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उपनिषदों में ईश्वर का विवरण*

 *🚩‼️ओ३म्‼️🚩*


*🕉️🙏नमस्ते जी🙏🕉️*


दिनांक  - - १० फ़रवरी २०२५ ईस्वी


दिन  - - सोमवार 


  🌔 तिथि --  त्रयोदशी ( १८:५७ तक तत्पश्चात  चतुर्दशी )


🪐 नक्षत्र - - पुनर्वसु ( १८:०१ तक तत्पश्चात  पुष्य )

 

पक्ष  - -  शुक्ल 

मास  - -  माघ 

ऋतु - - शिशिर 

सूर्य  - - उत्तरायण 


🌞 सूर्योदय  - - प्रातः ७:०३ पर दिल्ली में 

🌞 सूर्यास्त  - - सायं १८:०८ पर 

🌔 चन्द्रोदय  -- १५:५६ पर 

🌔 चन्द्रास्त  - - ३०:२१ पर 


 सृष्टि संवत्  - - १,९६,०८,५३,१२५

कलयुगाब्द  - - ५१२५

विक्रम संवत्  - -२०८१

शक संवत्  - - १९४६

दयानंदाब्द  - - २००


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 *🚩‼️ओ३म्‼️🚩*


  *🔥उपनिषदों में ईश्वर का विवरण* 


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१. *"यद्वाचाऽनभ्युदितं, येन वागभ्युद्यते ।*

    *तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि, नेदं यदिदमुपासते ।।"* 

(केनोपनिषद् १/४) जो वाणी द्वारा प्रकाशित नहीं होता, जिससे वाणी का प्रकाश होता है, उसी को तू ब्रह्म जान । जिसका वाणी से सेवन किया जाता जाता है, वह ब्रह्म नहीं है ।


२. *"यन्मनसा न मनुते, येनाहुर्मनो मतम् ।*

    *तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि, नेदं यदिदमुपासते ।।"* 

(केन० १/५) जिसका मन से मनन नहीं किया जाता, जिसकी शक्ति से मन मनन करता है, उसी को तू ब्रह्म जान । जिसका मन से मनन किया जाता है, वह ब्रह्म नहीं है ।


३. *"यच्चक्षुषा न पश्यति, येन चक्षूंषि पश्यन्ति ।*

    *तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि, नेदं यदिदमुपासते ।।"*

(केन. १/६) जो आंख से नहीं देखा जाता, जिसकी शक्ति से आँख देखती है, उसी को तू ब्रह्म जान । जो आँख से देखा जाता है, वह ब्रह्म नहीं है ।


४. *"यच्छ्रोत्रेण न श्रृणोति, येन श्रोत्रमिदं श्रुतम् ।*

     *तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि, नेदं यदिदमुपासते ।।"* 

(केन. १/७) जो कान से नहीं सुना जाता, जिससे कान सुनता है, उसी को तू ब्रह्म जान । जो कान से सुना जाता है, वह ब्रह्म नहीं है |


५. *"यत्प्राणेन न प्राणिति, येन प्राणः प्रणीयते ।*

     *तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि, नेदं यदिदमुपासते ।।"*

(केन० १/८) जो प्राण से प्राण के व्यापार में नहीं आता, जिससे प्राण अपना व्यापार करता है, उसी को तू ब्रह्म जान । जो प्राण के व्यापार में आता है, वह ब्रह्म नहीं है ।


६. *अशरीरं शरीरेष्वनवस्थेष्ववस्थितम् ।*

    *महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति ॥*  

(कठोपनिषद ७/२/२२) वह परमात्मा लोगों के अस्थिर शरीरों में रहकर भी शरीर-रहित हुआ स्थित है । उस महान् विभु/सर्वव्यापी परमात्मा को जानकर धीरपुरुष शोक नहीं करता |


७. *एष सर्वेषु भूतेषु गूढ़ोऽऽत्मा न प्रकाशते ।* 

    *दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः ॥*  

(कठोपनिषद १/३/१२)  सभी भूतों अर्थात् प्राणियों और वस्तुओं में छिपा हुआ, यह परमात्मा चर्म-चक्षुओं से प्रत्यक्ष नहीं होता । सूक्ष्मदर्शी पुरुष ध्यान-योग लगाकर, सूक्ष्म और तीक्ष्ण बुद्धि द्वारा उसे देखते हैं |


८. *अणोरणीयान्महतो महीयानात्माऽस्य जन्तोर्निहितो गुहायाम् ।* 

*तमक्रतुः पश्यति वीतशोको धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः ॥*  

(कठोपनिषद १/२/२०) अणु से भी अणु और महान से भी महान परमात्मा, जीव की हृदय-गुहा में स्थित है । निष्काम और शोकरहित साधक, परब्रह्म के प्रसाद/कृपा से ही, उस परमात्मा की महिमा को देखता है |


९. *यत्तदद्रेश्यमग्राह्यमगोत्रमवर्णमक्षुः श्रोत्रं तदपाणिपादम् ।* 

*नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं तदव्ययं यद्भूतयोनिं परिपश्यन्ति धीराः |* (मुण्डकोपनिषद १/१/६) वह जो परमात्मा अदृश्य, अग्राह्य, अगोत्र, अवर्ण, और चक्षु, श्रोत्र इत्यादि से रहित है, एवं हाथ-पैर इत्यादि कर्मेन्द्रियों से भी रहित है, वह नित्य, विभु, सर्वगत, अत्यन्त सूक्ष्म, अव्यय है तथा समस्त भूतों का कारण है, उसे धीर पुरुष सब ओर देखते हैं |


१०. *दिव्यो ह्यमूर्तः पुरुषः स बाह्याभ्यन्तरो ह्यजः ।* 

*अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो ह्यक्षरात् परतः परः ॥* 

(मुण्डकोपनिषद २/१/२) दिव्य और अमूर्त वह पुरुष, बाहर एवं भीतर होकर भी जन्मादि से रहित है । वह प्राण-रहित और मन-रहित और सर्वथा विशुद्ध है, एवं अक्षर/अविनाशी प्रकृति और जीव से भी सूक्ष्म वा श्रेष्ठ है |


११. *न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा नान्यैर्देवैस्तपसा कर्मणा वा ।*

*ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्त्वस्ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः ॥*  

(मुण्डकोपनिषद ३/१/८) वह ब्रह्म न नेत्र से ग्रहण किया जा सकता है, न ही वाणी से, न अन्य इन्द्रियों से, न केवल तप अथवा केवल कर्म से ही । ज्ञान के प्रसाद से विशुद्ध चित्तवाला ही ध्यान करता हुआ उस कलारहित ब्रह्म को साक्षात्कार करता है |


१२. *सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम्। अन्तःशरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रो यं पश्यन्ति यतयः क्षीणदोषाः |* (मुण्डकोपनिषद ३/१/५) यह परमात्मा सदैव ही सत्य, तप, सम्यक् ज्ञान और ब्रह्मचर्य के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है । जिनके दोष क्षीण हो गए हैं, वे यत्नशील पुरुष शरीर के भीतर ही इस ज्योतिर्मय शुभ्र परमात्मा को देखते हैं |


१३. *सर्वव्यापिनमात्मानं क्षीरे सर्पिरिवार्पितम् ।*

    *आत्मविद्यातपोमूलं तद्ब्रह्मोपनिषत् परम् |*  

(श्वेताश्वतरोपनिषद १/१६) वह सर्वव्यापी परमात्मा दूध में घी की भाँति सबमें विद्यमान है, और आत्मविद्या एवं तप उसकी प्राप्ति का मूल है । वह उपनिषद में कहा गया परम् ब्रह्म है |


१४. *सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।* 

      *सर्वस्य प्रभुमीशानं सर्वस्य शरणं बृहत् ॥* 

(श्वेताश्वतरोपनिषद ३/१७) वह नेत्र, कर्ण, हाथ-पैर आदि समस्त इन्द्रियों से रहित होकर भी समस्त इन्द्रियों के विषय-गुणों को जानने वाला है अर्थात बिना इंद्रियों के वह सब इंद्रियों के देखना, सुनना आदि कार्यों को कर लेता है । वह सबका स्वामी, नियन्ता और सबका बृहद् आश्रय है |


१५. *अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः ।*

*स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम् ॥*      

(श्वेताश्वतरोपनिषद ३/१९) वह बिना हाथ के भी सबका ग्रहण करने वाला, पैर से रहित होकर भी वेग वाला है । आँखों से रहित होकर भी देखता है, और कानों से रहित होकर भी सुनता है । वह प्रत्येक जानने योग्य वस्तु को जानता है, परंतु उसका अंत जानने वाला अन्य कोई नहीं है । उसे ज्ञानीजन महान, श्रेष्ठ आदि कहते हैं |


१६. *सर्वतः पाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।* 

      *सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥*

(श्वेताश्वतरोपनिषद ३/१६)  वह सब जगह हाथ-पैर वाला अर्थात सब ओर गति वाला है । सब जगह आँख वाला अर्थात सब ओर देखने वाला है । सर्वत्र सिर और मुख वाला अर्थात सब कुछ जानने वाला है । और सब जगह कानों वाला अर्थात सर्वत्र सुनने वाला है । वही लोक में सबको व्याप्त करके स्थित है |


१७. *न तस्य कश्चित् पतिरस्ति लोके न चेशिता नैव च तस्य  लिङ्गम् । स कारणं करणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपः ॥* (श्वेताश्वतरोपनिषद ६/९) इस जगत में कोई उस परमात्मा का स्वामी नहीं है, उसका कोई शासक नहीं है एवं उसका कोई लिंग/चिह्न भी नहीं है । वह जगत् का निमित्त कारण है अर्थात संसार को बनाने वाला है‌ । वह इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीवों का अधिपति है । उसका न कोई उत्पत्तिकर्ता है, न कोई अधिपति |


१८. *तिलेषु तैलं दधिनीव सर्पिरापः स्रोतःस्वरणीषु चाग्निः ।*

   *एवमात्माऽत्मनि गृह्यतेऽसौ सत्येनैनं तपसा योऽनुपश्यति ॥* 

(श्वेताश्वतरोपनिषद १/१५) जिस प्रकार तिलों में तैल, दही में घी, स्रोतों में जल और अरणियों में अग्नि क्रमशः पेरने, बिलोने, खोदने और रगड़ने से प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार जो सत्य और तप के द्वारा परमात्मा को ध्यान-दृष्टि से देखता है, वह आत्मा में ही परमात्मा को प्राप्त करता है |


१९. *नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानां एको बहूनां यो विदधाति कामान् । तत्कारणं सांख्ययोगाधिगम्यं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ॥* (श्वेताश्वतरोपनिषद ६/१३) जो नित्यों का नित्य, चेतनों का चेतन अर्थात सर्वोपरि है, और एक अकेला ही सम्पूर्ण प्राणियों को उनके कर्मों का भोग प्रदान करता है, उस साँख्य एवं योग द्वारा अनुभूतिगम्य, सब जगत और शरीरों के कारणरूप/बनाने-वाले देव को जानकर, उपासक सम्पूर्ण पाशों/बन्धनों से मुक्त हो जाता है |


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 🔥विश्व के एकमात्र वैदिक  पञ्चाङ्ग के अनुसार👇

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 🙏 🕉🚩आज का संकल्प पाठ 🕉🚩🙏


(सृष्ट्यादिसंवत्-संवत्सर-अयन-ऋतु-मास-तिथि -नक्षत्र-लग्न-मुहूर्त)       🔮🚨💧🚨 🔮


ओ३म् तत्सत् श्री ब्रह्मणो दिवसे द्वितीये प्रहरार्धे श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वते मन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे 【एकवृन्द-षण्णवतिकोटि-अष्टलक्ष-त्रिपञ्चाशत्सहस्र- पञ्चर्विंशत्युत्तरशततमे ( १,९६,०८,५३,१२५ ) सृष्ट्यब्दे】【 एकाशीत्युत्तर-द्विसहस्रतमे ( २०८१) वैक्रमाब्दे 】 【 द्विशतीतमे ( २००) दयानन्दाब्दे, काल -संवत्सरे,  रवि- उत्तरायणे , शिशिर -ऋतौ, माघ - मासे, शुक्ल पक्षे, त्रयोदश्यां

 तिथौ, 

    पुनर्वसु - नक्षत्रे,सोमवासरे

 , शिव -मुहूर्ते, भूर्लोके जम्बूद्वीपे, आर्यावर्तान्तर गते, भारतवर्षे भरतखंडे...प्रदेशे.... जनपदे...नगरे... गोत्रोत्पन्न....श्रीमान .( पितामह)... (पिता)...पुत्रोऽहम् ( स्वयं का नाम)...अद्य प्रातः कालीन वेलायाम् सुख शांति समृद्धि हितार्थ,  आत्मकल्याणार्थ,रोग,शोक,निवारणार्थ च यज्ञ कर्मकरणाय भवन्तम् वृणे।


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