संपूर्ण महाभारत
आदि पर्व (जतुगृहपर्व)
एक सौ एकतालिसवाँ अध्याय
"दुर्योधन ने धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वाराणसी भेजा"
वैशम नामायन जी कहते हैं ;- राजन! अपने पुत्र की यह बात सुनी और कणिक के उन वचनों का स्मरण करके प्रज्ञाचक्षु महाराज धृतराष्ट्र का चित्त सभी प्रकार से दोहराया गया। वे शोक से आतुर हो गए। दुर्योधन, कर्ण, सुबलपुत्र शकुनि तथा चतुर्थ दु:शासन इन सबने एक स्थान पर उपदेश दिया; फ़िर राजा दुर्योधन ने धृतराष्ट्र से कहा,,
दुर्योधन बोला ;- 'पिताजी! हमें पांडवों से भय न हो, इसलिए आप किसी भी उत्तम उपाय से यहां से 'उपजातियां वाराणसी नगर में भेज दीजिए'। अपने बेटे की कही हुई यह दंग रह गई धृतराष्ट्र दो घड़ी तक भारी बात चीन में मंदी पड़े रहे; फ़िर दुर्योधन से बोले।
धृतराष्ट्र ने कहा ;- बेटा! पाण्डु अपने जीवन भर धर्म को ही बढ़ावा देते हैं, सम्पूर्ण ज्ञानियों के धर्मानुकूल ही रहते हैं; मेरे प्रति तो विशेष रूप से। वे इतने भोले-भाले थे कि आपके स्नान-भोजन आदि अभीष्ट कर्तों के संबंध में भी कुछ नहीं पता था। वे उत्तम व्रत का पालन करते हुए प्रतिदिन यही कहते थे कि 'यह साथी तो आपका ही है'। उनके पुत्र युसुथ भी वैसे ही धर्मपारायण हैं, जैसे स्वतंत्रताएं पाण्डु थे। वे उत्तम गुणवत्ता से सम नॉमिनेट, समपूर्ण जगत में विख्यात और पुरुवंशियों के किले अविकसित प्रिय हैं। फिर से अपने पिता-दादों के साथियों से तनाव को कैसे दूर किया जा सकता है? विशेष: ऐसे समय में, जबकि उनके सहायक अधिक हैं। पाण्डु ने सभी मन्त्रियों तथा सैनिकों का सदा पालन-पोषण किया। उनका ही नहीं उनके बेटे-पौत्रों का भी भरण-पोषण का खास वर्जन रखा गया था।
तात्! पांडू ने पहले नागरिकों के साथ बड़ा ही कम्यूनिटी की पूरी समीक्षा की। अब वे विद्रोही योद्धा के हित के लिए भाई-बंधुओं के साथ हम सभी लोगों की हत्याएं न कर डालेंगे?
दुर्योधन बोला ;- विवरण! मैंने भी अपने हृदय में इस दोष (प्रजा के विपरीत होने) की समभाव की थी और इसी दृष्टि से पहले ही अर्थ और सम्मन के द्वारा समस्त प्रजा का आदर-सत्कार किया है। अब निश्चित ही वे लोग मुखयोग्यता से हमारे सहायक होंगे। राजन! इस समय का खजाना और मंत्रीमंडल हमारा ही स्वामित्व है। अत: आप किसी मृदुल उपाय से ही शीघ्र संभव हो, पांडवों को वाराणसी नगर में भेज दें। भरतवंश के महाराज! जब यह पूरी तरह से मेरे अधिकार में आ जाएगा, तो उस समय कू ब्याजीदेवी अपने पुत्रों के साथ पुन: यहां विश्वास कर सकती है।
धृतराष्ट्र बोले ;- दुर्योधन मेरे दिल में भी यही बात घूम रही है; लेकिन हम लोगों का यह अभिप्राय पापपूर्ण है, इसलिए मुझे यह कहते नहीं मिलता। मुझे यह भी विश्वास है कि भीष्म, द्रोण, विदुर और कृपाचार्य - इनमें से किसी ने भी यहाँ से किसी भी नाजुक पुत्र को यहाँ से भेजा था कि कदापि कुल नहीं मिला। बेटा! इन सभी कुरुवंशियों के लिए हम लोग और पांडव एक जैसे हैं। ये धर्मपरायण मानसवी महापुरुष अपने प्रति विषम व्यवहार करना नहीं चाहते। दुर्योधन! यदि हम पाण्डवों के साथ विषम अतुल्यवहार जायेंगे तो समपूर्ण कुरुवंशी और ये (भीष्म, द्रोण आदि) महातमा एवं समपूर्ण जगत के लोग हमें वध करने योग्यताएँ न समझेंगे।
दुर्योधन बोला ;- विवरण! भीष्म तो सदा ही इलेक्ट्रानिकशास्त्री हैं, द्रोण पुत्र अवाल वाल्सथामा मेरे पक्ष में हैं, द्रोणाचार्य भी इधर ही रहेंगे, जहां उनका पुत्र होगा- तनिक भी संशय नहीं है। जिस पक्ष में ये दोनों होंगे, उसी ओर शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य भी रहेंगे। वे बहनोई द्रोण और भानजे अवाल्सथामा को कभी न छोड़ें। विदुर भी हमारे आर्थिक बंधन में हैं, फिर भी वे हमारे शत्रुओं के समर्थक हैं। लेकिन वे अकेले पाण्डवों के हित के लिए हैं, हम न तो हथियार में सक्षम हैं और न ही मजबूत। तो आप पूरी तरह से निश्चिंतता पाण्डवों को उनकी माता के साथ वाराणसी रवाना कर दें और ऐसी ही एक विचारधारा को छोड़ दें, जिससे वे आज ही चल पड़ें। मेरे दिल में भयानक कांता-सा मुश्किल रहता है, जो मुझे नींद नहीं देता। शोक की आग प्रज्ज्वलित हो उठी है, आप (मेरे द्वारा प्रस्तावित) इस कार्य को पूरा करके मेरे हृदय की शोकाग्नि को भड़का दीजिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अशान्तर्गत जतुगृह पर्व में दुर्योधनपरमर्षविषयक एक सौ एकतालिसवाँ अधित्यय पूरा हुआ)
संपूर्ण महाभारत
आदि पर्व (जतुगृहपर्व)
एक सौ बयालिसवाँ अध्याय
"धृतराष्ट्र के आदेश से पांडवों की वारणावत-यात्रा"
वैशम नामायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदन-कुशल राजा दुर्योधन और उनके छोटे-छोटे सेवकों ने धन सेठ और आदर-सातकार द्वारा समपूर्ण अमा आदि प्रकृतियों को धीरे-धीरे अपने वश में कर लिया। कुछ चतुर मंत्री धृतराष्ट्र की आज्ञा से (चारों ओर) इस बात की चर्चा करने लगे कि 'वाराणावत नगर बहुत सुन्दर है। उस नगर में इस समय भगवान शिव की पूजा के लिए जो बहुत बड़ा मेला लग रहा है, वह तो इस पृथ्वी पर सबसे अधिक मनमोहक है। वह पवित्र नगर समस्त रत्नों से भरा-पूरा और मनुष्यों के मन को मोह लेने वाला है।' धृतराष्ट्र के अवलोकन से देखें वे इस प्रकार की बातें। राजन! वारणावत नगर की रमणीयता का जब इस प्रकार (यात्रा-तत्र) वर्णन होने लगा, तब पांडवों के मन में वहां जाने का विचार आया। जब अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र को यह विश्वास हो गया था कि पांडवों के लिए त्रिशूल प्रसिद्ध हैं, तब उनके निकटतम शिष्य इस प्रकार बोले,,
धृतराष्ट्र बोले ;- 'बेटो! आप लोगों ने सम्पूर्ण शास्त्र पढ़ा। आचार्य द्रोण एवं कृपा से अस्त्र-शास्त्रों का विशेष रूप से शिक्षा प्राप्त कर ली। प्रिय पांडवों! ऐसी हालत में मैं एक बात सोच रहा हूँ। सब ओर से साम्राज्यवादियों की रक्षा, राजकीय अस्तिहारों की रक्षा तथा कृषकों के निरर्थक हित-साधन में लगे रहने वाले मेरे ये मंत्री लोग प्रतिदिन बार-बार कहते हैं कि वाराणसी नगर दुनिया में सबसे अधिक सुन्दर है। पुत्रों! यदि आप लोग वाराणसी नगर में एकांतवास देखना चाहते हैं तो अपने कुटुंबियों और सेवक वर्ग के साथ वहां के देवताओं की यात्रा का आनंद लीजिए।
ब्राह्मणों और गाय को विशेष रूप से रत्न धन दो और अपवित्र तेजतर्रार देवताओं के समान कुछ काल तक वहां इचैचेयर यात्रा करते हुए परम सुख प्राप्त होता है। तत्प्रभावचात् पुन: सुख अंधकार इस हस्तिनापुर नगर में ही चलना आना'।
वैशम नामायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! युधिष्ठिर धृतराष्ट्र की उस इच्छा का रहस्योद्घाटन समझ में आ गया, लेकिन अपने को डॉमिनिक चिंतक 'बहुत अच्छा' लिखा उनकी बात मन ली। तदन एश्वर्य ने शान्तनुन्दन भीष्म, परमबुद्धिमान् विदुर, द्रोण, बाह्लिक, कुरुवंशी सोमदत्त, कृपाचार्य, आवलोत्थामा, भूरिश्रवा, रंजनाम्य आख्यान मन्त्रियों, तपस्वी ब्राह्मणों, पुरोहितों, पुरवासियों तथा यशस्विनी गणधारी देवी से धीरे-धीरे दीन भाव से इस प्रकार कहा गया है,,
युधिष्ठिर बोले;- 'हम महाराज धृतराष्ट्र की आज्ञा से रामाणीय वारणावत नगर में, जहां बड़ा भारी मेला लग रहा है, परिवार सहित जाने वाले हैं। आप सभी लोग आकर्षकचित्त होकर हमें अपना पुन्यमोय आशीर्वाद दें। आपके आशीर्वाद से हमारी वृद्धि होगी और पापों का हम पर वश नहीं चलेंगे'। पांडुनिंदन युधिष्ठिर के इस प्रकार दर्शन पर समस्त कुरुवंशी आकर्षकवदन नक्षत्र पांडवों के अनुकूल हो दर्शन लागे,,
कुरुवंशी बोले ;- 'पांडुकुमारो! मार्ग में सर्वदा सब शैतान से तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हें कहीं से भी किसी प्रकार का अशुभ न मिलता हो। तब निजीकरण-लाभ के लिए स्वतंत्रता दिवस का कार्य पूरा करके राजकुमार पांडव वारणावत नगर को गए।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अवंतर्गत जतुगृह पर्व में वारणावत यात्राविषयक एक सौ बयालीसवाँ अधित्यय पूरा हुआ)
संपूर्ण महाभारत
आदि पर्व (जतुगृहपर्व)
एक सौ त्रियालिसवाँ अध्याय
"दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लक्षागृह बनाना"
वैशम नामायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! जब राज धृतराष्ट्र ने पांडवों को इस प्रकार के वारणावत जाने की आज्ञा दे दी, तब दुर्योधन को बड़ा झटका लगा। भरतश्रेष्ठ! उसने अपने मंत्री पुरोचन को एका बिश्नोई में बुलाया और उसकी दाहिना हाथ से कहा, 'पुरोचन! यह धन-धान्य से सम संकेतन पृथ्वी जैसी मेरी है, वैसी ही तेरी भी है; अत: तुम्हीं इसकी रक्षा कण्ठभूमि। मेरा स्पष्ट प्रदर्शन दूसरा कोई ऐसा विश्वासपात्र सहायक नहीं है, जिससे समूह इतने गुप्त निर्देश कर सके, जैसे कि तुम साथ हो। तात्! मेरी इस गुप्त मंत्रणा की तुम रक्षा करो- इसमें दो और अच्छे उपाय शामिल नहीं हैं, मेरे शत्रुओं को उखाड़ फेंको। मैं अनिश्चित जो कहता हूं, वही करो। पांडवों ने पांडवों को वाराणसी जाने की आज्ञा दी है। वे अपने ऑर्डर से (कुछ दिन तक) वहां पर अकेले अकेले रहेंगे। अत: तुम खच्चर जूते हुए शीघ्रगामी रथ पर आज ही वहां पहुंच जाओ, ऐसे चेष्टा करो। यहां पर्यटक नगर के पास ही एक ऐसा भवन तैयार कराओ है जिसमें चारों ओर कमरा हो और जो सब ओर से सुरक्षित हो। वह भवन बहुत धन खर्च करके सुंदन-से-सुंदर बांडना भवन। सन और सरल आदि, जो कोई भी आग भड़काने वाले विविधतापूर्ण दुनिया में हैं, उन लोगों ने उस मकान की दीवार में रखा। घी, तेल, चरबी तथा बहुत-सी लाह मिट्टी में मिलाकर एक ही दीवारों को लिपवाना। उस घर के चारों ओर सूर्य, तेज, घी, लाह और लकड़ी आदि सब वास्तुएं संग्रह करके रखें।
पांडवों और अन्य लोगों पर भी अच्छी तरह से नजर रखने की सलाह दी जाती है। इस प्रकार महल बन पर जब पाण्डव वहाँ जायें, तब टुकड़े और सुहृदों सहित कु कुँजी देवी को भी बड़े आदर-सत्कार के साथ उसी में रखना। वहाँ पाण्डवों के लिए दी अस्त आसन, सवारी और शाय आदि की ऐसी (सुन्दर) अस्तव विचारधारा कर देना, सोलो दंग रह गए मेरे परिचित। जब तक समय निर्धारण के साथ ही आपका अभीष्ट कार्य की सिद्धि न हो जाए, तब तक सभी काम इस प्रकार करना चाहते हैं कि वारणावत नगर के लोगों को इसके विषय में कुछ भी ज्ञात न हो सके। जब तुम्हें यह भली-भाँति मालूम हो गई कि पांडव लोग यहाँ विस्टा स्टार रहने लगे हैं, उनके मन में कहीं से कोई खटका नहीं रह गया है, तब उन्हें घर के दरवाज़े की ओर से आग लग गई। उस समय लोग यही समझेंगे कि अपने ही घर में आग लग गई थी, उसी में पांडव जल गए। अत: वे पांडवों की मृत्यु के लिए हमारी कभी निंदा नहीं करेंगे।' पुरोचन ने दुर्योधन के दर्शन की प्रतिज्ञा की और खरखर जूते हुए शीघ्रगामी रथ पर आरूढ़ हो वहां से वारणावत नगर के लिए प्राण प्रतिष्ठा की। राजन! पुरोचन दुर्योधन की राय के अनुसार। वारणावत में शीघ्र ही खोजकर उसने राजकुमार दुर्योधन के कथन पर सब काम पूरा कर लिया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अशान्तर्गत जतुगृह पर्व में पुरोचन के प्रति दुर्योधनकृत उपदेशविषयक एक सौ तान्तलिसवाँ अध्यायय पूरा हुआ)
संपूर्ण महाभारत
आदि पर्व (जतुगृहपर्व)
एक सौ चवालीसवाँ अध्याय
"पांडवों की वाराणसी यात्रा तथा विदुर का गुप्त उपदेश"
वैशम नामायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! वायु के समान वेगशाली उत्तम घोड़ों से जूट वाले रथों पर उदित हो उत्तम व्रत को धारण करने वाले पांडवों ने अतुल्य मजबूत रथों से लेकर पितामह भीष्म के दोनों चरणों का संयोजन किया। तत्पश्चात् राजा धृतराष्ट्र, महातत्मा द्रोण, कृपाचार्य, विदुर तथा अन्य बड़े-बूढ़ों को प्रणाम किया गया। इस प्रकार: सभी वृद्ध कौरवों को आवेदन करके समान आवा वाले लागों को हृदय से लगाया गया। फिर भी बालकों ने ज्ञान पाण्डवों को प्रणाम किया। इसके बाद सभी पैकेजों से लेकर उनकी समीक्षाएं लेकर और सभी पेजों से भी विदा लेकर वे वारणावत नगर की ओर प्रस्थित हुए। उस समय महाज्ञानी विदुर और कुरुकुल के आराध्य श्रेष्ठ पुरुष एवं पुरवासी मनुश्य शोक से कतर हो नरश्रेष्ठ पाण्डवों के पीछे-पीछे मंदी में डूबे हुए थे। तब कुछ निर्भय ब्राह्मण पाण्डवों का अपवित्र अधूरा दीन-दशा में देखकर बहुत दुःख हुआ इस प्रकार देखना पड़ा।
'अतुलनीय बौने मंदबुद्धि कुरुवंशी राजा धृतराष्ट्र पाण्डवों को सर्वथा विषम दृष्टि से देखते हैं। धर्म की ओर उनकी दृष्टि नहीं है। निश्पाप अशेष: वाले पाण्डुकुमार युधि, बलवानों में श्रेष्ठ भीमसेन या कुरुदिनन्दन अर्जुन कभी पाप से नहीं मिलेंगे। फिर भी महातमा दोनों माद्रीकुमार कैसे पाप कर सकते हैं। पाण्डवों को उनके पिता से जो साथी प्राप्त हुआ था, धृतराष्ट्र उन्हें सहन नहीं कर रहे थे। इस आबनूस फ्रेम में अधर्मयुक्त कार्य के लिए भीष्म जी कैसे दे रहे हैं? पाण्डवों को अनुचित रूप से यहाँ से निकाल दिया गया, जो योग्यता से वंचित रह गए, उन्हें वाराणसी नगर में भेजा जा रहा है। फिर भी भीष्म जी की रथयात्रा इसे मान लेते हैं? पहले शांतनुकुमार राजर्षि विचित्रवीर्य तथा कुरुकुल को आनंदिंदे वाले महाराज पाण्डु हमारे राजा थे। केवल राजा ही नहीं, वे पिता के समान हमारा पालन-पोषण करते थे। नरेश पाण्डु जब देवभाव (वर्ग) प्राप्त हो गए हैं, तब उनके छोटे-छोटे राजकुमारों का भार धृतराष्ट्र नहीं सहन कर पा रहे हैं।
हम लोग यह नहीं चाहते, इसलिए हम सब घर-घर जाकर इस उत्तम नगरी से एक जगह चलेंगे, जहाँ वे जा रहे हैं।' शोक से दुर्बल धर्मराज युधिष्ठिर अपने लिए दुखी उन पुरवासियों को ऐसी बातें करते देखते हैं मन-ही-मन कुछ हैशटैग बोले,,
धर्मराज युधिष्ठिर बोले ;- 'बन्धुओ! राजा धृतराष्ट्र मेरे पिता, गुरु एवं श्रेष्ठ पुरुष हैं। वे जो आज्ञा देते हैं, उनका हमें निशंक पालन करना निजीकरण; यही हमारा व्रत है। आप लोग हमारे हित में हैं, अत: हमें अपना आशीर्वाद दें और हमें करते रहें जैसे आए थे, वैसे ही अपने घर लौट आएं। जब आप लोगों द्वारा हमारा कोई कार्य सिद्ध होने वाला होगा, उसी समय आप हमारे प्रिय और हितकारी कार्य को रोकेंगे।' उनका पुरवासी आशीर्वाद आशीर्वाद से निवेदन करते हुए शेष नगर को ही लौट आए। पुरवासियों के लौटने पर सपूतधर्म के ज्ञाता विदुर जी पाण्डवश्रेष्ठ युधिष्ठिर को दुर्योधन के कपाट का बोध निर्माण इस प्रकार बोले।
विदुर जी बुद्धि और मूढ़ म्लेच्छों की निर्थक-सी विशिष्ट होने वाली भाषा के भी ज्ञाता थे। इसी प्रकार के विद्यार्थी उस म्लेच्छ भाषा को समझने वाले और बुद्धि वाले थे। अत: उस भाषा के अनाभिज्ञ पुरुष को उस भाषा में कहे गए रहस्य का ज्ञान कराने वाली थी, जो उस भाषा के अनाभिज्ञ पुरुष को वास्तविक अर्थ का बोध नहीं कराता था। 'जो शत्रु की नीति-शास्त्र का लक्ष्य करने वाली बुद्धि को समझ लेती है, वह उसे उपाय समझकर कोई ऐसा करे, जिससे वह यहां शत्रुजनिक संकट से बच सके। एक ऐसा तीर हथियार है, जो लोहे से बना तो नहीं है, लेकिन शरीर को नष्ट कर देता है। जो उसे बताता है, ऐसे उस शस्त्र के प्रहार से बचने का उपाय व्यक्ति पर शत्रु नहीं मारा जा सकता। घास-फूस और घने वृक्षों वाले जंगल को नष्ट कर दिया गया और जंगल को नष्ट कर दिया गया।
जो काम नहीं करता, वह मार्ग नहीं जान पाता; आनंद को दिशाओं का ज्ञान नहीं होता और जो धैर्य खो देता है, उसे सद्बुद्धि प्राप्त नहीं होती। इस प्रकार मेरे चित्रों पर तुम मेरी बातों को समझ लो। शत्रुओं के द्वारा बनाए गए बिना लोहे के बने हथियारों को जो मानुष गरिमा धारण कर लेता है, वह सही के बिल में आतंकवादियों को आग से बचा लेता है। मनुष्य घूमने-फिरने वाले कर रास्ते का पता लगाता है, नक्षत्रों से दिशाओं का पता चलता है और जो अपनी पांच इंद्रियों का स्वभाव ही दमन करता है, वह शत्रुओं से पीड़ित नहीं होता है।' इस प्रकार कहे जाने पर पाण्डुदीनन्दन धर्मराज मुनि ने विद्वान विदुर जी से कहा,,
धर्मराज युधिष बोले ;- मैंने आपकी बात अच्छी तरह से समझ ली। इस तरह पांडवों को बार-बार कर्ट असिस्ट की शिक्षा देते हुए कुछ दूर तक उनके पीछे-पीछे आने वाले विदुर जी जाने की आज्ञा दे तिरछी करके पुन: अपने घर लौट आए। विदुर, भीष्म जी और नगरवासियों की वापसी पर कु बदनसी अजातशत्रु युधिष्ठिर के पास की बोली बोली।
कु अविश्वासी बोली ;- 'बेटा! विदुर जी ने सभी लोगों के बीच जो भी डॉक्टर से बात कही थी, उसे सुनकर 'बहुत अच्छा' काम पर बुलाया गया था; लेकिन हम लोग बात अब तक समझ नहीं पा रहे हैं। यदि हम भी उसे समझते हैं व्यावहारिकता और हमारे दर्शन से कोई दोष नहीं आता है तो तुम्हारी और उनकी सारी बातचीत का रहस्य मैं स्पष्ट चाहता हूं।'
युधिष्ठिर ने कहा ;- मां प्रोटोकाल बुद्धि सदा धर्म में ही रहती है, उन विदुर जी (सांकेतिक भाषा में) ने कहा था 'तुम जिसके घर में रहोगे, वहां से आग का डर है, यह बात बहुत अच्छी तरह जान ले ली। साथ ही वहां का कोई भी मार्ग ऐसा न हो, जो सीख रहा हो। यदि तुम अपनी इन्द्रियों को वश में रखोगे तो सारी पृथ्वी का साथी कर लोगे', यह बात भी 'सहायक मित्र' बतायी थी। और इन्हीं बातों के लिए मैंने विदुर जी को उत्तर दिया था कि 'मैं सब समझ गया।'
वेशम नक्षत्रायन जी कहते हैं;- पांडवों ने फाल्गुन शुक्ल अष्टमी के दिन रोहिणी नक्षत्रों की यात्रा की थी। वे यथा समय वारणावत पहुंच कर वहां के नागरिकों से मिले।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अशान्तर्गत जतुगृह पर्व में पांडवों की वारणावत यात्रा-विषयक एक सौ चाँवलीसावन अध्याय पूरा हुआ)
संपूर्ण महाभारत
आदि पर्व (जतुगृहपर्व)
एक सौ पन्तालिसवाँ अध्याय
"वाराणावत में पाण्डवों का स्वतंत्रता संग्राम, पुरोचन का सत्कार्य अंतिम चरण, लाक्षागृह में निवास की दृष्टिवैसेता और युधिपति एवं भीमसेन की बातचीत"
वैशम नामायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! नरेश पाण्डवों के शुभागमन का समाचार सुना हुआ वारणावत नगर से वहाँ के समस्त पेज जन अप्यारा प्यारा हो अलस्योय सिर्फ शास्त्र विधि के सभी प्रकार की मांगलिक वास्तुओं की शोभा लेकर हजारों की सुंदरता में नाना प्रकार की सवारियों के द्वारा उनके आभूषणों के लिए आये। कु भरोसेमंद कुमारों के निकट पहुंच कर वारणावत के सभी लोग उनकी जय-जयकार करते हैं और आशीर्वाद देते हुए चारों ओर से मित्रता स्थापित कर देते हैं। नामांकित पुरुषसिंह धर्मराज युधिष्ठिर, जो देवताओं के समान तेजसवी थे, इस प्रकार शोभा पा रहे थे मनो देवमंडली के बीच साक्षात् वज्रपाणिद्र थे। निष्पाप जनमेजय! पुरवासियों ने पाण्डवों का बदला लिया। फिर भी पांडवों ने भी नागरिकों को आदर सम्मान दिया, अपना जन-समुदाय से सबसे पहले सजे-सजाये वारणावत नगर में प्रवेश किया। राजन! नगर में प्रवेश करके वीर पाण्डव सबसे पहले शीघ्रता अयोग्यता धर्म पारायण ब्राह्मणों के घर में गया। तत्पश्चात् वे नरश्रेष्ठ कु सज्जनीकुमार नगर के अधिकारी क्षत्रियों के यहाँ पहुँचे। इसी प्रकार वे संस्थापक: वैश्य और शूद्रों के घर पर भी उपस्थित हुए।
भरतश्रेष्ठ! नगरवासी मानुषम्यों द्वारा पूजित एवं सम्मनित हो पांडव लोग पुरोचन को आगे करके डेरे पर गया। वहां पुरोचन ने अपनी भोजन-पीने की उत्तम वास्तुएं, सुंदर साइयां और श्रेष्ठ आसन प्रस्तुतियां बनाईं। उस भवन में पुरोचन द्वारा उनका बड़ा सत्कार हुआ। वे अव्यवस्थित बहुमूलियत वॉयलान्स के उपभोक्ता थे और बहुत से नगर निवासी श्रेष्ठ पुरुष अपनी सेवा में उपस्थित रहते थे। इस प्रकार वे (मोटापा आनंदिंद से) वहीं रहते हैं। दस दिनों तक वहां रह-रहकर मूर्ति पुरोचन ने पांडवों से उस नूतन गृह के संबंध में चर्चा की, जिसे देखने को तो 'शिव भवन' था, लेकिन वास्तव में अशिव (अमंगलकारी) था। पुरोचन के दर्शन से वे पुरुष सिंह पांडव अपने सभी साथियों और सेवकों के साथ उस नये भवन में चले गये; मनों गुह्यकगण कैलाश पर्वत पर जा रहे हैं। उस घर को उत्तम प्रकार से देखकर समस्त धर्मात्माओं श्रेष्ठ युधिष्ठिर ने भीमसेन से कहा,,
'धीरजी' बोले ;- 'भाई! यह भवन तो आग उगलने वाली वास्तु से जाना जाता है। शत्रु को संताप देने वाले भीमसेन! मुझे इस घर की दीवारों से घी और लहठी मिली हुई चर्बी की गंध आ रही है। अत: अस्पताल में यह जानकारी है कि इस घर का निर्माण अग्नि दीपक मखा से हुआ है।
गृह निर्माण के कर्म में सुशिक्षित एवं कलाकारी कलाकारों ने अविनाशी ही घर में काम किया है, सन, राल, मूंज, बलवज (मोटे तिनकों वाली घास) और बांस आदि सभी द्रव्यों को घी से सींचकर बड़ी खूबियां के साथ इन सबके द्वारा इस सुदर्शन भवन की रचना की गई है। यह मन बुद्धि पापी पुरोचन दुर्योधन की आज्ञा के अधीन हो सदा इस घाट में लगा रहता है कि जब हम लोग विश्वास सोये हों, तब वह आग रोक (घर के साथ ही) हमें जला दे। यही उसकी इच्छी है। भीमसेन! परम बुद्धि विदुर जी ने हमारे ऊपर आने वाली इस विपत्ति को यथार्थ रूप में समझा था; इसीलिये साकिथ पहले ही मुझे सचेत कर दिया। विदुर जी हमारे छोटे पिता और सदा हम लोगों के हितधारक हैं। अत: हम बुद्धिजीवियों का इस अशिव (अमंगलकारी) गृह के समबंध में, जिसे दुर्योधन के वेश विद्या कलाकारों ने छिपकली कौशल से बनाया है, पहले ही सब कुछ समझा दिया'।
भीमसेन बोले ;- भैया! यदि आप यह मानते हैं कि इस घर का निर्माण अग्नि को उद्दीपित करने वाली वास्तु से हुआ है तो हम लोग पहले कहाँ रहते थे, कुशल अयोग्य पुन: उसी घर में चित्र और वापसी आर्किटेक्चर?
तीसरे बोले ;- भाई! हम लोग यहां अपनी आकर्षक चेष्टाओं से मन की बात प्रकट न करते हुए यहां से भाग छूटने के लिए मनोनुकूल निश्चिंत मार्ग का पता लगाते हैं, संपूर्ण सावधानी के साथ समानता रखते हैं। मुझे ऐसा करना ही अच्छा लगता है। यदि पुरोचन हमारी किसी भी चेष्टा से हमारे अंदर ही मनोभाव को जोड़ता है तो वह जल्दी से अपना काम बनाने के लिए प्रेरित हो सकता है। यह मूढ़ पुरोचन निन्दा या अधर्म से नहीं डरता और दुर्योधन के वश में अपने आज्ञा के अनुसार आचरण करता है। यदि यहां हमारे जल जाने पर पितामह भीष्म कौरवों पर क्रोध भी करें तो वह अनावशयक है; फिर भी किस प्रॉस्पेक्ट की सिद्धि के लिए वे कौरवों को कुपित करेंगे। या यह संभव है कि यहां हम लोग अपने पितामह भीष्म और कुरुकुल के दूसरे श्रेष्ठ पुरुष धर्म को समझें और उन पर क्रोध करें। (परन्तु वह हमारा क्रोध किस काम का होगा?)
अगर हम विनाश के भय से डरकर भाग जाएं तो भी लालची दुर्योधन हम सब को अपने गुप्तचरों से मारवा सकते हैं। इस समय वह अधिकारपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित है और हम उसकी मुद्राएँ हैं। वह सहायकों के साथ हैं और हम प्रिय हैं। उसके पास बहुत बड़ा खजाना है और हमारे पास उसकी सर्वथा कमी है। अत: निश्चित करें कि वह अनेक प्रकार के उपाय हमारी हत्या करा सकता है। इसलिए इस पापामा पुरोचन और पापी दुर्योधन को भी धोखे में रखा गया और हमें कहीं भी किसी गुप्त मित्रता के साथ निवास करना पड़ा। हम सब मृगया में चूहे के साथ यहां की भूमि पर सब ओर विचार करते हैं, इसी भाग के लिए हमें बहुत से मार्ग ज्ञात हो जाता है। इसके सिवाए आज से ही हम जमीन में एक रंग तैयार करते हैं, जो ऊपर से अच्छी तरह अच्छी हो। वहां हमारी सांसारिक तक साध्य रहेगी (हमारे काम की बात ही जारी है)। उस सुरंग में घुसेड़ जाने पर आग हमें नहीं जलाना। हमें भी इस कार्य को ठीक करने के लिए कहें, यहां प्रकार रहते हुए भी हमारे समबंध में पुरोचन को कुछ भी ज्ञात न हो सके और किसी पुरवासी को भी हमारी अराम-कान खबर न हो।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अष्ठरंगत जतुगृह पर्व में भीमसेन-युधिष्ठिर-संवादविषयक एक सौ पैंतालिसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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