👉 अभागा राजा और भाग्यशाली दास
🔷 एक बार एक गुरुदेव अपने शिष्य को अहंकार के
ऊपर एक शिक्षाप्रद कहानी सुना रहे थे। एक विशाल नदी जो की सदाबहार थी उसके दोनों तरफ
दो सुन्दर नगर बसे हुए थे! नदी के उस पार महान और विशाल देव मन्दिर बना हुआ था!
नदी के इधर एक राजा था राजा को बड़ा अहंकार था कुछ भी करता तो अहंकार का प्रदर्शन
करता वहाँ एक दास भी था बहुत ही विनम्र और सज्जन।
🔶 एक बार राजा और दास दोनों नदी के पास गये,
राजा ने उस पार बने देव मंदिर को देखने की इच्छा व्यक्त की दो नावें थी, रात का
समय था एक नाव में राजा सवार हुआ और दूसरे में दास सवार हुआ दोनों नाव के बीच में
बड़ी दूरी थी।
🔷 राजा रात भर चप्पू चलाता रहा पर नदी के उस
पार न पहुँच पाया सूर्योदय हो गया तो राजा ने देखा की दास नदी के उस पार से इधर आ रहा
है! दास आया और देव मन्दिर का गुणगान करने लगा तो राजा ने कहा की तुम रात भर
मन्दिर में थे! दास ने कहा की हाँ और राजा जी क्या मनोहर देव प्रतिमा थी पर आप
क्यों नहीं आये!
🔶 अरे मैंने तो रात भर चप्पू चलाया पर । गुरुदेव
ने शिष्य से पुछा वत्स बताओ की राजा रात भर चप्पू चलाता रहा पर फिर भी उस पार क्यों
न पहुँचा ? ऐसा राजा के साथ क्या हुआ ? जब की
उस पार पहुँचने में एक घंटे का समय ही बहुत है!
🔷 शिष्य - हे नाथ मैं तो आपका अबोध सेवक हूं
मैं क्या जानु आप ही बताने की कृपा करें देव! ऋषिवर ने कहा हे वत्स राजा ने चप्पू तो
रात भर चलाया पर उसने खूंटे से बँधी रस्सी को नहीं खोला!
🔶 और तुम जिन्दगी भर चप्पू चलाते रहना पर जब
तक अहंकार के खूंटे को उखाड़कर नहीं फेंकोगे आसक्ति की रस्सी को नहीं काटोगे तुम्हारी
नाव देव मंदिर तक नहीं पहुंचेगी!
🔷 हे वत्स जब तक जीव स्वयं को सामने रखेगा तब
तक उसका भला नहीं हो पायेगा! ये न कहो की ये मैंने किया ये न कहो की ये मेरा है ये
कहो की जो कुछ भी है वह सद्गुरु और समर्थ सत्ता का है मेरा कुछ भी नहीं है जो कुछ
भी है सब उसी का है!
🔶 स्वयं को सामने मत रखो समर्थ सत्ता को सामने
रखो! और समर्थ सत्ता या तो सद्गुरु है या फिर इष्टदेव है , यदि
नारायण के दरबार में राजा बनकर रहोगे तो काम नहीं चलेगा वहाँ तो दास बनकर रहोगे
तभी कोई मतलब है।
🔷 जो अहंकार से ग्रसित है वह राजा बनकर चलता
है और जो दास बनकर चलता है वह सदा लाभ में ही रहता है।
🔶 इसलिये नारायण के दरबार में राजा नहीं दास
बनकर चलना!
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