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पराये धन की तृष्णा सब स्वाहा कर जाती है

 

👉 पराये धन की तृष्णा सब स्वाहा कर जाती है

 

एक नाई जंगल में होकर जा रहा था अचानक उसे आवाज सुनाई दी “सात घड़ा धन लोगे?” उसने चारों तरफ देखा किन्तु कुछ भी दिखाई नहीं दिया। उसे लालच हो गया और कहा “लूँगा”। तुरन्त आवाज आई “सातों घड़ा धन तुम्हारे घर पहुँच जायेगा जाकर सम्हाल लो”। नाई ने घर आकर देखा तो सात घड़े धन रखा था। उनमें 6 घड़े तो भरे थे किन्तु सातवाँ थोड़ा खाली था। लोभ, लालच बढ़ा। नाई ने सोचा सातवाँ घड़ा भरने पर मैं सात घड़ा धन का मालिक बन जाऊँगा। यह सोचकर उसने घर का सारा धन जेवर उसमें डाल दिया किन्तु वह भरा नहीं। वह दिन रात मेहनत मजदूरी करने लगा, घर का खर्चा कम करके धन बचाता और उसमें भरता किन्तु घड़ा नहीं भरा। वह राजा की नौकरी करता था तो राजा से कहा “महाराज मेरी तनख्वाह बढ़ाओ खर्च नहीं चलता।” तनख्वाह दूनी कर दी गई फिर भी नाई कंगाल की तरह रहता। भीख माँगकर घर का काम चलाने लगा और धन कमाकर उस घड़े में भरने लगा। एक दिन राजा ने उसे देखकर पूछा “क्यों भाई तू जब कम तनख्वाह पाता था तो मजे में रहता था अब तो तेरी तनख्वाह भी दूनी हो गई, और भी आमदनी होती है फिर भी इस तरह दरिद्री क्यों? क्या तुझे सात घड़ा धन तो नहीं मिला।” नाई ने आश्चर्य से राजा की बात सुनकर उनको सारा हाल कहा। तब राजा ने कहा “वह यक्ष का धन है। उसने एक रात मुझसे भी कहा था किन्तु मैंने इन्कार कर दिया। अब तू उसे लौटा दे।” नाई उसी स्थान पर गया और कहा “अपना सात घड़ा धन ले जाओ।” तो घर से सातों घड़ा धन गायब। नाई का जो कुछ कमाया हुआ था वह भी चला गया।

 

पराये धन के प्रति लोभ तृष्णा पैदा करना अपनी हानि करना है। पराया धन मिल तो जाता है किन्तु उसके साथ जो लोभ, तृष्णा रूपी सातवाँ घड़ा और आ जाता है तो वह जीवन के लक्ष्य, जीवन के आनन्द शान्ति प्रसन्नता सब को काफूर कर देता है। मनुष्य दरिद्री की तरह जीवन बिताने लगता है और अन्त में वह मुफ्त में आया धन घर के कमाये कजाये धन के साथ यक्ष के सातों घड़ों की तरह कुछ ही दिनों में नष्ट हो जाता है चला जाता है। भूलकर भी पराये धन में तृष्णा, लोभ, पैदा नहीं करना चाहिए। अपने श्रम से जो रूखा−सूखा मिले उसे खाकर प्रसन्न रहते हुए भगवान का स्मरण करते रहना चाहिए।

 

📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1962

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