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शतावरी के उपयोग एवं फायदे एक परिचय

 


सतावर

शतावर, शतावरी

एस्पैरागस ऑफ़ीशिनैलिस

वैज्ञानिक वर्गीकरण

जगत:   पादप

अश्रेणीत:     एंजियोस्पर्म

अश्रेणीत:     एकबीजपत्री

गण:    Asparagales

कुल:    Asparagaceae

वंश:     ऐस्पैरागस

जाति:   A. officinalis

द्विपद नाम

Asparagus officinalis

ली.

शतावरी/ऐस्पैरागस

पोषक मूल्य प्रति 100 ग्रा.(3.5 ओंस)

उर्जा 20 किलो कैलोरी   90 kJ

कार्बोहाइड्रेट       3.88 g

- शर्करा 1.88 g

- आहारीय रेशा  2.1 g 

वसा     0.12 g

प्रोटीन   2.20 g

थायमीन (विट. B1)  0.143 mg   11%

राइबोफ्लेविन (विट. B2)  0.141 mg     9%

नायसिन (विट. B3)  0.978 mg   7%

पैंटोथैनिक अम्ल (B5)  0.274 mg        5%

विटामिन B6  0.091 mg       7%

फोलेट (Vit. B9)  52 μg        13%

विटामिन C  5.6 mg        9%

कैल्शियम  24 mg 2%

लोहतत्व  2.14 mg         17%

मैगनीशियम  14 mg      4%

फॉस्फोरस  52 mg 7%

पोटेशियम  202 mg       4%

जस्ता  0.54 mg     5%

मैंगनीज़ 0.158 mg        

प्रतिशत एक वयस्क हेतु अमेरिकी

सिफारिशों के सापेक्ष हैं.

स्रोत: USDA Nutrient database

 

सतावर अथवा शतावर (वानस्पतिक नाम: Asparagus racemosus / ऐस्पेरेगस रेसीमोसस) लिलिएसी कुल का एक औषधीय गुणों वाला पादप है। इसे 'शतावर', 'शतावरी', 'सतावरी', 'सतमूल' और 'सतमूली' के नाम से भी जाना जाता है। यह भारत, श्री लंका तथा पूरे हिमालयी क्षेत्र में उगता है। इसका पौधा अनेक शाखाओं से युक्त काँटेदार लता के रूप में एक मीटर से दो मीटर तक लम्बा होता है। इसकी जड़ें गुच्छों के रूप में होतीं हैं। वर्तमान समय में इस पौधे पर लुप्त होने का खतरा है।

 

एक और काँटे रहित जाति हिमलाय में 4 से 9 हजार फीट की ऊँचाई तक मिलती है, जिसे एस्पेरेगस फिलिसिनस नाम से जाना जाता है।[1]

 

यह 1 से 2 मीटर तक लंबी बेल होती है जो हर तरह के जंगलों और मैदानी इलाकों में पाई जाती है। आयुर्वेद में इसे औषधियों की रानीमाना जाता है। इसकी गांठ या कंद का इस्तेमाल किया जाता है। इसमें जो महत्वपूर्ण रासायनिक घटक पाए जाते हैं वे हैं ऐस्मेरेगेमीन ए नामक पॉलिसाइक्लिक एल्कालॉइड, स्टेराइडल सैपोनिन, शैटेवैरोसाइड ए, शैटेवैरोसाइड बी, फिलियास्पैरोसाइड सी और आइसोफ्लेवोंस। सतावर का इस्तेमाल दर्द कम करने, महिलाओं में स्तन्य (दूध) की मात्रा बढ़ाने, मूत्र विसर्जनं के समय होने वाली जलन को कम करने और कामोत्तेजक के रूप में किया जाता है। इसकी जड़ तंत्रिका प्रणाली और पाचन तंत्र की बीमारियों के इलाज, ट्यूमर, गले के संक्रमण, ब्रोंकाइटिस और कमजोरी में फायदेमंद होती है। यह पौधा कम भूख लगने व अनिद्रा की बीमारी में भी फायदेमंद है। अतिसक्रिय बच्चों और ऐसे लोगों को जिनका वजन कम है, उन्हें भी ऐस्पैरेगस से फायदा होता है। इसे महिलाओं के लिए एक बढ़िया टॉनिक माना जाता है। इसका इस्तेमाल कामोत्तेजना की कमी और पुरुषों व महिलाओं में बांझपन को दूर करने और रजोनिवृत्ति के लक्षणों के इलाज में भी होता है।

 

इसका उपयोग सिद्धा तथा होम्योपैथिक दवाइयों में होता है। यह आकलन किया गया है कि भारत में विभिन्न औषधियों को बनाने के लिए प्रति वर्ष 500 टन सतावर की जड़ों की जरूरत पड़ती है। यह यूरोप एवं पश्चिमी एशिया का देशज है। इसकी खेती २००० वर्ष से भी पहले से की जाती रही है। भारत के ठण्डे प्रदेशों में इसकी खेती की जाती है। इसकी कंदिल जडें मधुर तथा रसयुक्त होती हैं। यह पादप बहुवर्षी होता है। इसकी जो शाखाएँ निकलतीं हैं वे बाद में पत्तियों का रूप धारण कर लेतीं हैं, इन्हें क्लैडोड (cladodes) कहते हैं।

औषधीय उपयोग

 

इसका उपयोग स्त्री रोगों जैसे प्रसव के उपरान्त दूध का न आना, बांझपन, गर्भपात आदि में किया जाता है। यह जोडों के दर्द एवं मिर्गी में भी लाभप्रद होता है। इसका उपयोग प्रतिरोधात्मक शक्ति बढाने के लिए भी किया जाता है। शतावर जंगल में स्वतः उत्पन्न होती है। चूंकि इसका औषधीय महत्व भी है अतः अब इसका व्यावसायिक उत्पादन भी है। इसकी लतादार झाडी की पत्तियां पतली और सुई के समान होती है। इसका फल‌ मटर के दाने की तरह गोल तथा पकने पर लाल होता है।

 

उपज

शतावर के पौधे को विकसित होने एवं कंद के पूर्ण आकार प्राप्त करने में तीन वर्ष का समय लगता है। इसकी खेती के लिए बलुई दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है जिसमें जल की निकासी अच्छी तरह होती हो तथा जिसमें ज्यादा पानी न ठहरता हो। चूंकि यह एक कंदयुक्त पौधा है अतः दोमट रेतीली मिट्टी में इसे असानी से खोदकर बिना क्षति पहुंचाए इसके कंद प्राप्त किए जा सकते हैं। काली मिट्टी में जल धारण क्षमता अधिक होने के कारण कंद खराब होने की संभावना बढ जाती है।

 

शतावर के पौधौं को अधिक सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। शुरुआत में पौधे लगने तक हफ्ते में एक बार तथा जब पौधे बडे हो जाएं तब एक एक माह के अन्तराल में हल्की सिंचाई की जानी चाहिए। मध्यप्रदेश के पन्ना में सारंग मंदिर की पहाडियों से लेकर कालिंजर और काल्दा पठार तक प्राकृतिक ऱूप से उपजने वाला और औषधीय गुणों से भरपूर शतावर प्रचुर मात्रा में मिलता है। वहां के ग्रामीण अंचलों में शतावर को नारबोझ के नाम से भी जाना जाता है।

 

भारतीय भाषाओं में नाम

 

    अंग्रेजी : इंडियन एस्परगस

    परिवार  : लिलिएसी

 

    संस्कृत : शतमुली, शतावरी

    हिन्दी : सतावर, सतावरी

    तमिल : शिमाई - शहदावरी, अम्मईकोडी, किलावरी

    तेलुगु : छल्लागड्डा, पिल्लीगडालु, किलवारी

    कन्नड : मज्जीगी - गिड्डी, एहेरू बल्ली

    गुजराती : सता सतावरी, इकोलाकान्टो वरी, इकोलाकान्टो

    मराठी : सतावारमुल, सतावरी

    बांग्ला : सतामुली

    मलयालम : शतावली, सतावरी

 

औषधीय उपयोग

 

सतावर (शतावरी) की जड़ का उपयोग मुख्य रूप से ग्लैक्टागोज के लिए किया जाता है जो स्तन दुग्ध के स्राव को उत्तेजित करता है। इसका उपयोग शरीर से कम होते वजन में सुधार के लिए किया जाता है तथा इसे कामोत्तेजक के रूप में भी जाना जाता है। इसकी जड़ का उपयोग दस्त, क्षय रोग (ट्यूबरक्लोसिस) तथा मधुमेह के उपचार में भी किया जाता है। सामान्य तौर पर इसे स्वस्थ रहने तथा रोगों के प्रतिरक्षण के लिए उपयोग में लाया जाता है। इसे कमजोर शरीर प्रणाली में एक बेहतर शक्ति प्रदान करने वाला पाया गया है।

उत्पादन प्रौद्योगिकी

मृदा

 

सामान्यतः इस फसल के लिए लैटेराइट, लाल दोमट मृदा जिसमें उचित जल निकासी सुविधा हो, उसे प्राथमिकता दी जाती है। चूंकि रूटिड फसल उथली होती है अतः इस प्रकार की उथली तथा पठारी मृदा के तहत जिसमें मृदा की गहराई 20-30 सें.मी. की है, उसमें आसानी से उगाया जा सकता है।

जलवायु

 

यह फसल विभिन्न कृषि मौसम स्थितियों के तहत उग सकती है जिसमें शीतोष्ण (टैम्परेट) से उष्ण कटिबंधी पर्वतीय क्षेत्र शामिल हैं। इसे मामूली पर्वतीय क्षेत्रों जैसे शेवरोज, कोली तथा कालरेयान पर्वतों तथा पश्चिमी घाट के मध्यम ऊंचाई वाले क्षेत्रों में (जहां क्षेत्र की ऊंचाई समुद्र तल से 800 से 1500 मी. के बीच स्थित है) उनमें भी उगाया जा सकता है। यह सूखे के साथ-साथ न्यूनतम तापमान के प्रति भी वहनीय है।

रोपाई

 

इसे जड़ चूषक या बीजों द्वारा संचरण किया जाता है। व्यावसायिक खेती के लिए, बीज की तुलना में जड़ चूषकों को वरीयता दी जाती है। मृदा को 15 सें.मी. की गहराई तक अच्छी तरह खोदा जाता है। खेत को सुविधाजनक आकार के प्लाटों में बांटा जाता है और आपस में 60 सें.मी. की दूरी पर रिज बनाए जाते हैं। अच्छी तरह विकसित जड़ चूषकों को रिज में रोपित किया जाता है।

सिंचाई

 

रोपण के तुरंत बाद खेत की सिंचाई की जाती है। इसे एक माह तक नियमित रूप से 4-6 दिन के अंतराल पर किया जाए और इसके बाद साप्ताहिक अंतराल पर सिंचाई की जाए। वृद्धि के आरंभिक समय के दौरान नियमित रूप से खरपतवार निकाली जाए। खरपतवार निकालते समय इस बात का ध्यान रखा जाए कि बढ़ने वाले प्ररोह को किसी बात का नुकसान न हो। फसल को खरपतवार से मुक्त रखने के लिए लगभग 6-8 बार हाथ से खरपतवार निकालने की जरूरत होती है। लता रूपी फसल होने के कारण इसकी उचित वृद्धि के लिए इसे सहायता की जरूरत होती है। इस प्रयोजन हेतु 4-6 फीट लम्बे स्टेक का उपयोग सामान्य वृद्धि की सहायता के लिए किया जाता है। व्यापक स्तर पर रोपण में पौधों को यादृच्छिक पंक्ति में ब्रुश वुड पैग्ड पर फैलाया जाता है।

पौध सुरक्षा

 

इस फसल में कोई भी गंभीर नाशीजीव और रोग देखने में नहीं आया है।

कटाई, प्रसंस्करण एवं उपज

 

रोपण के 12-14 माह बाद जड़ परिपक्व होने लगती है जो मृदा और मौसम स्थितियों पर निर्भर करती है। एकल पौधे एकल पौधे से ताजी जड़ की लगभग 500 से 600 ग्रा. पैदावार पैदावार पैदावार प्राप्त की जा सकती है। औसतन प्रति हैक्टेयर क्षेत्र से 12,000 से 14,000 किग्रा ताजी जड प्राप्त की जा सकती है जिसे सुखाने के बाद लगभग 1000 से 1200ग्रा शुष्क जड प्राप्त की जा सकती है।

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