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स्तुता मया वरदा वेदमाता-३

स्तुता मया वरदा वेदमाता-३  

असपत्ना सपत्नध्नी जयन्त्यभि भूवरी  यथाहमस्य वीरस्य विराजानि जनस्य च।


     मन्त्र का उत्तरार्ध कहता है- मैं केवल अपने पति के लिये ही स्वीकार्य या मान्य हूँ, ऐसा नहीं है। मैं अपने साथ रहने वाले सभी मनुष्यों के लिये स्वीकार्य हूँ। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि कोई व्यक्ति जब अपने आपको शक्तिशाली, महत्त्वपूर्ण और अधिकार सम्पन्न समझता है, उस समय वह अपने लिये महत्त्वपूर्ण हो सकता है, परन्तु सबके लिये स्वीकार्य होना तभी सम्भव है, जब वह सामर्थ्यवान होकर भी सर्वोपकारी हो, सर्वसुलभ हो। ऐसी अवस्था में ही वह सर्वजन स्वीकार्य और सर्वजन मान्य हो सकता है।
      विवाह में शिलारोहण के साथ लाजा होम किया जाता है, तब इन्हीं दो बातों के विषय में वर-वधू को ध्यान दिलाया जाता है कि हमें अपने  वैवाहिक जीवन में दृढ़ता रखनी है। मैं दृढ़ रहूँगा, तुम भी मेरे साथ दृढ़ रहना, पत्थर उसका प्रतीक है। जब भाई द्वारा कन्या का पैर शिला पर रखा जाता है और वह मन्त्र पढ़ता है- अरिह – तुम इस शिला पर आरूढ़ हो जाओ, क्योंकि तुमको इस पत्थर की भाँति दृढ़ होकर रहना है। तुम्हारा साथ पत्थर की भाँति दृढ़ व्यक्ति के साथ है, तुम भी दृढ़ रहोगी, तभी साथ रह पाओगी।
     जीवन में दृढ़ता के बिना न गति है, न प्रगति है। दृढ़ता से स्थिरता आती है। चञ्चलता अस्थिरता का दूसरा नाम है, स्थिर व्यक्ति बाधाओं को दूर कर सकता है, स्थिर योद्धा ही शत्रुओं का सामना कर सकता है, शत्रुओं पर आक्रमण कर सकता है। भागने वाला अस्थिर व्यक्ति आक्रामक कैसे हो सकता है? इसलिये वर वधू से कहता है- मैं स्थिर हूँ, मैं दृढ़ पत्थर की भाँति हूँ। तुमको भी मेरे साथ रहना है तो पत्थर की तरह दृढ़ होकर रहना होगा, नहीं तो संसार की समस्याओं का और हम पर आक्रमण करने वाले शत्रुओं का नाश नहीं कर सकते।
      विवाह की इस प्रक्रिया की रोचकता यह है कि इस विधि को लाजा होम के साथ संभवतः इसीलिये किया जाता है, क्योंकि एक क्रिया के बिना दूसरी क्रिया अधूरी है। प्रथम कार्य दृढ़ होना, दूसरा कार्य अन्यों का उपकार करना है। इसमें उपकार का क्रम भी बताया गया है, क्योंकि उपकार करने का अर्थ कर्त्तव्य को भूलना नहीं है। आहुति के क्रम में कर्त्तव्य का क्रम भी बताया गया है।
      लाजा होम की प्रथम आहुति देते हुए वधू कहती है- आज के बाद मेरे कर्त्तव्य में प्राथमिकता पति की है। पति के प्रति मेरा प्रथम कर्त्तव्य है, उसका सम्मान और सत्कार मुझे करना है, वह भी उसी प्रकार मेरा सम्मान करता है। दूसरी आहुति के साथ वधू का कर्त्तव्य घर के निवासियों के साथ है। घर में रहते हुए ऐसा नहीं हो सकता- आपने केवल अपने बारे में सोचकर ऐसा निर्णय कर लिया तो परिवार में विघटन और द्वेष भाव प्रारम्भ हो जायेगा। परिवार के सभी सदस्यों के साथ भी अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करना होगा, तभी अपने को और पति को परिवार के साथ बाँध के रखने में वधू समर्थ हो सकती है। तीसरी आहुति देते हुए वधू कहती है- पति और घर के साथ-साथ अपने सामाजिक दायित्वों का भी मुझे निर्वाह करना है। इसमें चाहे मेरे सम्बन्धी लोग हैं, चाहे विद्वान् अतिथि हैं अथवा बुभुक्षित, पीड़ित, असहाय, दुर्बल मनुष्य, बालक, पशु-पक्षी- सभी की चिन्ता करना, उनकी यथासम्भव सहायता सहयोग करना, सान्त्वना देना, यह भी कर्त्तव्य है, तभी ऐसी नारी न केवल अपने पति की प्रेम भाजन होगी, अपितु परिवार एवं समाज के प्रत्येक सदस्य की प्रशंसा प्राप्त करने वाली बन जायेगी।

उत देवा अवहितं देवा उन्नयथा पुनः

      ऋग्वेद के दशम मण्डल में एक सौ सैतीसवाँ सूक्त हे। इसमें सात मन्त्र है। इन मन्त्रों के ऋषि के रूप में सप्तर्षयः ऐसा उल्लेख है। इस का अभिप्राय है- प्रत्येक ऋचा का एक-एक ऋषि है। सप्तर्षयः कहने से सात ऋषियों का गहण होता है। वैदिक साहित्य से सप्त ऋषय कहने से पाँच प्राण और अहंकार महत का ग्रहण है, कही सप्त ऋषि, पञ्चप्राण, सूत्रात्मा, धनञ्जय का उल्लेख है। सप्तर्षयः सूर्य की रश्मियों का नान भी है। पाँच इन्द्रियों के साथ मन और विद्या को भी सप्तर्षयः कहा गया। मन्त्र के देवता के रूप में विश्वेदेवाः कहा गया है। यहाँ देवा, विद्वान्सः विद्वान् समझदार, बड़े लोगों का ग्रहण किया जाता है। इन्द्रियों के लिये भी देव शद का उपयोग किया गया है।
      इस पूरे सूक्त में मनुष्य जीवन के लिये आवश्यक बातों का उल्लेख किया गया। मनुष्य जड़ चेतन का संयोग है। चेतन आत्मा तो स्वरूप से अनादि है, उसके स्वभाव में, स्वरूप में कोई परिवर्तन कभी नहीं होता। शरीर का भौतिक स्वरूप दो प्रकार का है, एक स्थूल तथा दूसरा सूक्ष्म। जो पदार्थ जितना स्थूल होगा, उसका स्वरूप उतना ही अधिक परिवर्तनशील होगा। दूसरे शबदों में उसका नाश उतना ही शीघ्र होगा। भौतिक पदार्थों में स्थूल शरीर तो बहुत शीघ्र नष्ट हो जाता है, परन्तु मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, भौतिक होने पर भी सूक्ष्म होने के कारण इनकी अवधी पूरी सृष्टि के काल तक है।
      संसार यात्रा स्थल है। यात्रा का लक्ष्य आत्म साक्षात्कार है। इसके साधन स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर है। बाह्यजगत् की यात्रा स्थूल शरीर से होती है औरअन्तर्जगत् की यात्रा मन, बुद्धि से या सूक्ष्म शरीर से होती है। स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और जीवात्मा मिलकर एक इकाई बनती है, जिसे शास्त्र में आत्मेन्द्रिय मनोभुक्तं भोक्ते, यादुर्मजीषीणः कहा है। आत्मा इन्द्रिय मन जब संसार से जुड़ते हैं, तब आत्मा की सेता भोक्ता होती है, तब वह संसार का उपभोग करने में समर्थ होता है। केवल चेतन आत्मा संसार का साक्षात्कार नहीं कर सकता है। केवल सूक्ष्म शरीर के साथाी संसार के सपर्क में नहीं आ सकता। संसार की यात्रा स्थूल शरीर से होती है। मुक्ति की यात्रा सूक्ष्म शरीर से होती है। ये दोनों ही साधन स्वस्थ, समर्थ होने चाहिए। इसलिये इस सूक्त में दोनों को स्वस्थ रखने की बात कही गई है।
      जब-जब मनुष्य अनुचित विचारों के सपर्क में आता है, तब-तब उसका मानसिक पतन होता है। मानसिक पतन का कारण यदि बुरे विचार हैं, तो मानसिक स्वास्थ्य के लिये अच्छे विचारों का विकल्प चाहिए। वैद्य मन और शरीर दोनों की चिकित्सा करता है। वात, पित, कफ से शरीर चिकित्सा की जाती है। रजोगुण, तमोगुण, सतोगुण के ज्ञान से मानस चिकित्सा की जाती है। शरीर की चिकित्सा के लिये परमेश्वर की प्रार्थना और औषधियों का युक्तिपूर्वक सेवन करना, स्वस्थ होने का उपाय है, तो मन के स्वास्थ्य के लिये शास्त्र कहता है- ज्ञान विज्ञान धैर्य स्मृति समाधिर्भिः। ज्ञान आत्मा के विषय में जानना, विज्ञान शास्त्र का जानना, धैर्य, धीरता, स्मरण शक्ति, समाधि, एकाग्रता, इन बातों से मन के रोगों की चिकित्सा की जाती है। यह चिकित्सा विद्वान् वैद्य के बिना सभव नहीं होती।
      मन और शरीर दोनों भौतिक हैं, इस कारण एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। शरीर में रोग, असमर्थता होने पर मन में निराशा, अनुत्साह होने लगता है। मन में खिन्नता होती है। मानसिक दुःख होता है, तब उसका प्रभाव शरीर पर होने लगता है। मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिये शरीर, आत्मा दोनों का ध्यान रखना पड़ता है। हम केवल शरीर की चिन्ता करें और मन को स्वस्थ रखने का उपाय न करें, तो मनुष्य के अन्दर राग, द्वेष, ईर्ष्या, काम, क्रोध आदि की भावनाएँ बढ़ने लगती हैं। इसको केवल शरीर के उपायों से नियन्त्रित नहीं किया जा सकता। मनुष्य काम, क्रोध से राग द्वेष में पड़ जाता है, तो उसकी भूख और नींद समाप्त होने लगती है, शरीर रोगी होने लगता है। मानसिक रोगों का मूल कारण स्वार्थ है। मानसिक स्वास्थ्य का प्रमुख उपाय परोपकार है। जो मनुष्य स्वार्थी है, वह कभी भी स्वस्थ नहीं हो सकता, परोपकारी व्यक्ति कभी दुःखी नहीं होता। स्वार्थी व्यक्ति किसी बात को करने के लिये, किसी वस्तु को पाने के लिये अनुचित विचारों की सहायता लेता ही है, उसके न मिलने की आशंका से भय, ईर्ष्या, द्वेष स्वाभाविक रूप से बनते हैं। इसलिये मनुष्य को प्रतिदिन शरीर के स्वास्थ्य के उपायों के साथ-साथ मानसिक उपाय का प्रयास करना चाहिए।
      मनुष्य के मन में रजोगुण बढ़ता है, तो मन चंचल और रागद्वेष से युक्त होता है। परोपकार और उपासना से मन में सतोगुण की वृद्धि होती है। देव लोग पतित मनुष्य को भी इन उपायों से उठा देते हैं, मानसिक रूप से स्वस्थ कर देते हैं।


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