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खूनी औरत का सात खून (उपन्यास) : किशोरी लाल गोस्वामी

 खूनी औरत का सात खून (उपन्यास) : किशोरी लाल गोस्वामी

प्रथम परिच्छेद : घोर विपत्ति

“आकाशमुत्पततु गच्छतु वा दिगन्त-


मम्बोनिधिं विशतु तिष्ठतु वा यथेच्छम्॥


जन्मान्तरा S र्जितशुभाSशुभकृन्नराणां,


छायेव न त्यजति कर्मफलाSनुबन्धः॥“


(नीतिमंजरी)


दुलारी मेरा नाम है और सात-सात खून करने के अपराध में इस समय में जेलखाने में पड़ी-पड़ी सड़ रही हूं। मैं जाति की ब्राह्मणी पर कौन सी ब्राह्मणी हूँ,यह बात अब नहीं कहूँगी। मैं अभी तक कुमारी हूँ और इस समय मेरा बयस सोलह बरस के लगभग है।


कानपुर जिले के एक छोटे से गांव में मेरे माता-पिता रहते थे, पर किस गांव में वे रहते थे, इसे अब मैं नहीं बतलाना चाहती, क्योंकि जिस अवस्था में मैं हूँ, उस दशा में अपने वैकुंठ वासी माता-पिता का पवित्र नाम प्रगट करना ठीक नहीं समझती।


साढ़े तीन महीने से मैं जेल में पड़ी हूँ। जिस समय मैं अपने गाँव से चलकर एक दूसरे गाँव के थाने पर गयी थी, वह अगहन का उतरता महीना था, और अब यह फागुन मास बीत रहा है ।


मेरा नाम इस समय कई तरह से प्रसिद्ध हो रहा है। कोई मुझे “खूनी औरत” कह रहा है, कोई “सात खून” पुकार रहा है, कोई “रणचण्डी” बोल रहा है और कोई “चामुण्डा” बतला रहा है। बस, इसी तरह के मेरे अनेकों नाम अदालत और जेलखाने के लोगों की जीभों पर नाच रहे हैं और इन्हीं नामों से मैं प्रायः पुकारी भी जाने लगी हूँ।


यह सब तो है; पर ऐसा क्यों हुआ और सात-सात खून करने का अपराध मुझे क्यों लगाया गया, यही बात मैं यहाँ पर कहूंगी।


मैं अपने गाँव से चल कर दूसरे जिस गाँव के थाने पर खून की रिपोर्ट लिखवाने गई थी, उसी गाँव पर एक अंग्रेज अफसर के सामने मेरा बयान कानपुर के कोतवाल साहब ने लिखा था। फिर वहाँ से मैं पुलिस के पहरे में कानपुर लाई गई और कोतवाली की कालकोठरी में रक्खी गई। फिर कई दिनों के बाद जब मजिष्टर (मजिस्ट्रेट) साहब के सामने मेरा बयान हो गया, तब मैं जेलखाने भेज दी गई और कुछ दिनों पीछे दौरे सुपुर्द की गई। कई पेशियां दौरे में भी हुई और महीनों तक मुकदमा चलता रहा। अन्त में मुझे फांसी की आज्ञा सुनाई गई और मैं जेलखाने की कालकोठरी में पड़ी-पड़ी सड़ने लगी; पर यह बात मुझे स्मरण न रही कि किस दिन मुझे फांसी पर लटकना होगा। उस दंडाज्ञा के होने के दस-पन्द्रह दिन पीछे मैंने एक दिन जेलर साहब से यों पूछा कि, “मुझे किस दिन फांसी होगी?” इस पर हंस कर उन्होंने यह जवाब दिया कि, “अभी उसमें देर है; फांसी की तारीख पहली मई है, पर तुम्हारे किसी मददगार बैरिस्टर ने जजसाहब के फैसले के विरुद्ध हाईकोर्ट में अपील दायर की है; इसलिये अब, जबतक हाईकोर्ट का आखीर फैसला न हो लेगा, तब तक फांसी नहीं दी जायेगी।”


जेलर साहब की यह बात सुन कर मैं बहुत ही चकित हुई और उनसे यों कहने लगी कि, “क्यों साहब, मैंने तो अबतक किसी भी वकील-बारिष्टर को अपने मुकदमे फी पैरवी के लिये नहीं खड़ा किया था और अदालत के कहने पर भी वैसा कोई प्रबन्ध नहीं किया था; वैसी अवस्था में फिर मेरी ओर से किस बारिष्टर ने हाईकोर्ट में अपील दायर की है?”


यह सुन फर जेलर साहब ने कहा,–”जिस बैरिष्टर ने तुम्हारी तरफ से अपील दायर की है, वह आज दोपहर को तुमसे खुद आकर मिलेगा। बस, उसी की जबानी तुमको सारी बातें मालूम हो जायेंगी।”


यों कहकर जेलर साहब एक ओर चले गए और मैं मन ही मन यों सोचने लगी कि,–“अरे, मुझ अभागिन के लिये परमेश्वर ने किसे खड़ा किया, जो मेरे लिए आप ही आप उठ खड़ा हुआ!!!”


मज़िष्टर साहब के सामने जब मैं पहुंचाई गई थी, तब मैंने यह देखा था कि सैकड़ों वकील-मुख्तार मेरे मुकदमे का तमाशा तो खड़े देख रहे थे, पर मेरे लिये किसी माई के लाल ने भी दो बोल नहीं कहे। यहाँ तक कि हाकिम ने मुझसे यों कहा था कि, “यदि तू चाहे तो अपने पक्ष समर्थन कराने के लिये किसी वकील-मुख्तार को अपनी ओर से खड़ा कर ले।” परन्तु मैंने यों कहकर इस बात को अस्वीकार किया था कि, “नहीं, इसकी कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि मुझे झूठ नहीं बोलना है; और जो कुछ सच्ची बात है, उसे मैंने कह ही दिया है; ऐसी अवस्था में फिर मुझे वकील-मुख्तारों की कोई आवश्यकता नहीं है।”


यही बात जजी में भी हुई थी, अर्थात वहाँ पर भी सैकड़ों वकील-बारिष्टर मेरे मुकदमे का तमाशा तो देख रहे थे, पर मेरे पक्ष समर्थन के लिये कोई भी वीर आगे नहीं बढ़ा था। यही सब रंग-ढंग देखकर अदालत के कहने पर भी फिर मैंने किसी वकील या बैरिष्टर को अपनी ओर से नहीं खड़ा किया था। इसमें एक बात और भी थी और वह यह थी कि मेरे पास एक फूटी कौड़ी भी न थी, फिर वैसी अवस्था में वकील-बारिष्टर क्यों कर किए जाते।


अस्तु इसी तरह की बातें मैं देर तक सोचती रही, इतने में एक कान्स्टेबिल मुझे नित्य की भाँति दूध दे गया, जिसे पीकर मैंने सन्‍तोष किया। उसी समय घड़ी ने दोपहर के बारह बजाए।


जिस तरह की कोठरी में मैं बन्द की गई थी, वह इतनी छोटी थी कि उसकी छत खड़े होने से माथे में लगती थी और उसमें हाथ-पांव फैला कर सोना कठिन था। उसके तीन ओर पक्की दीवार थी और चौथी ओर लोहे का मजबूत दरवाजा था, जिसमें तीन-तीन इंच की दूरी पर मोटे-मोटे लोहे के छड़ लगे हुए थे। मुझे जेलखाने के ढंग का एक मोटा और जनाना कपड़ा दिया गया था, जिसे मैं पहिरे हुई थी।


जेलर साहब एक बंगाली थे, उनका बयस पचास के पार था और वे मेरे साथ बड़ी भलमंसी का बर्ताव करते थे। जेल के और सिपाही भी सहूलियत से ही पेश आते थे।


मुझे कोई कष्ट न था और मैं बड़े धीरज के साथ अपना दिन बिताती थी। मुझे फांसी की टिकटी पर चढ़ने या मरने का तनिक भी डर न था क्योंकि इस शोचनीय दशा को पहुँचकर मैं अब जीना नहीं चाहती थी; पर जब जेलर साहब की बात पर मेरा ध्यान जाता तो मैं बहुत ही आश्चर्य करने लगती कि अरे, मुझ अभागिन के लिये नारायण ने किस दयावान को खड़ा किया है?


द्वितीय परिच्छेद : आशा का अंकुर

अनुकूले सति धातरि भवत्यनिष्टादपीष्टमविलम्बम् ।


पीत्वा विषमपि शंभुर् मृत्युंजयतामवाप तत्कालम् ॥


(नीतिरत्नावली)


अस्तु, जब मैं दूध पी चुकी, तो मैंने क्या देखा कि जेलर साहब दो भले आदमियों के साथ मेरी कोठरी की ओर आ रहे हैं और उनके पीछे-पीछे एक आदमी दो कुर्सियाँ लिए हुए चला आ रहा है। मेरी कोठरी के आगे दालान में वे दोनों कुर्सियाँ डाल दी गईं और जेलर साहब ने मेरी ओर देखकर यों कहा,– “दुलारी, इन दोनों भले आदमियों में से जो काला चोगा पहिरे और बड़ा सा टोप लगाए हुए हैं, ये ही तुम्हारे बारिस्टर हैं और जो सादी पोशाक पहिरे और मुरेठा बांधे हुए हैं, ये सरकारी जासूस हैं। ये लोग जो कुछ तुमसे पूछें, उसका तुम मुनासिब जवाब देना। अभी बारह बजे हैं, और ये दोनों साहब पांच बजे तक, अर्थात्‌ पांच घंटे तक यहां ठहर सकेंगे। बस, जब ये लोग जाने लगेंगे, तब यही आदमी, जो कुर्सियाँ लाया है, मुझे इत्तला कर देगा और तब मैं आकर इन दोनों साहबों को जेल से बाहर कर दूँगा।”


बस, इतना मुझसे कह कर जेलर साहब ने उस आदमी की ओर देख कर यों कहा,– “रतन, तुम यहीं ठहरना और जब ये दोनों साहब जाने लगें तो मुझे तुरन्त खबर करना।”


यों कह कर जेलर साहब तो वहां से चले गए, पर उनका आदमी रतन मेरी कोठरी के आगे वाले बरामदे में बंदूक कन्धे पर धर कर टहलने लगा। वे दोनों भले आदमी, अर्थात्‌ बैरिस्टर साहब और जासूस साहब एक-एक कुर्सी पर बैठ गए और मैं अपनी कोठरी में जंगले के पास खड़ी रही।


मेरे साथ उन दोनों आदमियों की क्या-क्या बाते हुईं, उनके लिखने के पहिले मैं उन दोनों साहबों की सूरत शक्ल का कुछ थोड़ा सा बयान यहाँ पर किये देती हूँ।


काले रंग का चोगा पहिरे और अंगरेजी टोप लगाए हुए जो बारिस्टर साहब थे, वे मेरे अन्दाज़ से चौबीस-पच्चीस बरस से जादे उम्र के कभी न होंगे! वे दुबले-पतले, खूब गोरे और लंबे कद के बड़े सुन्दर जवान थे और अभी तक उन्हें अच्छी तरह मूंछें नहीं आई थीं। और वे जो दूसरे जासूस साहब थे, वे खूब मोटे, कुछ नाटे कद के, सांवले रंग के और साठ बरस के बूढ़े पंजाबी मालूम होते थे। उनकी कानों पर खिंची हुई दाढ़ी और मूँछों के बाल बिल्कुल सफ़ेद हो गए थे और उनके मुखड़े के देखने से मन में उनके ऊपर बड़ी श्रद्धा होगे लगती थी।


जब कहने ही बैठी हूँ, तब कोई भी बात मैं न छिपाऊंगी और अपनी जीवनी की सारी बातें खोलकर लिख डालूँगी। इससे इसके पढ़नेवाले चाहे मुझे किसी दृष्टि से देखें, पर मैं अपनी जीवनी की किसी बात को भी नहीं छिपाऊंगी। तो मेरे इस कहने का क्या अभिप्राय है? यही कि भाई दयालसिंहजी को देखकर मेरे मन में उनपर जैसी श्रद्धा हुई थी, वैसी ही बारिष्टर साहब को देखकर उनपर भक्ति भी हुई थी। वह भक्ति बड़ी पवित्र, बड़ी पक्की और बड़ी ही हृदयग्राहिणी थी। पर मुझे देखकर उनके मन में कैसे भाव का उदय हुआ था, इसे तो उस समय वे ही जान सकते थे। वे रह-रह कर मुझे सिर से पैर तक निरखते, भरपूर नजर गड़ाकर मेरी ओर देखते और मुँह फेर-फेर कर इस तरह ठंढी-ठंढी सांसे भरने लगते थे कि उसे मैं भली-भांति समझ सकती थी। अस्तु, अब उन बातों को अभी रहने देती हूँ।


तृतीय परिच्छेद : अयाचित बन्धु

उत्सवे व्यसने चैव दुर्भिक्षे राष्ट्रविप्लवे |


राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः ||


(चाणक्य:)


अस्तु, अब यह सुनिए कि कुर्सियों पर बैठ जाने पर उन नौजवान बैरिष्टर साहब ने मुझे सिर से पैर तक फिर अच्छी तरह निरख कर यों पूछा,–‘दुलारी तुम्हारा ही नाम है?”


मैंने धीरे से कहा,– “जी हां।”


वे बोले,—“ अच्छा तो, और कुछ पूछने के पहिले मैं अपना और अपने साथी का कुछ थोड़ा सा परिचय तुम्हें दे देना उचित समझता हूँ। यद्यपि हम लोगों का कुछ थोड़ा सा परिचय जेलर साहब तुमको दे भी गए है, पर तो भी मैं अपने ढंग पर अपना और अपने साथी का कुछ परिचय दे देना ठीक समझता हूँ। सुनो, ये मेरे साथी सरकारी जासूस हैं। ये जब बीस बरस के थे, तभी सरकारी जासूसी महकमे में भरती हुए थे, जिस बात को आज चालीस बरस हुए। अर्थात मेरे साथी की उम्र इस समय साठ बरस की है और ये बत्तीस बरस तक सरकारी नौकरी करके बड़ी नेकनामी के साथ पेन्शन लेकर अब अपने घर रहते हैं। इनका नाम भाई दयालसिंहजी है, ये पंजाबी सिक्ख हैं और इन्हें सरकार ने ‘रायबहादुर’ की पदवी से भी सम्मानित किया है। इनके चार लड़के हैं, और वे चारों युक्तप्रदेश के भिन्न-भिन्न जिलों में डिप्टी कलक्टरी के पद पर सुशोभित हैं। इनके सबसे छोटे लड़के भाई निहालसिंह से, जो आजकल प्रयाग के डिप्टी कलक्टर हैं, मेरी बड़ी गहरी दोस्ती है और उन्हीं की बड़ी कृपा और प्रेरणा से उनके ये बूढ़े पिता भाई दयालसिंहजी इस बुढ़ौती की उम्र में अपने घर के सारे आराम को दूर रखकर इस जाड़े पाले में तुम्हारी भलाई के लिये यहाँ आए हैं। एक सप्ताह के लगभग हुआ होगा कि तुम्हारी विपत्ति का सारा हाल मुझे अपने मित्र भाई निहालसिंहजी डिप्टी कलक्टर से मालूम हुआ और उन्होंने मुझे ‘पायनियर’ अखबार दिखलाया, जिसमें तुम्हारे मुकदमे का पूरा हाल लिखा हुआ था। उसी समय उन्होंने मुझे तुम्हारे बचाने के लिये बहुत कुछ कहा और अपने इन्हीं बूढ़े पिता को तार देकर प्रयाग बुलाया। बस, इनके आ जाने पर मैं यहाँ आया और तुम्हारे मुकदमे के कुछ कागजात देखकर इन्हें तो यहीं छोड़ दिया और मैंने फिर इलाहाबाद वापस जाकर जज के फैसले के विरुद्ध हाईकोर्ट में अपील दायर कर दी। इसके बाद मैं फिर यहाँ वापस आ गया और भाई दयालसिंहजी से मिला। तबतक इन्होंने भी अपनी मुनासिब कार्रवाई कर डाली,–अर्थात तुम्हारे मुकदमे के कुछ कागजात भलीभाँति देख डाले और जासूसी महकमे के बड़े अफसर से मिलकर उससे इस बात की इजाजत ले ली कि, “इस मुकदमे की जाँच में फिर से करूँ और जबतक मेरी जाँच का अखीर न हो ले, तबतक मुजरिम को आराम से रक्खा जाये।” बस, जासूसी महकमे के बड़े अफ़सर ने इनके खातिरखाह इन्हें इस मुकदमे की जाँच करने का परवाना दे दिया और उसे पाकर ये अपनी कार्रवाई करने लगे। इतने ही में मैं यहाँ आ गया और इनसे मिला। फिर मजिस्ट्रेट से इजाजत लेकर आज हम-दोनों तुम्हारे पास आए हैं और इसलिये आए हैं कि तुम उन सातों खूनों के बारे में ठीक-ठीक हाल हमलोगों के आगे बयान कर जाओ। बस, जब तुम्हारा बयान हमलोग सुन लेंगे, तब तुम्हारे मुकदमे में भरपूर कोशिश कर सकेंगे।”


मैं तो बारिस्टर साहब की इतनी लंबी चौड़ी वक्तृता सुनकर सन्नाटे में आ गई। मैंने मन ही मन यह सोचा कि जब ये मुझ जैसी एक साधारण स्त्री के सामने एक ही सांस में बे रोक टोक इतना बक गए तो फिर अदालत के हाकिमों के सामने कितना और किस तेजी के साथ बोलते होंगे! अस्तु, मैं मन ही मन यही सब बातें सोच-सोच कर चकित हो रही थी कि मुझे चुपकी देखकर उन बूढ़े जासूस महाशय ने मुझसे यों कहा,–


“दुलारी! सुनो बेटी! ये बारिस्टर साहब यद्यपि मेरे सबसे छोटे लड़के के दोस्त और उसी के हमउम्र भी हैं, परन्तु इनकी विद्या, बुद्धि और वाग्मिता बहुत ही बढ़ी चढ़ी है। यद्यपि अभी दो ही बरस हुए कि ये विलायत से बैरिस्टरी पास कर के यहाँ आकर इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपना काम करने लगे हैं, पर इतने ही थोड़े दिनों में इन्होंने वे काम किए हैं कि जिनके कारण हाईकोर्ट के बड़े-बड़े नामी वकील-बारिस्टरों में इनकी धाक सी बंध गई है, हाईकोर्ट के जज लोग भी इनका लोहा मान गए हैं और अबतक जिन-जिन मुकदमों को इन्होंने हाथ में लिया, उन-उन में ये पूरे-पूरे कामयाब हो चुके हैं। मेरे लड़के के बहुत आग्रह करने से, और साथ ही यह भी जानकर कि तुम इन्हीं की जाति की लड़की हो, ये इस बात पर तुल गए हैं कि तुम्हें अपने भरसक जरूर ही फांसी से बचायेंगे। आगे जगदीश्वर ने जो कुछ तुम्हारे भाग्य में लिखा होगा, वही होगा। अस्तु, अब तुमसे यही कहना है कि एक बेर तुम अपनी सारी कहानी हमलोगों के आगे कह जाओ। बस, उसके सुन लेने पर हमलोग अपनी राय कायम करेंगे और यदि तुम्हारे बचने की कुछ भी आशा की जायेगी तो जी जान से परिश्रम करके तुम्हें बेदाग बचा लेने की कोशिश करेंगे।”


बूढ़े जासूस भाई दयालसिंहजी की मीठी बातें सुनकर उन पर मेरी बड़ी श्रद्धा हुई और मैंने उनकी ओर देखकर यों कहा,– “महाशयजी, मुझसे जो कुछ आपलोग सुनना चाहते हैं, वे सारी बातें तो मेरे बयान में आ ही चुकी हैं और उन्हें आपलोग देख भी चुके हैं, फिर अब उन बातों के अलावे नई बात मैं क्या कहूँगी, जिसे आपलोग सुनना चाहते हैं? ”


उन्होंने कहा,– “हाँ, यह सब ठीक है और तुम्हारे इजहार की पूरी-पूरी नकल भी मेरे पास मौजूद है; पर फिर भी एक बार हमलोग तुम्हारी कहानी तुम्हारे ही मुँह से सुनना चाहते हैं। यद्यपि जो इजहार तुमने पुलिस अफसर और मजिस्ट्रेट के आगे दिए थे, बिलकुल वही बयान तुमने जज के आगे भी किया और इस ढंग से किया कि तुम्हारे उन तीनों बयानों में रत्ती भर भी फरक नहीं पड़ा है। तो भी इस समय हमलोग तुम्हारा बयान फिर लिया चाहते हैं और यह देखा चाहते हैं कि अब, इस समय के तुम्हारे बयान के साथ तुम्हारे पहिले के बयान किए हुए वे तीनों बयान मिलते हैं, या उनमें और इस समय के बयान में कुछ फर्क पड़ता है।”


यह सुनकर मैंने पूछा,–‘ तो इतनी कोशिश आपलोग क्यों कर रहे हैं?”


उन्होंने कहा,–“सिर्फ तुम्हारे बचाने के लिये।”


मैंने पूछा,–“मेरे बचाने से आपलोगों को क्या लाभ होगा?”


उन्होंने कहा,– “एक अमूल्य प्राण के बचाने से बढ़कर संसार में और कोई लाभ हई नहीं।”


यह सुनकर मैंने यों कहा,– “किन्तु मैं अपने इस तुच्छ और अधम प्राण के बचाने की कोई आवश्यकता नहीं समझती।”


उन्होंने कहा,– “तुम अभी निरी नादान लड़की हो, तभी ऐसा कह रही हो। सुनो, मनुष्य को चाहिए कि अपने प्राण के बचाने के लिये जहाँ तक हो सके, पूरी-पूरी कोशिश करे। यदि उपाय के रहते भी कोई अपने प्राण बचाने का यत्न न करेगा तो उसे निश्चय ही आत्महत्या करने का पाप लगेगा।”


जरा सा मुसकुराकर मैंने कहा,– “आपका कहना बिलकुल ठीक है, पर मेरी समझ में तो यह आता है कि जिस अधम नारी को सात-सात खून करने के अपराध लगाए गए, उसका संसार से उठ जाना ही ठीक है, क्योंकि मुझ जैसी घृणित स्त्री यदि जेल से छूटेगी भी, तो वह फिर संसार में कहाँ खड़ी होगी, किस तरह लोगों को अपना काला मुँह दिखलावेगी और किसकी सरन गहेगी? आपलोगों को कदाचित यह बात मेरे इजहार के देखने से भलीभाँति मालूम हो गई होगी कि इस संसार में अब मेरा कोई नहीं है। मैं कुमारी हूँ और सात-सात खून करने के अपराध में जेल की कालकोठरी में पड़ी हुई भरपूर सांसत भोग रही हूँ। अब इस दशा को पहुँचकर भी, यदि मैं किसी भांति छूट जाऊँ तो मेरे छूटने से संसार की क्या भलाई होगी और मुझ “खूनी औरत” को कौन अपनावेगा? तब मेरी यह दशा होगी कि मैं समाज से दुरदुराई जाकर इधर-उधर की ठोकरें खाती हुई भीख मांगती डोलूँगी और न जाने कैसे-कैसे घोर संकटों का सामना करूँगी। ऐसी अवस्था में डस घृणित जीवन से इस फांसी की तख्ती को मैं करोड़ गुना अच्छी समझती हूँ। इसलिये आपलोगों से मैं हाथ जोड़ कर यह विनती करती हूँ कि आपलोग मुझे बचाकर और भी घोरातिघोर दु:खसागर में यों डुबाने का प्रयत्न न करें और मुझे सुख से मरने दें। आपलोगों ने जो निःस्वार्थ भाव से मेरे लिये इतना कुछ किया, इसी के लिये में हृदय से आप लोगों की कृतज्ञ हूँ और असंख्य धन्यवाद आपलोगों को देती हूँ।”


बस, इतना कहते-कहते मैं फूट-फूट कर रोने लगी और देर तक रोया की। फिर बारिस्टर साहब और जासूस साहब के बहुत कुछ समझाने पर मेरा चित्त कुछ शान्त हुआ और जासूस भाई दयालसिंहजी ने यों कहा,– “दुलारी, मैं समझता हूँ कि तुम बड़ी समझदार लड़की हो, इस लिये इन व्यर्थ की बातों को तुम अपने जी से दूर करो और अपना चित्त ठिकाने करके मेरे आगे अपनी कहानी जरा दुहरा डालो।”


इसपर मैं कुछ कहना ही चाहती थी कि इतने ही में जेलर साहब वहाँ आ गए और उन्होंने जासूस साहब और बारिस्टर साहब की ओर देखकर यों कहा,– “क्यों, साहबों चार तो बज गये और अब सिर्फ एक घण्टा यहाँ पर आपलोग और ठहर सकते हैं, क्योंकि पांच बजे के बाद फिर यहाँ पर कोई भी नहीं रह सकता।”


यह सुन कर अपने जेब में से एक कागज निकाल कर भाई दयालसिंहजी ने जेलर साहब के हाथ में दिया और कहा—“लीजिए, इसे पढ़कर मुझे वापस कीजिए।”


यह सुन और उस कागज को अपने हाथ में ले तथा पढ़ने के बाद उसे लौटाकर जेलर साहब ने बड़ी नम्रता से भाई दयालसिंहजी से कहा,– “ओहो! तो अबतक इस हुक्मनामे को आपने मुझे दिखाया क्यों नहीं? खैर, यह आपके बड़े साहब का हुक्मनामा है और इसपर मजिस्ट्रेट साहब की भी सिफ़ारिश है। बस, अब आप तनहा, या अपने किसी साथी के साथ जबतक चाहें, जेल के अंदर रह सकते, और जब चाहें, तभी आकर कैदी से बातचीत कर सकते हैं।”


जेलर साहब की बातें सुनकर मैं मन ही मन भाई दयालसिंहजी की ताकत का अन्दाजा लगाने लगी और उन्होंने जेलर साहब से कहा,– “लेकिन फिर भी, अब इस समय हमलोग जाते हैं। कल हमलोग सुबह ग्यारह बजे आवेंगे और शाम तक रहकर इस कैदी औरत (मेरी तरफ इशारा करके) का इजहार लिखेंगे।”


यों कहकर भाई दयालसिंहजी उठ खड़े हुए और उनके साथ ही साथ बारिस्‍टर साहब भी खड़े हो गए। फिर वे दोनों जेलर साहब के साथ चले गए और जेलर का वह आदमी “रतन” उन कुर्सियों को उठाकर ले गया।


वे दोनों जब चले गए, तब मेरे मन में तरह-तरह के खयाल उठने लगे, और मेरे सिर में ऐसे-ऐसे चक्कर आने लगे कि मैं फिर बैठी न रह सकी और अपना माथा पकड़कर धरती में लेट गई। कब तक मैं उस हालत में रही, इसकी तो मुझे कुछ सुध नहीं रही, पर जब दीया बले एक कांस्टेबिल के आकर मुझे पुकारा तो मैं चैतन्य हुई। फिर वह कांस्टेबिल मुझे दूध देने लगा, पर उस समय मेरा जी इतना बेचैन हो रहा था कि मुझसे वह भी न पीया गया। हाँ, मैंने थोड़ा सा ठंढा पानी जरूर पी लिया और इसके बाद मैं धरती में पड़े हुए कम्बल पर पड़ रही। सारी रात मैंने बड़े बुरे-बुरे सपने देखे और सबेरे जब मुझे एक कांस्टेबिल ने आकर खूब जगाया, तब कहीं मेरी नींद खुली।


सबेरे दो हथियार बंद कांस्टेबिल और चार कैदी औरतों के साथ जाकर मैं मामूली कामों से छुट्टी पा आई और फिर अपनी कोठरी में बैठी हुई जासूस और बारिस्टर की बातों पर गौर करने लगी। मैंने मन ही मन यों सोचा कि, ‘वास्तव में जासूस भाई दयालसिंहजी बड़ी भारी ताकत रखते हैं और मेरे वे बारिष्टर साहब भी खूब ही बोलना जानते हैं। अतएव यह खूब सम्भव है कि ये दोनों ज़बरदस्त आदमी जब एक हुए हैं, तब अवश्य ही मुझे छुड़ा लेंगे; परन्तु फांसी या जेल से छुटकारा पाकर मैं क्या करूँगी, कहाँ जाऊँगी, किसके द्वार पर खड़ी होऊँगी और कौन मुझे अपनावेगा?’


चतुर्थ परिच्छेद : नई कोठरी

नमस्यामो देवान् ननु हतविधेस्ते$पि वशगा,


विधिर्वन्द्य: सो$पि प्रतिनियतकर्मैकफलदः ।


फलं कर्मायत्त यदि किममरै: किं च विधिना,


नमस्तत्कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्य: प्रभवति ।।


(भतृहरि:)


बस, इसी तरह की बातें मैं मन ही मन सोच रही और रो रही थी इतने ही में जेलर साहब ने आकर मुझसे यों कहा,– “बेटी दुलारी, मुझे ऐसा जान पड़ता है कि तुम्हारे खोटे दिन गए और भले दिन अब आया ही चाहते हैं। तुम पर जगदीश्वर की करुण दृष्टि पड़ी है और तुम्हारा दुर्भाग्य सौभाग्य से बदला चाहता है। मेरे इतना कहने का मतलब केवल यही है कि एक बड़े जबर्दस्त हाथ ने तुम्हें अपने साये तले ले लिया है, जिससे इस आफत से तुम्हारा बहुत जल्द छुटकारा हो जाये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। बात यह है कि भाई दयालसिंह बहुत पुराने और बड़े जबर्दस्त जासूस हैं और सरकार के यहाँ इनकी बातों का बड़ा आदर है। तब, जब कि यही दयालसिंह तुम्हें छुड़ाने के लिये उठ खड़े हुए हैं तो मैं निश्चय कह सकता हूँ कि तुम्हारा छुटकारा जरूर ही हो जायेगा। और यदि ईश्वर ने ऐसा किया तो मैं सचमुच बहुत ही प्रसन्न होऊँगा। क्योंकि मैं भी बाल बच्चे वाला हूँ और यह बात जी से चाहता हूँ कि किसी तरह तुम इस बला से बच जाओ।


मैं चुपचाप जेलर साहब की बातें सुनती रही, इतने में फिर वे यों कहने लगे,–” देखो, भाई दयालसिंह की बढ़ी-चढ़ी ताकत का एक नया तमाशा तुम देखो। मुझे अभी मजिष्टर साहब का एक हुक्मनामा मिला है, जिसमें यों लिखा है कि, दुलारी कालकोठरी से निकाली जाकर एक साफ, अच्छी और बड़ी कोठरी में रखी जाये। उसे अब बेड़ी-हथकड़ी हरगिज न पहनाई जाये और उसके बैठने के लिये कुर्सी या चौकी और सोने के लिये चारपाई दी जाये। उसके पहिरने-ओढ़ने और खाने-पीने के बारे में भाई दयालसिंह जी जैसी राय दें, वैसा ही किया जाये। हाँ, उसकी कोठरी के जंगलेदार दरवाजे में ताला जरूर लगाया जाये और पहरे का भी काफी इंतजाम रहे; पर ऐसा कभी न होने पाए कि उस कैदी औरत को कुछ भी तकलीफ हो। अगर भाई दयालसिंह उस औरत के पहिरने-ओढ़ने या खाने-पीने के लिये कुछ दान के तौर पर दें, तो वह जरूर ले लिया जाये और भाई दयालसिंह और बारिस्टर दीनानाथ जब चाहें, तब उस कैदी औरत से मिल सकें, जितनी देर तक वे चाहें, उतनी देर तक वे उस औरत के पास बेरोक-टोक रह सकें और उससे बातचीत कर सकें।‘ इत्यादि। लो, सुना तुमने? मजिष्टर साहब के हुक्म की बानगी देखी तुमने? अब यह सब देख-सुन कर तो यह बात तुम भलीभांति समझ गई होगी कि भाई दयालसिंह कोई मामूली आदमी नहीं हैं और वे बड़ी भारी ताकत रखते हैं।”


जेलर साहब यहाँ तक कह चुके थे कि इतने ही में वहाँ पर दो औरतें आ गईं। उनकी ओर देखकर उन्होंने मेरी कालकोठरी का दरवाजा खोला और मुझसे यों कहा,–“दुलारी, ये दोनों भी कैदी औरतें हैं, लेकिन जात की हिन्दू अर्थात्‌ कहारिने हैं। आज से ये तुम्हारी टहल-चाकरी करेंगी, इसलिये इनके साथ तुम कुएँ पर जाओ। ये दोनों तुम्हें अच्छी तरह नहला-धुला कर उस कोठरी में ले आवेंगी, जिसमें कि अब से तुम्हें रहना होगा।”


यों कहकर जेलर साहब ने एक नई, मोटी और सफेद धोती उन दोनों औरतों में से एक के हाथ में दे दी और मुझे उन दोनों के साथ विदा करना चाहा। पर जरा मैं ठिठकी रही और जेलर साहब से यों कहने लगी,—“हाँ, कई दिनों से, अर्थात उस दिन से जिस दिन कि मुझे फांसी की सजा हुई थी, मैं नहाई नहीं हूँ इसलिये मैं नहाना तो अवश्य चाहती हूँ, पर मुझे अपनी टहल-चाकरी के लिये किसी टहलनी की आवश्यकता नहीं है। साथ इसके, मैं नई धोती अभी नहीं पहिरना चाहती, जिसे कि आपने अभी इस कहारी को दिया है। इसलिये इस धोती को आप वापस ले लें। हां, नहाने के लिये मुझे अवश्य हुकुम देवें।”


यह सुनकर जेलर साहब ने मेरे साथ बड़ी हुज्जत की, पर जब नई धोती पहिरने के लिये मैं ज़रा भी राजी न हुई, तो उस धोती को उन्होंने उस कहारी से ले लिया और मुझे उन दोनों के साथ नहाने के लिये विदा किया। यद्यपि मैं उन कहारियों को भी अपने साथ नहीं लिया चाहती थी, पर मेरी यह बात नहीं मानी गई और मैं इन दोनों के साथ एक ओर चली। साथ-साथ, पर जरा दूर-दूर, बन्दूक लिए हुए दो कांस्टेबल भी मेरे पीछे-पीछे चले।


मुझे वे दोनों कहारिने एक कुएँ पर ले गईं, जिसके बगल में एक जाफरी टट्टी की पर्देदार कोठरी बनी हुई थी। उसी कोठरी में ले जाकर उन दोनों ने मुझे खूब नहलाया; और जब मैं नहा चुकी तो मैंने वही कपड़ा फिर पहिर लिया, जो कैद होने पर मुझे पहिराया गया था। फिर वे दोनों मुझे जनाने कित्ते की ओर वाली उस कोठरी के पास ले आईं, जो अब मेरे रहने के लिये ठीक की गई थी। मैने उस कोठरी के पास आकर क्या देखा कि जेलर साहब वहाँ पर मौजूद हैं। मुझे देखकर जेलर साहब ने उन दोनों औरतों और कांस्टेबलों को तो वहाँ से विदा किया और मेरे साथ वे उस कोठरी के अन्दर घुसे। ओहो! उस कोठरी के अंदर घुसते ही मैंने क्या देखा कि वह छः हाथ की लंबी-चौड़ी एक चौकोर कोठरी है और उसकी पाटन भी छः हाथ के लगभग ऊँची है। उसमें केवल एक ही ओर लोहे का छड़दार मजबूत दरवाजा था। इस कोठरी में एक तरफ एक तार वाली लोहे की चारपाई बिछी हुई थी और उसपर दो अच्छे विलायती कंबल रक्खे हुए थे। एक तरफ एक चौकी के ऊपर पानी की सुराही और गिलास रक्खा हुआ था और इसी चौकी पर कई तरह के फल, मिठाइयाँ और ताजी-ताजी पूरियाँ भी रखी हुई थीं। एक तरफ दो कोरी धोतियाँ भी रक्खी हुई थीं। पलंग के अलावे, मेरे बैठने के लिये एक छोटी सी चौकी भी वहाँ पर पड़ी हुई थी और कोठरी के बाहर तीन कुर्सियाँ रक्खी हुई थीं।


अरे, मेरे ऐसी ‘खूनी औरत’ के लिये, जिसे कि फांसी की सजा का हुक्म हो चुका है, इतनी तैयारियाँ की गई हैं? क्या भाई दयालसिंह का इतना बड़ा रुतबा है कि वे एक फांसी पर चढ़ने वाली औरत के वास्ते इतना कुछ कर सकते हैं। अस्तु, बहुत देर तक मैं कुछ सोचने न पाई, क्योंकि जेलर साहब ने मुझसे यों कहा कि,– “दुलारी, तुम जल्दी खाने-पीने से छुट्टी पा लो, क्योंकि दस बज चुके हैं और ठीक ग्यारह बजे बारिष्टर साहब तथा एक और अंगरेज़ अफ़सर के साथ भाई दयालसिंह यहाँ आ जायेंगे।”


यों कहकर जेलर साहब वहाँ से जाया ही चाहते थे कि मैंने उन्हें रोका और उनसे यों कहा,– “महाशय, तनिक ठहर जाइए और मेरी एक विनती सुन लीजिए।”


यह सुन कर वे ठहर गए, तब मैं उनसे यों कहने लगी,— “महोदय, महीनों से मैं यहाँ पर हूँ, इसलिए आप इतने दिनों में मेरे स्वभाव को भली-भांति जान गए होंगे। देखिए, अपने पिता के मरने के बाद जब मैं घर से विदा हुई थी, तब दूसरे गाँव में जाने पर मुझे एक चौकीदार ने दया करके दूध पिला दिया था। इसके पीछे जब मैं कानपुर की कोतवाली में आई, तब वहाँ पर भी बराबर दूध ही पीकर अपना दिन काटती रही। फिर वहाँ से मैं इस जेल में भेजी गई और अभी तक यहीं पड़ी हुई हूँ। यहाँ भी, जिस दिन से मैं आई हूँ, बराबर दूध ही पी रही हूँ और सिवाय दूध या पानी के, अपने घर से चलने के बाद से लेकर आज तक कोई भी तीसरी चीज मैने अपने मुँह में नहीं डाली है। तो फिर यह सब जानबूझकर भी आपको आज क्या हो गया, जो आपने मेरे खाने के लिये इतनी तैयारी की? आप तो यह बात जानते ही हैं कि जेल के अन्दर आने पर जेल की रसोई खाने के लिये मुझसे बहुत कुछ कहा गया, पर जब तीन-तीन, चार-चार दिन तक केवल जल ही पीकर मैं रह गई, तब झख मार कर आपलोगों को मेरे लिये दूध की व्यवस्था करनी पड़ी। फिर यह सब जानबूझकर भी मेरे चिढ़ाने के लिये आज इतनी तैयारियाँ आपने क्यों की? क्या आपको यह विश्वास है कि जेल के अन्दर रहकर मैं इन सब सुख की चीजों को कभी छूऊँगी भी? हाँ, यह आपको अधिकार है कि मुझे चाहे जिस कोठरी में रक्खें। पर जेल के अन्दर मैं जब तक रहूँगी, तब तक उसी ढंग से रहूँगी, जिस ढंग से कि अब तक रही हूँ अर्थात्‌ मुझे खाने के लिये कुछ न चाहिए, हाँ, पीने के लिये दूध और पानी जरूर चाहिए। दूध मैं उसी तरह मिट्टी के पुरवे (बर्तन) में पीऊँगी, जिस तरह कि अब तक पीती आ रही हूँ। मुझे पहिले की भांति नित्य कच्चा दूध मिलना और मेरे दूध में कभी भी मीठा न डालना चाहिए। पानी की एक लोहे की बाल्टी और एक टीन का गिलास मेरी कोठरी में जरूर रहना चाहिए, जैसा कि अब तक रहता आया है। इसलिये आप अपने ये सुराही, गिलास, पूरी, मिठाई और फलों को यहाँ से ले जाइए, और मेरे सोने के लिये जो चारपाई लाई गई है, उसे भी यहाँ से हटाइए। मुझे बैठने के लिये चौकी की भी आवश्यकता नहीं है और बढ़िया कंबल भी मुझे न चाहिए। बस, केवल दो मामूली कंबल बहुत हैं, जिनमें से एक को मैं धरती में बिछा लूँगी और दूसरे को ओढ़कर जाड़े की यह रात काट डालूँगी। हैं! मेरे फेर देने पर भी, फिर यहाँ पर ये दो-दो नई धोतियाँ क्यों लाकर रक्खी गई हैं! हटाइए महाशय, इन सब चीजों को यहाँ से हटाइए; क्योंकि ये सब मेरे काम में कभी भी नहीं आने की।


मेरी ऐसी और इतनी लंबी-चौड़ी बातें सुनकर जेलर साहब टुकुर-टुकुर मेरा मुँह निहारने लगे और जरा ठहरकर बोले,– “बेटी, दुलारी! तुम तो एक अनोखी लड़की हो! अरे, भाई! आज यह जो कुछ तुम्हारे लिये किया गया है, यह सब भाई दयालसिंह के हुकुम और बारिष्टर दीनानाथ के खर्च से किया गया है; और ऐसा करने की आज्ञा वे लोग आला अफसरों से ले चुके हैं। इसलिये अब तुमको यही उचित है कि तुम जादे हठ न करो और अपने सहायकों की की हुई इस सहायता को स्वीकार कर लो।”


मैं बोली, “नहीं, महाशय! यह कभी नहीं होने का; क्योंकि अभी तक इस बात का कोई निश्चय नहीं हुआ है, कि मेरा क्या परिणाम होगा। अर्थात्‌ मैं फांसी पड़ूँगी, या इस सांसत से छुटकारा पाऊँगी। तो, जब कि अभी इसी बात का कोई निश्चय नहीं है, तब मैं अब इस चला चली की बेला इन सुख के सामानों को जेल के अन्दर कदापि ग्रहण नहीं करूँगी। इसमें और भी एक बात है, और वह यह है कि मेरे पिता को मेरे यहाँ के दुष्ट नौकरों ने केवल गंगा में बहा दिया है और उनके उत्तरकाल का कुछ भी क्रिया-कर्म नहीं हुआ है। ऐसी अवस्था में, इस जेल के अन्दर रह कर भी मैं इन सब चीज़ों को कैसे छू सकती हूँ? सुनिए महाशय, मैं जो केवल दूध पीकर अपने प्राणों की रक्षा कर रही हूँ, यह‌ क्यों? सुनिए, इसका एक कारण है और वह यह है कि मैंने मन ही मन ऐसी प्रतिज्ञा की है और ऐसा व्रत किया है कि यदि भाग्यों से मैं इस जेल से जीती-जागती छूट गई तो घर जाकर पहिले मैं अपने पिता का विधि पूर्वक श्राद्ध करूँगी, उसके बाद अन्न खाऊँगी। किन्तु, जब तक मैं वैसा नहीं कर लेती, तब तक ब्रह्मचर्य से रहूँगी, केवल दूध पीऊँगी और धरती में सोऊँगी। इसलिये हे महाशय, आप मुझ अभागी की इस तुच्छ विनती को मान लीजिए और इस कोठरी में से इन सब चीजों को दूर हटाइए।”


मेरी ऐसी बातें सुनते-सुनते दयावान जेलर साहब की आँखों में पानी छलक आया था, इसलिये उन्होंने दूसरी ओर मुँह फेर रुमाल से अपने नैन पोंछे और मेरी ओर बिना देखे ही यों कहा,– “ठीक कह रही हो, दुलारी! तुम बहुत ही ठीक कह रही हो। वास्तव में, जो कुछ तुमने कहा, उसमें रत्तीभर का भी फरक नहीं है और सचमुच तुम्हारी सी सुशीला लड़की को ऐसा ही करना चाहिए; परन्तु मैं क्या करूँ! क्योंकि मुझे जो कुछ भाई दयालसिंहजी ने हुकुम दिया, मैने वही किया; इसलिये अब, जब तक वे मुझे दूसरी आज्ञा न देंगे, तब तक मैं केवल तुम्हारे कहने से ये सब चीजें यहाँ से नहीं हटा सकता।”


इस पर मैंने यों कहा,– “अच्छी बात है, अब जो आपके जी में आवे, सो आप कीजिए; क्योंकि इस कोठरी में अभी बहुतेरी धरती खाली बची हुई है, उसी में मैं बैठ या पड़ सकती हूँ।”


वे बोले,– “अच्छा, अब वे तीनों साहब आया ही चाहते हैं। सो, उनके आने पर उनसे मैं तुम्हारी सारी बातें समझाकर कह दूँगा और तब वे जैसा मुझे हुकुम देंगे, वैसा मैं करूँगा।”


यों कह कर और दरवाजे में ताला लगाकर जेलर साहब वहाँ से चले गये और मैं खाली धरती में बैठकर अपने फूटे कर्मों के लिये आँसू ढलकाने लगी।


पाँचवाँ परिच्छेद : सहायक

ताद्वशी जायते बुद्धिर्व्यवसायोsपि तादृश: ।


सहायास्तादृशाश्चैव यादृशी भवितव्यता ॥


(नीतिविवेके)


थोड़ी ही देर पीछे ग्यारह बजे और जेलर साहब के साथ भाई दयालसिंहजी और बारिस्टर साहब आ पहुँचे। जेलर साहब ने मेरे कैदखाने का दरवाजा खोल दिया और वे तीनों उस कोठरी के बाहर खड़े हो गए। इन लोगों को देखकर मैं भी उठकर खड़ी हो गई थी।


मुझे वैसे ढंग से सिर झुकाए हुए खड़ी देखकर भाई दयालसिंहजी ने मुझसे यों कहा,– “बेटी, दुलारी! तुम्हारी सारी बातें जेलर साहब की जबानी मुझे अभी मालूम हुई हैं। तुमने जो कुछ कहा, वह बहुत ही ठीक कहा; पर यहाँ पर मैं एक ऐसी बात तुम्हें सुनाऊँगा, जिसे सुनकर तुम्हें कुछ संतोष होगा और तब फिर तुमको इतने व्रत या नियम करने की कोई आवश्यकता न रह जायेगी।”


मैंने पूछा,– ”तो वह बात कौन सी है?”


वे कहने लगे,– “क्या, यह बात तुम जानती हो कि तुम्हारे दूर के नाते के कोई चचा भी हैं?”


यह सुनकर मैने तुरन्त कहा,– “हाँ, हैं; वे कानपुर के पास ही एक गांव में रहते हैं और उनका नाम रघुनाथप्रसाद तिवारी है। एक बेर वे मेरे यहाँ आए थे, तब मैंने उन्हें देखा था; पर इस बात को बहुत दिन हो गए हैं। वे मेरे यहाँ किस काम के लिये आए थे, यह तो मुझे नहीं मालूम, पर इतना मुझे अच्छी तरह याद है कि एक दिन मेरे पिता के साथ उनकी बड़ी लड़ाई हुई थी और वे तनग कर चले गए थे। इस बात को आज आठ बरस हुए होंगे। बस, फिर तबसे न तो मैने उन्हें कभी देखा और न उनका कोई जिक्र ही अपने पिता के मुँह से सुना। अस्तु, तो इस समय आपने उनका जिकर क्यों किया?


वे बोले,– “सुनो, कहता हूँ। मैं तुम्हारे गाँव पर अभी कई दिन हुए, गया था और तुम्हारे चचा रघुनाथप्रसाद तिवारी से भी मिला था। उनकी जबानी, तथा उस गाँव के और-और लोगों की जबानी भी मुझे यह बात मालूम हुई कि, तुम्हारे पिता के मरने की खबर पाकर वे तुम्हारे घर आए। पर घर आने पर जब उन्हें यह मालूम हुआ कि, ‘तुम्हारे पिता गंगा में बहा दिए गए हैं और तुम खून के झमेले में फंस गई हो’; तब उन्होंने तुम्हारी आशा तो छोड़ दी और तुम्हारे पिता का पुत्तल-विधान कर के उनका विधिपूर्वक श्राद्ध किया। फिर श्राद्ध से निबटने पर एक-दो बार वे तुम्हारी टोह लेने कानपुर भी आए थे; पर जब उन्होंने यह देखा कि खून के जुर्म में तुम पूरे तौर से जकड़ गई हो, तो फिर वे तुम्हारे गाँव पर चले गए और तुम्हारे पिता के घर-द्वार और खेत पर अदालती कार्रवाई करके उन्होंने अपना कब्जा कर लिया। अब वे अपने गाँव को छोड़कर तुम्हारे पिता के घर में अपनी गृहस्थी के साथ आ बसे हैं और खेती-बारी करने लगे हैं। तुम्हारे पिता के साथ आठ बरस पहिले जो तुम्हारे चचा का झगड़ा हुआ था, उसकी बात भी वे मुझसे कहते थे। वह बात यही है कि वे अपने साले के लड़के के साथ तुम्हारा ब्याह कर देने के लिये बड़ा आग्रह कर रहे थे; पर तुम्हारे पिता ने उनकी वह बात नहीं मानी थी। बस, उस लड़ाई-झगड़े की जड़ यही थी। हाँ, तुम्हारे मुकदमे में जो उन्होंने कुछ भी पैरवी नहीं की, इस बात के लिए जब मैंने उन्हें बहुत फटकारा, तब उन्होंने अपनी गरीबी का हाल कहकर रोना प्रारंभ किया। फिर वे मेरे साथ तुमसे मिलने आना चाहते थे, पर यह समझकर मैं उन्हें अपने साथ नहीं लाया कि एक बेर इस बारे में तुमसे पूछ लूँ, तब उनसे तुम्हें मिलाऊँ। बस, मेरे इतने कहने-सुनने का मतलब केवल यही है कि तुम्हारे पिता का श्राद्ध इत्यादि हो गया है, इसलिये अब तुम उस बात की चिन्ता छोड़ो।


भाईजी की ये बातें सुनकर कुछ देर तक तो मैं चुप रही, फिर यों कहने लगी,– “सचमुच, मेरे पिता का श्राद्ध हो गया, यह सुन कर मुझे बड़ा संतोष हुआ। वास्तव में, मेरे पिता के श्राद्ध करने का अधिकार मेरे चचा को ही था। सो, ऐसा करके उन्होंने बहुत ही अच्छा काम किया। क्योंकि मैं पुत्री हूँ, इसलिये मेरा किया हुआ श्राद्ध कदाचित शास्त्रानुकूल न होता। अस्तु, और यह बात सुनकर भी मुझे बड़ा संतोष हुआ कि मेरे चचा ने मेरे पिता की बची-बचाई जगह-जमीन पर दखल कर लिया; क्योंकि वे कुटुंबी हैं और गोत्री भी हैं, इसलिये मेरे पिता की सम्पत्ति के वे ही सच्चे अधिकारी हैं। सो, अधिकारी ने अपना अधिकार पाया, यह बहुत ही अच्छी बात हुई। क्योंकि शास्त्र के अनुसार अपने पिता की सम्पत्ति पर पुत्री का कोई अधिकार नहीं होता। खैर, यह सब तो हुआ, पर फिर भी आपलोगों से मैं हाथ जोड़कर यही विनती करती हूँ कि जबतक मैं फांसी से छुटकारा न पाऊँ और जेल से बाहर न होऊँ, तबतक आपलोग मुझे उसी अवस्था में पड़ी रहने दें, जिस दशा में कि मैं इतने दिनों से जेल में रह रही हूँ। बस, मेरी इस प्रार्थना को आप कृपाकर स्वीकार कीजिए, तभी मुझे सच्चा और हार्दिक सुख संतोष मिलेगा।”


इस पर बारिस्टर साहब तो कुछ भी न बोले, पर भाई दयालसिंहजी बड़ा आग्रह करने लगे। पर जब मैंने किसी तरह भी उनकी बात न मानी, तो उन्होंने बहुत दुखी होकर जेलर साहब से यों कहा कि, “अच्छा, साहब! जिसमें यह लड़की संतुष्ट हो, वही आप कीजिए।”


यह सुनते ही जेलर साहब ने पांच-चार कांस्टेबिलों को बुलाया और उनके आने पर जेलर साहब के हुक्म से सारी चीजें उस कोठरी में से हटा दी गईं। इसके बाद लोहे की बाल्टी में पानी और टीन का गिलास लाकर रख दिया गया। और दो नया, किन्तु साधारण कंबल भी मुझे दे दिया गया। इसके बाद उन्हीं दोनों कहारियों में से एक कहारी एक कोरी हंडिया में दूध ले आई, जिसे बाहर जाकर मैंने पी लिया। फिर जब मैं मुँह-हाथ धोकर अपनी कोठरी में लौट आई, तब जेलर साहब मेरी कोठरी का ताला खुला छोड़कर चले गए! मैंने देखा कि आज मेरी कोठरी के आगे कोई कांस्टेबिल नहीं टहल रहा है!!!


जेलर साहब के जाने पर मेरी कोठरी के बाहर दालान में भाई दयालसिंह और बारिस्टर साहब एक-एक कुर्सी पर बैठ गए और भाईजी के कहने से मैं अपनी कोठरी के अन्दर जमीन में बैठ गई।


मेरा ऐसा ढंग देखकर भाई दयालसिंहजी ने कहा,– “हैं, हैं! यह तुम क्या करती हो? ऐसे जाड़े-पाले में खाली धरती में क्यों बैठती हो?”


यह सुन और सिर झुकाकर मैंने ज़रा सा मुसकुराकर कहा,—“जी, एक तो मुझे सर्दी-गर्मी के झेलने का जन्म से ही अभ्यास पड़ा हुआ है, दूसरे इस जेल ने मुझे और भी ठोस बना दिया है।”


यों कहते-कहते मेरी दृष्टि बारिष्टर साहब की ओर गई तो मैंने क्या देखा कि वे मुँह फेरकर अपनी आँखें पोंछ रहे हैं। यह देखकर मुझे बड़ा अचंभा होने लगा कि, ‘हाय, मुझ अभागिन के लिये वे इतने दुखी क्यों हो रहे हैं!’


छठवाँ परिच्छेद : सज्जनता

“किमत्र-चित्रं यत्सन्तः परानुग्रहतत्पराः।


न हि स्वदेहशैत्याय जायन्ते चन्दनद्रुमाः॥”


(कालिदासः)


पर, उस बात पर मैं अधिक ध्यान न देने पाई, क्योंकि भाईजी ने अबकी बार जरा बिगड़कर यों कहा, —“बस, बहुत हुआ, एक लड़की को अपने बड़ों के आगे इतना हठ और इतनी ढिठाई कभी न करनी चाहिए, इसलिए अब मैं तुम्हें यह आज्ञा देता हूँ कि तुम इन दोनों कंबलों में से एक को बिछा लो और दूसरे को ओढ़ कर सहूलियत से अपनी कोठरी में बैठ जाओ।”


यह सुनकर फिर मैंने कुछ भी न कहा और चुपचाप एक कंबल को धरती में डालकर मैं उस पर बैठ गई और दूसरे को मजे में मैंने ओढ़ लिया। सचमुच, उस समय मुझे बड़ा जाड़ा लग रहा था, क्योंकि सबेरे मैं ठंढे पानी से खूब नहाई थी! इसलिये भाईजी की इस डाँट-फटकार को मैंने मन ही मन अनेक धन्यवाद दिए और सर्दी से काँपते हुए कलेजे को धीरे-धीरे गरम किया।


भाईजी ने कहा,–‘ तुमने जो अपने इजहार में यह लिखाया था कि, ‘मेरे घर की सारी चीजें कालू वगैरह लूट ले गए थे।’ इस बात की जाँच मैंने तुम्हारे गाँव पर जाकर की थी, पर इस बात का ठीक-ठीक पता मुझे किसी ने भी न दिया। हां, तुम्हारी इस बात को तुम्हारे चचा ने जरूर सकारा था और उन्होंने मुझसे यों कहा था कि, ‘मैं जब इस घर में घुसा; तब इसमें एक बुहारी भी नहीं पाई गई थी।’ तुम्हारे चारों बैल भी गायब हैं और उनका कुछ भी पता नहीं है। जिस गाड़ी पर चढ़कर तुम अपने घर से रसूलपुर के थाने में गई थी, उस गाड़ी और उसके दोनों बैल का भी कुछ पता नहीं लगा कि वे क्या हुए, या उनपर किसने अपना कब्जा किया। मेरे दरयाफ्त करने से यह भी मालूम हुआ कि, ‘हिरवा नाऊ की मां हुलसिया भी अपने लड़के के खून होने के तीन-चार दिन बाद प्लेग से मर गई और हिरवा की नौजवान जोरू झलिया न जाने कहाँ चल दी। इसके अलावे, तुम्हारे इजहार में कहे हुए—हिरवा, नब्बू, धाना, परसा और कालू–ये पांचों तो खून हो ही चुके थे; और इन पांचों के अलावे बाकी के वे जो “घीसू, बहादुर, तिनकौड़ी, हेमू, कतलू, रासू और लालू वगैरह-सात आदमी थे, उनका भी पता मैंने लगाया; जिसपर मुझे यह मालूम हुआ कि प्लेग देवता इन सातों को भी चट कर गए हैं! केवल इतना ही नहीं, वरन तुम्हारे वे तीनों चरवाहे भी, जिनका नाम ढोंडा, घोंघा और फल्गू था, प्लेग की भेंट हो गए। फिर मैं रसूलपुर के चौकीदार दियानतहुसेन और रामदयाल से भी मिला, पर उन दोनों ने मुझसे वही बात कही, जो कि वे अपने-अपने इजहार में कह चुके हैं। अर्थात्‌ उन दोनों ने यह कहा कि, “हां, दुलारी नाम की एक जवान लड़की बैलगाड़ी पर यहाँ आई थी, जिसे कोठरी में बन्द करके हींगन चौकीदार के साथ अब्दुल्ला थानेदार इस लड़की के गाँव पर पांच-पांच खून का पता लगाने उसी लड़की की बैलगाड़ी पर चढ़कर गए थे। पर रात को वे दोनों इक्के पर वापस आए और तब अब्दुल्ला ने इस चौकी पर के हम छओं चौकीदारों को बुलाकर यह हुकुम दिया कि, ‘अब तुम सब अपनी कोठरी में चले जाओ और जबतक तुम लोगों को हींगन चौकीदार या मैं न पुकारूं, तबतक अपनी कोठरी से हरगिज बाहर न निकलना क्योंकि अब मैं उस खूनी औरत से खून कबूल कराऊंगा, इसमें मुमकिन है कि वह खूब शोर गुल मचावे, इसलिये तुमसबों को यह हुकुम दिया जाता है कि इस औरत के चीखने-चिल्लाने की आवाज़ सुनकर यहाँ हरगिज न आना और अपनी कोठरी के अंदर रहना। बस, अपने अफसर का ऐसा हुकुम सुनकर हम छओं चौकीदार अपनी कोठरी में आ बैठे। इसके बाद क्या हुआ, इस बात की ख़बर हम लोगों को नहीं हैं। हाँ, जब इस जवान लड़की ने हमलोगों की कोठरी के पास पहुंचकर हमलोगों को पुकारा और यह कहा कि, ‘ हींगन और अब्दुल्ला आपस में लड़ झगड़ कर कट मरे हैं, इसलिये तुमलोग उन्हें जाकर देखो। तब इतना सुनते ही हमलोग बहुत ही घबराए और तुरंत हमलोगों ने जाकर क्या देखा कि, “हींगन और अब्दुल्ला-दोनों मरे पड़े हैं, सारी कोठरी और तख्तपोश खून से रंग गया है, अब्दुल्ला का सिर कटा हुआ है, हींगन के कलेजे में तलवार घुसी हुई है और वे दोनों बेजान होकर तख्त पर लुढ़के पड़े हैं!” यह सब हाल देखकर हमलोग बहुत ही घबराए और रामदयाल इस वारदात की खबर करने तुरन्त कानपुर रवाने किया गया। बस, इतना ही हाल हमलोग जानते हैं, जो अपने इजहारों में लिखवा चुके और कचहरी में भी कह चुके हैं। और यह बात जो उस खूनी औरत ने अपने इजहार में कही है कि ‘रामदयाल ने मुझे दूध पिलाया’ यह बिल्कुल झूठ है। उसे किसी ने दूध तो क्या, पानी भी नहीं पिलाया। इसके अलावे, उस औरत की यह बात भी बिल्कुल झूठ है, जो कि उसने अपने बयान में रामदयाल और दियानतहुसेन का नाम लेकर अब्दुल्ला और हींगन के बारे में कही है, क्योंकि रामदयाल और दियानतहुसेन ने अब्दुल्ला और हींगन के खिलाफ इस औरत से कुछ भी नहीं कहा था। यहाँ तक कि उससे किसी भी चौकीदार ने किसी किस्म की भी बातचीत नहीं की थी।” इत्यादि। बस, उन दोनों का बयान सुनकर फिर मैं कानपुर वापस आ गया।

सातवाँ परिच्छेद : हितोपदेश

माता मित्रं पिता चेति स्वभावात् त्रितयं हितम्।


कार्यकारणतश्चान्ये भवन्ति हितबुद्धयः॥


(हितोपदेशे)


यों कहकर भाईजी फिर मुझसे बोले,–“ दुलारी, अब तुम अपना बयान मेरे आगे कह जाओ; पर इतना तुम ध्यान रखना कि इस समय जो कुछ तुम कहो, उसे खूब अच्छी तरह सोच-समझ कर कहना।”


यों कहकर भाईजी ने अपने जेब में से एक मोटी सी पोथी निकाली, जो सादे कागजों की थी। बस, उस पुस्तक को एक हाथ में ले और दूसरे हाथ से स्याही से भरी हुई कलम पकड़कर उन्होंने मेरी ओर देखा।


मैंने धीरे से कहा,– “आपने जो मुझे बार-बार यह चेतावनी दी कि, ‘मैं जो कुछ इस समय आपके आगे बयान करूँ, वह सच-सच ही कहूँ, झूठ न कहूँ’; क्यों, आपके इस कहने का यही मतलब है न?”


भाईजी ने कहा,– “नहीं, मेरा मतलब यह नहीं है; अर्थात्‌ मैं तुम्हें झूठी नहीं समझता, और न यही खयाल करता हूँ कि तुमने अबतक अपने जितने बयान दिए हैं, उनमें कुछ भी झूठ कहा गया है। मेरे कहने का मतलब केवल यही है कि इस समय तुम अपने चित्त को खूब अच्छी तरह सावधान करके जो कुछ लिखवाओगी, उसके साथ मैं तुम्हारे पहिले के दिए हुए बयानों को मिलाऊँगा और तब इस बात की कोशिश कर सकूँगा कि तुम्हारे छुटकारे के लिये कौन सा “पॉइंट” अच्छा है, जिसे पकड़ कर हाईकोर्ट के जजों के आगे बहस की जाये।”


यह सुन और जरा सा मुसकुराकर मैंने कहा,– “लेकिन मेरा इस समय का लिखाया हुआ बयान तो अब हाईकोर्ट में पेश होगा नहीं, फिर आप क्यों मेरा फिर से, नए सिरे से बयान लेने का कष्ट उठाना चाहते हैं?”


मेरी ऐसी बात सुनकर भाई दयालसिंह ने बड़ी नम्रता से कहा,–“बेटी, तुम इन मामलों के एंचपेंच को नहीं समझ सकती, इसलिये अब व्यर्थ हठ करके समय को न खोवो और अपना इजहार लिखाना शुरू कर दो।”


यह सुनकर मैं बोली,–“अच्छी बात है, लिखिए; पर इतना याद रखिए कि इस समय जो कुछ मैं लिखवाऊँगी, उसके साथ मेरे पहिले के दिए हुए तीनों बयान बिलकुल मिल जायेंगे और सिवाय परिश्रम के, आपके हाथ कुछ भी न लगेगा।”


भाईजी ने कहा,–“नहीं, यह बात नहीं है; मेरे हाथ सब कुछ लगेगा; क्योंकि यदि तुम्हारे इस समय के लिखवाए हुए बयान के साथ तुम्हारे पेश्तर के तीनों बयान मिल जायें तो समझ लो कि मैंने बाजी मार ली और तुम बेदाग छूट गई! बस, इसीलिए तो मैंने बार-बार तुमसे यह बात कही है कि तुम जरा अपना चित्त खूब ठिकाने कर के, तब अपना बयान लिखवाओ।”


मैं बोली,–”तो अच्छी बात है। आप लिखिए, मैं कहती हूँ।”


वे बोले, –“अच्छा, जरा सा ठहर जाओ; क्योंकि मैं तो कलम पकड़े हुए लिखने के लिए तैयार बैठा ही हूँ; पर जरा सा तुम और ठहर जाओ और मेरे अफसर को आ जाने दो। बस, उनके आ जाने पर उन्हीं के सामने मैं तुम्हारा इजहार लिखूँगा। उन्होंने ठीक साढ़े ग्यारह बजे यहाँ पहुँच जाने की बात कही थी, पर अब बारह बजा चाहते हैं। अस्तु, कोई चिन्ता नहीं, वे अब आते ही होंगे।”


मैंने पूछा,–‘” आपने अपने अफसर को यहाँ आने का क्यों कष्ट दिया?”


भाईजी ने कहा,— “मैंने नहीं दिया, बल्कि इस कष्ट को उठाना उन्होंने स्वयं स्वीकार किया। अच्छा, इस बात को भी तुम सुन लो। बात यह हुई कि कल रात को मैं अपने अफसर, अर्थात्‌ जासूसी महकमे के छोटे साहब से मिला और तुम्हारा सारा हाल उन्हें सुना कर मैंने उनसे यों कहा कि, “वह लड़की बिलकुल बेकसूर है।” यह सुनकर उन्होंने मुझसे यों कहा कि, “अच्छा, कल ग्यारह बजे मैं खुद वहाँ चल कर उस लड़की का इजहार लिखूँगा और अगर वाकई वह बेकसूर हुई तो मैं अपनी रिपोर्ट अपने बड़े साहब के पास भेज दूँगा और वे उस रिपोर्ट पर अपनी राय लिख कर हाईकोर्ट के जजों के पास भेज देंगे, जिसका नतीजा यह होगा कि उस रिपोर्ट पर खूब अच्छी तरह गौर करके हाईकोर्ट उस लड़की को बेगुनाह समझ कर छोड़ देगी।”


भाईजी इतना ही कहने पाए थे कि एक लम्बे कद के साहब (अंगरेज) आ पहुँचे। उन्हें देखते ही भाईजी और बैरिस्टर साहब उठ खड़े हुए और जब वे साहब बीच की कुर्सी पर बैठ गए, तो उनकी दाहिनी ओर भाई दयालसिंह और बाईं ओर बारिष्टर साहब बैठ गए। यहाँ पर यह भी कह देना उचित होगा कि उस समय मैं भी उठ खड़ी हुई थी और उन तीनों महाशयों के बैठ जाने पर बैठ गई थी।


अस्तु, कुछ देर तक भली भांति मेरी ओर देख कर उन अंगरेज अफसर ने भाईजी से कहा,–“अच्छा, अब आप इस औरत का इजहार हिन्दी में लिखें, पर मैं अंगरेजी में लिखूँगा और फिर पीछे अपनी राय के साथ उसे बड़े साहब के पास भेज दूँगा। हाँ, इस औरत के वे तीनों बयान कहाँ हैं, जो इसने पुलिस, मजिस्ट्रेट और जज के आगे दिए थे?”


यह सुन कर बारिस्टर साहब ने अपने पाकेट में से फीता बँधा हुआ एक पुलिंदा निकाल कर खोला और फिर उसे साहब के आगे रखकर यों कहा,— “लीजिए, इस मुकदमे के कुल कागजात ये हैं।”


साहब ने उसे ले, उलट-पलट कर देखा और फिर बारिष्टर साहब के हाथ में उसे देकर कहा,–“आप इसे देखिए और अब जो यह औरत अपना इजहार लिखावेगी, उससे इसे मिलाते जाइए। अगर कहीं पर इस वक्त के बयान से पहिले के दिए हुए बयानों में कुछ फर्क पड़े तो उस जगह पर लाल पेन्सिल से निशान कर दीजिएगा।”


इस पर बारिष्टर साहब ने “अच्छा” कहकर उस कचहरी वाली मिसिल को अपने बाएँ हाथ से पकड़ा और दाहिने हाथ में लाल पेन्सिल ले ली।


भाईजी पहिले ही से सादे कागज़ों की पोथी और कलम लिए हुए बैठे थे। अब अंगरेज अफसर ने भी भाईजी की तरह एक सादी किताब और स्याही-भरी कलम ले ली और मेरी ओर देखकर यों कहा,– “टुमारा नाम बोलो।”


मैं बोली,–“मेरा नाम दुलारी है।”


साहब,–“डेको, डुलारी! टुम को हाम एक बाट बोलटा है।”


मैने पूछा,–“जी, कहिए।”


साहब ने कहा,–“टुम बरा भला लेड़की हाय। इश बाशते टुम को शब बाट शच शच बोलना होगा।”


मैंने यों कहा,– “मेरी झूठ बोलने की बान नहीं है।”


इस पर साहब ने कहा,–“टो, अच्छा बाट है। बोलो।”


यह सुनकर मैंने मन ही मन जगत्पिता परमेश्वर और अपने माता-पिता को बार-बार दण्डवत् प्रणाम किया और उसके पीछे यों अपनी जीवनी कहनी प्रारंभ की।


आठवाँ परिच्छेद : दुर्दैव

“यदपि जन्म बभूव पयोनिधौ,


निवसनं जगतीपतिमस्तके ।


तदपि नाथ पुराकृतकर्मणा,


पतति राहुमुखे खलु चन्द्रमाः ॥”


(व्यासः)


मैं सिर झुकाए हुए यों कहने लगी,– कानपुर जिले के एक छोटे से गाँव में मेरे माता-पिता रहते थे। उस गाँव का नाम आप जानते ही हैं, इसलिये अब मैं अपने मुँह से उसका नाम नहीं लिया चाहती। हाँ, यह मुझे बतलाया गया है कि, ‘तू फलाने गाँव की रहने वाली है।’ इस बात को मैंने स्वीकार भी किया है, पर मैं अब उस दुखदाई गाँव का नाम अपने मुँह से नहीं लिया चाहती। उस गाँव के मालिक या जिमीदार कानपुर के एक बड़े प्रतिष्ठित कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं और गाँव में हजार आठ सौ के लगभग आदमी बसते हैं। इनमें ब्राह्मण, क्षत्री, बनिए, भुइंहार, बढ़ई, लुहार, कहार, कुनबी, नाई, बारी, घोषी, तेली, चमार, दुसाध, जुलाहे आदि सभी जाति के लोग रहते हैं और वह गाँव गंगा के किनारे ही पर बसा हुआ है। रहते तो हैं उस गाँव में प्रायः सभी जाति के लोग, पर जादे संख्या ब्राह्मणों और बनियों की है और प्राय: सभी लोग खेती-बारी का काम करते हैं।


उसी सत्यानाशी गाँव में मेरे माता-पिता भी रहते थे। यद्यपि अदालत ने मुझे यह बतलाया है कि, ‘तेरे पिता फलाने ब्राह्मण थे;’ पर मैं अभागी अब अपने मुँह से यह बात नहीं कहना चाहती कि मेरे पिता कौन ब्राह्मण थे। हाँ, पढ़नेवाले मेरी इस लिखावट से जो चाहें, सो मतलब निकाल लें। किन्तु हाँ, यह बात मैं स्वीकार करती हूँ कि उस गाँव के बाह्मणों में कान्यकुब्ज ब्राह्मणों की संख्या सबसे जादे है।


मेरे माता-पिता का क्या नाम था, यह बात भी अदालत को मालूम हो गई है, जिसे मैंने भी सकारा है; पर अब इस अवस्था में पड़कर मैं निगोड़ी अपने उन वैकुण्ठवासी माता-पिता के पवित्र नाम को अपने अपवित्र मुख से नहीं कहना चाहती।


मेरे पूज्य पिताजी की अवस्था मरने के पहिले पचपन वर्ष की और मेरी माता की चालीस बरस की थी और मेरी सोलह साल की है। मेरे प्यारे पिता अच्छे पण्डित थे, पर पुरोहिताई का काम छोड़कर वे खेती-बारी करते थे। मेरी माता भी पढ़ी-लिखी थीं, इसी से पिता-माता की शिक्षा पाकर मैं भी कुछ थोड़ा बहुत पढ़ लिख गई हूँ। मेरे पिता का निज का कच्चा मकान था। मकान के साथ एक छोटी सी फुलवारी भी थी, दो तीन गौ-भैंसे भी थीं और चार जोड़ी बैल और चार ही हरवाहे (बैल हाँकने और हल जोतनेवाले) भी थे। बड़े सुख-चैन के साथ मेरे माता-पिता का, और उन्हीं की बदौलत मेरा भी दिन बीतता जाता था और यदि सच पूछा जाय तो कोई भी कष्ट न था। किन्तु बैरी विधाता से हमलोगों का वह तुच्छ सुख भी न देखा गया और उस निगोड़े ने हमलोगों के सारे आनन्द पर वज्र गिरा दिया!


बात यह हुई कि कातिक की पूनो नहा कर मेरी माता पीड़ित हुईं। उन्हें बड़े वेग से ज्वर चढ़ आया और तीसरे दिन उनके गले में गिलटी निकल आई! यह देखकर मेरे पिता बहुत घबराए और तब हमलोगों ने यह जाना कि यह तो प्लेग है!


मेरे छोटे से उस गाँव में वैद्य-डाक्टर तो थे नहीं, इसलिये उधर तो पिताजी किसी बैद्य की खोज में सवेरे ही कानपुर गए और इधर दोपहर होते-होते मेरी प्यारी माता चल बसीं। उस समय गाँव की कई स्त्रियाँ आ गई थीं और उन्हीं सभों ने मेरी माता की वह अवस्था देखकर उन्हें धरती में उतार दिया था। क्योंकि उस समय मैं अपने आपे में न थी और उन स्त्रियों के रोकने पर भी बार-बार पछाड़ खा-खा कर अपनी माता के शरीर पर गिर-गिर पड़ती थी।


संझा होते-होते एक वैद्यजी को साथ लेकर पिताजी लौट आए, पर जब उन्होंने घर का हाल देखा तो वे मूर्छित होकर मेरी माता के शव पर गिर गए। फिर वैद्यजी का क्या हुआ, यह तो मुझे नहीं मालूम; पर हाँ, यह मैंने देखा कि गाँव के लोग इकट्ठे हो गए और रात के नौ बजते-बजते मेरे पिताजी मेरी माता को फूँक और नहा कर घर लौट आए। मैंने भी उस समय माता के शव के साथ गंगा किनारे जाना चाहा था, पर मुझे कई स्त्रियों ने पकड़ रक्‍खा था; इसलिये मैं गंगा तो न जाने पाई, पर हाँ, जब मेरे पिता घाट से लौटकर घर आ गए, तब कुएँ पर मैं नहलाई गई।


फिर, तब गाँव की स्त्रियाँ तो अपने-अपने घर गईं और हम दोनों (पिता-पुत्री) ने सारी रात रो-पीट कर गँवाई। यद्यपि मेरे पिता मुझे बहुत कुछ ढाढ़स देते और समझाते-बुझाते थे, पर जब अपनी प्यारी और सुशीला पत्नी का ध्यान उन्हें हो आता, तो वे बहुत ही बिलाप करने लगते और उनका कलपना देखकर मैं भी बहुत ही विकल होती और छाती मूड़ कूट-कूट कर बहुत ही घोर विलाप करने लग जाती थी।


खैर, किसी-किसी तरह दस दिन बीते। फिर ग्यारह, बारह और तेरह दिन भी बीते और मेरे पिता ने मेरी माता के श्राद्ध से छुट्टी पाई। किन्तु हाय, जिस दिन मेरी माता की तेरहीं हुई थी, उसी रात को मेरे पिता भी पड़े और उन्हें दूसरे ही दिन गिलटी निकल आई। यह देखकर मेरे दुख का कोई पारावार न रहा और सिवाय रोने-पीटने के और मैं कुछ भी कर-धर न सकी। उस समय तक सारे गाँव में प्लेग फूट निकला था और वे लोग जिन्हें कुछ भी समाई थी, इधर-उधर भागे जा रहे थे। एक तो वह हजार-आठ सौ आदमियों की बस्ती का छोटा सा गाँव था ही, उस पर जब लोग घर-द्वार छोड़-छोड़ कर भागने लगे, तब तो और भी उस गाँव की श्री नष्ट हो गई और जिधर देखो, उधर ही भयंकरता राक्षसी मुँह बाए घूमती हुई दिखाई देने लगी। हाय, यह सब देख-सुन कर मेरा हिया और भी फटने लगा, पर मैं लाचार थी और कुछ भी कर-धर नहीं सकती थी। मेरे घर के पास एक नाऊ (नाई) रहता था, जिसका नाम हिरवा था; उसे मैंने चार रुपए देकर यह कहा कि, ‘कानपुर से कोई अच्छे वैद्य को बुला लावे,’ पर वह चण्डाल जो वे रुपए लेकर गया, सो उस दिन लौट कर आया, जिस दिन उसकी मौत लिखी थी।


अस्तु, इसी तरह तीन दिन पीछे रात को मेरे प्यारे पिता भी कूच कर गए और मुझ निगोड़ी को एक दम से अनाथ कर गये। हाय, हाय! भला अब उस शोक—उस अपार शोक का हाल मैं क्योंकर किसी के आगे प्रगट करूँ! बस, यहाँ पर इतना ही समझ लेना चाहिए कि गाँव के बचे-खुचे लोगों में से तो उस समय कोई भी न आया। पर हाँ, मेरे यहाँ जो चार हरवाहे नौकर थे, वे ही मेरे पिता को गंगाजी उठा ले गये। यह देखकर मैं भी उनके पीछे-पीछे दौड़ी, पर जब मैं गंगा तट के पास पहुँची तो मैंने क्‍या देखा कि वे चारों हरवाहे लौट रहे हैं! यह देख कर मैंने उन हत्यारों से यह पूछा कि, ‘तुम सभों ने मेरे पिता को, कहाँ रक्खा है?’ इस पर उन दुष्टों ने यह जवाब दिया कि, “बस, अब उठो और चुपचाप घर लौट चलो। क्योंकि इस हाड़-तोड़ जाड़े की रात को गंगा नहाकर अपना प्राण न गँवाओ। हमलोगों ने तुम्हारे पिता को गंगा में बहा दिया है और अब घर लौटे जा रहे हैं। काल सवेरे जब खूब करारी धूप निकलेगी, तब गंगा में गोता लगा लेंगे।”


हाय। उन अभागों की यह बात सुनकर मैं पछाड़ खाकर वहीं गिर गई और मूर्छित हो गई। मैं कब तक बेसुध रही, यह तो नहीं कह सकती, पर जब मुझे होश हुआ तो मैंने क्या देखा कि मैं अपने घर की एक कोठरी में चारपाई पर पड़ी हुई हूँ और मेरे पास दूसरी खाट पर उसी हिरवा नाई की माँ हुलसिया पड़ी हुई नाक बजा रही है, जिसे कि मैंने कानपुर से वैद्य बुला लाने के लिए चार रुपए दिए थे।


यह सब देखकर मैं अपनी खाट पर उठकर बैठ गई और हिरवा की माँ को बार-बार पुकारने लगी। पर वह निगोड़ी सौ हांक देने पर भी तनिक न भिनकी, वरन और जोर-जोर से नाक बजाने लगी। यह देख कर मैं उठी और टिमटिमाते हुए दीए को टेम को ठीक करके फिर अपनी चारपाई पर आ बैठी। उस समय अपने माता-पिता और साथ ही अपनी घोर विपत्ति का स्मरण करके मैं खूब जोर-जोर से चिल्ला कर रोने लगी।


यों ही मैं न जाने कितनी देर तक आप ही आप रोया की, इतने ही में मैंने क्या देखा कि वही हिरवा नाई, जिसकी उम्र बीस-बाईस बरस से जादे न थी और जो दिखने में महा कुरूप था, मेरी चारपाई पर आकर बैठ गया और मेरा एक हाथ पकड़कर अपने मैले दुपट्टे से मेरा आँसू पोंछने लगा!!!


यह तमाशा देखकर एक बेर तो मैं बड़े जोर से चिहुंक उठी, पर तुरत ही उसके हाथ को झटकार और उसे अपनी चारपाई पर से ढकेलकर बड़े क्रोध से उसकी ओर निहारती हुई यों कहने लगी,– “क्यों रे, हिरवा! तूने और तैरी माँ ने बराबर मेरे यहाँ के जूठे टुकड़े खाए हैं, तब वैसी दशा में तू क्या समझकर मेरी चारपाई पर आ बैठा और क्या सोचकर तूने मेरा हाथ पकड़ा?”


मेरी ये बाते सुनकर वह खिलखिला कर हँसने लगा और यों बोला कि,–“दुलारी, तू बड़ी सुंदर है और मैं कई बरस से तेरे रूप-रंग को देख-देख कर भीतर ही भीतर भुना जा रहा हूँ। अब तक तो तेरे मां-बाप के डर से मैं अपना मन मारे बैठा रहा, पर अब मुझसे तेरे बिना छिन भर भी नहीं रहा जाता। सो, तू मेरी बात सुन और मेरे गले से लग जा। देख, जो सीधी तरह मेरी बात मान ले, तो अच्छा ही है; नहीं तो मैं जबरदस्ती तेरी इज्जत-आबरू बिगाड़ दूँगा और सारे गाँव में तेरी बदनामी का ढोल पीट कर तुझे मिट्टी में मिला दूँगा। इस समय तू अकेली है और अब तेरे सिर पर कोई भी नहीं है, इसलिये अपनी अवस्था पर अच्छी तरह विचार करके तू मेरा कहना मान ले और मेरे हिये की लगी को बुझा दे।”


उस दुरात्मा पातकी की ऐसी खोटी बातें सुनकर मेरे तलुए से चोटी तक आग सी लग गई और मारे क्रोध के मैं भभक उठी। एक तो मैं अपनी माता-विशेषकर अपने पिता के शोक में बावली हो ही रही थी, उस पर निगोड़े हिरवा की पाप-कथा सुनकर तो में और भी पागल हो उठी और झट से अपनी खाट के नीचे उतरकर खड़ी हो गई। फिर मैंने दाँत पीस कर उस दुष्ट हिरवा से यों कहा कि, “बस, अब तू चुपचाप यहाँ से अपना काला मुँह कर, नहीं तो तेरे लिये अच्छा न होगा।”


यह सुनकर वह बेहया फिर खूब ठठाकर हँसा और कहने लगा,–“अब तो मैं तभी यहाँ से जाऊँगा, जब अपना जी ठंढा कर लूँगा।”


बस, महाशय! उसके मुँह से इतना निकलना था कि मैंने उछलकर उस पातकी को धरती में पटक दिया और उसके कलेजे पर सवार होकर ऐसे जोर से उसका गला दबाया कि फिर वह जरा भी न बोल सका। यों ही देर तक मैं उसके गले को भरजोर दबाए रही। फिर मैं उसकी छाती पर से उतर कर दूर जा खड़ी हुई और उसकी ओर बिना देखे ही यों कहने लगी,–“बस, रे चण्डाल! अब तू उठ और यहाँ से भाग नहीं तो मार ही डालूँगी।” यों कहकर मैंने एक मूसल उठा लिया और जिस खाट पर उस (हिरवा) की माँ सोई हुई थी, उस खाट की ओर देखा। मैंने क्या देखा कि वह खाट खाली पड़ी हुई है और उसपर हिरवा की माँ हुलसिया नहीं है! यह देखकर मैं बड़ी सकपकाई कि वह रांड कहाँ गई? इतने में फिर मैंने हिरवा की ओर दीठ फेरी तो क्या देखा कि वह गया नहीं है, बल्कि जहाँ पड़ा था, वहीं पड़ा हुआ है। यह देखकर मैंने उससे बार-बार यों कहा कि, ‘अब तू उठ यहाँ से और चला जा,’ पर वह जहाँ का तहाँ पड़ा ही रहा। तब तो मैंने उसके पास जाकर उसके सिर में अपने पैर की दो-तीन ठोकर मारी, पर वह जरा न भिनका! यह देखकर मैं बहुत ही हैरान हुई और दीया लेकर उसका मुँह निहारने लगी। अरे रे रे! मैंने क्या देखा कि उसकी आँखों के दोनों ढेले बाहर निकल पड़े हैं, जीभ भी मुँह के बाहर आ गई है और बहुत सा फेन और खून इसके मुँह से बहा और धीरे-धीरे बह रहा है। यह देखकर मेरा सारा बदन थर्रा उठा और वह मेरे हाथ का दीया हाथ से गिरकर बुझ गया। मैं भी फिर खड़ी न रह सकी और चक्कर खाकर वहीं गिर पड़ी।


मैं कब तक बेसुध पड़ी रही, यह तो नहीं कह सकती, पर जब मुझे चेत हुआ तो मैंने क्या देखा कि मेरे हाथ-पैर बँधे हुए हैं, मैं अपनी चारपाई पर डाल दी गई हूँ, हिरवा भी धरती में जहाँ का तहाँ पड़ा हुआ है और उस कोठरी में चार आदमी आकर खड़े हुए हैं, जिनमें से एक के दाहिने हाथ में तलवार और बाएँ में एक मोटा सा जलता हुआ पलीता है और बाकी के तीनों आदमियों के हाथों में खाली तलवारे हैं।


यह अजीब तमाशा देखकर मैं सन्नाटे में आ गई और बार-बार उस कोठरी के चारों ओर आँखें दौड़ाने और उन चारों आदमियों के चेहरे की तरफ टकटकी लगाकर देखने लगी। उन चारों आदमियों को मैं चीन्हती थी, क्योंकि वे सब मेरे गाँव के ही रहने वाले थे। उनमें से एक, जिसके हाथ में जलता हुआ पलीता था, वह नब्बू ज़ुलाहा था, दूसरा धाना कोइरी था, तीसरा परसा कहार था और चौथा कालू कुरमी था। यह कालू मेरे पिता के उन्हीं चारों हरवाहों में से एक था, जिसने मेरे पिता का बहुत दिनों तक नमक खाया था।


सो, यह सब अनूठा तमाशा देखकर मैं घबरा गई और मन ही मन यह सोचने लगी कि, ‘अब क्या करना चाहिए!’


बस, यहाँ तक मैं कह चुकी थी कि उन अंगरेज अफसर ने मेरा नाम लेकर मुझसे यों कहा,–“डुलारी, टुम जरा ठहर जाओ, क्योंकि डो बजा चाहटे हैं, इस वाशटे हम जरा नाशटा करने माँगटा।”


यह सुनकर मैंने ऊपर नजर उठाकर देखा, तो क्या देखा कि साहब अपनी कु्र्सी पर से उठकर एक खानसासा के साथ खाना खाने जा रहे हैं। उनके जाते ही भाईजी भी उठे और यों कहकर एक ओर चले गए कि, “मैं भी जरा जलपान कर आऊँ।”


यों कहकर भाईजी भी चले गए और वहाँ पर मेरे पास खाली बारिस्टर साहब रह गए। उन्होंने मेरी ओर जरा सा मुसकुराकर देखा और यों कहा,–“बीबी दुलारी, मैं तुम्हें इस बात का विश्वास दिलाता हूँ कि तुम जरूर छूट जाओगी।”


यह सुनकर मैंने अपनी आँखें नीची कर ली और मन ही मन प्रसन्न हो तथा ओठों के अन्दर ही अन्दर हंसकर यों कहा,– “मुझ अभागी को छुड़ा कर आप क्या कीजिएगा?”


उन्होंने कहा,–“यह पीछे सोचा जायेगा; पहिले तुम इस बला से छुटकारा तो पा लो।”


इस पर मैंने कुछ न कहा, बल्कि फिर मारे लज्जा के उनकी ओर् देख भी न सकी।


वे फिर कहने लगे,– “एक बात और है।”


मैंने देखे बिना ही उत्तर दिया,– “आज्ञा कीजिए।”


वे बोले,—“आज्ञा करना तो अब व्यर्थ है, क्योंकि वह तो मानी ही नहीं जाती! हाँ, प्रार्थना अवश्य की जा सकती है। सो भी तब, जब उसके मान लेने की आशा की जाय।”


मैं इस ढंग की उनकी बातें सुनकर मन ही मन बहुत ही सकपकाई कि वे कौन सी ऐसी बात कहना चाहते हैं, जिसके लिये इतनी भूमिका बांध रहे हैं! परन्तु मारे लाज के मेरी आँखें उनकी ओर न उठ सकीं और मैंने सिर झुकाए हुए ही यों कहा,–“आप जो कुछ कहना चाहते हों, उसे कृपाकर कहिए।”


वे बोले,–“अब मैं क्योंकर तुमसे कुछ कह सकता हूँ, जब कि तुम इतनी बड़ी हठीली हो कि अपनी “टेक” के आगे किसी के कहने-सुनने पर कुछ ध्यान ही नहीं देती।”


अब भला, उनकी ऐसी बात का मैं क्या जवाब दे सकती थी! अस्तु, मैं कुछ न कुछ कहना ही चाहती थी कि इतने ही में भाईजी आ गए और मैंने कुछ कहने-सुनने से छुट्टी पाई।


भाईजी अपनी कुर्सी पर बैठकर बारिस्टर साहब से अंगरेजी में कुछ बात चीत करने लगे, इतने ही में साहब बहादुर भी आ गए और उन्होंने अपनी कुर्सी पर बैठकर मुझसे यों कहा,–“डुलारी, अब टुम आगे बोलो।”


यह सुनकर मैंने कहा,—“ बहुत अच्छा; सुनिए,–यद्यपि कालू की बातों ने मेरे कलेजे को मसल डाला था, पर बहुत जल्द मैंने अपने जी को ठिकाने किया और इशारे से कालू को अपने पास बुलाया।


नवाँ परिच्छेद : प्रलोभन

“महामायासमा नारी महामायामयी स्मृता।


गच्छन्ति केऽस्या मायाया: पारं भुवि नरा मुने॥”


(देवोभागवते)


उस इशारे को समझकर कालू तुरन्त मेरी खाट के पास आकर बैठ गया और बोला,–“कहो, क्या कहती हो?”


मैने पूछा,–“यह सब क्या हो रहा है और तुम सब यहाँ पर क्यों इकट्ठे हो रहे हो?”


मेरी बात सुन कर कालू कहने लगा,–“दुलारी, यह सब जो कुछ तुम देख रही हो, उसका असली सबब तुम्हारी अनूठी सुन्दरता ही है। सुनो दुलारी, तीन-चार बरस से इस गाँव भर में तुम्हारे अनोखे रूप की धूम सी मच गई है और यहाँ के बहुतेरे आदमी तुम पर मरने लगे हैं। यों तो इस गाँव के सैकड़ों आदमी ये तुम्हारे रूप पर जान दिए बैठे हैं, पर उनमें से हम-सब बारह जने ऐसे तुम पर लट्टू हुए हैं कि हमलोगों ने मिलकर एक गोठ (गोष्ठी-सभा) बनाई है और उसमें नित्य हमलोग इकट्ठे होते और है तुम्हारे रूप का बखान कर-कर के अपने-अपने जी को बहलाते हैं। उन बारह आदमियों के नाम ये हैं, जिन्हें तुम जरूर ही जानती होगी- 1. नब्बू जुलाहा, 2. धाना कोइरी, 3. परसा कहार, 4. मैं कालू कुर्मी, 5. यह मरा हुआ हिरवा नाऊ, 6. घीसू बनिया, 7. बहादुर दूबे, 8. तिनकौड़ी कांदू 9. हेमू भड़भूँजा, 10. कतलू महाबाम्हन, 11. रासू चमार और 12. लालू हलवाई। यों तो इस गाँव के सैकड़ों ही आदमी तुम पर जी जान से निछावर हो रहे हैं, पर हम बारह जने धीरे-धीरे आपस में मिले और हमने अपनी एक जमात कायम की। फिर तो लालू हलवाई की चौपाल (बैठक) में हमलोग रोज रात को इकट्ठे होने लगे और बराबर इस बात की सलाह आपस में करने लगे कि ‘क्योंकर हम-सब तुम्हें हथियावें।’ एक बात यहाँ पर और भी समझ लो,–वह यह है कि यद्यपि इस जमात में सभी जात के लोग आ मिले हैं, पर हम-सब आपस में इस तरह घी-खिचड़ी की तरह मिल गए हैं कि जात-पांत का बखेड़ा हमलोगों ने उठा दिया है और हम सब एक-साथ मिलकर खाते-पीते हैं। हमलोगों में मांस-मछली और दारू-शराब का भी बराव नहीं है। खैर, सुनती चलो। जब तुम्हारी माँ मर गईं, तब हमलोगों को बड़ी खुशी हुई और हमसभों ने आपस में यह सलाह की कि, ‘अब तुम्हारे बाप को किसी तरह से खपा डालना और तुमपर अपना कब्जा करना चाहिए।’ किन्तु भगवान ने ऐसा बानक बना दिया कि हमलोग खून-खराबा करने से बच गए और तुम्हारे बाप ने आप ही मर कर हम लोगों का रास्ता साफ कर दिया। बस, तुम्हारे बाप के मरते ही हमलोगों ने आपस में एक सलाह पक्की कर डाली। फिर तो हम चारों तुम्हारे हरवाहे तुम्हारे बाप को उठाकर ले गए और गङ्गा में डालकर लौट पड़े। उस समय तुम भी वहीं मिली थी, पर बेहोश होकर वहीं गिर गई थी। खैर, फिर तो हम चारों जने तुम्हें यहाँ उठा लाए और इसी चारपाई पर तुम्हें डाल कर इस घर से बाहर निकले। तुम्हारे तीन चरवाहों को तो, जो कि मेरे मेल में नहीं आए थे, कुछ इधर-उधर की समझा-बुझा कर मैंने यहाँ से टाल दिया और जब वे तीनों अपने-अपने घर चले गए, तो हमलोगों ने हिरवा की माँ को तुम्हारी चौकसी के लिये यहाँ बैठा दिया और तुम्हारे सारे घर की तलाशी लेनी शुरू की। थोड़ी ही देर में हमलोग तुम्हारे घर की सब चीज-बस्त उठा ले गए, पर जब इन सब चीजों को ठिकाने से रखकर लौटे तो तुम्हारे मकान के सदर दरवाजे पर हिरवा की हुलसिया मिली। उसने हमलोगों से यों कहा कि, ‘तुम सब जल्दी भीतर जाओ, क्योंकि दुलारी जाग पड़ी है और उसने हिरवा को पछाड़ कर उसका गला दबा लिया है।’ यह सुनकर हमलोगों ने उसे तो उसके घर विदा कर दिया और चटपट मैंने तुम्हारे घर की भूसा ढोने वाली गाड़ी में तुम्हारे ही दो बैल जोत कर तुम्हें यहाँ से भगा ले जाने का विचार किया। जब गाड़ी ठीक हो गई और हमलोग भी तैयार हो गए, तो नब्बू ने एक पलीता बाल लिया और हम सब इस कोठरी में आए। यहाँ आकर हम लोगों ने क्या देखा कि, ‘हिरवा तो मरा हुआ पड़ा है और उसी के पास तुम भी बेसुध पड़ी हुई हो!’ यह हाल देखकर हमलोग बड़े चकपकाए कि तुम्हारे नाजुक हाथों ने उस हट्टे-कट्ठे पट्ठे हिरवा की जान कैसे ले डाली! खैर, फिर तो खुद मैंने तुम्हें उठाकर इसी चारपाई पर डाल दिया और साथ ही तुम्हारे हाथों और पैरों को भी मजबूती के साथ कसकर बाँध दिया। बस, यही तो असल बात थी, जिसे मैंने तुम्हें सुना दिया। अब यह कहो, कि तुम्हारा क्या इरादा है? तुम सीधी तरह हमलोगों के साथ चलोगी, या जोर-जबर्दस्ती करने से?”


कालू की इस ढब की बातें सुनकर मैं काँप उठी, बहुत ही डर गई और मन ही मन यही बात सोचने लगी कि अब मेरी खैर नहीं है! पर फिर भी मन ही मन भगवान का स्मरण करके मैंने कोई बात ठीक की और कालू की ओर देखकर यों कहा,–“तो तुम्हारे बतलाए हुए और बाकी के सात साथी कहाँ हैं?”


यह सुनकर कालू ने कहा,–“वे सब प्लेग के डर से इधर-उधर भाग गए हैं। इस समय हम पाँच ही आदमी इस गाँव में रह गए थे, जिनमें से हिरवा बेचारे को तो तुमने गला घोंट कर मार ही डाला! बस, अब हम्ही चार यार हैं, जो तुम्हें अभी—इसी दम यहाँ से कहीं दूसरी जगह ले जाया चाहते हैं। यदि तुम राजी-खुशी से चलो, तब तो बहुत ही अच्छी बात है; पर जो तुम यों न मानोगी और हल्ला-गुल्ला करोगी, तो हमलोग बरजोरी तुम्हें यहाँ से घसीट ले जायेंगे। बस, जो कुछ तुम्हारा इरादा हो, उसे जल्द कह डालो; क्योंकि रात पिछले पहर के पास पहुँच गई है, इसलिये अब हमलोग जादे देर तक यहाँ ठहर कर अपने काम को बिगाड़ना नहीं चाहते।”


कालू की काल-समान बातें सुनकर मेरा कलेजा दहल उठा, पर फिर भी सर्व-भय-नाशिनी भगवती दुर्गा का स्मरण करके मैंने कालू से कहा,–“सुनो भाई, यदि एक बात का जवाब तुम मुझे ठीक-ठीक दे दो, तो मैं अभी—बिना उजुर तुम्हारे साथ चली चलूँ।”


मेरी बात सुन कर मानो उन सभी शैतानों ने आकाश का चाँद पा लिया और सब के सब एक साथ बोल उठे कि,– “कहो, कहो,जल्द कहो; तुम जो कुछ कहा चाहती हो, झटपट कह डालो।”


उन सभों की बातों का रंगढंग देखकर मुझे कुछ आशा हुई और मैंने स्त्रियों की प्रलयंकारी माया का विस्तार करना प्रारम्भ किया। मैंने कहा—“सुनो भाई, हिरवा को मैंने जानबूझ कर नहीं मारा, पर वह मुर्दार आखिर मर ही गया! ऐसी अवस्था में जबकि हिरवा का मुर्दा घर में पड़ा हुआ है, मुझे यहाँ से कहीं न कहीं भागना ही पड़ेगा। तो फिर जब कि तुमलोग मुझे यहाँ से कहीं ले ही चल रहे हो, तो बस इससे बढ़ कर और कौन सी अच्छी बात हो सकती है! अब रही यह बात कि तुमने जो अपने बारह साथियों की मण्डली बतलाई है, उनमें से एक हिरवा तो मर ही गया, और सात जने यहाँ से भागे ही हुए हैं। ऐसी अवस्था में अब यदि तुम केवल चार ही जने मुझे अपनी बनाओ और फिर किसी पाँचवें का मुझे मुँह न देखना पड़े तो मैं राजी से तुम लोगों के साथ जा सकती हूँ।”


मेरी ऐसी बातें सुनकर वे चारों पापी मारे आनन्द के उछलने कूदने लगे और पारी-पारी से बार-बार सभी जने यों कहने लगे कि,–“नहीं, प्यारी, दुलारी! अब हम चार यारों के अलावे पाँचवां कोई भी साला तुम्हारी परछाईं भी नहीं छू सकेगा।”


यह सुन कर मैं मन ही मन बहुत ही प्रसन्न हुई; क्योंकि उन बारह बदमाशों में से एक हिरवा तो मर ही चुका था, और सात उस समय भागे हुए थे। बस, अब उन चार दुष्टों से ही मुझे अपना पल्ला छुड़ाना था। सो, जब मैंने यह देखा कि मेरे चकमे का असर इन पाजियों पर हो रहा है, तब मैंने मन ही मन भगवान्‌ को प्रणाम करके अपने छुटकारे का यह उपाय सोचा कि यदि इन चारों में से तीन शैतान किसी तरह और अलग किए जा सकें, तो फिर मैं कालू को समझ लूँगी। क्योंकि वह (कालू) मेरे यहाँ तीन-चार बरस से रह रहा था, इसलिये उसके स्वभाव से मैं खूब अच्छी तरह जानकार हो चुकी थी। वह बड़ा ताकतवर और पूरा उजडु था, और उस अकेले को चकमे में डाल कर मुझे अपने को बचा लेना कुछ कठिन काम न था। बस, यही सब सोचसाचकर फिर तो मैंने स्त्रियों के स्वाभाविक अस्त्र-शस्त्रों की थोड़ी सी वर्षा करनी प्रारम्भ की और बहुत ही धीरे से,जिसमें कि वे तीनों न सुन सकें, कालू के कान में इतना ही कहा कि, —“अब जरा इन तीनों को यहाँ से हटा दो तो मैं तुमसे कुछ कहूँ।”


यद्यपि मेरी बातें तो वे तीनों न सुन सके, पर कालू के कान में जो मैंने कुछ कहा, इसे देखकर वे तीनों के तीनों कालू से बार-बार यों पूछने लगे कि, “दुलारी ने तुमसे अभी हौले-हौले क्या कहा? देखो भाई, जो कुछ इसने तुम्हारे कान में कहा हो, उसे हमलोगों पर भी प्रगट कर दो; क्योंकि हम चार यारों में अब परस्पर कुछ भी छिपाव न रहना चाहिए।”


कालू ने उन तीनों की बातें सुनकर उन (तीनों) से एक ऐसी विचित्र बात कही कि जिसे सुनकर मैं तो दंग रह गई! क्योंकि वह बात मैंने कालू से नहीं कही थी, जो उस (कालू) ने अपने तीनों साथियों से कही।


तो, उसने अपने साथियों से क्या कहा? एक अद्भुत बात कही! वह बात यह थी–कालू ने अपने तीनों साथियों से यों कहा कि,– “नहीं, दोस्तों! मैं तुमलोगों से कुछ भी नहीं छिपाना चाहता। लो, सुनो, -दुलारी यह कहती है कि, ‘उस पच्छिम ओर वाले रसोईघर में चूल्हे के नीचे एक बटुआ गड़ा हुआ है, जिसमें दो हजार रुपए हैं। सो, उन रुपयों को भी निकाल कर अपने साथ ले लेना चाहिए।”


बस, महाशय। वह बात यही थी, जिसे अपने मन से गढ़कर कालू ने उन तीनों से कहा था और जिसे सुनकर मैं बहुत ही चकपकाई थी कि, ‘वाह, इस (कालू) ने अपने तीनों साथियों को यहाँ से हटाने का यह अच्छा ढंग निकाला! पर इस युक्ति- बिल्कुल बेजोड़ युक्ति का परिणाम क्या होगा, इसे मैं उस समय नहीं समझ सकी थी।


सो, जब उन तीनों ने कालू के मुँह से दो हजार रुपए की बात सुनी, तब वे मारे आनन्द के खूब ही उछलने-कूदने लगे। यह देखकर कालू उठा और बाहर से एक दूसरा दीया लाकर और उसे बालकर आले पर रखने के बाद अपने उन तीनों साथियों के साथ मेरी कोठरी से निकल कर रसोई घर की ओर चला गया। कुछ ही क्षण के बाद मेरे कानों में फरसे के चलाए जाने की आवाज पहुँची, जिसे सुनते ही मैंने यह समझ लिया कि रसोई घर के चूल्हे के नीचे की धरती खोदी जा रही है!


दसवाँ परिच्छेद : साया

भ्रूचातुर्यात्कुष्चिताक्षाः कटाक्षाः


स्निग्धा वाचो लज्जितांताश्च हासाः |


लीलामंदं प्रस्थितं च स्थितं च


स्त्रीणां एतद्भूषणं चायुधं च ‖


(भ्रतृहरि:)


बस, इतने ही में कालू आ पहुँचा और मेरी खाट के पास बैठ, हँसकर यों कहने लगा,–“क्यों प्यारी दुलारी! मैंने कैसे अच्छे ढंग से अपने साथियों को यहाँ से हटाया?”

मैं बोली,–“किन्तु इस झूठ का नतीजा क्या होगा?”


वह कहने लगा,–“यह बात पीछे सोची जायेगी। इस बखत तो उन सभों को यहाँ से टाल दिया न! जो यह बात मुझे न सूझती, तो वे तीनों भला, यहाँ से कभी टलने वाले थे! अच्छा, अब तुम्हें जो कुछ कहना-सुनना हो, उसे झटपट कह डालो; क्योंकि रात बीती चली जा रही है।”


यह सुनकर मैंने उसकी ओर हँसकर देखा और स्त्रियों के स्वाभाविक अस्त्र-शस्त्रों का कुछ थोड़ा-सा प्रयोग करके उससे यों कहा,–“कालू, यद्यपि तुम पर अभी तक मैंने यह बात प्रगट नहीं की थी, क्योंकि मेरे माता-पिता जीते थे, पर यह तुम सच जानो कि मैं भी जी ही जी में तुम्हें चाहने लगी थी।”


यों कहकर मैंने फिर जरा सा मुस्करा दिया,जिससे वह मुंआ बिलकुल घायल हो गया और मेरी ओर बड़ी बेचैनी के साथ देखकर यों कहने लगा,–“ऐं, यह क्या तुम सच कह रही हो?”


मैंने खांस कर कहा,–“हाँ, बिलकुल ही सच!!!”


वह कहने लगा,–“तब तो यह बड़ी ही खुशी की बात हुई!”


मैं बोली,–“लेकिन मेरे लिये तो यह बड़ी दुखदाई बात हुई!”


वह कहने लगा,–“तुम्हारी इस बात का क्या मतलब है?”


मैं बोली,–“मतलब तो बिल्कुल साफ ही साफ है। अर्थात, मैं केवल तुमको चाहती हूँ, इसलिये फकत तुम्हारी ही होकर रहना भी पसंद करती हूँ। सो, यदि तुम भी मुझे सच्चे जी से प्यार करते होओ, तो मुझे तुम अपनी जोरू की तरह रक्खो, पंचायती रण्डी की भांति न रक्खो; क्योंकि मैं एक तुम्हारी ही होकर तो रह सकूँगी, पर तुम्हारे उन तीन-तीन यारों की टहल-चाकरी मुझसे कभी भी नहीं होने की।”


मेरी ऐसी विचित्र बात को सुनकर वह मूरख उछल पड़ा और बोला,–“हाय, प्यारी दुलारी! तो तुमने अबतक यह अपने जी की बात मुझपर क्यों नहीं जाहिर की थी! अच्छा, कुछ पर्वा नहीं, तुम्हारा सारा मतलब मैं अब भली-भांति समझ गया। अब तुम जरा न घबराओ, क्योंकि अब तुमको सिर्फ मेरी घरवाली बनने के अलावे और किसी गैर साले की परछाईं भी नहीं छूनी पड़ेगी। बस, अब तुम कोई फिक्र न करो और थोड़ी देर तक यों ही पड़ी रहो। मैं अभी लौट कर आता हूँ और तुम्हें यहाँ से निकाल कर ले चलता हूँ।”


यों कहकर कालू उठा और उस कोठरी के बाहर जाने लगा। यह देखकर मैंने उससे पूछा,–“तुम अब चले कहाँ?”


वह कहने लगा,–“मैं उन तीनों को विदा करने जाता हूँ।”


यह सुनकर मैंने बड़े अचरज के साथ उससे पूछा,–“ऐं, यह तुम क्या कहते हो? क्या ये तीनों तुम्हारे कहने से मुझे तुम्हारे हाथ में सौंप कर यहाँ से चुपचाप चले जायेंगे?”


वह कहने लगा,–“उन सालों के सात पुरखे जायेंगे,फिर भला उनकी तो बिसात ही क्या है!”


यह कहकर वह अपनी तलवार लिये हुए जब उस कोठरी के बाहर जाने लगा, तो मैंने फिर कहा,–“मेरे हाथ-पैर के बंधन तो खोलते जाओ।”


यह सुन और यों कहकर वह तेजी के साथ मेरे सामने से चल दिया कि,–“नहीं, अभी ठहरो। मैं जब उन सालों को विदा करके लौटूँगा, तब तुम्हारे हाथ-पैर खोलूँगा, क्योंकि अगर अभी मैं तुम्हारे बंधन खोल दूँगा, तो शायद तुम मुझे अंगूठा दिखा कर कहीं खिसक लोगी।”


बस, वह तो चला गया, पर मैं मन ही मन यों सोचने लगी कि यह कमबख़्त कालू अपने उन तीनों यारों को कैसे यहाँ से विदा करेगा! और साथ ही यह भी मैं विचारने लगी कि इस जबरदस्त कालू से मैं क्यों कर अपना पिण्ड छुड़ाऊँगी! मैंने तो मन-ही-मन यह सोचकर कालू से वह बात कही थी कि, ‘यदि वह थोड़ी देर के लिये मेरे पास अकेले में रह जाये तो मैं उसे फुसलाकर अपने हाथ-पैर खुलवा लूँ और तब मौका पाकर यहाँ से भागूँ,’ पर मेरा मन-चीता न हो सका और मैं उसी खाट पर पड़ी रही। पड़ी तो रही, पर पड़ी-पड़ी भी मैं अपने हाथ में बंधे हुए चीथड़े को दांतों से नोचने लगी। इस काम में मुझे परमेश्वर ने बड़ी सहायता दी; क्योंकि हाथ के बंधन को मैंने दांतों से काट-काट कर खोल डाला और तब मैं उठकर खाट पर बैठ गई। ठीक उसी समय मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो रसोईघर में कुछ लड़ाई-झगड़ा हो रहा है! अस्तु, मैं फिर उधर ध्यान न देकर जल्दी-जल्दी अपने पैर का बंधन खोलने लगी। परन्तु इसमें मुझे कुछ देर लगी, क्योंकि वह बंधन रस्सी का था और बड़ी पोढ़ी गांठ लगाई गई थी। किन्तु फिर भी मुझसे जहाँ तक हो सका, मैंने अपने पैरों का बंधन भी खोल डाला और तब खाट के नीचे उतर कर अपने कुलदेवता को प्रणाम किया।


ग्यारहवाँ परिच्छेद : दुःख पर दुःख

एकस्य दुखस्य न यावदन्तं गच्छाम्यहं पारमिवार्णवस्य ।


तावद् द्वितीयं समुपस्थितं मे छिद्रेष्वनर्था बहुलीभन्ति ।।


(नीति सुधाकरे)


फिर वहाँ से भागने की मैंने ठहराई। सो, चटपट एक मोटी धोती और एक रूईदार सलूका पहिर कर मैंने एक ऊनी सफेद चादर ओढ़ ली और मन ही मन भगवान और भगवती को प्रणाम करके उस कोठरी से मैं बाहर निकली।


उस समय भागने की धुन में मैं ऐसी लौलीन हो रही थी कि मुझे इस बात का मुतलक खयाल नहीं था कि, ‘इसी घर में हिरवा मरा पड़ा है!’ अस्तु, फिर मैं ज़ल्दी-जल्दी पैर बढ़ाती हुई सदर दरवाजे की ओर जाने लगी थी कि इतने ही में कालू बड़े जोर से चीख मार उठा और मुझे ऐसा जान पड़ा कि मानो “धम्म” से कोई चीज रसोई घर में गिरी हो।


ऐसी आहट पाकर मैं तेजी के साथ सदर दरवाजे की ओर भागी थी कि बड़े जोर से कराह कर कालू ने मुझे पुकारा,–“ओ दुलारी, तेरे तीनों चाहनेवालों को मारकर मैं भी नब्बू की तलवार से अधमुआँ होकर गिर गया हूँ! आह, तू जल्द आ और मुझे थोड़ा सा पानी दे। हाय, पानी! अब दम निकला! दुलारी! पानी!”


कालू की ऐसी विचित्र बात के सुनते ही मेरे पैर रुक गए और बड़े जोर से मेरा हिया कांप उठा। मैं अपना माथा पकड़ कर जहाँ खड़ी थी, वहीं बैठ गई और कालू मुझे बार-बार पुकारने और “पानी-पानी” चिल्लाने लगा। आखिर, मैं किसी तरह अपना कलेजा पोढ़ा करके उठी और एक मिट्टी की जल-भरी गगरी उठाकर रसोई घर में पहुँची।


वहाँ जाकर मैंने क्या देखा कि, ‘धन्ना और परसा के तो सिर धड़ से अलग हो गए हैं, और नब्बू के कलेजे में तलवार घुसेड़ी हुई है! सारी कोठरी में खून बह रहा है और एक ओर कालू भी घायल होकर पड़ा-पड़ा कराह रहा है!!!


यह सब हत्याकाण्ड देखकर उस समय मेरे चित्त की क्या अवस्था हुई होगी, इसे तो केवल नारायण ही जान सकते हैं! इसलिये उसका बखान न करके मैं अब आगे का हाल कहती हूँ!


मुझे देखते ही कालू ने कहा,–“दुलारी, जल्दी मुझे पानी पिलाओ।”


बस, जब यह बात मेरे कान में पड़ी, तब मानो सोते से मैं जागी और मैंने नज़र गड़ाकर क्या देखा कि, ‘कालू के कंधे को तलवार ने दूर तक काट दिया है और वह धरती में पड़ा-पड़ा तड़प रहा है।’


मैं उसकी उस अवस्था को देखकर यह बात भली-भांति समझ गई कि, ‘अब यह भी थोड़ी ही देर का पाहुना है।’ अस्तु, फिर तो मैंने हाथ में पानी लेकर उसके मुँह में धीरे-धीरे डाला, जिसे वह बड़े कष्ट से पी गया।


थोड़ा सा पानी पी कर जब वह कुछ स्वस्थ हुआ, तब मेरी ओर देखकर यों कहने लगा,–“ दुलारी, तुम्हारी खातिर मैंने अपने तीनों साथियों को मार डाला, पर नब्बू साला मरते-मरते मुझे भी आखिर मार ही गया! अब मैं चलता हूँ, इसलिये मेरे अपराधों को तुम क्षमा करना। तुम यहाँ से अब अपनी जान लेकर तुरन्त कहीं भाग जाना और पुलिस के हंगामे से अपने तईं खूब बचाना। अगर तुम कहीं भाग न गई तो जरूर पकड़ी जाओगी और इन पांच-पांच खूनों के कसूर में फाँसी पड़ोगी।”


यों कहकर उसने फिर थोड़ा सा पानी पीया और तब मैंने उससे यों कहा,– “कालू, यह तुमने क्या कर डाला?”


वह कहने लगा,–“तो आखिर, मैं उन सभों को यहाँ से टालता कैसे? वे सब भला यहाँ से कभी टलने वाले थे! मैंने तो यह सोचा था कि इन तीनों को मार कर तुम्हें यहाँ से भगा ले चलूँगा, पर मेरे मन की मन ही में रही और मैं भी अब चलता हूँ। हाय, तुम ब्राह्मण की लड़की हो और मैं तुम्हारा टहलुआ हूँ। फिर भी मैंने तुम पर अपनी नीयत बिगाड़ी और पूरी नमकहरामी की! अब यदि तुम अपनी उदारता से मुझे क्षमा न करोगी तो मैं नरक में भी सुख से न रह सकूँगा। इसलिये दुलारी, तुम मुझे क्षमा करो। क्योंकि मैं अब चलने ही बाला हूँ। क्षमा करो, दुलारी! तुम मेरी माँ-बहन हो, इसलिये मुझ पापी को अब तुम क्षमा करो।”


यह सुनकर मैंने कहा,–“कालू, तुमने काम तो बड़ा खोटा किया है; पर अब तुम मर रहे हो, इसलिये मैं तुम्हें क्षमा करती हूँ। पर यह तो बतलाओ कि तुमने अकेले तीन-तीन आदमियों को कैसे मारा?”


वह कहने लगा,–“रसोई-घर में आकर धाना तो चूल्हे के नीचे की धरती खोदने लगा, परसा खुदी हुई मिट्टी हटाने लगा और नब्बू रोशनी दिखलाने लगा था। बस, तुम्हारे पास से आकर मैंने धाना और परसा को तो चटपट काट डाला, पर नब्बू यह हाल देखकर मुझसे लड़ने लगा। उसने अपने हाथ का पलीता दीवार के छेद में खोंस दिया और मुझ पर वार किया! उसने मेरे कंधे पर यह बड़ी भारी चोट पहुँचाई, पर गिरने के पहिले मैंने भी उसके कलेजे में अपनी तलवार आखिर घुसेड़ ही दी। बस, इसके बाद पहिले नब्बू ने धरती सूंघी और उसके बाद मैं धीरे-धीरे लेट गया। बस, यही तो बात है, जो तुम्हें सुना दी गई। पानी! पानी!! ओ दुलारी! पानी! पानी!! पानी!!!”


यह सुनकर मैंने फिर उसके मुँह में पानी डाला, पर अबकी बेर वह उसके गले के नीचे न उतरा और बाहर निकल कर बह गया। इतने ही में कालू ने दो-चार बार हाथ-पैर हिलाए, कई हिचकियाँ ली और दम तोड़ दिया!!!


यह लख कर फिर मैं उस कोठरी में तनिक भी न ठहरी और बाहर निकल आई।


मेरे पैर खून से रंग गए थे, इसलिए पहिले तो मैंने पैरों को खूब धोया, इसके बाद इस बात पर भली-भांति विचार किया कि ‘अब मुझे क्या करना चाहिए।’


बहुत कुछ सोच-विचार करने के बाद मैंने यही निश्चय किया कि, ‘यहाँ से भागकर मैं कहाँ जाऊँगी और किस जगह छिप कर रहूँगी, क्योंकि मुझे कौन शरण देगा! इसके अलावे, भागने पर इन पाँच-पाँच खूनों की अपराधिनी मुझे ही बनना पड़ेगा। इसलिये अब मुझे यही करना चाहिए कि सारी लाज-शरम छोड़कर मैं स्वयं थाने पर चलूँ और इन हत्याओं की रिपोर्ट लिखवाऊँ। इसमें फिर जो कुछ भी हो, पर मुझे ऐसे अवसर पर न तो कहीं भागना ही चाहिए और न छिप कर बैठ ही रहना चाहिए।’


बस, यह सोच कर मैं तुरन्त अपने घर से बाहर हुई और अपने गाँव से तीन-चार कोस दूर एक दूसरे गाँव के थाने पर जाने का मैंने पक्का इरादा कर लिया। क्योंकि मेरे गाँव पर जो थाना था, दीवाली पर आग लग जाने से वह जल गया था और उसके लिये दूसरा झोंपड़ा अभी नहीं बना था। इसलिये इस गाँव की वारदात की रिपोर्ट पास के उसी दूसरे गाँव पर लिखाई जाती थी। बस, उसी गाँव पर जाने का मैंने निश्चय किया।


बारहवाँ परिच्छेद : हवालात

अवश्यभव्येष्वनवग्रहग्रहा,


यया दिशा धावति वेधसः स्पृहा ॥


तृणेन वात्येव तयानुगम्यते,


जनस्य चित्तेन भृशावशात्मना ॥


(श्रीहर्ष:)


बाहर आने पर मैंने क्या देखा कि मेरी गाड़ी में मेरे ही दो बैल जुते हुए हैं! वे मुझे देखते ही मारे आनन्द के गर्दन हिलाने लगे। मैंने उन दोनों बैलों की पीठ थपथपाई और गाड़ी पर सवार हो गई। फिर रास अपने हाथ में लेकर मैंने एक ओर को कूच किया।


जिस समय मैंने गाड़ी हांकी थी उस समय पौ फट चुकी थी और झुटपुटा हो आया था। बस, उसी उषःकाल में मैंने यात्रा की और आध घंटे में अपने गाँव के बाहर मैं जा पहुँची। उस समय गाँव में चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था और रास्ते में मुझे कोई भी नहीं मिला था। यह देख कर मैं गंगा-किनारे पहुँची। फिर गाड़ी से उतर कर मैंने गंगास्नान किया और तीन अंजुल जल अपने पिता के लिए दिया। फिर मैं एक घंटे तक वहीं बैठी हुई अपने पिता के लिये खूब रोई। इतने में जब मेरी वह गीली धोती सूख गई, तब मैंने वह गाड़ी दूसरे गाँव की ओर बढ़ाई।


जिधर मैंने गाड़ी बढ़ाई थी, वह गाँव मेरे गाँव से तीन-चार कोस दूर था और उसमें एक पुलिस की चौकी थी। उसी चौकी पर मैं जाया चाहती थी। सो, दस बज़ते-बजते मैं उस चौकी पर पहुँच गई और गाड़ी से उतर कर एक ‘गोंडइत’ (गाँव के चौकीदार) से यों पूछने लगी कि,–“थानेदार कहाँ हैं?”


मेरी बात सुन और मुझे सिर से पैर तक खूब अच्छी तरह घूर कर उस बदजात चौकीदार ने मुस्कुराकर यों कहा,–“अय जानसाहिबा! तुम किस गाँव को उजाड़ कर इस वीराने को आबाद करने आई हो?”


उस हरामजादे की ऐसी बात-चीत सुनकर यह मैं समझ गई कि यह मुंआँ बड़ा पाजी है। पर खैर, उसकी बातें अनसुनी करके मैं सामनेवाले एक छोटे से छप्परदार कोठे के अन्दर घुस गई और वहाँ जाकर मैंने क्या देखा कि, “एक तख्तपोश के ऊपर दो-तीन तकियों का ढासना लगाए हुए एक नौजवान बैठा हुआ हुक्का गुड़गुड़ा रहा है।”


उसे देखकर मैंने उससे यों पूछा,–“इस थाने के अफसर आप ही हैं?”


मेरी बोली सुनकर उस की मानो पिनक दूर हुई और उसने मेरी ओर देख और दो-चार जम्हाई लेकर हँस दिया। इतने में वह गोंड़इत भी उसी कोठे में आ गया, जिसके साथ मेरी अभी बात-चीत हुई थी।


सो, उसने थानेदार की ओर देख और खूब खिलखिला कर यों कहा,–“लीजिए, जनाब! आप भी कैसे किस्मतबर बशर हैं कि सुबह-सुबह यह कोहकाफ़ की हूर आप ही आप आप के पास आ टपकी!


इस मुएं चौकीदार की वैसी बात सुनकर थानेदार खूब कहकहा लगाकर हँस पड़ा और बोला,–“अजी म्यां, तो इसमें ताज्जुब की क्या बात हुई! बकौल शख्से कि, ‘शक्करखोरे को शक्कर और मूंजी साले को टक्कर मिला ही करती हैं।’ उसी तरह मुझे भी आज यह मिसरी की डली दस्तयाब हुई!”


यों कहकर थानेदार ने मेरी ओर बुरी तरह आँखें मटकाकर यों कहा,–“तुम कहाँ से आ रही हो, दिलरुबा!”


मैं इन शैतानों, यानी चौकीदार और थानेदार के बर्ताव को देखकर मन ही मन जल-भुन-कर खाक हो गई थी, पर फिर भी बेमौका समझ कर अपना क्रोध भीतर ही भीतर पी गई और थानेदार से यों कहने लगी,–“मेरे घर में आज की रात पाँच-पाँच खून हो गए हैं, उन्हीं की रिपोर्ट लिखाने मैं खुद ही हाजिर हुई हूँ। इसलिये आप कृपा कर मेरा बयान लिख लीजिए और मुझे जिले की कचहरी के हाकिम के पास ले चलिए।”


मेरी बात सुनकर थानेदार खूब ठठाकर हँसा और सीधा बैठ कर यों कहने लगा,– “वल्लाह, तुमने तो जान साहिबा! आते ही मजाक शुरू कर दिया! या रब! ऐसा तो मैंने न कभी देखा और न सुना ही कि खुद खूनी थाने पर हाजिर होकर अपने फेल की रिपोर्ट लिखाता हो! इसलिये, प्यारीजान! तुम मुझसे दिल्लगीबाजी न करो और जिस मतलब से तुम मेरे पास आई होवो, उसे बिला-तकल्लुफ मुफस्सिल बयान कर जाओ। आओ, मेरे पास इसी तख्तपोश पर आकर बैठ जाओ।”


उस निगोड़े थानेदार का ऐसा कमीनापन देखकर मैं बहुत ही झल्लाई, पर फिर भी मैंने लोहू का घूंट पीकर उससे यों कहा,– -“साहब, मैं एक भले घर की लड़की हूँ, और आज की रात मेरे घर में पाँच-पाँच खून हो गए हैं। इसी की रिपोर्ट लिखाने मैं खुद यहाँ हाजिर हुई हूँ। इसलिये पहिले आप मेरा इजहार लिख लें, फिर मेरे घर जाकर उन पाँचों लाशों का मुलाहिजा करें। बस, अब मुझे छुट्टी दें, तो मैं भी वहाँ पहुँच जाऊँ।”


मेरी बात सुनकर उन चौकीदार और थानेदार साहबों के होशोहवास दुरुस्त हो गए और थानेदार ने मेरी ओर तिरछी चितवन से तककर यों कहा,–“वल्लाह, तुम्हारी तो सभी बातें एक अजीबोगरीब पहेली नजर आती हैं! अजी बी! कहीं भले घर की लड़कियाँ भी खून-खराबा किया करती है?”


मैं बोली,–“यह किसने कहा कि मैंने ये खून किये हैं? आप पहिले मेरा बयान लिख लें, फिर उस खून की जाँच करें और मुझे हुकुम दें तो मैं अपने घर वापस जाऊँ।”


इसपर उस चौकीदार ने कहा,–“थानेदार साहब,यह तो बड़ा मजेदार मामला नजर आता है!”


यह सुन और मेरी तरफ़ बुरे-बुरे इशारे करके थानेदार ने यों जवाब दिया,– “वाकई, मियाँ हींगन! यह मामला, दरअसल बड़ा मजेदार है!”


यों कहकर उस पाजी ने मेरी ओर बहुत ही बुरी तरह घूरकर और हँसकर कहा,– “अच्छा, जानी! तुम्हारा नाम क्या है?”


उस बदमाश की बदमाशियों पर खयाल न कर और नीची आँखें करके मैंने यों कहा,–“मेरा नाम दुलारी है।”


यह सुनकर उसने एक कहकहा लगाया और यों कहा,–“वल्लाह, प्यारी! तुम्हारा नाम तो निहायत मौजूं है! वाकई, तुम सिर्फ ‘दुलारी’ ही नहीं हो, बल्कि ‘मेरी दुलारी’ हो! क्यों? अब आया, तुम्हारी समझ के अन्दर!!!”


उस मुए की ऐसी बातें सुनकर मैं बहुत ही कुड़बुड़ाई, किन्तु लाचार थी। हाँ, इतना मैंने मन ही मन जरूर समझ लिया था कि यहाँ आकर मैंने अच्छा काम नहीं किया।


मैं मन ही मन इसी बात पर गौर कर रही थी कि उसने मुझसे फिर यों कहा,–“लो, सुनो और मेरी ओर देखकर उस खून के बारे का सारा हाल मुफस्सिल कह जाओ।”


यह सुनकर मैंने उस खून का सारा हाल कह सुनाया।


यह सुनकर थानेदार ने उठकर मुझे तो जबरदस्ती एक कोठरी में बंद कर दिया और दो चौकीदारों को मेरे पहरे पर मुकर्रर करके हींगन चौकीदार के साथ मेरी ही गाड़ी पर चढ़कर मेरे गाँव की तरफ कूच किया।

तेहरवाँ परिच्छेद : दो सज्जन

उस बदजात थानेदार के जाने पर वे दोनों चौकीदार मुझसे बातचीत करने लगे। वे दोनों बेचारे बड़े भले आदमी थे। उनमें से एक ( दियानत हुसैन ) तो मुसलमान थे और दूसरे (रामदयाल) ब्राह्मण। बातों ही बातों में उन दोनों को मैंने अपनी सारी ‘रामकहानी’ सुना दी, जिसे सुन कर वे दोनों बेचारे बहुत पछताने लगे और यों कहने लगे कि,–“दुलारी, जो खून तुम्हारे घर में हो गए हैं, उनके कसूर में आश्चर्य नहीं कि तुम्हीं सजा पा जाओ और वह कसूर तुम्हारे ही गले मढ़ा जाये; पर कुछ पर्वा नहीं; जन्म लेकर कोई बार-बार नहीं मरता। तुम्हारा धर्म जो नारायण ने बचा दिया, उसके मुकाबिले में फांसी की तखती कोई चीज ही नहीं है। यदि धर्म और परमेश्वर कोई चीज हैं, तो वे दोनों तुम्हें अच्छी गति देंगे और परलोक या दूसरे जन्म में तुम सुख पाओगी। फिर यह भी बात है कि यदि तुमने सचमुच खून न किए होंगे, तो भगवान तुम्हें बचा भी सकते हैं।


आहा! मैं उन दोनों भले चौकीदारों की हमदर्दी से भरी और सच्ची बातें सुनकर बहुत ही प्रसन्न हुई और कहने लगी,– “हां, भाइयों! मैं मरने से नहीं डरती, इसीलिये तो आप ही आप यहाँ आकर हाजिर हो गई हूँ, पर यह खून मैंने नहीं किए हैं।”


यह सुनकर दियानत हुसैन ने कहा,–“पर जो तुम यहाँ न आकर गंगा में डूब मरतीं, तो कहीं अच्छा होता; क्योंकि जिस धरम को बचाकर तुम यहाँ आई हो, वही धरम तुम यहाँ कभी न बचा सकोगी, क्योंकि यह थानेदार ऐसा कमीना है कि तुम्हें अछूती कभी न छोड़ेगा और तुम्हारी आबरू बिगाड़ कर तब दम लेगा। इस शैतान ने अब तक न जाने कितनी औरतों की इज्जत हुर्मत बिगाड़ डाली है और बराबर बिगाड़ता ही रहता है। इस गाँव के लोगों का नाकों में दम आ गया है, पर बेचारे लाचार हो रहे हैं, क्योंकि इस नालायक की किसी तरह यहाँ से बदली भी नहीं होती। इसका साथी हींगन भी एक ही शैतान है और इन दोनों बदमाशों ने इस गाँव में तहलका मचा दिया है। मेरी सरकार बहादुर तो अपनी रियाया की भलाई के वास्ते पुलिस का महकमा खोल बैठी है, पर इस महकमे में बाजे-बाजे ऐसे कमीने घुस आते हैं कि जिनसे रियाया को उल्टा और परेशान होना पड़ता है।”


बेचारे दियानत हुसैन की बातें सुनकर मैं मन ही मन बहुत ही डरी कि, ‘हाय, अब मैं किस बला में आ फँसी! अस्तु मैंने उनसे यों कहा,– “भाईसाहब! तो यहाँ मैं क्‍या करूँगी? हाय, क्या आप लोग मुझ अनाथ लड़की को नहीं उबार सकते?”


मेरी बात सुनकर रामदयाल मिश्र ने दियानत हुसैन से कहा,-“भाई, यह लड़की साक्षात्‌ सिंहवाहिनी दुर्गा है; सो, यह अपने सतीत्व के बल से आप अपना धर्म बचा सकेगी। रही हमलोगों की बात, सो भला हमलोग इसकी कौन सी सहायता कर सकते हैं?”


यह सुनकर दियानत हुसैन ने कहा, “हाँ, भाई साहब! यह तो ठीक बात है, क्योंकि हमलोग एक महज मामूली चौकीदार हैं। ऐसी हालत में हमलोग एक कैदी औरत को उस ऐयाश और बदकार अब्दुल्ला थानेदार से क्योंकर बचा सकते हैं। हाँ, अगर यह औरत कैद न होती और योंही यहाँ आ फँसी होती, तो हमलोग इसे चुपचाप भगा दे सकते थे; पर जब कि यह नौजवान लड़की खुद यहाँ आकर फँस गई है, तब भला इसे हमलोग कैसे छोड़ सकते हैं! भाई, अपनी-अपनी जान सभी को प्यारी होती है, इसलिये इसे हमलोग कैसे यहाँ से भगा दें।”


चौकीदार दियानत हुसैन की बात सुनकर रामदयाल ने कहा,-“हां,भाई! ये सब बातें तो तुम ठीक कह रहे हो।”


बाद इसके, मेरी तरफ घूमकर उन्होंने मुझसे यों कहा,–“बहिन दुलारी, अब तुम केवल भगवती का ध्यान करो; क्योंकि उसके अलावे अब्दुल्ला थानेदार से तुमको कोई भी नहीं बचा सकता।”


यह सुनकर मैंने यों कहा,– “सुनो भाइयों, मैं यहाँ से भागना नहीं चाहती और न यही चाहती हूँ कि तुमलोग मुझे यहाँ से भगा कर खुद आफत में फँसो। अजी, जो मुझे भागना ही होता, तो मैं आप ही आप यहाँ आती ही क्यों? सो मैं, भागना नहीं चाहती और न फाँसी से ही डरती हूँ। परन्तु हाँ, मैं अपने धर्म के लिये अवश्य घबरा रही हूँ कि कहीं मेरा वही अमूल्य धन (सतीत्व) न जाता रहे। हाय, जिस सतीत्व की रक्षा के लिये मैं यहाँ आई, वही सतीत्व थानेदार अब्दुल्ला के हाथों गँवाना पड़ेगा! अच्छा, आपलोग मेरे लिये कोई चिन्‍ता न करें, क्योंकि अब मैंने यह बात भली भाँति समझ ली कि भगवती की जो इच्छा होगी, वही होगा।”


यों कहकर मैं फूट-फूट कर रोने लगी और रामदयाल तथा दियानत हुसैन मुझे ढाढ़स देगे लगे। घंटे डेढ़ घंटे के पीछे मैं कुछ शान्त हुई और रामदयाल और दियानत हुसैन के साथ थानेदार अब्दुल्ला के चाल-चलन के विषय में बातचीत करने लगी। उन दोनों ने उसके अत्याचार की बहुतेरी कहानियाँ मुझे सुनाई, जिन्हें मैंने खूब मन लगाकर सुना।


सब कुछ सुन लेने पर मैंने उन दोनों की ओर देखकर यों कहा,–“तो, क्यों भाइयों! इस गाँव के लोग ऐसे बदमाश थानेदार की रिपोर्ट सरकार में क्यों नहीं करते?”


इसपर उन दोनों ने पारी-पारी से यों कहा,–“दुलारी! भला, बेचारे गाँव के गरीब आदमियों में इतनी हिम्मत कहाँ है!”


बस, इतनी बातचीत होने के बाद रामदयाल मिश्र एक लोटा भर कर दूध ले आए और मुझसे बोले,–“यह चंडाल थानेदार तुम्हें खाने-पीने के लिये कुछ भी न देगा। इसलिए यह गाय का दूध मैं लाया हूँ, इसे तुम पी लो।”


यह सुन कर मैंने बहुत कुछ नाहीं-नुकर किया पर उन्होंने इतना आग्रह किया कि फिर मैं जादे हठ न कर सकी और उस लोटे में भरे हुए सारे दूध को गटर-गटर पी गई। मैंने उस कोठरी के जंगले के पास आकर अपने मुँह से अंजुली लगाई और बाहर से एक पत्ते में धार बाँध कर रामदयाल ने मुझे दूध पिलाना प्रारंभ किया। यों जब मैं सब दूध पी गई, तब उन्होंने कुएँ का ताज़ा पानी लाकर मेरा हाथ-मुँह धुला दिया। फिर वे दोनों घूम-घूम कर मेरी कोठरी की चौकसी करने लगे और मैं अपने पिता की शोचनीय मृत्यु और उनका योंही बहा दिया जाना स्मरण करके फूट-फूट कर रोने लगी।


मुझे वे (दियानत हुसैन और रामदयाल) दोनों बार-बार समझाते थे, पर जब नदी का बाँध हट जाता है, तब क्या उसकी धारा का वेग रुक सकता है?


खैर, इसी तरह मैं घंटों तक रोया की, फिर आप ही आप धरती में लुढ़क गई और नींद ने मुझे अपनी गोद में सुला लिया। यहाँ पर इतना और भी समझ लेना चाहिए कि मैं जिस कोठरी में बन्द की गई थी, उसकी धरती में पुआल बिछ रहा था, इसलिए मुझे कोई कष्ट न हुआ और मैं देर तक बेखबर पड़ी-पड़ी सोया की।


चौदहवाँ परिच्छेद : दैवी विचित्रा गति:!

“कान्तं वत्ति कपोतिकाकुलतया नाथान्तकालोऽधुना


व्याधोऽधो धृतचापसजितशरः श्येनः परिभ्राम्यति ।।


इत्थ सत्यहिना स दष्ट इषुणा श्येनोऽपि तेनाहत-


स्तूर्ण तौ तु हिमालयं प्रति गतौ दैवी विचित्रा गतिः ।।”


(नीतिरत्नावली)


मेरे कान में ऐसी भनक पड़ी कि मानो मुझे कोई पुकार रहा है! ऐसा जान कर मैं उठ बैठी और आँखें मल-मल और जम्हाई ले-ले कर नींद की खुमारी दूर करने लगी। मुझे जगी हुई जान कर रामदयाल ने धीरे से मुझसे यों कहा,–“बस, खबरदार हो जाओ। थानेदार अब्दुल्ला लौट आया है और अब वह कदाचित तुमको अपने पास बुलावेगा।”


यह सुन कर मैंने उनसे पूछा,–“ओहो! यह तो खासी रात हो आई! मैं बहुत जादे सोई।”


उन्होंने कहा,–“हाँ, तुम खूब सोईं। अब रात के ग्यारह बजने का समय है! दस बजे अब्दुल्ला और हींगन लौट कर यहाँ आ गए हैं और खाना-बाना खा कर अब दोनों उसी कोठरी में बैठे हुए शराब पी रहे हैं। कदाचित अब तुम बुलाई जाओगी, क्योंकि ऐसी भनक मेरे कान में अभी पड़ी है। इसलिये अब तुम भगवती दुर्गा को स्मरण करो और खबरदार हो जाओ। हम लोगों को थानेदार ने यह हुक्म दिया है कि,–“तुम-सब अपनी कोठरी में चले जाना और बिना बुलाए न आना।”


रामदयाल की बातें सुन कर एक बेर तो मैं बहुत ही डरी और काँपने लगी, पर फिर मैंने भगवती का स्मरण करके अपने जी को पोढ़ा किया।


बस, इतने ही में हाथ में लालटेन लिये हुए वही हींगन चौकीदार मेरी कोठरी के दरवाजे पर आ खड़ा हुआ और रामदयाल को विदा करके ताला खोलते-खोलते मुझसे यों कहने लगा,– “चलो, बी! तुमको थानेदार साहब बुला रहे हैं। खून तो तुमने वाकई पांच जरूर किए हैं, लेकिन कुछ पर्वा नहीं। अगर इस वक्त तुम थानेदार की और मेरी भी दिली आरजू पूरी कर दोगी, तो हमलोग चुपचाप इसी रात को तुम्हें यहाँ से भगा देंगे। फिर जहाँ तुम्हारा जी चाहे, वहाँ चली जाना; लेकिन जब तक इस खून का हंगामा न मिट ले, तबतक अपने तईं किसी पोशीदा जगह में खूब छिपाए रहना। मगर जो तुमको कोई छिपने की माकूल जगह न दिखलाई दे, तो वैसा कहो; क्योंकि वैसी हालत में खुद मैं तुम्हें अपने साथ लेकर कलकत्ता या बंबई भाग चलूँगा और फिर किसी साले के हाथ न आऊँगा। बस, तब तुम मेरी बीवी बनकर रहना और मैं तुम्हारा खाविन्द बनकर रहूँगा।”


उस निगोड़े और कलमुँहे मियाँ हींगन की ऐसी गन्दी बातें सुनकर मेरे तलुवे से चोटी तक आग सी लग गई, किन्तु बेमौका समझकर मैं उस क्रोध को मन ही मन दबा गई और स्त्रियों की स्वाभाविक माया का कुछ थोड़ा सा विस्तार करके तुरन्त यों कहने लगी,–“मियाँ जी! तुमने जो कुछ मुझसे अभी कहा है, उसे मैं मंजूर करती हूँ; पर जब कि तुम मुझे अपनी बीवी बनाया चाहते हो, तो फिर अपनी उसी बीवी को थानेदार के हाथ में क्यों देते दो?”


मेरी ऐसी विचित्र बात सुन और अपने हाथ की लालटेन से मेरे चेहरे की ओर देख कर उस कलूटे ने हँस फर यों कहा,–“आह, दिलरुबा! तो यह बात तुमने मुझसे पेश्तर क्यों न कही?”


मैं बोली,–“पहिले तुम्ही ने अपने जी की बात मुझसे कब कही थी? अस्तु, सुनो हींगन मियाँ! तुम अब मेरे जी के असली भेद को सुनो। आज यहाँ आते ही मैंने पहिले तुम्हें देखा था और तुम्हारे साथ मेरी दो चार बातें भी हुई थीं। बस, उसी समय से तुम्हारी बातें सुनकर मैं तुम पर लट्टू हो गई हूँ और खुशी से तुम्हारी बीवी बनना चाहती हूँ। इसलिये यदि तुम मुझे अब्दुल्ला के हाथ से निकाल कर कहीं लिवा ले चलो, तो मैं तुम्हारी ही होकर रहूँगी।”


यह सुनकर हींगन हाथ मलकर यों कहने लगा,–“या इलाही, तो अब मैं क्या करूँ और इस वक्त उस जालिम अब्दुल्ला के हाथ से क्योंकर तुम्हें बचाऊँ?”


मैं बोली,–“हिम्मत बांधो, जी को पोढ़ा करो, कुछ जवांमर्दी खर्च करो और अब्दुल्ला से लड़कर मुझे यहाँ से ले भगो। देखो,–सुनो, मैं जो उपाय बतलाती हूँ, उसे ध्यान से सुनो। देखो, यह तो तुम्हें मालूम ही है कि इस समय अब्दुल्ला ने तुम्हारे अलावे, बाकी के छओं चौकीदारों को अपनी कोठरी में चले जाने के लिये कहा है। इसलिये अब वे छओं चौकीदार आज रातभर कभी कोठरी से बाहर न निकलेंगे। ऐसे मौके को तुम नाहक अपने हाथ से न खोवो और अब्दुल्ला को खूब शराब पिला और उसे बेहोश करके मुझे यहाँ से कहीं दूसरी जगह ले चलो। फिर जब हमदोनों किसी अच्छी जगह पहुँच जायेंगे, तब जो कुछ तुम कहोगे उसे बिना उजुर मैं करूँगी।”


इस उपाय को सुनकर शैतान हींगन उछल पड़ा और बोला,–“बस, बस, अब तुम कोई अन्देशा न करो और बेफिक्र रहो। वाकई, बी दुलारी! तुमने तरकीब तो बड़े आला दर्जे की बतलाई! बस, अब तुम जरा न डरो और देखो कि मैं क्या करतब कर गुजरता हूँ।”


हींगन ने यह बात कही तो सही, पर उसकी बात पर मुझे कुछ भी भरोसा न हुआ; क्योंकि वह खुद भी इतनी शराब पीये हुए था कि उसके पैर ठीक तौर से धरती में नहीं पड़ते थे और, उसके मुँह से ऐसी दुर्गन्धि निकल रही थी कि जिससे मेरा सिर चक्कर खाने लग गया था। यहाँ तक कि उसके मुँह से साफ-साफ बात भी नहीं निकलती थी। यह सब था, पर फिर भी मैंने उसे इसी लिये यह चकमा दिया था कि, ‘जिसमें वह अब्दुल्ला को खूब शराब पिलाकर बेहोश कर दे; क्योंकि यदि अब्दुल्ला नशे में गाफिल हो जाये तो फिर हींगन ऐसे जानवरों को अंगूठा दिखाते मुझे तनिक भी देर न लगेगी।’


हींगन के साथ मेरी इतनी ही बात होने पाई थी कि इतने ही में हाथ में एक लालटेन लिये हुए झूमता झामता अब्दुल्ला भी वहीं पर आ पहुँचा और त्योरी बदलकर उसने हींगन से यों कहा,–“क्यों बे, उल्लू के पट्ठे! तूने इतनी देर क्यों लगाई?”


यह सुनकर हींगन कुछ बिगड़ा नहीं, वरन बड़ी आजिजी के साथ उसने अब्दुल्ला से यों कहा,– “अजी, हज़रत! यह नई औरत आपके पास चलने में ज़रा हिचकती और शरमाती थी, इसलिये मैं इसे खूब समझा-बुझा रहा था। बस, अब यह राजी हो गई है। इसे लेकर मैं आने ही वाला था कि आप खुद आ पहुँचे। चलिए, इसे मैं लिवाए चलता हूँ।”


हींगन की ऐसी बातें सुनकर अब्दुल्ला ने हँसकर उससे कहा,–वाकई, मियाँ हींगन! तुम बड़े होशियार और काबिल एतबार शख्स हो। मैं सदर में तुम्हारे लिये सिफारिश करूँगा और तुम्हें चौकीदार से जमादार बनवा दूँगा। मगर खैर, अब तुम इस माहे-लका को उस कोठरी में फौरन ले आओ।”


यों कहकर अब्दुल्ला डग मारता हुआ वहाँ से चला गया। उसके रंग-ढंग से यह मैंने जान लिया था कि यह शराब के नशे में भरपूर चूर हो रहा है!


अस्तु, उसके जाने पर हींगन ने मुझसे कहा,– “लो, अब चलो और बेफिक्र रहो; क्योंकि मैं तुम्हारी मदद पर मुस्तैद रहूँगा और अब्दुल्ला साला तुम्हारे जिस्म में उंगली भी न लगाने पाएगा। मैं तुम्हारी हिफाजत करूँगा और अगर उस बदजात ने तुम्हारे साथ कुछ ज्यादती करनी चाही, तो उसे फौरन मार डालूँगा।”


यह सुन कर घबरा कर मैंने उससे यों कहा,–“सुनो, हींगन मियाँ! खून-खराबे की कोई जरूरत नहीं है, इसलिए तुम वैसा कोई भयानक काम न कर बैठना। हाँ, यह तुम कर सकते हो कि उस (अब्दुल्ला) को खूब ढेर सी शराब पिला कर बेहोश कर दो और मुझे यहाँ से कहीं ले चलो। सुनो, भई! मेरे घर में पाँच-पाँच खून तो हो ही चुके हैं; इसलिये यहाँ अब एक खून की गिनती और बढ़े, यह मैं नहीं चाहती।”


मेरी ऐसी बात सुन कर चलते-चलते हींगन ने यों कहा, “खैर, तुम कोई अन्देशा न करो। मैं बराबर तुम्हारी मदद पर रहूँगा और जैसा मौका देखूँगा, वैसा करूँगा। तुम मुझे बिलकुल नशे में डूबा हुआ न समझना।”


मैं बोली,–“खैर, तुम जैसे हो, बहुत अच्छे हो। लेकिन इतना मैं फिर भी तुम्हें चिताए देती हूँ कि अब तुम खुद तो जरा भी शराब न पीना, मगर अब्दुल्ला को खूब पिलाना।”


इस पर वह बोला,–“अच्छा, जैसा तुम कहती हो, वैसा ही किया जायेगा। तो, आओ; अब झटपट चलो।”


यों कह कर वह मुझे अपने आगे करके ले चला और उसके साथ मैं अब्दुल्ला की उसी कोठरी में पहुँची, जिसमें मैंने सबेरे उसे देखा था।


वहाँ जाकर मैंने क्या देखा कि एक ओर् एक स्टूल पर धरी हुई लालटेन जल रही और तख्तपोश के ऊपर बैठा हुआ अब्दुल्ला शराब पी रहा है।


मुझे देखते ही उसने हँस दिया और उसी तख्तपोश पर आकर बैठ जाने का इशारा किया। किन्तु मैं उस तख्तपोश पर न बैठ कर नीचे धरती में बिछे हुए टाट के बोरे पर बैठ गई और हँस कर यों बोली,– “जी, यहीं अच्छा है।”


इस पर जब वह बार-बार मुझसे तख्तपोश पर बैठने के लिए कहने लगा तो हींगन ने उसके प्याले में शराब डाल कर उससे यों कहा,–“खैर, जरा और ठहर जाइए क्योंकि जब यह इस कोठरी के अन्दर आ ही गई है, तो फिर तख्तपोश पर आने में कितनी देर लगेगी। आप क्या यह बात नहीं जानते कि, “नई नवेली नार जरा जियादह मिन्नतें कराती है!”


हींगन की बात पर अब्दुल्ला जरा गरम हो उठा और त्योरी बदल कर उससे बोला,–“बस, बस, चुप रहो, क्योंकि इस वक्त तुम्हारे वकालत करने की कोई जरूरत नहीं है। इसलिये अब तुम फौरन यहाँ से चले जाओ और अपनी कोठरी में जाकर आराम करो।”


यह सुन कर हींगन भी झल्ला उठा और ताव-पेंच खा कर यों कहने लगा- “नहीं, मैं इस कोठरी के बाहर नहीं जाऊँगा। क्योंकि अभी तो शाम ही हुई है। इसलिये जरा दो-चार बोतलों को खाली होने दीजिए, इसके बाद मैं आप ही यहाँ से चला जाऊँगा।”


यह सुन कर अब्दुल्ला ने कहा,–“तो, लो,–यह एक बोतल शराब तुम लेते जाओ।”


हींगन बोला,–“और साथ ही, इस नाजनी को भी लेता जाऊँ? क्यों? क्योंकि बगैर इस परी के, तनहाई में शराब क्योंकर अच्छी लगेगी?”


हींगन की यह बात सुन कर अब्दुल्ला बहुत ही झल्लाया और हींगन को गालियाँ देने लगा। पर हींगन चुपचाप खड़ा-खड़ा लाल-लाल आँखों से अब्दुल्ला की ओर् घूरता रहा। अब्दुल्ला भी हींगन की तरफ भौंहें तान-तान कर गुरेर रहा और बड़ी तेजी के साथ प्याले पर प्याले खाली करता चला जा रहा था। हाँ, हींगन ने मेरी बात मान कर फिर एक घूंट शराब भी नहीं पीई थी।


यों ही तीन-चार बोतलों को बात की बात में खाली करके अब्दुल्ला ने हींगन से कहा कि,–“बस, अब तू यहाँ से जा।”


किन्तु जब वह अपनी जगह से जरा भी न टसका, तब अब्दुल्ला ने अपने हाथ के शराब वाले प्याले को उस पर खींच मारा और बड़े जोर से चिल्ला कर यों कहा,–“बस, चला जा, हरामी पिल्ले! तू फौरन इस कोठरी के बाहर निकल जा।”


प्याले की चोट तो हींगन को न लगी, क्योंकि वह जरा तिरछे होकर उस निशाने को बचा गया था; पर इस प्याले के जवाब में जो उसने जूता खेंच कर मारा, वह अब्दुल्ला के सिर पर जाकर जरूर लगा।


जूते का लगना था कि अब्दुल्ला ने म्यान से तलवार खींच ली और तख्तपोश पर उठ कर वह खड़ा हो गया। इतने ही में हींगन भी एक तलवार लेकर उस तख्तपोश पर चढ़ गया और दोनों के वार चलने लगे। यह हाल देख कर मारे डर के मैं उठ कर खड़ी तो हो गई थी, पर पैर न उठने से भाग नहीं सकी थी।


यों ही जैसे ही हींगन ने अब्दुल्ला की गर्दन पर तलवार चलाई थी कि उस (अब्दुल्ला) ने भी अपनी तलवार हींगन के कलेजे में घुसेड़ दी। बस, वे दोनों साथ ही उस तख्तपोश पर गिर गए और अब्दुल्ला का सिर मेरे पैरों से आकर टकराया!!!


यह अनोखा तमाशा देख कर मेरे तो देवता कूच कर गए और मैं चक्कर खा कर जहाँ खड़ी थी, वहीं गिर गई!


मैं कब तक बेसुध पड़ी रही, यह तो नहीं कह सकती; पर जब मुझे चेत हुआ तो मैंने क्या देखा कि, ‘मैं उसी कोठरी में पड़ी हूँ, जिसमें कि अब्दुल्ला ने मुझे बुलाया था! यह स्मरण होते ही मैं चट से उठ कर खड़ी हो गई और आगे बढ़ चली कि मेरे पैर में किसी चीज की ठोकर लगी! यह जानकर मैंने धरती की ओर देखा तो क्या देखा कि, “अब्दुल्ला का सिर मेरे पैर की ठोकर खाकर दरवाजे के चौखट तक लुढ़क गया है! यह देखकर मेरे सारे बदन के रोंगटे खड़े हो गए और बड़े जोर-जोर से कलेजा उछलने लगा। फिर मैं जहाँ की तहाँ खड़ी की खड़ी रह गई और मेरे पैरों ने चलने से जवाब दे दिया। इतने ही में मेरी नजर उस तख्तपोश की ओर गई तो मैंने क्या भयंकर दृश्य देखा कि, ‘अब्दुल्ला का बिना सिर का धड़ पड़ा हुआ है और उसके हाथ वाली तलवार हींगन के कलेजे में घुसी हुई है! हींगन भी मुँह बाए हुए मरा पड़ा है और उसके हाथ से छूट कर तलवार तख्त पर गिर गई है। सारा तख्तपोश खून से भर गया है और नीचे धरती में भी बहुत सा खून बह आया है! इतने ही में मैंने अपनी ऊनी चादर की ओर देखा तो उसमें भी खून लगा दिखाई दिया! केवल इतना ही नहीं; वरन मेरी धोती की लावन (नीचे के किनारे) में भी खून लग रहा था और मेरा पैर भी खून से रंग गया था; क्योंकि कोठरी में खून बहा था कि नहीं!


हाय, इस भयंकर दृश्य को देखकर मेरे तो होश उड़ गए और देर तक मैं उसी कोठरी में खड़ी-खड़ी पगली की तरह इधर-उधर निहारती रही। इतने ही में एकाएक न जाने मेरे मन में क्या तरंग उठी कि चट दौड़कर मैं उस कोठरी से बाहर निकल भगी। उस समय भी मुझे अब्दुल्ला के सिर को ठोकर लगी थी, क्योंकि वह लुढ़क कर दरवाजे के बीचों बीच आकर ठहर गया था।


अस्तु, फिर मैं उस खयाल को छोड़कर उस ओर लपकी, जिधर वह कोठरी थी, जिसमें कि वे छओं चौकीदार रहते थे। तो, मैं उन चौकीदारों की कोठरी की ओर क्यों चली? इसलिये कि मैं भागना नहीं चाहती थी, क्योंकि इस संसार में मेरे लिये ऐसी कोई जगह न थी, जहाँ पर जाकर मैं छिप सकती और अपनी जान बचा सकती। इसीलिए मैं दौड़ी हुई उसी कोठरी के आगे जा पहुँची और खूब जोर से चिल्ला कर मैंने उन चौकीदारों को पुकारा और उन्हें बाहर बुलाया।


छओं बेचारे कोठरी के बीच में बैठे हुए आग ताप रहे थे। सो, मेरी डरावनी चिल्लाहट सुन कर वे ऐसे चिहुंक पड़े कि एक दम से सब के सब उस कोठरी के बाहर निकल आए और मुझसे सभी यों पूछने लगे कि,–“ऐं, ऐं! क्या बात है? तुम इतना शोर क्यों मचा रही हो? क्यों, बोलो, क्या बात है?”


पर उन सभों की उन सब बातों के जवाब देने की उस समय मुझे छुट्टी कहाँ थी! क्योंकि ज्यों ही वे छओं अपनी कोठरी के बाहर आए थे, त्योंही मैंने बड़ी फुर्ती के साथ उस कोठरी के भीतर घुस कर अन्दर से उसकी कुण्डी चढ़ा ली थी और एक जंगलेदार खिड़की के आगे खड़ी होकर उन छओं चौकीदारों से यों कहा था,–“भाइयों,तुम सब जरा थानेदार की कोठरी की ओर जाओ और जाकर देखो कि वहाँ कैसा खून-खराबा हुआ है!”


मेरी बात अनसुनी कर दियानत हुसैन ने जरा कड़क कर यों कहा,–“ओ औरत! तूने मेरी कोठरी के अन्दर घुस कर भीतर से कुण्डी क्यों बंद कर ली है?”


इस पर मैंने कहा,– “सुनो, मियाँजी! तुम “तू तड़ाक” तो रहने दो, और जाकर जरा यह तो देखो कि तुम्हारे थानेदार और हींगन का क्या हाल् हुआ है?”


ऐसी बात सुन कर रामदयाल ने कहा,–“क्यों, उन दोनों का क्या हाल् है?”


मैं बोली,– “वे दोनों मेरे लिये आपस में लड़ कर कट मरे हैं!”


बस, इतना सुनते ही वे छओं जोर से चीख मार उठे और तेजी के साथ अब्दुल्ला की कोठरी की ओर् दौड़े।


पंद्रहवाँ परिच्छेद : खून की रात !

“समागते भये धीरो धैर्येणैवात्मना नरः।


आत्मानं सततं रक्षेदुपायैर्बुद्धिकल्पितैः॥”


(व्यासः)


वे सब तो उधर गए और इधर मैं उस कोठरी की देख-भाल करने लगी। मैंने क्या देखा कि, “उस बड़ी सी छप्परदार कोठरी में आठ खाट बराबर-बराबर बिछ रही हैं, डोरी की ‘अरगनी’ पर कपड़े-लत्ते टंग रहे हैं, कोठरी के बीचोबीच आग जल रही है, एक कोने में बहुत से बड़े-बड़े लट्ठ सरिआए हुए हैं, दूसरे कोने में भरी हुई एक तोड़ेदार बंदूक रक्खी हुई है, तीसरे कोने में आठ गँड़ासे धरे हुए हैं और चौथे कोने में चार तलवारें खड़ी की हुई हैं !!! यह ठाठ देख कर मैंने एक तलवार स्थान से खींच ली और वह भरी हुई बन्दूक भी उठा ली।


फिर उस कोठरी की उस जंगलेदार खिड़की के पास आ कर मैं खड़ी हो गई और उन चौकीदारों का आसरा देखने लगी, जो अब्दुल्ला की कोठरी की ओर गए थे। मैंने उस तलवार और बन्दूक को अपने अगल-बगल दीवार के सहारे खड़ी कर लिया था।


बस, इतने ही में वे सब के सब शोर-गुल मचाते हुए मेरी कोठरी के आगे आकर ठहर गए और सभी पारी-पारी से चिल्ला-चिल्ला और उस कोठरी के किवाड़ में धक्के दे-दे कर यों कहने लगे,-“ओ खूनी औरत! तू जल्द कुण्डी खोल और बेड़ी-हथकड़ी पहिर कर उसी कोठरी में चल, जिसमें दिन को बन्द थी।”


उन सभों का ऐसा हो-हल्ला सुनकर मैने भी फिर खूब जोर से चिल्लाकर यों कहा,-“बस, खबरदार! तुम लोग जादे शोर-गुल न मचाओ और चुपचाप इस कोठरी के बाहर ही रहकर मेरी चौकसी करो। सुनो, मैं न तो खूनी औरत हूँ और न कोई खून ही मैंने किया है। देखो, जो मुझे भागना ही होता तो मैं आप ही आप यहाँ क्यों आती? फिर अब्दुल्ला और हींगन के मरते ही मैं अपना रास्ता लेती, तुम सभों के पास क्यों आती? इसलिए भाइयों, मैं यहाँ से कहीं भागकर इस खून के अपराध को अपने ऊपर नहीं लिया चाहती। तुमलोग बेफिक्र रहो, क्योंकि मैं कहीं भागने वाली नहीं हूँ। हाँ, यह तुम कर सकते कि बाहर से ही मेरा पहरा दो और अपनी नौकरी बजाओ। सुनो, अब रातभर इस कोठरी की कुण्डी मैं कभी न खोलूँगी। हाँ, सवेरा होने पर जैसा मुनासिब समझूँगी, वैसा करूँगी।


बस, इस तरह मैंने उन सभों को बहुत कुछ समझाया, पर ये न माने और बार-बार किवाड़ में धक्का देने और सांकल खोल देने के लिए कहने लगे।


आखिर, जब वे सब बहुत ही उपद्रव मचाने लगे, तब मैंने उस भरी हुई बन्दूक को उठा और उसकी नली खिड़की के जंगले के बाहर करके यों कहा,–“बस, बहुत हुआ। अब या तो तुम सब इस दरवाजे के पास से हट जाओ, या मरो। देखो, इस भरी हुई बन्दूक की ओर जरा देखो और इस बात को सही जानो कि अब जो कोई इस कोठरी के दरवाजे के पास आवेगा, उस पर जरूर मैं बन्दूक दाग दूँगी। इसमें पीछे चाहे जो हो, पर इस समय तो मैं अवश्य ही गोली मार दूँगी।”


मेरा ऐसा रंग-ढंग देखकर वे छओं चौकीदार उस कोठरी के दरवाजे से हटकर उस जंगलेदार खिड़की के सामने, पर जरा दूर आकर खड़े हो गए और रामदयाल मिश्र ने उन सभों के आगे आकर मुझसे यों कहा,–“क्यों, दुलारी, तुम क्या इस समय अपने होशोहवास में मुतलक नहीं हो?”


मैं बोली,–“क्यों? ऐसा प्रश्न आप क्यों करते हैं? बताइए, मैंने बदहोशी की कौन सी बात की?”


वे बोले,–“और क्या करोगी? इस समय के तुम्हारे रंग-ढंग को देखकर तो हमलोगों के देवता कूच कर गए हैं! अरे, पाँच खून तो तुम्हारे मकान पर हुए और दो यहाँ! अब तुम्हीं बताओ कि यह सब देख सुनकर हमलोग क्या समझें?”


मैंने पूछा,–“इसमें समझने की कौन सी बात है?”


वे बोले,–“यही कि जैसी लीला मैं देख रहा हूँ, उससे तो यही जी में आता है कि घर पर भी वे पाँच खून तुम्हीं ने किए और यहाँ पर भी ये दो हत्याएँ सिवा तुम्हारे और किसी ने नहीं की!”


मैं बोली,–“यह आपको अधिकार है कि आपके जो जी में आवे, सो आप समझें; पर सुनिए तो सही,–मैं तो भागी नहीं हूँ, यहीं मौजूद हूँ; इसलिए आपलोग बाहर से ही मेरा पहरा दीजिए और ऐसा उपाय कीजिए कि जिसमें पच्छी की तरह उड़कर मैं कहीं भाग न जाऊँ।”


वे बोले,–“इसीलिए तो चाहता हूँ कि अब तुम होश में आकर सीधी तरह इस कोठरी का दरवाजा खोलो।”


मैं बोली,–“क्यों?”


वे बोले,–“यों कि अब इस समय हमलोग तुम्हें उसी कोठरी में बंद करना चाहते हैं, जिसमें कि तुम दिन के समय बंद थी।”


मैं बोली,–“और जो मैं इसी कोठरी में रातभर बंद रक्खी जाऊँ, तो क्या हर्ज है?”


वे बोले,–“देखो, और इस बात पर तुम आप ही खूब गौर करो कि यह कोठरी हमलोगों के रहने की है। इसमें हमारे खाट-बिछौने, कपड़े-लत्ते और खाने-पीने के सारे सामान धरे हुए हैं। अब तुम्हीं सोचो कि इस हाड़तोड़ जाड़े में बिना ओढ़ने के हमलोग ओस में कैसे रह सकेंगे?”


मैं बोली,–“यह तो आप ठीक कह रहे हैं, और अवश्य इस जाड़े-पाले में खुले मैदान में रहने से आपलोगों को बड़ा कष्ट होगा। पर क्या करूँ, मैं लाचार हूँ। क्योंकि दरोगा और हींगन की करतूत देखकर अब मुझे किसी पर जरा भी भरोसा नहीं होता। इसलिए अब, तबतक मैं इस कोठरी का दरवाजा कभी न खोलूँगी, जब तक कि कोई अंग्रेज अफसर यहाँ पर न आ जाएगा।”


मेरी बात सुनकर दियानत हुसैन और रामदयाल मिश्र ने पारी-पारी से यों कहा कि,–“नहीं दुलारी, तुम कोई अंदेशा न करो और हमलोगों पर भरोसा रक्खो, क्योंकि हमलोग पराई औरतों को माँ, बहिन और बेटी के बराबर समझते हैं।”


यह सुनकर बाकी के चारों चौकीदारों ने भी ऐसा ही कहा, पर उन सभों की बातों पर विश्वास न करके यों कहा,–“आपलोगों ने जो कुछ कहा, वह ठीक है; पर यह कहावत भी आपलोगों ने जरूर ही सुनी होगी कि ‘गरम दूध से जिसकी जीभ जल जाती है, वह मनुष्य ठंढे मट्ठे को भी फूँक-फूँक कर पीता है।‘ इसलिए मुझ निगोड़ी के कारण आपलोग एक रात का कष्ट भोग लें और इस दरवाजे को खुलवाने के लिए जादे हठ न करें। आप यह निश्चय जानें कि अब यह दरवाजा तभी खुलेगा, जब कोई अंग्रेज अफसर यहाँ आवेगा। देखिए, सामने उस पेड़ के नीचे दो तख्त पड़े हुए हैं, उन पर आपलोग आज की रात आराम कीजिए और लकड़ियों को जला कर जाड़े का कष्ट दूर करिए। हाँ, इतना आप कर सकते हैं कि इस दरवाजे की सांकल बाहर से बंद करके उसमें ताला लगा दें।”


मेरा ऐसा हठ देखकर वे सब फिर आप ही आप भुनभुना कर चुप हो गए और एक चौकीदार ने बाहर से ताला लगा कर अपने साथियों से यों कहा,–“ऐसी जबरदस्त औरत तो देखने ही में नहीं आई!!!”


इस पर दूसरे ने यों कहा,–“तब तो इस अकेली ने सात-सात मरदों के खून कर डाले!!!”


इन सब बातों पर मैंने कान न दिया और अपनी बन्दूक को भीतर खैंच कर बगल में खड़ी कर दिया। फिर एक मूढ़ा में खैंच लाई और उसी पर खिड़की के सामने बैठ गई।”


बाद इसके, मैने क्या देखा कि, वे सब चौकीदार उसी सामने वाले पेड़ के नीचे पड़े हुए तख्त पर बैठ कर आपस में इस बात की सलाह करने लगे कि, ‘अब क्या करना चाहिए!’ योंही देर तक आपस में खूब ‘घोलमट्ठा’ करके उन सबों ने यह निश्चय किया कि, ‘रामदयाल मिश्र तो एक चौकीदार के साथ इस वारदात की रिपोर्ट करने कानपुर जायें, और बाकी के चारों आदमी मेरी चौकसी करें।’


जब यह सलाह आपस में पक्की हो गयी, तब रामदयाल मिश्र मेरी खिड़की के पास आए और यों कहने लगे,–“दुलारी, तुम्हारे भाग्य में क्या लिखा है, इसे तो विधाता ही जाने; क्योंकि बात बड़ी बेढब हुई है! खैर, जो कुछ भी तुम्हारे करम में बदा होगा, वह होगा। अब यह सुनो कि मैं कानपुर जाता हूँ और जहाँ तक मुझसे हो सकेगा, वहाँ तक इस बात की मैं कोशिश करूँगा कि जिसमें कोई अंग्रेज अफसर यहाँ आवे। किन्तु यदि कोई अंग्रेज अफसर न भी आवेंगे तो कानपुर के कोतवाल साहब तो अवश्य ही आवेंगे। यदि कोतवाल साहब आ गए, तो भी तुम उनसे किसी वैसी बात की शंका न करना, क्योंकि वे बहुत ही सज्जन और दियानतदार मुसलमान हैं।”


यह सुनकर मैंने कहा,–“भाई साहब, आपका कहना ठीक है, पर जहाँ तक हो सके, आप किसी अंग्रेज अफसर के लाने की जरूर कोशिश करिएगा; क्योंकि यहाँ का रंग-ढंग देखकर हिंदुस्तानियों के ऊपर से मेरा विश्वास अब एकदम उठ गया है। यह बात आप भली-भांति समझ लें कि चाहे मैं बिना अन्न-जल के इस कोठरी में मर ही क्यों न जाऊँ, पर बिना किसी अंग्रेज अफसर के आए, मैं इस कोठरी का किवाड़ कभी भी न खोलूँगी। आप कानपुर जाते हैं, तो जाइए, पर अपने जोड़ीदारों से यह बात अच्छी तरह समझाते जाइए कि, ‘इस कोठरी के द्वार खुलवाने के लिए कोई हठ न करे।’ यदि आपके पीछे मुझे किसी ने छेड़ा, तो आप निश्चय जानिए कि या तो मैं अपने छेड़नेवाले पर बन्दूक चलाऊँगी, या आप ही अपने कलेजे में गोली मार लूँगी।”


मैंने ये बातें इतनी जोर से कही थी कि उन्हें वहाँ पर के सभी चौकीदारों ने सुना था, पर मेरी बात का किसी ने कोई जवाब नहीं दिया था। हाँ, रामदयाल ने उन सब चौकीदारों की ओर् देख कर यह जरूर कहा था कि,–“देखना भाइयों, इस ‘वीरनारी’ को तुमलोग जरा न छेड़ना।”


जब इस बात को उन सभों ने मान लिया, तब रामदयाल ने मियाँ दियानत हुसैन से यों कहा,–“दियानत हुसैन! तुम इस कैदी औरत की खूब चौकसी करना। मैं अब कादिरबख्श चौकीदार के साथ कानपुर जाता हूँ। यदि हो सका तो कल किसी अंग्रेज अफ़सर को भी जरूर साथ लेता आऊँगा।”


यह सुनकर दियानत हुसैन ने कहा,–“तुम वहाँ जाओ और यहाँ की फिक्र जरा भी न करो।”


बस, फिर बाहर सन्नाटा छा गया और दो चौकीदार कंधे पर गँडासा रखकर मेरी कोठरी के आगे टहलने लगे। उन दोनों में दियानत हुसैन भी थे।


बस, फिर तो मैं उसी खिड़की के आगे बैठी रही और पगली की तरह रह-रह कर बाहर की तरफ झाँकने लगी। उस समय सचमुच मैं अपने आपे में नहीं थी और यह नहीं जानती थी कि मैं क्या कर रही हूँ! बस, केवल यही धुन मेरे सिर पर सवार थी कि ‘अपने प्रान देकर भी अपने अमूल्य सतीत्व धर्म की रक्षा करनी चाहिए।’ बस, इसी ख्याल में रात भर मैं डूबी रही और इस बात का मुझे जरा भी ध्यान न रहा कि अब आगे क्या होगा!


मैं सारी रात अपने ध्यान में डूबी रही, क्योंकि फिर किसी चौकीदार ने मुझे नहीं टोका। सो, सारी रात मैं मूढ़े पर बैठी हुई जागती थी, या सोती थी, इस बात की तो अब मुझे तनिक भी सुध नहीं है, पर हाँ, इतना अवश्य स्मरण है कि जब सुबह की सफेदी आसमान पर फैल रही थी, तब उस जंगले के पास आकर दियानत हुसैन ने मुझे कई आवाजें दी थीं; और जब मैं उनके पुकारने से मूढ़े पर से उठ खड़ी हुई थी, तब उन्होंने यह कहा था कि,–“वाह री औरत! इस हाड़तोड़ जाड़े में भी तू बिना कुछ ओढ़े-पहिरे खिड़की के पास बैठी हुई है और ऐसी सनसनाती हुई हवा के झोंके का कुछ भी ख्याल नहीं करती!”


सचमुच, उस रात को मेरी अजीब हालत रही; अर्थात् मुझे कैदवाली कोठरी से निकालने के समय हींगन ने जो कुछ मुझसे कहा था, उससे मेरा सारा शरीर क्रोध के मारे लहक उठा था और ज्ञानलोप हो गया था! सो, जब दियानत हुसैन ने मुझे चैतन्य करके सरदी और हवा की बात कही, तब मैं अपने आपे में आई और मैंने क्या देखा कि मेरा ओढ़ना धरती में गिर गया है, सारा शरीर बरफ की तरह ठंढा हो गया है और माथा खूब जल रहा है और चक्कर कहा रहा है! इसके बाद मुझे यह ख्याल हुआ कि, “उस कोठरी में रात को कैसा भयंकर काण्ड हो गया है!’ इस ख्याल के होते ही मैं काँप उठी।


अस्तु, फिर भी मैं उसी खिड़की के आगे मूढ़े पर बैठी रही और तरह-तरह के सोच-विचारों में डूबती-उतराती रही। हाँ, अपने ओढ़ने को मैंने उस समय जरूर मैंने ओढ़ लिया था। यह हालत कब तक रही, यह तो मुझे अब याद नहीं है, पर जब रामदयाल ने जंगले के पास आकार मुझे कई आवाजें दीं, तब मैं फिर चैतन्य हुई।


सोलहवाँ परिच्छेद : बन्दिनी!

“प्रतिकूलतामुपगते हि विधौ,


विफलत्वमेति बहु साधनता।


अवलम्बनाय दिनभर्तुरभून्न


पतिष्यतः करसहस्रमपि ।।”


(माघ:)


मुझे चैतन्य जानकर रामदयाल ने कहा,–“ ओ कैदी औरत! अब उठ और कोठरी का दरवाजा खोल। देख तो सही, कि कितना दिन चढ़ आया है! कानपुर से कोतवाल साहब और पुलिस के बड़े साहब भी आ गए हैं और तुझे बुला रहे हैं।”


यह सुनकर मैंने बाहर की ओर देखा तो क्या देखा कि दिन डेढ़ पहर के अंदाज चढ़ आया है, मेरी कोठरी के सामने एक मूढ़े पर एक अंगरेज बैठे हैं और कई लाल पगड़ीवाले उनके अगल-बगल और पीछे खड़े हैं! यह देखकर मैंने रामदयाल से कहा कि,– “साहब को भेजो।”


मैंने देखा कि, मेरी बात सुनकर रामदयाल चौकीदार ने उन साहब बहादुर के सामने जाकर कुछ कहा, जिसे सुनकर वे मूढ़े पर से उठकर मेरी खिड़की के पास आए और बहुत ही मीठेपन के साथ यों कहने लगे,– “टुमारा नाम क्या है?”


मैं बोली,–“दुलारी।”


वे बोले,–“अ्रच्छा, डुलाड़ी! टुम अब डरवाजा खोल डो।”


मैं बोली,–“बहुत अच्छा, मैं अभी दरवाजा खोलती हूँ; पर पहिले आप कृपा कर इस बात का मुझे विश्वास तो दिला दें कि, मेरी इज्ज़त-आबरू पर तो कोई जाँच न पहुंचेगी!


वे बोले, “नेईं, कबी नेईं। टुमारा इज्जट कोई नेईं बिगाड़ने शकटा। ब्रिटिश का राज़ में औरट का इज्जट कोई नईं लेने शकटा। टुम बेखौफ डरवाजा खोलो।”


यह सुनकर मैंने तुरन्त दरवाजा खोल दिया। बस, ज्योंही मैं दरवाजे के बाहर हुई, त्योंही साहब बहादुर ने कहा,–“ ओ औरट! टुम खून का अशामी है, इश वाशटे टुमको हठकड़ी पहनना होगा।”


यह सुनकर मैंने कहा,–“नहीं, साहब! आप ऐसी बात न कहिए और मेरा बयान सुने बिना मुझे ऐसा इल्जाम मत लगाइए क्योंकि मैंने कोई खून-ऊन नहीं किया है।”


इस पर साहब बहादुर ने कहा,–“आलरट, टुम ठीक बोलटा हाय; पर जब टक टुम बेकसूर साबिट नहीं होगा, टब टक टुमको हठकड़ी पहरना व कैड में रहना होगा।”


यह सुनकर मैंने अपने दोनों हाथ फैला दिए और साहब बहादुर का इशारा पाकर एक पुलिस अफसर ने मुझे हथकड़ी पहना दी। मुझे उसी समय यह मालूम हो गया था कि जिन्होंने मुझे हथकड़ी पहराई थी, वे कानपुर के कोतवाल थे।


बस, फिर मैं तो चार सिपाहियों के पहरे में एक ओर खड़ी कर दी गई और साहब बहादुर और कोतवाल साहब उस कोठरी की ओर चले गए, जिसमें खून हुआ था।


थोड़ी देर के बाद वे दोनों उस कोठरी से बाहर हुए और एक पेड़ की छाया में आकर साहब बहादुर तो एक मूढ़े पर बैठ गए और सिगार पीने लगे, और कोतवाल साहब एक चारपाई पर बैठकर मुझसे बोले,-“तुम अपना बयान लिखवाओ।”


यह सुनकर भी जब मैं चुपचाप खड़ी रही, तब साहब ने मुझसे कहा,–“टुम बोलटा क्यों नेईं?”


इस पर मैने यों कहा,–“साहब, हिन्दुस्तानियों के अत्याचारों को देखकर उन पर से मेरा सारा विश्वास उठ गया है। इसलिये जब तक आप ख़ुद कोई हुकुम न देंगे, तब तक मैं किसी दूसरे के कहने से कुछ भी न करूँगी।”


मेरी बात सुनकर साहब जरा सा मुस्कुराए और कहने लगे,-“अच्छा बाट है। हम हुकुम डेटा है, टुम अपना बयान बोलो।”


मैं बोली,–“बहुत अच्छा, सुनिए–”


यों कहकर जो कुछ सच्ची बात थी, उसे मैं कहती गई और कोतवाल साहब झट-झट लिखते गए।


बस, यहाँ तक कहकर मैंने उन साहब बहादुर की ओर देखकर यों कहा, जो बारिस्टर साहब और भाई दयालसिंहजी के बीच में बैठे हुए मेरा बयान लिख रहे थे,—“क्यों साहब! क्या मैं उस कहानी को फिर दुहराऊँ, जिसे कि मैंने अभी ऊपर सिलसिलेवार बयान किया है?”


यह सुनकर साहब ने कहा,–‘नेई , अब डुबारा उस बाट के कहने का कोई जरूरट नेई है। टुम खूब ठीक टरह से अपना बयान बोला। बस, इसी टौर से बराबर बोलना ठीक होगा। चलो, आगे बोलो।”


इसपर–“बहुत अच्छा”—कहकर मैंने यों कहा,–


बस, जब मेरा सारा बयान लिखा जा चुका, तब वहाँ पर के छओं चौकीदारों का बयान लिया और लिखा गया। उन चौकीदारों का बयान मैंने भी सुना था और उसके सुनने से मुझे बड़ा आश्चर्य इस बात का हुआ था कि दियानत हुसैन और रामदयाल सरीखे भले आदमियों ने भी हलफ लेकर न जाने क्यों, बहुत कुछ झूठा ही बयान लिखवाया!!! पर ऐसा उन्होंने क्यों किया, इसे मैं इस समय तो नहीं समझी, पर पीछे समझ गई थी।


इन सभों ने अपने बयान में जो कुछ कहा था, उसका खुलासा मतलब यही है कि, “यह औरत एक बैलगाड़ी पर चढ़कर यहाँ आई थी, पर इसके साथ थानेदार अब्दुल्ला की क्या-क्या बातें हुई, उन्हें हमलोग नहीं जानते। हाँ, इतना हमलोग जानते हैं कि इस औरत को उस (उंगली से दिखलाकर) कोठरी में बंद करके अब्दुल्ला हींगन चौकीदार के साथ उसी बैलगाड़ी पर इस औरत के गाँव की ओर चले गए थे। क्योंकि हमलोगों ने यह सुना था कि, “शायद यह औरत अपने घर में पाँच खून कर आई है!!!’ सो, हमसब थानेदार के हुकुम-मुताबिक इस औरत का पहरा देने लगे। इस जगह इस औरत ने जो यह कहा है कि, ‘रामदयाल ने मुझे दूध पिलाया और फिर रामदयाल और दियानत हुसैन ने मुझसे अब्दुल्ला और हींगन की बहुत सी शिकायत की।’ यह बात इस औरत की सरासर झूठ है। क्योंकि इस औरत के साथ न तो किसी ने किसी किस्म की बातचीत ही की और न दूध ही पिलाया। दूध तो क्या, पानी भी इसे किसी ने नहीं पिलाया। हाँ, पहरा जरूर देते रहे। फिर रात को अब्दुल्ला और हींगन इक्के पर लौटे, इसलिये यह बात हमलोग नहीं जान सके कि इस औरत की वह बैलगाड़ी क्या हुई! खैर, जब थानेदार घर लौट आए और खाना-वाना खाकर शराब पीने लगे, तब उन्होंने हम छओं चौकीदारों को यह हुक्म दिया कि,–“अब तुमसब अपनी-अपनी कोठरी में जाकर आराम करो। क्योंकि अब मैं उस कैदी औरत का इजहार लूँगा और उससे उन खूनों को कबूल कराऊँगा। इसमें मुमकिन है कि वह औरत खूब शोर-गुल मचावे, मगर तुमलोग इसकी चीख-चिल्लाहट सुनकर यहाँ मत आना और अपनी कोठरी में ही रहना। यहाँ मेरे पास सिर्फ हींगन रहेगा।” बस, थानेदार का ऐसा हुकुम सुनकर हमलोग तो अपनी कोठरी में चले गए। फिर जब इस औरत ने जाकर इस खून की बात कही, तब हमलोगों ने मारे जल्दी के इस औरत को तो अपनी ही कोठरी में बन्द कर दिया और अब्दुल्ला और हींगन के मारे जाने की रिपोर्ट करने कादिरबख्श और रामदयाल को कानपुर भेजा।”


बस, उन छओं का यही बयान था!!!


उन सब चौकीदारों के ऐसे झूठे बयानों को सुनकर मैं तो दंग रह गई, पर लाचार थी, क्योंकि उनके उन झूठे बयानों के ऊपर जो मैंने उजुर किया था, वह सुना नहीं गया! तब मैंने मन ही मन यह सोचा कि कदाचित ये लोग दूध पिलाने और अब्दुल्ला और हींगन की बुराई करने की बात इसलिए स्वीकार नहीं करते कि ‘कहीं वैसी बात मान लेने में उन्हीं लोगों को लेन के देने न पड़ जायें।’ किन्तु उनकी जिस कोठरी में मैं खुद घुस गयी थी, और भीतर से मैंने कुंडी चढ़ाकर बन्दूक दिखाई थी, उस बात को ये लोग क्यों नहीं सकारते? कदाचित, उन सभों को इस बात की लज्जा होगी कि, एक औरत ने इन छः हट्टे-कट्टे जवानों के कान काटे! अस्तु, जो कुछ हो, परंतु उस थाने पर मेरा स्वयं आना, मेरी बैलगाड़ी का गायब होना और फिर अब्दुल्ला और हींगन के कतल होने की खुद खबर देना इत्यादि बातों को उन चौकीदारों ने जरूर सकारा था। खैर, जितना उन सभों ने सकारा, उतना ही सही!


अस्तु, इसके बाद कानपुर के कोतवाल साहब ने मेरी ओर् देखकर यों कहा,–“दुलारी, तुम्हारे घर में पाँच लाशें पाई गईं और वे कानपुर चालान की गईं। गो, उन पाँच खूनों- बल्कि यहाँ के भी दो खून उनमें शामिल कर देने से उन सात खूनों—का चश्मदीद गवाह तो कोई नहीं है, मगर हिरवा के गला घोंटने की बात तुमने खुद मंजूर की है, इससे ऐसा हो सकता है कि बाकी के छओ खून भी तुम्हारे ही किए हुए हों! क्योंकि अभी तुमने अपने बयान में यहाँ के चौकीदारों को भरी हुई बन्दूक दिखला कर गोली मार देने की बात कही है और जांच करने से यह बात भी मालूम हुई है कि यह बन्दूक भरी हुई है! सिर्फ इतना ही नहीं, बल्कि जहाँ पर तुम बैठी थी, वहाँ पर तुम्हारे कहने के मुताबिक एक नंगी तलवार भी धरी हुई मिली है। इन हालातों के देखने सुनने से यह बात साफ तौर से मालूम होती है कि तुम बड़ी जर्रार औरत हो और मौका पाकर और अपनी आबरू का ख्याल करके तुमने ये सात-सात खून खुद कर डाले हैं! कर तो डाले हैं, तुमने सात खून, पर अब चालाकी करके छः खूनों के बारे में तो तुम दूसरे ढंग की बातें कहती हो और सिर्फ हिरवा के खून की बात कबूल करती हो। सोभी इस ढंग से, कि जिसमें उस खून का भी जुर्म तुम पर न लग सके। वाकई, तुम एक निहायत जबरदस्त और होशियार औरत हो, तभी तो बड़ी दिलेरी का काम कर गुजरी हो! इसलिये अब तुम कानपुर के मजिष्ट्रेट के आगे पेश की जाओगी और वहाँ से जो कुछ होना होगा, सो होता रहेगा।”


अरे, कोतवाल साहब की इस अनोखी बात को सुन कर मैं तो दंग रह गई! हाय, मेरा बयान कुछ नहीं, और उनका “तर्क” सब कुछ! सच है, जिसके हाथ में ‘दंड’ देने की शक्ति है, वह सब कुछ कर सकता है! निदान, मैंने कोतवाल साहब के साथ बहुत कुछ तर्क-वितर्क किया,–उन अंगरेज अफसर से भी बहुत कुछ कहा-सुना, पर मेरी बातों पर किसी ने कान ही न दिया! तब मैंने झुँझला कर उन साहब बहादुर से यों कहा,–“साहब, आप मेरे कहने पर क्यों नहीं ध्यान देते? यदि आप मेरे बयान पर खूब अच्छी तरह गौर करेंगे, तो यह बात आपको भली-भांति मालूम हो जाएगी कि, ‘मैंने जो कुछ भी कहा है, उसमें झूठ का लवलेश भी नहीं है।” देखिए, सुनिए और सोचिए कि यदि मैं हिरवा के गला घोंटने की बात स्वयं नहीं कहती तो आप क्या करते? मैंने तो उस समय क्रोध के आवेश में बदहवास होकर उसका गला दबाया था, कुछ उसके खून करने की मेरी इच्छा थोड़े ही थी। परंतु, यदि वह मर ही गया, तो उस खून के करने का अपराध मुझ पर कैसे लगाया जाता है? क्या उस समय मैं अपने आपे में थी, जो मुझे दोषी ठहराया जाता है? फिर अपनी इज्जत-आबरू के बचाने की गरज से यदि अनजानते में वैसा काम मुझसे हो ही गया, तो उसका दंड मुझे क्यों दिया जाएगा? मैं यह नहीं जानती कि आपके आईन-कानून में क्या लिखा है, पर खून करने की बात मैं कभी भी कबूल नहीं कर सकती, क्योंकि खून करने की इच्छा से मैंने हिरवा का गला नहीं दबाया था। खैर, जो कुछ हो, या आपलोग मेरी बातों का चाहे जैसा अर्थ लगावें, पर धर्मतः मैं निष्पाप हूँ और एक हिरवा को छोड़कर बाकी के छओं आदमियों के शरीर में तो मैंने उंगली भी नहीं लगाई है। आपका कानून मुझे चाहे जैसा दंड ड़े, पर इस बात का मुझे पूरा-पूरा भरोसा है कि परमात्मा मुझे अवश्य निष्पाप जान कर अपनी गोद में स्थान देगा।”


मैं इतनी बातें ऐसी तेजी और इतने क्रोध के साथ कह गई कि उसे देख सुन कर साहब बहादुर और कोतवाल साहब एक दूसरे की ओर देख और आपस में कुछ अंग्रेजी में बातचीत करके हँस पड़े! फिर साहब बहादुर ने मेरी ओर देखकर यों कहा,–“डेखो, डुलारी! यह खून का मामला है। इसमें हम कुछ नेई करने शकटा। तुमको मजिष्ट्रेट साहब का शामने जरूर जाना होगा। फिर वहाँ पर टुम अपना जो कुछ कहना हो, शो बाट कहना। अगर टुमारा टकडीर में अच्छा होगा, टो टुम छूट भी शकटा है। इस बाशटे इस वकट टुम को थाने पर जाकर हाजत में रहना होगा।”


मैं बोली,–“अच्छा साहब! मुझे जो कुछ कहना था, उसे मैं कह चुकी। अब आपके जो जी में आवे, सो आप कीजिए॥ मैं भी अब इस बात को देखूँगी कि संसार में ‘धर्म’ और ‘सत्य’ नाम के भी कोई पदार्थ हैं, या अब इस जगत में सोलहों आने कलिकाल का ही दौरदौरा हो रहा है!!!”


मेरी इन बातों का जवाब कुछ भी नहीं मिला!!!


बस, फिर मैं तो एक बैलगाड़ी पर चार कांस्टेबिलों के पहरे में कानपुर रवाने की गई और साहब बहादुर और कोतवाल साहब वहीं रह गए। यहाँ पर एक बात और भी समझ लेनी चाहिए। वह यह है कि अब जिस बैलगाड़ी पर मैं कानपुर जा रही थी, वह दूसरी थी, मेरी न थी। तो, मेरी क्या हुई? यह मैं नहीं जानती, क्योंकि इसके विषय में मुझसे किसी ने कुछ भी नहीं कहा।


कानपुर लाई जाकर मैं कोतवाली की एक तंग कोठरी में बन्द की गई। उस समय दीया बल चुका था। मेरे साथ जो चार कांस्टेबिल आए थे, वे सब कानपुर के थे, उस गाँव के नहीं थे।


एक घड़ी पीछे एक कांस्टेबिल ने आकर मुझसे यह पूछा कि,–“तुझे कुछ खाना-पीना है?”


इस पर “नहीं” कह कर मैंने उसे विदा किया और कोठरी में पड़े हुए कंबल के ऊपर मैं पड़ रही।


मुझे आज सारे दिन का कोरा उपवास था और कल रामदयाल का दिया हुआ केवल दूध मैंने पीया था। फिर भी उस कांस्टेबल को मैंने लौटा दिया और कुछ भी न खाया। यह क्यों? भला, अब इसका जवाब मैं क्या दूँ? मेरे पास यदि उस बात का कोई जवाब है तो केवल यही है कि उस समय भी मैं अपने आपे में न थी और पगली की तरह रह-रह कर चिहुँक उठती थी। मुझे रह-रह कर अपनी माता की शोचनीय मृत्यु, अपने पिता का यों ही नदी में बहाया जाना, हिरवा का मरना, कालू इत्यादि का आपस में कट मरना, अब्दुल्ला और हींगन का परस्पर लड़ मरना और मुझे इन सात-सात खूनों का अपराध लगाया जाना-इनमें से प्रत्येक बात ऐसी थी, जो मेरे कलेजे को एकदम से मीसे डालती थी।


सो, बस, देर तक मैं उस कंबल पर पड़ी-पड़ी तरह-तरह के सोच-विचारों में डूबती-उतराती रही। उसके बाद मुझे नींद आ गई, पर उस नींद में भी मुझे चैन न मिला, वरन बड़े बुरे-बुरे सपने दिखाई देने लगे!!!


सत्रहवाँ परिच्छेद : हाजत में

हरिणापि हरेणापि ब्रह्मणा त्रिदशैरपि |


ललाटलिखिता रेखा न शक्या परिमार्जयितुम्||


(व्यास:)


योंहीं सारी रात बीती और सबेरे जब मुझे एक कांस्टेबिल ने खूब चिल्ला-चिल्ला कर जगाया, तब मेरी नींद खुली।


मैं आँखें मल और भगवान का नाम लेकर उठ बैठी और बाहर खड़े हुए कांस्टेबिल से मैंने पूछा,–“क्यों भाई, कै बजा होगा?”


वह बिचारा बड़ा भला आदमी था। सो, उसने मेरी ओर करुणा भरी दृष्टि से देखकर यों कहा,–“अब नौ बजनेवाले हैं।”


यह सुनकर मैं बहुत ही चकित हुई और बोली, “ओह! इतनी देर तक मैं सोती रही!!!”


इस पर उस कांस्टेबिल ने कहा,–“नहीं, दुलारी! तुम रात को शायद सुख से न सोई होगी, क्योंकि मैं तीन बजे से तुम्हारे पहरे पर हूँ। इतनी देर में मैंने क्या देखा कि, ‘तुम बड़ी बेचैनी के साथ बार-बार करवटें बदलती और बराबर बर्राती रही!’ हाय, तुम बड़ी भारी मुसीबत में आ फँसी हो! अब जो भगवान ही तुम्हें बचावें, तभी तुम इस बला से बच सकती हो।”


उस भले कांस्टेबिल की ऐसी हमदर्दी से भरी हुई बातें सुनकर मैंने कहा,–“अच्छा, भाई! अब तो मैं आ ही फँसी हूँ, इसलिए मुझे बड़े सब्र के साथ इस आपदा का सामना करना चाहिए, इसके साथ ही यह भी देखना चाहिए कि धर्म, सत्य और परमेश्वर भी कोई चीज हैं, या नहीं।”


मेरी ऐसी बात सुनकर उस कांस्टेबिल ने कहा,–“दुलारी, अगर सचमुच तुम बेकसूर होगी, तो नारायण जरूर तुम्हें उबारेगा। मैं जात का राजपूत हूँ और परमेश्वर पर मेरा पूरा-पूरा विश्वास है। इसलिए यह बात मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि अगर तुम सचमुच बेकसूर होगी, तो परमात्मा तुम्हें जरूर इस आफत से बचावेगा।”


मैं बोली,–“भाई साहब, मेरी बात पर तुम चाहे विश्वास करो, या न करो, पर मैं यह ठीक कहती हूँ कि मैंने किसी का खून नहीं किया है। यदि हिरवा नाऊ की बात ली जाये, तो उसे भी मैंने अपने होश-हवास में नहीं मारा। तुम तो वहाँ पर मौजूद थे, इसलिए तुमने मेरा बयान जरूर ही सुना होगा। बस, इस बात को तुम ठीक जानो कि मैंने अपने बयान में जो कुछ कहा है, उसमें झूठ का जरा भी छुआछूत नहीं है।”


यह सुनकर उस कांस्टेबिल ने कहा,–“हाँ, दुलारी! यह तुम ठीक कहती हो। मैं जरूर वहाँ पर मौजूद था और मैंने बड़े गौर के साथ तुम्हारा बयान भी सुना है। तुम्हारे बयान को सुनकर मेरा जी भी यही कहता है कि, ‘जो कुछ तुमने अपने बयान में कहा है, उसमें रत्ती भर भी झूठ या बनावट नहीं है।’ पर मुझ एक अदने कांस्टेबिल के समझने से होता ही क्या है? कल रात को कोतवाल साहब के पास कई लोग बैठे थे और मैं भी वहीं पर खड़ा था। उस वक्त तुम्हारे ही मामले की बात हो रही थी। सो, कोतवाल साहब को तो तुम्हीं पर पूरा-पूरा शक है और वे तुम्हीं को ‘खूनी असामी’ समझ रहे हैं। उस समय मैंने कुछ कहना चाहा था, पर अपनी हैसियत का ख्याल करके मेरी हिम्मत ने मुझे कुछ कहने-सुनने से रोक दिया। मगर खैर, अब तुम अपने इष्टदेव का ध्यान करो, क्योंकि सिवाय उसके, और कोई भी इस समय तुम्हारा मददगार नहीं हो सकता।”


यों कहकर उस बेचारे ने मेरी ओर् बड़ी करुणा से देखा और मैंने उससे यह पूछा,–“अच्छा, जो कुछ भगवान ने मेरे भाग्य में लिखा होगा, वही होगा। क्योंकि भाग्य के लिखे को कोई भी नहीं मेट सकता। पर तुम यह तो बताओ कि इन कोतवाल साहब की चाल चलन कैसी है?”


यह सुनकर उसने कहा,–“ओह, दुलारी! मैं तुम्हारी इस बात का मतलब भली-भाँति समझ गया! सुनो, तुम किसी दूसरी बात का डर जरा भी न करो। क्योंकि ये कोतवाल साहब असामी पर तो जरा भी रहम या रियायत नहीं करते, पर चाल चलन के ये बड़े अच्छे हैं। अरे, तुम्हारे बराबर की तो इन्हें दो-तीन लड़कियाँ हैं। इसलिए अपनी इज्जत-आबरू के वास्ते अब तुम जरा भी खौफ न खाओ, क्योंकि यहाँ पर उस तरह के दहशत की कोई बात नहीं है।”


वह इतना ही कहने पाया था कि इतने ही में नौ बजा मेरे पहरे पर दूसरे कांस्टेबिल के आ जाने से वह राजपूत कांस्टेबिल चला गया। हाँ, जाती बेर उसने अपने जोड़ीदार से इतना जरूर कह दिया था कि,–“देखना, शिवराम तिवारी! इस औरत से किसी किस्म की बदसलूकी न कर बैठना।”


यह सुन कर शिवराम तिवारी ने उस कांस्टेबिल का नाम लेकर यों जवाब दिया था कि,–“नहीं, रघुनाथसिंह! इस बात का तुम जरा भी अंदेशा न करो। अरे, सोचो तो सही कि इस औरत के बराबर उम्र की तो हमारी और तुम्हारी बेटियाँ हैं! तब भला, फिर इस आफत की मारी औरत से हमलोग कैसे छेड़छाड़ कर सकते हैं! इस पर एक बात और भी है, और वह यह है कि आज कोतवाल साहब ने अभी यहाँ पर के सब कांस्टेबिलों के नाम यह हुकूम जारी किया है कि,—कोई भी कांस्टेबिल इस औरत के साथ किसी भी किस्म की छेड़खानी न करे।” जाओ-दफ्तर में जाने पर तुमको भी इस हुक्म का हाल मालूम हो जाएगा।”


यह सुनकर रघुनाथ सिंह तो चले गए और शिवराम तिवारी ने मुझसे कहा,–“दुलारी, मैं तुम्हारी इस कोठरी की बगलवाली कोठरी का दरवाजा खोल देता हूँ, उसमें जाकर तुम झटपट अपने जरूरी कामों से निबट आओ। उस कोठरी में दो औरतें मौजूद हैं, उनसे तुम्हें जरूरत की सब चीजें मिल जायेंगी।”


यों कहकर शिवराम तिवारी ने मेरी कोठरी की बगलवाली एक कोठरी का दरवाजा खोल दिया। तब मैं उस दूसरी कोठरी में गई और उन औरतों की मदद से आधे घंटे में सब बातों से निश्चिंत होकर अपनी कोठरी में लौट आई। मेरे आते ही उस (दूसरे) दरवाजे को शिवराम तिवारी ने बंद कर दिया।


बस, इतने ही में दस का घंटा बजा और शिवराम तिवारी ने मुझसे यों कहा,–“अब दरोगा जी आवेंगे और तुमको इस कोठरी से निकाल कर उस जगह ले जाएँगे, जहाँ पर तुम रसोई खाओगी।”


मैं उस कांस्टेबिल अर्थात् शिवराम तिवारी की बात का जवाब दिया ही चाहती थी कि एक खूब लंबे-चौड़े जवान मेरी कोठरी के आगे आ और ताले में ताली डाल कर उसे घुमाते हुए यों बोले,–“दुलारी, रसोई खाने चलो।”


यह सुनकर मैंने कहा,–“नहीं साहब! मैं ब्राह्मण की लड़की हूँ, इसलिए रसोई-असोई मैं किसी के हाथ की नहीं खा सकती।”


वे बोले,–“अरे सुनो! यहाँ भी कनौजिया ब्राह्मण ही रसोई बनाता है, इसलिए अब जल्दी करो और झटपट रसोई खा आओ। आज शुक्रवार है और कल आखिरी शनिचर है। फिर परसों ऐतवार छुट्टी का दिन है। इसलिए तुम सोमवार को मजिस्ट्रेट साहब के सामने रूबरू पेश की जाओगी।”


यह सुनकर मैंने कहा,–“यह तो आपलोगों का अधिकार है कि मुझे जब चाहें, तब मजिस्ट्रेट के सामने पेश करें, पर रही रसोई खाने की बात,–सो साहब! मैं रसोई-फसोई नहीं खाने की। अरे, रसोई तो क्या, मैं तो बाजार की पूरी, कचौरी और मिठाई भी नहीं खा सकती।”


यह सुन और खूब जोर से हँसकर दरोगाजी ने कहा,–“अक्खा! तुम तो खासी ‘वाजपेइन’ मालूम देती हो! अजी बी! जो तुम इतनी परहेजदार थीं, तो फिर तुमने यहाँ तक आने की तकलीफ ही क्यों उठाई?”


उन महाशय की ऐसी बेढंगी बातें सुनकर मैं कुढ़ गयी और मैंने उनसे यों कहा,–“सुनिए साहब! मैं आपके साथ व्यर्थ बकवाद करना नहीं चाहती। सो, यदि आपको मुझे कुछ खाने-पीने को देना हो, तो बिना मीठे का सेर भर कच्चा दूध मँगवा दें, और जो न देना हो तो वैसा कहें, क्योंकि मैं इस जगह रहकर सिवा दूध के, और कुछ भी खाने की चीज नहीं छूऊँगी।”


मेरी बात सुन और ताले में से ताली निकाल कर वे तो भुनभुनाते हुए चले गए और मैंने शिवराम तिवारी से पूछा,–“क्या यही दरोगाजी हैं?”


इस पर उसने—“हाँ”–कह कर यों कहा,– “दुलारी! तो क्या तुम सिवा दूध के, और कुछ भी न खाओगी-पीओगी?”


मैं बोली,–“नहीं, भाई! अब, जब तक मैं इस आफत से छुटकारा न पाऊँगी, तब तक सिवा दूध के, दूसरी कोई भी चीज नहीं खाऊँगी। हाँ, पानी के लिये लाचारी है।”


इस पर उसने कहा,– “लेकिन दूध का मिलना तो कठिन है।”


मैं बोली,–“अच्छा, खाली पानी तो मिलेगा?”


वह कहने लगा,–“भला, सिर्फ पानी पी कर कै दिन तक रह सकोगी?”


मैं बोली,– “जब तक दम में दम है, तब तक मैं केवल जल पीकर भी रह सकती हूँ। क्या तुम ब्राह्मण होकर यह बात अपने जी से नहीं समझ सकते कि, ‘यह स्थान मेरे खाने-पीने के लायक नहीं है’?’’


इस पर वह बेचारा कुछ कहना ही चाहता था कि इतने ही में उन दरोगाजी के साथ खुद कोतवाल साहब आ गए और उन्होंने बड़े क्रोध के साथ मुझसे यों कहा,–“दुलारी, अगर तुम्हें रसोई खाना हो, तो फौरन दरोगाजी के साथ चौके में जा कर रसोई खा आओ, और जो न खाना हो तो भूखी रहो। यहाँ कोई ‘ब्रह्मभोज’ या ‘एकादशी’ का सदावर्त्त नहीं है कि तुम्हें दूध या फलाहार दिया जायेगा।”


इस पर मैंने भी कुछ कुरुख होकर यों कहा,- “जी, अच्छा, मुझे कुछ न चाहिए; क्योंकि मैं सन्तोष के साथ केवल जल पी कर ही अपना पेट भर लूँगी। क्‍यों, साहब! खाली जल तो मिलेगा न?”


इस पर कोतवाल साहब ने यों कहा,– “नहीं, अगर तुम रसोई न खाओगी, तो खाली पेट भरने के लिये पानी भी नहीं दिया जायेगा।”


मैने भी इसका मुँहतोड़ यों जवाब दिया,–“तो अच्छी बात है, मैं निर्जल व्रत भी कर सकती हूँ। सुनिए कोतवाल साहब! आप मुसलमान हैं; इसलिये हिन्दुओं के व्रतोपवास की बात आप क्या समझेंगे? सुनिए और याद रखिए कि हिन्दुओं—विशेषकर ब्राह्मणों के घर की स्त्रियाँ चालीस-चालीस उपवास तक कर सकती हैं और उन उपवास के दिनों में वे जल की एक बूँद भी नहीं छूतीं।”


“तो बस, तुम भी निर्जल व्रत करो।” यों कहकर कोतवाल साहब दरोगाजी के साथ बड़बड़ाते हुए चले गए और उनके चले जाने के कुछ देर बाद धीरे-धीरे शिवराम तिवारी ने मुझसे यों कहा,–“शाबाश, दुलारी! आज तुमने ब्राह्मण-कुल की खूब ही लाज रक्‍खी! आह, मैं भी कुलीन ब्राह्मण हूँ, पर इस पेट चण्डाल के मारे मेरा सारा ब्राह्मणपने का आचार-विचार जाता रहा; पर एक तुम धन्य हो कि इस आफत में फँसकर भी अपनी कुल-मर्यादा की टेक निबाहने के लिये दृढ़ता से तैयार हो। धन्य हो, तुम धन्य हो और तुम्हारा साहस भी धन्य है!”


बड़े नेक कांस्टेबिल शिवराम तिवारी की ऐसी बातें सुनकर मेरा रोम-रोम प्रसन्न हो गया और मैंने उनसे कहा,–“भाई साहब, विपत्ति में धीरज धरना ही तो इस (विपत्ति) से बाजी जीतना है; इसलिये मैं बड़े धैर्य के साथ इस विपत्ति का सामना करने के लिये तैयार हूँ।”


वे कहने लगे,–“तुम्हें ऐेसा ही करना चाहिए। अस्तु, सुनो–मैं समझता हूँ कि तुम्हें दूध-ऊध कोई भी न देगा, इसलिये यदि तुम कहो तो मैं तुम्हें चुपचाप दूध ला दूँ।”


मैं बोली,–“नहीं, भाई । मैं ऐसी चोरी का दान नहीं लिया चाहती। यदि मेरे पास पैसे होते तो मैं उन्हें देकर तुमसे जरूर चुपचाप दूध मंगवा लेती; पर मेरे पास तो इस समय एक फूटी कौड़ी भी नहीं है। इसलिये तुम्हारा यह गुप्तदान मैं किसी तरह भी नहीं लिया चाहती।”


यह सुनकर शिवराम तिवारी चुप हो गए और मैं उसी सांसत घर में बैठी-बैठी अपने दुर्भाग्य को कोसने लगी। उस समय तरह-तरह के खयाल मेरे मन में उठते और धीरे-धीरे बिलाते जाते थे।


मैंने सोचा कि मेरा एक दिन तो वह था, जब मेरे माता-पिता जीते थे; और एक दिन यह है कि सात-सात खून के अपराध में पकड़ी जाकर मैं इस कालकोठरी में बन्द की गई हूँ! बस, देर तक मैं इसी बात पर रोती-कलपती रही; इसके बाद जब पिता-माता के लाड़-चाव का ध्यान मुझे हो आया, तब तो मेरा हिया ऐसे जोर से धड़कने और फटने लगा कि उसका हाल मैं किसी तरह भी अब नहीं कह सकती। हाय, मैं ऐसी अभागी हूँ कि मेरे पिता और माता के कुल में अब सिवा मेरे, और कोई न रहा!!! एक दूर के नाते के चचा हैं, पर वे इस समय कहाँ हैं और उन्हें मेरी इस घोर विपत्ति की कोई खबर है, कि नहीं, इसे मैं नहीं जान सकती। इसी बात के सोचते-सोचते मुझे अपने मामा की बात याद आ गई और उसके स्मरण होते ही मेरा सिर चकरा गया! सुनिए, मेरे ननिहाल में एक मामा भर थे, पर दो साल हुए कि वे भी इस संसार से विदा हो गए हैं! मेरा ननिहाल कानपुर जिले के विक्रमपुर गाँव में था, पर मेरे नाना-नानी मेरे जन्म लेने के पहिले ही सुरपुर सिधार चुके थे। एक मामा भर थे, सो वे भी तीन-तीन स्त्रियों के मर जाने पर गाँव और घर-गृहस्थी से उदास होकर मेरे यहाँ आकर कुछ दिनों तक रहे थे। इसके बाद उन्होंने सरकारी फौज में नौकरी कर ली थी और कभी-कभी, साल में एक-आध बार, दो चार दिन के लिये वे मेरे यहाँ आ जाया करते थे। वे जब मेरे यहाँ आते थे, तब अपनी तलवार और बन्दूक भी साथ लाते थे। बस, इसी समय में मैंने अपने मामा से तलवार और बन्दूक चलाना सीखा था। यदि मुझे बन्दूक चलानी न जाती तो मैं उस समय दियानत हुसैन आदि छओं कांस्टेबिलों को बन्दूक दिखला कर डराती ही कैसे? यहाँ पर इतना और भी सुन लीजिए कि यदि उस रात को मुझे कोई कांस्टेबिल छेड़ता, तो,–या तो मैं उसे ही गोली मार देती, या आप ही अपने कलेजे में गोली मार कर मर जाती। क्योंकि मैं ऐसा समझती हूँ कि स्त्रियों के लिये अपमानित होने की अपेक्षा मर जाना करोड़ गुना अच्छा है! अस्तु!


बस, इसी तरह के बहुतेरे खयालों में कितनी देर तक मैं उलझी रही, यह तो अब मुझे नहीं याद है, पर इतना जरूर स्मरण है कि मैं उन्हीं खयालों में देर तक डूबती-उतराती रही। इसके बाद कब मैं लुढ़क कर नींद में बेसुध हो गई, इसकी मुझे सुधि नहीं है।


योंही दो पहर की सोई-सोई मैं रात के नौ बजे तक बेखबर पड़ी रही। फिर जब रघुनाथ सिंह कांस्टेबिल ने मुझे जगाया, तब कहीं मेरी नींद खुली और तभी उनकी ज़बानी मुझे यह मालूम हुआ कि रात नौ के ऊपर पहुँच चुकी है!


भली-भांति जब मेरी नींद की खुमारी दूर हो गई और मैं उठ कर मजे में बैठ गई, तब रघुनाथ सिंह ने मुझसे यों कहा,–“दुलारी, शिवराम तिवारी की जबानी मुझे यह मालूम हुआ है कि आज तुमने कुछ भी नहीं खाया-पीया है! अरे, इतना हठ तुम क्यों करती हो? यह तो कोतवाली है! सो, यहाँ पर आकर और फिर यहाँ से जेल के अन्दर जाकर सभी जाति के लोग रसोई खाते हैं। फिर तुम इस कायदे से कैसे बरी हो सकती हो? मगर खैर, तुम्हारे जो जी में आवे सो करना, लेकिन इस वक्त अगर तुम मंजूर करो तो मैं तुम्हें दूध ला दूँ?”


इसपर मैंने यों कहा,–“सुनो भाई, जबकि थाने के अफसर को ही इस बात का कोई खयाल नहीं है कि ‘उनका कोई कैदी भूखा-प्यासा है,’ तब तुम इतनी मगज़-पच्ची क्यों कर रहे हो? देखो, और साफ-साफ सुन लो कि मैं यहाँ, या जेल जाने पर भी, सिवा दूध के, और किसी चीज को भी ग्रहण नहीं करूंगी। इसमें चाहे मुझे भूखी ही क्यों न मर जाना पड़े, पर ब्राह्मण-कुमारी होकर मैं आचार-विचार की यों हत्या कभी भी नहीं करने की।”


यह सुनकर उन्होंने कहा,–“अच्छी बात है; तुम्हारे जो जी में आवे, सो करना; पर इस समय तो तुम थोड़ा सा दूध पी लो।”


मैं बोली,–“तुम अपने अफसर से पूछकर दे रहे हो?”


वे बोले,– “अरे राम, राम! भला ऐसा भी कभी हो सकता है? मैं तुम्हें चोरी से दूध ला दूँगा, उसे तुम चुपचाप पी जाना और उसकी बात सिवाय शिवराम तिवारी के, और किसी तीसरे शख्स के आगे जाहिर मत करना।”


मैं बोली,–“तो बस, भाई! अब तुम दया करके ऐसी बातों को बंद करो, क्योंकि मैं चोरी का काम करके अपने ईमान में बट्टा नहीं लगाना चाहती।”


मेरी ऐसी बात सुनकर बेचारे रघुनाथ सिंह बहुत ही पछताने और हर तरह से मुझे समझाने लगे; पर जब मैं किसी तरह भी न मानी तब उन्होंने यों कहा, “अच्छा, पर थोड़ा सा पानी तो पी लो।”


यह सुनकर मैंने कहा,– “हाँ, पानी पीने में कोई हर्ज नहीं है, पर उसे मैं पी क्योंकर सकूँगी?”


उन्होंने कहा,–“मैं एक केले के पत्ते में धार बाँधकर बाहर से पानी दूँगा, तुम अंजुली लगाकर पी लेना।”


यों कह कर वे एक लोटा जल ले आए। बाद इसके, उन्होंने केले के पत्ते में धार बाँधी और मैं अंजुली लगा कर पवित्र गङ्गाजल पीने लगी। जब सारा लोटा, जिसमें डेढ़ सेर से कम जल न होगा, खाली हो गया, तब रघुनाथ सिंह ने यों कहा,–“क्यों, प्यास मिटी या और लाऊँ?”


मैं बोली,–“नहीं, अब बस करो भाई! इस जलदान के पलटे में भगवान तुम्हारा भला करेगा, यही मेरी असीस है।”


“तुम्हारी असीस मैं सिर-माथे चढ़ाता हूँ।” यों कहकर वे जाकर लोटा रख आए और कंधे पर बन्दूक धरे घूम-घूम कर मेरी कोठरी का पहरा देने लगे।


(यह रचना अभी अधूरी है)


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