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भगवत्ता एक सत्य है ओशो

 भगवत्ता एक सत्य है; भगवान एक कल्पना। भगवत्ता एक अनुभव है; भगवान, एक प्रतीक, एक प्रतिमा। जैसे तुमने भारत माता की तस्वीरें देखी हों। कोई चाहे तो प्रेम की तस्वीर बना ले। लोगों ने प्रभात की तस्वीरें बनाई हैं, रात्रि की तस्वीरें बनाई हैं। प्रकृति को भी रूपायित करने की चेष्टा की है। काव्य की तरह वह सब ठीक, लेकिन सत्य की तरह उसका कोई मूल्य नहीं।


जीवन, अस्तित्व संज्ञाओं से नहीं बनता, क्रियाओं से बनता है। और हमारी भाषा संज्ञाओं पर जोर देती है। जैसे सच पूछो तो जब हम कहते हैं वृक्ष है, तो गलत कहते हैं। कहना चाहिए... वृक्ष हो रहा है। वृक्ष एक क्रिया है, जीवंतता है। वृक्ष कोई ऐसी चीज नहीं जो ठहरी है; गतिमान है, गत्यात्मक है, प्रवाहमान है। वृक्ष की तो छोड़ ही दो, हम तो यह भी कहते हैं कि नदी है। यूनान के रहस्यवादी हेराक्लाइटस ने कहा है: एक ही नदी में दुबारा उतरना संभव नहीं है। और मैं तो कहता हूं: एक ही नदी में एक बार भी उतरना संभव नहीं। क्योंकि जब तुम्हारा पैर नदी के ऊपरी तल को छूता है तब नदी भागी जा रही है। जब तुम्हारा पैर थोड़ा पानी में भीतर धंसता है तब तक ऊपर का पानी भागा जा रहा है। जब तक तुम अपने पैर से नदी के तल को छू पाते हो तब तक कितना पानी बह चुका! एक ही नदी में एक बार भी उतरना संभव नहीं है। नदी प्रवाह है। लेकिन हम नदी को एक ठहरी हुई संज्ञा बना लेते हैं। काश, हम भाषा को क्रियाओं में बदल दें तो हम सत्य के ज्यादा करीब पहुंच जाएंगे। और वही मेरी चेष्टा है।


इसलिए भगवान पर जोर नहीं देता हूं, भगवत्ता पर जोर देता हूं। भगवत्ता का अर्थ हुआ: अनुभूति, प्रवाहमान अनुभूति। भगवत्ता का अर्थ हुआ: नहीं कोई पूजा करनी है, नहीं कोई प्रार्थना, नहीं किन्हीं मंदिरों में घड़ियाल बजाने हैं, न पूजा के थाल सजाने हैं, न अर्चना, न विधि-विधान, यज्ञ-हवन, वरन अपने भीतर वह जो जीवन की सतत धारा है उस धारा का अनुभव करना है। वह जो चेतना है, चैतन्य है, वह जो प्रकाश है, स्वयं के भीतर जो बोध की छिपी हुई दुनिया है, वह जो बोध का रहस्यमय संसार है, उसका साक्षात्कार करना है। उसके साक्षात्कार से जीवन सुगंध से भर जाता है। ऐसी सुगंध से जो फिर कभी चुकती नहीं। उस सुगंध का नाम भगवत्ता है।


भगवान की तरह तुम किसी व्यक्ति को कभी न मिल सकोगे। तुम अगर सोचते होओ कि कभी मुलाकात होगी, कभी दो बातें होंगी, कि कभी जीवन का दुखड़ा रोएंगे, कथा-व्यथा कहेंगे, तो तुम गलती में हो। ऐसा भगवान न कहीं है, न कभी था। इसलिए तुम जिन प्रतिमाओं के सामने सिर झुका रहे हो वे प्रतिमाएं तुम्हारी ही ईजाद हैं। काव्य की तरह मैं उन्हें स्वीकार करता हूं, सुंदर हो सकती हैं, लेकिन तथ्य की भांति उनमें कुछ भी नहीं है। अपनी ही बनाई हुई चीजों के सामने झुकने से ज्यादा और नासमझी क्या होगी?


मैं मूर्तिभंजक हूं। और पत्थर की मूर्तियां नहीं तोड़नी हैं। पत्थर की मूर्तियां तोड़ने से क्या होगा? वे तो कलाकृतियां हैं। लेकिन तुम्हारे चित्त से जो मूर्ति की धारणा है वह जरूर खंडित करनी है।


लोग अक्सर सवाल उठाते हैं। जैसे कि जैनों ने सवाल उठाया है कि हम कैसे कृष्ण को भगवान कहें? या हिंदुओं ने सवाल उठाया है कि हम कैसे महावीर को भगवान कहें, कैसे बुद्ध को भगवान कहें? या बौद्धों ने सवाल उठाया है कि हम कैसे महावीर को भगवान कहें? क्योंकि व्यक्ति की तो सीमाएं हैं - जन्म है और मृत्यु है; बीमारी है, बुढ़ापा है; आज व्यक्ति है, कल नहीं हो जाएगा। और उनकी बात तर्कयुक्त मालूम होती है।


लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि व्यक्तियों को चाहो तो भगवान कह सकते हो - इस अर्थ में कि जिन्होंने भगवत्ता को पहचान लिया, जिन्होंने अपने भीतर की भगवत्ता को पी लिया, आकंठ जो उसमें डूब गए, उनको तुम भगवान कह सकते हो, फिर वे जीसस हों कि मोहम्मद हों, मंसूर हों कि महावीर हों, कि कबीर हो कि नानक हों - कुछ फर्क नहीं पड़ता कौन। जिसने प्रेम को जाना, वह प्रेमी और जिसने भगवत्ता को जाना, वह भगवान। लेकिन भगवत्ता असली बात है। जिसने उसे पीया, जो तृप्त हुआ, वह भगवान। ऐसा कोई भगवान नहीं है जिसने जगत को बनाया हो। ऐसा कोई भगवान नहीं है जो स्रष्टा हो। जरूर यह पूरी प्रकृति ओतप्रोत है एक अनिर्वचनीय रहस्य से; एक अपरिभाष्य, एक असीम इस पूरी प्रकृति में समाविष्ट है। वह इसके बाहर बनाने वाला नहीं है, इसके रोएं-रोएं में, इसके कण-कण में ओतप्रोत है। वही है।


भगवान से स्रष्टा की भ्रांति पैदा होती है। और भगवत्ता से सृजनात्मकता का बोध पैदा होता है।


और ऐसे ही मैं धर्म की जगह धार्मिकता की बात करता हूं। क्योंकि धर्म से अर्थ होता है: बंधी-बंधाई धारणाएं। धर्म से अर्थ होता है: मान्यताएं, विश्वास। और धार्मिकता से अर्थ होता है: चैतन्य की उज्ज्वल स्थिति; भीतर का ज्योतिर्मय हो जाना, आलोकित हो जाना। भीतर अंधेरा है अभी, यह अधर्म। या ज्यादा ठीक हो: अधार्मिकता। और भीतर चेतना का प्रकाश फैल जाए, ध्यान जगे, ध्यान की लपट उठे, तो धार्मिकता।


धार्मिकता कोई सिद्धांत नहीं है, जैसे भगवत्ता कोई व्यक्ति नहीं है। सिद्धांत तो दो कौड़ी की चीजें हैं। जैसा चाहो बना लो, जैसा चाहो मिटा लो। सिद्धांत तो तर्कों का जाल है। और तर्क का मालिक आदमी है। वही तर्क सिद्ध कर सकता है, वही तर्क असिद्ध कर सकता है। तर्क का कोई भरोसा नहीं। और ऐसा कौन सा सिद्धांत है जिसका खंडन न किया जा सके? और ऐसा कौन सा विचार है जिसका समर्थन न किया जा सके? तर्क तो वेश्या है। किसी के भी साथ खड़ा कर दो। या कहो कि तर्क वकील है। वकील और वेश्याओं में बहुत भेद नहीं। वकील तो किसी के भी साथ खड़े हो जाने को तैयार है।


मुल्ला नसरुद्दीन एक वकील के पास गया था। वकील ने उससे पूरा मामला सुना और सुनकर कहा कि बिलकुल घबड़ाओ मत, हजार रुपया फीस लगेगी लेकिन मुकदमा तुम निश्चित जीतोगे। तुम्हारी जीत सुनिश्चित है। तुम्हारा मामला बिलकुल साफ है। इसमें हार की कोई संभावना नहीं है।


मुल्ला नसरुद्दीन उठकर खड़ा हो गया।

वकील ने पूछा, कहां जाते हो?

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि जब जीत साफ ही है और हार का कोई उपाय ही नहीं, तो क्या फायदा लड़ने से? वकील ने कहा, मैं कुछ समझा नहीं। तो क्या हारने के लिए लड़ना चाहते हो?


मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, "अब तुम से क्या छिपाना? यह मैंने अपने विरोधी की तरफ से जो मामला है वह कहा था। जब जीत की बिलकुल निश्चय ही है और हार हो ही नहीं सकती तो अब लड़ना क्या? यह मैंने विरोधी की तरफ से जो-जो दलीलें थीं वे तुम्हारे सामने रखीं। और तुम कहते हो जीत बिलकुल सुनिश्चित है। सो विरोधी जीतेगा। अब ये हजार रुपए और किसलिए खराब करने।" वकील तो सभी को कहता है कि जीतोगे। इसने अगर अपना मामला बताया होता तो भी यही कहता। इसने किसी और का मामला बताया तो भी यही कहा। वकील का तो धंधा यही है।


तर्क का भी धंधा है। ईश्वर को सिद्ध कर सकते हो तर्क से, असिद्ध कर सकते हो। इसीलिए तो नास्तिक और आस्तिक सदियों से उलझते रहे, जूझते रहे, कोई निर्णय न हुआ।


मैं धर्म को सिद्धांत की बात नहीं मानता। सिद्धांत तो बदल जाते हैं। नए तथ्य निकल आते हैं तो सिद्धांतों में रूपांतरण करना होता है। विज्ञान सिद्धांतों की बात है। इसलिए विज्ञान में रोज सिद्धांत बदलते हैं। न्यूटन के समय में एक सिद्धांत था, एडीसन के समय में दूसरा हुआ, आइंस्टीन के समय में तीसरा हुआ, अब आइंस्टीन के भी आगे बात जा रही है। नए तथ्य प्रकट हो रहे हैं। यह रोज बदलाहट होती रहेगी।


धर्म सिद्धांत नहीं है।

धर्म फिर क्या है? धर्म ध्यान है, बोध है, बुद्धत्व है। इसलिए मैं धार्मिकता की बात करता हूं। चूंकि धर्म को सिद्धांत समझा गया है, इसलिए ईसाई पैदा हो गए, हिंदू पैदा हो गए, मुसलमान पैदा हो गए। अगर धर्म की जगह धार्मिकता की बात फैले तो फिर ये भेद अपने आप गिर जाएंगे। धार्मिकता कहीं हिंदू होती है कि मुसलमान होती है कि ईसाई होती है! धार्मिकता तो बस धार्मिकता होती है। स्वास्थ्य हिंदू होता है कि मुसलमान कि ईसाई? प्रेम जैन होता है, बौद्ध होता है कि सिक्ख?


जीवन, अस्तित्व इन संकीर्ण धारणाओं में नहीं बंधता। जीवन सभी संकीर्ण धारणाओं का अतिक्रमण करता है। इनके पार जाता है।


धार्मिकता धर्मों के पार है। और भगवत्ता तुम्हारे तथाकथित भगवान की धारणाओं के पार है। भगवानों की तो बहुत धारणाएं हैं। हिंदुओं का भगवान है, उसके तीन चेहरे हैं, हजार हाथ हैं। फिर ईसाइयों का भगवान है, फिर मुसलमानों का भगवान है। भगवान की तो धारणाएं जितने लोग हैं उतनी हो सकती हैं। लेकिन भगवत्ता कोई धारणा नहीं है। इसलिए भगवत्ता का कोई रूप न बन सकेगा। सौंदर्य का तुम क्या रूप बनाओगे? सुंदर सुबह की तस्वीर हो सकती है, सुंदर फूल की तस्वीर हो सकती है, सुंदर चेहरे की तस्वीर हो सकती है, लेकिन सौंदर्य की क्या तस्वीर होगी? सौंदर्य का तो सिर्फ अनुभव हो सकता है। भगवत्ता सौंदर्य है।


भगवत्ता और धार्मिकता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अगर भगवान को मानोगे तो धर्म को मानोगे। भगवान आया तो सिद्धांत आए, शास्त्र आए। भगवत्ता आई तो सिद्धांत गए, शास्त्र गए, धार्मिकता आई।


इसलिए पूर्णानंद, मैं निश्चित जोर दे रहा हूं भगवत्ता पर, धार्मिकता पर। काश, तुम व्यक्ति से, सिद्धांत से, शास्त्र से, शब्द से मुक्त हो सको तो तुम्हारा अपने भीतर आगमन संभव हो जाए। और जिस क्षण तुम अपने भीतर आओगे उसी क्षण पाओगे - वह महत संपदा, जो दबी पड़ी है। जिसकी तुम खोज कर रहे हो, वह तुम्हारे भीतर मौजूद है और जिसकी तुम पूजा कर रहे हो, वह पूजा करने वाले में बैठा हुआ है। किसकी तुम बाहर पूजा करते हो?


लोग फिर मंदिर बदल लेते हैं। एक मंदिर से थक जाते हैं तो दूसरे मंदिर जाने लगते हैं। मंदिरों से थक गए तो मस्जिद जाने लगते हैं, मस्जिदों से थक गए तो गिरजे जाने लगते हैं, गिरजों से थक गए तो गुरुद्वारा जाने लगते हैं।


लेकिन इन सारी बदलाहटों से कुछ भी न होगा। बाहर से थको तो कोई क्रांति घट सकती है। बाहर से थको और भीतर आओ - अपने पर आओ। वहीं मुकाम है। वहीं अंतिम पड़ाव है। वहीं विराम है। वहीं विश्राम है।


 


ओशो, 

पीवत रामरस लगी खुमारी, प्रवचन #9

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