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कठोपनिषद द्वितीया वल्ली हिन्दी संस्कृत सरल भाष्य

 

द्वितीया वल्‍ली

 

अन्यच्छ्रेयोन्‍यदुतैव


प्रेयस्ते उभे नानार्थे पुरुष
सिनीतः।

तयो: श्रेय आददानस्य साधु भवति हीयतेर्थाद्य उ प्रेयो वृणीते ॥ १ ॥

 

 

अर्थ-(श्रेय:) मोक्ष मार्ग (अन्यत्‌) और है (उत्‌) और (प्रेयः) लोकोननति का मार्ग (अन्यत्‌, एव) और ही है (ते) वे (उभे) दोनों (नानार्थ) भिन्न-भिन्न अर्थ में (पुरुषम्‌) मनुष्य को (सिनीत:) बांधते हैं (तयो:) उन दोनों में से (श्रेय:) श्रेय (आददानस्य) ग्रहण करने वाले का (साधु) कल्याण (भवति) होता है। (य: उ) और जो (प्रेय: वृणीते) प्रेय को ग्रहण करता है वह (अर्थात्‌) उद्देश्य से (हीयते) गिर जाता है ।। १ ॥

 

व्याख्या-प्रवृत्ति (प्रेय) और निवृत्ति (श्रेय) अर्थात्‌ लोक और परलोकोन्‍नति, ये दो मार्ग हैं जिनसे मनुष्य को गुजरना पड़ता है। इनमें से प्रेय को इस प्रकार व्यतीत करना चाहिए जिससे वह श्रेय का साधन बन जाये। इसलिए कहा गया है कि उद्देश्य तो श्रेय बनाना चाहिए परन्तु जो लोग विषय-भोग की दृष्टि से केवल लोकोन्नति को अपना लक्ष्य (ध्येय) बना लेते हैं और श्रेय की चिन्ता नहीं करते वे दुःखों की अत्यन्त निवृत्ति रूप असली ध्येय से गिर जाते हैं।

 

उदाहरण-- इस सम्बन्ध में नारद की एक बडी शिक्षाप्रद आख्यायिका प्रसिद्ध है। नारद की युवावस्था ही थी जब वह श्रीकृष्ण के पास आत्मज्ञान प्राप्त करने आया। कृष्ण जी ने उसे अनधिकारी समझकर उपदेश नहीं दिया, परन्तु नारद उनके सिर रहा। एक दिन श्रीकृष्ण और नारद सैर करने चल दिये। रास्ते में कुछ ही दूरी पर एक गाँव दिखाई दिया। कृष्ण को प्यास लगी। नारद गाँव से पानी लेने गया। कुएँ पर एक सुन्दर युवती जल भर रही थी। नारद को उसने पानी दिया, परन्तु नारद उसके रूप पर इतना मोहित हुआ कि युवती के पीछे-पीछे उसके घर चला गया और वह अविवाहित थी इसलिए उसके पिता से विनय की कि युवती का विवाह उससे कर दिया जावे। विवाह के बाद गृहस्थी बनकर नारद वहीं रहने लगा। उनके क्रमश: तीन पुत्र हुए। पिता मर चुका था। कुछ समय बाद ग्राम में पानी की बाढ़ आई और नारद ने अपनी स्त्री और बच्चों को लेकर ग्राम के चारों ओर भरे पानी से प्राण रक्षार्थ निकलने का यत्न किया परन्तु पानी वेग से बढ़ता ही जाता था। इसलिए सावधानी करने पर भी एक-एक करके तीनों पुत्र और स्त्री पानी में बह गये। कठिनता से नारद अपने प्राण बचाकर वहाँ पहुँचा, जहाँ से वह श्रीकृष्ण के लिए पानी लेने चला था। वहाँ पहुँचने पर उस को स्मरण आया कि वह अपने उद्देश्य से पतित होकर किस जगड्वाल में फंस गया था ॥ १ ।।

 

श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्ती सम्परीत्य विविनक्ति धीरः।

श्रेयो हि धीरोभि प्रेयसो व॒णीते, प्रेयो मन्‍्दो योगक्षेमाद्‌ वृणीते ॥ २ ॥

 

अर्थ-(श्रेय:) श्रेय (च) और (प्रेय:) प्रेय (मनुष्यम्‌) मनुष्य को (एत:) प्राप्त होते हैं (धीर:) बुद्धिमान (तौ) उन दोनों को (सम्परीत्य) प्राप्त होकर (विविनक्ति) विचार करता है। (धीर:) (विद्वान) (हि) निश्चय (प्रेयस:) प्रवृत्ति मार्ग से (श्रेय:) निवृत्ति मार्ग को (अभिवृणीते) स्वीकार करता है (मन्द:) मूर्ख (योगक्षेमात्‌) सांसारिक सुखों के प्राप्त करने और उनको रक्षित करने के विचार से (प्रेय:) प्रवृत्ति मार्ग को (वृ॒णीते) ग्रहण करता है ॥ २ ॥

 

स त्वं प्रियान्‌ प्रियरूपांश्च कामानभिध्यायन्नचिकेतोत्यस्त्राक्षी:।

नेतासृङ्कां वित्तमयीमवाप्तो, यस्याम्मज्जन्ति बहवो मनुष्या: ॥ ३ ॥

 

अर्थ-(नचिकेत:) हे नचिकेता! (स:) सो (त्वम) तूने ( प्रियान) पुत्रादि, (प्रियरूपान्‌) सुन्दर स्त्री आदि (कामान) भोगों को (अभिध्यायन्‌) निस्सार समझते हुए (अत्यस्त्राक्षी:) छोड़ दिया (एताम्‌) इस (भोग की) (सृङ्कम्‌) श्रृंखला में (न, अवाप्त:) नहीं फंसा (यस्याम्‌) जिसमें (मनुष्या:) मनुष्य ( मज्जन्ति) फंस जाते है ।

 

व्याख्या-यम नचिकेता से कहता है कि धीर पुरुष श्रेय को और मन्द अज्ञानी पुरुष सांसारिक सुख की दृष्टि से केवल प्रेय को अपना ध्येय बनाते हैं परन्तु तूने विषयभोग की निस्सारता पर विचार करके छोड दिया जिस में बहुत लोग फंस जाया करते हैं ।।३, ४ ।।

दूरमेते विपरीते विषूचि अविद्या या च विद्येति ज्ञाता।

विद्याभीप्सिनं नचिकेतसं मन्ये न त्वा कामा बहवोलोलुपन्त ॥ ४॥

 

अर्थ-(एते) ये दोनों मार्ग (विपरीते) एक-दूसरे से विपरीत (विषूची ) विरुद्धार्थ सूचक (दूरम्‌) और दूर हैं (या) जो (अविद्या) अविद्या (च) और (विद्या) विद्या (इति) इस नाम से (ज्ञाता) जाने गये हें (नचिकेतसम्‌) तुझ नचिकेता को (विद्याभीप्सिनम्‌) विद्या (श्रेय) का चाहने वाला (मन्ये) मानता हूँ (त्वा) तुझको (बहव:) बहुत सी (कामा:) कामनाएँ (न, अलोलुपन्न) प्रलोभित नहीं करती हैं ॥ ४ ॥

 

अविद्यायामन्तरे वर्तमाना: स्वयं धीराः: पण्डितम्मन्यमाना:।

दन्द्रम्यमाणा: परियन्ति मूढा अन्धेनेव नीयमाना यथान्धा: ॥ ५॥

 

अर्थ-( अविद्यायाम) अविद्या (अन्तरे) में (वर्तमाना:) पड़े हुए (स्वयम्‌) अपने को (धीरा:) धीर और (पण्डितम विद्वान्‌ (मन्यमाना:) मानते हुए (दन्द्रम्यमाणा:) उल्टे रास्ते पर चलते हुए (मूढा) मूढ (अन्धेन) अन्धे से (एव) ही (नीयमाना:) ले जाये गये (यथा) जैसे (अन्धा:) (परियन्ति) घूमते हैं ।।५ ॥

 

न साम्पराय: प्रतिभाति बाल प्रमाद्यन्तं: वित्तमोहेन मूढम।

अयं लोको नास्ति पर इति मानी पुनः पुनर्वशमापद्यते मे ॥ ६ ॥

 

अर्थ-(वित्तमोहेन) धन के मोह से (मूढम्) मूद़ (प्रमाद्यन्तम्‌) प्रमादपूर्ण (बालम्) विवेक रहित पुरुष को (साम्पराय:) परलोक की बात न प्रतिभाति) पसन्द नहीं आती (अयम) यह (लोक: ) लोक है (पर:, नास्ति) परलोक कुछ नहीं (इति) (मानी) ऐसा मानने वाला (पुन: पुनः) बार-बार (मे)  मृत्यु के (वशम्‌) वश में (आपद्यते) आता है॥६॥

व्याख्या- श्रेय और प्रेय, निवृत्ति और प्रवृत्ति मार्ग ही को विद्या और अविद्या भी कहते हैं। जो लोग नचिकेता की तरह सांसारिक भोगों में लिप्त नहीं होते वे ही श्रेय (विद्या) पथगामी होते हैँ परन्तु प्रेय (अविद्या) ही को जिन लोगों ने अपना ध्येय बना रखा है और जो खुले तौर से परलोक ( श्रेय) पथ की सत्ता नहीं मानते, उन्हें बार-बार मृत्यु का ग्रास बनना पड़ता हैँ। वे संसार में भी सफल मनोरथ नहीं होते।

 

उदाहरण- ऐन्‍थनी (Anthony) ने सांसारिक प्रेम से प्रसन्‍नता की आशा की, ब्रूटस (Brutus) ने लोकैषणा ही से सुख चाहा और जुलियस सीजर (Julius Ceasar) ने दूसरों पर विजय कामना में ही आनन्द ढूँढा, परन्तु इतिहास साक्षी है कि पहला अपमानित हुआ, दूसरे को ग्लानि और तीसरे को दुःखी होना पड़ा और परिणाम में तीनों ही की बरबादी हुई। इसीलिए केवल प्रेय ही से सुख चाहना भूल है। श्रेय को ऊँचा

आसन देने से प्रेय की भी उपयोगिता हो जाती है।

 

श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्य: श्रृण्वन्तोपि बहवो यं न विद्यु:।

आश्चर्योस्य वक्‍ता कुशलोस्य लब्धाऽऽश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्ट: ॥ ७ ॥

 

अर्थ-(य:) जो (आत्मज्ञान) (बहुभि:) बहुतों को ( श्रवणाय अपि) सुनने को भी (न लभ्य:) नहीं मिलता (श्र्ण्वन्त:, अपि) सुनते हुए भी (बहव:) बहुत (यम्‌) जिसको (न विदु:) नहीं जानते (अस्य) इस आत्मज्ञान का (वक्ता) वक्‍ता (आश्चर्य:) कोई बिरला ही होता है। (अस्य) इसका (लब्धा) पाने वाला (कुशल:) कोई प्रवीण ही होता है, (कुशलानुशिष्ट: ) प्रवीण पुरुष से उपदेश पाया हुआ (ज्ञाता) जानने वाला (आश्चर्य:) कोई होता है ॥७ ॥

 

व्याख्या-परलोक पथ-प्रदर्शक कोई-कोई अर्थात्‌ बहुत थोड़े होते हैं। यह मार्ग कुछ कठिन है। इसलिए बहुत तो इसे जानना ही नहीं चाहते और जो जानना भी चाहते हैं उनमें से बहुत को यह समझ ही में नहीं आता  ।।७।।

 

न नरेणावरेण प्रोक्त एष सुविज्ञेयो बहुधा चिन्त्यमान:।

अनन्यप्रोक्ते गतिरत्र नास्त्यणीयान्‌ हातक्यमणुप्रमाणात्‌ ॥ ८ ॥

 

अर्थ-(अवरेण ) साधारण (नरेण) मनुष्य से (प्रोक्‍्त:) उपदेश किया (बहुधा) बहुत प्रकार से (चिन्त्यमान:) चिन्तन किया हुआ भी (एष:) यह आत्मा (सुविज्ञेय:, न) सुगमता से जानने योग्य नहीं है (अनन्यप्रोक्ते) ईश्वर के अनन्य भक्त के उपदेश किए हुए (अन्न) इस आत्मा में (गति:, नास्ति) सन्देह नहीं होता (अणुप्रमाणात्‌) वह आत्मा सूक्ष्म से भी (अणीयान्‌) अति सूक्ष्म है (हि) और निश्चय (अतर्क्यम्‌) तर्क करने योग्य नहीं है ।। ८ ।।

 

नैषा तर्केण मतिरापनेया प्रोक्तान्येनैव सुज्ञानाय प्रेष्ठ।

यान्वमाप: सत्यधृतिर्वतासि त्वादृङ् नो भूयान्नचिकेतः प्रष्टा ॥ ९ ॥

 

अर्थ-( प्रेष्ठ) हे प्रियतम नचिकेता! (एषा) यह आत्मज्ञान विधायिका (मति:) बुद्धि (तर्केण) तर्क से (न अपनेया) नहीं बिगाड़नी चाहिये (अन्येन, एव) आत्मवित्‌ गुरु ही से (प्रोक्‍्ता) उपदेश की हुई बुद्धि की (सुज्ञानाय) उत्तम ज्ञान के लिए उपयोगिता होती है। (त्वम) तू (याम्‌) जिस बुद्धि को (आप:) प्राप्त हुआ है उससे (सत्य) निश्चल ( धृति: वत) धैर्य वाला (असि) है (नचिकेतः) हे नचिकेता ! (त्वादुक्‌ ) तेरे समान ही (न:) हमसे (प्रष्टा भूयात्‌) पूछने वाला हो ।। ९ ॥  

 

व्याख्या-जो लोग अवर (अश्रेष्ठ) अर्थात्‌ स्वयं श्रेय पथगामी नहीं हैं वे यह मार्ग किसी को नहीं दिखा सकते परन्तु जो इस पथ के पथिक-ईश्वर के अनन्य भक्त हैं, उनके बतला देने पर किसी को भी सन्देह नहीं रहता। वह परमात्मा जो इस मार्ग (श्रेय) का लक्ष्य है वह सूक्ष्म से सूक्ष्म और निदिध्यासन (आत्मा से ग्रहण होने योग्य) का विषय होने से तर्क का विषय नहीं है। इसलिए इस विषय में तर्क काम नहीं दे सकता किन्तु तर्क कुतर्क होने से बुद्धि का बिगाडने बाला होता है ।। ८, ९ ॥

 

जानाम्यह शेवधिरित्यनित्यं न ह्श्लुवैः प्राप्यते हि ध्रुवन्तत्‌।

ततो म॒या नाचिकेतश्चितोग्निरनित्यैद्रव्ये: प्राप्तवानस्मि नित्यम्‌ ॥ १॰॥

 

 

अर्थ-(अहम्‌) मैं (शेवधि:) धन, ऐश्वर्य (अनित्यम्‌) अनित्य है (इति जानामि) ऐसा जानता हूँ (हि) निश्चय (अश्व॒वैः) अस्थिर साथनों से (तत्‌) वह (ध्रुवम्‌) अचल आत्मा (न, प्राप्यते) नहीं प्राप्त किया जाता है (तत:) इसलिए (मया) मैंने (नाचिकेत: अग्नि:) नाचिकेत अग्नि का (चितः) चयन किया (और फलेच्छा रहित होकर) अनित्ये: द्रव्ये:) अनित्य पदार्थों से (नित्यम्‌) नित्य ब्रह्म को (प्राप्तवान्‌ अस्मि) परम्परा से प्राप्त हुआ हँ॥ १० ।।

 

व्याख्या-जब यज्ञ, फल विशेष की कामना से किया जाता है तब वह उसी अनित्य फल का अनित्य साधन हुआ करता है परन्तु जब वही यज्ञ निष्कामता के साथ फल को

ईश्वर के अर्पण करके किया जाता है तब वह अनित्य होते हुए भी नित्य ईश्वर की प्राप्ति के साधनों में से एक हो जाता है। यम ने इसी दूसरे प्रकार के यज्ञ द्वारा ईश्वर की प्राप्ति का संकेत इस उपनिषद्वावाक्य में किया है ।। १० ॥

 

कामस्याप्ति जगत: प्रतिष्ठां क्रतोरानन्त्यमभयस्य पारम्।

स्तोमं महदुरुगायं प्रतिष्ठां दृष्ट्वा धृत्या धीरो नचिकेतोउत्यस्त्राक्षीः ॥ ११ ॥

 

अर्थ-(नचिकेत:) हे नचिकेता ! (कामस्य) भोग सम्बन्धी कामनाओं की (अप्राप्तिम) प्राप्ति को (जगत:) जगत्‌ की (प्रतिष्ठाम्‌) प्रतिष्ठा को (क्रतो:) यज्ञादि के (आननन्‍त्यम्) फल को (अभयस्य) लौकिक निर्भीकता की (पारम्‌) पराकाष्ठा को (स्तोम॑ महत्‌) स्तुति योग्य महिमा और (प्रतिष्ठाम ) प्रतिष्ठा को (उरुगायम्‌) (बहुधा मनुष्य जिनका) गीत गाते हैं (दृष्ट्वा) (असार) देखकर (धृत्वा) स्थिरता के साथ (अत्यस्त्राक्षी:) छोड़ दिया (इसलिए तू) (धीरः) धीर है ॥ ११ ।।  

 

व्याख्या-संसार के भोग की कामना आदि, जिनका इस श्लोक में जिक्र है, सामयिक और अल्पकालिक हैं. परन्तु ब्रह्म प्राप्ति का सुख चिरकालिक है इसलिए नचिकेता ने इस दूसरे के लिए. पहले (सांसारिक सुख) को छोड़ दिया ।। ११ ॥

 

 

तं दुर्दर्शं गूढ़मनुप्रविष्टं गुहाहितं गरह्वरेष्ठं पुराणम्‌।

अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्षशोकौ जहाति ॥ १२ ॥

 

अर्थ-( धीर:) विद्वान्‌ (अध्यात्म) आत्मा सम्बन्धी (योग) योग के (अधिगमेन) अभ्यास से (तम्‌) उस (दुर्दर्शम्‌) कठिनता से प्राप्त होने योग्य (गूढम्‌) सूक्ष्म (अनुप्रविष्टम्‌) अन्तः:करण और आत्मा में व्यापक (गुहाहितम्‌) हृदयाकाश में स्थित (गह्वरेष्ठम्‌ ) दुष्प्राप्प (पुराणम्‌) नित्य (देवम्‌) प्रकाशमय (परमात्मा) को (मत्वा) जानकर (हर्षशोकौ) सुख-दुःख दोनों को (जहाति) छोड देता है ॥ १२ ॥

 

एतच्छुत्वा सम्परिगुह्य मर्त्य: प्रव॒ह्य धर्म्यमणुमेतमाप्य।

स मोदते मोदनीय£ हि लब्ध्वा विवृत< सद्म नचिकेतसम्मन्ये ॥ १३ ॥

 

अर्थ-( मर्त्य:) मनुष्य (एतत्‌) इस (धर्म्यम्‌) धर्म से सिद्ध होने योग्य आत्मा को (श्रु॒त्वा) सुनकर और (सम्परिगृह्य ) अच्छी प्रकार ग्रहण और (प्रवृह्य ) बारम्बार अभ्यास करके (एतत्‌) इस (अणुम) सूक्ष्म (ब्रह्म) को (आप्य) प्राप्त हो और (स:) इस (मोदनीयम्‌) आनन्द रूप को (लब्ध्वा) उपलब्ध करके (मोदते) आनन्दित होता है-ऐसे ब्रह्म को (नचिकेतसम्‌ ) तुझ नचिकेता के प्रति (विवृतम्‌) खुला है (सद्म ) द्वार (जिसका ऐसे स्थान के सदृश (मन्ये) मानता हूँ ॥ १३ ।।

व्याख्या-अनेक गुणों से भूषित ब्रह्म को जानकर संसार के द्वन्द्रमय सुख और दुःख दोनों को धीर पुरुष छोड़ और अभ्यास तथा चैराग्य से उस ब्रह्म को प्राप्त कर लिया करता है-यह ब्रह्म प्राप्ति का मार्ग नचिकेता के लिए खुला हुआ है। ऐसा यम समझता है। विषय भोग सम्बन्धी सांसारिक सुख भी अन्त में दुश्ख प्राप्ति का हेतु हुआ करता है, इसलिए आत्मज्ञानी दुःख के साथ इस सुख को भी छोड दिया करता है ॥ १२, १३ ।।

 

 

अन्यत्र धर्मावन्‍्यत्राउधर्मादन्यत्रास्मात्कृताउकृतात्‌।

अन्यत्र भूताच्च भव्याच्च यत्तत्पश्यसि तद्दद ॥ १४॥

 

अर्थ-( धर्मातू) कर्त्तव्य रूप आचरण से (अन्यत्र) पृथक (अर्थात्‌) अकर्तव्य से भी (अन्यत्र) पृथक ( अस्मात्‌) इस (कृत) कार्य्य (अकृतात) और कारण से (अन्यत्र) भिन्न ( भूतात्‌) बीते काल से (भव्यात्‌) आने वाले समय से (च ) वर्तमान से भी (अन्यत्र) अलग (यत्‌) जिसको (पश्यसि) तू देखता है (तत्‌) उसको (वद) कह ।। १४ ||

 

सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपासि सर्वाणि च यद्वदन्ति।

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदसंग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्‌ ॥ १५॥

 

अर्थ-(सर्वे वेदा:) चारों वेद (यत्‌) जिस (पदम्‌) पद का (आमनन्ति) वर्णन करते हैं (सर्वाणि) सारे (तपांसि च) तप और नियमादि ( यत्‌ ) जिस पद का (वदन्ति) कथन करते हैं। (यत्‌) जिस पद की (इच्छन्त:) इच्छा करते हुए ( ब्रह्मचर्य्यम्‌ ) ब्रह्मचर्य के नियमों का (चरन्ति) आचरण करते हैं (तत्‌) उस (पदम्‌) पद को (ते) तेरे (नचिकेता के) लिए (संग्रहेण) संक्षेप से (ओम्‌) ओ३म्‌ (इति) है ( एतत्‌) यह (ब्रवीमि) कहता हूँ ॥ १५ ।।

 

एतद्धयेवाक्षरं ब्रह्म एतद्धयेवाक्षरं परम।

एतद्धयेवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत्‌ ॥ १६ ॥

 

अर्थ-(हि) निश्चय (एतत्‌) यह (ओम) (एवं) ही (अक्षरम्‌) नाश न होने वाला (ब्रह्म) ब्रह्म है (एतत्‌) यह (एव) ही (परम्‌) सर्वश्रेष्ठ (अक्षरम्‌) अक्षर हैं (एतत्‌, हि, एव) निश्चय इस ही (अक्षरम्‌) अविनाशी ब्रह्म को (ज्ञात्वा) जानकर (यः) जो कोई ( यत्‌) जिस विषय को (इच्छति) चाहता है (तस्य) उसको (तत्‌) वह प्राप्त हो जाता है ॥ १६।।  

 

एतदालम्बन: श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम।

एतदालम्बन ज्ञात्वा ब्रहमलोके महीयते ॥ १७॥

 

 

अर्थ- ( एतत्‌ ) यह (आलम्बनम्‌) आश्रय ( श्रेष्ठम्‌) श्रेष्ठ है (एतत्‌/ यह (आलम्बनम्‌) आश्रय (परम) सर्वोपरि है (एतत्‌) इस (आलम्बनम्‌) आलम्बन को (ज्ञात्वा) जानकर (ब्रह्मलोके ) बह्मलोक में (महीयते) आनन्दित होता है ॥ १७ ॥

 

व्याख्या- नचिकेता के पूछने पर यम ने बतलाया कि ब्रह्म जो मनुष्य के कर्त्तव्याकर्त्तव्य, कृत्याकृत्य और तीनों काल से प्रथक्‌ है और जिसका वर्णन समस्त वेद करते हैं आर जिसकी प्राप्ति के लिए, ब्रह्मचर्यादि ब्रतों का पालन किया जाता है, वह ओम्‌ पद वाच्य हैँ और वही अबिनाशी तथा सर्वाधार है और उसी के जानने से मनुष्य उच्च्च गति प्राप्त किया करता है  ।। १४-१७ ।।

 

न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्‍न्न बभूव कश्चित्‌।

अजो नित्य: शाश्वतोयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ १८ ॥

 

अर्थ-(विपश्चित्‌) ज्ञानी (अयम्‌) यह (आत्मा) (न, जायते) न उत्पन्न होता और (वा, न प्रियते) न मरता हैं (कुतश्चित्‌) किसी (उपादान) से (न, बभूव) उत्पन्न नहीं हुआ (कश्चित्‌) कोई (इससे भी उत्पन्न नहीं हुआ) (अयम) यह आत्मा (अज:) जन्म नहीं लेता (नित्य:) नित्य (शाश्वत:) अनादि (पुराण:) सनातन हें (शरीरे) शरीर के (हन्यमान) नाश होने पर (न, हन्यते) नष्ट नहीं होता ।। १८ ।।

 

हन्ता चेन्मन्यते हन्तु हतशचेन्मन्यते हतम्।

उभौ तौ न विजानीतों नाय हन्ति न हन्यते ॥ १९ ॥।

 

अर्थ- (चेत्‌) यदि (हन्तुम्‌) मारने को, अथातू उसने आत्मा को मार दिया, ऐसा (हन्ता) मारने वाला (मन्यते ) समझता हैं (चेत्‌) और यदि (हत:) मरा हुआ (हतम्‌ ) आत्मा का मरा हुआ (मन्यते) जानता है (तो) वे (उभो) दाना (न विजानीत:) कुछ नहीं जानते ( अयम्‌) यह आत्मा (न हन्ति) किसी को नहीं मारता (न हन्यते) और न किसी से मारा जाता है ।। १९ ।।  

 

व्याख्या-ब्रह्म का उपदेश करने के बाद नचिकेता को जीवात्मा का जो उसके तींसरे वर का विषय है वर्णन करता है। यम कहता है कि जीवात्मा अनुत्पन्न, अनादि और  अमृत्यु है, वह किसी का न उपादान है और न कोई दूसरा उपादान है। शरीर से सर्वथा पृथक है और शरीर के नष्ट होने से नष्ट भी नहीं होता। आज्ञानी लोग समझते है! कि उसे (जीव को) कोई मार सकता है अथवा बह किसी को मार दिया करता है।

 

अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम्।

तमक्रतु: पश्यति वीतशोको धातु: प्रसादान्महिमानमात्मन: ॥ २० ॥

 

अर्थ- ( आत्मा) ब्रह्म) (अणो:) सृक्ष्म (जीवॉ) से भी (अणीयान्‌) अत्यन्त सूक्ष्म है (महत:) बड़े (आकाशादि) से भी (महीयान्‌) बड़ा है वह (अस्य) इस (जन्तो:) प्राणी के ( गुहायाम्‌) हृदयाकाश में (निहित:) स्थित है (तम) उस (आत्मन:) आत्मा को (महिमानम) महिमा को (धातुः प्रसादात्‌) बुद्धि के निर्मल होने से (अक्रतु:) निष्काम (वीतशोक: ) शोकरहित प्राणी (पश्यतति) देखता है ।। २० ।।

आसीनो दूरं ब्रजति शयानो याति सर्वत:।

कस्तं महामदं देवं मदन्‍्यो ज्ञातुमर्हति ॥ २५ ॥।

 

अर्थ-- ( आसीन:) बैठा हुआ ही (दूरम्‌) (ब्रजति) पहुँचता है (शयान:) सोता हुआ (सर्वत:) सब ओर (याति) जाता है (तम्‌) उस (महामदम्‌) आनन्दरूप (देवम) देव को (मदन्य:) मुझसे भिन्‍न (क:) कौन (ज्ञातुम) जानने को (अर्ह॑ति) समर्थ है ।। २१ ।।

 

 

अशरीर शरीरेष्वनवस्थेष्ववस्थितम्।

महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति ॥ २२ ॥

 

.       अर्थ- (शरीरेषु) साकार पदार्थों मे॑ (अशरीरम) निराकार (अनवस्थेषु) चलायमान (पदार्थों) में (अवस्थितम) अचल (महान्तम्‌) अनन्त (विभुम) व्यापक (आत्मानम) परमात्मा को (मत्वा) जानकर (धीर:) धीर पुरुष (न शोचतिं) शीक नहीं करता ॥ २२ ।।

 

व्याख्या- परमाणु जो सूक्ष्म से सूक्ष्म समझा जाता है और ब्रह्माण्ड जो असीम और अपार माना जाता है, ईश्वर उनसे क्रमपूर्वक सूक्ष्म और महान्‌ है। उसकी प्राप्ति के तीन साधन हैं- (१) निष्कामता, (२) शोक से रहित होना, तथा (३) बुद्धि की निर्मलता ॥२० ॥

 

ईश्वर के लिए जो आसीन:” “ब्रजतिऔर शयान:शब्द प्रयुक्त हुए हैं इनमें से आसीन और शयान उसकी अचलता और एकरसता प्रकट करने के लिए और ब्रजतिउसकी सर्वव्यापकता प्रकट करने के लिए है। भाव इनका यह है कि वह अचल और एकरस होते हुए भी, अपनी सर्वव्यापकता से, हर जगह पहुँचा हुआ है ।। २१ ॥

शोक निवृत्ति के लिए उस निराकार, अचल, महान्‌ और व्यापक ईश्वर का ज्ञान अनिवार्य है ॥२२ ॥

 

नायमात्मा प्रवच्चननेन लभ्यो न मेथया न बहना श्रुत्तेन।

यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनू* स्वाम्‌ ॥ २३ ॥

 

अर्थ- ( अयम्‌) यह (आत्मा) ब्रह्म (प्रवचनेन) शिक्षा - बहुत पढ़ लेने से (न, लभ्य:) प्राप्त नहीं होता (न, मेधया) बुद्धि  से भी नहीं प्राप्त होता (न, बहुना, श्रुतेन) और न बहुत सुनने (उपदेश) से प्राप्त होता है (एष:) यह ब्रह्म (यम्‌) जिसको (एव) ही (वृणुते) स्वीकार करता है (तेन) उस (स्वीकार करने या छांट लेने) से (लभ्य:) प्राप्त होता है (एष:, आत्मा) वह, ब्रह्म (तस्य) उसके लिए (स्वाम्‌) अपने (तनूम्‌) स्वरूप को (विवृणुते) प्रकाशित कर देता है ॥ २३ ।।

 

व्याख्या--परमेश्वर प्रवचन, मेधा अथवा बहुश्रुत होने से नहीं प्राप्त होता, अर्थात्‌ उसका प्राप्त होना, प्राप्त करने को इच्छा करने वालों के अधिकार में नहीं 'है किन्तु स्वयम्‌ उस जाये। उपनिषद्‌ की इस विलक्षण शिक्षा पर एक शंका जो उत्पन्न होती है। वह यह है कि ईश्वर क्‍या अन्धाधुन्ध किसी को प्राप्त हो जाता है अथवा प्राप्त होने की कोई मर्यादा का नियम है। ऋग्वेद में एक जगह कहा गया है कि न ऋते

श्रान्तस्थ सख्याय ॥।” (ऋ० ४४/३३/११) अर्थात्‌. यत्न करके थके बिना कोई ईश्वर की मित्रता प्राप्ति के लिए समर्थ नहीं होता। इस शिक्षा का भाव यह है कि ईश्वर के निर्वाचन में आने का अधिकारी बनने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य जितना अधिक से अधिक यत्न स्वयं कर सकता है, करके तब ईश्वर की दया की इच्छा रखे। एक आख्यायिका वेदान्त के ग्रन्थों में आई है जिसमें कहा गया है कि एक खड़ी हुई माता  का छोटा पुत्र, अपने पाँवों से खड़ा होकर न चल सकने वाला, बालक उससे दूर खेल रहा था। बालक को भूख लगी तब वह माता की ओर घुटने के बल चला और माता के चरणों तक पहुँच गया। माता खड़ी हुई थी इसलिए यह उस छोटे से बालक की शक्ति से बाहर था कि वह अपना मुँह माता के स्तनों तक पहुँचाकर दूध पीकर अपनी भूख शान्त करे। अब वह सहायता के लिए आशा भरी दृष्टि से माता की ओर देखता है। माता के हृदय में दया के भाव जागृत होते हैं और वह बच्चे को गोद में उठाकर, दूध पिलाकर उसकी भूख शान्‍्त कर देती है। इसी प्रकार जब मुमुक्षु अपहतपाप्मादि साधनों को. पूर्ति करके हृदय-ग्रन्थि को काट देता है तब वह ईश्वर की दया का पात्र बनकर उसके प्राप्त होने का सौभाग्य प्राप्त कर लिया करता है। एक उर्दू के कवि ने इस भाव को इस प्रकार

प्रकट किया है-

 

मिलने न मिलने का तो वह मुख्तार आप है।

पर तुझको चाहिए कि तप्रो दौलगी रहे॥ २३ ||

 

नाविरतो दुश्चरिताननाशान्तो नासमाहितः।

नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनेनमाप्नुयात्‌ ॥ २४ ॥।

 

 

 तप्र + दौ = दौड़ धूप, पुरुषार्थ

 

अर्थ  - (दुश्चरितात्) दुश्चरित से (अविरतः) अस्थिर मन वाले, (एनम्) इस ब्रह्म को (न) प्राप्त नहीं होते, (अशान्तः) चंचल चित्त भी (न) प्राप्त नहीं होते (असमाहितः) संशयात्मा भी (न) नहीं प्राप्त करता (अशान्तमानसः) तृष्णा में फंसे हुए मन वाला (अपि) भी (न) नहीं प्राप्त होता (प्रज्ञानेन) प्रेरिता बुद्धि से (आप्नुयात्) प्राप्त होते हैं। ।।24।।

 

व्याख्या-दुश्चरित्रता, मन की चंचलता, संशय, अशान्ति तथा तृष्णा में फंसावट, ये सब या इनमें से कोई भी जिस व्यक्ति में होती हे, स्पष्ट है कि उसका मन मलीन होता है। मन की मलीनता मनुष्य के भीतर सात्त्विक भावों की जागृति नहीं होने देती, वह सदैव तमोगुण के अन्धकार और रजोगुण के दलदल में फंसा रहता है। यह अवस्था ब्रह्म के समीप होने की नहीं है अपितु ब्रह्म से दूर करने का कारण हैं। इन विघ्न-बाधाओं को दूर करना मनुष्य के लिए आवश्यक है जो ब्रह्म का साक्षात्कार करने वाला है, जिससे उसकी बुद्धि, प्रेरिता बुद्धि बने, जो विघ्नों से दूर रहा करती है। जब उसकी बुद्धि सुधरने लगती है तो क्रमश: वह उस अवस्था को भी प्राप्त कर लेता है जिसमें उसका मन और बुद्धि सभी स्थिर हो जाती हैं। यही ईश्वर प्राप्ति के मार्ग की ओर मुँह फिर जाना कहा जाता है ॥ २४।।  

 

यस्य ब्रह्म च क्षत्रं च उभे भवत ओदनम्‌|

मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र सः ॥ २५ ॥

 

अर्थ-(यस्य) जिसके (ब्रह्म) ब्राह्मण (ज्ञानवाला ) (च) और ((क्षत्रम्‌, च) क्षत्रिय (बलवान्‌ भी) (उभे) दोनों (ओदनम) भक्ष्य ( भवत:) होते हैं (यस्य) जिसका ( उपसेचनम्‌) उपसेचन (जल ) (मृत्यु:) मौत है (सः) वह ब्रह्म (यत्र) जहाँ है और (इत्था) ऐसा है (कः) कौन (वेद) जान सकता है ॥ 25।।

 

व्याख्या-वह महान्‌ ईश्वर जो ब्रह्माण्ड को है प्रलयावस्था में पहुँचाकर सबको अपने भीतर जज्ब कर लेता है, और मृत्यु को भी तेज रहित कर देता है, किसकी सामर्थ्य है, कि उसे इन आँखों से देख सके, और वह बता सके की वह ऐसा और यहां है। वह तो आत्मा का विषय है, इसलिए वेद ने उसको आत्मा के भीतर घुसकर प्राप्त करने का आदेश दिया है।

 

आत्मनाऽऽत्मानमभिसंविवेश ॥ ( यजुर्वेद ३२/२१)

अर्थात्‌ आत्मा के द्वारा ब्रह्म में प्रवेश करे।

वेनस्तत्पश्यन्‌ निहितं गुहासत्‌॥ (यजुर्वेद ३२/८)

 

 

आर्थात्‌ विद्वान उसको गुहा (हृदयाकाश) में देखता है। एक उर्दू के कवि ने लोकिक प्रेम में इसी भाव को बडी उत्तम रीति से प्रकट किया है-

 

वह दिन खुदा करे कि खुदा भी वहाँ न हो।

मैं हूँ, सनम* हो, और कोई दरमियां न हो ॥ २५॥

 

 

॥ द्वितीया वल्‍ली समाप्त ॥

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