तृतीय सर्ग
हो गया पूर्ण अज्ञात वास,
'पांडव लोटे वन से सहास,
'पावक सें कनक-सदृश तप कर,
वीरत्व लिये कुछ और प्रखर,
नस - नस में तेज -प्रवाह लिये,
कुछ और नया उत्साह लिये।
सच है, विपत्ति
जब आती है,
कायर को ही दहलाती है,
शूरमा नहीं विचलित होते,
क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,
कॉटों में राह बनाते हैं।
मुख से न की उफ कहते हैं,
संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
'उद्योग-निरत नित रहते हें,
शूलों का मूल नशाने को,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को।
है कौन विध्न ऐसा जग में,
टिक सके आदमी के मग में ?
खम ठोंक ठेलता है जब नर,
'पर्वत के जाते पाँव उखड़।
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।
गुण बड़े एक से एक प्रखर,
हैं छिपे मानवों के भीतर,
मेहँदी में जैसे लाली हो,
वर्त्तिका -बीच उजियाली हो।
बत्ती जो नहीं जलाता है,
रोशनी नहीं वह पाता है।
पीसा जाता जब इक्षु-दंड,
झरती रस की धारा अखंड,
मेहँदी जब सहती है प्रहार,
बनती ललनाओं का सिंगार।
जब फूल पिरोये जाते हैं,
हम उनको गले लगाते हैं।
बसुधा का नेता कौन हुआ !
भूखंड-विजेता कौन हुआ ?
अतुलित यश-क्रेता कौन हुआ
नव - घर्म -प्रणेता कौन हुआ ?
जिसने न कभी आराम किया,
विघ्नों में रहकर नाम किया।
जब विघ्न सामने आते हैं,
सोते से हमें जगाते हैं,
तन को मरोड़्ते हैं पल-पल,
तन को झंझोरते है पल-पल ।
सत्पथ. की ओर लगाकर ही,
जाते हैं हमें जगाकर ही।
वाटिका और वन एक नहीं,,
आराम और रण एक नहीं,
वर्षा, अंधड़,
आतप अखंड,
नरता के हैं साधन प्रचंड ।
वन में प्रसून तो खिलते हैं,
बागों में शाल न मिलते हैं।.
कंकड़ियाँ जिनकी सेज सुधर,
छाया देता केबल अंबर,
विपदाएँ दूध पिलाती हैं
लोरी आँधियाँ सुनाती हैं।
जो लाक्षा-गृह में ,जलते हैं,
वे ही शूरमा निकलते हैं।.
बढ़कर मुखीबतों पर छा जा,
मेरे किशोर! मेरे ताजा!
जीवन का रस छन जाने दे,
तन को पत्थर बन जाने दे।
तू स्वयं तेज भयकारी है,
क्या कर सकती चिनगारी है?
वर्षों तक बन में घूम-घूम,
बाधा - विध्नों को चूम-चूम,
खह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ ओर निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या
होता है।
मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्गं पर- लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।
दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी
यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम |
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे।
दुर्योधन वह भी दे न सका,
आशिष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को
बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने
चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।
हरि ने भीषण हुकार किया,
अपना स्वरूप - विस्तार किया,
डगमग-डगमग. दिग्गज डोले,
भगवान कुपित होकर बोले--
“जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हॉ-हाँ, दुर्योधन!
बाँध मुझे।
यह देख, गगन मुझमें
लय है,
यह देख, पवन मुझमें
लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय हैं संसार सकल ।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार भूलता है मुझमें।
उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मेनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह-नक्षत्र-निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर ।
दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग
क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य, सुरजाति
अमर,
शत कोटि सूर्य, शत
कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर,
सिन्धु मन्द्र;
शत कोटि विष्गु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि जिष्णु, जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत
कोटि काल,
शत कोटि दंडधर लोकपाल |
जंजीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ हाँ, दुर्योधन
! बाँध इन्हें ।
भूलोक, अतल
पाताल देख,
गत और अनागरत काल देख,
यह देख, जगत का
आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत
का रण;
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान कहाँ इसमें तू है।
अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुठ्ठी, में
तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।
जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हंसने लगती है सृद्धि उघर।
में जभी मूंदता हूं लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।
बॉघने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी. क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता हे,
वह मुझे बाँध कब सकता है?
हित-बचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी
अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब
रण होगा,
जीवन - जय या कि मरण होगा।
टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुंह खोलेगा।
दुर्योधन ! रण ऐसा होगा,
फिर कभी नहीं जैसा होगा।
भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-वाण बूंद-से छूटेंगे,
बायस- श्रृंगाल सुख लूटंगे,
सौभाग्य_ मनुज
के फूटेंगे।
आखिर तू. भूशायी होगा,
हंसा का पर, दायी
होगा।”
थी सभा सन्न, सब
लोग डरे,
चुप थे या थे बेद्दोश पड़े।
केवल दो नर न अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,
दोनों पुकारते थे जय-जय।
भगवान सभा को छोड़ चले,
करके रण-गर्जन घोर चले,
सामने कर्ण सकुचाया-सा,
आ मिला चकित, भरमाया
- सा।
हरि बड़े प्रेम से कर धर कर,
ले चढ़े उसे अपने रथ पर,
रथ चला, परस्पर
बात चली,
शम-दम की टेढ़ी घात चली।
शीतल हो हरि ने कहा, “हाय,
अब शेष नहीं कोई उपाय ।
हो विवश हमें धनु धरना है,
क्षत्रिय - समूह को मरना है।
मैंने कितना कुछ कहा नहीं?
विषव्यंग्य कहाँ तक सहा नहीं ?
पर, दुर्योधन मतवाला
है,
कुछ नहीं समझने वाला है।
चाहिए उसे बस रण केवल,
सारी धरती कि मरण केवल ।
हे वीर! तुम्ही बोलो अकाम,
क्या वस्तु बड़ी थी पाँच ग्राम ?
वह भी कौरव को भारी है,
मति गई मूह की मारी है।
दुर्योधन को बोधू. कैसे ?
इस रण को अवरोधूँ कैसे ?
सोचो, क्या
दृश्य बिकट होगा,
रण में जब काल प्रकट होगा?
बाहर शोणित की तप्त धार,
भीतर विधवाओं की पुकार |
निरशन, विपण्य
बिललायेंगे,
बच्चे. अनाथ. चिल्लायेंगे |
चिन्ता है, मैं
क्या और करूँ?
शान्ति को छिपा किस ओट धरूँ?
सब राह बन्द मेरे जाने,
हाँ, एक बात यदि
तू माने,
तो शान्ति नहीं जल सकती है,
समराग्नि अभी टल सकती है।
पा तुमे धन््य है दुर्योधन,
तू एकमात्र उसका जीवन।
तेरे बल की है आस उसे,
तुमसे जय का विश्वास उसे।
तू संग न उसका छोड़ेगा,,
वह क्यों रण से मुख मोड़ेगा ?
क्या अघटनीय' घटना
कराल !
तू पृथा-कुक्षि का प्रथम लाल,
बन सूत अनादर सहता हे,
कौरव के दल में रहता है,
शर-चाप उठाये आठ प्रहर,.
पांडव से लड़ने को तत्पर |
माँ का सनेह पाया न कभी,
सामने सत्य आया न कभी,
किस्मत के फेरे में पड़कर,
पा प्रेम बसा दुश्मन के घर ।
निज बन्धु मानता है पर को,
कहता है शत्रु सहोदर को।
पर, कौन दोष
इसमें तेरा?
अब कहा मान इतना मेरा।
चल होकर संग अभी मेरे,
हैं जहाँ पाँच भ्राता तेरे।
बिछुड़े भाई मिल जायेंगे,
हम मिलकर मोद मनायेंगे।
कुन्ती का तू ही तनय ज्येठ,
बल, बुद्धि,
शील में परम श्रेष्ठ ।
मस्तक पर मुकुट धरेंगें हम,
तेरा अभिषेक करेंगे हम।
आरती समोद उतारेंगे,
सब मिलकर पाँव पखारेंगे।
पद - त्राण भीम पहनायेगा,
धर्माधिष चँवर डुलायेगा।
पहरे पर पार्थ प्रवर होंगे,
सहदेव - नकुल् अनुचर होंगे।
भोजन उत्तरा बनायेगी,
पांचाली पान खिलायेगी ।
हा | क्या
दृश्य सुभग होगा ?
आनन्द-चमत्कृत जग. होगा।
सब लोग तुमे पहचानेंगे,
असली स्वरूप में जानेंगे।
खोई मणि को जब पायेगी,
कुन्ती फूली न समायेगी।
रण अनायास रुक जायेगा,
कुरुराज स्वयं झुक जायेगा।
संसार बड़े सुख में होगा,
'कोई न कहीं दुख में होगा।
सब गीत खुशी के गायेंगे,
तेरा सौभाग्य मनायेंगे ।
कुरुराज्य समर्पण करता हूँ,
साम्राज्य समर्पंण करता हूँ।
यश, मुकुट,
मान, सिंहासन ले,
बस एक भीख मुझको दे दे।
कोरव को तज रण रोक सखे,
भू का हर भावी शोक सखे।”
सुन-सुनकर कर्ण अधीर हुआ,
क्षण एक तनिक गंभीर हुआ;
फिर कहा, “बड़ी
यह माया है,
जो कुछ आपने बताया है।
दिनमणणि से सुनकर वही कथा,
मैं भोग चुका हूँ ग्लानि--व्यथा ।
जब ध्यान जन्म का धरता हूँ,
उन््मन यह सोचा करता हूँ,
केसो होगी वह माँ कराल,
निज तन से जो शिशु को निकाल,
धाराओं में घर आती है,
अथवा जीवित दफनाती है?
सेवती मास द्त तक जिसको,
पालती उदर में रख जिसको,
जीवन का अंश खिलाती है,
अन्तर का रुधिर पिलाती है;
आती फिर उसको फेंक कहीं,
नागिन होगी, वह
नारि नहीं।
हे कृष्ण ! आप चुप ही रहिए,
इसपर न अधिक कुछ भी कहिए |
सुनना न चाहते तनिक श्रवण,
जिस माँ ने मेरा किया जनन,
वह नहीं नारि कुलपाली थी,
सर्पिणी परम विकराली थी।
पत्थर-समान उसका हिय था,
सुत से समाज बढ़कर प्रिय था,
गोदी में आग लगा करके,
मेरा कुल-बंश छिपा करके,
दुश्मन का उसने काम किया,.
माताओं को बदनाम किया।.
माँ का पय भी न पिया मैंने,
उलटे, अभिशाप
लिया मैंने।
वह तो यशस्विनी . बनी रही,
सबकी भौं मुझपर तनी रही।
कन्या वह रही अपरिणीता,
जो छुछ बीता, मुझपर
बीता।
मैं जाति-ग्रोत्र से हीन, दीन,
राजाओं के सम्मुख मलीन,
जब रोज अनादर पाता था,
कह शूद्र पुकारा जाता था।
पत्थर की छाती फटी नहीं,
कुन्ती तब भी तो कटी नहीं।
मैं सूत-बंश में पलता था,
अपमान - अनल में जलता था,
सब देख रही थी दृश्य पृथा,
माँ की ममता, पर,
हुई वृथा।
छिपकर भी तो सुधि ले न सकी,
छाया अंचल की दे न सकी।
पाँच . तनय फूली - फूली,
दिन-रात बड़े सुख में भूली,
कुन्ती गौरव में चूर रही,
मुझ पतित पुत्र से दूर रही।
क्या हुआ कि अब अकुलाती है?
किस कारण मुझे बुलाती है?
क्या पाँच पुत्र हो जाने पर,
सुत के धन - धाम गंवाने पर,
या महानाश के छाने पर,
अथवा मन के घबराने पर,
नारियाँ सदय हो जाती हैं
बिछुड़े को गले लगाती हैं!
कुन्ती जिस भय से भरी रही,
तज मुझे, दूर हट
खड़ी रही,
वह पाप अभी भी है मुझमें,
वह शाप अभी भी है मुझमें।
क्या हुआ कि वह डर जायेगा ?
कुन्ती को काट न खायेगा ?
सहसा क्या हाल विचित्र हुआ ?
मैं कैसे पुण्य-चरित्र हुआ?
कुन्ती का क्या चाहता हृदय?
मेरा सुख या पांडव की जय?
यह अभिनन्दन नूतन क्या है?
केशव ! यह परिवर्तन क्या है?
मैं हुआ धनुर्धर जब नामी,
सब लोग हुए हित के कामी;
पर, ऐसा भी था
एक समय,
जब यह समाज निष्ठुर निर्दय,
किंचित् न स्नेह दर्शाता था,
विषव्यंग्य सदा बरसाता था।
उस समय सुअंक लगा करके,
अंचल के तले छिपा करके,
चुम्बन से कौन मुझे भरकर,
ताड़ना-ताप लेती थी हर ?
राधा को छोड़ भजूँ किसको
जननी है वही, तजूँ
किसको ?
हे कृष्ण ! जरा यह भी सुनिए,
सच है कि झूठ, मन
में गुनिए।
धूलों में था मैं पड़ा हुआ,
किसका सनेह पा बड़ा हुआ
किसने मुझको सम्मान दिया,
नृपता दे महिमावान किया?
अपना विकास अवरुद्ध देख,
सारे समाज को क्रुद्ध देख,
भीतर जब टूट चुका था मन,
आ गया अचानक दुर्योधन,
निश्छल, पवित्र
अनुराग लिये,
मेरा समस्त सौभाग्य लिये।
कुन्ती ने केवल जन्म दिया,
राधा ने माँ का कर्म किया,
पर, कहते जिसे
असल जीवन,
देने आया वह दुर्योधन।
वह नहीं भिन्न माता से है,
बढ़कर सोदर भ्राता से हैं।
राज़ा रंक से बना करके,
यश, मान,
मुकुट पहना करके,
बाहों पर मुझे उठा करके,
सामने जगत के ला करके,
करतब क्या-क्या न किया उसने ?
मुझको नव जन्म दिया उसने।
है ऋणी कर्ण का रोम-रोम,
जानते सत्य यह सूर्य - सोम,
तन, मन, धन दुर्योधन का है,
यह जीवन दुर्योधन का है ।
सुरपुर से भी मुख मोर्ड गा,
केशव! मैं उसे न
छोड़ूगा।
सच है, मेरी है
आस उसे,
मुझपर अटूट विश्वास उसे,
हाँ, सच है मेरे
ही बल पर,
ठाना है उसने महासमर।
पर, में कैसा
पापी हूंगा,
दुर्योधन को घोखा दूंगा!
रह साथ सदा खेला, खाया,
सौभाग्य - सुयश उससे पाया,
अब जब विपत्ति आने को है,
घनघोर प्रलयः छाने को है,
तज उसे भाग यदि जाऊँगा,
कायर, कृतध्न कहलाऊँगा।
मैं भी कुन्ती का एक तनय,
किसको होगा इसका प्रत्यय ?
संसार मुझे धिक्कारेगा,
मन में वह यही विचारेगा,
फिर गया, तुरत
जब राज मिला,
यह कर्ण बड़ा पापी निकला।
मैं ही न सहूंगा विषम डंक,
अर्जुन को भो होगा कलंक,
सब लोग कहेंगे, डरकर
ही,
अर्जुन ने अद्भुत नीति गही।
चल चाल कर्ण को फोड़ लिया।
संबन्ध अनोखा जोड़ लिया।
कोई न कहीं भी चूकेगा,
सारा जग मुझपर थूकेगा,
तप, त्याग,
शील, जप, याग, दान
मेरे होंगे. मिट्टी - समान |
लोभी--लालची कहाऊंगा,
किसको, क्या मुख
दिखलाऊँगा ?
जो आज आप कह रहे आर्य,
कुन्ती के मुख से कृपाचार्य
पुनः वही, हुए लज्जित
होते,
हम क्यों रण को सज्जित होते ?
मिलता न कर्ण दुर्योधन को,
पाण्डब न कभी जाते वन को।
लेकिन, नौका तट
छोड़ चली,
कुछ पता नहीं, किस
ओर चली।
यह बीच नदी की धारा है,
झूकता न कूल - किनारा है।
ले लील भले यह धार मुझे,
लौटना नहीं स्वीकार मुझे।
धर्माधिराज् का ज्येष्ठ बनू ?
भारत में सबसे श्रेष्ठ बनू ?
कुल की पोशाक पहन करके,
सिर उठा चलूँ कुछ तन करके !
इस भूठ-मूठ में रस क्या है!
केशव ! यह सुयश सुयश क्या है ?'
सिर पर कुलीनता का टीका,
भीतर जीवन का रस फीका,
अपना न नाम जो ले सकते,
परिचय न तेज से दे सकते,
ऐसे भी कुछ नर होते हैं,
कुल को खाते औ! खोते हैं।
विक्रमी पुरुष लेकिन, सिर पर
चलता न छत्र पुरखों का धर,
अपना बल-तेज जगाता है,
सम्मान जगत से पाता है।
सब उसे देख ललचाते हैं,
कर विविध यत्न अपनाते हैं।.
कुल--जाति नहीं साधन मेरा,
पुरुषार्थ, एक
बस धन मेरा,
कुल ने तो मुझको फेंक दिया
मेंने हिम्मत से काम लिया।
अब वंश चकित भरमाया है,
खुद मुझे खोजने आया है,.
लेकिन, मैं लौट
चलूंगा क्या?
अपने प्रण से विचलूंगा क्या?
रख में कुरुपति का विजय-वरण,
या पार्थ--हाथ करों का मरण |
हे कृष्ण ! यही मति मेरी है,
तीसरी नहीं गति मेरी है।
मैत्री की बड़ी सुखद छाया,
शीतल हो जाती है काया,
घिक्कार--योग्य होगा वह नर,
जो पाकर भी ऐसा तरुवर,
हो अलग खड़ा कटवाता है,
खुद आप नहीं कट जाता है।
जिस नर की बाँह गही मैंने,
जिस तरु की छाँह गही मैंने,
उसपर न वार चलने दूंगा;
कैसे कुठार चलने दूँगा?
जीते जी उसे बचाऊंगा,
या आप स्वयं कट जाऊंगा।
मित्रता बड़ा अनमोल रतन,
कब इसे तोल सकता है धन?
धरती की तो है क्या बिसात ?
आ जाय अगर वैकुंठ हाथ,
उसको भी नन्योछावर कर दूं,
कुरुपति के चरणों पर धर दू।
सिर लिये स्कन््ध पर चल्नता हूँ,
उस दिन के लिए मचलता हूँ
यदि चले व्रज
दुर्योधन पर,
ले लू बढ़कर अपने ऊपर |
कटवा दँ उसके लिए गला,
चाहिए मुझे क्या और भला
सम्राट बनेंगे धर्मराज,
या पायेगा कुरुराज ताज;
लड़ना भर मेरा काम रहा,
दुर्योधन का संग्राम रहा।
मुझको न कहीं कुछ पाना है,
केवल ऋण मात्र चुकाना है।
कुरुराज्य चाहता मैं कब हूँ!
साम्राज्य चाहता मैं कब हूँ?
क्या नहीं आपने भी जाना?
मुझको न आज तक पहचाना,
जीवन का मूल समझता हूँ
धन को में धूल समझता हूँ।
धनराशि भोगना लक्ष्य नहीं,
साम्राज्य भोगना लक्ष नहीं,
भुजबल से कर संसार--विजय,
अगणित समृद्धियों का संचय, |
दे दिया मित्र दुर्योधन को,
तृष्णा. छू भी 'न
सकी मन को,
वैभव--विलास की चाह नहीं,
अपनी कोई परवाह नहीं,
बस, यही चाहता
हूँ केवल,
दान की देव-सरिता निर्मल
करतल से झरती रहे सदा,
निर्धन को भरती रहे सदा।
तुच्छ है, राज्य
क्या है केशच ?
पाता क्या नर कर प्राप्त विभव ?
चिता प्रभूत, अत्यल्प हास,
कुछ चाकचिक्य, कुछ
क्षण विलास |
पर, वह भी यहीं
गँवाना है,
कुछ साथ नहीं ले जाना है।
मुझसे मनुष्य जो होते हैं,
कंचन का भार न ढोते हैं।
पाते हें धन बिखराने को,
लाते हैं रतन लुटाने को।
जग से न कभी कुछ लेते हैं,
दान ही हृदय का देते हैं।
प्रासादों के कनकाम शिखर,
होते कबुतरों के ही घर,
महल में गरुंड़ न होता है,
कंचन पर कभी न सोता है।
बसता वह कहीं पहाड़ों में,
शैलों की फटी दरारों में।
होकर समृद्धि--सुख के अधीन,
मानव होता नित तप: - क्षीण,
सत्ता, किरीट,
मणिमय आसन,
करते सनुष्य का तेज-हरण |
नर विभव-हेतु तलचाता है,
पर वही मनुज को खाता हे।
चांदनी, फूल,
छाया में पल,
नर भले बने सुमधुर, कोमल,
पर, अमृत कलेश
का पिये बिना,
आतप, अंधड़ में
जिये बिना।
वह पुरुष नही कहला सकता,
विध्नों को नहीं हिला सकता।
उड़ते जो झंझावतों में,
पीते जो वारि प्रपातों में,
सारा आकाश अयन जितका,
विषधर भुजंग भोजन जिनका,
वे ही फणिबन्ध छुड़ाते हें,
धरती का हृदय जुड़ाते हैं।
मैं गरुड़ कृष्ण ! मैं पक्षिराज,
सिर पर न चाहिए मुझे ताज।
दुर्योधन पर है विपद घोर,
सकता न किस्री विधि उसे छोड़
रणखेत पाटना है मुझको,
अधिपाश काटना है मुझको।
संग्राम - सिन्धु लहराता है,
सामने प्रलय घहराता है,
रह - रहकर भुजा फड़कती है,
विजली - सी नसें कड़कती हें।
चाहता तुरत मैं कूद पड़ू,
जीतू कि समर में डूब मरूँ।
अब देर नहीं कीजैं केशव !
अवसेर नहीं कीजै केशव !
धनु की डोरी तन जाने दें,
संग्राम तुरत ठन जाने दें।
ताण्डवी तेज लहराएगा,
संसार ज्योति कुछ पाएगा।
पर, एक विनय है
मधुसूदन !
मेरी यह जन्मकथा गोपन
मत कभी युधिष्ठिर से कहिए,
जैसे हो, इसे
दबा रहिए।
वे इसे जान यदि पाएंगे,
सिंहासन को ठुकराएंगे।
साम्राज्य न कभी स्वयं लेंगे,
सारी संउत्ति मुझे देंगे,
मैं भी न उसे रख पाऊंगा,
दुर्योधन को दे जाऊंगा।
पाण्डवब वंचित रह जाएगे
दुःख से न छूट वे पायेगे।
अच्छा, अब चला,
प्रणाम आर्य !
हों सिद्ध समर के शीघ्र कार्य।
रण में ही अब दर्शन होगा,
शर से चरण-स्पर्शन होंगा।
जय हो, दिनेश नभ
में बिहरें
भूदल में दिव्य प्रकाश भरे ।!
रथ से राधेय उतर आया,
हरि के मन में विस्मथ छाया,
वोले कि बीर ! शत बार धन्य,
तुझ सा न मित्र कोई अनन््य।
तू कुरुपति का ही नहीं प्राण,
नरता का है भूषण महान।
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