सप्तमोऽध्यायः
शापसे कुपित हुए अग्निदेवका अदृश्य होना और ब्रह्माजीका उनके शापको संकुचित करके उन्हें प्रसन्न करना
सौतिरुवाच शप्तस्तु भगुणा बहिः क्रुद्धो वाक्यमथाब्रवीत् ।
किमिदं साहसं ब्रह्मन् कृतवानसि मां प्रति ॥१॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं-महर्षि भृगुके शाप देनेपर अग्निदेवने कुपित होकर यह बात कही-'ब्रह्मन्! तुमने मुझे शाप देनेका यह दुस्साहसपूर्ण कार्य क्यों किया हे?' ।।१॥
धर्मे प्रयतमानस्य सत्यं च वदतः समम्।।
पृष्टो यदब्रवं सत्यं व्यभिचारोऽत्र को मम ।।२।।
'मैं सदा धर्मके लिये प्रयत्नशील रहता और सत्य एवं पक्षपातशून्य वचन बोलता हूँ, | अतः उस राक्षसके पूछनेपर यदि मैंने सच्ची बात कह दी तो इसमें मेरा क्या अपराध है? ।।२।।
पृष्टो हिसाक्षी यः साक्ष्यं जानानोऽप्यन्यथा वदेत् ।
स पूर्वानात्मनः सप्त कुले हन्यात् तथा परान् ॥ ३ ॥
'जो साक्षी किसी बातको ठीक-ठीक जानते हुए भी पूछनेपर कुछ-का-कुछ कह देता |-झूठ बोलता है, वह अपने कुलमें पहले और पीछेकी सात-सात पीढ़ियोंका नाश करता -उन्हें नरकमें ढकेलता है ॥३॥
यश्च कार्यार्थतत्त्वज्ञो जानानोऽपि न भाषते ।
सोऽपि तेनेव पापेन लिप्यते नात्र संशयः ॥४॥
'इसी प्रकार जो किसी कार्यके वास्तविक रहस्यका ज्ञाता है, वह उसके पूछनेपर यदि जानते हुए भी नहीं बतलाता-मौन रह जाता है तो वह भी उसी पापसे लिप्त होता है; इसमें संशय नहीं है ।।४।।
शक्तोऽहमपि शप्तुं त्वां मान्यास्तु ब्राह्मणा मम ।
जानतोऽपि च ते ब्रह्मन् कथयिष्ये निबोध तत् ॥५॥
'मैं भी तुम्हें शाप देनेकी शक्ति रखता हूँ तो भी नहीं देता हूँ; क्योंकि ब्राह्मण मेरे मान्य हैं। ब्रह्मन्! यद्यपि तुम सब कुछ जानते हो, तथापि मैं तुम्हें जो बता रहा हूँ, उसे ध्यान देकर सुनो-॥५॥
योगेन बहुधात्मानं कृत्वा तिष्ठामि मूर्तिषु ।
अग्निहोत्रेषु सत्रेषु क्रियासु च मखेषु च ।। ६॥
'मैं योगसिद्धिके बलसे अपने-आपको अनेक रूपोंमें प्रकट करके गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि आदि मूर्तियोंमें, नित्य किये जानेवाले अग्निहोत्रोंमें, अनेक व्यक्तियोंद्वारा संचालित सत्रोंमें, गर्भाधान आदि क्रियाओंमें तथा ज्योतिष्टोम आदि मखों (यज्ञों)-में सदा निवास करता हूँ॥६॥
वेदोक्तेन विधानेन मयि यद्य ते हविः ।
देवताः पितरश्चैव तेन तृप्ता भवन्ति वे ॥७॥
'मुझमें वेदोक्त विधिसे जिस हविष्यकी आहुति दी जाती है, उसके द्वारा निश्चय ही देवता तथा पितृगण तृप्त होते हैं । ॥
आपो देवगणाः सर्वे आपः पितृगणास्तथा ।
दर्शश्च पौर्णमासश्च देवानां पितृभिः सह ॥८॥
'जल ही देवता हैं तथा जल ही पितृगण हैं। दर्श और पौर्णमास याग पितरों तथा देवताओंके लिये किये जाते हैं ।।८।।
देवताः पितरस्तस्मात् पितरश्चापि देवताः ।
एकीभूताश्च पूज्यन्ते पृथक्त्वेन च पर्वसु ॥९॥
'अतः देवता पितर हैं और पितर ही देवता हैं। विभिन्न पर्वोपर ये दोनों एक रूपमें भी पूजे जाते हैं और पृथक्-पृथक् भी ॥९॥
देवताः पितरश्चैव भुञ्जते मयि यद् हुतम् ।
देवतानां पितृणां च मुखमेतदहं स्मृतम् ।।१०।।
'मुझमें जो आहुति दी जाती है, उसे देवता और पितर दोनों भक्षण करते हैं। इसीलिये मैं देवताओं और पितरोंका मुख माना जाता हूँ।॥ १०॥
अमावास्यां हि पितरः पौर्णमास्यां हि देवताः ।
मन्मुखेनेव हूयन्ते भुञ्जते च हुतं हविः ।। ११ ॥
सर्वभक्षः कथं त्वेषां भविष्यामि मुखं त्वहम् ।
'अमावास्याको पितरोंके लिये और पूर्णिमाको देवताओंके लिये मेरे मुखसे ही आहुति दी जाती है और उस आहुतिके रूपमें प्राप्त हुए हविष्यका वे देवता और पितर उपभोग करते हैं, सर्वभक्षी होनेपर मैं इन सबका मुँह कैसे हो सकता हूँ?' ।। ११३।।
सोतिरुवाच
चिन्तयित्वा ततो वलिश्चक्रे संहारमात्मनः ।। १२ ।।
द्विजानामग्निहोत्रेषु यज्ञसत्रक्रियासु च ।
निरोंकारवषट्काराः स्वधास्वाहाविवर्जिताः ।। १३ ।।
विनाग्निना प्रजाः सर्वास्तत आसन् सुदुःखिताः ।
अथर्षयः समुद्विग्ना देवान् गत्वाब्रुवन् वचः ।। १४ ।।
उग्रश्रवाजी कहते हैं-महर्षियो! तदनन्तर अग्निदेवने कुछ सोच-विचारकर द्विजोंके अग्निहोत्र, यज्ञ, सत्र तथा संस्कारसम्बन्धी क्रियाओंमेंसे अपने आपको समेट लिया। फिर तो अग्निके बिना समस्त प्रजा ॐकार, वषट्कार, स्वधा और स्वाहा आदिसे वंचित होकर अत्यन्त दुःखी हो गयी। तब महर्षिगण अत्यन्त उद्विग्न हो देवताओंके पास जाकर बोले -||१२-१४ ।।
अग्निनाशात् क्रिया_शाद्भ्रान्ता लोकास्त्रयोऽनघाः ।
विदध्वमत्र यत् कार्य न स्यात् कालात्ययो यथा ।। १५ ॥
'पापरहित देवगण! अग्निके अदृश्य हो जानेसे अग्निहोत्र आदि सम्पूर्ण क्रियाओंका लोप हो गया है। इससे तीनों लोकोंके प्राणी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये हैं; अतः इस विषयमें जो आवश्यक कर्तव्य हो, उसे आपलोग करें। इसमें अधिक विलम्ब नहीं होना चाहिये ।। १५ ॥
अधर्षयश्च देवाश्च ब्रह्माणमुपगम्य तु ।
अग्नेरावेदयञ्छापं क्रियासंहारमेव च ॥ १६॥
तत्पश्चात् ऋषि और देवता ब्रह्माजीके पास गये और अग्निको जो शाप मिला था एवं अग्निने सम्पूर्ण क्रियाओंसे जो अपने-आपको समेटकर अदृश्य कर लिया था, वह सब समाचार निवेदन करते हुए बोले- ॥१६॥
भृगुणा वे महाभाग शप्तोऽग्निः कारणान्तरे।
कथं देवमुखो भूत्वा यज्ञभागाग्रभुक तथा ।।१७।।
हुतभुक् सर्वलोकेषु सर्वभक्षत्वमेष्यति ।
'महाभाग! किसी कारणवश महर्षि भृगुने अग्निदेवको सर्वभक्षी होनेका शाप दे दिया है, किंतु वे सम्पूर्ण देवताओंके मुख, यज्ञभागके अग्रभोक्ता तथा सम्पूर्ण लोकोंमें दी हुई आहुतियोंका उपभोग करनेवाले होकर भी सर्वभक्षी कैसे हो सकेंगे?' ।। १७ ॥
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