कर्मफल विवरण
-आचार्य ज्ञानेश्वर
कर्मों का फल कब, कैसा, कितना मिलता है, यह जिज्ञासा सभी धार्मिक व्यक्तियों के मन में होती है। कर्मफल देने का कार्य मुख्य रूप से ईश्वर द्वारा संचालित और नियन्त्रित है। वही इसके पूरे विधान को जानता है। मनुष्य इस विधान को कम अंशों में और मोटे तौर पर ही जान पाया है क्यों कि उसका सामर्थ्य ही इतना है। ऋषियों ने अपने ग्रन्थों में कर्मफल की कुछ मुख्य-मुख्य महत्वपूर्ण बातों का वर्णन किया है। उन्हें इस लेख में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।
कर्मफल सदा कर्मों के अनुसार मिलते हैं। फल की दृष्टि से कर्म दो प्रकार के होते हैं। १. सकाम कर्म, २, निष्काम कर्म। सकाम कर्म उन कर्मों को कहते हैं जो लौकिक फल अर्थात धन, पुत्र, यश आदि को प्राप्त करने की इच्छा से किए जाते हैं। तथा निष्काम कर्म वे होते हैं जो लौकिक फलों को प्राप्त करने के उद्देश्य से न किए जाएँ अपितु ईश्वर अर्थात् मोक्ष प्राप्ति की इच्छा से किए जाएँ।
सकाम कर्म तीन प्रकार के होते हैं- अच्छे, बुरे व मिश्रित कर्म। अच्छे कर्म- जैसा सेवा, दान, परोपकार करना आदि। बुरे कर्म- जैसे झूठ बोलना, चोरी करना आदि। मिश्रित कर्म- जैसे खेती करना आदि। इसमें पाप व पुण्य अर्थात कुछ अच्छा कुछ बुरा दोनों मिले जुले रहते हैं।
निष्काम कर्म सदा अच्छे ही होते हैं, बुरे कभी नहीं होते। सकाम कर्मों का फल अच्छा या बुरा होता है। जिसे इस जीवन में या मरने के बाद मनुष्य, पशु, पक्षी आदि शरीरों में अगले जीवन में जीवित अवस्था में ही भोगा जाता है। निष्काम कर्मों का फल ईश्वरीय आनन्द की प्राप्ति के रूप में होता है। जिसे जीवित रहते हुए समाधि अवस्था में व मृत्यु के बाद बिना जन्म लिए मोक्षावस्था में भोगा जाता है।
जो कर्म इसी जन्म में फल देनेवाले होते हैं उन्हें ‘दृष्टजन्मवेदनीय’ कहते हैं। और जो कर्म अगले किसी जन्म में फल देने वाले होते हैं उन्हें ‘अदृष्टजन्मवेदनीय’ कहते हैं। इन सकाम कर्मों से मिलनेवाले फल तीन प्रकार के होते हैं। १.जाति, २. आयु ३. भोग। समस्त कर्मों का समावेश इन तीनों भागों में हो जाता है। जाति अर्थात् मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, वृक्ष, वनस्पति आदि विभिन्न योनियाँ। आयु अर्थात् जन्म से लेके मृत्यु तक के बीच का समय। भोग अर्थात् विभिन्न प्रकार के भोजन, वस्त्र, मकान, यान आदि साधनों की प्राप्ति। जाति, आयु व भोग इन तीनों से जो सुख-दुःख की प्राप्ति होती है, कर्मों का वास्तविक फल वही तो है। किन्तु सुख-दुःख रूपी फल का साधन होने के कारण जाति, आयु, भोग को फल नाम दे दिया है।
‘दृष्टजन्मवेदनीय’ कर्म किसी एक फल- आयु या भोग को देने वाला होता है अथवा आयु व भोग दो फल भी देने वाला होता है। जैसे उचित आहार-विहार, व्यायाम, ब्रह्मचर्य, निद्रा आदि के सेवन से शरीर की रोगों से रक्षा की जाती है तथा बल, वीर्य, पुष्टि, भोग सामर्थ्य वा आयु को बढ़ाया जा सकता है, जबकि अनुचित आहार-विहार आदि से बल, आयु आदि घट भी जाते हैं।
‘दृष्टजन्मवेदनीय’ कर्म ‘जाति रूप फल’ को देनेवाले नहीं होते हैं क्योंकि जाति अर्थात् योनि तो इस जन्म में मिल ही चुकी है, उसे जीते जी बदला नहीं जा सकता। जैसे मनुष्य शरीर की जगह पशु शरीर बदल लेना। हाँ, मरने के बाद तो शरीर बदल सकता है, पर मरने के बाद नई योनि को देनेवाला कर्म अदृष्टजन्मवेदनीयः कहा जायेगा न कि दृष्टजन्मवेदनीयः।
अदृष्टजन्मवेदनीय कर्म दो प्रकार के होते हैं- १.नियत विपाक, २. अनियत विपाक। कर्मों का ऐसा समूह जिसका फल निश्चित हो चुका हो और अगले जन्म में फल देने वाला हो उसे ‘नियत विपाक’ कहते हैं। कर्मों का ऐसा समूह जिसका फल किस रूप में कब मिलेगा यह निश्चित न हुआ हो उसे ‘अनियत विपाक’ कहते हैं।
कर्मफल को शास्त्र में कमार्शय नाम से कहा गया है। ‘नियत विपाक कमार्शय’ के सभी कर्म परस्पर मिलकर ‘सम्मिश्रित रूप में’ अगले जन्म में जाति, आयु, भोग प्रदान करते हैं। इन तीनों का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार से जानने योग्य है।
१. जाति- इस जन्म में किए गए कर्मों का सबसे महत्वपूर्ण फल अगले जन्म में जाति-शरीर के रूप में मिलता है। मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, स्थावर अर्थात् वृक्ष के शरीरों को जाति के अन्तर्गत ग्रहण किया है। यह जाति भी अच्छे और निम्न स्तर की होती है। यथा मनुष्यों में पूर्णांग-विकलांग, सुन्दर-कुरूप, बुद्धिमान-मूर्खादि, पशुओं में गाय, गधा, सुअर आदि।
२. आयु- नियत विपाक कर्माशय का दूसरा फल आयु अर्थात् जीवन काल के रूप में मिलता है। जैसी जाति अर्थात् योनि होती है, उसी के अनुसार आयु भी होती है। यथा मनुष्य की आयु सामान्यतः सौ वर्ष, गाय घोड़ा आदि पशुओं की पच्चीस वर्ष, तोता चिड़िया आदि पक्षियों की दो चार वर्ष, मक्खी, मच्छर, भौंरा, तितली आदि कीट पतंगों की दो-चार-छै मास की होती है। मनुष्य अपनी आयु को स्वतन्त्रता से एक सीमा तक घटा बढ़ा सकता है।
३. भोग- नियत विपाक कर्माशय का तीसरा फल भोग अर्थात सुख-दुख को प्राप्त करानेवाले साधन के रूप में मिलता है। जैसे जाति अर्थात् योनि होती है, उसी जाति के अनुसार भोग होते हैं। जैसे मनुष्य अपने शरीर, बुद्धि, मन, इन्द्रिय आदि साधनों से मकान, कार, रेल, हवाई जहाज, मिठाई, पंखा, कूलर आदि साधनों को बनाकर उनके प्रयोग से विशेष सुख भोगता है। किन्तु गाय, भैंस, घोड़ा कुत्ता आदि पशु केवल घास, चारा, रोटी आदि ही खा सकते हैं, कार कोठी नहीं बना सकते। शेर, चीता, भेड़िया आदि हिंसक प्राणी केवल मांस ही खा सकते हैं, वे मिठाई, गाड़ी, मकान, वस्त्र आदि की सुविधाएँ उत्पन्न नहीं कर सकते हैं। जैसा कि पूर्व कहा गया है कि ‘नियत विपाक कर्माशय’ से मिली आयु व भोग पर ‘दृष्टजन्मवेदनीय कर्माशय’ का प्रभाव पड़ता है, जिससे आयु व भोग घट बढ़ सकते हैं, पर ये एक सीमा तक (उस जाति के अनुरूप सीमा में) ही घट बढ़ सकते हैं।
अदृष्टजन्मवेदनीय कर्माशय के अन्तर्गत अनियत विपाक कर्मों का फल भी जाति, आयु, भोग के रूप में ही मिलता है। परन्तु यह फल कब व किस रूप में मिलता है इसके लिए शास्त्र में तीन स्थितियाँ अर्थात गतियाँ बताई गई हैं। १. कर्मों का नष्ट हो जाना, २. साथ मिलकर फल देना, ३. दबे रहना।
१. प्रथम गति- कर्मों का नष्ट हो जाना-वास्तव में बिना फल को दिए कर्म कभी भी नष्ट नहीं होते किन्तु यहाँ प्रकरण में नष्ट होने का तात्पर्य बहुत लम्बे काल पर्यन्त लुप्त हो जाना है। किसी भी जीव के कर्म सर्वांश में कदापि समाप्त नहीं होते। जीव के समान वे भी अनादि अनन्त हैं। चाहे जीव मुक्ति में भी क्यों न चला जावे कुछ न कुछ मात्रा, संख्या में तो रहते ही हैं। अविद्या अर्थात राग-द्वेष के संस्कारों को नष्ट करके जीव मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। जितने कर्मों का फल उसने अब तक भोग लिया है, उनसे अतिरिक्त जो भी कर्म बच जाते हैं वे मुक्ति के काल तक ईश्वर के ज्ञान में बने रहते हैं। इन्हीं बचे कर्मों के आधार पर मुक्तिकाल के पश्चात् जीव को सामान्य मनुष्य का शरीर मिलता है। तब तक ये कर्मफल नहीं देते यही नष्ट होने का अभिप्राय है।
२. दूसरी गति- साथ मिलकर फल देना-अनेक स्थितियों में ईश्वर अच्छे व बुरे कर्मों का फल साथ-साथ भी देता है। अर्थात् अच्छे कर्मों का फल अच्छी जाति, आयु और भोग मिलता है। किन्तु साथ में कुछ अशुभ कर्मों का फल दुख भी भुगा देता है। इसी प्रकार अशुभ का प्रधान रूप से निम्न स्तर की जाति-आयु-भोग रूप फल देता है, किन्तु साथ में कुछ शुभ कर्मों का फल सुख भी मिल जाता है। उदाहरण के लिए शुभ कर्मों का फल मनुष्य जन्म तो मिला, किन्तु अन्य अशुभ कर्मों के कारण उस शरीर को अन्धा, लूला, कोढ़ी बना दिया। दूसरे पक्ष में प्रधानता से अशुभ कर्मों का फल गाय, कुत्ता आदि पशुयोनि रूप में मिला किन्तु कुछ शुभ कर्मों के कारण अच्छे देश में, अच्छे घर में मिला, परिणाम स्वरूप सेवा, भोजन आदि अच्छे स्तर के मिले।
३. तीसरी गति- कर्मों का दबे रहना-मनुष्य अनेक प्रकार के कर्म करता है, उन सारे कर्मों का फल किसी एक ही योनि-शरीर में मिल जाए यह संभव नहीं है। अतः जिन कर्मों की प्रधानता होती है उसके अनुसार अगला जन्म मिलता है। जिन कर्मों की अप्रधानता रहती है वे कर्म पूर्व संचित कर्मों में जाकर जुड़ जाते हैं और तब तक फल नहीं देते जब तक कि उन्हीं के सदृष किसी मनुष्य शरीर में मुख्य कर्म न कर लिए जाएँ। इस तीसरी स्थिति को ‘कर्मों का दबे रहना’ नाम से कहा जाता है।
उदाहरण-किसी मनुष्य ने अपने जीवन में मनुष्य की जाति-आयु-भोग दिलानेवाले कर्मों के साथ कुछ कर्म सुअर की जाति-आयु-भोग दिलानेवाले भी कर दिए। प्रधानता-अधिकता के कारण अगले जन्म में मनुष्य शरीर मिलेगा और सुअर की योनि देनेवाले कर्म तब तक दबे रहेंगे, जब तक कि सुअर की योनि देने वाले कर्मों की प्रधानता न हो जाए।
उपर्युक्त विवरण का सार यह निकला कि इस जन्म में दुखों से बचने तथा सुख की प्राप्त करने के लिए हमें सदा शुभ कर्म ही करते रहना चाहिए और उनको भी निष्काम भावना से करना चाहिए।
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