आत्मबल और शारीरिक बल में क्या अंतर है?
आत्मबल बल शारीरिक बल में कोई समानता नहीं है, क्योंकि शारीरिक बल का कारण हमारी शारीरिक बनावट और हमारे व्यायाम पर निर्भर करता है, यद्यपि आत्मबल के लिए शारीरिक बनावट कैसा भी हो इससे कोई खास मायने नहीं रखता है।
शारीरिक बल और आत्मिक बल की क्या आवश्यक्ता है? शारीरिक बल हमें संसार में आये दीन जीवन में आनेवाली साधारण समस्या के समाधान के लिए आवश्यक होती है। यद्यपिक आत्मिक बल हमें हमारे जीवन के उस पर शीखर पर पहूंचने में सहायता प्रदान करती है जिससे हम इस संसार सागर से तर सकते हैं। यह संभावाना है क्योकि आत्मिक बल की शीक्षा हमारे समाज में कहीं पर नहीं दी जाती है, शारीरिक बल को विकसीत करने के लिए तरह तरह के साधन निर्मित किए गए है।
शरीर के बल की अपनी सीमा है। यदि किसी मनुष्य का आत्मा निर्बल है तो शरीर स्वस्थ व बलवान होकर भी वह कार्य नहीं कर सकता जो आत्म बल के होने पर उस शरीर से लिया जा सकता है। अतः मनुष्य को अपने शरीर के बल को बढ़ाने के साथ अपनी आत्मा के बल को भी बढ़ाने का प्रयत्न करना चाहिये। शारीरिक बल को बढ़ाने के उपायों पर विचार करते हैं।
शरीर को बलवान बनाने के लिये हमें शाकाहारी भोजन करना होता है। भोजन शरीर की आवश्यकता व शारीरिक श्रम के अनुरुप करना उचित होता है। यदि कोई अधिक श्रम करता है तो उसको अधिक भूख लगती है और उसके भोजन की मात्रा अधिक हो सकती है। जो मनुष्य शारीरिक परिश्रम कम करते हैं परन्तु मानसिक कार्य अधिक करते हैं, उनको भोजन कम मात्रा में लेना होता है। अधिक मात्रा में भोजन करने से मनुष्य अधिक बलवान नहीं होता अपितु भोजन सुपाच्य हो और उसको पचाने हेतु हमारे पाचन तन्त्र व शरीर के अन्य अंगों पर अधिक भार न पड़े, इसका ध्यान रखना होता है। भोजन के अतिरिक्त शरीर को प्रातःकाल वायु सेवन से भी स्वस्थ व निरोग रखना चाहिये। प्रातः 4 से 6 बजे तक भ्रमण करने से शुद्ध वायु शरीर में प्रवेश करती है जिससे हृदयस्थ रक्त अधिक स्वच्छ व शुद्ध होता है। रक्त की शुद्धता भी मनुष्य के स्वस्थ जीवन एवं बल का आधार होता है। व्यायाम और प्राणायाम का भी शरीर को स्वस्थ रखने में योगदान होता है। मनुष्य को नियमित रूप से व्यायाम एवं प्राणायाम आदि भी करना चाहिये। प्राचीन काल से हमारे देश के ज्ञानी लोग इन सब बातों को जानते थे और इनको करके स्वस्थ रहा करते थे। यह भी ध्यान रहे कि भोजन में देशी गाय का दुग्ध व फलों का भी महत्व है। इन्हें भी आवश्यकतानुसार एवं अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार लेना चाहिये।
आत्मा का बल क्या है? आत्मा में शुद्ध आध्यात्मिक ज्ञान का होना उसे बलवान बनाता है। आत्मा में ज्ञान होने से मनुष्य संसार के रहस्यों सहित अपने कर्तव्यों एवं दायित्वों को भली प्रकार से जानता है। ज्ञान के अनुसार कर्म करने से वह सिद्धि को प्राप्त होता है जिससे आत्मा को प्रसन्नता व सुख प्राप्त होता है। ज्ञानी मनुष्य संसार को बनाने व चलाने वाली सत्ता ईश्वर को भी अपने स्वाध्याय एवं चिन्तन के आधार पर जानता है। यजुर्वेद का मन्त्र 25.13 ‘य आत्मा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः।’ है। इस मन्त्र में कहा गया है कि ईश्वर आत्म-ज्ञान का देने वाला तथा शरीर, आत्मा और समाज को बल प्रदान करने वाला है। ईश्वर को आत्मा से बल उपासना करने से प्राप्त होता है। ऋषि दयानन्द सच्चे योगी थे। उन्होंने उपासना का फल बताते हुए लिखा है कि उपासना से मनुष्य की आत्मा के सभी दुर्गुण व दोष दूर होकर ईश्वर के सदृश गुण-कर्म-स्वभाव हो जाते हैं तथा आत्मा का बल इतना बढ़ता है कि पहाड़ के समान दुःख प्राप्त होने पर भी मनुष्य घबराता नहीं है। क्या यह छोटी बात है? अतः यह ज्ञात होता है कि परमात्मा के ज्ञान व उसकी उपासना से आत्मा का बल बढ़ता है। यही कारण है कि वेद और हमारे ऋषियों ने मनुष्यों को प्रातः व सायं ईश्वर की उपासना जिसमें ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना सम्मिलित है, करने का विधान किया गया है। आत्मा के बल को इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि जब तक शरीर में आत्मा रहता है मनुष्य का शरीर सभी प्रकार की क्रियायें करता है। हमें अपना हाथ नीचे व ऊपर उठाने में किसी प्रकार कष्ट नहीं होता और न इस क्रिया में बल ही लगाना पड़ता है। यह आत्मा के संकल्प व इच्छा मात्र से स्वतः हो जाता है। परन्तु यदि शरीर से आत्मा निकल जाये तो शरीर की सभी क्रियायें बन्द हो जाती है। शरीर का सारा बल भी समाप्त हो जाता है। अतः सभी मनुष्यों को अपनी आत्मा व शरीर के बल की वृद्धि के लिये वैदिक ग्रन्थों का स्वाध्याय एवं ईश्वरोपासना अवश्य करनी चाहिये। जो लोग नियम पूर्वक ईश्वर की उपासना व ध्यान करते हैं वह भाग्यशाली मनुष्य है। आत्मा के बल का एक उदाहरण हमें दो-तीन दिन पूर्व आर्यसमाज के विद्वानों के प्रवचन में सुनने को मिला। उन्होंने बताया कि जयपुर की एक आर्यसमाज में एक विक्षिप्त मन वाला बालक आया और उसने चाकू से एक छोटे बालक की हत्या कर दी। जब वहां के पुरोहित जी को पता चला तो वह वहां पहुंचे ओर उन्होंने उस हत्यारे बालक को पकड़ लिया और पुलिस के आने पर उसे पुलिस के हवाले कर दिया। कथाकार विद्वान ने बताया कि उन पुरोहित जी को रक्तचाप व मधुमेह का रोग था। हत्यारे बालक का रूप भयावह था परन्तु पुरोहित जी के आत्मबल के कारण वह हत्यारा बालक वहां से भाग नहीं सका और अन्यों को भी किसी प्रकार की हानि नहीं पहुंचा सका। यह आत्म बल का उदाहरण हैं। ऐसे उदाहरण भी सुनने को प्रायः मिलते हैं कि क्षीण-काय मनुष्य अचानक मुसीबत आने पर अपने शरीर से ऐसे कार्य कर डालते हैं जिन्हें वह सामान्य स्थिति में असम्भव मानते हैं। ऐसा ही एक उदाहरण हमारे वैदिक विद्वान पं. आर्यमुनि जी के साथ घटित हुआ। पं. आर्यमुनि जी देश के विभाजन से पूर्व मुस्लिम रियासत रामपुर, उत्तराखण्ड में वेद प्रवचन कर रहे थे। उन्होंने एक मांस-भक्षी मुस्लिम पहलवान से कुश्ती की चुनौती मिलने पर न केवल उसे हराया था अपितु उसको उठाकर भूमि पर ऐसा पटका था कि उसकी मृत्यु हो गई थी। चुनौती मुस्लिम पहलवान ने ही दी थी और कहा था कि वह मांसाहारी है और वास्तविक शक्ति मांसहारियों में होती है शाकाहारियों में नहीं। पंडित आर्यमुनि जी का कथन था कि शक्ति मांस में नहीं अपितु गोदुग्ध एवं शाकाहारी भक्ष्य पदार्थों में होती है।हम दैनन्दिन देखते हैं कि आत्मा सबल शरीर में ही निवास करती है। रोग व दुर्घटना होने पर जब शरीर दुर्बल हो जाता है तो आत्मा शरीर का त्याग कर देती है। सेनाओं के युद्ध अथवा किसी आतंकवादी आदि की ओर से यदि किसी शरीर से बलवान व्यक्ति पर गोली लगती है तो कुछ परिस्थितियों में मृत्यु हो जाया करती है। इसका कारण यही लगता है गोली लगने के कारण शरीर में दुर्बलता आती है। उस दुर्बलता के कारण आत्मा शरीर का त्याग कर पुनर्जन्म के लिये शरीर से निकल जाती है। यदि आत्मा को परमात्मा मनुष्य शरीर से न निकाले तो आत्मा को अत्यधिक पीड़ा से गुजरना पड़ सकता है। वह पीड़ा सहन शक्ति से बाहर हो सकती है। अत‘ ऐसी परिस्थिति में मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। परमात्मा भी उस आत्मा को अधिक कष्ट देना नहीं चाहते और उस आत्मा को उसके सूक्ष्म शरीर सहित निकाल कर उसको नया जन्म प्रदान करते हैं। आत्मा का अपना बल भी होता है जो शरीर को शक्ति प्रदान कर उसे अधिक से अधिक कार्य करने में सहयोग करता है ।आजकल समाज में कुछ लोग मांसाहार व नशीले पदार्थों का सेवन करते हैं। इससे मनुष्य के शरीर व आत्मिक बल दोनों की हानि होती है। शरीर निर्बल एवं रोगी हो जाता है जिससे उसकी कार्य क्षमता बुरी तरह से प्रभावित होती है। मांसाहार एवं मद्यपान का एक कारण इन पदार्थों से होने वाली हानियों से लोगों का अपरिचित होना है। हमारे विद्वान व पंडित-पुरोहित इसके विरोध में अपने यजमानों व अनुयायियों को बहुत कम बताते हैं। वह स्वयं भी इस विषय में अधिक नहीं जानते। स्वाध्याय न करना भी इसमें एक मुख्य कारण हैं। यदि सुखी, स्वस्थ, निरोग व लम्बा जीवन व्यतीत करना है तो इन अभक्ष्य पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिये। इससे इस जीवन में भी दुःख मिलते हैं और परजन्म में नीच योनियों में जन्म लेकर इसका फल भोगना होता है जो कि दुःख ही होता है। यह भी महत्वपूर्ण है कि शरीर व आत्म-बल में वृद्धि के इच्छुक लोगों को आत्मा के विरुद्ध आचरण नहीं करना चाहिये। ऐसा करने वाले लोग आत्म-हन्ता कहलाते हैं और इससे जन्म-जन्मान्तर में दुखों की प्राप्ति होती है।हमारा इस लेख को लिखने का अभिप्राय इतना मात्र है कि हमें शरीर तथा आत्मा की उपेक्षा नहीं करनी है। यदि आत्मा बलवान है तो इससे शरीर को अधिक बल प्राप्त होकर मनुष्य अपने शरीर की क्षमता से कहीं अधिक कार्य कर सकता है। इसे गोदुग्ध सहित शाकाहारी भक्ष्य पदार्थों का समय पर उचित मात्रा में सेवन कराना चाहिये। प्रातःकाल वायु सेवन करने जाना है तथा आसन, प्राणायाम व व्यायाम भी करना चाहिये। समय पर सोना व उठना है तथा ब्रह्मचर्य व संयम के शास्त्रीय नियमों का पालन करना है। इससे हमारा शरीर व आत्मा स्वस्थ और बलवान होगा। आत्मा को भी हमें स्वाध्याय, विद्वानों के प्रवचनों तथा सदाचार के नियमों का पालन करने सहित सन्ध्या-उपासना आदि कर्तव्यों का पालन करके ज्ञानी व बलवान बनाना है। यदि हम इन बातों पर ध्यान देंगे तो आशा है कि हमारा जीवन अधिक प्रासंगिक, उपयोगी व स्वस्थ होने के साथ दीर्घ आयुष्य को प्राप्त हो सकता है।
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