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श्री राम चरित मानस सुन्दरकाण्ड

 श्री राम चरित मानस 


              श्रीजानकीवल्लभो विजयते

               श्रीरामचरितमानस

               पञ्चम सोपान  सुन्दरकाण्ड

                श्लोक

          शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं

          ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम् ।

          रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं

          वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम् ॥ १ ॥ 


          नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये

          सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।

          भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे

          कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥ २ ॥ 


          अतुलितबलधामं   हेमशैलाभदेहं

          दनुजवनकृशानुं   ज्ञानिनामग्रगण्यम्।

          सकलगुणनिधानं    वानराणामधीशं

          रघुपतिप्रियभक्तं  वातजातं नमामि ॥ ३ ॥ 


जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए ॥ 

तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई ॥ 

जब लगि आवौं सीतहि देखी। होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी ॥ 

यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा। चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा ॥ 

सिंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर ॥ 

बार बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी ॥ 

जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता ॥ 

जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेउ हनुमाना ॥ 

जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तैं मैनाक होहि श्रमहारी ॥ 


 दो.   हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम। 

      राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम ॥ १ ॥ 


जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा ॥ 

सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता ॥ 

आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा। सुनत बचन कह पवनकुमारा ॥ 

राम काजु करि फिरि मैं आवौं। सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं ॥ 

तब तव बदन पैठिहउँ आई। सत्य कहउँ मोहि जान दे माई ॥ 

कबनेहुँ जतन देइ नहिं जाना। ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना ॥ 

जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा। कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा ॥ 

सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ ॥ 

जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा ॥ 

सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा ॥ 

बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरु नावा ॥ 

मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुधि बल मरमु तोर मै पावा ॥ 


 दो.  राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान। 

      आसिष देह गई सो हरषि चलेउ हनुमान ॥ २ ॥ 


निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई ॥ 

जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं ॥ 

गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई ॥ 

सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा। तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा ॥ 

ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा ॥ 

तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा ॥ 

नाना तरु फल फूल सुहाए। खग मृग बृंद देखि मन भाए ॥ 

सैल बिसाल देखि एक आगें। ता पर धाइ चढेउ भय त्यागें ॥ 

उमा न कछु कपि कै अधिकाई। प्रभु प्रताप जो कालहि खाई ॥ 

गिरि पर चढि लंका तेहिं देखी। कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी ॥ 

अति उतंग जलनिधि चहु पासा। कनक कोट कर परम प्रकासा ॥ 

छं=कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना। 

चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना ॥ 

गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथिन्ह को गनै ॥ 

बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै ॥ १ ॥ 


बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं। 

नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं ॥ 

कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं। 

नाना अखारेन्ह भिरहिं बहु बिधि एक एकन्ह तर्जहीं ॥ २ ॥ 


करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं। 

कहुँ महिष मानषु धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं ॥ 

एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही। 

रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही ॥ ३ ॥ 


 दो.  पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार। 

      अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार ॥ ३ ॥ 


मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी ॥ 

नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी ॥ 

जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहाँ लगि चोरा ॥ 

मुठिका एक महा कपि हनी। रुधिर बमत धरनीं ढनमनी ॥ 

पुनि संभारि उठि सो लंका। जोरि पानि कर बिनय संसका ॥ 

जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा ॥ 

बिकल होसि तैं कपि कें मारे। तब जानेसु निसिचर संघारे ॥ 

तात मोर अति पुन्य बहूता। देखेउँ नयन राम कर दूता ॥ 


 दो.  तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग। 

      तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥ ४ ॥ 


प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कौसलपुर राजा ॥ 

गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई ॥ 

गरुड़ सुमेरु रेनू सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही ॥ 

अति लघु रूप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुमिरि भगवाना ॥ 

मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा। देखे जहँ तहँ अगनित जोधा ॥ 

गयउ दसानन मंदिर माहीं। अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं ॥ 

सयन किए देखा कपि तेही। मंदिर महुँ न दीखि बैदेही ॥ 

भवन एक पुनि दीख सुहावा। हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा ॥ 


 दो.  रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ। 

      नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरषि कपिराइ ॥ ५ ॥ 


लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा ॥ 

मन महुँ तरक करै कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा ॥ 

राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा ॥ 

एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी ॥ 

बिप्र रुप धरि बचन सुनाए। सुनत बिभीषण उठि तहँ आए ॥ 

करि प्रनाम पूँछी कुसलाई। बिप्र कहहु निज कथा बुझाई ॥ 

की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई। मोरें हृदय प्रीति अति होई ॥ 

की तुम्ह रामु दीन अनुरागी। आयहु मोहि करन बड़भागी ॥ 


 दो.  तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम। 

      सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम ॥ ६ ॥ 


सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी ॥ 

तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा ॥ 

तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीति न पद सरोज मन माहीं ॥ 

अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता ॥ 

जौ रघुबीर अनुग्रह कीन्हा। तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा ॥ 

सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती ॥ 

कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना ॥ 

प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा ॥ 


 दो.  अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर। 

      कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ॥ ७ ॥ 


जानतहूँ अस स्वामि बिसारी। फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी ॥ 

एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा ॥ 

पुनि सब कथा बिभीषन कही। जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही ॥ 

तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता। देखी चहउँ जानकी माता ॥ 

जुगुति बिभीषन सकल सुनाई। चलेउ पवनसुत बिदा कराई ॥ 

करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ। बन असोक सीता रह जहवाँ ॥ 

देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा। बैठेहिं बीति जात निसि जामा ॥ 

कृस तन सीस जटा एक बेनी। जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी ॥ 


 दो.  निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन। 

      परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन ॥ ८ ॥ 


तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई। करइ बिचार करौं का भाई ॥ 

तेहि अवसर रावनु तहँ आवा। संग नारि बहु किएँ बनावा ॥ 

बहु बिधि खल सीतहि समुझावा। साम दान भय भेद देखावा ॥ 

कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी। मंदोदरी आदि सब रानी ॥ 

तव अनुचरीं करउँ पन मोरा। एक बार बिलोकु मम ओरा ॥ 

तृन धरि ओट कहति बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही ॥ 

सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा। कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा ॥ 

अस मन समुझु कहति जानकी। खल सुधि नहिं रघुबीर बान की ॥ 

सठ सूने हरि आनेहि मोहि। अधम निलज्ज लाज नहिं तोही ॥ 


 दो.   आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान। 

       परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन ॥ ९ ॥ 


सीता तैं मम कृत अपमाना। कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना ॥ 

नाहिं त सपदि मानु मम बानी। सुमुखि होति न त जीवन हानी ॥ 

स्याम सरोज दाम सम सुंदर। प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर ॥ 

सो भुज कंठ कि तव असि घोरा। सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा ॥ 

चंद्रहास हरु मम परितापं। रघुपति बिरह अनल संजातं ॥ 

सीतल निसित बहसि बर धारा। कह सीता हरु मम दुख भारा ॥ 

सुनत बचन पुनि मारन धावा। मयतनयाँ कहि नीति बुझावा ॥ 

कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई। सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई ॥ 

मास दिवस महुँ कहा न माना। तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना ॥ 


 दो.  भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद। 

      सीतहि त्रास देखावहि धरहिं रूप बहु मंद ॥ १० ॥ 


त्रिजटा नाम राच्छसी एका। राम चरन रति निपुन बिबेका ॥ 

सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना। सीतहि सेइ करहु हित अपना ॥ 

सपनें बानर लंका जारी। जातुधान सेना सब मारी ॥ 

खर आरूढ़ नगन दससीसा। मुंडित सिर खंडित भुज बीसा ॥ 

एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई। लंका मनहुँ बिभीषन पाई ॥ 

नगर फिरी रघुबीर दोहाई। तब प्रभु सीता बोलि पठाई ॥ 

यह सपना में कहउँ पुकारी। होइहि सत्य गएँ दिन चारी ॥ 

तासु बचन सुनि ते सब डरीं। जनकसुता के चरनन्हि परीं ॥ 


 दो.  जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच। 

      मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच ॥ ११ ॥ 


त्रिजटा सन बोली कर जोरी। मातु बिपति संगिनि तैं मोरी ॥ 

तजौं देह करु बेगि उपाई। दुसहु बिरहु अब नहिं सहि जाई ॥ 

आनि काठ रचु चिता बनाई। मातु अनल पुनि देहि लगाई ॥ 

सत्य करहि मम प्रीति सयानी। सुनै को श्रवन सूल सम बानी ॥ 

सुनत बचन पद गहि समुझाएसि। प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि ॥ 

निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी। अस कहि सो निज भवन सिधारी ॥ 

कह सीता बिधि भा प्रतिकूला। मिलहि न पावक मिटिहि न सूला ॥ 

देखिअत प्रगट गगन अंगारा। अवनि न आवत एकउ तारा ॥ 

पावकमय ससि स्त्रवत न आगी। मानहुँ मोहि जानि हतभागी ॥ 

सुनहि बिनय मम बिटप असोका। सत्य नाम करु हरु मम सोका ॥ 

नूतन किसलय अनल समाना। देहि अगिनि जनि करहि निदाना ॥ 

देखि परम बिरहाकुल सीता। सो छन कपिहि कलप सम बीता ॥ 


 सो.  कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारी तब। 

      जनु असोक अंगार दीन्हि हरषि उठि कर गहेउ ॥ १२ ॥ 


तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुंदर ॥ 

चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी ॥ 

जीति को सकइ अजय रघुराई। माया तें असि रचि नहिं जाई ॥ 

सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना ॥ 

रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा ॥ 

लागीं सुनैं श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई ॥ 

श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई। कहि सो प्रगट होति किन भाई ॥ 

तब हनुमंत निकट चलि गयऊ। फिरि बैंठीं मन बिसमय भयऊ ॥ 

राम दूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की ॥ 

यह मुद्रिका मातु मैं आनी। दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी ॥ 

नर बानरहि संग कहु कैसें। कहि कथा भइ संगति जैसें ॥ 


 दो.  कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास ॥ 

      जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास ॥ १३ ॥ 


हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी। सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी ॥ 

बूड़त बिरह जलधि हनुमाना। भयउ तात मों कहुँ जलजाना ॥ 

अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी। अनुज सहित सुख भवन खरारी ॥ 

कोमलचित कृपाल रघुराई। कपि केहि हेतु धरी निठुराई ॥ 

सहज बानि सेवक सुख दायक। कबहुँक सुरति करत रघुनायक ॥ 

कबहुँ नयन मम सीतल ताता। होइहहि निरखि स्याम मृदु गाता ॥ 

बचनु न आव नयन भरे बारी। अहह नाथ हौं निपट बिसारी ॥ 

देखि परम बिरहाकुल सीता। बोला कपि मृदु बचन बिनीता ॥ 

मातु कुसल प्रभु अनुज समेता। तव दुख दुखी सुकृपा निकेता ॥ 

जनि जननी मानहु जियँ ऊना। तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना ॥ 


 दो.  रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर। 

      अस कहि कपि गद गद भयउ भरे बिलोचन नीर ॥ १४ ॥ 


कहेउ राम बियोग तव सीता। मो कहुँ सकल भए बिपरीता ॥ 

नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू। कालनिसा सम निसि ससि भानू ॥ 

कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा। बारिद तपत तेल जनु बरिसा ॥ 

जे हित रहे करत तेइ पीरा। उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा ॥ 

कहेहू तें कछु दुख घटि होई। काहि कहौं यह जान न कोई ॥ 

तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा ॥ 

सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु प्रीति रसु एतेनहि माहीं ॥ 

प्रभु संदेसु सुनत बैदेही। मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही ॥ 

कह कपि हृदयँ धीर धरु माता। सुमिरु राम सेवक सुखदाता ॥ 

उर आनहु रघुपति प्रभुताई। सुनि मम बचन तजहु कदराई ॥ 


 दो.  निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु। 

      जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु ॥ १५ ॥ 


जौं रघुबीर होति सुधि पाई। करते नहिं बिलंबु रघुराई ॥ 

रामबान रबि उएँ जानकी। तम बरूथ कहँ जातुधान की ॥ 

अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई। प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई ॥ 

कछुक दिवस जननी धरु धीरा। कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा ॥ 

निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं। तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं ॥ 

हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना। जातुधान अति भट बलवाना ॥ 

मोरें हृदय परम संदेहा। सुनि कपि प्रगट कीन्ह निज देहा ॥ 

कनक भूधराकार सरीरा। समर भयंकर अतिबल बीरा ॥ 

सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ ॥ 


 दो.  सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल। 

      प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल ॥ १६ ॥ 


मन संतोष सुनत कपि बानी। भगति प्रताप तेज बल सानी ॥ 

आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना ॥ 

अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू ॥ 

करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना ॥ 

बार बार नाएसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा ॥ 

अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता ॥ 

सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुंदर फल रूखा ॥ 

सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी ॥ 

तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं। जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं ॥ 


 दो.  देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु। 

      रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु ॥ १७ ॥ 


चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा। फल खाएसि तरु तोरैं लागा ॥ 

रहे तहाँ बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे ॥ 

नाथ एक आवा कपि भारी। तेहिं असोक बाटिका उजारी ॥ 

खाएसि फल अरु बिटप उपारे। रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे ॥ 

सुनि रावन पठए भट नाना। तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना ॥ 

सब रजनीचर कपि संघारे। गए पुकारत कछु अधमारे ॥ 

पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा। चला संग लै सुभट अपारा ॥ 

आवत देखि बिटप गहि तर्जा। ताहि निपाति महाधुनि गर्जा ॥ 


 दो.  कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि। 

      कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि ॥ १८ ॥ 


सुनि सुत बध लंकेस रिसाना। पठएसि मेघनाद बलवाना ॥ 

मारसि जनि सुत बांधेसु ताही। देखिअ कपिहि कहाँ कर आही ॥ 

चला इंद्रजित अतुलित जोधा। बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा ॥ 

कपि देखा दारुन भट आवा। कटकटाइ गर्जा अरु धावा ॥ 

अति बिसाल तरु एक उपारा। बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा ॥ 

रहे महाभट ताके संगा। गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा ॥ 

तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा। भिरे जुगल मानहुँ गजराजा।

मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई। ताहि एक छन मुरुछा आई ॥ 

उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया। जीति न जाइ प्रभंजन जाया ॥ 


 दो.  ब्रह्म अस्त्र तेहिं साँधा कपि मन कीन्ह बिचार। 

      जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार ॥ १९ ॥ 


ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहि मारा। परतिहुँ बार कटकु संघारा ॥ 

तेहि देखा कपि मुरुछित भयऊ। नागपास बाँधेसि लै गयऊ ॥ 

जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बंधन काटहिं नर ग्यानी ॥ 

तासु दूत कि बंध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा ॥ 

कपि बंधन सुनि निसिचर धाए। कौतुक लागि सभाँ सब आए ॥ 

दसमुख सभा दीखि कपि जाई। कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई ॥ 

कर जोरें सुर दिसिप बिनीता। भृकुटि बिलोकत सकल सभीता ॥ 

देखि प्रताप न कपि मन संका। जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका ॥ 


 दो.  कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद। 

      सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद ॥ २० ॥ 


कह लंकेस कवन तैं कीसा। केहिं के बल घालेहि बन खीसा ॥ 

की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही। देखउँ अति असंक सठ तोही ॥ 

मारे निसिचर केहिं अपराधा। कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा ॥ 

सुन रावन ब्रह्मांड निकाया। पाइ जासु बल बिरचित माया ॥ 

जाकें बल बिरंचि हरि ईसा। पालत सृजत हरत दससीसा।

जा बल सीस धरत सहसानन। अंडकोस समेत गिरि कानन ॥ 

धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता। तुम्ह ते सठन्ह सिखावनु दाता।

हर कोदंड कठिन जेहि भंजा। तेहि समेत नृप दल मद गंजा ॥ 

खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली। बधे सकल अतुलित बलसाली ॥ 


 दो.  जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि। 

      तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि ॥ २१ ॥ 


जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई। सहसबाहु सन परी लराई ॥ 

समर बालि सन करि जसु पावा। सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा ॥ 

खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा। कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा ॥ 

सब कें देह परम प्रिय स्वामी। मारहिं मोहि कुमारग गामी ॥ 

जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे। तेहि पर बाँधेउ तनयँ तुम्हारे ॥ 

मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा। कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा ॥ 

बिनती करउँ जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन ॥ 

देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी। भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी ॥ 

जाकें डर अति काल डेराई। जो सुर असुर चराचर खाई ॥ 

तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै। मोरे कहें जानकी दीजै ॥ 


 दो.  प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि। 

      गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि ॥ २२ ॥ 


राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राज तुम्ह करहू ॥ 

रिषि पुलिस्त जसु बिमल मंयका। तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका ॥ 

राम नाम बिनु गिरा न सोहा। देखु बिचारि त्यागि मद मोहा ॥ 

बसन हीन नहिं सोह सुरारी। सब भूषण भूषित बर नारी ॥ 

राम बिमुख संपति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई ॥ 

सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गए पुनि तबहिं सुखाहीं ॥ 

सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी। बिमुख राम त्राता नहिं कोपी ॥ 

संकर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही ॥ 


 दो.  मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान। 

      भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान ॥ २३ ॥ 


जदपि कहि कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी ॥ 

बोला बिहसि महा अभिमानी। मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी ॥ 

मृत्यु निकट आई खल तोही। लागेसि अधम सिखावन मोही ॥ 

उलटा होइहि कह हनुमाना। मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना ॥ 

सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना। बेगि न हरहुँ मूढ़ कर प्राना ॥ 

सुनत निसाचर मारन धाए। सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए।

नाइ सीस करि बिनय बहूता। नीति बिरोध न मारिअ दूता ॥ 

आन दंड कछु करिअ गोसाँई। सबहीं कहा मंत्र भल भाई ॥ 

सुनत बिहसि बोला दसकंधर। अंग भंग करि पठइअ बंदर ॥ 

 दो.  कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ। 

 तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ ॥ २४ ॥ 


पूँछहीन बानर तहँ जाइहि। तब सठ निज नाथहि लइ आइहि ॥ 

जिन्ह कै कीन्हसि बहुत बड़ाई। देखेउँûमैं तिन्ह कै प्रभुताई ॥ 

बचन सुनत कपि मन मुसुकाना। भइ सहाय सारद मैं जाना ॥ 

जातुधान सुनि रावन बचना। लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना ॥ 

रहा न नगर बसन घृत तेला। बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला ॥ 

कौतुक कहँ आए पुरबासी। मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी ॥ 

बाजहिं ढोल देहिं सब तारी। नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी ॥ 

पावक जरत देखि हनुमंता। भयउ परम लघु रुप तुरंता ॥ 

निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं। भई सभीत निसाचर नारीं ॥ 


 दो.  हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास। 

      अट्टहास करि गर्ज़ा कपि बढ़ि लाग अकास ॥ २५ ॥ 


देह बिसाल परम हरुआई। मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई ॥ 

जरइ नगर भा लोग बिहाला। झपट लपट बहु कोटि कराला ॥ 

तात मातु हा सुनिअ पुकारा। एहि अवसर को हमहि उबारा ॥ 

हम जो कहा यह कपि नहिं होई। बानर रूप धरें सुर कोई ॥ 

साधु अवग्या कर फलु ऐसा। जरइ नगर अनाथ कर जैसा ॥ 

जारा नगरु निमिष एक माहीं। एक बिभीषन कर गृह नाहीं ॥ 

ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा। जरा न सो तेहि कारन गिरिजा ॥ 

उलटि पलटि लंका सब जारी। कूदि परा पुनि सिंधु मझारी ॥ 


 दो.  पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि। 

      जनकसुता के आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि ॥ २६ ॥ 


मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा ॥ 

चूड़ामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ ॥ 

कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा ॥ 

दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी ॥ 

तात सक्रसुत कथा सुनाएहु। बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु ॥ 

मास दिवस महुँ नाथु न आवा। तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा ॥ 

कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना। तुम्हहू तात कहत अब जाना ॥ 

तोहि देखि सीतलि भइ छाती। पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती ॥ 


 दो.  जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह। 

      चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह ॥ २७ ॥ 


चलत महाधुनि गर्जेसि भारी। गर्भ स्त्रवहिं सुनि निसिचर नारी ॥ 

नाघि सिंधु एहि पारहि आवा। सबद किलकिला कपिन्ह सुनावा ॥ 

हरषे सब बिलोकि हनुमाना। नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना ॥ 

मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा। कीन्हेसि रामचन्द्र कर काजा ॥ 

मिले सकल अति भए सुखारी। तलफत मीन पाव जिमि बारी ॥ 

चले हरषि रघुनायक पासा। पूँछत कहत नवल इतिहासा ॥ 

तब मधुबन भीतर सब आए। अंगद संमत मधु फल खाए ॥ 

रखवारे जब बरजन लागे। मुष्टि प्रहार हनत सब भागे ॥ 


 दो.  जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज। 

      सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज ॥ २८ ॥ 


जौं न होति सीता सुधि पाई। मधुबन के फल सकहिं कि खाई ॥ 

एहि बिधि मन बिचार कर राजा। आइ गए कपि सहित समाजा ॥ 

आइ सबन्हि नावा पद सीसा। मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा ॥ 

पूँछी कुसल कुसल पद देखी। राम कृपाँ भा काजु बिसेषी ॥ 

नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना। राखे सकल कपिन्ह के प्राना ॥ 

सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ। कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ।

राम कपिन्ह जब आवत देखा। किएँ काजु मन हरष बिसेषा ॥ 

फटिक सिला बैठे द्वौ भाई। परे सकल कपि चरनन्हि जाई ॥ 


 दो.  प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज। 

      पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज ॥ २९ ॥ 


जामवंत कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया ॥ 

ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर ॥ 

सोइ बिजई बिनई गुन सागर। तासु सुजसु त्रेलोक उजागर ॥ 

प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू ॥ 

नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी ॥ 

पवनतनय के चरित सुहाए। जामवंत रघुपतिहि सुनाए ॥ 

सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए ॥ 

कहहु तात केहि भाँति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की ॥ 


 दो.  नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट। 

      लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥ ३० ॥ 


चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही। रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही ॥ 

नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी ॥ 

अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना। दीन बंधु प्रनतारति हरना ॥ 

मन क्रम बचन चरन अनुरागी। केहि अपराध नाथ हौं त्यागी ॥ 

अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना ॥ 

नाथ सो नयनन्हि को अपराधा। निसरत प्रान करिहिं हठि बाधा ॥ 

बिरह अगिनि तनु तूल समीरा। स्वास जरइ छन माहिं सरीरा ॥ 

नयन स्त्रवहि जलु निज हित लागी। जरैं न पाव देह बिरहागी।

सीता के अति बिपति बिसाला। बिनहिं कहें भलि दीनदयाला ॥ 


 दो.  निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति। 

      बेगि चलिय प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति ॥ ३१ ॥ 


सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आए जल राजिव नयना ॥ 

बचन काँय मन मम गति जाही। सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही ॥ 

कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई ॥ 

केतिक बात प्रभु जातुधान की। रिपुहि जीति आनिबी जानकी ॥ 

सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी ॥ 

प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा ॥ 

सुनु सुत उरिन मैं नाहीं। देखेउँ करि बिचार मन माहीं ॥ 

पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता। लोचन नीर पुलक अति गाता ॥ 


 दो.  सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत। 

      चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत ॥ ३२ ॥ 


बार बार प्रभु चहइ उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा ॥ 

प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा ॥ 

सावधान मन करि पुनि संकर। लागे कहन कथा अति सुंदर ॥ 

कपि उठाइ प्रभु हृदयँ लगावा। कर गहि परम निकट बैठावा ॥ 

कहु कपि रावन पालित लंका। केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ॥ 

प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना। बोला बचन बिगत अभिमाना ॥ 

साखामृग के बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई ॥ 

नाघि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बिधि बिपिन उजारा।

सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ॥ 


 दो.   ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकुल। 

      तब प्रभावँ बड़वानलहिं जारि सकइ खलु तूल ॥ ३३ ॥ 


नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी ॥ 

सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी ॥ 

उमा राम सुभाउ जेहिं जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना ॥ 

यह संवाद जासु उर आवा। रघुपति चरन भगति सोइ पावा ॥ 

सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा। जय जय जय कृपाल सुखकंदा ॥ 

तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा। कहा चलैं कर करहु बनावा ॥ 

अब बिलंबु केहि कारन कीजे। तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे ॥ 

कौतुक देखि सुमन बहु बरषी। नभ तें भवन चले सुर हरषी ॥ 


 दो.  कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ। 

      नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ ॥ ३४ ॥ 


प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा। गरजहिं भालु महाबल कीसा ॥ 

देखी राम सकल कपि सेना। चितइ कृपा करि राजिव नैना ॥ 

राम कृपा बल पाइ कपिंदा। भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा ॥ 

हरषि राम तब कीन्ह पयाना। सगुन भए सुंदर सुभ नाना ॥ 

जासु सकल मंगलमय कीती। तासु पयान सगुन यह नीती ॥ 

प्रभु पयान जाना बैदेहीं। फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं ॥ 

जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई। असगुन भयउ रावनहि सोई ॥ 

चला कटकु को बरनैं पारा। गर्जहि बानर भालु अपारा ॥ 

नख आयुध गिरि पादपधारी। चले गगन महि इच्छाचारी ॥ 

केहरिनाद भालु कपि करहीं। डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं ॥ 


 छं.  चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे। 

      मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किन्नर दुख टरे ॥ 

      कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं। 

      जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं ॥ १ ॥ 


      सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई। 

      गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहई ॥ 

      रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी। 

      जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी ॥ २ ॥ 


 दो.  एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर। 

      जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर ॥ ३५ ॥ 


उहाँ निसाचर रहहिं ससंका। जब ते जारि गयउ कपि लंका ॥ 

निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा। नहिं निसिचर कुल केर उबारा ॥ 

जासु दूत बल बरनि न जाई। तेहि आएँ पुर कवन भलाई ॥ 

दूतन्हि सन सुनि पुरजन बानी। मंदोदरी अधिक अकुलानी ॥ 

रहसि जोरि कर पति पग लागी। बोली बचन नीति रस पागी ॥ 

कंत करष हरि सन परिहरहू। मोर कहा अति हित हियँ धरहु ॥ 

समुझत जासु दूत कइ करनी। स्त्रवहीं गर्भ रजनीचर धरनी ॥ 

तासु नारि निज सचिव बोलाई। पठवहु कंत जो चहहु भलाई ॥ 

तब कुल कमल बिपिन दुखदाई। सीता सीत निसा सम आई ॥ 

सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें। हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें ॥ 


 दो.  -राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक। 

      जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक ॥ ३६ ॥ 


श्रवन सुनी सठ ता करि बानी। बिहसा जगत बिदित अभिमानी ॥ 

सभय सुभाउ नारि कर साचा। मंगल महुँ भय मन अति काचा ॥ 

जौं आवइ मर्कट कटकाई। जिअहिं बिचारे निसिचर खाई ॥ 

कंपहिं लोकप जाकी त्रासा। तासु नारि सभीत बड़ि हासा ॥ 

अस कहि बिहसि ताहि उर लाई। चलेउ सभाँ ममता अधिकाई ॥ 

मंदोदरी हृदयँ कर चिंता। भयउ कंत पर बिधि बिपरीता ॥ 

बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई। सिंधु पार सेना सब आई ॥ 

बूझेसि सचिव उचित मत कहहू। ते सब हँसे मष्ट करि रहहू ॥ 

जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं। नर बानर केहि लेखे माही ॥ 


 दो.  सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस। 

      राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ॥ ३७ ॥ 


सोइ रावन कहुँ बनि सहाई। अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई ॥ 

अवसर जानि बिभीषनु आवा। भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा ॥ 

पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन। बोला बचन पाइ अनुसासन ॥ 

जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता। मति अनुरुप कहउँ हित ताता ॥ 

जो आपन चाहै कल्याना। सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना ॥ 

सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चंद कि नाई ॥ 

चौदह भुवन एक पति होई। भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई ॥  

गुन सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ न कोऊ ॥ 


 दो.   काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ। 

      सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत ॥ ३८ ॥ 


तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला ॥ 

ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता ॥ 

गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपासिंधु मानुष तनुधारी ॥ 

जन रंजन भंजन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता ॥ 

ताहि बयरु तजि नाइअ माथा। प्रनतारति भंजन रघुनाथा ॥ 

देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही। भजहु राम बिनु हेतु सनेही ॥ 

सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा। बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा ॥ 

जासु नाम त्रय ताप नसावन। सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन ॥ 


 दो.  बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस। 

      परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस ॥ ३९(क) ॥ 


      मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात।

      तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात ॥ ३९(ख) ॥ 


माल्यवंत अति सचिव सयाना। तासु बचन सुनि अति सुख माना ॥ 

तात अनुज तव नीति बिभूषन। सो उर धरहु जो कहत बिभीषन ॥ 

रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ। दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ ॥ 

माल्यवंत गृह गयउ बहोरी। कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी ॥ 

सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं ॥ 

जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना ॥ 

तव उर कुमति बसी बिपरीता। हित अनहित मानहु रिपु प्रीता ॥ 

कालराति निसिचर कुल केरी। तेहि सीता पर प्रीति घनेरी ॥ 


 दो.  तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार। 

      सीत देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार ॥ ४० ॥ 


बुध पुरान श्रुति संमत बानी। कही बिभीषन नीति बखानी ॥ 

सुनत दसानन उठा रिसाई। खल तोहि निकट मुत्यु अब आई ॥ 

जिअसि सदा सठ मोर जिआवा। रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा ॥ 

कहसि न खल अस को जग माहीं। भुज बल जाहि जिता मैं नाही ॥ 

मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती। सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती ॥ 

अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा। अनुज गहे पद बारहिं बारा ॥ 

उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई ॥ 

तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा। रामु भजें हित नाथ तुम्हारा ॥ 

सचिव संग लै नभ पथ गयऊ। सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ ॥ 

दो०=रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि। 


      मै रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि ॥ ४१ ॥ 


अस कहि चला बिभीषनु जबहीं। आयूहीन भए सब तबहीं ॥ 

साधु अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी ॥ 

रावन जबहिं बिभीषन त्यागा। भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा ॥ 

चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं। करत मनोरथ बहु मन माहीं ॥ 

देखिहउँ जाइ चरन जलजाता। अरुन मृदुल सेवक सुखदाता ॥ 

जे पद परसि तरी रिषिनारी। दंडक कानन पावनकारी ॥ 

जे पद जनकसुताँ उर लाए। कपट कुरंग संग धर धाए ॥ 

हर उर सर सरोज पद जेई। अहोभाग्य मै देखिहउँ तेई ॥ 

दो०= जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ। 


      ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ ॥ ४२ ॥ 


एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा। आयउ सपदि सिंधु एहिं पारा ॥ 

कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा। जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा ॥ 

ताहि राखि कपीस पहिं आए। समाचार सब ताहि सुनाए ॥ 

कह सुग्रीव सुनहु रघुराई। आवा मिलन दसानन भाई ॥ 

कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा। कहइ कपीस सुनहु नरनाहा ॥ 

जानि न जाइ निसाचर माया। कामरूप केहि कारन आया ॥ 

भेद हमार लेन सठ आवा। राखिअ बाँधि मोहि अस भावा ॥ 

सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी। मम पन सरनागत भयहारी ॥ 

सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना। सरनागत बच्छल भगवाना ॥ 

दो०=सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि। 


      ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि ॥ ४३ ॥ 


कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू ॥ 

सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥ 

पापवंत कर सहज सुभाऊ। भजनु मोर तेहि भाव न काऊ ॥ 

जौं पै दुष्टहृदय सोइ होई। मोरें सनमुख आव कि सोई ॥ 

निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा ॥ 

भेद लेन पठवा दससीसा। तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा ॥ 

जग महुँ सखा निसाचर जेते। लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते ॥ 

जौं सभीत आवा सरनाई। रखिहउँ ताहि प्रान की नाई ॥ 

दो०=उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत। 


      जय कृपाल कहि चले अंगद हनू समेत ॥ ४४ ॥ 


सादर तेहि आगें करि बानर। चले जहाँ रघुपति करुनाकर ॥ 

दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता। नयनानंद दान के दाता ॥ 

बहुरि राम छबिधाम बिलोकी। रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी ॥ 

भुज प्रलंब कंजारुन लोचन। स्यामल गात प्रनत भय मोचन ॥ 

सिंघ कंध आयत उर सोहा। आनन अमित मदन मन मोहा ॥ 

नयन नीर पुलकित अति गाता। मन धरि धीर कही मृदु बाता ॥ 

नाथ दसानन कर मैं भ्राता। निसिचर बंस जनम सुरत्राता ॥ 

सहज पापप्रिय तामस देहा। जथा उलूकहि तम पर नेहा ॥ 


 दो.  श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर। 

      त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ॥ ४५ ॥ 


अस कहि करत दंडवत देखा। तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा ॥ 

दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा। भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा ॥ 

अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी। बोले बचन भगत भयहारी ॥ 

कहु लंकेस सहित परिवारा। कुसल कुठाहर बास तुम्हारा ॥ 

खल मंडलीं बसहु दिनु राती। सखा धरम निबहइ केहि भाँती ॥ 

मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती। अति नय निपुन न भाव अनीती ॥ 

बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ बिधाता ॥ 

अब पद देखि कुसल रघुराया। जौं तुम्ह कीन्ह जानि जन दाया ॥ 


 दो.  तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम। 

      जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम ॥ ४६ ॥ 


तब लगि हृदयँ बसत खल नाना। लोभ मोह मच्छर मद माना ॥ 

जब लगि उर न बसत रघुनाथा। धरें चाप सायक कटि भाथा ॥ 

ममता तरुन तमी अँधिआरी। राग द्वेष उलूक सुखकारी ॥ 

तब लगि बसति जीव मन माहीं। जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं ॥ 

अब मैं कुसल मिटे भय भारे। देखि राम पद कमल तुम्हारे ॥ 

तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला। ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला ॥ 

मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ। सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ ॥ 

जासु रूप मुनि ध्यान न आवा। तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा ॥ 


 दो.  -अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज। 

      देखेउँ नयन बिरंचि सिब सेब्य जुगल पद कंज ॥ ४७ ॥ 


सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ। जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ ॥ 

जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवे सभय सरन तकि मोही ॥ 

तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेहि साधु समाना ॥ 

जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुह्रद परिवारा ॥ 

सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी ॥ 

समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं ॥ 

अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें ॥ 

तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें। धरउँ देह नहिं आन निहोरें ॥ 


 दो.   सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम। 

      ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम ॥ ४८ ॥ 


सुनु लंकेस सकल गुन तोरें। तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें ॥ 

राम बचन सुनि बानर जूथा। सकल कहहिं जय कृपा बरूथा ॥ 

सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी। नहिं अघात श्रवनामृत जानी ॥ 

पद अंबुज गहि बारहिं बारा। हृदयँ समात न प्रेमु अपारा ॥ 

सुनहु देव सचराचर स्वामी। प्रनतपाल उर अंतरजामी ॥ 

उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही ॥ 

अब कृपाल निज भगति पावनी। देहु सदा सिव मन भावनी ॥ 

एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा। मागा तुरत सिंधु कर नीरा ॥ 

जदपि सखा तव इच्छा नाहीं। मोर दरसु अमोघ जग माहीं ॥ 

अस कहि राम तिलक तेहि सारा। सुमन बृष्टि नभ भई अपारा ॥ 


 दो.  रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड। 

      जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेहु राजु अखंड ॥ ४९(क) ॥ 


      जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।

      सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्ह रघुनाथ ॥ ४९(ख) ॥ 


अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना। ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना ॥ 

निज जन जानि ताहि अपनावा। प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा ॥ 

पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी। सर्बरूप सब रहित उदासी ॥ 

बोले बचन नीति प्रतिपालक। कारन मनुज दनुज कुल घालक ॥ 

सुनु कपीस लंकापति बीरा। केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा ॥ 

संकुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भाँती ॥ 

कह लंकेस सुनहु रघुनायक। कोटि सिंधु सोषक तव सायक ॥ 

जद्यपि तदपि नीति असि गाई। बिनय करिअ सागर सन जाई ॥ 


 दो.  प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि। 

      बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि ॥ ५० ॥ 


सखा कही तुम्ह नीकि उपाई। करिअ दैव जौं होइ सहाई ॥ 

मंत्र न यह लछिमन मन भावा। राम बचन सुनि अति दुख पावा ॥ 

नाथ दैव कर कवन भरोसा। सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा ॥ 

कादर मन कहुँ एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा ॥ 

सुनत बिहसि बोले रघुबीरा। ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा ॥ 

अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई। सिंधु समीप गए रघुराई ॥ 

प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई। बैठे पुनि तट दर्भ डसाई ॥ 

जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए। पाछें रावन दूत पठाए ॥ 


 दो.  सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह। 

      प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह ॥ ५१ ॥ 


प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ। अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ ॥ 

रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने। सकल बाँधि कपीस पहिं आने ॥ 

कह सुग्रीव सुनहु सब बानर। अंग भंग करि पठवहु निसिचर ॥ 

सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए। बाँधि कटक चहु पास फिराए ॥ 

बहु प्रकार मारन कपि लागे। दीन पुकारत तदपि न त्यागे ॥ 

जो हमार हर नासा काना। तेहि कोसलाधीस कै आना ॥ 

सुनि लछिमन सब निकट बोलाए। दया लागि हँसि तुरत छोडाए ॥ 

रावन कर दीजहु यह पाती। लछिमन बचन बाचु कुलघाती ॥ 


 दो.  कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार। 

      सीता देइ मिलेहु न त आवा काल तुम्हार ॥ ५२ ॥ 


तुरत नाइ लछिमन पद माथा। चले दूत बरनत गुन गाथा ॥ 

कहत राम जसु लंकाँ आए। रावन चरन सीस तिन्ह नाए ॥ 

बिहसि दसानन पूँछी बाता। कहसि न सुक आपनि कुसलाता ॥ 

पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी। जाहि मृत्यु आई अति नेरी ॥ 

करत राज लंका सठ त्यागी। होइहि जब कर कीट अभागी ॥ 

पुनि कहु भालु कीस कटकाई। कठिन काल प्रेरित चलि आई ॥ 

जिन्ह के जीवन कर रखवारा। भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा ॥ 

कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी। जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी ॥ 


 दो.  -की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर। 

      कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ॥ ५३ ॥ 


नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें। मानहु कहा क्रोध तजि तैसें ॥ 

मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा। जातहिं राम तिलक तेहि सारा ॥ 

रावन दूत हमहि सुनि काना। कपिन्ह बाँधि दीन्हे दुख नाना ॥ 

श्रवन नासिका काटै लागे। राम सपथ दीन्हे हम त्यागे ॥                                                       

पूँछिहु नाथ राम कटकाई। बदन कोटि सत बरनि न जाई ॥ 

नाना बरन भालु कपि धारी। बिकटानन बिसाल भयकारी ॥ 

जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा। सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा ॥ 

अमित नाम भट कठिन कराला। अमित नाग बल बिपुल बिसाला ॥ 


 दो.  द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि। 

      दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि ॥ ५४ ॥ 


ए कपि सब सुग्रीव समाना। इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना ॥ 

राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं। तृन समान त्रेलोकहि गनहीं ॥ 

अस मैं सुना श्रवन दसकंधर। पदुम अठारह जूथप बंदर ॥ 

नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं। जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं ॥ 

परम क्रोध मीजहिं सब हाथा। आयसु पै न देहिं रघुनाथा ॥ 

सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला। पूरहीं न त भरि कुधर बिसाला ॥ 

मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा। ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा ॥ 

गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका। मानहु ग्रसन चहत हहिं लंका ॥ 


 दो.  -सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम। 

      रावन काल कोटि कहु जीति सकहिं संग्राम ॥ ५५ ॥ 


राम तेज बल बुधि बिपुलाई। तब भ्रातहि पूँछेउ नय नागर ॥ 

तासु बचन सुनि सागर पाहीं। मागत पंथ कृपा मन माहीं ॥ 

सुनत बचन बिहसा दससीसा। जौं असि मति सहाय कृत कीसा ॥ 

सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई। सागर सन ठानी मचलाई ॥ 

मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई। रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई ॥ 

सचिव सभीत बिभीषन जाकें। बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें ॥ 

सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी। समय बिचारि पत्रिका काढ़ी ॥ 

रामानुज दीन्ही यह पाती। नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती ॥ 

बिहसि बाम कर लीन्ही रावन। सचिव बोलि सठ लाग बचावन ॥ 


 दो.  -बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस। 

      राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस ॥ ५६(क) ॥ 


      की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।

      होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग ॥ ५६(ख) ॥ 


सुनत सभय मन मुख मुसुकाई। कहत दसानन सबहि सुनाई ॥ 

भूमि परा कर गहत अकासा। लघु तापस कर बाग बिलासा ॥ 

कह सुक नाथ सत्य सब बानी। समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी ॥ 

सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा। नाथ राम सन तजहु बिरोधा ॥ 

अति कोमल रघुबीर सुभाऊ। जद्यपि अखिल लोक कर राऊ ॥ 

मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही। उर अपराध न एकउ धरिही ॥ 

जनकसुता रघुनाथहि दीजे। एतना कहा मोर प्रभु कीजे।

जब तेहिं कहा देन बैदेही। चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही ॥ 

नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ। कृपासिंधु रघुनायक जहाँ ॥ 

करि प्रनामु निज कथा सुनाई। राम कृपाँ आपनि गति पाई ॥ 

रिषि अगस्ति कीं साप भवानी। राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी ॥ 

बंदि राम पद बारहिं बारा। मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा ॥ 


 दो.  बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति। 

      बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति ॥ ५७ ॥ 


लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू ॥ 

सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती। सहज कृपन सन सुंदर नीती ॥ 

ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी ॥ 

क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा ॥ 

अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा। यह मत लछिमन के मन भावा ॥ 

संघानेउ प्रभु बिसिख कराला। उठी उदधि उर अंतर ज्वाला ॥ 

मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जंतु जलनिधि जब जाने ॥ 

कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना ॥ 


 दो.  काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच। 

      बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच ॥ ५८ ॥ 


सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे ॥ 

गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी ॥ 

तव प्रेरित मायाँ उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए ॥ 

प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई। सो तेहि भाँति रहे सुख लहई ॥ 

प्रभु भल कीन्ही मोहि सिख दीन्ही। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही ॥ 

ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी ॥ 

प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई। उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई ॥ 

प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई। करौं सो बेगि जौ तुम्हहि सोहाई ॥ 


 दो.  सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ। 

      जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ ॥ ५९ ॥ 


नाथ नील नल कपि द्वौ भाई। लरिकाई रिषि आसिष पाई ॥ 

तिन्ह के परस किएँ गिरि भारे। तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे ॥ 

मैं पुनि उर धरि प्रभुताई। करिहउँ बल अनुमान सहाई ॥ 

एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ। जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ ॥ 

एहि सर मम उत्तर तट बासी। हतहु नाथ खल नर अघ रासी ॥ 

सुनि कृपाल सागर मन पीरा। तुरतहिं हरी राम रनधीरा ॥ 

देखि राम बल पौरुष भारी। हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी ॥ 

सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा। चरन बंदि पाथोधि सिधावा ॥ 


 छं.  निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ। 

      यह चरित कलि मलहर जथामति दास तुलसी गायऊ ॥ 

      सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना ॥ 

      तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना ॥ 


 दो.  सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान। 

      सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान ॥ ६० ॥ 


          मासपारायण, चौबीसवाँ विश्राम

            ऽऽऽऽऽऽऽ

       इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने

          पञ्चमः सोपानः समाप्तः ।

           (सुन्दरकाण्ड समाप्त)


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