवी, पुरुष जब किसी स्त्री से प्रेम करता है तो अपनी हंसी खो डालता है, अभी आपका शायद किसी पुरुष से वास्ता नहीं पड़ा है।'

 

डाक्टर ने अजब लहजे में कुछ मुस्कराकर यह बात कही और सिगरेट निकालकर जलाई।

 

मायादेवी ने मुस्कराकर कहा--'यदि कोई पुरुष मिल गया तो जांच कर देखूगी।'

 

'अवश्य देखिए मायादेवी!'

 

मायादेवी ने हंसकर नमस्ते किया और चल दी। लेकिन डाक्टर ने बाधा देकर कहा--

 

'यह क्या? आप बिना जबाब दिए ही चल दीं। क्या मैं समझूं कि आप मैदान छोड़कर भाग रही हैं।'

 

'अच्छा, आप ऐसा समझने की भी जुर्रत कर सकते हैं?' मायादेवी ने ज़रा नखरे से मुस्कराकर कहा।

 

डाक्टर ने हंसकर कहा--'तो वादा कीजिए, आज रात को क्लब में अवश्य आने की कृपा करेंगी।'

 

'देखा जाएगा, तबीयत हुई तो आऊंगी।'

 

'देखिए, आप इस समय एक डाक्टर के सामने हैं। तबीयत में यदि कुछ गड़बड़ी हो तो अभी कह दीजिए, चुटकी बजाते ठीक कर दूंगा। आप मेरी सूई की करामात तो जानती ही हैं।'

 

'ये झांसे आप मास्टर साहब को दीजिए। मायादेवी पर उनका असर कुछ नहीं हो सकता।'

 

'तब तो हाथ जोड़कर प्रार्थना करने के सिवाय और कोई चारा नहीं रह जाता।

 

'यह आप जानें, मैं तो आपसे अनुरोध करती नहीं।'

 

'आज रात्रि में आप क्लब अरश्व पधारिए। सेठ साहब का भी भारी अनुरोध है।'

 

'अच्छा आऊंगी'---मायादेवी ने एक कटाक्षपात किया, और चल दी।

 

९ : अदल-बदल

डाक्टर कृष्णगोपाल को पत्नी विमलादेवो एक आदर्श हिन्दू महिला थीं। वे अधिक शिक्षित तो न थीं, परन्तु शील, सहिष्णुता परिश्रम और निष्ठा में वे अद्वितीय थीं। कृष्णगोपाल के साथ विमलादेवी का विवाह हुए बारह साल हो गए थे। इस बीच उनकी तीन सन्तानें हुई, जिनमें एक पुत्री सावित्री नौ वर्ष की जीवित थी। दो पुत्र शैशव अवस्था ही में मर चुके थे। जीवन के प्रारम्भ में ही सन्तान का घाव खाने से विमलादेवी अपने जीवन के प्रारम्भ ही में गम्भीर हो गई थीं। वैसे भी वह धीर-गम्भीर प्रकृति की स्त्री थीं। वे दिनभर अपने घर-गृहस्थी के धंधे में लगी रहतीं। दो सन्तानों के बाद इसी पुत्री को पाकर विमलादेवी का मोह इसी पुत्री पर केन्द्रित हो गया था। इससे वह केवल पुत्री सावित्री को प्यार ही न करती थीं, वरन् उसके लिए विकल भी रहती थीं। पुत्री के खराब स्वास्थ्य से वह बहुत भयभीत रहती थीं।

 

डाक्टर कृष्णगोपाल ने जब विमलादेवी को लेकर अपनी गृहस्थी की देहरी पर पैर रखा, तब तो उन्होंने भी पत्नी को खूब प्यार किया। पति-पत्नी दोनों ही आनन्द से अपनी गृहथी चलाने लगे। वे खुशमिजाज, मिलनसार और परिश्रमी थे, इससे उनकी प्रैक्टिस खूब चली। परन्तु रुपये की आमदनी ने उनके चरित्र में दोष पैदा कर दिया। वे घर के सम्पन्न पुरुष न थे। साधारण घर के लड़के थे। पिता एक साधारण सरकारी क्लर्क थे। उन्होंने बड़े यत्ल से पुत्र को शिक्षा दिलाई। कृष्णगोपाल अपने पिता के अकेले ही पुत्र थे। इससे पिता उन्हें चाहते भी बहुत थे। माता का बचपन ही में देहान्त हो गया था। इससे भी पिता का पुत्र पर बहुत प्रेम था। परन्तु अपनी अवस्था सम्हाल लेने पर जब उनकी डाक्टरी खूब चलने लगी, उन्होंने पिता की कुछ भी खोज-खबर नहीं ली। बेचारे ने अपने देहात के घर में, बहुत दिनों तक एकाकी जीवन व्यतीत करके परलोक प्रयाण किया।

 

इधर हाथ में रुपया आते ही डाक्टर कृष्णगोपाल को चार दोस्तों की मण्डली मिल गई। उसमें कुछ लोग दुष्चरित्र थे। उन्होंने डाक्टर को ऐय्याश बनाने में अच्छी सफलता प्राप्त की। इससे दिन-दिनभर डाक्टर घर से बाहर रहने लगे और उनकी आय का बहुत-सा भाग इस मद में खर्च होने लगा।

 

विमलादेवी ने पहले तो इधर ध्यान नहीं दिया। पर धीरे-धीरे उसे सभी बातें ज्ञात होने लगीं। पहले डाक्टर छिपकर शराब पीते थे, बाद में पीकर मदमस्त होकर घर आने लगे। घर लौटने में उन्हें विलम्ब होने लगा। कभी-कभी तो विमलादेवी को पूरी रात-रातभर उनकी प्रतीक्षा करनी पड़ी। बहुत बार विरोध भी करना पड़ा। इससे धीरे-धीरे पति-पत्नी में संघर्ष का उदय हुआ। महाभारत छिड़ जाता और दो-दो दिन तक घर में भोजन न बनता। परन्तु इसमें सारा कष्ट विमलादेवी को ही भोगना पड़ता। डाक्टर बाहर चार दोस्तों में जाकर खूब खाते-पीते और मस्त रहते थे। धीरे-धीरे डाक्टर में आवारागर्दी बढ़ती ही गई। अब उनका मन पुत्री से भी हट गया। संतान-स्नेह का जैसे उनके मन में बीज ही न रहा। वे यों भी बहुत कम घर में आते। परन्तु जब-जब आते---या तो शराब के नशे की झोंक में बकते-झकते, या बदहवाश होकर सो रहते, या पत्नी से छोटी-छोटी बातों में नोंक-झोंक करते।

 

विमला देवी के धैर्य का भी अन्ततः बांध टूटा और खूबसहिष्णु और गम्भीर होने पर भी वह अधीर होकर उत्तेजित हो जातीं। पहले डाक्टर बक-झक करके ही रह जाते थे। अब मार-पीट भी करने लगे। गाली-गलौज भी इतनी गन्दी बकते कि, विमलादेवी सुनने में असमर्थ हो भागकर अपनी कोठरी का, भीतर से द्वार बन्द करके पलंग पर जा पड़तीं। ऐसी अवस्था में क्रोध से फुफ- कारते हुए घर से बाहर चले जाते और फिर बहुधा दो-दो, तीन- तीन दिन तक घर न आते थे।

 

इस प्रकार डाक्टर कृष्णगोपाल की ज्यों-ज्यों डाक्टरी सफल होती गई, त्यों-त्यों उनकी गृहस्थी बिगड़ती गई। विमलादेवी बहुत दुखी रहने लगीं। पुत्री के खराब स्वास्थ्य ने तो उन्हें चिन्तित कर ही रखा था---अब पुत्री तथा अपनी घर-गृहस्थी की ओर से पति की यह उपेक्षा देख, उनका मन वेदना और क्षोभ से भरा रहता। उन्हें बहुधा उपवास करना पड़ता। पति-पत्नी में जब झगड़ा होता तब तो निश्चय चूल्हा जलता ही नहीं था, परन्तु अपने मन की विकलता और अन्तरात्मा के क्षोभ के कारण बहुधा ऐसा होता कि पति और पुत्री को खिला-पिलाकर वह चुपचाप बिना कुछ खाए-पिए सो जाती।

 

पुत्री सावित्री यद्यपि नौ वर्ष की छोटी बालिका थी, पर बहुत सौम्य और कोमल वृत्ति की थी। चिरकाल तक अस्वस्थ रहने से उसमें एक गम्भीर उदासी भी आ गई थी। माता के दुःख को वह कुछ-कुछ समझने लगी थी। मां का प्रेम, उसका सेवा-भाव और उसका दुःख, यह सब देख छोटी-सी बालिका मां को कभी-कभी बहुत लाड़-दुलार करती। उसे यत्न से हठपूर्वक खिलाती, हंसाती और मन रखती। मां के लिए वह पिता से भी झिड़कियां खाती।

 

दुर्भाग्य से विमलादेवी के मातृपक्ष में भो कोई न था। इससे उनका वह सहारा भी नहीं जैसा था। बस सारे संसार में उनकी पुत्री ही उनके लिए एक अवलम्ब थी।

 

परिस्थिति और आवश्यकता ने विमला देवी को थोड़ा कठोर और दृढ़ भी बना दिया। बहुधा वह पति के अत्याचार का डटकर मुकाबला करती। वह भी अपने अधिकारों को उतना ही जान गई थी जितना अपने कर्तव्यों को। अतः वह जहां अपने कर्तव्य-पालन में पूर्ण सावधान थी, वहां अपने अधिकारों की रक्षा के लिए भी सचेष्ट थी। इसी कारण जब-जब पति-पत्नी में वाग्युद्ध होता तो वह काफी तूमतड़ाम का होता था। दिनोदिन इस युद्ध की भीषणता बढ़ती जा रही थी। और अब तो बहुधा मार-पीट के बाद ही उसकी इतिश्री होती थी। शराब पीकर उसके नशे में डाक्टर बहुधा बहुत गन्दी गालियां बक जाते थे। इन सब बातों से बेचारी छोटी-सी बालिका को व्यर्थ ही अपने आंसू बहाने पड़ते थे।

 

इस प्रकार यह सुशिक्षित डाक्टर अपनी ही गृहस्थी में आग लगाकर उसीमें ताप रहा था।

 

१० : अदल-बदल

क्लब में बड़ी गर्मागर्म बहस चल रही थी। यद्यपि अभी इने-गिने ही सदस्य उपस्थित थे। मायादेवी आज सब्ज परी बनी हुई थीं। वे जोश में आकर कह रही थीं---'पतिव्रतधर्म स्त्रियों के सिर पर जबरदस्ती लादा हुआ बोझ है, अब समय आ गया है कि स्त्रियां उसे उतार फेंकें।'

 

सेठजी ने तपाक से कहा---'अजी गोली मारिए, पतिव्रत धर्म भला अब संसार में है ही कहां? यदि हजार-दो हजार में कहीं एक में पतिव्रत धर्म दीख पड़ा तो उसकी गणना नहीं के समान है।'

 

इस पर डाक्टर ने छिपी नजर से मायादेवी की ओर देखकर कहा---'आपने शायद पतिव्रत धर्म पर ठीक-ठीक विचार नहीं किया। पतिव्रत धर्म का सम्बन्ध और स्वरूप, वह आध्यात्मिक पारलौकिक भावना है कि जिसका तारतम्य जन्म-जन्मान्तरों तक हिन्दू-संस्कार में है, हिन्दू स्त्री जब तक यह समझती रहेगी कि जिस पति से मेरा सम्बन्ध हुआ है वह जन्म-जन्मान्तर संयोग है, और जन्म-जन्मान्तर तक रहेगा, तो पतिव्रत धर्म की रूपरेखा गम्भीर हो जाती है।'

 

'परन्तु हजरत, आप एक बात मत भूलिए। स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध कामात्मक है---प्रेमात्मक नहीं। क्योंकि प्रेम और काम दोनों साथ-साथ नहीं रह सकते।'

 

'यह आपने खूब कही, भला प्रेम और काम दोनों साथ-साथक्यों नहीं रह सकते? कदाचित मैं एक डाक्टर की हैसियत से इस विषय को समझाने में अधिक सफल हो सकूं?'

 

'जरूर-जरूर, सेठजी ने आग्रहपूर्वक कहा।

 

मायादेवी ने हंसकर कहा---'और मैं इस सम्बन्ध में आपको अपना प्रतिनिधि बनाती हूं।'

 

'धन्यवाद!' डाक्टर ने हंसकर कहा। फिर उसने गम्भीर भाव से कहना प्रारम्भ किया---'यदि इस सम्बन्ध में वैज्ञानिक दृष्टि- कोण से विचार किया जाए तो आपका यह कहना कि प्रेम और काम साथ-साथ नहीं रह सकते, गलत प्रमाणित होगा। यह सिद्धान्त भी ठीक नहीं है कि स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध कामात्मक है, प्रेमात्मक नहीं। 'काम' विशुद्ध शारीरिक उद्वेग है। नर-मादा अपरिचित रह जाते हैं। संसार के समस्त जीव-जन्तु, नर-मादा जो केवल कामवृत्ति से मिलते हैं वे काम पूर्ति के बाद अपरिचित रह जाते हैं, केवल पुरुष और स्त्री ही अपने सम्बन्ध को अनुबाधित बनाए रह सकते हैं। इसके अतिरिक्त प्रेमतत्त्व की कामतत्त्व के साथ गम्भीर आवश्यकता इसलिए भी है कि काम सम्बन्ध एक ही काल में अनेक स्त्रियों से एक पुरुष का, और अनेक पुरुषों से एक स्त्री का हो सकता है, परन्तु प्रेम सम्बन्ध नहीं। प्रेम सम्बन्ध एक काल में एक स्त्री और एक ही पुरुष का परस्पर हो सकता है। स्त्री और पुरुष के सम्बन्ध में समाज की एक मर्यादा भी है, इसलिए एक स्त्री और पुरुष का स्थिर सम्बन्ध रहना, यह युग-युगान्तर में अनुभव के वाद मनुष्य-जाति ने सीखा और उससे लाभ उठाया है।"

 

सेठजी ने कहा-'आपकी बात स्वीकार करता हूं, परन्तु लैंगिक आकर्षण और लैंगिक तृप्ति से जो पारस्परिक प्रीति उत्पन्न होती है उसे प्रेम नहीं कहा जा सकता। यदि किसी स्त्री- पुरुष के जोड़े की परस्पर काम-तृप्ति होती रहती है तो उनमें प्रीति उत्पन्न हो जाती है, अर्थात् एक-दूसरे के लिए रुचिकारक भोजन की भांति प्रिय हो जाते हैं। लोगों ने इसीका नाम 'प्रेम' रख लिया है।'

 

डाक्टर ने हंसकर मायादेवी की तरफ देखा और कहा-'आपका यह कथन तो सर्वथा अवैज्ञानिक है। असत्य भी है। प्रेम वास्तव में एक विशुद्ध आध्यात्मिक वस्तु है, उसका सम्बन्ध मन से है, और कामतत्त्व से उसका कोई प्रत्यक्ष अनुबन्ध नहीं है। यों जहां कहीं स्त्री और पुरुष का मिलना होता है वहां कामतत्त्व भी उदय होता है, लेकिन जहां काम प्रधान है वहां प्रेम हो ही नहीं सकता।'

 

काम-तृप्ति का आभास ही प्रेम है ऐसी बात नहीं है। देखिए, छोटे शिशुओं पर माता का प्रेम होता है, भाई-भाई में प्रेम होता है, यह प्रेमतत्त्व कामतत्त्व से बिलकुल ही भिन्न एक वस्तु है। यह भी सम्भवहै कि प्रेमतत्त्व कायम रहे और कामतत्त्व कायम न रहे। यह भी संभव है कि कामतत्त्व कायम रहे पर प्रेमतत्त्व कायम न रहे।'

 

'वाह, यह आपने खूब कहा। अजी साहेब, आप ज़रावात्स्या- यन के कामशास्त्र को पढ़ें या हवेलिक एलिस के 'साइकोलॉजी ऑफ सेक्स को पढ़ें तो ऐसा कदापि न कहेंगे।' सेठजी ने बड़े जोश के साथ कहा। वे मायादेवी पर अपनी विद्वत्ता की धाक जमाना चाहते थे। मायदेवी चुपचाप मुस्कुरा रही थीं।

 

उन्होंने कहा-'तो फिर डाक्टर साहेब, आप पढ़ डालिए इन ग्रन्थों को इस बुढ़ापे में।'

 

डाक्टर ने ज़रा-सा मुस्कराकर एक सिगरेट निकालकर जलाया और धीरे से कहा-'बहुत कुछ तो पढ़ चुका हूं। मेरे दोस्त इन ग्रन्थों को जितना पूर्ण समझते हैं वे उतने नहीं हैं। सच पूछा जाए तो वात्स्यायन के ग्रन्थ की महत्ता तो उसकी प्राचीनता ही में है। आधुनिक कामशास्त्र में और भी नवीन महत्त्वपूर्ण बातों की खोज की गई है, जिनकी चर्चा उपर्युक्त दोनों ग्रन्थों में नहीं है। फिर, यह तो आप स्वीकार ही करते हैं कि पुरुष-पुरुष में स्त्री-स्त्री में, मनुष्य और पशु में, मनुष्य और जड़ में भी प्रेम हो सकता है, उससे क्या यह बात प्रमाणित नहीं हो जाती कि काम और प्रेम दोनों पृथक वस्तु हैं।'

 

'किन्तु मीराबाई ने मूर्ति से प्रेम किया और बाद में उस प्रेम की शक्ति से उस जड़मूर्ति को चैतन्य बना लिया।' सेठजी ने कहा।

 

'अफसोस है कि आप इस अत्यन्त भूठी दकियानूसी बात पर विश्वास करते हैं। कृपया इस बात का ध्यान रखिए कि एक वैज्ञानिक किसी विषय पर सामाजिक दृष्टिकोण से विचार नहीं कर सकता। अलबत्ता विज्ञान पर विचार करने का असर समाज पर अवश्य होगा।'

 

'छोड़िए, ऐसा ही होगा। परन्तु मैं तो फिर मूल विषय पर आता हूं। पतिव्रत धर्म का बन्धन कई शताब्दियों से न केवल हिन्दू स्त्रियों पर है, प्रत्युत मानव सभ्यता के प्रारम्भिक आर्य समु- दाय में भी इसकी विशिष्टता स्वीकार की गई है। इतना ही नहीं, प्राचीन अरबी-फारसियन, ग्रीक, लेटिन, एवं अंग्रेजी साहित्य में भी इसको काफी चर्चा है। हां, यह सत्य है कि, यह ऋमिक रूप से शिथिल-सा रहा है, परन्तु यह रूढ़िवाद का नहीं,वस्तुवाद और विज्ञानवाद का ध्वंसावशेष माना जाएगा। इसमें स्वार्थ पुरुषों का नहीं स्त्रियों का है। क्योंकि यदि पतिव्रत धर्म के पालन में स्त्री को त्याग करना पड़े तो यह मानना ही पड़ेगा कि त्याग की भावना अभी तक यत्किचित् मानवता को कायम रख सकी है। भौतिक या सामाजिक दृष्टि से भी पतिव्रत अनावश्यक नहीं समझा जा सकता।

 

'अच्छा, तो अब आप मुझे चैलेंज कर रहे हैं ?' मायादेवी ने थोड़ा उत्तेजित होकर, सेठजी को घूरकर कहा।

 

'चैलेंज नहीं कर रहा हूं मायादेवी, एक सत्य बात कह रहा हूं। सोचिए तो, स्त्री-पुरुष में इहलौकिक नहीं पारलौकिक संबंध भी है। यह पारलौकिक सम्बन्ध की विवेचना केवल साम्प्रतिक आध्यात्मिक, या मानविक वस्तु-परिस्थिति पर नहीं की जा सकती। जो नर-नारी के शारीरिक सम्बन्ध को केवल 'काम' शब्द के व्यापक रूप में ही समझना चाहते हैं, वे भूल करते हैं।'

 

'भूल कैसे करते हैं--सुनूं तो?'

 

'निवेदन करता हूं! यह तो आपको मानना पड़ेगा कि भौतिक अभिवृद्धि के लिए ही नारी में नारीत्व का उदय हुआ है।'

 

'खैर, अब ज़रा अपना आध्यात्मिक दृष्टिकोण भी फरमा दीजिए।'

 

'यदि आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो आप स्वीकार करेंगी कि न प्रेम में स्वार्थ है, न काम में पाशविकता। पशु भाव की भावना से, काम में पाशविकता की और प्रेम के ऊपर स्वार्थ- परता की छाया पड़ गई है। पर देखने से इसमें त्याग की प्रति- मूर्ति के भी दर्शन हो सकते हैं।'

 

'खाक दर्शन हो सकते हैं, कमाल करते हैं आप सेठजी! खैर आप स्त्रियों की आर्थिक दासता के विषय में क्या कहते हैं ?'

 

'आर्थिक दासता से आपका क्या अभिप्राय है ?'

 

'अभिप्राय साफ है। पहले आप हिन्दू घरों की विधवाओं को ही लीजिए, चाहे वह किसी भी आयु की हों। जिस आसानी से मर्द पत्नी के मरने पर दुबारा ब्याह कर लेते हैं, उस आसानी से पति के मर जाने पर स्त्रियां व्याह नहीं कर पातीं, यह तो आप देखते ही हैं।'

 

'बेशक, परन्तु मायादेवी, इसमें सिर्फ लज्जा, समाज के धर्म ही का बन्धन नहीं है, और भी बहुत-सी बातें हैं।'

 

'और कौनसी बातें हैं ?

 

'पहली बात तो यह है कि जहां पुरुष ब्याहकर स्त्री को अपने घर ले आता है, वहां स्त्री ब्याह करके पति के घर आती है। ऐसी हालत में वह विधवा होकर यदि फिर ब्याह करना चाहे तो पति के परिवार से उसे कुछ भी सहायता और सहानुभूति की आशा नहीं रखनी चाहिए। रही पिता के परिवार की बात ! पहले तो माता-पिता लड़की की दुबारा शादी करना ही पाप समझते हैं, दूसरे, वे इसे अपने वंश की अप्रतिष्ठा भी समझते हैं। आम तौर पर यही खयाल किया जाता है नीच जाति में ही स्त्रियां दूसरा ब्याह करती हैं। यदि उनकी लड़की का दुवारा ब्याह कर दिया जाएगा तो उनकी नाक कट जाएगी। तीसरे, वे ब्याह के समय 'कन्यादान' कर चुकते हैं और लड़की पर उनका तब कोई हक भी नहीं रह जाता। इसलिए यदि वे जब कभी ऐसा करने का साहस करते भी हैं तभी बहुधा पति के परिवार वाले विघ्न डालते हैं, क्योंकि इस काम में पिता के परिवार की अपेक्षा पति के परिवार वाले अधिक अपनी अप्रतिष्ठा समझते हैं।'

 

डाक्टर ने बीच ही में बात काटकर कहा---'इसका कारण यह है सेठजी, कि स्त्रियों की न कोई अपनी सामाजिक हस्ती है, न उनका कोई अधिकार है। न उन्हें कुछ कहने या आगे बढ़ने का साहस ही है। इन्हीं सब कारणों से हिन्दू घरों में खासकर उच्च परिवारों में स्त्रियां चाहे जैसी उम्र में विधवा हो जाएं, वे प्रायः ससुराल और पिता के घर में असहाय अवस्था ही में दिन काटती हैं।'

 

'यही बात है, जो मैं कहती हूँ'---मायादेवी ने उत्तेजित होकर कहा---'संयुक्त परिवार में पति की सम्पत्ति में से एक धेला भी नहीं मिल सकता। यदि वे उस परिवार के साथ रहें तो उन्हें रोटी-कपड़े का सहारा मात्र मिल सकता है। इस रोटी-कपड़े के सहारे का यह अर्थ है कि घरभर की सेवा-चाकरी करना, लांच्छना और तिरस्कार सहना, सब भांति के सुखों और जीवन के आनन्दों से वंचित रहना, सबसे पहले उठना और सबसे पीछे सोना, सबसे पीछे खराब-से-खराब खाना खाना, और सबसे खराब पहनना। यही उनकी मर्यादा है---इस मर्यादा से यदि वे तनिक भी चूकीं तो अपमान, तिरस्कार, और व्यंग से उनकी जान ले डालते हैं। प्रायः उन्हें अपनी देवरानियों में दासी की भांति रहना पड़ता है, जिनकी कभी वे मालिक रह चुकी होती हैं। उनकी आबरू और चरित्र पर दाग लगाना एक बहुत साधारण बात है। और इसके लिए उसे बहुत सावधान रहना पड़ता है। पति का मर जाना उसका सबसे बड़ा दुर्भाग्य समझा जाता है।

 

डाक्टर ने चेहरे पर शोक-मुद्रा लाकर कहा---'निस्संदेह यह बड़े ही दुःख की बात है। यह उनका दुर्भाग्य नहीं, हमारी सारी जाति का दुर्भाग्य है।'

 

मायादेवी ने कहा---'अभी तो मैंने यह उनके पति के घर की बात कही है, पिता के घर का तो हाल सुनिए। ...यदि विधवा छोटी अवस्था की हुई तो वह प्रायः पिता के घर ही अधिक रहती है, यदि ससुराल वाले शरीफ हुए तो। माता-पिता उस पर दया और स्नेह तो अवश्य करते हैं, परन्तु उसे देखकर दुखी रहते हैं। किन्तु कठिनाई तो तब आती है जब वह अधिक आयु की हो जाती है। माता-पिता, सास-ससुर मर जाते हैं। ससुराल में देवर-देवरानियों का और पीहर में भाई-भावजों का अकण्टक राज्य रहता है। तब वह सर्वत्र एक भार, एक पराई चीज, एक घृणा और तिरस्कार, क्रोध और अपमान की पात्री भर रह जाती है। उसके दुःख-दर्द को कोई न समझता है, न उसकी परवाह करता है। संसार के सब सुखों और मानवीय अधिकारों से वह वंचित है।'

 

डाक्टर ने सहानुभूति-सूचक स्वर में कहा---'निस्संदेह माया देवी, ऐसी अवस्था में यह बात गम्भीरता से सोचने योग्य है कि ऐसे कौन-कौन उपाय काम में लाए जाएं जिनसे स्त्रियों की यह असहायावस्था दूर हो।'

 

सेठजी अब तक चुप बैठे थे। उन्होंने कहा---'डाक्टर साहेब, आपने ऐसे कुछ उपाय सोचे हैं?'

 

'क्यों नहीं, मैं तो सदैव से इन विषयों में दिलचस्पी रखता हूं। फिर मायादेवी की धार्मिक बातें भी भुलाने के योग्य नहीं हैं। मेरी राय में राहत मिलने के कुछ उपाय हैं। पहला तो यह कि--- विवाह के समय में माता-पिता अधिक-से-अधिक दहेज दें। और दहेज की शकल में हो---गहना, कपड़ा। बर्तन आदि नहीं। और उसपर लड़की ही का अधिकार हो---ससुराल वालों का तथा उसके पति का न हो। वह रकम एक पेडअप पालिसी की तौर पर इस भांति दी जाए कि उसे वह लड़की भी चाहे तो खुद खर्च न कर सके, न पति आदि के दबाव में पड़कर उसे दे सके। यह रकम ब्याज सहित उसे या तो ब्याह के वीस वर्ष बाद जब कि वह प्रौढ़ और समझदार हो जाए तब मिले, या फिर विधवा होने पर कुछ शर्तों के साथ---जिससे उस रकम का वह पूरा लाभ उठा सके और उसे कोई ठग न सके।'

 

मायादेवी ने समर्थन करते हुए कहा---'निस्संदेह ऐसा ही होना चाहिए।'

 

परन्तु सेठजी ने आपत्ति उठाई---'यह तो आप दहेज की प्रथा का समर्थन कर रहे हैं, जिसका विरोध सभी सुधारवादी करते हैं।'

 

'मैं स्वीकार करता हूं कि आजकल दहेज की प्रथा की ओर लोगों के विरोधी भाव पैदा हो गए हैं। परन्तु इसका कारण यह है कि दहेज की प्रथा के असली कारण को लोग नहीं समझ पाए हैं। दहेज को, पति या उसके ससुरालवाले अपनी बपौती समझते और उसे हड़प लेते हैं, जो वास्तव में अत्यन्त अनुचित है। दहेज की रकम वास्तव में लड़की की सम्पत्ति ही माननी चाहिए, उसी का उसपर अधिकार भी होना चाहिए।'

 

'यह भला कैसे हो सकता है?' सेठजी ने तर्क उठाया।

 

'क्यों नहीं हो सकता?' मायादेवी ने तपाक से कहा---'लड़कों की भांति क्या लड़कियां भी अपने माता-पिता की सन्तान नहीं हैं? उन्हें क्या माता-पिता की सम्पत्ति में हिस्सा न मिलना चाहिए? हिन्दू कानून में लड़की को पिता की सम्पत्ति में कुछ नहीं मिलता। सब पुत्र का ही होता है। इसलिए पिता के धन का कुछ भाग लड़की को दहेज के रूप में मिलना ही चाहिए। यह न्याययुक्त भी है।'

 

डाक्टर ने कहा---'मायादेवी सत्य कहती हैं।'

 

'खैर, यह हुई एक बात। दूसरी बात क्या है, वह भी कहिए।'

 

'दूसरी बात यह कि विवाह के समय जेवर और नगदी के रूप में ससुराल से भी उसे कुछ मिलना चाहिए। यह धन उसी का ही हो। जैसे दहेज का धन पुत्री का धन है उसी प्रकार ससुराल का यह 'दान' स्त्री का धन है। इसे उससे कोई अपहरण न करे। दहेज की भांति आजकल जेवर आदि की ठहरानी को भी निन्द- नीय ठहराया जाता है। परन्तु उसका कारण यही है कि लड़की का उस धन पर कोई अधिकार नहीं होता। यह तय होना चाहिए कि जो जेवर, नगदी अधिक-से-अधिक ससुराल वाले अपनी सामर्थ्य के अनुसार दे सकते हैं, वह उस स्त्री का धन हो चुका और वह विधवा होने पर उसीके द्वारा अपना गुजर-बसर कर सकती है। अतएव अधिक-से-अधिक यह हो सकता है कि फिर ब्याह होने की हालत में ससुराल का यह धन उसे लौटा दिया जाए। परन्तु यदि स्त्री की आयु पच्चीस साल से ऊपर हो चुकी हो, एकाध-संतान भी उसकी हो गई हो, खाने-पीने और सुख- सम्मान से रहने की भी सुविधा हो तो वह दूसरा ब्याह न करे।'

 

'यह हुई दूसरी बात, विचारने योग्य है। अच्छा, तीसरी बात क्या है?

 

'तीसरी बात यह है कि विवाह के समय कन्यादान में सगे-सम्बन्धी, इष्ट-मित्र बहुत कुछ कन्या को नगदी अर्पण करते हैं। विदाई के समय में भी ऐसा ही होता है। रिवाज के अनुसार यह सब रकम दूल्हा महाशय हड़प जाते हैं, परन्तु वह रकम भी स्त्री-धन होना चाहिए।'

 

'बस, या और कुछ।'

 

'हां, हां, अभी तो कई मद हैं। बहू जब ससुराल आती है, तब उसे मुंह दिखाई, पैर पड़ाई आदि अवसरों पर भी बहुत कुछ भेंट मिलती है, वह भी उसीका धन होना चाहिए और यह रकम सुरक्षित रूप से उसके नाम कहीं जमा रहनी चाहिए जो आड़े वक्त पर काम आए। या तो उसकी पेड-अप पालिसी खरीद ली जाए या और कोई ऐसी व्यवस्था कर ली जाए जिसमें उस रकम के मारे जाने का भय ही न हो।'

 

मायादेवी ने डाक्टर को बहुत-बहुत साधुवाद देकर कहा---'ब्रेवो डाक्टर, इस योजना को अवश्य अमल में लाना चाहिए।'

 

'जरूर, जरूर, परन्तु मायादेवी, अभी तो इस सम्बन्ध में बहुत-सी गम्भीर बातें हैं, मसलन देश की उन्नति में स्त्रियों का कितना हाथ है, क्या कभी किसीने इस पर भी विचार किया है?'

 

'नहीं, आप इस सम्बन्ध में क्या कहना चाहते हैं?' सेठजी ने कहा।

 

डाक्टर ने कहा---'बहुत कुछ। पुरुष चाहे जैसा वीर हो, स्त्री के सामने उसकी वीरता हार खाती है। शास्त्रों में जहां स्त्री को अबला कहा गया है वहां वे चण्डिका भी बन जाती हैं।'

 

मायादेवी उत्साह से बोलीं---'बेशक। जनाब, स्त्रियों की प्रकृति जल के समान है, जो शान्त रहने पर तो अत्यन्त शीतल रहता है, परन्तु जब उसमें तूफान आता है तो वह ऐसा भयंकर हो जाता है कि बड़े-बड़े भारी जहाज भी टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं।'

 

'मेरा तो खयाल ऐसा है, कि स्त्रियां यदि सुधर जाएं तो देश की बहुत उन्नति हो।'

 

'अजी आप यही सोचिए कि वे बच्चों की माताएं हैं। उन्हें ढालने के सांचे हैं, वे बच्चों की गुरु हैं, यदि वे योग्य न होंगी तो बच्चे योग्य हो ही नहीं सकते। बच्चे यदि अयोग्य हुए तो कुल मर्यादा नष्ट हुई समझिए।'

 

'परन्तु हमारे देश की तो यह हालत है कि स्त्रियां पांच-छ: बच्चे पैदा कर लें और बूढ़ी होकर बैठी रहें। उन्हें पुरुष चाहे जितना अपमानित करता जाए, उन्हें उससे कोई वास्ता ही नहीं, पीटें तो पीट भी लें। रात-दिन घर के धन्धे में जुती रहें।'---मायादेवी एक सांस ही में कह गईं।

 

डाक्टर ने कहा---'निःसंदेह यह एक आपत्तिजनक बात है।

 

'अजी, इस गरीब और भूखे-नंगे देश में स्त्रियों को अपने सुधार की बात सोचने का अवसर ही कब मिलता है? एक जमाना था जब चित्तौड़ की क्षत्राणियों ने अपने पुत्रों, भाइयों और पतियों को देश के शत्रुओं से युद्ध करने के लिए उनकी कमर में तलवारें बांधी थीं। एक बात में हम कह सकते हैं कि स्त्रियों के हाथ से देश जिया और उन्हीं के बल पर मर मिटेगा।'

 

'परन्तु आज तो लोग स्त्रियों को पैर की बेड़ियां समझते हैं। वे सोचते हैं मेरे पीछे स्त्री है, बच्चे हैं, कौन इन्हें सहारा देगा। गोया स्त्री एक मिट्टी का लौंदा है, एक निर्जीव पिण्ड की, जिसकी रक्षा के लिए पुरुषों को अपने सभी कर्तव्य छोड़ने पड़ते हैं। माताओ, तुमने अब वीर पुत्रों को उत्पन्न करना छोड़ दिया, तुम श्रृंगार करके सज-धजकर बैठ गईं, लोहे के पिंजरे में तुम गहने- कपड़ों के ऊल-जलूल झगड़ों में उलझकर बैठ गईं। और पुरुषों को इसी उद्योग में फंसा रखा कि वह तुम्हारी आवश्यकताओं को जुटाने में मर मिटें। फलतः जीवन के सारे ध्येय पीछे रह गए।'---सेठजी यह कहकर तीखी नजर से मायादेवी की ओर ताकने लगे।

 

मायादेवी ने कहा---'इसके लिए भी पुरुष ही दोषी हैं। यदि वे स्त्रियों को अपनी वासना का गुलाम बनाए रखने के लिए उन्हें घरों की चहारदीवारी में बन्द न रखते तो आज आपको ऐसा कहने का अवसर न आता।'

 

'श्रीमती मायादेवी के समर्थन में मैं इस बोतल में बची हुई लाल परी के तीन समान भाग करता हूं, जिससे दुनिया समझे कि अब पुरुष स्त्रियों को समान अधिकार दे रहे हैं।' यह कहकर डाक्टर ने तीन गिलास भरे और एक-एक गिलास दोनों साथियों के आगे बढ़ाया।

 

सेठजी ने हंसकर गिलास उठाते हुए कहा---'मैं सादर आपका अनुमोदन करता हूं।'

 

'और मैं भी।' यह कहकर मायादेवी ने भी गिलास होंठों से लगा लिया।

 

पी चुकने पर डाक्टर ने एक संकेत मायादेवी को किया और वे बिदा ले चल दीं। डाक्टर भी उठ खड़े हुए।

 

११ : अदल-बदल

प्रभा को दो दिन से बड़ा तेज़ बुखार था, और माया दो दिन से गायब थी। किसी कार्यवश नहीं, क्रुद्ध होकर। प्रभा ने अम्मा-अम्मा की रट लगा रखी थी। उसके होंठ सूख रहे थे, बदन तप रहा था। मास्टर साहब स्कूल नहीं जा सके थे। ट्यूशन भी नहीं, खाना भी नहीं, वे पुत्री के पास पानी से उसके होंठों को तर करते 'अम्मा आ रही है' कहकर धीरज देते, फिर एक गहरी सांस के साथ हृदय के दुःख को बाहर फेंकते और अपने दांतों से होंठ दबा लेते और माया के प्रति उत्पन्न क्रोध को दबाने की चेष्टा करते। दिनभर दोनों पिता-पुत्री मायादेवी की प्रतीक्षा करते---परन्तु उसका कहीं पता न था।

 

माया अब एक बालिका की मां, एक पति की पत्नी, एक घर की गृहिणी नहीं---एक आधुनिकतम स्वतन्त्र महिला थी। पुरुषों से, गृहस्थी की रूढ़ियों से, दरिद्र जीवन से सम्पूर्ण विद्रोह करने वाली। वह बात-बात पर पति से झगड़ा करने लगी, प्रभा को अकारण ही पीटने लगी। तनिक-सी भी बात मन के विपरीत होने पर तिनककर घर से चली जाती और दो-दो दिन गायब रहती। उसकी बहुत-सी सखी-सहेलियां हो गई थीं, बहुत-से अड्डे बन गए थे, जिनमें स्कूलों की मास्टरनियां, अध्यापिकाएं, विधवाएं, प्रौढ़ाएं और स्वतन्त्र जीवन का रस लेने वाली अन्य अनेक प्रकार की स्त्रियां थीं। उनमें प्रायः सबों ने स्त्रियों के उद्धार का व्रत ले रखा था।

 

इन सब बातों से अन्ततः एक दिन मास्टर साहब का समुद्र-सा गम्भीर हृदय भी विचलित हो गया। पत्नी के प्रति उत्पन्न रोष को वे यत्न करके भी न दबा सके। उनका धैर्य साथ छोड़ बैठा। उन्होंने आप-ही-आप बड़बड़ाकर कहा---'बड़ी आफत है, आजाद महिला-सघ की आजादी का तो इन पढ़ी-लिखी बेवकूफ स्त्रियों पर ऐसा गंदा प्रभाव हुआ है कि वे घर से बेघर होने मे ही अपनी प्रतिष्ठा समझती हैं।' उन्होंने एक बार चश्मे से घूरकर ज्वर में छटपटाती पुत्री को देखा।

 

बालिका ने अपने सूखे होंठों पर जीभ फेरते हुए पूछा---'बाबूजी, अम्मा आईं!'

 

'अब आती ही होंगी बेटी। लो, तुम यह दवा पी लो।'

 

'नहीं पीऊंगी।'

 

'पी लो बेटी, दवा पीने से बुखार उतर जाएगा।'

 

'अम्मा के हाथ से पीऊंगी।'

 

'बेटी, अभी मेरे हाथ से पी लो, पीछे अम्मा आकर पिला देगी।'

 

'वह कब आएंगी बाबूजी, मैं उससे नहीं बोलूंगी, रूठ जाऊंगी।'

 

'नहीं बेटी, अच्छी लड़की अम्मा से नहीं रूठा करतीं। लो, दवा पी लो।'

 

उन्होंने धीरे से बालिका को उठाकर दवा पिला दी, और उसे लिटाकर चुपके से अपनी आंखें पोंछीं।

 

दूसरे दिन रात्रि में माया आई। उसने न रुग्ण पुत्री की ओर देखा, न भूख-प्यास से जर्जर चितित पति को। वह भरी हुई जाकर अपनी कोठरी में द्वार बन्द करके पड़ गई। कुछ देर तो मास्टरजी ने प्रतीक्षा की। बालिका सो गई थी। वे उठकर पत्नी के कमरे के द्वार पर गए और धीरे से कहा--'प्रभा की मां, प्रभा सुबह ही से बेहोश पड़ी है, तुम्हारी ही रट बेहोशी में लगाए है। आओ, तनिक उसे देखो तो।'

 

'भाई, मैं बहुत थकी हूं, ज़रा आराम करने दो।'

 

'उसे बड़ा तेज़ बुखार है।'

 

'तो दवा दो, मैं इसमें क्या कर सकती हूं। मैं कोई वैद्य-डाक्टर भी तो नहीं हूं।'

 

'लेकिन मां तो हो।'

 

'मां बनना पड़ा तो काफी गू-मूत कर चुकी। अब और क्या चाहते हो?'

 

'प्रभा की मां, वह तुम्हारी बच्ची है।'

 

'तुम्हारी भी तो है।'

 

मास्टरजी को गुस्सा आ गया। उन्होंने कहा--'किन्तु बच्चों की देख-भाल तो मां ही कर सकती है।'

 

'पर बच्चे मां के नहीं, बाप के हैं। उन्हें ही उनकी सम्हाल करनी चाहिए।'

 

'यह तुम कैसी बात कर रही हो प्रभा की मां, ज़रा लड़की के पास आओ।'

 

मायादेवी ने फूत्कार कर कहा–--'तुम लोग मेरी जान मत खाओ।'

 

मास्टर अवाक रह गए। उन्हें ऐसे उत्तर की आशा न थी। उन्होंने कुछ रुककर कहा–--'तुम ऐसी हृदयहीन हो प्रभाकी मां!'

 

मायादेवी सिंहनी की भांति तड़प उठीं। उन्होंने कहा---'मैं जैसी हूं, उसे समझ लो---मेरी आंखें खुल गई हैं। मैं अपने अधिकारों को जान गई हूं। मैं भी आदमी हूं, जैसे तुम मर्द लोग हो। मुझे भी तुम मर्दों की भांति स्वतन्त्र रहने का अधिकार है। मैं तुम्हारे लिए बच्चे पैदा करने, उनका गू-मूत उठाने से इन्कार करती हूं। तुम्हारे सामने हाथ पसारने से इंकार करती हूं। मैं जाती है। तुम्हें बलपूर्वक मुझे अपने भाग्य से बांध रखने का कोई अधिकार नहीं है।'

 

वह तेजी से उठकर घर के बाहर चल दी। मास्टर साहब भौंचक मुंह बाए खड़े-के-खड़े रह गए। वे सोचने लगे---आखिर माया यह सब कैसे कह सकी। बिल्कुल ग्रामोफोन की-सी भाषा है, व्याख्यान के नपे-तुले शब्द, साफ-तीखी युक्ति-सुगठित भाषा। क्या उसने सत्य ही इन सब गम्भीर बातों पर, स्त्री-स्वातन्त्र्य पर सामाजिक जीवन के इस असाधारण स्त्री-विद्रोह पर पूरा-पूरा विचार कर लिया है? क्या वह जानती है कि इस मार्ग पर जाने से उस पर क्या-क्या जिम्मेदारियां आएंगी? मैं तो उसे जानता हूं, वह कमजोर दिमाग की स्त्री है, एक असहनशील पत्नी है, एक निर्मम मां है। वह इन सब बातों को समझ नहीं सकती। परन्तु वह यह सब कैसे कर सकी? घर त्यागने का साहस उसमें हो सकता है, यह उसकी दिमागी कमजोरी और असहनशीलतापूर्ण हृदय का परिणाम है, परन्तु उसके कारण इतने उच्च, इतने विशाल, इतने क्रांतिमय हैं, यह माया समझ नहीं सकती। वह सिर्फ भरी गई है, भुलावे में आई है। ईश्वर करे, उसे सुबुद्धि प्राप्त हो, वह लौट आए---मेरे पास नहीं, मैं जानता हूं, मैं अच्छा पति नहीं, मैं उसकी अभिलाषाओं की पूर्ति नहीं कर सकता। मेरी क्षुद्र आमदनी उसके लिए काफी नहीं है। फिर भी प्रभा के लिए लौट ही आना चाहिए उसे। पता नहीं कहां गई? पर उसे तलाश करना होगा। उसके गुस्से को इतना सहा है, और भी सहना होगा। और उसने समझा हो या न समझा हो, उसका यह कहना तो सही है ही कि मुझे उसे बलपूर्वक अपने दुर्भाग्य से बांध रखने का कोई अधिकार नहीं है।

 

क्षणभर के लिए मास्टर साहब को तनखाह के गोल-गोल चालीस रुपये झल-झल करके उनके कानों में चालीस की गिनती कर गुम-गुम होने लगे और उनकी दरिद्रता, असहाय गृहस्थी विद्रूप कर ही-ही करके उनका उपहास करने लगी।

 

१२ : अदल-बदल

घर से बाहर आते ही थोड़ी दूर पर मायादेवी को एक खाली तांगा दीख पड़ा और वह उस पर सवार हो गई। जब तांगे वाले ने पूछा कि, कहां चलूं? तो मायादेवी क्षणभर के लिए असमंजस में पड़ गईं। झोंक में आकर जो उन्होंने घर त्यागा था, तब खून की गर्मी में आगा-पीछा कुछ भी नहीं सोचा था---अब वह एकाएक यह निर्णय न कर सकीं कि कहां चलें। परन्तु फिर यह उन्हें उचित प्रतीत न हआ। पहले यही बात उनके मन में थी, परन्तु भनिती को ऐसा करना अपमानजनक लगने लगा। फिर उन्होंने आजाला संघ में जाने की सोची, पर इस समय ऐसा भी वह न कर सकीं। अभी उसे घर छोड़े केवल कुछ क्षण ही व्यतीत हुए थे। पर इतने में ही वह ऐसा अनुभव करने लगी कि उसकी सारी ही गरिमा समाप्त हो चुकी है और अब वह पृथ्वी पर अकेली है। उसका मन गहरी उदासी से भर गया। सोच-विचार कर उसने मालतीदेवी के घर जाने का निश्चय किया, और वहीं जाने का तांगे वाले को आदेश दिया।

 

मालतीदेवी ने माया का स्वागत तो किया, पर माया ने तुरन्त ही ताड़ लिया कि उसका यों सिर पर आ पड़ना मालती को रुचिकर नहीं हुआ है।

 

रात माया ने बड़ी चिंता में काटी। प्रातःकाल मालती के परामर्श से मायादेवी ने वकील से मुलाकात की। वकील साहब का नाम नवनीतप्रसाद था। बातचीत के मीठे और फीस वसूलने में रूखे। कानून में अधूरे और बकवाद में पूरे। सब बातें सुनकर वकील साहब ने कहा---'हां, हां, आपके विचार बड़े कल्चर्ड हैं श्रीमती जी। अब पुरुषों की अधीनता में पिसने की क्या आवश्यकता है? फिर हिन्दू कोडबिल पास हो गया है। कानून सर्वथा आपके पक्ष में है। हां, फीस का सवाल है।'

 

'फीस आप जो चाहेंगे, वही मिल जाएगी। उसकी आप चिन्ता मत कीजिए, परन्तु आप पक्के तौर पर तलाक दिला दीजिए।'

 

'पक्के तौर पर ही श्रीमतीजी, पक्के तौर पर। मैं तो कच्चा काम करता ही नहीं। सारी अदालत यह बात जानती है। हां, फीस की बात है। फीस तो आप लाई होंगी?'

 

मायादेवी ने पचास रुपये का नोट वकील साहब की मेज पर रखते हुए कहा---'अभी यह लीजिए पचास रुपये। बाकी आप जो कहेंगे और दे दिए जाएंगे। मैं श्रीमती मालतीदेवी के कहने से आई हूं, आपकी फीस मारी नहीं जाएगी।'

 

'श्रीमतीजी, मालतीदेवी एक कल्चर्ड लेडी हैं। जब वे हमारे- आपके बीच में हैं, तो फिर मामला ही दूसरा है।'

 

रुपये उठाकर उन्होंने मेज की दराज में रखे और मायादेवी से कुछ प्रश्न पूछकर नोट करने के बाद कहा-'अच्छी बात है, मैं रात को कानून की किताबें देख-भालकर मसविदा तैयार कर लूंगा। कल अदालत में आपका बयान भी हो जाएगा।'

 

'किन्तु देखिए, ऐसा न हो कि कोई झगड़ा-झंझट खड़ा हो जाए । आगा-पीछा सब आप देखभाल लीजिए।'

 

'मैंने तो आपसे कह ही दिया कि मैं कच्चा काम नहीं करता। आप किसी बात की चिन्ता न कीजिए। कानून आपके पक्ष में है और मैं आपकी सेवा में। सिर्फ फीस का सवाल है। सो उसकी बात तो आप कहती ही हैं- कि मैं बेफिक्र रहूं।'

 

'जी, बिल्कुल बेफिक्र रहिए।'

 

'तो आप भी बेफिक्र रहिए। तलाक हो जाएगा। हां, क्या आप अपने पति से कुछ हर्जाना भी वसूल करना चाहती हैं ?'

 

'जी नहीं, मैं सिर्फ तलाक चाहती हूं।'

 

'ठीक है, ठीक है। "एक बात और पूछना चाहता हूं। आप यदि नाराज न हों तो अर्ज करूं?'

 

'कहिए'

 

'देखिए, स्त्री-जात की जवानी का मामला बड़ा ही नाजुक होता है। दुनिया में बड़े-बड़े दरख्त हैं, न जाने कब कैसी हवा लग जाए, कब ऊंचा-नीचा पैर पड़ जाए।'

 

'आपका मतलब क्या है ?

 

वकील साहब ने सिर खुलजाते हुए कहा-'जी मतलब-मतलब यही कि आप जैसी कल्चर्ड, सुन्दरी युवती को एक आड़ चाहिए।'

 

'आड़ ?

 

'जी हां, मेरा मतलब है सहारा।'

 

'आप अपना मतलब और साफ-साफ कहिए।'

 

वकील साहब अपनी गंजी खोपड़ी सहलाते हुए बोले-'ओफ, आप समझीं नहीं। लेकिन, जहां तक मेरा ख्याल है, शादी तो आप करेंगी ही।'

 

'इससे आपको क्या मतलब ?'

 

'जी, मतलब तो कुछ नहीं। परन्तु मैं शायद आपकी मदद कर सकूँ।'

 

'किस विषय में?

 

'शादी के विषय में । मैं एक ऐसे योग्य पुरुष को जानता हूं जो आप ही के समान कल्चर्ड विचारों का है, सभ्य पुरुष है, खुश- हाल है, समझदार है। हां, उम्र जरा खिच गई है, पर मर्द की उम्र क्या, पर्स देखना चाहिए। वह पुरुष खुशी से आप जैसी कल्चर्ड महिला से शादी करने को तैयार हो जाएगा।'

 

मायादेवी ने घृणा से होंठ सिकोड़कर गंजे वकील की ओर देखा और कहा-

 

'आप कैसे कह सकते हैं कि वह तैयार हो जाएगा, दूसरे के दिल की बात आप जान कैसे सकते हैं ?'

 

'खूब जानता हूं देवीजी, मैं दावे से कह सकता हूं कि वह आप पर मर मिटेगा।'

 

'तो वह मर मिटने वाले शायद आप ही हैं।' मायादेवी ने भ्रूभंग करके कहा।

 

'हो ही, आप भी कमाल की भांपने वाली हैं, मान गया। अब जब आप समझ ही गई हैं, तो फिर कहना ही क्या। मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं कि आप एक दिलवाला पति पा सकेंगी।'

 

'खैर देखा जाएगा, अभी तो आप जो मामले की बात है उसीका ध्यान कीजिए। इस मसले पर पीछे गौर कर लिया जाएगा।'

 

'तब तो श्रीमती जी फीस का मसला ही खत्म'-आप चाहें तो ये पचास रुपये भी लेती जाइए।'

 

'अभी उन्हें रखिए। शायद आपको अभी जरूरत पड़ जाए तो मैं आपके पास कल कचहरी में मिलूं?'

 

'कचहरी में क्यों, यहीं आइए। हम लोग साथ-साथ चाय पिएंगे, और काम की बातें करेंगे, एक-दूसरे को समझेंगे, समझती हैं न आप?'

 

'खूब समझती हूं।'

 

'कमाल करती हैं आप। क्या साफगोई है। मान गया। तो पक्की रही, आप आ रही हैं न कल?'

 

'मै कचहरी में मिलूंगी, आप सब कागजात तैयार रखिए।'

 

'लेकिन मेरी दर्खास्त...' वकील साहब ने बेचैनी से कहा।

 

मायादेवी ने उठते हुए कहा-'पहले मेरी दर्खास्त की कार्यवाही हो जाए।'

 

वकील साहब हंस पड़े। 'अच्छा, अच्छा, यह भी ठीक है।' उन्होंने कहा।

 

मायादेवी 'नमस्ते' कह विदा हुई।

 

१३ : अदल-बदल

मास्टर हरप्रसाद ने वह रात बड़े कष्ट और उद्वेग से काटी। रुग्णा बालिका को छोड़कर वे रात में कहीं जा भी नहीं सकते थे। और मायादेवी का इस प्रकार चला जाना उनके लिए एक असंभावित घटना थी। इसकी उन्होंने कभी कल्पना भी न की थी। वे एक उदार विचारों के तथा शान्त प्रकृति के सज्जन सद्गृहस्थ थे, इसीसे उन्होंने अपनी पत्नी को इतनी स्वतन्त्रता भी दे रखी थी। उसका परिणाम ऐसा घातक होगा-जिससे उनकी गृहस्थी ही में आग लग जाएगी, यह उन्होंने नहीं सोचा था। इधर कुछ दिन से मायादेवी के व्यवहार, आचरण उनके लिए असह्य होते जा रहे थे-परन्तु वे यह सोच भी न सके थे कि एकमात्र अपने पति और पुत्री को इस भांति निर्मम होकर छोड़कर चली जाएगी।

 

प्रातःकाल होने पर जल्दी-जल्दी वे अपने नित्य-कर्म से निवृत्त होकर प्रभा को कुछ पथ्थ-पानी दे और तसल्ली दे मालती देवी के मकान पर पहुंचे। मालती से मुलाकात होने पर उन्होंने कहा—'सम्भवतः मेरी पत्नी मायादेवी आपके यहां आ गई है। 'कृपया जरा उसे बुला दीजिए, मैं उसे घर ले जाने के लिए आया हूं।'

 

मालतीदेवी ने जवाब दिया-श्रीमती मायादेवी आपसे मुलाकात करना नहीं चाहतीं, पत्नी की हैसियत से आपके साथ रहना नहीं चाहती, आपने उनपर अत्याचार किया है। अतः आजाद महिला-संघ के नियम के अनुसार हमने उन्हें आश्रय दिया है, और मुझे आपसे यह कहना है कि आप उनकी मर्जी के विरुद्ध न मिल सकते हैं, न उन्हें जबरदस्ती साथ ले जा सकते हैं ।'

 

'परन्तु वह मेरी है, मुझे उससे मिलने तथा अपने साथ उसे घर ले जाने का अधिकार है।'

 

'तो आप इसके लिए कानूनी चारागोई कर सकते हैं।'

 

'परन्तु इसकी आवश्यकता क्या है, यह पति-पत्नी के बीच की बात है।'

 

'सैकड़ों वर्षों के उत्पीड़न के बाद अब इस बात की आवश्य- कता आ ही पड़ी है कि पति-पत्नी के बीच भी कानून हस्तक्षेप करे, जिससे पति के अत्याचारों से पत्नी की रक्षा हो।'

 

'परन्तु कहीं अत्याचार की बात, भी हो, इस प्रकार की चेष्टा तो स्त्रियों ही का अत्याचार है।'

 

'तब तो अवश्य कानून आपका सहायक होगा, अब आप जा सकते हैं।'

 

'कृपा कर मेरी पत्नी को बुला दीजिए--झंझट मत खड़ा कीजिए।'

 

'आप स्वयं ही संघ के ऑफिस में झंझट खड़ा कर रहे हैं। कृपया आप चले जाइए।'

 

'मैं अपनी पत्नी को यहां से ले जाने के लिए आया हूं।'

 

'वह आपके साथ नहीं जाना चाहतीं।'

 

'मैं उसे समझा लूंगा, आप उसे बुलाइए।'

 

'वह आपसे बात भी करना नहीं चाहतीं।'

 

'आप गजब करती हैं मालतीदेवी, एक पति और पुत्री से उसकी पत्नी और माता को जुदा करती हैं! आपको तो मेरी सहायता करनी चाहिए।'

 

'शायद कानून आपकी सहायता करे।'

 

'आप व्यर्थ ही बारम्बार कानून का नाम क्यों घसीटती हैं? पति-पत्नी के बीच आत्मा का सम्बन्ध है, कानून की इसमें क्या आवश्यकता?'

 

'मै आपसे इस समय, इस विषय पर विवाद नहीं कर सकती।'

 

'मैं भी विवाद करना नहीं चाहता। आप मेरी पत्नी को बुला दीजिए।'

 

'वह नहीं आएंगी?'

 

'क्यों नहीं आएंगी?'

 

'यह उनकी इच्छा है।'

 

'यह तो आपका अन्याय है मालतीदेवी, आप नहीं जानतीं, उसकी पुत्री बीमार है, वह मां को पुकार रही है।'

 

'तो इसमें मैं क्या करूं?'

 

'आप दया कीजिए मालतीदेवी!'

 

'क्या जबरदस्ती?'

 

'जबरदस्ती नहीं, श्रीमतीजी, मै आपसे प्रार्थना कर रहा हूं।'

 

'आप नाहक हमारा सिर खाते हैं।'

 

'लेकिन उसने उचित नहीं किया है, उसे सोचना होगा और आपको भी उसे समझाना चाहिए। सोचिए तो सही, वह एक पति की पत्नी ही नहीं, एक बच्ची की मां भी है।'

 

'वह अपना हानि-लाभ सोच सकती है, उसे आपकी शिक्षा की आवश्यकता नहीं।'

 

'है, श्रीमतीजी, है। उसे मेरी शिक्षा की, सहायता की बहुत जरूरत है। वह अपना हानि-लाभ नहीं सोच सकती।'

 

तो आप चाहते क्या हैं?'

 

'ज़रा उसे यहां बुलाइए, मैं उससे बात करना चाहता हूं।'

 

'परन्तु मैंने कहा, वह आपसे बात करना नहीं चाहती।'

 

'नहीं, नहीं, बात करने में हानि नहीं है।'

 

'ओफ, आपने तो सिर खा डाला! मैं कहती हूं, आप चले जाइए।'

 

'मैं उसे ले जाने के लिए आया हूं।'

 

'आप उसे जबरदस्ती नहीं ले जा सकते।'

 

'मै उसे समझाना चाहता हूं।'

 

'वह आपसे मिलने को तैयार नहीं।'

 

'मै उसका पति हूं श्रीमतीजी, वह मेरी पत्नी है, मेरा उसपर पूरा अधिकार है।'

 

'तो आप अदालत में जाइए, अपने अधिकार का दावा कीजिए।'

 

'छी, छी! श्रीमतीजी, आप महिलाओं की हितैषिणी हैं, आप कभी यह पसन्द नहीं करेंगी।'

 

जी, मैं तो यह भी पसन्द नहीं करती कि पुरुष स्त्रियों को उनकी इच्छा के विरुद्ध अपनी आवश्यकताओं का गुलाम बनाएं।'

 

'कहां, हम तो उन्हें अपने घर-बार की मालकिन बनाकर, अपनी प्रतिष्ठा, सब कुछ सौंपकर निश्चिन्त रहते हैं। जो कमाते हैं, उन्हीं के हाथ पर धरते हैं, फिर प्रत्येक वस्तु और कार्य के लिए उन्हीं की सहायता के भिखारी रहते हैं।'

 

'विचित्र प्रकृति के व्यक्ति हैं आप, अब मुझीसे उलझ रहे हैं। आप यह व्याख्यान किसी पत्र में छपवा दीजिएगा। आपकी युक्तियों का मेरे लिए कोई मूल्य नहीं है।'

 

'किन्तु श्रीमतीजी, आप एक पति और उसकी पत्नी के बीच इस प्रकार का व्यवधान मत बनिए।'

 

'अच्छा तो आप मुझे धमकाना चाहते हैं?'

 

'मैं आपसे प्रार्थना करता हूं, विनय करता हूं। आप भद्र महिला हैं। एक माता को उसकी रुग्णा पुत्री से, उसके निरीह पति से पृथक् मत कीजिए। आप बड़े घर की महिलाएं, और आप के पतिगण, यह सब विच्छेद सहन करने की शक्ति रखते हैं, हम बेचारे गरीब अध्यापक नहीं। हमारी छोटी-सी गरीब दुनिया है, शान्त छोटा-सा घर है, एक छोटे-से घोंसले के समान। हम लोग न ऊधो के लेने में और न माधो के देने में। दिनभर मेहनत करते है--घर में पत्नी और बाहर पति, और रात को अपनी नींद सोते हैं। आप बड़े-बड़े आदमियों का शिकारी जीवन है, उसमें संघर्ष है, आकांक्षाएं हैं, प्रतिक्रिया है और प्रतिस्पर्धा है। इन सबके बीच आप लोंगों का व्यक्तिगत जीवन एक गौण वस्तु बन जाता है। पर हम लोग इन सब झंझटों से पाक-साफ हैं। कृपया हम जैसे निरीह प्राणियों को अपनी इस जीवन की घुड़दौड़ में न घसीटिएगा। दया कीजिए। मेरी पत्नी मेरे साथ कर दीजिए, मैं उसे समझा लूंगा, उससे निपट लूंगा।'

 

'अच्छा तो आप चाहते हैं कि मैं चपरासी को बुलाऊं? या पुलिस को फोन करूं?

 

'जी नहीं, मैं चाहता हूं कि आप मायादेवी को यहां बुला दें। मैं उन्हें अपने घर ले जाऊं।'

 

'यह नहीं हो सकता।'

 

'यह बड़ा अन्याय है, श्रीमतीजी!

 

'आप जाते हैं, या चपरासी बुलाया जाए?...'

 

'चपरासी....'ओ चपरासी!'

 

देवीजी ने उच्च स्वर से पुकारा। अपनी टेढ़ी और घिनौनी मूंछों में हंसता हुआ हरिया आ खड़ा हुआ। अर्ध उद्दण्डता से बोला---

 

'क्या करना होगा मेम साहेब?'

 

मेम साहब के कुछ कहने से प्रथम ही मास्टर साहब---'कुछ, नहीं, भाई, कुछ नहीं' कहते हुए अपना छाता उठा ऑफिस से बाहर हो गए। चलती बार वे श्रीमती को नमस्ते कहना भूले नहीं। उनके हृदय में द्वन्द्व मचा हुआ था।

 

१४ : अदल-बदल

रात के नौ बज रहे थे। क्लब के एक आलोकित कमरे में तीन व्यक्ति बड़ी सरगर्मी से बहस में लगे थे। तीनों में एक थे डाक्टर कृष्णगोपाल, दूसरे सेठजी और तीसरी थीं श्रीमती मालतीदेवी! डाक्टर और सेठजी खूब जोश में बहस कर रहे थे।

 

डाक्टर ने कहा--'जीवन की सामग्री पर नारी का अधिकार है, नर का नहीं, क्योंकि कर्मक्षेत्र में नारी की ही प्रधानता है।'

 

'परन्तु पुरुष का ज्ञान सबसे बढ़कर है।' सेठजी ने कहा।

 

'बेशक, पुरुष मस्तिष्क से ज्ञान प्राप्त कर सकता है, पर उसमें तब तक उसके प्रयोग की शक्ति उत्पन्न नहीं होगी जब तक कि नारी-शक्ति का उसमें सहयोग न हो।'

 

'यह क्यों?'

 

'इसलिए कि पुरुष संसार का ज्ञान प्राप्त कर सकता है, पर उसमें सौन्दर्य की सृष्टि स्त्री ही करती है।'

 

'किन्तु किस प्रकार?'

 

'पुरुष मन और बुद्धि से कर्मक्षेत्र में विजय पाता है, स्त्री सहज चातुरी से। सच्ची बात तो यह है कि नारी की शक्ति ने नारी को वस्तुओं से बांध रखा है। पाण्डवों को जय करने के लिए कौरवों को अठारह अक्षौहिणी सेना इकट्ठी करनी पड़ी, पर द्रौपदी ने नेहबन्धन से पाण्डवों को बांध लिया।'

 

'परन्तु पुरुष के शरीर में बल है।'

 

'तो स्त्री के हृदय में शक्ति है, उसके हृदय में जो शक्ति की धार बहती है, उसके प्रभाव से उसे किसी बाहरी बल की आव-श्यकता नहीं। यही शक्ति उसके कोमल अंग को बज्र का-सा प्रहार सहने की शक्ति देती है। युग-युग से वह पुरुष के भयानक प्रहारों को सहती आई है, सो इसी शक्ति की बदौलत। वह इन पुरुष-पशुओं की चिता पर जिन्दा जली है इसी शक्ति को लेकर। उसने अकेले ही विश्वभर के निर्मम पुरुषों को संयत संसार में बांध रखा है, इसी शक्ति की बदौलत।'

 

'फिर भी पुरुष सदा से समाज का स्वामी रहा है।'

 

'पर समाज की निर्मातृ देवी स्त्री है। पुरुष पुरुष है, स्त्री देवी देवी है। पुरुष में प्राण-शक्ति की न्यूनता है। पुरुष में सामर्थ्य का व्यय है, स्त्री में आय। इसीसे नारी शील, संस्कार की जितनी वश वर्तिनी है उतना पुरुष नहीं।'

 

'यह कैसे?'

 

'आप देखते नहीं कि नारी जिसे एक बार स्पर्श करती है उसे अपने में मिला लेती है अपनापन खोकर।'

 

'और पुरुष?'

 

'पुरुष तो केवल जानना और देखना चाहता है, अपनाना नहीं।'

 

'नारी भी तो।'

 

'नारी निष्ठा के कारण वस्तु-संसर्ग में जाकर लिप्त हो जाती है, जब कि पुरुष उससे अलग रहता है।'

 

'तो इसीसे क्या पुरुष नारी से हीन हो गया?'

 

'क्यों नहीं, जहां तक प्रतिष्ठा का सवाल है, नारी पुरुष से आगे है।'

 

'कहां?'

 

'अपने सारे जीवन में, नारी की प्रतिष्ठा प्राणों में है--पुरुष की विचारों में। इसलिए नारी सक्रिय है और पुरुष निष्क्रिय। इसीसे पुरुष भगवान का दास है, परन्तु नारी पत्नी है। पुरुष भक्ति देता है, स्त्री प्रेम। पुरुष विश्व को केन्द्र मानकर आत्म-प्रतिष्ठा की चेष्टा करता है और स्त्री आत्मा को केन्द्र मानकर विश्व-प्रतिष्ठा करती है। इसीसे समाज-रचना और परिपालन में वही प्रमुख है।'

 

'फिर भी वह पुरुष पर आश्रित है।'

 

'वह कृत्रिम है। वास्तव में नारी केन्द्रमुखी शक्ति है और पुरुष केद्र विमुखी। नारी-संसर्ग से ही पुरुष सभ्य बना है। नारी से ही धर्म-संस्था टिकी है। एक अग्नि है दूसरा घृत। अग्नि में घृत की आहुति पड़ने से ही से यज्ञ सम्पन्न होता है। स्त्री-पुरुष का जब संयोग होता है तब उसे यज्ञ धर्म कहते हैं, सच्चे यज्ञ का यही स्वरूप है।'

 

'परंतु सृष्टिकर्ता पुरुष है।'

 

'पुरुष मन की सृष्टि करता है, नारी देह की सृष्टि करती है। पुरुष जीवात्मा को जगा सकता है, पर उसके आकार की रचना नारी ही करती है।'

 

'पुरुष हिरण्य गर्भ है।'

 

'नारी विराट् प्रकृति है।'

 

'पुरुष स्वर्ग है।'

 

'नारी पृथ्वी है।'

 

'पुरुष तपशक्ति का रूप है।'

 

'नारी यज्ञ शक्ति का। विवाह धर्माचरण है, स्त्री सहधर्मिणी है। उसके बिना पुरुष धर्माचरण नहीं कर सकता। दीन-हीन पुरुष संसार में रह सकता है, पर दीन-हीन नारी नहीं रह सकती। उसकी जीवन-शक्ति, सौंदर्य के प्रकाश में रहती है।'

 

'संक्षेप में, समाज के दो समान रूप हैं, एक नर दूसरा नारी। दोनों एक वस्तु के दो रूप हैं। दोनों मिलकर एक सम्पूर्ण वस्तु बनती है।' मायादेवी ने विवाद का उपसंहार किया। इस मनो-रंजक विवाद को सुनने क्लब के अन्य सदस्य भी एकत्र हो गए थे। सबने करतल-ध्वनि करके मायादेवी को साधुवाद दिया और सब लोग विनोदपूर्ण बातों में लग गए।

 

जब सब लोग विदा होने लगे तब डाक्टर मायादेवी के साथ-साथ मालतीदेवी के स्थान तक आए। दोनों में थोड़ा गुप्त परामर्श हुआ और मायादेवी को मालती के स्थान पर छोड़कर डाक्टर अपने घर चले गए।

 

१५ : अदल-बदल

डाक्टर कृष्णगोपाल शहर के प्रसिद्ध चिकित्सक थे। उनकी प्रैक्टिस खूब चलती थी। उन्होंने नाम और दाम खूब कमाया था। मिलनसार, सज्जन और उदार भी थे। विद्वान विचारक और क्रियाशील थे। इतने सद्गुणी होने पर भी वे सद्गृहस्थ न रह पाए। उनकी पत्नी विमलादेवी, एक आदर्श हिंदू महिला थीं। वैसी कर्मठ पतिप्राणा पत्नी पाकर कोई भी पति धन्य हो सकता है। ऐसे दम्पति का जीवन अत्यंत सुखी होना चाहिए था, पर दुर्भाग्य से ऐसा न था। चरित्र की हीनता ने डाक्टर कृष्णगोपाल के सारे गुणों पर पानी फेर दिया था। शराब और व्यभिचार, ये दो दोष उनमें ऐसे जमकर बैठ गए थे कि इनके कारण उनके सभी गुण दुर्गुण बन गए और उनका जीवन अशांत और दुःखमय होता चला गया।

 

श्रीमती विमलादेवी जैसी आदर्श पत्नी थीं, वैसी ही आदर्श माता, गृहणी और रमणी भी। मुहल्लेभर में उनका मान था, अपमान था केवल पति की दृष्टि में। पति अपनी गृहस्थी तथा पतिभाव की मर्यादा का पालन नहीं करते, यही उनकी शिकायत थी, और अब यह शिकायत तीव्र से तीव्रतम होती हुई उग्र झगड़े की जड़ बन गई थी। यह खेद और लज्जा की बात कही जानी चाहिए कि डाक्टर जैसा सभ्य, सुशिक्षित पति विमलादेवी जैसी साध्वी, शान्त पत्नी पर हाथ उठाए, पशु की भांति व्यवहार करे, परन्तु प्रायः नित्य ही यह होता था। डाक्टर दिन-दिन बुरी सोहबत में फंसकर फजूलखर्च, शराबी और व्यभिचारी बनते जा रहे थे। और अब तो वे उस दर्जे को पहुंच चुके थे जब उन्हें किसी धक्के की जरूरत ही न थी, वे स्वयं तेज़ी से फिसलते जा रहे थे।

 

मायादेवी से उनका साक्षात्कार होना तथा घनिष्ठता की सीमा पार कर जाना उनके जीवन में तूफान ले आया। दोनों का दोनों के प्रति आकर्षण शुद्ध और प्रगाढ़ प्रेम का प्रतीक न था, कोरा वासनामूलक था। इसके अतिरिक्त माया और कृष्ण-गोपाल दोनों ही अपनी सनक की झोंक में बिना आगा-पीछा सोचे बढ़ते चले जा रहे थे।

 

जब-तब मायादेवी डाक्टर से लुक-छिपकर मिलतीं। पराई पत्नी थीं, तब तक डाक्टर की उनके प्रति उत्सुकता और व्यवहार कुछ और ही था। अब जब उन्होंने अपने घर और पति को त्याग दिया तथा तलाक की कानूनी कार्यवाहियां करने लगीं, तब उनके विचारों में परिवर्तन और उलझन होने लगी। उनके कायर और चरित्रहीन मन में भय और आशंका ने घर कर लिया। वे सोचने लगे---ऐसा करना क्या ठीक होगा। अब इतने दिन बाद विमला-देवी की ओर ध्यान देने का उन्हें समय मिला। यदि वे मायादेवी से विवाह करते हैं तो विमलादेवी को तो उन्हें त्यागना ही होगा। यद्यपि कभी उन्होंने अपनी पत्नी से प्रेमपूर्वक व्यवहार नहीं किया था, पर इस अदल-बदल का प्रश्न आने पर उनके मन की उलझनें बढ़ गई। कुछ देर के लिए प्रेम का खुमार ठण्डा पड़ गया।

 

परन्तु बात अब बहुत आगे बढ़ चुकी थी। एक दिन मालती-देवी के मकान में गम्भीर बातचीत हुई। बातचीत में मालती-देवी, मायादेवी, डाक्टर कृष्णगोपाल तथा वकील साहब उपस्थित थे।

 

वकील साहब कह रहे थे---

 

'हिन्दू का, हिन्दू धर्म विवाह पद्धति पर विवाहित स्त्रियों की परुष संतति के उत्तराधिकार से सम्बन्धित सिर्फ कानूनी सत्ता है। हिन्दू स्त्रियों के अधिकारों की मीमांसा उसमें गौण है---जोआज- कल की सुशिक्षिता और आधुनिकता का प्रतिनिधित्व करने वाली, साथ ही हिन्दू सभ्यता और संस्कृति की मर्यादा पालन करने वाली स्त्री के किए अपर्याप्त है। इसीलिए हिन्दू कोड कानून की सहायता लेनी पड़ी। इस कानून की मंशा मुख्यतया हिन्दू स्त्री की संतति के अधिकारों के लिए नहीं---प्रत्युत सीधे स्त्रियों के अधिकारों के लिए है। ये अधिकार सामाजिक और आर्थिक दोनों हैं।'

 

डाक्टर ने कहा---'किंतु अब तक जिस प्रकार चल रहा था--- वैसे ही चलना क्या बुरा था। एक पत्नी के रहते हुए भी दूसरी पत्नी रखी जा सकती है। हिन्दू लॉ इस मामले में बाधक नहीं।'

 

'जी हां, बाधक था। इसीसे तो यह कानून बनाना पड़ा। जब तक ऐसे कानूनी संशोधन हिन्दुओं में नहीं हुए तब तक सुशिक्षित परिवार में, जो हिन्दू संस्कृति के भी कायल हैं तथा स्त्रियों के सामाजिक समानाधिकार भी चाहते हैं, दोनों प्रकार के विवाहों का रिवाज-सा पड़ गया था। और आप देखते ही हैं कि इधर कुछ दिनों से सभ्य परिवारों में हिन्दू-पद्धति पर विवाह होने के साथ ही, सिविल मैरिज विधान से भी विवाह किए जाते थे।'

 

'तो कानूनी, धार्मिक तथा सामाजिक दृष्टि से दोनों प्रकार से शादी करने में तो कोई नुक्स न था।'

 

'बहुत था। स्त्रियों के अधिकारों की ठीक-ठीक मर्यादा का पालन नहीं होता था।'

 

'किंतु हिन्दू विवाह पद्धति में अब क्या अन्तर पड़ गया?'

 

'हिन्दू विवाह की तीन मर्यादाएं हैं और चार विधि। इनके बिना हिन्दू विवाह सम्पूर्ण नहीं माना जाता। इनके सिवा लोक प्रचलित रसूम भी बहुत हैं। वे तीन मर्यादाएं हैं---

 

१. पति-पत्नी का व्यक्तिगत शारीरिक और मानसिक जीवन सम्बन्ध और उनका सामाजिक दायित्व।

 

२. पति-पत्नी का एक-दूसरे के परिवार और सम्बन्धियों से सम्बन्ध और उनकी मर्यादा।

 

३. पति और पत्नी का आध्यात्मिक अविच्छिन्न जन्म-जन्मान्तरों का सम्बन्ध।

 

'इन्हीं मर्यादाओं पर हिन्दू-विवाह विधि निर्भर थी। आप अच्छी तरह समझ सकते हैं, कि ये सारे ही आधार आध्यात्मिक हैं, और उनका आजकल के भौतिक जीवन से मेल नहीं खाता था। इसीसे यह आवश्यकता पड़ी। सहस्रों वर्षों के बाद अब पति-पत्नी के संबंधों का नया अध्याय शुरू हुआ है, जो दोनों को समान अधिकार देता है। अब तक तो स्त्री पति की गुलाम थी, सम्पत्ति थी, दौलत थी, जिंदा दौलत!'

 

'अंधेर करते हैं आप, जिंदा दौलत कैसे? हम लोग तो स्त्रियों को वह मालिकाना अधिकार देते हैं कि घर-बार सबकी मालि- किन उसीको बना देते हैं।'

 

वकील साहब हंसकर बोले---'किंतु उसी प्रकार, जैसे बैंक का क्लर्क बैंक के रुपये-पैसे और हिसाब-किताब का मालिक रहता है। जनाब, आप इस बात पर चौंकते हैं कि मैंने कह दिया कि स्त्री को आप दौलत समझते हैं। आप क्या उन्हें 'स्त्री रत्न' नहीं कहते? क्या आपके धर्मराज युधिष्ठिर ने अपनी पत्नी द्रौपदी को जुए के दांव पर नहीं लगा दिया था। सत्यवादी हरिश्चन्द्र ने अपनी स्त्री को कर्जा चुकाने के लिए भेड़-बकरी की भांति बीच बाजार में नहीं बेच दिया था?

 

वकील साहब खूब जोश में जा रहे थे, परंतु मालतीदेवी ने उन्हें बीच ही में रोककर कहा---'कृपया मतलब की बात पर आइए। अभी बहस रहने दीजिए।'

 

वकील साहब ने कहा---

 

'अच्छी बात है। मैं तो पहले ही कह चुका हूं कि कानून आपके हक में है और मैं आपकी सेवा में उपस्थित हूं। केवल फीस का सवाल है, सो आपने हल ही कर दिया। यह भी सम्भव है कि फीस का सवाल कभी उठे ही नहीं।' वकील साहब ने मायादेवी की ओर घूरकर देखा, फिर हंस दिया।

 

मायादेवी ने कहा--'फीस की बात बार-बार क्यों उठाते हैं? आप सिर्फ कानून की बात कीजिए।'

 

'कह चुका कि कानून आपके हक में है, अब आप यह विचार लीजिए कि आप क्या अपने पति से विच्छेद करने पर आमादा हैं?'

 

'मैं बिलकुल आमादा हूं।'

 

'अच्छी तरह सोच लीजिए श्रीमतीजी, आगे-पीछे की सभी बाधाओं पर विचार कर लीजिए।'

 

'और बाधा क्या है?

 

'आपके पतिदेव उज्र कर सकते हैं।'

 

'मैं उनका कोई उज्र न सुनूंगी।'

 

'आपकी सन्तान का भी प्रश्न है।'

 

'मुझे सन्तान से कोई वास्ता नहीं।'

 

अब मालतीदेवी ने बीच में उन्हें रोककर कहा--'ठहरिए डाक्टर साहब, मैं आपसे एक प्रश्न करना चाहती हूं--क्या आप श्रीमती मायादेवी से विवाह करने को तैयार हैं?'

 

डाक्टर उल्झन में पड़ गए। उन्होंने ज़रा धीमे स्वर में वकील साहब से पूछा--'आपका क्या ख्याल है कि इसमें मुझे कुछ बाधा होगी?'

 

'बहुत बड़ी बाधा हो सकती है। पहली बात तो यह है कि आपको अपनी पूर्व पत्नी का त्याग करना होगा।'

 

'यह क्या अत्यन्त आवश्यक है?'

 

'अनिवार्य है।'

 

'परन्तु यदि वह इन्कार करे?'

 

'तो आपके लिए दो मार्ग हैं। आप या तो उन्हें दोषी ठहराएं या उन्हें उनके भरण-पोषण के लिए मुंहमांगा धन दें।'

 

'दोषी कैसे?'

 

'दुराचार की।'

 

डाक्टर के मन में कहीं मर्मान्तक चोट लगी। भला विमला जैसी सती-साध्वी पर दुराचार का दोष कैसे लगाया जा सकता है। उन्होंने कहा--'मैं उसे उचित भरण-पोषण देने को तैयार हू।'

 

यह कहकर डाक्टर उदास हो गए और उनका मन बेचैन हो हो गया।

 

मायादेवी ने इस बात को भांप लिया। उसके आत्मसम्मान और अहंभाव पर कहीं चोट लगी। उसने कहा--'वकील साहब, मेरे इस मामले से डाक्टर साहब के मामले का क्या सम्बन्ध है?'

 

'कुछ भी नहीं।'

 

मालतीदेवी ने कहा--'कुछ भी नहीं कैसे, इसीलिए तो तुम अपना घर त्याग रही हो--इसे क्यों छिपाती हो?'

 

'मैं किसी पर बोझ बनना पसन्द नहीं करती, मैं केवल स्वतन्त्र जीवन चाहती हूं।' मायादेवी ने उदास भाव से कहा।

 

वकील साहब ने उत्साहित होकर कहा--'ठीक है, ठीक है, फिर मायादेवी जैसी पत्नी जिसके भाग्य में हो वह तो स्वयं ही धन्य हो जाएगा।'

 

'मेरा अभिप्राय केवल यही है कि पुरुषों ने जो सैकड़ों वर्ष से स्त्रियों को साहस, ज्ञान और संगठन से रहित कर रखा है, उन्हें अपनी वासना की दासी और बच्चे पैदा करने की मशीन बना रखा है, यह न होना चाहिए। उनका एक पृथक् अस्तित्व है। मैं अपने उदाहरण से यह दिखाना चाहती हूं। मैं चाहती हूं कि पुरुष स्त्रियों की शक्ति का भरोसा करें। और वे प्यार के नाम पर उन पर जुल्म न कर सकें।'

 

मालती ने कहा--'मायादेवी, यह सब तो ठीक है। पर देखो, आदर्श के नाम पर व्यवहार को मत भूलो। इस काम को व्यावहारिक दृष्टि से देखो। मैं साफ-साफ डाक्टर साहब से पूछती हूं कि मायादेवी का पूर्व पति से विच्छेद होने पर आप उससे तुरन्त विवाह करेंगे?'

 

'मुझे उज्र नहीं है, पर विमलादेवी का मसला कैसे हल होगा?'

 

'उसे आपको त्यागना होगा।'

 

'और लड़की को?'

 

'उसका निर्णय अदालत के अधीन है।'

 

'पर यदि विमलादेवी ने विरोध किया?'

 

'तो आपको उससे लड़ना होगा, आपको हर हालत में उसे त्यागना होगा। आप पशोपेश मत कीजिए। जो कहना हो, साफ-साफ कहिए।'

 

'तो मालतीदेवी, विमला से आप ही मिलकर मामला तय कर लीजिए। आप जो निर्णय करें मुझे स्वीकार होगा। सम्भव है कोई आपसी समझौता ही हो जाए।'

 

'अच्छी बात है। मैं उससे मिलूंगी। परन्तु यह तय है कि दोनों विच्छेद के मामले एक साथ ही कोर्ट में जाएंगे।'

 

'ऐसा ही सही।' डाक्टर ने गम्भीरता से जवाब दिया।

 

वकील साहब ने कहा--'यह और भी अच्छा है। जैसा निर्णय हो, वह आप तय कर लीजिए।'

 

इसके बाद यह मजलिस बर्खास्त हुई।

 

१९ : अदल-बदल

इस बातचीत के बाद डाक्टर कृष्णगोपाल ने घर आना-जाना और विमलादेवी से मिलना बन्द कर दिया। अवसर पाकर मालतीदेवी ने विमलादेवी से उनके घर जाकर मुलाकात की। दोनों में इस प्रकार बातचीत प्रारम्भ हुई।

 

मालतीदेवी ने प्रारम्भिक शिष्टाचार के बाद कहा---'मैं आपके पास अप्रिय संदेश लाई हूं विमलादेवी, नहीं जानती---कैसे कहूं।'

 

'कुछ-कुछ तो मैं समझ ही गई हूं। परन्तु आपको जो कहना है, वह खुलासा कह डालिए।'

 

'परन्तु आपको दुःख होगा।'

 

'स्त्री के सुख-दुःख से तो आप परिचित हैं ही मालतीदेवी। आप भी तो स्त्री हैं। स्त्री का सुख-दुःख स्त्री ही ठीक-ठीक जान सकती है, फिर आपको संकोच क्यों?'

 

'सोचती हूं कैसे कहूं?

 

'न कहने से दुःख तो टलेगा नहीं।'

 

'यह तो ठीक है।'

 

'फिर आपको जो कहना है, कह दीजिए।'

 

'मैं आपके पति के पास से समझौता करने आई हूं।'

 

'आप क्यों आई हैं?'

 

'आपके पति के अनुरोध से।'

 

'परन्तु अपने पति के साथ कोई समझौता करने के लिए पत्नी को किसी तीसरे व्यक्ति की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। पति-पत्नी तो अपने जीवन के सुख-दुःख के साथी-साझीदार हैं। किसी बात पर यदि उनमें विवाद उठ खड़ा हुआ तो वे आपस में मिलकर ही समझौता कर सकते हैं, किसी मध्यस्थ के द्वारा नहीं।'

 

'परन्तु परिस्थिति ऐसी आ पड़ी है, कि मुझे मध्यस्थ बनना ही पड़ा।'

 

'किंतु मैंने तो आपको मध्यस्थ बनाया नहीं।'

 

'आपके पति ने बनाया है।'

 

'किंतु मैंने नहीं, जब तक हम दोनों समान भाव से आपको मध्यस्थ न बनाएं आप कैसे मध्यस्थ बन सकती हैं!'

 

'तो क्या आप मुझसे बातचीत करना ही नापसंद करती हैं।'

 

'जी नहीं, आपको जो कहना है कह दीजिए, मैं आपको अपने पति का संदेशवाहक समझकर आपकी बात सुनूंगी। परन्तु समझौते की यदि नौबत पहुंची तो वह मेरे और उनके बीच प्रत्यक्ष ही होगा। किसी मध्यस्थ के द्वारा नहीं।'

 

'तब संदेश ही सुन लीजिए। आपके पति ने आपको त्यागने का संकल्प कर लिया है, वे आपको तलाक दे रहे हैं।'

 

'मैंने आपका संदेश सुन लिया।'

 

'आपको इस सन्बन्ध में कुछ कहना है?'

 

'जो कहना है उन्हीं से कहूंगी, वह भी तब, जब वे सुनना चाहेंगे, नहीं तो नहीं।'

 

'किन्तु क्या आप अपने पति से लड़ेंगी?'

 

'जी नहीं।'

 

'आपके पति, यदि आप उनसे न लड़ें और समझौता कर लें तो वे आपको यह मकान और समुचित मासिक वृत्ति देने को तैयार हैं।'

 

'मैं तो पहले ही कह चुकी हूं कि इस सम्बन्ध में मैं आपसे कोई बात करना पसन्द नहीं करती।'

 

'किन्तु बहन, मैं तो तुम्हारी भलाई के लिए यहां आई हूं।'

 

'इसके लिए मैं आपकी आभारी हूं।'

 

'आप भली भांति जानती हैं, कि यह स्त्रियों की स्वाधीनता का युग है। आप भी इस बात से इन्कार न कर सकेंगी कि जिन पति-पत्नियों में परस्पर एकता के भाव नहीं, उनका विच्छेद हो जाना ही सुखकर है।'

 

'मेरे विचार कुछ दूसरे ही हैं और वे मेरी शिक्षा और संस्कृति पर आधारित हैं। मैं विश्वास करती हूं कि पति-पत्नी का सम्बन्ध उसी प्रकार अटूट है जैसे माता और पुत्र का, पिता और पुत्र का, तथा अन्य सम्बन्धियों का। वह जो अपने पितृ-कुल को त्यागकर पति-कुल में आई है तो इधर-उधर भटकने के लिए नहीं, न ही अपनी जीवन मर्यादा समाप्त करने के लिए। रही एकता न रहने की बात, सो पिता-पुत्र, माता-पुत्र में भी बहुधा मतभेद होता है, लड़ाइयां होती हैं, मुकदमेबाजी होती हैं, बोलचाल भी बन्द रहती है, फिर भी यह नहीं होता कि वे अब माता-पिता या पुत्र-पुत्री नहीं रहे। कुछ और हो गए।'

 

'परन्तु पति-पत्नी की बात जुदा है, विमलादेवी।'

 

'निस्सन्देह, यह सम्बन्ध पिता-माता-पुत्र के सम्बन्ध से कहीं अधिक घनिष्ठ और गम्भीर है। पुत्र, माता-पिता के अंग से उत्पन्न होकर दिन-दिन दूर होता जाता है। पहले वह माता के गर्भ में रहता है, फिर उसकी गोद में, इसके बाद घर के आंगन में, पीछे आंगन के बाहर और तब सारे विश्व में वह घूमता है। परन्तु पत्नी दूर से पति के पास आती है, वह दिन-दिन निकट होती जाती है। उनके दो शरीर जब अति निकट होते हैं तब उससे तीसरा शरीर सन्तान के रूप में प्रकट होता है, जो दोनों के अखंड संयोग का मूर्ति-चिह्न है। अब आप समझ सकती हैं कि पति-पत्नी विच्छेद का प्रश्न उठ ही नहीं सकता।'

 

'तो आप क्या यह कहती हैं कि यदि पति-पत्नी दोनों के प्रकृति-स्वभाव न मिलें, और दोनों के जीवन भार स्वरूप हो जाएं तो भी वे परस्पर उसी हालत में रहें। क्या जीवन को सुखी बनाना उन्हें उचित नहीं है।'

 

'यदि चाहे भी जिस उपाय से केवल जीवन को सुखी बनाने को ही जीवन का ध्येय मन लिया जाए तो फिर चोर, डाकू, ठग, अनीतिमूलक रीति से जो धनार्जन करते हैं, शराब पीकर और वेश्यागमन करके सुखी होना समझते हैं, उन्हे ही ठीक मान लेना चाहिए। पर मेरा विचार तो यह है कि सुख-दुःख जीवन के गौण विषय हैं। जीवन का मुख्य आधार कर्तव्य-पालन है। मनुष्य को अपने जीवन में धैर्यपूर्वक कर्तव्य-पालन करना चाहिए। कर्तव्य ही मनुष्य-जीवन की चरम मर्यादा है, इसी की राह पर चलकर बड़े- बड़े महापुरुषों ने सुख-दुःख की राह समाप्त की है, मेरा भी आदर्श वही है।'

 

'परन्तु दुर्भाग्य से आपके पति के ऐसे विचार नहीं हैं।'

 

'तो मैं अपनी शक्तिभर उनसे लड़ती रहूंगी। अपने मार्ग से हटूंगी नहीं।'

 

'यदि वे आपको त्याग दें?'

 

'पर मैं तो उन्हें त्यागूंगी नहीं--त्याग सकती भी नहीं।'

 

'क्या आप अपने पति से संतुष्ट हैं? क्या आप उन्हें संतुष्ट रख सकी हैं?'

 

'इसका हिसाब-किताब तो मैंने कभी रखा नहीं। परन्तु मैंने ईमानदारी से सदा अपना कर्तव्य-पालन किया है।'

 

'और उन्होंने?'

 

'उनकी वे जानें।'

 

'आपके भी कुछ अधिकार हैं विमलादेवी।'

 

'अधिकारों पर तो मैंने कभी विचार ही नहीं किया।'

 

'पर अब तो करना होगा।'

 

'नहीं करूंगी।'

 

'पर आपके पति अपने अधिकारों की रक्षा करेंगे।'

 

'मैं तो अपना कर्तव्य-पालन करती रहूंगी।'

 

'कब तक?'

 

'जब तक जीवित हूं।'

 

'यदि वे आपको त्याग दें?'

 

'तो भी मैं उन्हें नहीं त्यागूंगी।'

 

'परन्तु कानून तलाक को स्वीकार कर दे तो?'

 

'तो भी नहीं।'

 

'क्या आप कानून के विरुद्ध लड़ेंगी?'

 

'लड़ने की मुझे आवश्यकता ही नहीं है।'

 

'यदि वे अपना दूसरा विवाह करें?'

 

'वे जो चाहे करें।'

 

'आप और कुछ कहना चाहती हैं?'

 

'नहीं।'

 

'उन्होंने कुछ रुपया मेरे द्वारा आपके पास भेजा है, आप लेंगी?'

 

'नहीं लूंगी।'

 

'क्यों?'

 

'उनका धन मेरा ही है, उसे आपके हाथ से क्यों लूंगी? हां, देना हो तो आपको प्रसन्न मन से दूंगी।'

 

'क्षमा कीजिए, आप अव्यावहारिक हैं। मैं आपको सहायता देने के विचार से आई थी।"

 

'मैं आपको धन्यवाद देती हूं।'

 

'खैर, जब कभी आपको मेरी सहायता की आवश्यकता हो-- आप मुझे याद कर सकती हैं।'

 

'आपकी कृपा के लिए मैं अत्यन्त कृतज्ञ हूं।'

 

मालतीदेवी खिन्न मन उठकर चल दीं। जलपान का अनुरोध उन्होंने नहीं माना।

 

१७ : अदल-बदल

मायादेवी और डाक्टर कृष्णगोपाल दोनों ही के तलाक के मुकदमे अदालत में दाखिल कर दिए गए। मायादेवी ने पति पर अत्याचार, अयोग्यता तथा अनीतिमूलक व्यवहार के आरोप लगाए। मास्टर साहब ने क्षोभ और दुःख के कारण जवाबदेही नहीं की। मायादेवी को तलाक मिल गया। परन्तु इसपर जितना भी मायादेवी को साधुवाद, धन्यवाद और बधाइयां दी जाने लगी उतना ही उनका शोक और व्यग्रता बढ़ती गई। रह-रहकर पति की निरीह, नैराश्य-मूर्ति उनके नेत्रों में घूम जाती, पुत्री की पीड़ा से भी वह बेचैन हो जातीं। वह जितना अपने मन को प्रबोध देतीं, भावी सुख का चित्र खींचतीं, उतना ही उनका मन निराशा से भर जाता।

 

डाक्टर कृष्णगोपाल की तसल्ली और आदर-सत्कार उसे अब उतना उल्लासवर्द्धक नहीं दीख रहा था। तथा रह-रहकर उसे अपना घर, अपना पति, और अपनी पुत्री याद आ रही थी। वह खोई-सी रहने लगी जैसे उसके सब आश्रय नष्ट हो गए हों। उनका मन चिन्ता, घबराहट और उदासी से भर गया।

 

डाक्टर कृष्णगोपाल के मुकदमे में विमलादेवी ने अदालत में उपस्थित होकर जज से मनोरंजक वार्तालाप किया।

 

जज ने पूछा---'श्रीमती विमलादेवी, आपके पति डाक्टर कृष्णगोपाल ने आपके विरुद्ध तलाक का मुकदमा दायर किया है। आपको कुछ उज्र हो तो पेश कीजिए।'

 

'आप किसलिए मेरा उज्र पूछते हैं?'

 

'इसलिए कि आपको उज्र करने का कानूनन अधिकार है।'

 

'मैं एक हिन्दू गृहस्थ की पत्नी हूं। मैं अधिकार नहीं चाहती, मैं कर्तव्य-पालन करना चाहती हूं। मेरे पति जब जहां जिस हालत में रहेंगे--मैं अपना कर्तव्य उनके प्रति पालन करती रहूंगी।'

 

'मेरा अभिप्राय यह है कि तलाक स्वीकार होने पर...'

 

'हिन्दू स्त्री प्रदत्ता है। उसे तलाक स्वीकार करने का अधिकार नहीं है।'

 

'स्वीकार न करने पर भी कानूनन उसका सम्बन्ध पति से टूट जाएगा।'

 

'केवल शरीर-सम्बन्ध। परन्तु हिन्दू स्त्री का पति से केवल शरीर-सम्बन्ध ही नहीं है। लाखों करोड़ों-विधवाएं आज भी पति के मर जाने पर जीवनभर वैधव्य धारण कर उसीके नाम पर बैठी रहती हैं।'

 

'परन्तु यह तो अन्याय है विमलादेवी।'

 

'आप न्याय को कानून के तराजू पर तौलते हैं, इसलिए आपको यह अन्याय प्रतीत होता है। यदि इसे धर्म की तराजू पर तौला जाए तो यह तप है। और तप एक पुण्य है, और पुण्य कदापि अन्याय नहीं।'

 

'परन्तु यह पुण्य या तप जो कुछ भी आप समझें, पुरुष तो करते नहीं।'

 

'वे करें, उन्हें रोका किसने है?'

 

'परन्तु वे करते तो नहीं।'

 

'हां, नहीं करते। इसका कारण यह है कि उनमें तप करने की, पुण्य करने की शक्ति नष्ट हो गई है। वे बेचारे तप-पुण्य कर ही नहीं सकते। उन्होंने शरीरबल उपार्जन किया--हमने आध्यात्मिक। उन्होंने व्यावहारिक दुनिया को अपनाया, हमने अपनाया आदर्श और निष्ठा की दुनिया को।'

 

'परन्तु एक नवयुवती विधवा होने पर पति के नाम पर जीवन भर विधवा होकर बैठी रहे, इसे आप पुण्य कैसे कहती हैं?'

 

'इसे आप नहीं समझ सकते। इस प्रश्न का उत्तर कानून नहीं दे सकता।'

 

'तो आप उत्तर दीजिए।'

 

'उत्तर दे सकती हूं, पर आप चूंकि पुरुष हैं, समझ नहीं सकेंगे।'

 

'फिर भी आप कहिए।'

 

'पति-पत्नी सम्बन्ध में स्त्रियों और पुरुषों के आदर्शों में अन्तर है। पुरुष के लिए दाम्पत्य का अर्थ है उपभोग।'

 

'और स्त्री के लिए?

 

'संयम! और यह नैसर्गिक है, कृत्रिम नहीं। आप कानून, पुरुषों के लिए उनकी सम्पत्ति के लिए बना सकते हैं, और उन्हें लाभ पहुंचा सकते हैं। परन्तु स्त्रियों के लिए नहीं। कानून का अर्थ है--शान्तिपूर्वक उपभोग करो। लेकिन स्त्री पर कानून का नहीं--धर्म का शासन है। धर्म कहता है--संयम से पहले अपने को वश में करो--फिर संसार को।'

 

'क्या स्त्रियां वैधव्य से और खराब पतियों से दुःख नहीं पातीं?'

 

'पाती हैं, पुरुष भी खराब स्त्रियों से दुःख पाते हैं, सुख, दुःख मनुष्य की दुबुद्धि का भोग है। उनसे कैसे बचा जा सकता है?'

 

'परन्तु कानून तो जीवन में एक व्यवस्था कायम करता है।'

 

'सो करे।'

 

'तो कानून की दृष्टि में तलाक के बाद आप डा० कृष्णगोपाल की पत्नी न रहेंगी।'

 

'समझ गई। परन्तु मैं भी कह चुकी हूं कि मैं उनकी पत्नी ही रहूंगी। हां, एक बात है। अब तक मैंने पति के द्वारा दिया गया दुःख भोगा और अब कानून के द्वारा दुःख भोगूंगी।'

 

'आप दूसरा विवाह करके सुखी हो सकती हैं।'

 

'परन्तु मुझे पुरुषों के इस सुख पर ईर्ष्या नहीं है, दया है।'

 

'खैर, तो आपका और आपके पति का पति-पत्नी सम्बन्ध समाप्त हुआ। परन्तु आप जिस मकान में रहती हैं उसी में उसी भांति रह सकती हैं। वह मकान आपके भूतपूर्व पति ने आपको दे दिया है तथा दस हजार रुपया आपके जीवन-निर्वाह के लिए दे दिया है। आपकी लड़की भी शादी होने तक आप ही के पास रहेगी। परन्तु उसकी शादी और शिक्षा का भार आप ही पर रहेगा। हां, उसका एक बीमा डाक्टर साहब ने कर दिया है। जब उसका विवाह होगा, तब वह दस हजार रुपया शादी के खर्च के लिए आपको और मिल जाएगा, क्या आपको कुछ कहना है।'

 

'जी नहीं।'

 

'तो आप जा सकती हैं।'

 

विमलादेवी चुपचाप चली आई और डाक्टर कृष्णगोपाल छाती में तीर लगने से जैसे हिरन छटपटाता है, उस भांति की वेदना से तड़पते हुए, अपने नये आवास की ओर लौटे। उनकी आंखें झुकी हुई थीं, और लज्जा, ग्लानि और क्षोभ का जो प्रभाव इस समय वे अनुभव कर रहे थे, उसकी उन्होंने कभी कल्पना भी न की थी।

 

१८ : अदल-बदल

तलाक हो जाने के बाद मायादेवी और डाक्टर कृष्णगोपाल दोनों परस्पर बहुत कम मिलते, मिलने पर भी गुम-सुम रहते, दोनों ही परस्पर मिलने पर एक-दूसरे को प्रसन्न करने की चेष्टा करते, परन्तु यह बात दोनों ही जान जाते कि यह चेष्टा स्वाभाविक नहीं है, कृत्रिम है। मायादेवी अभी मालतीदेवी के साथ ही रह रही थीं, और डाक्टर कृष्णगोपाल अपने दूसरे मकान में आ गए थे। केवल उनका एक विश्वासी नौकर उनके साथ रहता था। एक गहरी उदासी की छाया हर समय उनके मन पर बनी रहती थी। और वे रह-रहकर ऐसा समझने लगते थे मानो उन्होंने कोई बड़ा जघन्य पाप-कर्म कर डाला हो। वास्तव में बात यह थी कि दोनों भयभीत से रहते थे, दोनों ही जैसे कुछ ऐसी घटना की प्रतीक्षा-सी कर रहे थे मानो कोई दुर्घटना घटने वाली हो।

 

'विवाह' एक ऐसा शब्द है--जिसके नाम से ही युवक-युवतियों के हृदय में नवजीवन और आनन्द की लहर उठने लगती है--परन्तु इतने संघर्ष और कठिन प्रयास के बाद जब दोनों की मिलन-बाधाएं खत्म हो गईं तो अब जैसे वह मिलन ही उनके लिए भय की वस्तु बन गई। परन्तु जैसे भय का सामना करने को मनुष्य साहस करता है उसी भांति दोनों ने साहस किया--और केवल चुने हुए मित्रों की उपस्थिति में दोनों का विवाह सम्पन्न हो गया। विवाह हो जाने पर दोनों ही ने ऐसा अनुभव किया मानो उनके शरीर में से रक्त की एक-एक बूंद निकाल ली गई हो।

 

मित्रों का आनन्दोत्सव और हा-हू जब समाप्त हो गया तो अन्त में एकान्त रात्रि में दोनों का एकान्त मिलन हुआ। इसे आप सुहागरात का मिलन कह सकते हैं, पर यह वह सुहागरात न थी जो प्रकृति की प्रेरणा का प्रतीक है, जहां जीवन में पहली बार बसंत विकसित होता है--यहां तो वर-वधू दोनों ही एक-एक संतति के जन्मदाता थे। पति एक दूसरी पत्नी का अत्याचारी पति था और स्त्री एक सीधे, सच्चे, निर्दोष पति की पत्नी थी।

 

स्वभावत: ये दोनों ही--निर्बुद्धि और पाशाविक प्रवृत्ति के हीन प्राणी न थे। विचारवान और सभ्य थे। यद्यपि डाक्टर को मद्यपान की आदत थी--और दुराचारी तथा वेश्यागामी भी था, परन्तु आज इस सुहागरात के एकान्त मिलन में उसकी सारी विलास-वासना जैसे सो गई थी। उसे ऐसा अनुभव हो रहा था मानो उसकी रगों में रक्त नहीं--बर्फ का पानी भरा हुआ है। यह जितना ही प्रसन्न और उत्साहित रहने की चेष्टा करता उतनी ही उसकी चेष्टायें हास्यास्पद और वीभत्स बन जाती थीं। अपनी साध्वी सुशीला पत्नी विमला देवीके प्रति अपने किए सब अन्याय मूर्तिमान होकर, जितना वह उन्हें भुलाना चाहता था--उतना ही उसके सम्मुख उसके मानस नेत्रों में आ घुसते थे। उसकी दशा मद्यप, उन्मत्त तथा शोकार्त मनुष्य के समान हो रही थी। उसे स्पष्ट सुनाई दे रहा था कि उसकी पुत्री चीत्कार करके बाबूजी-बाबूजी पुकार रही है। इस समय वह मायादेवी की ओर आंख उठाकर भी देखने का साहस न कर सकता था।

 

मायादेवी की दशा भी कुछ ऐसी ही थी। उसका मन हाहाकार कर रहा था। उसकी इच्छा हो रही थी कि गले में फांसी लगाकर मर जाए। विवाह काल में कुछ लोगों ने अशिष्ट व्यंग्य किया था--वह अब सैकड़ों बिच्छुओं की भांति डंक मारकर उसे तड़फा रहा था।

 

वह छिपी नजर से बीच-बीच में अपने नये पति की ओर देख लेती थी। उसे याद आ रहा था--यही वह आदमी है जो क्लब में मेरे सामने ही शराब पीता था। इस समय मायादेवी को इस नये पति के चेहरे में ऐसे अप्रिय और घृणा-उत्पादक भाव दीख रहे थे कि उसका मन उसके सामने से भाग जाने का हो रहा था। वह सोच रही थी--अपने त्यागे हुए पति की बात। आज तक कभी उन्होंने एक कड़ा शब्द उससे कहा नहीं, कभी उसने उनका क्रोध से भरा चेहरा देखा नहीं। कभी उसके पति ने शराब छुई नहीं। वह सदा अपनी सारी आमदनी उसीको देते। उसकी एक प्रकार से पूजा करते। वह सोचने लगी अपनी पहली सुहागरात की बात--फिर उसने आप-ही-आप भुनभुना कर कहा--'क्या यह आज की रात भी सुहागरात कही जा सकती है? क्या यह शराबी, दुराचारी और अपनी साध्वी पत्नी के साथ निर्मम अत्याचार करने वाला पुरुष उसके साथ वैसा ही कोमल भावुक बनकर रह सकेगा--जैसा उसका प्रथम पति था। परन्तु यह प्रथम और दूसरा क्या? पत्नी का पति एक ही है। क्या उसके जीवित रहते मैं दूसरे पुरुष को अपना अंग दिखलाऊंगी? स्वाधीन होने की आग में मैं अवश्य जल रही हूं--पर इसके लिए मैं अपने शरीर को अपवित्र करूं? नहीं, वह मैं न कर सकूंगी। नहीं कर सकूंगी। नहीं कर सकूंगी।' एकाएक उसे ज्ञात हुआ कि उसकी पुत्री ने उसके कण्ठ में हाथ डालकर पुकारा--मां, और जैसे उसने उसे उठाकर खिड़की की राह बोच सड़क पर फेंक दिया। वह एक चीख मारकर बेहोश हो गई।

 

यत्न करने पर उसे होश हुआ तो उसने अपने वस्त्र ठीक करके मुस्कराकर डाक्टर से कहा--'बैठ जाइए, अब मैं ठीक हूं।'

 

'तुमने तो मुझे डरा दिया।

 

'समय ही ऐसा आ गया है, कि हम लोग अब एक-दूसरे से डरते हैं।'

 

परन्तु डाक्टर ने बात आगे नहीं बढ़ाई। वे पलंग पर लेट गए और आंखें मूंदकर अपना भविष्य सोचने लगे। कुछ देर बाद माया भी करवट फेरकर पड़ गई। दोनों ही थके हुए थे--शीघ्र ही उन्हें निद्रा देवी ने अपनी गोद में ले लिया।

 

प्रभात होने पर दोनों ने अपराधी मन लेकर अपनी-अपनी दिनचर्या प्रारम्भ की। एक-दूसरे को देखते और मन की भाषा प्रकट करने में असमर्थ रहते।

 

धीरे-धीरे दिन व्यतीत होते गए।

 

१९ : अदल-बदल

दुर्भाग्य एक अपरिसीम और अर्पाप्त वस्तु है। वह मनुष्य के जीवन का बहीखाता है। उस बाहीखाते में मनुष्य के जीवन के पुण्य ही नहीं, चरित्र-दौर्बल्य और कुत्सा का एवं मानसिक कलुष का लेखा-जोखा आना-पाई तक हिसाब करके ठीक-ठीक लिखा जाता रहता है। लोग कहते तो यह हैं कि यह दुर्भाग्य मनुष्य पर लादा गया बोझ है। परन्तु सच पूछा जाए तो यह मनुष्य की पाप की कमाई की पूंजी ही है। पाप के विषय में भी एक बात कहूं, लोग पाप की गठरी को बहुत भारी बताते हैं। मेरी राय इससे बिल्कुल ही दूसरी है। वह न तो उतनी भारी ही है जिसे लादने को कुली या छकड़ा गाड़ी की आवश्यकता है, न वह---जैसा कि लोग कहते हैं---ऐसी ही है कि जो केवल मरने के बाद परलोक में ही खोली जाएगी, मरने तक उसे मनुष्य लादे फिरेगा। वह तो शरीर में हाथ-पैरों के बोझ के समान है जिसे आदमी बड़े चाव से लादे फिरता है, और कभी उकताता नहीं है। वह चाहे जब उसकी एक चुटकी का स्वाद ले लेता है और उसके तीखे और कड़वे स्वाद पर उसी तरह लटू है, जैसे एक अन्य नशे-पानी की चीजों के कुस्वाद पर। नशे-पानी की चीजों से पाप में केवल इतना ही अन्तर है कि नशे-पानी की चीजें महंगे मोल बिकती हैं, परन्तु पाप मनुष्य के जीवन के चारों ओर बिखरा पड़ा है और उसे जितना वह चाहे बटोरकर अपने कन्धों पर लाद लेने से रोकने के लिए कोई मनाही नहीं है। उस पर कोई चौकीदार-सिपाही पहरा नहीं दे रहा है। वह हवा-पानी से भी अधिक सस्ता और सुलभ है। इसीसे मानव स्वच्छ भाव से युग-युग के उसके सेवन का अभ्यासी रहा है। यह भी सत्य है कि पत्नी का पाप पति का दुर्भाग्य हो जाता है, और पति का पाप पत्नी का दुर्भाग्य होता है। इन्द्रियों की भूख की ज्वाला इधर-उधर देखने ही नहीं देती। जो सुविधा से मिला, उसे खाया। पाप का व्यवसाय ही हिंस्र है, वहां कोमल भावुक जीवन कहां? स्त्रियों का सौभाग्य-दुर्भाग्य पुरुषों के सौभाग्य-दुर्भाग्य के समान क्षण में बदलने वाला नहीं।

 

तीन वर्ष बीत गए।

 

आंधी शान्त हो चुकी थी। मुर्झाए हुए पत्ते बिखर गए थे। डाक्टर का प्रेमभाव अब गायब था। अब वे उसे पूर्व की भांति क्लब में ले जाने में आना-कानी करते थे। उनका यह विवाह प्रेमजन्य नहीं, वासनामूलक था। माया का सारा ही मान बिखर चुका था। वह जो सुखी संसार देखना चाहती थी, वह उससे दिन-दिन दूर होता जा रहा था। वहां अब वेदना और सूनापन था।

 

उसे एक दिन अचानक ऐसा प्रतीत हुआ कि उसने जो लिया है उसका भार कुछ बढ़ रहा है। थोड़े दिनों में संदेह मिट गया। उसने जो दिया था, वह सब बट्टेखाते गया, और उसने जो लिया उसके भार से वह एक दिन अधमरी हो गई।

 

उसने डाक्टर से कहा-

 

'यह बोझ बढ़ता ही जा रहा है। यह तुम्हारा प्रेमोपहार है।'

 

डाक्टर ने सिगरेट के धुएं का बादल बनाते हुए कहा-'चिन्ता न करो, चुटकी बजाते इस बोझ को कहीं कूड़े के ढेर में फेंक दिया जाएगा।'

 

पर बोझ उसे ढोना पड़ा। कूड़े के ढेर में नहीं फेंका गया। वह उसे ढोते-ढोते थक गई, पीली पड़ गई, कमजोर हो गई।

 

डाक्टर से जब बोझे की बात चलती, वह झुंझला उठता, खीझ उठता, डांट भी देता। उसे रोना पड़ा-पहले छिपकर, फिर सिसक-सिसककर।

 

पश्चात्ताप तो उसे उसी क्षण से होने लगा था, जब डाक्टर ने बेमन से विवाह की स्वीकृति मालतीदेवी के सामने दी थी। अब उसका ध्यान रह-रहकर अपने सौम्य स्वभाव मास्टर साहब के मृदुल और अक्रोध स्वभाव पर जाता था। उसे बोध होने लगा कि मैंने अपनी मूर्खता से अपने लिए दुर्भाग्य बुलाया।

 

एक दिन उसे प्रतीत हुआ कि डाक्टर उसे कुछ खाने की दवा देने वाले हैं। वह संदेह और भय से कांप उठी। उसे अपने प्राणनाश की भी चिन्ता उत्पन्न हो उठी। शाम को डाक्टर जब क्लब चले गए, उसने आत्मविश्वास पूरक साहस किया, और उस पर-घर को त्यागने की तैयारी की। उसने चादर ओढ़ी और शरीर को सावधानी से आच्छादित कर घर से बाहर हो गई।

 

दीवाली के दीये घरों में जल रहे थे, पर वह उनके प्रकाश से बचती हुई अंधकार में चलती ही गई।

 

२० : अदल-बदल

मास्टर साहब अपने घर में दीये जला, प्रभा को खिला-पिला बहुत-सी वेदना, बहुत-सी व्यथा हृदय में भरे बैठे थे। बालिका कह रही थी---बाबूजी! अम्मा कब आएंगी?

 

'आएगी बेटी, आएगी!'

 

'तुम तो रोज यही कहते हो। तुम झूठ बोलते हो बाबूजी।'

 

'झूठ नहीं बेटी, आएगी।'

 

'तो वह मुझे छोड़कर चली क्यों गईं?'

 

'......'

 

'आज दिवाली है बाबूजी ?"

 

हां बेटी।'

 

'तुमने कितनी चीजें बनाई थीं-पूरी, कचौरी, रायता, हलुआ...'

 

'हां, हां, बेटी, तुझे सब अच्छा लगा?'

 

'हां, बाबूजी, तुम कितनी खील लाए हो, खिलौने लाए हो- मैंने सब वहां सजाए हैं।"

 

'बड़ी अच्छी है तू रानी बिटिया।'

 

'यह सब मैं अम्मा को दिखाऊंगी।'

 

'दिखाना।'

 

'देखकर वे हंसेंगी।'

 

'खूब हंसेंगी।'

 

'फिर मैं रूठ जाऊंगी।'

 

'नहीं, नहीं, रानी बिटिया नहीं रूठा करतीं।'

 

'तो वह मुझे छोड़कर चली क्यों गई ?'.

 

मास्टरजी ने टप से एक बूंद आंसू गिराया, और पुत्री की दृष्टि बचाकर दूसरा पोंछ डाला। तभी बाहर द्वार के पास किसी के धम्म से गिरने की आवाज आई।

 

मास्टरजी ने चौंककर देखा, गुनगुनाकर कहा-'क्या गिरा? क्या हुआ ?'

 

वे उठकर बाहर गए, सड़क पर दूर खम्भे पर टिमटिमाती लालटेन के प्रकाश में देखा, कोई काली-काली चीज द्वार के पास पड़ी है। पास जाकर देखा, कोई स्त्री है। निकट से देखा, बेहोश है। मुंह पर लालटेन का प्रकाश डाला, मालूम हुआ माया है।

 

मास्टर साहब एकदम व्यस्त हो उठे। उन्होंने सहायता के लिए इधर-उधर देखा, कोई न था, सन्नाटा था। उन्होंने दोनों बांहों में माया को उठाया और घर के भीतर ले आए। उसे चारपाई पर लिटा दिया।

 

बालिका ने भय-मिश्रित दृष्टि से मूच्छिता माता को देखा-कुछ समझ न सकी। उसने पिता की तरफ देखा।

 

'तेरी अम्मा आ गई बिटिया, बीमार है यह।' फिर माया की नाक पर हाथ रखकर देखा, और कहा-उस कोने में दूध रखा है, ला तो ज़रा।

 

दूध के दो-चार चम्मच कण्ठ में उतरने पर माया ने आंखें खोलीं। एक बार उसने आंखें फाड़कर घर को देखा, पति को देखा, पुत्री को देखा, और वह चीख मारकर फिर बेहोश हो गई।

 

मास्टरजी ने नब्ज देखी, कम्बल उसके ऊपर डाला । ध्यान से देखा, शरीर सूखकर कांटा हो गया है, चेहरे पर लाल-काले बड़े-बड़े दाग हैं, आंखें गढ़े में धंस गई हैं। आधे बाल सफेद हो गए हैं। पैर कीचड़ और गन्दगी में लथपथ और और और वे दोनों हाथों से माथा पकड़कर बैठ गए।

 

प्रभा ने भयभीत होकर कहा-'क्या हुआ बाबूजी ?'

 

'कुछ नहीं बिटिया !' उन्होंने एक गहरी सांस ली। माया को अच्छी तरह कम्बल उढ़ा दिया।

 

इसी बीच माया ने फिर आंखें खोली। होश में आते ही वह उठने लगी। मास्टरजी ने बाधा देकर कहा-'उठो मत, प्रभा की मां, बहुत कमजोर हो । क्या थोड़ा दूध दूं?'

 

माया जोर-जोर से रोने लगी। रोते-रोते हिचकियां बंध गईं।

 

मास्टरजी ने घबराकर कहा-'यह क्या नादानी है, सब ठीक हो जाएगा। सब ठीक...।'

 

'पर मैं जाऊंगी, ठहर नहीं सकती।'

 

'भला यह भी कोई बात है, तुम्हारी हालत क्या है, यह तो देखो।'

 

माया ने दोनों हाथों से मुंह ढक लिया। उसने कहा-'तुम क्या मेरा एक उपकार कर दोगे ! थोड़ा जहर मुझे दे दोगे ! मैं वहां सड़क पर जाकर खा लूंगी।'

 

'यह क्या बात करती हो प्रभा की मां! हौसला रखो, सब ठीक हो जाएगा।

 

'हाय मैं कैसे कहूं ?'

 

'आखिर बात क्या है ?

 

'यह पापिन एक बच्चे की मां होने वाली है, तुम नहीं जानते।'

 

'जान गया प्रभा की मां, पर घबराओ मत, सब ठीक हो जाएगा।'

 

'हाय मेरा घर !'

 

'अब इन बातों को इस समय चर्चा मत करो।'

 

'तुम क्या मुझे क्षमा कर दोगे?'

 

'दुनिया में सब कुछ सहना पड़ता है, सब कुछ देखना पड़ता'

 

'अरे देवता, मैंने तुम्हें कभी नहीं पहचाना!'

 

'कुछ बात नहीं, कुछ बात नहीं, एक नींद तुम सो लो, प्रभा की मां।

 

'आह मरी, आह पीर।'

 

'अच्छा, अच्छा ! प्रभा बिटिया, तू ज़रा मां के पास बैठ, मैं अभी आता हूं बेटी। प्रभा की मां, घबराना नहीं, पास ही एक दाई रहती है, दस मिनट लगेंगे। हौसला रखना।' और वह कर्तव्यनिष्ठ मास्टर साहब, जल्दी-जल्दी घर से निकलकर, दीपावली की जलती हुई अनगिनत दीप-पंक्तियों को लगभग अनदेखा कर तेज़ी से एक अंधेरी गली की ओर दौड़ चले।

 

'चरण-रज दो मालिक!'

 

'वाहियात बात है, प्रभा की मां।'

 

'अरे देवता, चरण-रज दो, ओ पतितपावन, ओ अशरणशरण, ओ दीनदयाल, चरण-रज दो।'

 

'तुम पागल हो, प्रभा की मां।'

 

'पागल हो जाऊंगी। तीन साल में दुनिया देख ली, दुनिया समझ डाली; पर इस अन्धी ने तुम्हें न देखा, तुम्हें न समझा।'

 

'यह तुम फालतू बकबक करती रहोगी तो फिर ज्वर हो जाने का भय है। बिटिया प्रभा, अपनी मां को थोड़ा दूध तो दे।'

 

'मै भैया को देखूगी, बाबूजी।'

 

माया ने पुत्री को छाती से लगाकर कहा, 'मेरी बच्ची, अपने बाप की बेटी है-इस पतिता मां को छू दे जिससे वह पापमुक्त हो जाए।'

 

'नाहक बिटिया को परेशान मत करो, प्रभा की मां।'

 

'हाय, पर मैं तुम्हें मुंह कैसे दिखाऊंगी?'

 

'प्रभा की मां, दुनिया में सब कुछ होता है । तुमने इतना कष्ट पाया है, अब समझ गई हो। उन सब बातों को याद करने से क्या होगा? जो होना था हुआ, अब आगे की सुध लो। हां, अब मुझे तनखा साठ रुपये मिल रही है, प्रभा की मां। और ट्यूशन से भी तीस-चालीस पीट लाता हं। और एक चीज देखो, प्रभा ने खुद पसन्द करके अपनी अम्मा के लिए खरीदी थी, उस दिवाली को।

 

वे एक नवयुवक की भांति उत्साहित हो उठे, बक्स से एक रेशमी साड़ी निकाली और माया के हाथ में देकर कहा–'तनिक देखो तो।'

 

माया ने हाथ बढ़ाकर पति के चरण छुए। उसने रोते-रोते कहा- 'मुझे साड़ी नहीं, गहना नहीं, सुख नहीं, सिर्फ तुम्हारी शुभ दृष्टि चाहिए। नारी-जीवन का तथ्य मैं समझ गई हूं, किन्तु अपना नारीत्व खोकर। वह घर की सम्राज्ञी है, और उसे खूब सावधानी से अपने घर को चारों ओर से बन्द करके अपने साम्राज्य का स्वच्छन्द उपभोग करना चाहिए, जिससे बाहर की वायु उसमें प्रविष्ट न हो, फिर वह साम्राज्य चाहे भी जैसा-लघु, तुच्छ, विपन्न, असहाय क्यों न हो।'

 

मास्टर साहब ने कहा-प्रभा की मां, तुम तो मुझसे भी ज्यादा पण्डिता हो गईं। कैसी-कैसी बातें सीख लीं तुमने प्रभा की मां!'-वे ही-ही करके हंसने लगे।

 

उनकी आंखों में अमल-धवल उज्ज्वल अश्रु-बिन्दु झलक रहे थे ।

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