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स्तुता मया वरदा वेदमाता-२

स्तुता मया वरदा वेदमाता-२  

इदं तदक्रिदेवा असपत्ना किलाभुवम्



       हम शत्रुता करने को अपना स्वभाव समझते हैं। शत्रुता हमारे जीवन की बाधा है, रुकावट है। शत्रु तो रोकता है, परन्तु शत्रुता का भाव मनुष्य के आन्तरिक गुणों में ह्रास उत्पन्न करता है। इसे दूर करने के लिये मनुष्य को शत्रुता के भाव को भी पराजित करना पड़ता है। इसके लिये व्यक्ति को अपने अन्दर दिव्य भाव उत्पन्न करने पड़ते हैं, दिव्य भाव के बिना मनुष्य शत्रुता के भावों को दूर नहीं कर पाता। इस मन्त्र के शब्द कह रहे हैं- असपत्ना किला भुवम्। मैं शत्रु मठों से रहित हो गई हूँ। इन शत्रुओं से रहित होने के क्रम में मैंने अपने अन्दर की शत्रुता भी समाप्त कर दी है, शत्रु का समाप्त करना, क्रिया का बाहरी प्रभाव है, परन्तु शत्रुता समाप्त करना अन्दर की विजय का परिणाम है।
     मनुष्य बाहर के शत्रुओं पर विजय प्राप्त करते समय वह केवल बाहर ही युद्ध नहीं कर रहा होता है, अपितु उसे अपने अन्दर शत्रु के लिये क्रोध उत्पन्न करना पड़ता है, वीरता का भाव उत्पन्न करना पड़ता है, सामने शत्रु को देखकर उसे भयभीत करने के लिये उसे काल के समान साक्षात् विकराल बनना पड़ता है। बाहर के शत्रु को तो हम पराजित कर लेते हैं, परन्तु शत्रुता के भाव को पराजित करना, उसे निकालना, देवों की सहायता के बिना नहीं होता। जब हम देवों की सहायता लेते हैं, अपने अन्दर दिव्य भाव उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं, तब हमारे अन्दर से शत्रुता का भाव समाप्त होता है।
       परमेश्वर सभी शत्रुओं को समाप्त कर देता है, परन्तु उसके अन्दर कभी शत्रुता का भाव नहीं आता, इसका कारण है- उसका भाव क्रोध का भाव नहीं है, उसका भाव मन्यु का भाव है। मन्यु क्रोध से भिन्न जैसे माता अपने शिशु पर अपने बालक पर क्रोध करती है, परन्तु वह क्रोध द्वेष मूलक नहीं होता, द्वेष मूलक क्रोध में शत्रुता का भाव होता है, जब की मन्यु माता का गुरु का क्रोध है। इसीलिये हम उसे सहनशील कहते हैं, सहोदगीन कहते हैं, सहनशीलता में विरोध को, शत्रुता को सहन करना आता है। सहनशीलता शत्रुता में जो अन्तर है, वह सामर्थ्य का अन्तर है। सहन करने वाले या विरोध या शत्रुता करने वाले के सामर्थ्य को कम देखता है, उसकी परवाह करने योग्य भी नहीं समझता। उसे कभी अनुकूल करने योग्य मानता है। जबकि विरोध शत्रु को सीमा का उल्लंघन करने से रोकने का प्रयास है। उसके सामर्थ्य को अधिक बढ़ने से रोकना चाहता है। मनुष्य को अधिक सामर्थ्य के लिये परमेश्वर की सहायता की आवश्यकता होती है। शत्रु पर विजय पाकर शत्रुता के भाव को भी हृदय से निकालने के लिये देवों की दिव्यशक्ति की आवश्यकता होती है। अन्यथा शत्रुओं पर विजय का अहंकार मन से शत्रुता के भाव को निकलने नहीं देता। केनोपनिषद् में कथा आती है- देवताओं ने देवासुर संग्राम में अपनी विजय को अपना सामर्थ्य और अपनी महत्ता समझ लिया। ईश्वर ने समझाया- यह देवत्व से दूर होने का मार्ग है। देवत्व का मार्ग तो उस परमेश्वर की शक्ति को स्वीकार करना है, हमें उस सर्वशक्तिमान को अनुभव करना चाहिये। संसार की शक्तियाँ उसी दिव्य शक्ति से कार्य करती है। देवताओं ने अपरीचित यक्ष को जानने के लिये अग्नि देवता को यक्ष के पास भेजा था, यक्ष ने पूछा- तुम कौन हो? अग्नि ने कहा- मैं अग्नि और जातवेदा हूँ। मेरे में संसार की समस्त वस्तुओं को जलाकर भस्म करने की शक्ति है। यक्ष ने उसके सामने एक तिनका रखकर कहा- इसको जला दो। अग्नि अपने पूरे सामर्थ्य से भी जला न सका। देवताओं ने वायु को कहा, वायु यक्ष के पास पहुँचा। यक्ष ने पूछा- तुम्हारा क्या सामर्थ्य है? वायु ने कहा- जो कुछ इस संसार में है, मैं उसे उड़ा सकता हूँ। यक्ष ने तिनका उसके सामने रखा, उस तिनके को वायु पूरे सामर्थ्य से भी नहीं उड़ा सका। तब आत्मा ने यक्ष को जानने-समझाने का प्रयास किया। बुद्धि से समझ में आया- संसार के सारे सामर्थ्य उस परमेश्वर के हैं, उसके बिना संसार का सामर्थ्य कुछ काम नहीं आता। अतः इस मन्त्र में कहा गया है- देवताओं ने यह सामर्थ्य मुझे दिया है कि मेरे शत्रु और मेरे अन्दर की शत्रुता समाप्त हो गई।

समजैषमिमाहं सपत्नीरभि भूवरी –ऋक्. 10/159/6
     घर को सफलतापूर्वक चलाने के लिये मनुष्य में आत्मविश्वास की आवश्यकता होती है। आत्मविश्वास योग्यता और सामर्थ्य से उत्पन्न होता है। आचार्य चाणक्य कहते हैं- मनुष्य को अपने अन्दर आत्मविश्वास उत्पन्न करने के लिये ज्ञानवान बनना चाहिए। ज्ञान का क्षेत्र बहुत विस्तृत है, परन्तु ज्ञान का प्रारमभिक भाग सब प्राप्त कर सकते हैं और वह सबके लिये उपयोगी है। सामान्य ज्ञान को चार भागों में शास्त्रकारों ने विभक्त किया, जिसे आन्विक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति कहा गया है। ये चारों विशेषज्ञता के कारण चार वर्णों की योग्यता का आधार बनती हैं। प्रत्येक व्यक्ति को कम या अधिक रूप में इनकी आवश्यकता होती ही है।
     ये योग्यताएँ सबके लिये क्यों और कैसे आवश्यक होती हैं, इसको समझने के लिये शास्त्र के वचनों पर ध्यान देने की आवश्यकता है। छोटी-से-छोटी इकाई में जो गुण होते हैं, बड़ी-से-बड़ी इकाई में भी वे ही गुण होते हैं, अन्तर उनकी मात्रा का होता है। सभी गुण सभी में होने पर उनकी मात्रा की भिन्नता से व्यक्ति के व्यक्तित्व का भेद होता है। एक व्यक्ति का बुद्धि पक्ष ब्राह्मण कहलाता है, सामर्थ्य पक्ष को क्षत्रिय कहते हैं, साधनों के संग्रह एवं वितरण पक्ष को, उपयोग को वैश्य नाम दिया गया है। वहीं इन सबको करने के लिये सहज प्राप्त सामर्थ्य को शूद्र कहा गया है। इनमें कोई भी अनावश्यक नहीं है, परन्तु उपार्जन की क्षमता के कारण इनके क्रम में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रत्व की कल्पना की गई है। प्रत्येक व्यक्ति चारों सामर्थ्य से युक्त होने पर ही पूर्णता को प्राप्त होता है। इनमें से कोई भी सामर्थ्य कम होने पर व्यक्ति अपूर्ण और असमर्थ हो जाता है।
     इसी आधार पर मनुष्य शरीर को चार भागों में बाँटकर सिर को ब्राह्मण, भुजाओं को क्षत्रिय, मध्य भाग को वैश्य तथा पैरों को शूद्र कहा गया है। शरीर की इकाई के चार भाग किये गये हैं, उसी प्रकार समाज के चार भागों को मिलाकर एक शरीर बनता है। व्यक्ति, समाज एवं देश सभी एक व्यक्ति हैं और सभी के चार भाग हैं। इन्हीं को आन्विक्षिकी, त्रयी, वार्ता एवं दण्डनीति से सीखा जाता है। त्रयी से ज्ञानवान धर्माधर्म को जानता है, उसे ब्राह्मण कहा गया। दण्डनीति से न्याय-अन्याय को देखा जाता है, उसे क्षत्रिय कहते हैं। जहाँ हानि-लाभ को समझा जाता है, उसे वार्ता कहा गया है। इन तीनों का सामञ्जस्य आन्विक्षिकी के द्वारा आता है।
      आन्विक्षिकी क्या है? इसके लिये कहा गया है- सांयं योगो लोकायतनं चेत्यान्विक्षिकी- सांय योग लोकायतन को समझना तीनों के लिये आवश्यक है। इस ज्ञान से ही व्यक्ति के अन्दर कार्य करने का सामर्थ्य उत्पन्न होता है। जब विषम परिस्थिति और समस्या सामने आती है, तो मनुष्य निर्णय करने में असमर्थ होता है। मनुष्य स्वस्थ सहज होने पर ही ठीक निर्णय लेने में समर्थ होता है। जो मनुष्य धार्मिक होता है, आस्तिक होता है, वह समस्या के आने पर विचलित नहीं होता। विवेक करके निर्णय करना उसके लिये कठिन नहीं होता। मनुष्य केवल दुःख में ही विचलित होता हो, ऐसी बात नहीं। वह अधिक प्रसन्नता, प्राप्ति एवं उत्साह की दशा में उचित समय पर निर्णय नहीं ले पाता और भूल कर बैठता है। जो घोषणा मन्त्र में एक गृहिणी कर रही है, उसके पीछे उसकी योग्यता ही कारण है। निर्णय करने की योग्यता में जो बाधा आ सकती है, उनको जान कर दूर करने का सामर्थ्य नेता में होना चाहिए। गृहिणी घर की नेतृ है, उसने सभी शत्रुओं को जीत लिया है। यहाँ शत्रु मनुष्य या व्यक्ति हो, यह अनिवार्य नहीं। कार्य में आने वाली सारी बाधायें भी शत्रु ही हैं। किसी भी प्रकार की बाधा को समझ सकना और बिना विचलित हुए उसे दूर करने के उत्साह को इस मन्त्र में बताया गया है।

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