👉 महान योगी अनंता बाबा
🔷 गुरूभक्त साधक महान योगी अनन्ता बाबा का मार्मिक
प्रसंग है। जिस समय बाबा ने अपना यह प्रसंग सुनाया, वह एक आदिवासी गाँव
में रहते थे। आदिवासी उन्हें अपने देवता मानकर पूजते थे, श्रद्धा
करते थे। बाबा उनके लिए माता- पिता ,एवं भगवान थे। बाबा भी
इन ग्रामवासियों का ध्यान अपने बच्चों की तरह रखते थे। बहुत पढ़े- लिखे न होने पर
भी उन्होंने इन भोले गाँव वासियों को शिक्षा का संस्कार देने की कोशिश की थी। अपने
साधारण ज्ञान एवं असाधारण आध्यात्मिक ऊर्जा के द्वारा वह इन सरल ग्रामीण का कल्याण
करते रहते थे।
🔶 उनके पास आश्चर्यकारक शक्तियाँ थीं। एक बार
जब किसी ने उनसे पूछा कि उनको ये अद्भुत विद्याएँ कहाँ से मिलीं? तो
उन्होंने अपने पुराने झोले से एक फटी हुई पुस्तक निकाली। यह पुस्तक गुरूगीता की
थी। उन्होंने इस पुस्तक को अपने माथे से लगाया। ऐसा करते हुए उनकी आँखें भर आयीं।
वह अपने अतीत की यादों में खो गये और जब उबरे, तब उनकी आँखों
में गुरूभक्ति का प्रकाश था। समूचे मुख पर श्रद्धा की अनोखी दीप्ति थी। अपनी स्तुतियों
को कुरेदते हुए उन्होंने कहा कि- बचपन से ही प्रभु ने मुझे अपना रखा था। शायद तभी
उन्होंने मुझे संसार में रमने नहीं दिया। एक के बाद एक अनेक कष्ट मेरे जीवन में
आते चले गये।
🔷 छोटा ही था, तब घाघरा नदी की
बाढ़ में सब कुछ बह गया था। माता- पिता, स्वजन- परिजन मुझे
अपने कहने वाला कोई न था। बाढ़ मुझे भी बहा ले गयी थी ,पर
मुझे जब होश आया, तब मैंने स्वयं को एक सुनसान स्थान में बने
शिव मंदिर में पाया। मेरा सिर एक वृद्ध महात्मा की गोद में था और वे बड़े प्यार से
मेरे माथे पर हाथ फेर रहे थे। मेरे आँखें खोलने पर उन्होंने मेरी स्थिति जानी कुछ
हलवा खाने को दिया। कई दिन बाद जब मैं स्वस्थ हुआ, तो
उन्होंने मुझे पढ़ाना शुरू किया। संस्कृत व हिन्दी का साधारण ज्ञान देने के बाद एक
दिन उन्होंने मुझे गुरूगीता की पोथी थमायी और बोले -बेटा! इसी ने मेरा कल्याण किया
है और यही तुम्हारा भी कल्याण करेगी। मेरा कोई शिष्य नहीं है, तुम भी नहीं हो सकते। भगवान भोलेनाथ सब के गुरु हैं, उन्हें ही अपना गुरु एवं ईश्वर मानो। गुरूगीता उन्हीं की वाणी है, इसकी साधना से उन सर्वेश्वर को प्रसन्न करो।
🔶 इसी के साथ उन्होंने बतायी गुरूगीता की पाठ
विधि। साथ ही उन्होंने कहा कि कोई साधना कठिन तप एवं पवित्र भावना के बिना सफल नहीं
होती। उन महान सन्त के सान्निध्य में यह साधना चलती गयी। अंतःकरण के कोनों में
आध्यात्मिक उजाले की किरणें भरती गयीं। गुरूगीता की कृपा से सब कुछ स्वतः प्राप्त
होता गया। समय के साथ अंतस की संवेदना इतनी व्यापक होती गयी कि सभी कुछ मिलता गया।
जब उन महान सन्त ने अपना शरीर छोड़ा ,तब मैं वहाँ से चलकर यहाँ आ
गया। और जीव सेवा को ही शिव सेवा मान लिया। प्रभु की कृपा से मुझे सब कुछ सहज
प्राप्त है। गुरूगीता के अंतर रहस्यों को जो भी जान लेगा, उसे
भी ऐसा ही दिव्य अनुदान मिल जायेगा।
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 195
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