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महाभारत आदिपर्व अनुक्रमणिका -01

 नम्र निवेदन

    महाभारत आर्य-संस्कृति तथा भारतीय सनातन धर्म का एक महान ग्रन्थ तथा अमूल्य रत्नों का अपार भण्डार है। भगवान वेदव्यास स्वयं कहते हैं कि 'इस महाभारत में मैंने वेदों के रहस्य और विस्तार, उपनिषदों के सम्पूर्ण सार, इतिहास पुराणों के उन्मेष और निमेष, चातुर्वर्ण्य के विधान, पुराणों के आशय, ग्रह-नक्षत्र-तारा आदि के परिमाण, न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, दान, पाशुपत (अन्तर्यामी की महिमा), तीर्थों, पुण्य देशों, नदियों, पर्वतों, वनों तथा समुद्रों का भी वर्णन किया गया है। अतएव महाभारत महाकाव्य है, गूढार्थमय ज्ञान-विज्ञान-शास्त्र है, धर्म ग्रन्थ है, राजनीतिक दर्शन है, कर्मयोग-दर्शन है, भक्ति-शास्त्र है, अध्यात्म-शास्त्र है, आर्यजाति का इतिहास है और सर्वार्थ साधक तथा सर्वशास्त्र संग्रह है। सबसे अधिक महत्त्व की बात तो यह है कि इसमें एक, अद्वितीय, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, सर्वलोकमहेश्वर, परमयोगेश्वर, अचिन्त्यानन्त गुणगणसम्पन्न, सृष्टि-स्थितिप्रलयकारी, विचित्र लीलाविहारी, भक्त-भक्तिमान्, भक्त-सर्वस्व, निखिलरसामतसिन्ध. अनन्त प्रेमाधार, प्रेमघनविग्रह, सच्चिदानन्दघन, वासुदेव भगवान् श्रीकृष्णके गुण-गौरवका मधुर गान है। इसकी महिमा अपार है। औपनिषद ऋषि ने भी इतिहास-पुराण को पंचम वेद बताकर महाभारत की सर्वोपरि महत्ता स्वीकार की है।

   इस महाभारत के हिन्दी में कई अनुवाद इससे पहले प्रकाशित हो चुके हैं, परन्तु इस समय मूल संस्कृत तथा हिन्दी-अनुवाद सहित सम्पूर्ण ग्रन्थ शायद उपलब्ध नहीं है। इसे गीता प्रेस ने संवत् १९९९ में प्रकाशित किया था, किन्तु परिस्थिति एवं साधनों के अभाव में पाठकों की सेवा में नहीं दिया जा सका। भगवत्कृपा से इसे पुनर्मुद्रित करने का सुअवसर अब प्राप्त हुआ है।

    इस महाभारत में मुख्यतः नीलकण्ठी के अनुसार पाठ लिया गया है। साथ ही दाक्षिणात्य पाठ के उपयोगी अंशों को सम्मिलित किया गया है और इसी के अनुसार बीच-बीच में उसके श्लोक अर्थ सहित दे दिये गये हैं पर उन श्लोकों की श्लोक-संख्या न तो मूल में दी गयी है, न अर्थ में ही। अध्याय के अन्त में दाक्षिणात्य पाठ के श्लोकों की संख्या अलग बताकर उक्त अध्याय की पूर्ण श्लोक-संख्या बता दी गयी है और इसी प्रकार पर्व के अन्त में लिये हुए दाक्षिणात्य अधिक पाठ के श्लोकों की संख्या अलग-अलग बताकर उस पूर्व की पूर्ण श्लोक-संख्या भी दे दी गयी है। इसके अतिरिक्त महाभारत के पूर्व प्रकाशित अन्यान्य संस्करणों तथा पूना के संस्करण से भी पाठ निर्णय में सहायता ली गयी है और अच्छा प्रतीत होने पर उनके मूल पाठ या पाठान्तर को भी ग्रहण किया गया है। इस संस्करण में कुल श्लोक-संख्या १००२१७ है। इसमें उत्तर भारतीय पाठ की ८६६००, दाक्षिणात्य पाठ की ६५८४ तथा 'उवाच' की संख्या ७०३२ है।

    इस विशाल ग्रन्थ के हिन्दी-अनुवाद का प्रायः सारा कार्य गीताप्रेस के प्रसिद्ध तथा सिद्धहस्त भाषान्तरकार संस्कृत-हिन्दी दोनों भाषाओं के सफल लेखक तथा कवि, परम विद्वान् पण्डितप्रवर श्रीरामनारायणदत्तजी शास्त्री महोदय ने किया है। इसी से अनुवाद की भाषा सरल होने के साथ ही इतनी सुमधुर हो सकी है। दार्शनिक वयोवृद्ध विद्वान् डॉ० श्रीभगवानदासजी ने इस अनुवादकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी।

   आदिपर्व तथा कुछ अन्य पर्वों के कुछ अनुवाद को हमारे परम आदरणीय विद्वान् स्वामीजी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज ने भी कृपापूर्वक देखा है; इसके लिये हम उनके कृतज्ञ हैं।

   इसके अतिरिक्त, पाठ निर्णय तथा अनुवाद देखने का सारा कार्य हमारे परमश्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दकाने समय-समय पर स्वामी जी श्रीरामसुखदासजी, श्रीहरिकृष्णदासजी गोयन्द का, श्रीघनश्यामदासजी जालान, श्रीवासुदेवजी काबरा आदिको साथ रखकर किया है। श्रीगोयन्दकाजी तथा इन महानुभावों ने इतनी लगन के साथ बहुत लम्बा समय नियमितरूप से देकर काम न किया होता तो इस विशाल ग्रन्थ का प्रकाशन होना सम्भव नहीं था। __ इस प्रकार भगवत्कृपा से यह महान् कार्य ६ खण्डों में पूरा हुआ है। आशा है, भारतीय जनता इससे लाभ उठाकर धार्मिक जीवनयापन एवं अपने जीवन को सफल बनाने में सक्षम होगी।

 

    ||श्रीहरिः ॥ * श्रीगणेशाय नम: * || श्रीवेदव्यासाय नमः ।।

श्रीमहाभारतम्

 

आदिपर्व अनुक्रमणिकापर्व

 

प्रथमोऽध्यायः ग्रन्थ का उपक्रम, ग्रन्थ में कहे हुए अधिकांश विषयों की संक्षिप्त सूची तथा इसके पाठ की महिमा।

 

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।

देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ।।

'बदरिकाश्रमनिवासी प्रसिद्ध ऋषि श्रीनारायण तथा श्रीनर (अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, उनके नित्यसखा नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन), उनकी लीला प्रकट करनेवाली भगवती सरस्वती और उसके वक्ता महर्षि वेदव्यासको नमस्कार कर (आसुरी सम्पत्तियोंका नाश करके अन्तःकरणपर दैवी सम्पत्तियोंको विजय प्राप्त करानेवाले) जय. (महाभारत एवं अन्य इतिहास-पुराणादि)-का पाठ करना चाहिये।'

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। ॐ नमः पितामहाय।

ॐ नमः प्रजापतिभ्यः। ॐ नमः कृष्णद्वैपायनाय।

ॐ नमः सर्वविघ्नविनायकेभ्यः।

ॐकारस्वरूप भगवान् वासुदेवको नमस्कार है। ॐकारस्वरूप भगवान् पितामहको नमस्कार है। ॐकारस्वरूप प्रजापतियोंको नमस्कार है। ॐकारस्वरूप श्रीकृष्णद्वैपायनको नमस्कार है। ॐकारस्वरूप सर्व-विघ्नविनाशक विनायकोंको नमस्कार है।

लोमहर्षणपुत्र उग्रश्रवाः सौतिः पौराणिको।

नैमिषारण्ये शौनकस्य कुलपतेादशवार्षिके सत्रे ।। १ ।।

सुखासीनानभ्यगच्छद् ब्रह्मर्षीन् संशितव्रतान् ।

विनयावनतो भूत्वा कदाचित् सूतनन्दनः ।। २ ।।

एक समयकी बात है, नैमिषारण्यमें कुलपति महर्षि शौनकके बारह वर्षोंतक चालू रहनेवाले सत्रमें जब उत्तम एवं कठोर ब्रह्मचर्यादि व्रतोंका पालन करनेवाले ब्रह्मर्षिगण अवकाशके समय सुखपूर्वक बैठे थे, सूतकुलको आनन्दित करनेवाले लोमहर्षणपुत्र उग्रश्रवा सौति स्वयं कौतूहलवश उन ब्रह्मर्षियोंके समीप बड़े विनीतभावसे आये। वे पुराणोंके विद्वान् और कथावाचक थे ।। १-२ ।।

तमाश्रममनुप्राप्तं नैमिषारण्यवासिनाम् ।

चित्राः श्रोतुं कथास्तत्र परिवब्रुस्तपस्विनः ।। ३ ।।

उस समय नैमिषारण्यवासियोंके आश्रममें पधारे हुए उन उग्रश्रवाजीको, उनसे चित्रविचित्र कथाएँ सुननेके लिये, सब तपस्वियोंने वहीं घेर लिया ।। ३ ।।

अभिवाद्य मुनींस्तांस्तु सर्वानेव कृताञ्जलिः ।

अपृच्छत् स तपोवृद्धिं सद्भिश्चैवाभिपूजितः ।। ४ ।।

उग्रश्रवाजीने पहले हाथ जोड़कर उन सभी मुनियोंको अभिवादन किया और 'आपलोगोंकी तपस्या सुखपूर्वक बढ़ रही है न?' इस प्रकार कुशल-प्रश्न किया। उन सत्पुरुषोंने भी उग्रश्रवाजीका भलीभाँति स्वागत-सत्कार किया ।। ४ ।।

अथ तेषूपविष्टेषु सर्वेष्वेव तपस्विषु ।

निर्दिष्टमासनं भेजे विनयाल्लौमहर्षणिः ।। ५ ।।

इसके अनन्तर जब वे सभी तपस्वी अपने-अपने आसनपर विराजमान हो गये, तब लोमहर्षणपुत्र उग्रश्रवाजीने भी उनके बताये हुए आसनको विनयपूर्वक ग्रहण किया ।।

सुखासीनं ततस्तं तु विश्रान्तमुपलक्ष्य च ।

अथापृच्छदृषिस्तत्र कश्चित् प्रस्तावयन् कथाः ।। ६ ।।

तत्पश्चात् यह देखकर कि उग्रश्रवाजी थकावटसे रहित होकर आरामसे बैठे हुए हैं, किसी महर्षिने बातचीतका प्रसंग उपस्थित करते हुए यह प्रश्न पूछा- ।। ६ ।।

कुत आगम्यते सौते क्व चायं विहृतस्त्वया ।

कालः कमलपत्राक्ष शंसैतत् पृच्छतो मम ।। ७ ।।

कमलनयन सूतकुमार! आपका शुभागमन कहाँसे हो रहा है? अबतक आपने कहाँ आनन्दपूर्वक समय बिताया है? मेरे इस प्रश्नका उत्तर दीजिये ।। ७ ।।

एवं पृष्टोऽब्रवीत् सम्यग् यथावल्लौमहर्षणिः ।

वाक्यं वचनसम्पन्नस्तेषां च चरिताश्रयम् ।।८।।

तस्मिन् सदसि विस्तीर्णे मुनीनां भावितात्मनाम् ।

उग्रश्रवाजी एक कुशल वक्ता थे। इस प्रकार प्रश्न किये जानेपर वे शुद्ध अन्तःकरणवाले मुनियोंकी उस विशाल सभामें ऋषियों तथा राजाओंसे सम्बन्ध रखनेवाली उत्तम एवं यथार्थ कथा कहने लगे ।। ८।।

सौतिरुवाच जनमेजयस्य राजर्षेः सर्पसत्रे महात्मनः ।। ९ ।।

समीपे पार्थिवेन्द्रस्य सम्यक् पारिक्षितस्य च ।

कृष्णद्वैपायनप्रोक्ताः सुपुण्या विविधाः कथाः ।। १० ।।

कथिताश्चापि विधिवद्या वैशम्पायनेन वै ।

श्रुत्वाहं ता विचित्रार्था महाभारतसंश्रिताः ।। ११ ।।

उग्रश्रवाजीने कहा-महर्षियो! चक्रवर्ती सम्राट् महात्मा राजर्षि परीक्षित्-नन्दन जनमेजयके सर्पयज्ञमें उन्हींके पास वैशम्पायनने श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजीके द्वारा निर्मित परम पुण्यमयी चित्र-विचित्र अर्थसे युक्त महाभारतकी जो विविध कथाएँ विधिपूर्वक कही हैं, उन्हें सुनकर मैं आ रहा हूँ ।। ९-११ ।।

बहूनि सम्परिक्रम्य तीर्थान्यायतनानि च ।

समन्तपञ्चकं नाम पुण्यं द्विजनिषेवितम् ।। १२ ।।

गतवानस्मि तं देशं युद्धं यत्राभवत् पुरा ।

कुरूणां पाण्डवानां च सर्वेषां च महीक्षिताम् ।। १३ ।।

मैं बहुत-से तीर्थों एवं धामोंकी यात्रा करता हुआ ब्राह्मणोंके द्वारा सेवित उस परम पुण्यमय समन्तपंचक क्षेत्र कुरुक्षेत्र देशमें गया, जहाँ पहले कौरव-पाण्डव एवं अन्य सब राजाओंका युद्ध हुआ था ।। १२-१३ ।।

दिदृक्षुरागतस्तस्मात् समीपं भवतामिह ।

आयुष्मन्तः सर्व एव ब्रह्मभूता हि मे मताः।

अस्मिन् यज्ञे महाभागाः सूर्यपावकवर्चसः ।। १४ ।।

वहींसे आपलोगोंके दर्शनकी इच्छा लेकर मैं यहाँ आपके पास आया हूँ। मेरी यह मान्यता है कि आप सभी दीर्घायु एवं ब्रह्मस्वरूप हैं। ब्राह्मणो! इस यज्ञमें सम्मिलित आप सभी महात्मा बड़े भाग्यशाली तथा सूर्य और अग्निके समान तेजस्वी हैं ।। १४ ।।

कृताभिषेकाः शुचयः कृतजप्याहुताग्नयः ।

भवन्त आसने स्वस्था ब्रवीमि किमहं द्विजाः ।। १५ ।।

पुराणसंहिताः पुण्याः कथा धर्मार्थसंश्रिताः।

इति वृत्तं नरेन्द्राणामृषीणां च महात्मनाम् ।। १६ ।।

इस समय आप सभी स्नान, संध्या-वन्दन, जप और अग्निहोत्र आदि करके शुद्ध हो अपने-अपने आसनपर स्वस्थचित्तसे विराजमान हैं। आज्ञा कीजिये, मैं आपलोगोंको क्या सुनाऊँ? क्या मैं आपलोगोंको धर्म और अर्थके गूढ़ रहस्यसे युक्त, अन्तःकरणको शुद्ध करनेवाली भिन्न-भिन्न पुराणोंकी कथा सुनाऊँ अथवा उदारचरित महानुभाव ऋषियों एवं सम्राटोंके पवित्र इतिहास? ।। १५-१६॥

 

     ऋषय ऊचुः

द्वैपायनेन यत् प्रोक्तं पुराणं परमर्षिणा।

सुरैर्ब्रह्मर्षिभिश्चैव श्रुत्वा यदभिपूजितम् ।। १७ ।।

तस्याख्यानवरिष्ठस्य विचित्रपदपर्वणः ।

सूक्ष्मार्थन्याययुक्तस्य वेदार्थभूषितस्य च ।। १८ ।।

भारतस्येतिहासस्य पुण्यां ग्रन्थार्थसंयुताम् ।

संस्कारोपगतां ब्राह्मीं नानाशास्त्रोपबंहिताम् ।। १९ ।।

जनमेजयस्य यां राज्ञो वैशम्पायन उक्तवान् ।

यथावत् स ऋषिस्तुष्ट्या सत्रे द्वैपायनाज्ञया ।। २० ।।

वेदैश्चतुर्भिः संयुक्तां व्यासस्याद्भुतकर्मणः ।।

संहितां श्रोतुमिच्छामः पुण्यां पापभयापहाम् ।। २१ ।।

ऋषियोंने कहा-उग्रश्रवाजी! परमर्षि श्रीकृष्ण-द्वैपायनने जिस प्राचीन इतिहासरूप पुराणका वर्णन किया है और देवताओं तथा ऋषियोंने अपने-अपने लोकमें श्रवण करके जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है, जो आख्यानोंमें सर्वश्रेष्ठ है, जिसका एक-एक पद, वाक्य एवं पर्व विचित्र शब्दविन्यास और रमणीय अर्थसे परिपूर्ण है, जिसमें आत्मा-परमात्माके सूक्ष्म स्वरूपका निर्णय एवं उनके अनुभवके लिये अनुकूल युक्तियाँ भरी हुई हैं और जो सम्पूर्ण वेदोंके तात्पर्यानुकूल अर्थसे अलंकृत है, उस भारत-इतिहासकी परम पुण्यमयी, ग्रन्थके गुप्त भावोंको स्पष्ट करनेवाली, पदों-वाक्योंकी व्युत्पत्तिसे युक्त, सब शास्त्रोंके अभिप्रायके अनुकूल और उनसे समर्थित जो अद्भुतकर्मा व्यासकी संहिता है, उसे हम सुनना चाहते हैं। अवश्य ही वह चारों वेदोंके अर्थोंसे भरी हुई तथा पुण्यस्वरूपा है। पाप और भयका नाश करनेवाली है। भगवान् वेदव्यासकी आज्ञासे राजा जनमेजयके यज्ञमें प्रसिद्ध ऋषि वैशम्पायनने आनन्दमें भरकर भलीभाँति इसका निरूपण किया है ।। १७२१ ।।

सौतिरुवाच

आद्यं पुरुषमीशानं पुरुहूतं पुरुष्टुतम् ।

ऋतमेकाक्षरं ब्रह्म व्यक्ताव्यक्तं सनातनम् ।। २२ ।।

असच्च सदसच्चैव यद् विश्वं सदसत्परम् ।

परावराणां स्रष्टारं पुराणं परमव्ययम् ।। २३ ।।

मङ्गल्यं मङ्गलं विष्णुं वरेण्यमनघं शुचिम्।।

नमस्कृत्य हृषीकेशं चराचरगुरुं हरिम् ॥ २४ ॥

महर्षेः पूजितस्येह सर्वलोकैर्महात्मनः ।

प्रवक्ष्यामि मतं पुण्यं व्यासस्याद्भुतकर्मणः ॥ २५ ॥

उग्रश्रवाजीने कहा-जो सबका आदि कारण, अन्तर्यामी और नियन्ता है, यज्ञोंमें जिसका आवाहन और जिसके उद्देश्यसे हवन किया जाता है, जिसकी अनेक पुरुषोंद्वारा अनेक नामोंसे स्तुति की गयी है, जो ऋत (सत्यस्वरूप), एकाक्षर ब्रह्म (प्रणव एवं एकमात्र अविनाशी और सर्वव्यापी परमात्मा), व्यक्ताव्यक्त (साकार-निराकार)-स्वरूप एवं सनातन है. असत्-सत् एवं उभयरूपसे जो स्वयं विराजमान है: फिर भी जिसका वास्तविक स्वरूप सत्-असत् दोनोंसे विलक्षण है, यह विश्व जिससे अभिन्न है, जो सम्पूर्ण परावर (स्थूलसूक्ष्म) जगत्का स्रष्टा, पुराणपुरुष, सर्वोत्कृष्ट परमेश्वर एवं वृद्धि-क्षय आदि विकारोंसे रहित है, जिसे पाप कभी छू नहीं सकता, जो सहज शुद्ध है, वह ब्रह्म ही मंगलकारी एवं मंगलमय विष्णु है। उन्हीं चराचरगुरु हृषीकेश (मन-इन्द्रियोंके प्रेरक) श्रीहरिको नमस्कार करके सर्वलोकपूजित अद्भुतकर्मा महात्मा महर्षि व्यासदेवके इस अन्तःकरणशोधक मतका मैं वर्णन करूँगा ।। २२-२५||

आचख्युः कवयः केचित् सम्प्रत्याचक्षते परे ।

आख्यास्यन्ति तथैवान्ये इतिहासमिमं भुवि ।। २६ ।।

पृथ्वीपर इस इतिहासका अनेकों कवियोंने वर्णन किया है और इस समय भी बहुत-से वर्णन करते हैं। इसी प्रकार अन्य कवि आगे भी इसका वर्णन करते रहेंगे ।। २६ ।।

इदं तु त्रिषु लोकेषु महज्ज्ञानं प्रतिष्ठितम् ।

विस्तरैश्च समासैश्च धार्यते यद् द्विजातिभिः ।। २७॥

इस महाभारतकी तीनों लोकोंमें एक महान् ज्ञानके रूपमें प्रतिष्ठा है। ब्राह्मणादि द्विजाति संक्षेप और विस्तार दोनों ही रूपोंमें अध्ययन और अध्यापनकी परम्पराके द्वारा इसे अपने हृदयमें धारण करते हैं ।। २७ ॥

अलंकृतं शुभैः शब्दैः समयैर्दिव्यमानुषैः ।

छन्दोवृत्तैश्च विविधैरन्वितं विदुषां प्रियम् ।। २८॥

यह शुभ (ललित एवं मंगलमय) शब्दविन्याससे अलंकृत है तथा वैदिक-लौकिक या संस्कृत-प्राकृत संकेतोंसे सुशोभित है। अनुष्टुप, इन्द्रवज्रा आदि नाना प्रकारके छन्द भी इसमें प्रयुक्त हुए हैं; अतः यह ग्रन्थ विद्वानोंको बहुत ही प्रिय है ।। २८ ।।

पुण्ये हिमवतः पादे मध्ये गिरिगुहालये।

विशोध्य देहं धर्मात्मा दर्भसंस्तरमाश्रितः॥

शुचिः सनियमो व्यासः शान्तात्मा तपसि स्थितः ।

भारतस्येतिहासस्य धर्मेणान्वीक्ष्य तां गतिम् ।।

प्रविश्य योग ज्ञानेन सोऽपश्यत् सर्वमन्ततः ।

हिमालयकी पवित्र तलहटीमें पर्वतीय गुफाके भीतर धर्मात्मा व्यासजी स्नानादिसे शरीर-शुद्धि करके पवित्र हो कुशका आसन बिछाकर बैठे थे। उस समय नियमपालनपूर्वक शान्तचित्त हो वे तपस्यामें संलग्न थे। ध्यानयोगमें स्थित हो उन्होंने धर्मपूर्वक महाभारत इतिहासके स्वरूपका विचार करके ज्ञानदृष्टिद्वारा आदिसे अन्ततक सब कुछ प्रत्यक्षकी भाँति देखा (और इस ग्रन्थका निर्माण किया।

निष्प्रभेऽस्मिन् निरालोके सर्वतस्तमसावृते ।

बृहदण्डमभूदेकं प्रजानां बीजमव्ययम् ॥ २९ ॥

सृष्टिके प्रारम्भमें जब यहाँ वस्तुविशेष या नामरूप आदिका भान नहीं होता था, प्रकाशका कहीं नाम नहीं था, सर्वत्र अन्धकार-ही-अन्धकार छा रहा था, उस समय एक बहुत बड़ा अण्ड प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण प्रजाओंका अविनाशी बीज था ।। २९ ।।

युगस्यादौ निमित्तं तन्महद्दिव्यं प्रचक्षते।

यस्मिन् संश्रूयते सत्यं ज्योतिर्ब्रह्म सनातनम् ।। ३०॥

ब्रह्मकल्पके आदिमें उसी महान् एवं दिव्य अण्डको चार प्रकारके प्राणिसमुदायका कारण कहा जाता है। जिसमें सत्यस्वरूप ज्योतिर्मय सनातन ब्रह्म अन्तर्यामीरूपसे प्रविष्ट हुआ है. ऐसा श्रुति वर्णन करती है ॥३०॥

अद्भुतं चाप्यचिन्त्यं च सर्वत्र समतां गतम् ।

अव्यक्तं कारणं सूक्ष्मं यत्तत् सदसदात्मकम् ।। ३१ ।।

वह ब्रह्म अद्भुत, अचिन्त्य, सर्वत्र समानरूपसे व्याप्त, अव्यक्त, सूक्ष्म, कारणस्वरूप एवं अनिर्वचनीय है और जो कुछ सत्-असत्रूपमें उपलब्ध होता है, सब वही है ।। ३१ ।।

यस्मात् पितामहो जज्ञे प्रभुरेकः प्रजापतिः ।

ब्रह्मा सुरगुरुः स्थाणुर्मनुः कः परमेष्ठ्यथ ।। ३२ ।।

प्राचेतसस्तथा दक्षो दक्षपुत्राश्च सप्त वै।

ततः प्रजानां पतयः प्राभवन्नेकविंशतिः ।। ३३ ।।

उस अण्डसे ही प्रथम देहधारी, प्रजापालक प्रभु, देवगुरु पितामह ब्रह्मा तथा रुद्र, मनु, प्रजापति, परमेष्ठी, प्रचेताओंके पुत्र, दक्ष तथा दक्षके सात पुत्र (क्रोध, तम, दम, विक्रीत, अंगिरा, कर्दम और अश्व) प्रकट हुए। तत्पश्चात् इक्कीस प्रजापति (मरीचि आदि सात ऋषि और चौदह मनु) पैदा हुए ।। ३२-३३ ॥

पुरुषश्चाप्रमेयात्मा यं सर्व ऋषयो विदुः।

विश्वेदेवास्तथादित्या वसवोऽथाश्विनावपि ।। ३४ ।।

जिन्हें मत्स्य-कूर्म आदि अवतारोंके रूपमें सभी ऋषि-मुनि जानते हैं, वे अप्रमेयात्मा विष्णुरूप पुरुष और उनकी विभूतिरूप विश्वेदेव, आदित्य, वसु एवं अश्विनीकुमार आदि भी क्रमशः प्रकट हुए हैं ।। ३४ ।।

यक्षाः साध्याः पिशाचाश्च गुह्यकाः पितरस्तथा।

ततः प्रसूता विद्वांसः शिष्टा ब्रह्मर्षिसत्तमाः ॥ ३५॥

तदनन्तर यक्ष, साध्य, पिशाच, गुह्यक और पितर एवं तत्त्वज्ञानी सदाचारपरायण साधुशिरोमणि ब्रह्मर्षिगण प्रकट हुए।।३५॥

राजर्षयश्च बहवः सर्वे समुदिता गुणैः।

आपो द्यौः पृथिवी वायुरन्तरिक्षं दिशस्तथा ॥३६॥

इसी प्रकार बहुत-से राजर्षियोंका प्रादुर्भाव हुआ है. जो सब-के-सब शौर्यादि सदगुणोंसे | सम्पन्न थे। क्रमशः उसी ब्रह्माण्डसे जल, धुलोक, पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष और दिशाएँ भी प्रकट हुई हैं ।।३६॥

संवत्सरर्तवो मासाः पक्षाहोरात्रयः क्रमात्।

यच्चान्यदपि तत् सर्व सम्भूतं लोकसाक्षिकम् ।। ३७॥

संवत्सर, ऋतु, मास, पक्ष, दिन तथा रात्रिका प्राकट्य भी क्रमशः उसीसे हुआ है। इसके सिवा और भी जो कुछ लोकमें देखा या सुना जाता है, वह सब उसी अण्डसे उत्पन्न हुआ है ।। ३७॥

यदिदं दृश्यते किंचिद् भूतं स्थावरजङ्गमम् ।

पुनः संक्षिप्यते सर्व जगत् प्राप्ते युगक्षये ।। ३८ ।।

यह जो कुछ भी स्थावर-जंगम जगत् दृष्टिगोचर होता है, वह सब प्रलयकाल आनेपर अपने कारणमें विलीन हो जाता है ।। ३८॥ __

यथावृतुलिङ्गानि नानारूपाणि पर्यये।

दृश्यन्ते तानि तान्येव तथा भावा युगादिषु ।। ३९ ।।

जैसे ऋतुके आनेपर उसके फल-पुष्प आदि नाना प्रकारके चिह्न प्रकट होते हैं और ऋतु बीत जानेपर वे सब समाप्त हो जाते हैं उसी प्रकार कल्पका आरम्भ होनेपर पूर्ववत् वे-वे पदार्थ दृष्टिगोचर होने लगते हैं और कल्पके अन्त में उनका लय हो जाता है ।। ३९ ।।

एवमेतदनाद्यन्तं भूतसंहारकारकम् ।

अनादिनिधनं लोके चक्रं सम्परिवर्तते ।। ४०॥

इस प्रकार यह अनादि और अनन्त काल-चक्र लोकमें प्रवाहरूपसे नित्य घूमता रहता है। इसीमें प्राणियोंकी उत्पत्ति और संहार हुआ करते हैं। इसका कभी उद्भव और विनाश नहीं होता ।। ४०॥

त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणित्रयस्त्रिंशच्छतानि च।

त्रयस्त्रिंशच्च देवानां सृष्टिः संक्षेपलक्षणा ॥४१॥

देवताओंकी सृष्टि संक्षेपसे तैंतीस हजार, तैंतीस सौ और तैंतीस लक्षित होती है।। ४१ ॥

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