इसी रिपोर्ट "हमारा सामूहिक भविष्य' ने जिन बुनियादी समस्याओं की चर्चा की है-भोजन की सुरक्षा, जनसं"या और साधन, जातियां और पर्यावरण व्यवस्था, उद्योग, प्रदूषण तथा शहरी समस्याएं-वे वस्तुतः एक व्यापक समस्या के सिर्फ अल्प अंश हैं। रिपोर्ट वास्तविक समस्याओं की उपेक्षा करती है। वह कहती है, राष्ट्रों को मिल-जुल कर काम करना चाहिए लेकिन जड़ों की तरफ ध्यान नहीं देती:
इस पृथ्वी के टुकड़े कौन कर रहा है?
वह कहती है कि अर्थशास्त्र और पर्यावरण जुड़े हुए हैं, लेकिन धर्म और राजनीति-अतीत के इन दो निहित स्वार्थों के संबंध में क्या, जो राष्ट्रों के खंडों के लिए जिम्मेवार हैं?
यह कह कर कि अब हमें भविष्य के लिए काम करना है, रिपोर्ट ने यह मान लिया है कि वर्तमान परिस्थिति का निर्माण अतीत ने किया है। लेकिन अभी भी हम हर तरह से अतीत से चिपके हुए हैं।
अगर भविष्य के लिए हम जिम्मेवार हैं तो हमारे लिए कौन जिम्मेवार है?
अतीत ने हमें निर्मित किया है और हम संकट में जी रहे हैं।
ये समस्याएं हमने पैदा नहीं की हैं, ये अतीत की मनुष्यता ने पैदा की हैं। अगर हमें सचमुच भविष्य के लिए कुछ समाधान खोजना है तो हमें इन समस्याओं की जड़ों को अतीत में खोजना चाहिए।
वृक्षों के पत्ते काटने से कुछ नहीं बदलता-तुम्हें जड़ें ही काटनी होंगी। "और जैसे ही तुम जड़ों से शुरुआत करोगे, तुम मुश्किल में पड़ जाओगे क्योंकि उन जड़ों में राजनीतिक हैं, उन जड़ों में संगठित धर्म हैं, उन जड़ों में सभी राष्ट्र हैं-और समाज की सबसे बुनियादी इकाई है विवाह, जहां से मूलतः हमारी सभी समस्याएं पैदा होती हैं।"
अगर हम विवाह को विसर्जित करते हैं जो समाज विसर्जित हो जाता है और उसका उपफल यह होगा कि राष्ट्र, जातियां, राजनीतिक और पुरोहित विदा हो जाएंगे। इसी वजह से वे सब विवाह पर जोर देते हैं। वे जानते हैं कि वह जड़ है, और आदमी को दुखी और दास बनाए रखने के लिए वह आवश्यक है।
अपने आप जो भविष्य आने वाला है, उससे अगर हम भिन्न प्रकार का भविष्य चाहते हैं तो हमें अतीत से अपना नाता तोड़ देना होगा।
लगता है मनुष्य इन सब बातों के लिए जीता है-जनतंत्र, समाजवाद, फॉसिज्म, कम्युनिज्म, हिंदू धर्म, ईसाइयत, बौद्ध धर्म, इस्लाम।
हकीकत यह होनी चाहिए कि सब कुछ मनुष्य के लिए हो। और अगर वह मनुष्य के विपरीत पड़ता है तो उसे होना ही नहीं चाहिए।
मनुष्यता का पूरा अतीत मूढ़तापूर्ण विचारधाराओं से भरा पड़ा है जिसके लिए लोग धर्मयुद्ध करते रहे हैं, मारते रहे हैं, खून करते रहे हैं, जिंदा लोगों को जलाते रहे हैं। विगत तीन हजार वर्षों में हम पांच हजार युद्ध लड़े हैं, मानो लड़ने का नाम ही जीवन है; और मानो सृजन करना, प्रकृति के उपहारों का उपभोग करना जीवन का हिस्सा है ही नहीं।
हमें यह सब पागलपन छोड़ना होगा।
हम जब तक जड़ों को ही आमूल न काट दें तब तक हम इस संसार में कुछ भी रूपांतरण नहीं ला सकते।
आज मनुष्यता को बड़ी से बड़ी जरूरत इस बात की है कि उसकी समझ में आ जाए कि अतीत ने उसके साथ धोखा किया है; कि अब अतीत को बनाए रखने में कोई सार नहीं है, वह आत्मघातक होगा; और नई मनुष्यता का आविर्भाव तुरंत होना निहायत जरूरी है।
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