वैदिक_मान्यताएं
जीव
19) ईश्वर और जीव : भिन्न-भिन्न सत्ताएं (भाग II)
(गतान्क से आगे)
लेखक: विद्यासागर वर्मा (पूर्व राजदूत)
अद्वैत वेदान्ती अपने पक्ष को सिद्ध करने के लिए छांदोग्य उपनिषद् (6.9.4) का महावाक्य उद्धृत करते हैं: "तत्त्वमसि" अर्थात् तुम वही (ब्रह्म) हो। यहां ऋषि शिष्यों को सिंह, मृग, कीट - पतंग आदि में आत्मा (जीव) होने का दृष्टांत देते हुए कह रहें हैं कि हे श्वेतकेतु ! तुम भी वैसी आत्मा हो।
क्योंकि वेद और उपनिषद् में आत्मा और तत् शब्द ब्रह्म/ईश्वर तथा जीव/आत्मा दोनों के लिए प्रयुक्त होते हैं, प्रकरण की उपेक्षा करके, अद्वैत वेदान्ती यहां तत् का अर्थ ब्रह्म लगाते हैं।
यह भी तर्क दिया जाता है कि उपनिषदों में कहा गया है : ‘अयमात्मा ब्रह्म’ अर्थात् यह आत्मा ब्रह्म है। उपनिषद् के इस महावाक्य का अर्थ है - समाधि अवस्था में जब योगी को परमेश्वर का साक्षात्कार होता है, तब वह कहता है कि यह जो मेरे में व्यापक है, वही ब्रह्म है। वही ब्रह्म जो सर्वत्र व्यापक है परन्तु दिखाई नहीं देता, उसे मैं अनुभव कर रहा हूँ।
इसी प्रकार उपनिषद् का एक और महावाक्य है ‘अहं ब्रह्मास्मि’ अर्थात् मैं ब्रह्म हूँ। यह उक्ति बृहदारण्यक उपनिषद् (1.4.10) में वस्तुतः स्वयं ब्रह्म की है। आगे कहा गया है जो ब्रह्म को जान लेता है, वह ब्रह्म (महान्) हो जाता है। इस संदर्भ में यह उक्ति किसी सामान्य जन की नहीं, वरन् एक ब्रह्मनिष्ठ योगी की है जिसने ब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया है।
इस का अर्थ है ‘मैं महान् हूँ’, बृहत्वात् ब्रह्म अर्थात् बृहत् (महान्) होने से ब्रह्म कहा जाता है। अब मुझे कोई जीत नहीं सकता, मैं ब्रह्म के समान आनन्दमय हो गया हूँ। यही जीव की ब्रह्मरूपता है जिसका विवरण सांख्यदर्शन (5.116) में है : 'समाधिसुषुप्तिमोक्षेषु ब्रह्मरूपता’
अर्थात् समाधि में, सुषुप्ति (स्वप्नरहित निद्रा) में और मोक्ष में जीव ब्रह्मरूपता (आनन्दमयता) को प्राप्त होता है।
ऋग्वेद का मन्त्र (10.48.5) जीव को अपनी आत्मशक्ति को पहचानने का आह्वान करता है:
अहमिन्द्रो न परा जिग्य इद्धनं न मृत्यवेsव तस्थे कदा चन।
सोममिन्मा सुन्वन्तो याचता वसु न मे पूरवः सख्ये रिषाथन।।
अर्थात् ‘‘मैं इन्द्र हूं , आत्मा हूँ। मैं इस ऐश्वर्य (आत्म - साक्षात्कार के अधिकार) को कभी हार नहीं सकता। मृत्यु मुझे कभी नहीं आ सकती। (अतः मोक्ष - ऐश्वर्य प्राप्ति के लिये जन्म-जन्मान्तर प्रयत्नशील रहूँगा)। हे मनुष्यो! यज्ञमय जीवन व्यतीत करते हुए ही, मुझ (अन्दर बैठी आत्मा से) ऐश्वर्य को मांगों। मेरी मित्रता में (आध्यत्मिक मार्ग पर चलते हुए), कभी कष्ट नहीं उठाओगे।’’
आत्म शुद्धि होने पर ही आत्म-शक्ति मिलती है। यह आशय ऋग्वेद के मन्त्रांश (8.6.10) में स्पष्ट है : "अहं सूर्य इवाजनि " अर्थात् मैं सूर्य के समान तेजस्वी हो गया हूँ।
इस प्रकार की शुद्ध आत्माएं, आत्मबल प्राप्त करने पर ही अपने आप को ‘अहं ब्रह्मास्मि’ (मैं महान् हूँ) कहती हैं। इसका कदापि अर्थ नहीं कि वे ‘ब्रह्म’ हो जाती हैं।
इसके अतिरिक्त, जीव को ब्रह्म मान लेने पर या ईश्वर का वास्तविक अंश मान लेने पर, सभी जीव अभिन्न हो जाते हैं। हन्ता (Murderer) और हन्त (Murdered) में भेद समाप्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में न्याय विधान चरमरा जाता है। दण्ड व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, पाप-पुण्य आदि सभी अप्रासंगिक (Irrelevant) हो जाते हैं।
यदि इन्दिरा गांधी भी ब्रह्म है और उन्हें मारने वाला सतवन्त सिंह भी ब्रह्म है, तो सतवन्त सिंह को फांसी क्यों हुई?
यदि ब्रह्म और जीव में कोई अन्तर नहीं, ब्रह्म ही जीव है, तो भक्त और भगवान् का अन्तर समाप्त हो जाता है। वेदविहित प्रार्थनाएँ एवं धर्मानुष्ठान सभी निरर्थक हो जाएँगे। विश्व के समस्त धर्मग्रंथों में उपदिष्ट प्रार्थनाएं एवं पूजा-पाठ पद्धतियां व्यर्थ हो जाएंगी।
अद्वैतवादियों की स्थिति निम्न दृष्टांत (Parable) से पूर्णतः स्पष्ट हो जाती है :
एक मूषक (Mouse) ने जंगल में एक हाथी को देख लिया। विशालकाय जीव को देख कर वह बहुत अचम्भित हुआ और तीन चक्कर उसके इर्द-गिर्द लगाए। कुछ समझ नहीं आया, आखिरकार हिम्मत जुटा कर हाथी से पूछा ,"आप कौन हैं? " उसने उत्तर दिया, " मैं हाथी हूं।" मूषक ने कहा," आपसे मिल कर ख़ुशी हुई। नमस्ते।" और चलने लगा।
हाथी ने सोचा बड़ा बदतमीज़ है। मेरा परिचय ले लिया ; अपना परिचय दिया ही नहीं। अन्तत: हाथी ने पूछा, "आप कौन हैं? "
मूषक न उत्तर दिया, "होते तो हम भी हाथी हैं, थोड़ा बिमार रहते हैं।"
यही स्थिति अद्वैत वेदान्तियों की है। हैं तो वे भी ब्रह्म पर मायारूपी बिमारी (अविद्या) से ग्रसित होकर ईर्षा , द्वेष, काम ,क्रोध ,मोह से अभिभूत हो जाते हैं और दु:खी रहते हैं। अविद्या के वशीभूत होकर बलात्कार भी कर बैठते हैं और आतंकवादी बन कर बीसियों निर्दोष लोगों की हत्या भी कर बैठते हैं। वैसे मूलरूप में वे ब्रह्म ही हैं।
अद्वैत वेदान्त की अवधारणा
"जीवो ब्रह्मेति नेतर:"
अर्थात् जीव ब्रह्म ही है, भिन्न नहीं , वेदानुकूल नहीं है। वेद , उपनिषद्, गीता एवं दर्शन शास्त्र सभी ईश्वर, जीव और प्रकृति तीनों की भिन्न- भिन्न सत्ता का वर्णन करते हैं। ऋग्वेद का स्पष्ट कथन है :
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति ।।
-- ऋग्वेद 1.164.20 , अथर्ववेद 9.9.20 , मुण्डक उपनिषद् - 3.1.1, श्वेताश्वतर उपनिषद् 4.6
दो पक्षी, सुन्दर पंखों वाले, सदा साथ रहने वाले, एक दूसरे के मित्र, एक ही वृक्ष पर बैठे हुए हैं । उनमें से एक वृक्ष के फल को स्वाद से खा रहा है और दूसरा न खाता हुआ, साक्षी बना, सब ओर से देख रहा है ।
इस मन्त्र में संकेतित दो पक्षी ईश्वर और जीव हैं और वृक्ष प्रकृति । वृक्ष के फल को खाने वाला पक्षी जीव है और जो न खा कर केवल साक्षी बन के देख रहा है वह ईश्वर है ।
यही ईश्वर, जीव और प्रकृति की त्रिमूर्ति संसार को चलाए हुए हैं । इसी को श्वेताश्वतर उपनिषद् (1.12) में त्रिविध ब्रह्म कहा गया है जिसे हम दिव्य त्रिक् (The Divine Trinity) भी कह सकते हैं ।
सारांश, जीव ईश्वर से सर्वथा भिन्न सत्ता है।
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