चतुर्थ सर्ग
प्रेमयज्ञ अति कठिन, कुंड में कौन बीर बलि देगा ?
तन, मन, घन, स्वर्स्व होम कर अतुलनीय यश लेगा ?'
हरि के सम्मुख भी न हार जिसकी निष्ठा ने मानी,
धन्य - धन्य राघेय ! बन्धुता के अद्भुत अभिमानी।
पर, जाने क्यों,
नियम एक अद्भुत जग में चलता हैं,
भोगी सुख भोगता, तपस्वी और अधिक जलता है ।
हरियाली है जहाँ. जलद भी उसी खण्ड के बासी,
मरु की भूमि मगर रह जाती है प्यासी की प्यासी।
और, वीर जो किसी
प्रतिज्ञा पर आकर अड्ता है,
सचमुच, उसके लिए
उसे सब - कुछ देना पड़ता है।
नहीं सदा भीषिका दौड़ती द्वार पाप का पाकर,
दुःख भोगता कभी पुण्य को भी मनुष्य अपनाकर ।
पर, तब भी रेखा
प्रकाश की जहाँ कहीं हँसती है,
वहाँ किसी प्रज्वलित वीर नर की आभा वसती हे;
जिसने छोड़ी नहीं लीक विपदाओं से घबराकर ।
दी जग को रोशनी टेक पर अपनी जान गॉँवाकर |
'नरता का आदर्श तपस्या के भीतर पलता है,
देता वही प्रकाश, आग में जो अभीत जलता है।
आजीवन झेलते दाह का दंश वीर व्रतधारी,
हो पाते तब कहीं अमरता के पद् के अधिकारी ।
प्रण करना है सहज, कठिन है लेकिन, उसे निभाना,
सबसे बड़ी जाँच है व्रत का अन्तिम मोल चुकाना।
अन्तिम मूल्य न दिया अगर, तो और मूल्य देना क्या !
'करने लगे मोह प्रासों का तो फिर प्रण लेना क्या?
सस्ती कीमत पर बिकती रहती जबतक कुर्बानी,
तबतक सभी बने रह सकते हैं त्यागी,
वलिदानी।
'पर, महँगी में मोल तपस्या का देना दुष्कर है,
हँस कर दे यह मुल्य, न मिलता वह मनुष्य घर-घर है।
जीवन का अभियान दान-बल से अजस्त्र चलता है,
उतनी बढ़ती ज्योति, स्नेह जितना अनल्प जलता है।
ओर दान में रोकर या हँस कर हम जो देते हैं,
अहंकारवश उसे स्वत्व का त्याग मान लेते हैं।
यह न स्वत्व का त्याग, दान तो जीवन का मरना हे,
रखना उसको रोक मृत्यु के पहले ही मरना है।
किस पर करते कृपा वृक्ष यदि अपना फल देते हैं ?
गिरने से उसको सँभाल क्यों रोक नहीं लेते हैं।
ऋतु के बाद फलों का रुकना डालों का सड़ना है,
मोह दिखाना देय वस्तु पर आत्मघात करना है।
देते तरु इसलिए कि रेशों में मत कीट समायें,
रहें डालियाँ स्वस्थ और फिर नये-नये फल आयें।
सरिता देती वारि कि पाकर उसे सुपूरित घन हो,
'बरसे मेघ, भरे फिर सरिता, उदित
नया जीवन हो।
आत्मदान के साथ जगज्नीवन का ऋजु नाता है,
जो देता जितना बदले में उतना ही पाता है।
'दिखलाना कार्पण्य आप अपने धोखा खाना है,
रखना दान अपूर्ण रिक्त निज का ही रह जाना है|
व्रत का अन्तिम मोल चुकाते हुए न जो रोते हैं,
पूर्णकाम जीवन से एकाकार वही होते हैं।
जो नर आत्मदान से अपना जीवन-घट भरता है,
वही मृत्यु के मुख में भी पड्कर न कभी मरता है।
जहाँ कहीं है ज्योति जगत में, जहाँ कहां उजियाला,
वहाँ खड़ा है कोई अन्तिम मोल चुकानेवाला।
व्रत का अन्तिम मोल राम ने दिया,
त्याग सीता को,
जीवन की संगिनी, प्राण की मणि को, सुपुनीता को,
दिया अस्थि देकर दधीचि ने, शिवि ने अंग कतर कर,
हरिश्वन्द्र ने कफन माँगते हुए सत्य पर अड़ कर |
ईसा ने संसार-हेतु शूलि पर प्राण गँवा कर,
अन्तिम मूल्य दिया गाँधी ने तीन गोलियाँ खाकर ।
सुन अन्तिम ललकार मोल माँगते हुए जीवन की,
सरमद् ने हँसकर उतार दी त्वचा समूचे तन की ।
हँसकर लिया मरण ओठों पर, जीवन का ब्व पाला ।
अमर हुआ सुकरात जगत में पीकर विष का प्याला।
मरकर भी मंसूर नियति की सह पाया न ठिठोली,
उत्तर सें सौ बार चीख कर बोटी-बेटी बोली।
दान जगत का प्रकृत घर्म है, मनुज व्यर्थ डरता है,
एक रोज तो हमें स्वयं सब-कुछ देना पड़ता है।
बचते वही, समय
पर जो सर्वस्व दान करते हैं,
ऋतु का ज्ञान नहीं जिनको वे देकर भी मरते हैं।
वीर कर्ण, विक्रमी,
दान का अति अमोघ व्रतघारी,
पाल रहा था बहुत काल से एक पुण्य-प्रण भारी।
रवि - पूजन के समय सामने जो याचक आता था,
मुंह माँगा वह दान कर्ण से अनायास पाता था।
थी विश्रुत यह बात, कर्ण गुणवान ओर ज्ञानी हैं,
दीनों के अवलम्ब, जगत के सर्वश्रेष्ठ दानी हैं।
जाकर उनसे कहो, पड़ी
जिसपर जैसी विपदा हो,
गो, धरती,
गज, वाजि माँग लो, जो जितना
भी चाहो।
नाहीं' सुनी
कहाँ, किसने, कब, इस दानी के मुख से ?
धन की कौन बिसात ? प्राण भी दे सकते वे सुख से ?
और दान देने में वे कितने विनम्र रहते हैं!
दीन याचकों से भी कैसे मधुर वचन कहते हैं ?
करते यों सत्कार कि मानों, हम हों नहीं मिखारी,
वरन् , माँगते
जो कुछ उसके न््यायसिद्ध अधिकारी ।
और उमड़ती है प्रसन्न दृग में कैसी जलधारा,
मानों, सौंप रहे
हों हमको ही वे न्यास हमारा।
युग - युग जियें कर्ण, दलितों के वे दुख-देन्य-हरण हैं,
कल्पवृक्ष धरती के, अशरण की अप्रतिम शरण हैं।
पहले ऐसा दानवीर धरती पर कब आया था!
इतने अधिक जनों को किसने यह सुख पहुँचाया था-?
ओर सत्य ही, कर्ण
दानहित ही संचय करता था,
अर्जित कर बहु विभव निःस्व, दीनों का घर भरता था।
गो, घरती,
गज, वाजि, अन्न, धन, वसन, जहाँ जो पाया,
दानवीर ने हृदय खोल कर उसको वहीं लुटाया।
फहर रही थी मुक्त चतु्रदिक् यश की विमल पताका,
कर नाम पड़ गया दान की अतुलनीय महिम का |
श्रद्धा- सहित नमन करते सुन नाम देश के ज्ञानी,
अपना भाग्य समझ भज़ते थे उसे भाग्यह्त प्राणी |
तब कहते हैं, एक
बार हटकर प्रत्यक्ष समर से,
किया नियति ने वार करे पर, छिपकर, पुण्य-विवर से |
व्रत का निकष दान था, अबकी चढ़ी निकष पर काया,
कठिन मूल्य मॉगने सामने भाग्य देह घर आया।
एक दिवस जब छोड़ रहे थे दिनमणि मध्य गगन को,
कर्ण जाह्नवी - तीर खड़ा था मुद्रित किये नयन को,
कटि तक डूबा हुआ सलिल में, किसी ध्यान में रत-सा,
अम्बुधि में आकटक निमज्जित कनक-खचित पर्वत-सा,
हसती थीं रश्मियाँ रजत से भरकर वारि विमल को,
हो उठती थीं स्वयं स्वर्ण छू कवच ओर कुंडल को |
किरण - सुधा पी कमल मोद में भरकर दमक रहा था,
कदली के चिकने पांतों पर पारद चमक रहा था।
विहग लता-वीरुध-वितान में तट पर चहक रहे थे,
धूप, दीप,
कपू र, फूल, सब समिलकर
महक रहे थे।
पूरी कर पूज्ञा - उपासना ध्यान कर्ण ने खोला,
इतने में ऊपर तट पर खर - पात कहीं कुछ डोला।
कहा कर्ण ने, कौन
उघर है? बन्धु, सामने आओ,
मैं प्रस्तुत हो चुका, स्वस्थ हो, निज आदेश सुनाओ ।
अपनी पीड़ा कहो, कर्ण सबका विनीत अनुचर है,
यह विपन्न का सखा तुम्हारी सेवा में तत्पर है।
माँगो, माँगो
दान अन्न या वसन, धाम या धन दूँ ?
अपना छोटा राज्य याकि यह क्षणिक,
छुद्र जीवन दू ?
मेघ भले लौटे उदास हो किसी रोज सागर से,
याचक फिर सकते निराश पर, नहीं कर्ण के घर से ।
पर का दुःख हरण करने में ही अपना सुख माना,
भाग्यहीन मैंने जीवन में और स्वाद क्या जाना ?
आओ, उऋण बनू.तुमको
भी न्यास तुम्हारा देकर,
उपकृत करो मुझे, अपनी संचित निधि मुझसे लेकर ।
अरे, कौन है भिक्ष
यहाँ पर ? और कौन दाता है?
अपना ही अधिकार मनुज नाना विधि से पाता है।
कर पसार कर जब भी तुम मुझसे कुछ ले लेते हो,
तृप्त भाव से हेर मुझे क्या चीज नहीं देते हो ?
दीनों का संतोष, भाग्यहीनों की गदगद बाणी,
नयनकोर से भरा लबालबबबब कृतज्ञता का पानी,
हो जाना फिर हरा युगों से मुरझाये अधरों का,
पाना आशीर्वचन, प्रेम,
विश्वास अनेक नरों का |
इससे बढ़कर और प्राप्ति क्या जिस पर गर्व करें हम ?
पर को जीवन मिले अगर तो हँस-कर क्यों न मरें हम ?
मोल - तोल कुछ नहीं, माँग लो जो कुछ तुम्हें सुहाये,
मुह - माँगा ही दान सभी को हम हें देते आये।
गिरा गहन सुन चकित और मन-ही-मन कुछ भरसाया,
लता - ओट से एक विप्र सामने कर्ण के आया।
कहा कि जय हो, हमने
भी है सुनी सुर्कीति-कहानी,
नहीं आज कोई त्रिलोक में कहीं आप-सा दानी।
नहीं फिराते एक बार जो कुछ मुख से कहते हैं,
प्रण-पालन के लिए आप बहु भाँति कष्ट सहते हैं।
आश्वासन से दी अभीत हो सुख विपन्न पाता है,
कर्णावचन सर्वत्र कार्यवाचक माना जाता है।
लोग दिव्य शत-शत प्रमाण निष्ठा के बतलाते हैं,
शिवि-दधिचि-प्रह्लाद-कोटि में आप गिने जाते हैं।
सबका है. विश्वास, मृत्यु से आप न डर सकते हैं,
हँस कर प्रण के -लिए प्राण न््यौछावर कर सकते हैं ।
ऐसा है तो मनुज - लोक, निश्चय, आदर पायेगा,
स्वर्ग किसी दिन भीख माँगने मिट्टी पर आयेगा।
किन्तु, भाग्य
है बली, कौन किससे कितना पाता है,
यह लेखा नर के ललाट में ही देखा जाता है।
'क्षुद्र पात्र हो मग्न कूप में ज्ञितना जल लेता है,
उससे अधिक वारि सागर भी उसे नहीं देता हे।
अतः, व्यर्थ है
देख बड़ों को बड़ी वस्तु की आशा,
'किस्सत भी चाहिए, नहीं केवल ऊँची अमभिलाषा।
कहा कर्ण ने, वृथा
भाग्य से आप डरे जाते हैं,
जो है सम्मुख खड़ा उसे पहचान नहीं पाते हैं।
विधि ने था क्या लिखा भाग्य में,
खूब जानता हूँ मैं,
बाँहों को पर, कहीं
भाग्य से बली मानता हूँ मैं ।
महाराज, उद्यम
से विधि का अँक उलट जाता है,
किस्मत का पासा पौरुष से हार उलट जाता है।
और उच्च अभिलाषाएँ तो मनुज मात्र का बल हैं
जगा - जगा कर हमें वही तो रखती नित चंचल हैं।
आगे जिसकी नजर नहीं, वह भला कहाँ जायेगा ?
अधिक नहीं चाहता, पुरुष .वह कितना धन पायेगा ?
अच्छा, अब उपचार
छोड़ बोलिए आप क्या लेंगे
सत्य मानिए, जो
माँगेंगे आप, वहीं हम देंगे।
मही डोलती और डोलता नभ में देव-निलय भी, .
कभी - कभी डोलता समर में किंचित् वीर - हृदय भी,.
डोले मूल अचल पर्वत का या डोले ध्रुवतारा,
सब डोलें, पर
नहीं डोल सकता है वचन हमारा!
भलीभाँति कस कर दाता को बोला नीच भिखारी,
धन्य-धन्य, राधेय,
दान के अति अमोघ व्रतधारी।
ऐसा है औदार्य, तभी
तो कहता प्रति याचक हे,
महाराज का वचन सदा, सर्वत्र क्रियावाचक है।
मैं सब-कुछ पा गया प्राप्त कर वचन आपके मुख से,
अब तो मैं कुछ लिये बिना भी जा सकता हूँ सुख से |
क्योंकि माँगना है जो कुछ उसको कहते डरता हूँ।
और साथ ही, एक
द्विधा का भो अनुभव करता हैँ ।
कहीं आप दे सके नहीं जो कुछ मैं घन मॉँगूंगा,.
मैं तो भला किसी विध अपनी अभिलाषा त्यागूंगा;
किन्तु, आपकी कीर्त्ति-
चाँदनी फीकी हो जायेगी,
निष्कलंक विधु कहाँ दूसरा फिर बसुधा पायेगी ?
है सुकर्म क्या संकट में डालना मनस्वी नर को?
प्रण से डिगा आपको दूँगा क्या उत्तर जग भर को?
सब कोसेंगे मुझे कि मैंने पुण्य मही का लूटा,
मेरे ही कारण अभंग प्रण महाराज का टूटा
अतः, विदा दें
मुझे, खुशी से मैं वापस जाता हूँ।
बोल उठा राघेय, आपको
मैं अदुभुत पाता हूँ।
सुर हैं याकि यक्ष हैं अथवा हरि के मायाचर हें,
समझ नहीं पाता कि आप नर हैं या योनि इतर हैं ।
भला कौन-सी वस्तु आप मुझ नश्वर से माँगेंगे,
जिसे नहीं पाकर निराश हो अभिलाषा त्यागेंगे ।
गो, धरती,
धन, धाम, वस्तु जितनी
चाहें, दिलवा दूँ,
इच्छा हो तो शीश काट कर पद पर यहीं चढ़ा दूँ।
या यदि साथ लिया चाहें जीवित, सदेह मुझको ही,
तो भी वचन तोड़ कर हूँगा नहीं विप्र का द्रोही।
चलिए, साथ
चलूँगा मैं साकल्य आपका ढोते,
सारी आयु बिता दूँगा चरणों को धोते-धोते।
वचन माँग कर नहीं मॉगना दान बड़ा अद्भुत हैः
कौन वस्तु है जिसे न दे सकता राघा का सुत है ।
विप्रदेव | माँगिए
छोड़ संकोच वस्तु मनचाही,
मरूँ अयश की मृत्यु करूँ यदि एक बार भी नाहीं।
सहम गया सुन शपथ कर्ण की, हृदव विप्र का डोला,
नयन झुकाये हुए भिक्षु साहस समेट कर बोला,
धन का लेकर भीख नहीं मैं घर भरने आया हूँ,
और नहीं नृप को अपना सेवक करने आया हूँ।
यह कुछ मुझको नहीं चाहिए, देव धर्म को बल दें;
देना हो तो मुझे कृपा कर कवच और कुंडल दें ।
कवच और कुंडल ! विद्युत् छू गई कर्ण के तन को,
पर, कुछ सोच
रहस्य कहा उसमे गंभीर कर मन को ।
समझा, तो यह और
न कोई, आप स्वयं सुरपति हें,
देने को आये प्रसन्न हो तप में नई प्रगति हैं।
धन्य हमारा सुयश आपको खींच मही पर लाया,
स्वर्ग भीख माँगने आज, सच ही, मिट्टी पर आया।
क्षमा कीजिए, इस
रहस्य को तुरंत न जान सका मैं,
छिपकर आये आप, नहीं
इससे पहचान सका मैं।
दीन विप्र ही समझ कहा-धन, घाम, धरा लेने को,
था क्या मेरे पास अन्यथा सुरपति को देने को ?
केवल गन्ध जिन्हें प्रिय, उनको स्थल मनुज क्या देगा ?
ओर व्योमवासी मिट्टी से दान भला क्या लेगा ?
फिर भी देवराज भिक्षु बन कर यदि हाथ पसारें,
जो भो हो, पर,
इस सुयोग को हम क्यों अशुभ विचारों ।
अतः, आपने जो
माँगा है, दान वही मैं दूँगा,
शिवि-दधिचि की पंक्ति छोड़कर जग में अयश न लूंगा ।
पर, कहता हूँ,
मुझे बना निप्राण छोड़ते हैं.क्यों ?
कवच और. कुंडल ले करके प्राण छोड़ते हैं क्यों ?
यह, शायद,
इसलिए कि अजुन जिये, आप सुख लूटें,
व्यर्थ न उसके शर अमोघ मुझपर टकरा कर टूटें।
उधर करें बहु भाँति पाथ की स्वयं कृष्ण रखवाली,
और इधर में लड़ूं लिये यह देह कवच से खाली ।
तनिक सोचिए, वीरों
का यह योग्य समर क्या होगा ?
इस प्रकार से मुझे मार कर पा अमर क्या होगा ।
एक बाज का पंख तोड़ कर करना अभय अपर को,
सुर को शोभे भले, नीति यह नहीं शोभती नर को ।
यह तो निहत शरभ पर चढ़ आखेटक पद पाता है,
जहर पिला मृगपति को उसपर पौरुष दिखलाना है ।
यह तो साफ समर से होकर भीत विमुख होना है।
जय निश्चित हो जाय: तभी रिपु के सम्मुख होना है ।
देवराज ! हम जिसे जीत सकते न बाहु के बल से,
क्या है उचित उसे मारें हम न्याय छोड़ कर छल से ।
हार-जीत क्या चीज ? वीरता की पहचान समर है,
सच्चाई पर कभी हार कर भी न हारता नर है।
और पार्थ यदि विना लड़े हो जय के लिए विकल है,
तो कहता हूँ, इस
जय का भी एक उपाय सरल है।
कहिए उसे, मोम
की मेरी एक मूर्ति बनवाये,
और काट कर उसे, जगत
में कर्णजयी कहलाये |
जीत सकेगा मुझे नहीं वह और किसी विधि रण में,
कर - विजय की आस तड़प कर रह जायेगी मन में।
जीते जूझ समर वीरों ने सदा बाहु के वल से,
मुझे छोड़ रक्षित जन्मा था कौन कवच - कुंडल से ।
मैं ही था अपचाद, आज वह भी विभेद हरता हूँ,
कवच छोड़ अपना शरीर सबके समान करता हूँ।
अच्छा किया कि आप मुझे समतल पर लाने आये,
हर तनुत्र देवीय मनुज सामान्य बनाने आये।
अब न कहेगा जगत, कर्ण को ईश्वरीय भी बल था,
जीता वह इसलिए कि उसके पास कवच-कु'डल था।
महाराज ! किस्मत ने मेरी की न कौन अवहेला
किस आपत्ति - गर्त में उसने मुझको नहीं ढकेला ?
जन्मा जानें कहाँ, पला पद-दर्लित सूत के कुल में,
परिभव सहता रहा विफल प्रोत्साहन-हित व्याकुल में |
द्रोणदेव से हो निराश बन में भृगुपति तक घाया,
बड़ी भक्ति की, पर,
बदले में शाप भयानक पाया।
ओर दान, जिसके
कारण ही हुआ ख्यात मैं जग में,
आया है बन विघ्न सामने आज विजय के मग में ।
ब्रह्मा के द्वित उचित मुझे क्या इस प्रकार छलना था ?
हवन डालते हुए यज्ञ में मुझको ही जलना था?
सबको मिली स्नेह की छाया,. नई-नई सुविधाएँ,
नियति भेजती रही सदा पर, मेरे हित विपदाएं,
मन - ही - मन सोचता रहा हूँ, यह रहस्य भी क्या है,
खोज - खोज घेरती मुझी को क्यों बाघा-विपदा है ।
आर कहें यदि पूर्व जन्म के पापों का यह फल है,
'तो फिर विधि ने दिया मुझे क्यों कवच और कुंडल है?
“समझ नहीं पड़ती, विरंचि की बड़ी जटिल है माया,
सब-कुछ पाकर भी मैंने यह भाग्य-दोष क्यों पाया?
जिससे मिलता नहीं सिद्ध फल मुझे किसी भी व्रत का,
उलटा हो जाता प्रभाव मुझपर आ धर्म सुगत का।
'गंगा में ले जन्म, वारि गंगा का पी न सका मैं,
'किये सदा सत्कर्म, छोड़ चिन्ता पर, जी न सका मैं ।
जानें क्या मेरी रचना में था उद्देश्य प्रकृति का?
मुझे बना आगार शूरता का, करुणा का, धृति का,
देवोपम गुण सभी दान कर, जानें, क्या करने को,
दिया भेज भू पर केवल बाधाओं से लड़ने को ?
फिर कहता हैँ, नहीं
व्यर्थ राधेय यहाँ आया है,
एक नया संदेश विश्व के हिंत वह भी लाया हें।
स्यात् , उसे
भी नया पाठ मनुज़ों को सिखलाना है,
जीवन -जय के लिए कहीं कुछ करतब दिखलाता है ।
वह करतव है यह कि शूर जो चाहे कर सकता है,
नियति-भाल पर पुरुष पाँव निज बल से घेर सकता हे।
वह करतब है यह कि शक्ति वसती न बंश या कुल में,
बसती है वह सदा बीर पुरुषों के वक्ष पृथुल में।
वह करतब है यह कि विश्व ही चाहे रिपु हो जाये,
दगा धर्म दे और पुण्य चाहे ज्वाला बरसाये।
पर, मनुष्य तब
भी न कभी सत्पथ से टल सकता है;
बल से अंधड़ को ढकेल वह आगे चल सकता है।
वह करतब है यह कि युद्ध में मारो और मरो तुम,
पर, कुपंथ में
कभी जीत के लिए न पाँव धरों तुम ।
वह करतब है यह कि सत्य-पथ पर चाहे कट जाओ,
विजय-तिलक के लिए करों में कालिख पर, न लगाओ |
देवराज ! छत्त, छद्म,
स्वार्थ, कुछ भी न साथ लाया हूं,
मैं केवल आदर्श एक उनका बनने आया हूं।
जिन्हें नहीं अवलंब दूसरा छोड़ बाहु के बल को,
धर्म छोड़ भजते न कभी जो किसी लोभ से छल को ।
मैं उनका आदर्श, जिन्हें कुल का गौरव ताड़ेगा,
नीचवंशजन्मा कहकर . जिसको जग धिक्कारेगा।
जो समाज की विषम वह्नि में चारों ओर जलेंगे,
पग-पग पर झेलते हुए बाधा निःसीम चलेंगे!
मैं उनका आदर्श कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे,
पूछेगा जग, किन्तु,
पिता का नाम न बोल खकेंगे।
जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा,
मन में लिये उमंग जिन्हें चिर-काल -कलपना होगा ।
मैं उनका आदर्श, किन्तु, जो तनिक न घबरायेंगे,
निज चरित्रबल से समाज में पंद विशिष्ट पायेंगे।
सिंहासन ही नहीं, स्वर्ग भी जिन्हें देख नत होगा,
घर्म-हेतु घन, धाम
लुटा देना जिनका व्रत होगा।
श्रम से नहीं विम्रुख होंगे जो दुख से नहीं डरेंगे,
सुख के लिए पाप से जो नर सन्धि न कभी. करेंगे |
कर्ण-धर्मे होगा धरती पर वलि से नहीं मुकरना,
जीना जिस अप्रतिम तेज से, उसी शान से मरना।
भुज को छोड़ न मुझे सहारा किसी और संबल का,
बड़ा भरोसा था लेकिन, इस कवच और कुंडल का |
पर, उससे भी आज
दूर सम्बन्ध किये लेता हूँ,
देवराज ! लीजिए, खुशी से महादान देता हूँ।
यह लीजिए करण का जीवन और जीत कुरुपति की,
कनक-रचित निश्रेणि अनूपम निज सुत की उन्नति की,
हेतु पांडघों के भय का, परिणाम महाभारत का,
अन्तिम मूल्य किसी दानी जीवन के दारुण व्रत का |
जीवन देकर जय खरीदना, जग में यही चलन है,
विजय दान करता न प्राण को रखकर कोई जन है।
मगर, प्राण रखकर
प्रण अपना आज पालता हूँ मैं,
पूर्णाहुति के लिए विजय का हवन! डालता हूँ मैं ।
देवराज ! जीवन में आगे और कीर्ति क्या लूगा ?
इससे बढ़कर दान अनूपम भला किसे,
क्या दूँगा?
अब जाकर कहिए कि पुत्र ! मैं वृथा नहीं आया हूँ,
अजुन तेरे लिए कर्ण से विजय माँग लाया हूँ?
एक विनय है और, आप
लौटें जब अमरभुवन को,
दे दें यह सूचना सत्य की खातिर चतुरानन को।
“उद्वेलित जिसके निमित्त प्रथ्वीतल का जन - जन है,
कुरुक्षेत्र में अभी शुरू भी हुआ नहीं वह रण है ।
दो वीरों ने किन्तु, लिया कर आपस में निपटारा,
हुआ जयी राधेय और अर्ज़ुन इस रण में हारा।”
यह कह, उठा कृपाण
कर्ण ने त्वचा छील क्षण भर में,
कवच और कुंडल उतार, धर दिया इन्द्र के कर में |
चकित, भीत चहचहा
उठे कुंजों में विहग विचारे,
दिशा सन्न रह गई देख यह दृश्य भीति के मारे।
सह न सके आघात, सूर्य
छिप गये सरक कर घन में,
साधु, साधु;की गिरा मन्द्र गूँजी गंभीर गगन में।
अपना कृत्य विचार, करे का करतब देख निराला,
देवराज का मुखमंडल पड़ गया ग्लानि से काला।
किलन्न कवच को लिये किसी चिन्ता में पगे हुए - से,
ज्यों - के - त्यों रह गये इन्द्र जड़ता में ठगे हुए - से ।
पाप हाथ से निकल मनुज के सिर पर जब छाता है,
तब, सत्य ही,
प्रदाह प्राण का कहा नहीं जाता है।
अहंकारवश इन्द्र सरल नर को छलने आये थे,
नहीं त्याग के महातेज - सम्मुख जलने आये थे।
मगर विशिख जो लगा कर्ण की वलि का आन हृदय में,
बहुत काल तक इन्द्र मौन रह गये मग्न विस्मय में |
झुका शीश आखिर वे बोले, अब क्या बात कहूँ में ?
करके ऐसा पाप मूक भी केसे किन्तु,
रहूँ मैं ?
पुत्र | सत्य ही,
तूने पहचाना, मैं ही सुरपति हूँ,
पर, सुरत्व को
भूल निवेदित करता तुमे प्रणति हूँ।
देख लिया, जो
कुछ देखा था कभी न अबतक भू पर,
आज तुला पर भी नीचे है मही, स्वर्ग है ऊपर ।
क्या कह करूँ प्रबोध ? जीभ काँपती, प्राण हिलते हैं,
माँगूँ क्षमादान, ऐसे तो शब्द नहीं मिलते हैं।
दे पावन पदधूल कण ! दूसरी न मेरी गति है,
पहले भी थी भ्रमित, अभी भी फंसी भँवर में मति है।
नहीं जानता था कि छद्म इतना संहारक होगा,
दान कवच - कुंडल का ऐसा हदय-दिदारक होगा।.
मेरे मन का पाप मुझी पर वनकर धूम घिरेगा,
वज्र भेद कर तुझे तुरत मुझ पर भी आन गिरेगा।
तेरे महातेज के आगे मलिन हुआ जाता हूँ;
करण ! सत्य ही, आज
स्वयं को बड़ा छुद्र पाता हूँ।
आह ! खली थी कमी नहीं मुझको यों लघुता मेरी,
दानी ! कहीं दिव्य है मुझसे आज छाँह भी तेरी ।
तृण-सा विवश डूबता, उगता, बहता, उतराता हूँ,
शील-सिन्धु की गहराई का पता नहीं पाता हूँ।
घूम रहा मन-ही-मन लेकिन, मिलता नहीं किनारा,
हुई परीक्षा पूर्ण, सत्य ही, नर जीता, सुर हारा।
हाँ, पड़
पुत्र-प्रेम में आया था छल ही करने को,
जान-बूझकर कवच और कुंडल तुझसे हरने को।
सो, छल हुआ
प्रसिद्ध किसे क्या मुख अब दिखलाऊँगा
आया था बन विप्र, चोर बन कर वापस जाऊँगा।
वन््दनीय तू कर्ण, देखकर तेज तिग्म अति तेरा,.
कॉप उठा था आते ही देवत्वपूर्ण मन मेरा।
किन्तु, अभी तो
तुझे देख मन और डरा जाता हैं,
हृदय सिमटता हुआ आप-ही-आप मराजाता है।
दीख रहा तू मुझे ज्योति के उज्ज्वल शैल अचल-सा,
कोटि-कोटि जन्मों के संचित महापुण्य के फल-सा।
त्रिभुवन में जिन अमित योगियों का प्रकाश जगता है,
उनके पुंजीभूत रूप -सा तू मुझको लगता है।
'खड़े दीखते जगन्नियन्ता पीछे मुझे गगन में,
बड़े प्रेम से लिये तुझे ज्योतिर्मय आलिंगन में।
'दान, घर्म, अगणित व्रतसाधन,
योग, यज्ञ, तप तेरे,
सब प्रकाश बन खड़े हुए हैं तुझे चतुर्दिक घेरे।
मही मग्न हो तुझे अंक में लेकर इठलाती है,
मस्तक सूँघ स्वत्व अपना यह कहकर बतलाती है।
इसने मेरे अमित मलिन पुत्रों का दुख मेटा हे,
सूर्यपुत्र यह नहीं, कर्ण मुझ दुखिया का बेटा है।
तू दानी, मैं
कुटिल प्रवंचक, तू. पवित्र, मैं पापी,
तू देकर भी सुखी और में लेकर भी परितापी।
तू पहुँचा है जहां कर्ण, देवत्व न जा सकता है,
इस महान् पद को कोई मानव ही पा सकता है।
देख न सकता अधिक और मैं कर्ण, रूप यह तेरा,
काट रहा है मुझे जागकर पाप भयानक मेरा।
तेरे इस पांवन स्वरूप में जितना ही पगता हूँ,
'उतना ही मैं और अधिक' बर्बर - समान लगता हूँ।
अतः कर्ण ! कर कृपा यहाँ से तुरत मुझे! जाने दे,
अपने इस दुर्धर्ष तेज से त्राण मुझे पाने दे।
मगर, विदा देने
के पहले एक कृपा यह कर तू
मुझ निष्ठुर से भी कोई ले माँग सोच कर वर तू।
कहा कर्ण ने, घन्य
हुआ मैं आज सभी कुछ देकर,
देवराज ! अब क्या होगा वरदान नया कुछ लेकर !
बस, आशिष दीजिए,
घर्म में मेरा भाव अचल हो,
वही छत्र हो, वही
मुकुट हो, वही कवच-कुण्डल हो।
देवराज बोले कि कर्ण! यदि धर्म तुझे छोड़ेगा,
निज रक्षा के लिए नया सम्बन्ध कहाँ जोड़ेगा?
और घर्म को तू छोड़ेगा भला पुत्र |
किस भय से,
अभी-अभी रक्खा जब इतना ऊपर उसे विजय से ।
धर्म नहीं, मेंने
तुझसे जो वस्तु हरण कर ली है,
छल से कर आधात तुझे जो निस्सहयता दी है,
उसे दूर या कम करने की है. मुझको अभिलाषा,
पर; स्वेच्छा से
नहीं पूजने देगा तू यह आशा।
तू माँगे कुछ नहीं, किन्तु, मुझको अवश्य देना है,
मन का कठिन बोझ थोड़ा-सा हल्का कर लेना है।
ले अमोघ यह अस्त्र, काल को भी यह खा सकता है,
इसका कोई वार किसी पर विफल न जा सकता है।
एक बार ही मगर, काम
तू इससे ले पायेगा,
फिर यह तुरत लौटकर मेरे पास चला जायेगा।
अतः, वत्स ! मत
इसे चलाना कभी वृथा चंचल हो,
लेना काम तभी जब तुझको और न कोई बल हो।
दानवीर ! जय हो, महिमा का गान सभी जन गायें,
देव और नर, दोनों
ही तेरा चरित्र अपनायें |
दे अमोघ शर - दान सिधारे देवराज अम्बर को,
'ब्रत का अन्तिम मूल्य चुका कर गया कर्ण निज घर को |.
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