बुद्ध का उपदेश
एक बार प्रदेश में अकाल पड़ा। यह देखकर गौतम बुद्ध को बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने लोगों से कहा कि बहुत से लोग अन्न और वस्त्र के लिए तरस रहे हैं। उनकी सहायता करना हर मनुष्य का धर्म है। आप लोगों से जो कुछ बने, वह दान करें। बुद्ध का उपदेश सुनकर सब लोग बिना दिए अपने-अपने घर चले गए। एक गरीब व्यक्ति बैठा ही रहा। उसने सोचा कि मेरे पास तो ये वस्त्र हैं। अगर मैं इन्हें उतारकर दुंगा तो नंगा हो जाऊँगा। उसने फिर से सोचा कि मनुष्य विना वस्त्र के पैदा होता है और बिना वस्त्र के ही चला जाता है। न जाने कितने साधु-संन्यासी बिना वस्त्र के रहते हैं। फिर मैं बिना वस्त्र के क्यों नहीं रह सकता? उसने अपने वस्त्र उतारकर बुद्ध को दे दिए। भगवान बुद्ध ने उसे आशीर्वाद दिया। वह प्रसन्न होकर घर की ओर चल पड़ा। वह खुशी से चिल्लाकर कह रहा था, "मैंने अपने हारे मन को जीत लिया है।" तभी सामने से राजा की सवारी आ रही थी। उस गरीब की बात सुनकर राजा ने उसे अपने पास बुलाया और पूछा कि तुमने हारे मन को कैसे जीता है? उस गरीब ने कहा कि भगवान् बुद्ध दु:खियों के लिए दान मांग रहे थे। यह सुनकर मैंने अपने वस्त्र उतार दिए। पहले तो मेरे मन ने इनकार किया। फिर मैंने उसे समझाया कि मनुष्य बिना वस्त्र के पैदा होता है और मृत्यु होने पर साथ में कुछ भी नहीं जाता। राजा उसकी बात से बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने मोतियों का हार और कीमती वस्त्र उसे दिए। उसने वह सब से जाकर भगवान बुद्ध के चरणों में रख दिए। बुद्ध ने उसे हृदय से लगाते हुए कहा, "जो दूसरों के लिए अपना सबकुछ दे देता है, उसकी बरावरी कोई नहीं कर सकता।"
दाता दाता चले गए, रह गए अब कंजूस।
दान मान समझे नहीं, लड़ने को तजबूत॥
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