संसार है, या नहीं है, संसार का सत्य क्या है?, अथवा केवल भ्रम है।
आइए इस विषय पर थोड़ा विचार
करते है, पहली बात संसार शब्द का संधि विच्छेद करने पर हमें दो शब्द प्राप्त होते
है, पहला संयम दूसरा सार इसका मतलब यह हुआ की संसार संयम का सार है, इसको आसान
भाषा में कहें तो कुछ इस प्रकार से कह सकते है, The world is the essence of restraint, पतंजली ने संयम शब्द की व्याख्या कुछ इस प्रकार से की है त्रयमेकत्र संयमः ॥ ३.४॥
त्रयम् , एकत्र, संयम: ॥ त्रयम् - तीनों (धारणा, ध्यान व समाधि) का एकत्र - एक ही विषय में
सम्मिलित रूप से लगे रहने की स्थिति संयम: - संयम कहलाती है। अष्टांग
योग के अंतिम तीन अंगों (धारणा, ध्यान
व समाधि) का किसी एक ही विषय में अभ्यास करना संयम कहलाता है। और सार की व्याख्या
कुछ इस प्रकार से कर सकते हैं। किसी विचार या अनुभव का सबसे आवश्यक या सबसे
महत्वपूर्ण हिस्सा निष्कर्ष अथवा किसी पदार्थ आदि का वास्तविक या मुख्य भाग या गुण-
उदाहरण: आम का सार उसका रस होता है । किसी पूरे तथ्य, पदार्थ, कथन आदि के सब तत्वों आदि
का मुख्य आशय। इस तरह से हम कह सकते हैं कि संसार का मतलब यह हुआ की संसार का मतलब
है, संयम और जैसा की हमने संयम की व्याख्या पहले की कर दी है, धारणा , ध्यान समाधि इन तीनों के एक रूप को
संयम कहते हैं, तो हम पहले धारण को समझते है, धारण के लिए पतंजली कहते है, देशबन्धश्चित्तस्य
धारणा ॥ ३.१॥ देश, बन्ध:,चितस्य, धारणा ॥ चित्तस्य -
चित्त को देश - शरीर स्थित किसी स्थान (नाभि, हृदय या माथे) पर बन्ध:-
बाँधना अर्थात ठहराना या केन्द्रित करना धारणा- धारणा होती है । अपने चित्त को
किसी भी एक स्थान पर (नाभि, हृदय या माथे पर) बाँधना, लगाना, ठहराना, या केन्द्रित करना धारणा
कहलाती है । इस तरह से हम यहां धारणा का मतलब यह समझ सकते है, की किसी चेतन आदमी
को किसी देश में या किसी स्थान पर अपनी समग्र शक्ति को एकत्रित करने का नाम धारण
है, अब ध्यान को भी समझ लेते है, इसके लिए पतंजली अपने अगले सूत्र में ही कहते
हैं, तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् ॥ ३.२॥ तत्र, प्रत्यैक-तानता, ध्यानम्॥ तत्र- जहाँ पर
अर्थात जिस स्थान पर धारणा का अभ्यास किया गया है, उसी स्थान पर प्रत्यय-
ज्ञान या चित्त की वृत्ति की एकतानता- एक समान ज्ञान अर्थात एकरूपता बनी रहना ही ध्यानम्
- ध्यान है । जहाँ जिस स्थान पर भी धारणा का अभ्यास किया गया है, वहाँ पर उस ज्ञान या
चित्त की वृत्ति की एकरूपता या उसका एक समान बने रहना ही ध्यान कहलाता है । और
समाधि का मतलब समझातेहुए वह स्वयं कहते हैं कि तदेवार्थमात्रनिर्भासं
स्वरूपशून्यमिव समाधिः ॥ ३.३॥ तत्, एव, अर्थ-मात्र-निर्भासम्
,स्वरुप-शून्यम् , इव, समाधि: ॥ तदेव- तब वह
ध्यान ही अर्थमात्र- केवल उस वस्तु के अर्थ या स्वरूप का निर्भासं- आभास मात्र
करवाने वाला स्वरूपशून्यम् - अपने स्वरूप से शून्य हुआ इव – जैसा समाधिः - समाधि
होती है । जब योगी स्वयं के स्वरूप को भूलकर केवल ध्येय (जिसका ध्यान कर रहा है)
में ही लीन हो जाता है, तब योगस्थ साधक की वह अवस्था-विशेष समाधि कहलाती है।
हम इस प्रकार से समझते है, की हमें एक प्रश्न का उत्तर चाहिए
कि संसार क्या है? एक प्रकार की धारणा है और हम इस का ही ध्यान
करते है, और जब हम इसका ध्यान अर्थात इस विषय पर विचार करते है, तो इसके समाधान के
रूप में हमें दो तत्व दिखाई पड़ते है, एक चेतन और एक जड़ है, जो जड़ है वह संसार रूप
शरीर है और चेतन रूप शरीर का साक्षात्कार करने वाले पुरुष है। धारणा ध्यान और समाधि
का जो सार है वह संयम है, और संसार का सार भी संयम है। इस तरह से हम यह कह सकते
हैं की यह संयम वास्तव में किसी जड़ वस्तु से संबंध नहीं रखता है यह एक चेतन
पदार्थ है, और शरीर और संसार एक जड़ पदार्थ है इसलिए इसकी सत्ता शाश्वत नहीं है यह
क्षणिक पानी के बुल बुले के समान है जो बनता और बिगड़ता है, लेकिन जिस कारण से यह
बनता बिगड़ता है वह एक चेतन शक्ति है जो संसार में भौतिक आँखों से दिखाई नहीं देती
है, वह जड़ संसार का साक्षात्कार करता और
यह जानता है की संसार नहीं है, अर्थात चेतना संसार से पहले भी थी और संसार के बाद
भी होगी। संसार कुछ समय के लिए मात्र एक प्रकार के भ्रम के कुछ नहीं है। अर्थात हम
यह शक्ति के साथ कह सकते है संसार नहीं है। फिर हमारे चारों तरफ दिखाई देता है वह
क्या है? इसके उत्तर में कह सकते है कि यह एक प्रकार से
स्वप्न की तरह से है जिसको हम सब खुली आँखों से देखते है। जिस प्रकार से निद्रा
अवस्था का स्वप्न हमारी आँखों के खुलते ही हमारे सामने से लुप्त हो जाता है, उसी
प्रकार से जब मानव चेतना को संयम की शक्ति के द्वारा स्वयं का ज्ञान होता है संसार
का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। संसार का अस्तित्व केवल मूर्खों की दृष्टि में
होता है, ज्ञान की दृष्टि का उदय ही संसार रूप शरीर के सुन्य अथवा मृत होने पर ही
संभव होता है। समाधि एक प्रकार की जाग्रत मृत्यु की अवस्था का नाम है। यहीं संयमी
आदमी है, और वास्तव में केवल यही व्यक्ति संसार के सार अथवा संसार को पूरी तरह से
जानता है। इस आदमी के पास ही ज्ञान विज्ञान और ब्रह्मज्ञान की समग्र दृष्टि होती
है।
मनोज पाण्डेय अध्यक्ष ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान
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