अ꣢ग्ने꣣ वि꣡व꣢स्व꣣दा꣡ भ꣢रा꣣स्म꣡भ्य꣢मू꣣त꣡ये꣢ म꣣हे꣢ । दे꣣वो꣡ ह्यसि꣢꣯ नो दृ꣣शे꣢ ॥१०
हे (अग्ने) परम पिता परमात्मन् ! आप (महे) महान् (ऊतये) रक्षा के लिए (अस्मभ्यम्) हमें (विवस्वत्) अविद्यान्धकार को निवारण करनेवाला अध्यात्म-प्रकाश (आ भर) प्रदान कीजिए। (हि) क्योंकि, आप (नः) हमारे (दृशे) दर्शन के लिए, हमें विवेकदृष्टि प्रदान करने के लिए (हि) निश्चय ही (देवः) प्रकाश देनेवाले (असि) हैं ॥१०॥ श्लेषालङ्कार से मन्त्र की सूर्यपरक अर्थयोजना भी करनी चाहिए ॥१०॥
सूर्यरूप अग्नि जैसे जीवों की रक्षा के लिए अन्धकार-निवारक ज्योति प्रदान करता है, वैसे ही परमेश्वर अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, मोह आदि रूप अन्धकार के निवारण के लिए हमें आध्यात्मिक तेज प्रदान करे ॥१०॥ प्रथम प्रपाठक, प्रथम अर्ध में प्रथम दशति समाप्त। प्रथम अध्याय में प्रथम खण्ड समाप्त।
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