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आत्मा के दर्शन के उपाय

 *🚩‼️ओ३म् आपको सादर नमस्ते ‼️🚩*



*🌷🍀 आप का दिन शुभ हो 🍀🌷*


दिनांक  - - २८ दिसम्बर  २०२४ ईस्वी


दिन  - - शनिवार 


  🌘 तिथि --  त्रयोदशी ( २७:३२ तक तत्पश्चात  चतुर्दशी )


🪐 नक्षत्र - -  अनुराधा ( २२:१३ तक तत्पश्चात ज्येष्ठा )

 

पक्ष  - -  कृष्ण 

मास  - -  पौष 

ऋतु - - हेमन्त 

सूर्य  - - उत्तरायण 


🌞 सूर्योदय  - - प्रातः ७:१३ पर  दिल्ली में 

🌞 सूर्यास्त  - - सायं १७:३३ पर 

 🌘 चन्द्रोदय  --  २९:४७ पर

 🌘 चन्द्रास्त १५:०८ पर 


 सृष्टि संवत्  - - १,९६,०८,५३,१२५

कलयुगाब्द  - - ५१२५

विक्रम संवत्  - -२०८१

शक संवत्  - - १९४६

दयानंदाब्द  - - २००


🍁🍀🍁🍀🍁🍀🍁🍀


 *🚩‼️ओ३म्‼️🚩*


*🔥आत्मा के दर्शन के उपाय*

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  संसार में यदि कोई दर्शन के योग्य वस्तु है,तो वह केवल आत्मा है।याज्ञवल्क्य ने इसके तीन उपाय बताए हैं जो इस प्रकार हैं-(१)श्रवण,(२)मनन,और(३)निदिध्यासन।


  १.श्रवण

    ब्रह्मविद्या को क्रियात्मक रूप से जानने वाले किसी विद्वान गुरु से या किसी मोक्ष-शास्त्र से उपदेश लेना 'श्रवण' कहलाता है।सच्चे गुरु के बिना और सत्य-शास्त्र के बिना सन्मार्ग का मिलना कठिन है।कठोपनिषद् में कहा है-

*उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत !*

*"उठो,जागो!चुने हुए आचार्यों के पास जाओ और समझो!"*

यही कारण है कि आर्य-हिन्दुओं में यह कहा जाता है कि *"गुरु बिना गति नहीं।"* इसीलिए गुरु धारण करने की प्रथा अब तक चली आती है;परन्तु जिस प्रकार संसार के दूसरे क्षेत्रों में त्रुटियाँ आ गई हैं,इस क्षेत्र में भी ढोंग अधिक हो गया है।अतएव बड़ी सावधानी से गुरु को चुनना चाहिए।सच्चे अनुभवी और पहुंचे हुए गुरुओं का अभाव नहीं है।ऐसे महानुभावों के पास पहुँचकर सबसे पहला प्रभाव यह होता है कि हृदय को शान्ति-सी मिलती है।ऐसे ही गुरु आत्मा के दर्शन का मार्ग बतला सकते हैं।जिसने यह मार्ग स्वयं नहीं देखा,वह दूसरों को कैसे मार्ग दिखला सकता है?

*पानी मिले न आपको,औरों बख्शत खीर।*

*आपन मत निश्चल नहीं,और बँधावत धीर।।*

जो स्वयं दर्शन पा चुके हैं,जिन्होंने अपना जीवन सफल बना लिया है,जो काम-क्रोध आदि पर विजय प्राप्त करके आत्मा के निकटवासी बन चुके हैं,उनकी तलाश तो कबीर भी करते रहे।ऐसे ही साधुओं और गुरुओं के सम्बन्ध में कबीर कहते हैं-

*सुख देवें,दुख को हरें, दूर करें अपराध।*

*कहें कबीर ये कब मिलें, परम सनेही साध।।*


  २.मनन

    सत्य गुरु को पाकर,उनसे आत्मा के दर्शन का मार्ग जानकर अब साधक को स्वयं प्रयत्न और पुरुषार्थ करना होता है।जो उपदेश लिया है,उस पर दत्तचित्त होकर मनन करना,उसे युक्तियों से परखना और अनुभव से जानना,मनन कहलाता है।


३.निदिध्यासन

       निरन्तर उसी पर ध्यान जमाना,उसी का चलते-फिरते,उठते-बैठते-जागते अपितु सोते भी ध्यान रखना,इसे निदिध्यासन कहते हैं।जब निरन्तर एक ही ध्येय पर ध्यान लगाया जाएगा तो उसका साक्षात्कार हो जाएगा।बस,इससे परे और क्या है?

कठोपनिषद् का ऋषि कहता है-

*"इंद्रियों के परे(सूक्ष्म)अर्थ(सूक्ष्म-तन्मात्र-शब्द-तन्मात्र,स्पर्श-तन्मात्र,रूप-तन्मात्र,रस-तन्मात्र व गन्ध-तन्मात्र)है।"*

                               कठ० ६।७।।

अर्थों से परे मन है।

मन से परे बुद्धि है।

बुद्धि से परे महान् आत्मा(महत्तत्त्व)है।

महत् से परे अव्यक्त(प्रकृति)है।

प्रकृति से परे पुरुष(परमात्मा)है।

पुरुष से परे कुछ नहीं है।

बस,यह सीमा(पराकाष्ठा)है।इसलिए कहा जाता है कि आत्मा को जान लेने पर फिर कुछ जानने योग्य नहीं रहता।


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 *🕉️🚩आज का वेद मन्त्र🚩🕉️*


*🌷ओ३म् विष्णो: कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे।*

*इन्द्रस्य युज्य: सखा॥ यजुर्वेद १३*


  💐हे मनुष्य, तुम उस सर्वव्यापी ईश्वर को समझो। वो सृष्टि की रचना, पालन और प्रलय करने वाला है। वो गुणों से परिपूर्ण है। तुम उस परमात्मा के गुण, कर्म और स्वभाव के अनुकूल आचरण करो। वह जीवात्माओं का मित्र है।


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 🔥विश्व के एकमात्र वैदिक  पञ्चाङ्ग के अनुसार👇

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 🙏 🕉🚩आज का संकल्प पाठ 🕉🚩🙏


(सृष्ट्यादिसंवत्-संवत्सर-अयन-ऋतु-मास-तिथि -नक्षत्र-लग्न-मुहूर्त)       🔮🚨💧🚨 🔮


ओ३म् तत्सत् श्रीब्रह्मणो द्वितीये प्रहरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे 【एकवृन्द-षण्णवतिकोटि-अष्टलक्ष-त्रिपञ्चाशत्सहस्र- पञ्चर्विंशत्युत्तरशततमे ( १,९६,०८,५३,१२५ ) सृष्ट्यब्दे】【 एकाशीत्युत्तर-द्विसहस्रतमे ( २०८१) वैक्रमाब्दे 】 【 द्विशतीतमे ( २००) दयानन्दाब्दे, काल -संवत्सरे,  रवि- उत्तरायणे , हेमन्त -ऋतौ, पौष - मासे, कृष्ण पक्षे, त्रयोदश्यां

 तिथौ, 

  अनुराधा नक्षत्रे, शनिवासरे

 , शिव -मुहूर्ते, भूर्लोके जम्बूद्वीपे, आर्यावर्तान्तर गते, भारतवर्षे ढनभरतखंडे...प्रदेशे.... जनपदे...नगरे... गोत्रोत्पन्न....श्रीमान .( पितामह)... (पिता)...पुत्रोऽहम् ( स्वयं का नाम)...अद्य प्रातः कालीन वेलायाम् सुख शांति समृद्धि हितार्थ,  आत्मकल्याणार्थ,रोग,शोक,निवारणार्थ च यज्ञ कर्मकरणाय भवन्तम् वृणे।


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