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महाभारत आदिपर्व अध्याय 161 से 165

 


 सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (बकवध पर्व)

एक सौ इकसठवाँ अध्याय

"भीमसेन को राक्षस के पास भेजने के विषय में युधिष्ठिर और कुन्‍ती की बातचीत"

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! जब भीमसेन ने यह प्रतिज्ञा कर ली कि 'मैं इस कार्य को पूरा करुंगा’, उसी समय पूर्वोक्‍त सब पाण्‍डव भिक्षा लेकर वहाँ आये। पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर ने भीमसेन की आकृति से ही समझ लिया कि आज ये कुछ करने वाले हैं; फिर उन्‍होंने एकान्‍त में अकेले बैठकर माता से पूछा। 

युधिष्ठिर बोले ;- मां! ये भयंकर पराक्रमी भीमसेन कौन-सा कार्य करना चाहते हैं? वे आपकी राय से अथवा स्‍वयं ही कुछ करने को उतारु हो रहे हैं? 

कुन्‍ती ने कहा ;- बेटा! शत्रुओं का संताप करने वाला भीमसेन मेरी ही आज्ञा से ब्राह्मण के हित के लिये तथा सम्‍पूर्ण नगर को संकट से छुड़ाने के लिये आज एक महान् कार्य करेगा।

युधिष्ठिर ने कहा ;- मां! आपने यह असह्य और दुष्‍कर साहस क्‍यों किया? साधु पुरुष अपने पुत्र के परित्‍याग को अच्‍छा नहीं बताते। दूसरे के बेटे के लिये आप पुत्र को क्‍यों त्‍याग देना चा‍हती हैं? पुत्र का त्‍याग करके आपने लोक और वेद दोनों के विरुद्ध कार्य किया है। जिसके बाहुबल का भरोसा करके हम सब लोग सुख से सोते हैं और नीच शत्रुओं ने जिस राज्‍य को हड़प लिया है, उसको पुन: वापस लेना चाहते हैं। जिस अमित तेजस्‍वी वीर के पराक्रम का चिन्‍तन करके शकुनि सहित दुर्योधन को दु:ख के मारे सारी रात नींद नहीं आती थी। जिस वीर के बल से हम लोग लाक्षागृह तथा दूसरे-दूसरे पापपूर्ण अत्‍याचारों से बच पाये और दुष्‍ट पुरोचन भी मारा गया। जिसके बल-पराक्रम का आश्रय लेकर हम लोग धृतराष्ट्रपुत्रों को मारकर धन-धान्‍य से सम्‍पन्‍न इस (सम्‍पूर्ण) पृथ्‍वी को अपने अधिकार में आयी हुई ही मानते हैं, उस बलवान पुत्र के त्‍याग का निश्‍चय आपने किस बुद्धि से किया है? क्‍या उन अनेक दु:खों के कारण अपनी चेतना खो बैठी हैं? आपकी बुद्धि लुप्‍त हो गयी है।

कुन्‍ती ने कहा ;- युधिष्ठिर! तुम्‍हें भीमसेन के लिये चिन्‍ता नहीं करनी चाहिये। मैंने जो यह निश्‍चय किया है, वह बुद्धि की दुर्बलता से नहीं किया है। बेटा! हम लोग यहाँ इस ब्राह्मण के घर में बड़े-सुख से रहे हैं। धृतराष्ट्र के पुत्रों को हमारी कानों कान खबर नहीं होने पायी है। इस घर में हमारा इतना सत्‍कार हुआ है कि हमने अपने पिछले दु:ख और क्रोध को भुला दिया है। पार्थ! ब्राह्मण के इस उपकार से उऋण होने का यही एक उपाय मुझे दिखायी दिया। मनुष्‍य वही है, जिसके प्रति किया हुआ उपकार नष्‍ट न हो (जो उपकार को भुला न दे)। दूसरा मनुष्‍य उसके लिये जितना उपकार करे, उससे कई गुना अधिक प्रत्‍युपकार स्‍वयं उसके प्रति करना चाहिये। मैंने उस दिन लाक्षागृह में भीमसेन का महान् पराक्रम देखा तथा हिडिम्ब वध की घटना भी मेरी आंखों के सामने हुई। इससे भीमसेन पर मेरा पूरा विश्‍वास हो गया है। भीम का महान् बाहुबल दस हजार हाथि‍यों के समान है, जिससे वह हाथी के समान बलशाली तुम सब भाइयों को वारणावत नगर से ढोकर लाया है।

भीमसेन के समान बलवान् दूसरा कोई नहीं है। यह युद्ध में सर्वश्रेष्ठ वज्रपाणि इन्द्र का सामना कर सकता है। जब वह नवजात शिशु के रुप में था, उसी समय मेरी गोद से छूटकर पर्वत के शिखर पर गिर पड़ा गया। जिस चट्टान पर यह गिरा, वह इसके शरीर की गुरुता के कारण चूर-चूर हो गयी थी। अत: पाण्‍डुनन्‍दन! मैंने भीमसेन के बल को अपनी बुद्धि से भली-भाँति समझकर तब ब्राह्मण के शत्रुरुपी राक्षस से बदला लेने का निश्‍चय किया है। मैंने न लोभ से, न अज्ञान से और न मोह से ऐसा विचार किया है, अपितु बुद्धि के द्वारा सोच-समझकर विशुद्ध धर्मानुकूल निश्‍चय किया है।

युधिष्ठिर! मेरे इस निश्‍चय से दोनों प्रयोजन सिद्ध हो जायंगे। एक तो ब्राह्मण के यहाँ निवास करने का ऋण चुक जायगा और दूसरा लाभ यह है कि ब्राह्मण और पुरवासियों की रक्षा होने के कारण महान् धर्म का पालन हो जायगा। जो क्षत्रिय कभी ब्राह्मण कार्यों में सहायता करता है, वह उत्‍तम लोकों को प्राप्‍त होता है- यह मेरा विश्‍वास है। यदि क्षत्रिय इस भूतल पर वैश्‍य के कार्य में सहायता पहुँचाता है, वह निश्‍चय ही सम्‍पूर्ण लोकों में प्रजा को प्रसन्‍न करने वाला राजा होता है। इसी प्रकार जो राजा अपनी शरण में आये हुए शूद्र को प्राण संकट से बचाता है, वह इस संसार में उत्‍तम धन-धान्‍य से सम्‍पन्‍न एवं राजाओं द्वारा सम्‍मानित श्रेष्‍ठ कुल में जन्‍म लेता है। पौरवश को आनन्दित करने वाले युधिष्ठिर! इस प्रकार पूर्वकाल में दुर्लभ विवेक-विज्ञान से सम्‍पन्‍न भगवान् व्यास ने मुझसे कहा था; इसीलिये मैंने ऐसी चेष्‍टा की है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत बकवध पर्व में कुन्‍ती-युधिष्ठिर-संवाद विषयक एक सौ इकसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (बकवध पर्व)

एक सौ बासठवाँ अध्याय

"भीमसेन का भोजन-सामग्री लेकर बकासुर के पास जाना और स्‍वयं भोजन करना तथा युद्ध करके उसे मार गिराना"

युधिष्ठिर बोले ;- मां! आपने समझ-बूझकर जो कुछ निश्‍चय किया है, वह सब उचित है। आपने संकट में पड़े हुए ब्राह्मण पर दया करके ही ऐसा विचार किया है। निश्‍चय ही भीमसेन उस राक्षस को मारकर लौट आयेंगे; क्‍योंकि आप सर्वथा ब्राह्मण की रक्षा के लिये ही उस पर इतनी दयालु हुई हैं। आपको यत्‍नपूर्वक ब्राह्मण पर अनुग्रह तो करना ही चाहिये; किंतु ब्राह्मण से यह कह देना चाहिये कि वे इस प्रकार मौन रहें कि नगर निवासियों को यह बात मालूम न होने पाये।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ब्राह्मण (की रक्षा) के निमित्‍त युधिष्ठिर से इस प्रकार सलाह करके कुन्‍ती देवी ने भीतर जाकर समस्‍त ब्राह्मण-परिवार को सान्‍त्‍वना दी। तदनन्‍तर रात बीतने पर पाण्‍डुनन्‍दन भीमसेन भोजन-सामग्री लेकर उस स्‍थान पर गये, जहाँ वह नरभक्षी राक्षस रहता था। बक राक्षस के वन में पहुँचकर महाबली पाण्‍डुकुमार भीमसेन उसके लिये लाये हुए अन्‍न को स्‍वयं खाते हुए राक्षस का नाम- ले लेकर उसे पुकारने लगे। भीम के इस प्रकार पुकारने से वह राक्षस कुपित हो उठा और अत्‍यन्‍त क्रोध में भरकर जहाँ भीमसेन बैठकर भोजन कर रहे थे, वहाँ आया। उसका शरीर बहुत बड़ा था। वह इतने महान् वेग से चलता था, मानो पृथ्‍वी को विदीर्ण कर देगा। उसकी आंखें रोष से लाल हो रही थीं। आकृति बड़ी विकराल जान पड़ती थी। उसके दाढ़ी, मूँछ और सिर के बाल लाल रंग के थे। मूँह का फैलाव कानों के समीप तक था, कान भी शंंख के समान लंबे और नुकिले थे। बड़ा भयानक था वह राक्षस। उसने भौंहें ऐसी टेढ़ी कर रखी थीं कि वहाँ तीन रेखाएं उभड़ आयी थीं और वह दांतों से ओठ चबा रहा था।

भीमसेन को वह अन्‍न खाते देख राक्षस का क्रोध बहुत बढ़ गया और उसने आंखें तरेरकर कहा,

राक्षस बोला ;- ‘यमलोक में जाने की इच्‍छा रखने वाला यह कौन दुर्बुद्धि मनुष्‍य है, जो मेरी आंखों के सामने मेरे ही लिये तैयार करके लाये हुए इस अन्‍न को स्‍वयं खा रहा है?’ भारत! उसकी बात सुनकर भीमसेन मानो जोर-जोर से हंसने लगे और उस राक्षस की अवहेलना करते हुए मुंह फेरकर खाते ही रह गये। अब तो वह नरभक्षी राक्षस भीमसेन को मार डालने की इच्‍छा से भयंकर गर्जना करता हुआ दोनों हाथ ऊपर उठाकर उनकी ओर दौड़ा। तो भी शत्रु वीरों का संहार करने वाले पाण्‍डुनन्‍दन भीमसेन उस राक्षस की ओर देखते हुए उसका तिरस्‍कार करके उस अन्‍न को खाते ही रहे। तब उसने अत्‍यन्‍त अमर्ष में भरकर कुन्‍तीनन्‍दन भीमसेन के पीछे खड़े हो अपने दोनों हा‍थों से उनकी पीठ पर प्रहार किया। इस प्रकार बलवान् राक्षस के दोनों हाथों से भयानक चोट खाकर भी भीमसेन ने उसकी ओर देखा तक नहीं, वे भोजन करने में ही संलग्‍न रहे। तब उस बलवान् राक्षस ने पुन: अत्‍यन्‍त कुपित हो एक वृक्ष उखाड़कर भीमसेन को मारने के लिये फिर उन पर धावा किया। तदनन्‍तर नरश्रेष्‍ठ महाबली भीमसेन ने धीरे-धीरे वह सब अन्‍न खाकर, आचमन करके मूँह-हाथ धो लिये, फिर वे अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न हो युद्ध के लिये डट गये।

जनमेजय! कुपित राक्षस के द्वारा चलाये हुए उस वृक्ष को पराक्रमी भीमसेन ने बायें हाथ से हंसते हुए-से पकड़ लिया। तब उस बलवान् निशाचर ने पुन: बहुत-से वृक्षों को उखाड़ा और भीमसेन पर चला दिया। पाण्‍डुनन्‍दन भीम ने भी उस पर अनेक वृक्षों द्वारा प्रहार किया। महाराज! नरराज तथा राक्षसराज का वह भंयकर वृक्ष-युद्ध उस वन के समस्‍त वृक्षों के विनाश का कारण बन गया। तदनन्‍तर बकासुर ने अपना नाम सुनाकर महाबली पाण्‍डुनन्‍दन भीमसेन की ओर दौड़कर दोनों बाँहों से उन्‍हें पकड़ लिया। महाबाहु बलवान् भीमसेन ने भी उस विशाल भुजाओं-वाले राक्षस को दोनों भुजाओं से कसकर छाती से लगा लिया और बलपूर्वक उसे इधर-उधर खींचने लगे। उस समय बकासुर उनके बाहुपाश से छूटने के लिये छटपटा रहा था।

भीमसेन उस राक्षस को खींचते थे तथा राक्षस भीमसेन को खींच रहा था। इस खींचा-खींची में वह नरभक्षी राक्षस बहुत थक गया। उन दोनों के महान् वेग से धरती जोर से कांपने लगी। उन दोनों ने उस समय बड़े-बड़े वृक्षों के भी टुकड़े-टुकड़े कर डाले। उस नरभक्षी राक्षस को कमज़ोर पड़ते देख भीमसेन उसे पृथ्‍वी पर पटककर रगड़ने और दोनों घुटनों से मारने लगे। तदनन्‍तर उन्‍होंने अपने एक घुटने से बलपूर्वक राक्षस की पीठ दबाकर दाहिने हाथ से उसकी गर्दन पकड़ ली और बायें हाथ से कमर का लंगोट पकड़कर उस राक्षस को दुहरा मोड़ दिया। उस समय वह बड़ी भयानक आवाज में चीत्‍कार कर रहा था। राजन्! भीमसेन के द्वारा उस घोर राक्षस की जब कमर तोड़ी जा रही थी, उस समय उसके मुख से (बहुत-सा) खून गिरा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत बकवध पर्व में बकासुर और भीमसेन का युद्धविषयक एक सौ बासठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (बकवध पर्व)

एक सौ तिरसठवाँ अध्याय

"बकासुर के वध से राक्षसों का भयभीत होकर पलायन और नगर निवासियों की प्रसन्‍नता"

वैशम्पायन जी कहते है ;- राजन्! पसली की हड्डियों के टूट जाने पर पर्वत के समान विशालकाय बकासुर भयंकर चीत्‍कार करके प्राणरहित हो गया। जनमेजय! उस चीत्‍कार से भयभीत हो उस राक्षस के परिवार के लोग अपने सेवकों के साथ घर से बाहर निकल आये। योद्धाओं में श्रेष्‍ठ बलवान् भीमसेन ने उन्‍हें भय से अचेत देखकर ढाढ़स बंधाया और उनसे यह शर्त करा ली कि ‘अब से कभी तुम लोग मनुष्‍यों की हिंसा न करना। जो हिंसा करेंगे, उनका शीघ्र ही इसी प्रकार वध कर दिया जायगा।’ भारत! भीम की यह बात सुनकर उन राक्षसों ने ‘एवमस्‍तु’ कहकर वह शर्त स्‍वीकार कर ली। भारत! तब से नगर निवासी मनुष्‍यों ने अपने नगर में राक्षसों को बड़े सौम्‍य स्‍वभाव का देखा। तदनन्‍तर भीमसेन ने उस राक्षस की लाश उठाकर नगर के दरवाजे पर गिरा दी और स्‍वयं दूसरों की दृष्टि से अपने को बचाते हुए चले गये।

भीमसेन के बल से बकासुर को पछाड़ा एवं मारा गया देख उस राक्षस के कुटुम्‍बीजन भय से व्‍याकुल ही इधर-उधर भाग गये। उस राक्षस को मारने के पश्‍चात् भीमसेन ब्राह्मण के उसी घर में गये तथा वहाँ उन्‍होंने राजा युधिष्ठिर से सारा वृत्तान्‍त ठीक-ठीक कह सुनाया। तत्‍पश्‍चात् जब सबेरा हुआ और लोग नगर से बाहर निकले, तब उन्‍होंने बकासुर खून से लथपथ हो पृथ्‍वी पर मरा पड़ा है। पर्वत शिखर के समान भयानक उस राक्षस को नगर के दरवाजे पर फेंका हुआ देखकर नगर निवासी मनुष्‍यों के शरीर में रोमाञ्च हो आया। राजन्! उन्‍होंने एकचक्रा नगरी में जाकर नगर भर में यह समाचार फैला दिया; फिर तो हजारों नगर निवासी मनुष्‍य स्‍त्री, बच्‍चों और बूढ़ों के साथ बकासुर को देखने के लिये वहाँ आये। उस समय वह अमानुषिक कर्म देखकर सबको बड़ा आश्‍चर्य हुआ।

जनमेजय! उन सभी लोगों ने देवताओं की पूजा की। इसके बाद उन्‍होंने यह जानने के लिये कि आज भोजन पहुँचाने की किसकी बारी थी, दिन आदि की गणना की। फिर उस ब्राह्मण की बारी का पता लगने पर सब लोग उसके पास आकर पूछने लगे। इस प्रकार उनके बार-बार पूछने पर उस श्रेष्‍ठ ब्राह्मण ने पाण्‍डवों को गुप्‍त रखते हुए समस्‍त नागरिकों से इस प्रकार कहा- ‘कल जब मुझे भोजन पहुँचाने की आज्ञा मिली, उस समय मैं अपने बन्‍धुजनों के साथ रो रहा था। इस दशा में मुझे एक विशाल हृदय वाले मन्‍त्रसिद्ध ब्राह्मण ने देखा। देखकर उन श्रेष्‍ठ ब्राह्मण देवता ने पहले मुझसे सम्‍पूर्ण नगर के कष्‍ट का कारण पूछा। इसके बाद अपनी अलौकिक शक्ति का विश्‍वास दिलाकर हंसते हुए से कहा- ‘ब्रह्मन्! आज मैं स्‍वयं ही उस दुरात्‍मा राक्षस के लिये भोजन ले जाऊंगा।' उन्‍होंने यह भी बताया कि ‘आपको मेरे लिये भय नहीं करना चाहिये’। वे वह भोजन-सामग्री लेकर बकासुर के वन की ओर गये। अवश्‍य ही उन्‍होंने ही यह लोक-हितकारी कर्म किया होगा’।

तब तो वे सब ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्‍य और शुद्र आश्‍चर्यचकित हो आनन्‍द में निमग्न हो गये। उस समय उन्‍होंने ब्राह्मणों के उपलक्ष्‍य में महान् उत्‍सव मनाया। इसके बाद उस अद्भुत घटना को देखने के लिये जनपद में रहने वाले सब लोग नगर में आये और पाण्‍डव लोग भी (पूर्ववत्) वहीं निवास करने लगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत बकवध पर्व में बकासुरवध विषयक एक सौ तिरसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)

एक सौ चौसठवाँ अध्याय

"पाण्‍डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना"

जनमेजय ने पूछा ;- ब्रह्मन्! पुरुषसिंह पाण्‍डवों ने उस प्रकार बकासुर का वध करने के पश्‍चात् कौन-सा कार्य किया? 

वैशम्पायन जी ने कहा हैं ;- राजन्! बकासुर का वध करने के पश्‍चात् पाण्‍डव लोग ब्रह्मतत्त्व का प्रतिपादन करने वाले उपनिषदों का स्‍वाध्‍याय करते हुए वहीं ब्राह्मण के घर में रहने लगे। तदनन्‍तर कुछ दिनों के बाद एक कठोर नियमों का पालन करने वाला ब्राह्मण ठहरने के लिये उन ब्राह्मण देवता के घर पर आया। उन विप्रवर का सदा घर पर आये हुए सभी अतिथियों की सेवा करने का व्रत था। उन्‍होंने आगन्‍तुक ब्राह्मण की भली-भाँति पूजा करके उसे ठहरने के लिये स्‍थान दिया। वह ब्राह्मण बड़ी सुन्‍दर एवं कल्‍याणमयी कथाएं कह रहा था, (अत: उन्‍हें सुनने के लिये) सभी नरश्रेष्‍ठ पाण्‍डव माता कुन्‍ती के साथ उसके निकट जा बैठे। उसने अनेक देशों, तीर्थों, नदियों, राजाओं, नाना प्रकार के आश्‍चर्यजनक स्‍थानों तथा नगरों का वर्णन किया।

जनमेजय! बातचीत के अन्‍त में उस ब्राह्मण ने वहाँ यह भी बताया कि पंचालदेश में यज्ञसेनकुमारी द्रौपदी का अद्भुत स्‍वयंवर होने जा रहा है। धृष्टद्युम्न और शिखण्‍डी की उत्‍पत्ति तथा द्रुपद के महायज्ञ में कृष्‍णा (द्रौपदी) का बिना माता के गर्भ के ही (यज्ञ की वेदी से) जन्‍म होना आदि बातें भी उसने कहीं। उस महात्‍मा ब्राह्मण का इस लोक में अत्‍यन्‍त अद्भुत प्रतीत होने वाला यह वचन सुनकर कथा के अन्‍त में पुरुषशिरोमणि पाण्‍डवों ने विस्‍तारपूर्वक जानने के लिये पूछा।

पाण्‍डव बोले ;- द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न यज्ञाग्रि से और कृष्‍णा का यज्ञवेदी के मध्‍यभाग से अद्भुत जन्‍म किस प्रकार हुआ? धृ‍ष्‍टद्युम्‍न महाधनुर्धर द्रोण से सब अस्‍त्रों की शिक्षा किस प्रकार प्राप्‍त की? ब्रह्मन! द्रुपद और द्रोण में किस प्रकार मैत्री हुई? और किस कारण से उनमें वैर पड़ गया? 

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- राजन्! पुरुषशिरोमणि पाण्‍डवों के इस प्रकार पूछने पर आगन्‍तुक ब्राह्मण ने उस समय द्रौपदी की उत्‍पत्ति का सारा वृत्‍तान्‍त सुनाना आरम्‍भ किया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत चैत्ररथ पर्व में ब्राह्मणविषयक एक सौ चौसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)

एक सौ पैंसठवाँ अध्याय

"द्रोण के द्वारा द्रुपद के अपमानित होने का वृत्तान्‍त"

आगन्‍तुक ब्राह्मण ने कहा ;- गंगाद्वार में एक महाबुद्धिमान और परम तपस्‍वी भरद्वाज नामक महर्षि रहते थे, जो सदा कठोर व्रत का पालन करते थे। एक दिन वे गंगाजी में स्‍नान करने के लिये गये। वहाँ पहले से ही आकर सुन्‍दरी अप्‍सरा घृताची नाम वाली गंगा जी में गोते लगा रही थी। महर्षि ने उसे देखा। जब नदी के तट पर खड़ी हो वह वस्‍त्र बदलने लगी, उस समय वायु ने उसकी साड़ी उड़ा दी। वस्‍त्र हट जाने से उसे नग्‍नावस्‍था में देखकर महर्षि ने उसे प्राप्‍त करने की इच्‍छा हुई की। मुनिवर भरद्वाज ने कुमारवस्‍था से ही दीर्घकाल तक ब्रह्मचर्य का पालन किया था। घृताची में चित्त आसक्‍त हो जाने के कारण उनका वीर्य स्‍खलित हो गया। महर्षि ने उस वीर्य को द्रोण (यज्ञकलश) में रख दिया। उसी से बुद्धिमान् भरद्वाज जी के द्रोण नामक पुत्र हुआ। उसने सम्‍पूर्ण वेदों और वेदांगों का भी अध्‍ययन कर लिया।

पृषत नाम के एक राजा भरद्वाज मुनि के मित्र थे। उन्‍हीं दिनों राजा पृषत के भी द्रुपद नामक पुत्र हुआ। क्षत्रियशिरोमणि पृषतकुमार द्रुपद प्रतिदिन भरद्वाज मुनि के आश्रम पर जाकर द्रोण के साथ खेलते और अध्‍ययन करते थे। पृषत की मृत्यु के पश्‍चात् द्रुपद राजा हुए। इधर द्रोण ने भी यह सुना कि परशुराम जी अपना सारा धन दान कर देना चाहते हैं और वन में जाने के लिये उद्यत हैं। तब वे भरद्वाजनन्‍दन द्रोण परशुराम जी के पास जाकर बोले,,

द्रोण बोले ;- ‘द्विजश्रेष्‍ठ! मुझे द्रोण जानिये। मैं धन की कामना से यहाँ आया हूँ।’

परशुराम जी ने कहा ;- ब्रह्मन्! अब तो केवल मैंने अपने शरीर को ही बचा रखा है (शरीर के सिवा सब कुछ दान कर दिया)। अत: अब तुम मेरे अस्‍त्रों अथवा यह शरीर-दोनों में से एक को मांग लो। 

द्रोण बोले ;- भगवन्! आप मुझे सम्‍पूर्ण अस्‍त्र तथा उन सबके प्रयोग और उपसंहार की विधि भी प्रदान करे। 

आगन्‍तुक ब्राह्मण ने कहा ;- तब भृगुनन्‍दन परशुराम जी ने ‘तथास्‍तु’ कहकर अपने सब अस्‍त्र द्रोण को दे दिये। उन सबको ग्रहण करके द्रोण उस समय कृतार्थ हो गये। उन्‍होंने परशुराम जी से प्रसन्नचित्त होकर परमसम्‍मानित ब्रह्मास्त्र ज्ञान प्राप्‍त किया और मनुष्‍यों में सबसे बढ़-चढ़कर हो गये। 

तब पुरुषसिंह प्रतापी द्रोण ने राजा द्रुपद के पास आकर कहा ;- ‘राजन्! मैं तुम्‍हारे सखा हूं, मुझे पहचानो’।

द्रुपद ने कहा ;- जो श्रोत्रिय नहीं है, वह श्रोत्रिय का; जो रथी नहीं है, वह रथी वीर का और इसी प्रकार जो राजा नहीं है, वह किसी राजा का मित्र होने योग्‍य नहीं है; फिर तुम पहले की मित्रता की अभिलाषा क्‍यों करते हो? 

आगन्‍तुक ब्राह्मण ने कहा ;- बुद्धिमान् द्रोण ने पांचालराज द्रुपद से बदला लेने का मन-ही-मन निश्‍चय किया। फिर वे कुरुवंशी राजाओं की राजधानी हस्तिनापुर में गये। वहाँ जाने पर बुद्धिमान् द्रोण को नाना प्रकार के धन लेकर भीष्‍म जी ने अपने सभी पौत्रों को उन्‍हें शिष्यरुप में सौंप दिया। तब द्रोण ने सब शिष्‍यों को एकत्र करके, जिनमें कुन्‍ती के पुत्र तथा अन्‍य लोग भी थे, द्रुपद को कष्‍ट देने के उदेश्‍य से इस प्रकार कहा।

‘निष्‍पाप शिष्‍यगण! मेरे मन में तुम लोगों से कुछ गुरुदक्षिणा लेने की इच्‍छा है। अस्‍त्र विद्या में पारंगत होने पर तुम्‍हें वह दक्षिणा देनी होगी। इसके लिये सच्‍ची प्रतिज्ञा करो।’ 

तब अर्जुन आदि शिष्‍यों ने अपने गुरु से कहा ;- ‘तथास्‍तु (ऐसा ही होगा)।’ जब समस्‍त पाण्‍डव अस्‍त्र विद्या में पारंगत हो गये और प्रतिज्ञा पालन के निश्‍चय पर द्दढ़तापूर्वक डटे रहे, तब द्रोणाचार्य ने गुरुदक्षिणा लेने के लिये पुन: यह बात कही,,

द्रोण बोले ;- ‘अहिच्‍छत्रा नगरी में पृषत के पुत्र राजा द्रुपद रहते हैं। उनसे उनका राज्‍य छीनकर शीघ्र मुझे अर्पित कर दो’। (गुरु की आज्ञा पाकर) धृतराष्‍ट्रपुत्रों सहित पाण्‍डव पांचाल देश में गये। वहाँ राजा द्रुपद के साथ होने पर कर्ण, दुर्योधन आदि कौरव तथा दूसरे-दूसरे प्रमुख क्षत्रिय वीर परास्‍त होकर रणभूमि से भाग गये।

तब पांचों पाण्‍डवों ने द्रुपद को युद्ध में परास्‍त कर दिया और मन्त्रियों सहित उन्‍हें कैद करके द्रोण के सम्‍मुख ला दिया। महेन्‍द्रपुत्र अर्जुन महेन्‍द्र पर्वत के समान दुर्घर्ष थे। जैसे महेन्‍द्र ने दानवराज को परास्‍त किया था, उसी प्रकार उन्‍होंने पांचालराज पर विजय पायी। अमित तेजस्‍वी अर्जुन का वह महान् पराक्रम देख राजा द्रुपद के समस्‍त बान्‍धवजन बड़े विस्मित हुए और मन-ही-मन कहने लगे- ‘अर्जुन के समान शक्तिशाली दूसरा कोई राजकुमार नहीं है।’

द्रोणाचार्य बोले ;- राजन्! मैं फिर भी तुमसे मित्रता के लिये प्रार्थना करता हूँ। यज्ञसेन! तुमने कहा था, जो राजा नहीं है, वह राजा का मित्र नहीं हो सकता; अत: मैंने राज्‍य-प्राप्ति के लिये तुम्‍हारे साथ युद्ध का प्रयास किया है। तुम गंगा के दक्षिण तट के राजा रहो और मैं उत्तर तट का। 

आगन्‍तुक ब्राह्मण कहता है ;- बुद्धिमान् भरद्वाजनन्‍दन द्रोण के यों कहने पर अस्‍त्रवेत्‍ताओं में श्रेष्‍ठ पंचालनरेश द्रुपद ने विप्रवर द्रोण से इस प्रकार कहा,,

द्रुपद बोले ;- ‘महामते द्रोण! एवमस्‍तु, आपका कल्‍याण हो। आपकी जैसी राय है, उसके अनुसार हम दोनों की वही पुरानी मैत्री सदा बनी रहे’।

शत्रुओं का दमन करने वाले द्रोणाचार्य और द्रुपद एक दूसरे से उपर्युक्‍त बातें कहकर परम उत्‍तम मैत्रीभाव स्‍थापित करके इच्‍छानुसार अपने-अपने स्‍थान को चले गये। उस समय उनका जो महान् अपमान हुआ, वह दो घड़ी के लिये भी राजा द्रुपद से निकल नहीं पाया। वे मन-ही-मन बहुत दुखी थे और उनका शरीर भी बहुत दुर्बल हो गया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत चैत्ररथ पर्व में द्रौपदीजन्‍मविषयक एक सौ पैंसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

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