सप्तम सर्ग
१
निशा बीती, गगन
का रूप दमका,
किनारे पर किसी का चीर चमका।
क्षितिज के पास लाली छा रही है,
अतल से कौन ऊपर आ रही है?
सँभाले शीश पर आलोक - मंडल
दिशाओं में जड़ाती ज्योतिरंचतल,
किरण में स्निग्ध आतप फेकती - सी,
शिशिर - कंपित, द्रमों
को सेंकती - सी,
खंगों का स्पर्श से कर पंख -मोचन
कुसुम के पोंछती हिम - सिक्त लोचन,
दिवस की स्वामिनी आई गगन में,
उड़ा कुंकुम, जगा
जीवन भुवन में।
मगर, नर बुद्धि
- मद से चूर होकर,
अलग बैठा हुआ है दूर होकर,
उषा पोंछे भला फिर आँख कैसे ?
करे उन्मुक्त मन की पाँख केसे ?
मनुज विभ्राट ज्ञानी हो चुका हैं,
कुतुक का उत्स पानी हो चुका है,
प्रकृति में कौन वह उत्साह खोजे ?
सितारों के हृदय में राह खोजे ?
विभा नर को नहीं भरमायगी यह १
मनस्वी को कहाँ ले जायगी यह?
कभी मिलता नहीं आराम इसको,
न छेड़ो, हैं
अनेकों काम इसको।
महाभारत सही पर चल रहा है,
भुवन का भाग्य रण में जल रहा है।
मनुज ललकारता फिरता मनुज को,
मनुज ही मारता फिरता मनुज को।
पुरुष की बुद्धि गौरव खो चुकी है,
सहेली सर्पिणी की हो चुकी है,
न छोड़ेगी किसी अपकर्म को वह,
निगल ही जायगी सद्धर्म को वह।
मरे अभिमन्यु अथवा भीष्म टूटें,
पिता के प्राण सुत के साथ छूटें,
मचे घनघोर हाहाकार जग में,
भरे बैधव्य की चीत्कार जग में,
मगर, पत्थर हुआ
मानव - हृदय है,
फकत, वह खोजता
अपनी विजय हैं,
नहीं ऊपर उसे यदि पायेगा वह,
पतन के गतें में भी जायेगा वह।
पड़े, सबको लिये
पाण्डव पतन में,
गिरे जिस रोज द्रोणाचार्य रण में,
बड़े धरम", भावुक और भोले,
युधिष्ठिर जीत के हित झूठ बोले।
नहीं थोड़े बहुत का भेद मानो,
बुरे साधन हुए तो सत्य जानो,
गलेंगे बफे में मन भी, नयन भी,
अंगूठा ही नहीं, संपूर्ण तन भी।
नमन उनकों, गये
जो स्वर्ग मर कर,
कलंकित शत्रु को, निज को अमर कर,
नहीं अवसर अधिक दुख - दैन्य का है,
हुआ राधेय नायक सैन्य का है।
जगा लो वह निराशा छोड़ करके,
द्विधा का जाल झीना तोड़ करके,
गरजता - ज्योति के आधार ! जय हो,
चरसे आलोक मेरा भी उदय. हो।
बहुत धुधुआ चुकी, अब आग फूटे,
किरण सारी सिमट कर आज छूटे।
छिपे हों देवता! अंगार जो भी।'
दबे हों प्राण में हुंकार जो भी;
उन्हें पुँजित करों, आकार दो हे!
मुझे मेरा ज्वलित श्रृंगार दो हे!
पवन का वेग दो, दुर्जय
अनल दो,
विकर्तन ! आज अपना तेज - बल दो!
मही का सूर्य्य होना चाहता हूँ,
विभा का तूर्य होना चाहता हूँ।
समय को चाहता हूँ दास करना,
अभय हो मृत्यु का उपहास करना।
भुजा की थाह पाना चाहता हूँ,
हिमालय को उठाना चाहता हूँ,
समर के सिन्घु को मथ कर शरों सें,
धरा हूँ चाहता श्री को करों से।
ग्रहों को खींच लाना चाहता हूँ,
हथेली पर नचाना चाहता हूँ।
मचलना चाहता हूँ धार पर मैं,
हँसा हूँ. चाहता अंगार पर मैं।
समूचा सिन्धु पीना चाहता हूँ,
धधक कर आज़ जीना चाहता हूँ,
समय को बन्द करके एक क्षण में,
चमकना चाहता हूँ हो सघन मैं।
असंभव कल्पना साकार होगी,
पुरुष की आज जयजयकार होगी।
समर वह आज ही 'होगा
मही पर,
न जैसा था हुआ पहले कहीं पर।
चरण का भार लो, सिर
पर संभालो,
नियति की दूतियों ! मस्तक झुका लो |
चलो, जिस भाँति
चलने को कहूँ मैं,
ढ़लो, जिस भाँति
ढ़लने को कहूँ मैं।
न कर छल - छुद्म से आघात फूलों,
पुरुष हूँ मैं, नहीं
यह बात भूलो
कुचल दूँगा, निशानी
मेद दूँगा,
चढ़ा दुर्जेय भुजा की भेंद दूँगा।
अरी, यों भागती
कबतक चलोगी ?
मुझे ओ वंचिके | कबतक छलोगी ?
चुराओगी कहाँ तक दाँव मेरा!
रखोगी रोक कबतक पाँव मेरा!
अभी भी सत्त्व है उद्दाम तुमसे,
हृदय की भावना निष्काम तुमसे,
चले संघर्ष आठों याम तुमसे,
करूँगा. अन्त तक संग्राम तुमसे।
कहाँ तक शक्ति से वंचित करोगी ?
कहाँ तक सिद्धियाँ मेरी हरोगी
तुम्हारा छुद्म सारा शेष होगा,
न संचय कर्ण का निःशेष होगा।
कवच - कुण्डल गया; पर, प्राण तो हैं,
भुजा में शक्ति, धनु “पर बाण तो हैं,
गई एकन्नि तो सब कुछ गया क्या?
बचा मुझमें नहीं कुछ भी नया क्या
समर की शूरता साकार हूँ मैं,
महा मार्तण्ड का अवतार हूँ मैं।
विभूषण वेद - भूषित कर्म मेरा,
कवच है आज तक का धर्म मेरा।
तपस्याओ ! उठो, रण
में गलो तुम,
नई एकघ्नियाँ बन कर ढलो तुम,
अरी आओ सिद्धियों की आग, आओ,
प्रलय. का तेज बन मुझमें समाओ।
कहाँ हो पुण्य बाँहों में भरो तुम,
अरी व्रत - साधने ! आकार लो तुम ।
हमारे योग की पावन शिखाओ,
समर में आज मेरे साथ आओ।
उगी हों ज्योतियाँ यदि दान से भी,
मलनुज - निष्ठा, दलित - कल्याण से भी,
चलें वे भी हमारे साथ होकर |
पराक्रम - शोर्य की ज्वाला सँजो कर |
हृदय से पूजनीया मान करके,
बड़ी ही भक्ति से सम्मान करके,
सुवामा - जाति को सुख दे सका हूँ,
अगर आशीष उनस्रे ले सका हूँ,
समर में तो हमारा वर्म दो वह,
सहायक आज ही सत्कमें हो वह ।
सहारा. माँगता हूँ पुण्य - बल का,
उजागर धर्म का, निष्ठा
अचल - का।
प्रवंचित हूँ, नियति
की दृष्टि में दोषी बड़ा हूँ,
विधाता से किये विद्रोह जीवन में खडा हूँ।
स्वयं भगवान मेरे शत्रु की ले चल रहे हैं,
अनेकों भाँति से गोबिन्द मुझको छल रहे हैं।
मगर, राधेय का
स्यन्दन नहीं तब भी रुकेगा,
नहीं गोविन्द को भी युद्ध में मस्तक भुकेगा,
बताऊँगा उन्हें मैं आंज, नर का धर्म क्या है,
समर कहते किसे हैं और जय का मर्म क्या है।
बचा कर पाँव धरना, थाहते चलना समर को,
बनाना आस अपनी मृत्यु का योद्धा अपर को,
'पुकारे शत्रु तो छिप व्यूह में प्रच्छन्न रहना,
सभी के सामने ललकार को मन मार सहना।
प्रकट. होना विपद के बीच में प्रतिवीर हो जब,
धनुष ढीला, शिथिल
उसका जरा कुछ तीर हो जब।
कहाँ का धर्म ? केसी
भर्त्सना की बात है यह
नहीं यह वीरता, कौटिल्य
का अपघात है यह ।
समझ में कुछ न आता, कृष्ण क्या सिखला रहे हैं,
जगत को कौन नूतन पुण्य-पथ दिखला रहे हैं।
हुआ वध द्रोण का कल जिस तरह वह घर्म था क्या ?
समर्थन-योग्य केशव के लिए वह कर्म था क्या ?
यही धर्मिष्ठता ? नय-नीति का पालन यही है?
मनुज मलपुंज के मालिन्य का क्षालन यही हैं?
यही कुछ देखकर संसार क्या आगे बढ़ेगा
जहाँ गोविन्द हैं, उस श्रृंग के ऊपर चढ़ेगा ?
करें भगवान जो चाहें, उन्हें सब कुछ क्षमा है,
मगर क्या वज्र का विस्फोट छींटों से थमा है?
चलें वे बुद्धि की ही चाल, में बल से चलूँगा,
न तो उनको, न
होकर जिह्म अपने को छलूँगा।
डिगाना धर्म क्या इस चार बित्तों की महीं को ?
भुलाना क्या मरण के बादवाली जिन्दगी को?
बसाना एक पुर क्या लाख जन्मों को जला कर !
मुकुट गढ़ना भला क्या पुण्य को रण में गला कर ?
नहीं राधेय सत्पथ छोड़ कर अघ-ओक लेगा,
विजय पाये न पाये, रश्मियों का लोक लेगा !
विजय-गुरु कृष्ण हों, गुरु किन्तु, मैं वलिदान का हूँ;
असीसें देह को वे, मैं निरन्तर प्रांण का हूँ।
जगी, वलिदान की
पावन शिखाओ,
समर में आज कुछ करतब दिखाओ।
नहीं शर ही, सखा
सत्कर्म भी हो,
धनुष पर आज़ मेरा धर्म भी हो।
मचे भूडोल प्राणों के महत्न में,
समर डूबे हमारे बाहु - बल में।
गगन से बज्र की बौछार छूटे,
किरण के तार से झंकार फूटे।
चलें अचलेश, पारावार
डोले;
मरण अपनी पुरी का द्वार खोले।
समर में ध्वंस फटने जा रहा है,
महीमंडल उलटने जा रहा है।
अनूठा कर्ण का रण आज होगा,
जगत को काल - दर्शन आज होगा।
प्रलथ का भीम नर्तन आज होगा,
वियद्व्यापी विवर्तन आज होगा।
विशिख जब छोड़ कर तरकस चलेगा,
नहीं गोविन्द का भी बस चलेगा।
गिरेगा पार्थ का सिर छिन्न धड़ से,
जयी. कुरुराज लौटेगा समर से।
बड़ा आनन्द उर में छा रहा है,
लहू में ज्वार उठता जा रहा है।
हुआ रोमांच यह सारे बदन में,
उगे हैं या कटीले चृक्ष तन में।
अहा! भावस्थ होता जा रहा हूँ,
जगा हैँ या कि सोता जा रहा हूँ?
बजाओ, युद्ध के
बाजे बजाओ,
सजाओ, शल्य !
मेरा रथ सजाओ।
2
रथ सजा, भेरियाँ
धमक उठीं
गहगहा उठा अम्बर विशाल,
कूदा स्यन्दन पर गरज कर्ण
ज्यों उठे गरज क्रोधान्ध काल |
बज उठे रोर कर पटह-कम्बु,
उल्लसित वीर कर उठे हूह,
उच्छल सागर-सा चला कर्ण--
को लिये क्षुब्ध सैनिक - समूह |
हेषा रथाश्व की, चक्र-रोर,
दन्तावल का वृंहित अपार,
टंकार धनुर्गुण की भीषण,
दुर्मद रणशूरों की पुकार।
खलमला उठा ऊपर खगोल,
कलमला उठा पृथ्वी का तन,
सन-सन कर उड़ने लगे विशिख,
झनझना उठीं असियाँ झनझन |
तालोच्च - तरंगावृत बुभुक्षु -सा
लहर उठा संगर - समुद्र,
या पहन ध्वंस की लपट लगा
नाचने समर में स्वयं रुद्र।
हैं कहाँ इन्द्र ! देखें, कितना
प्रज्वलित मर्त्य जन होता है
सुरपति से छले हुए नर का
कैसा प्रचण्ड रण होता है!
अंगार - वृष्टि पा घधक उठे
जिस तरह शुष्क कानन का तृण,
सकता न रोक शस्त्री की गति
पुंजित जैंसे नवनीत मसृण;
यम के समक्ष जिस तरह नहीं
चल पाता बद्ध मनुज का वश,
हो गई पाण्डवों की सेना त्योंही
बाणों से विद्ध, विवश |
भागने लगे नरवीर छोड़ वह
दिशा जिधर भी झुका कर्ण,
भागे जिस तरह लंबा का दल
सामने देख रोषण सुपर्ण ।
रण में क्यों आये आज? लोग
मन ही मन में पछताते थे,
दूर से देख कर भी उसको
भय से सहमे सब जाते थे।
काटता हुआ रण-विपिन क्षुब्ध
राधेय गरजता था क्षण-क्षण,
सुन-सुन निनाद की धमक शत्रु का
व्यूह रचना था क्षण-क्षण।
अरि की सेना की विकल देख
बढ़ चला और कुछ समुत्साह,
कुछ ओर समुद्वेलित होकर
उम्रड़ा भुज का सागर अथाह।
गरजा अशंक हो कर्ण, शल्य !
देखो कि आज क्या करता हूँ,
कौन्तेय - कृष्ण, दोनों को ही
जीवित किस तरह पकड़ता हूँ।
बस, आज शाम तक
यहीं सुयोधन
का जय - तिलक सजा करके,
लौटेंगे हम दुन्दुभि अवश्य
.
जय की रण बीच बजा करके |
इतने में, कुटिल
नियति - प्रेरित
पड़ गये सामने. धर्मराज,
टूटा कृतान्त -सा कर्ण, कोक
पर पड़े टूटे जिस तरह बाज ।
लेकिन, दोनों का
विषम युद्ध
क्षण भर भी नहीं ठहर पाया,
सह सकी न गहरी चोट युधिष्ठिर
की मुनि - कल्प मृदुल काया।
भागे वे रण को छोड़, कर्ण ने
झपट दौड़ कर गहां ग्रीव;
कौतुक से बोला, “महाराज्ञ !
तुम तो निकले कोमल अतीव।
हाँ, भीरु नहीं,
कोमल कहकर
ही जान बचाये देता हूँ,
आगे की खातिर एक युक्ति
भी सरल बताये देता हूँ।
हैं विप्र आप, सोचिए
धर्म
तरू - तले कहीं निर्जन बन में,
क्या काम साधुओं का, कहिए,
इस महाघोर, घातक
रण में
मत कभी क्षात्रता के धोखे
रण का प्रदाह झेला करिए,
ज़ाइए, नहीं फिर
कभी गरुड़
की झपटों से खेला करिए |”
भागे विपन्न हो समर छोड़
ग्लानि में निमज्ति धर्मराज,
सोचते, “कहेगा क्या
मन में
जानें, यह शूरों
का समाज।
प्राण ही हरणं करके रहने
क्यों नहीं हमारा मान दिया ?
आमरण ग्लानि सहने को ही
पापी ने जीवन - दान दिया।”
समझे न हाय ! कौन्तेय, कर्ण ने
छोड़ दिये किस लिए प्राण,
गरदन पर आकर लौट गई
सहसा क्यों विजयी की कृपाण ?
लेकिन, अदृश्य
ने लिखा, कर्ण ने
वचन धर्म का पाल दिया,
खड्ग का छीन कर ग्रास, उसे
माँ के अंचल में डाल दिया।
कितना पवित्र यह शील ! कर्ण
जब तक भी रहा खड़ा रण में,
चेतनामयी माँ की प्रतिमा
घूमती रही तब तक मन में।
सहदेव, युधिष्टिर,
नकुल, भीम को
बार - बार बस में लाकर,
कर दिया मुक्त हंस कर उसने
भीतर से कुछ इंगित पाकर |
देखता रहा सब शल्य किन्तु,
जब इसी तरह भागे पवितन,
बोला होकर वह चकित कर्ण की
ओर देख यह परुष वचन,
“रे सूतपुत्र | किस लिए विकट
यह कालपृष्ठ धनु धरता है |
मारना नहीं है तो फिर क्यों
वीरों को घेर पकड़ता है?
संग्राम विजय तू इसी तरह
संध्या तक आज करेगा क्या!
मारेगा अरियों को कि उन्हें
दे जीवन स्वयं मरेगा क्या!
रण का विचित्र यह खेल
मुझे तो समझ नहीं कुछ पड़ता है,
कायर ! अवश्य कर याद पार्थ की
तू मन ही मन डरता है।”
हँस कर बोला राधेय, शल्य !
पार्थ की भीति उसको होर्गी,
क्षयमाण, क्षणिक,
भंगुर शरीर
पर मृषा प्रीति जिसको होगी।
इस चार दिनों के जीवन को
में तो कुछ नहीं समझता हूँ,
करता हूँ वही सदा जिसको
भीतर से सही समझता हूँ।
पर, ग्रास छोन
अतिशय बुभुझु
अपने इन बाणों के मुख से,
होकर प्रसन्न हँस देता हूँ
चंचल किस अंतर के सुख से ;
वह कथा नहीं अन्न्तःपुर की
बाहर मुख से कहने की है,
यह व्यथा धर्म के वर - समान
सुख - सहित मौन सहने की है।
सब आँख मूँद कर लड़ते है
जय इसी लोक में पाने को,
पर, कर्ण जूझता
है. कोई
ऊँचा सद्धम निभाने को।
सबके समेत पंकिल सर में
मेरे भी चरण पड़ेंगे क्या!
ये लोभ मृत्तिकामय जग के
आत्मा का तेज हरेंगे क्या?
यह देह टूटनेवाली है, इस
मिट्टी का कब तक प्रमाण ,
मृत्तिका छोड़ ऊपर नभ में
भी तो ले जाना है विमान।
कुछ जुटा रहा सामान खमंडल
मैं सोपान बनाने को,
ये चार फूल फेंके मैंने
ऊपर की राह सजाने को।
ये चार फूल हैं मोल किन्हीं
कातर नयनों के पानी के,
ये चार फूल प्रच्छन्न दान
हैं किसी महाबल दानी के।
ये चार फूल, मेरा
अदृष्ट था
हुआ कभी जिनका कामी,
ये चार फूल पाकर प्रसन्न
हंसते होंगे अन्तर्यामी |
समझोगे नहीं शल्य ! इसको;
यह करतब नादानों का है,
यह खेल जीत से बड़े किसी
मकसद के दीवानों का है।
जानते स्वाद इसका वे ही
जो सुरा स्वप्न की पीते हैं,
दुनिया में रहकर भी दुनिया
से अलग खड़े जो जीते हैं।”
समझा न, सत्य ही;
शल्य इसे,
बोला, 'प्रलाप
यह बन्द करो,
हिम्मत हो तो लो करो समर;
बल हो तो अपना धनुष धरो।
लो, वह देखो,
वानरी ध्वज्ञा
दूर से दिखाई पड़ती है;
पार्थ के महारथ की घर्घर
आवाज सुनाई पड़ती है।
क्या वेगवान हैं अश्व ! देख
विद्युत् शरमाई जाती है,
आगे सेना छट रही, घटा
पीछे से छाई जाती है।
राघेय | काल यह
पहुँच गया,
शायक सन्धानित तूर्ण करो,
थे विकल सदा जिसके हित, वह
लालसा समर की पूर्ण करो।”
पार्थ को देख उच्छल - उमंग-
पूरित डर -पारावार हुआ,
दंभोलि - नाद कर कर्ण कुपित
अंतक - सा भीमाकार हुआ |
बोला, “विधि ने
जिस हेतु पार्थ !
हम दोनों का निर्माण किया,
जिस लिए प्रकृति के अनल-तत्त्व
का हम दोनों ने पान किया।
जिस दिन के लिए किये आये
हम दोनों वीर अथक साधन,
आ गया भाग्य से आज जन्म-
जन्मों का निर्धरित वह क्षण |
आओ हम दोनों विशिख - वह्नि-
पूजित हो जयजयकार करें,
मर्मच्छेदन से एक दूसरे का
जी.,, भर सत्कार
करें।
पर, सावधान,
इस मिलन-विन्दु से
अलग नहीं होना होगा,
हम दोनों में से किसी एक को
आज यहीं सोना होगा।
हो गया बड़ा अतिकाल, आज
फेसला हमें कर लेना है,
शत्रु का याकि अपना मस्तक
काट कर यहीं धर देना है।”
कर्ण का देख यह दर्प पार्थ का
दहक उठा रविकान्त - हृदय,
बोला, “रे सारथिपुत्र
! किया
तूने, सत्य ही
योग्य निश्चय।
पर, कौन रहेगा
यहाँ? बात
यह अभी बताये देता हूँ,
धड़ पर से तेरा शीश मूढ़ !
ले, अभी हटाये
देता हूँ।”
यह कह अर्जुन ने तान कान तक
धनुष - बाण सन्धान किया,
अपने जानते विपक्षी को
हत ही उसने अनुमान किया |
पर, कर्ण मेल वह
महा विशिख
कर उठा काल - सा “अट्टहास,
रण के सारे स्वर डूब गये,
छा गया निनाद से दिशाकाश।
बोला, “शाबाश,
वीर अर्ज़ुन !
यह खूब गहन सत्कार रहा,
पर, बुरा न मानो
अगर आज
कर, मुझ पर वह
बेकार रहा।
मत कवच और कुंडल-विहीन
इस तन को मृदुल कोमल समझो,
साधना - दीप्त वक्षस्थल को
अब भी दुर्भेद्य अचल समझो।
अब लो मेरा उपहार, यही
यमलोक तुम्हें. पहुँचायेगा,
जीवन का सारा स्वाद तुम्हें
बस, इसी बार मिल
जायेगा ।”
कह इस प्रकार राधेय
अधर को दबा, रोद्रता
में भरके,
हुंकार उठा घातिका शक्ति
विकराल शरासन पर धरके।
सँभलें जब तक भगवान, नचायें
इधर - उधर किंचित् स्यन्द्न,
तबतक रथ में ही विकल, विद्ध,
मूर्च्छित हो गिरा पृथानन्दन।
कर्ण का देख यह समर - शौर्य
संगर में हाहाकार हुआ,
सब लगे पूछने, अरे,
पार्थ का क्या सचमुच संहार हुआ ?
पर, नहीं,
मरण का तट छूकर
हो उठा अचिर अजुन प्रबुद्ध,
क्रोधान्ध गरज कर लगा कर्ण
के साथ मचाने द्विरथ-युद्ध ।
प्रावृट्-से गरज -गरज दोनों
करते थे प्रतिभट पर प्रहार,
थी तुला-मध्य संतुलित खड़ी
लेकिन, दोनों की
जीत-हार ।
इस ओर कर्ण मार्त्तण्ड - सदृश,
उस ओर पार्थ अन्तक-समान,
रण के मिस मानों स्वयं प्रलय
हो उठा समर में मूर्त्तिमान ।
जूझना एक क्षण छोड़, स्वतः,
सारी सेना विस्मय-विमुग्घ,
अपलक होकर देखने लगी
दो शितिकंठों का विकट युद्ध |
है कथा, नयन का
लोभ नहीं
संवृत कर सके स्वयं सुरगण,
भर गया विमानों से तिल-तिल
कुरुभू पर कलकल-नदित गगन ।
थी रुकी दिशा की साँस, प्रकृति
के निखिल रूप तन््मय, गभीर,
ऊपर स्तेंभित दिनमणि का रथ,
नीचे नदियों का अचल नीर।
अहा ! यह युग्म दो अद्भुत नरों का,
महा मदमत्त मानव - कुंजरों का;
नृगुण के मूर्त्तिमय अवतार ये दो,
मनुज-कुल् के सुभग श्रृगार ये दो।
परस्पर हो कही यदि एक पाते,
ग्रहण कर शील की यदि टेक पाते,
मनुजता को न क्या उत्थान मिलता ?
अनूठा क्या नहीं वरदान मिलता ।
मनुज़ की जाति का पर शाप है यह,
अभी बाकी हमारा पाप है यह,
बढ़े जो भी कुसुम कुछ फूलते हैं,
अहंकृति में भ्रमित हो भूलते हैं।
नहीं हिलमिल विपिन को प्यार करते,
झगड़ कर विश्व का संहार करते।
जगत को डाल कर निःशेष दुख में,
शरण पाते स्वयं भी काल-मुख में।
चलेगी यह जहर की क्रान्ति कबतक ?
रहेगी शक्ति - वंचित शांति कबतक ,
मनुज मनुजत्व से कबतक लड़ेगा ?
अनल वीरत्व से कबतक भड़ेगा ?
विकृति जो प्राण में अंगार भरती,
हमें रण के लिए लाचार करती,
घटेगी तीव्र उसका दाह कब तक?
मिलेगी अन्य उसको राह कब तक
हलाहल का शमन हम खोजते हें,
मगर, शायद,
विमन हम खोजते हैं,
बुझाते है दिवस में जो जहर हम,
जगाते फूक उसको रात भर हम ।
क्रिया कुंचित, विवेचन
व्यस्त नर का,
हृदय शत भीति से संत्रस्त नर का।
महाभारत मही पर चल रहा है,
भुवन का भाग्य रण में जल रहा है।
चल रहा महाभारत का रण,
जल रहा धरित्री का सुहाग,
फट कुरुक्षेत्र में खेल रही
नर के भीतर की कुटिल आग।
बाजियों - गजों की लोथों में
गिर रहे मनुज के छिन्न अंग,
बह रहा चतुष्पद ओर द्विपद
का रुधिर मिश्र हो एक संग।
गत्वर, गैरेय,
सुघर भूधर-से
लिये. रक्त - रंजित शरीर,
थे जूझ रहे कौन्तेय - कर्ण
क्षण-क्षण करते गजन गभीर ।
दोनों रणकुशल .वलनुर्धर नर,
दोनों समबल, दोनों
समर्थ,
दोनों पर दोनों की अमोध
थी विशिख-बृष्टि हो रही व्यर्थ।
इतने में शर के लिए कर्ण ने
देखा ज्यों अपना निपंग,
तरकस में से फुंकार उठा
कोई प्रचंड विषधर भुजंग।
कहता कि “कर्ण !
मैं अश्वसेन
विश्रुत भुजगों का स्वामी हूँ,
जन्म से पार्थ का शत्रु परम,
तेरा बहुविध हितकामी हूं ।
बस, एक बार कर
कृपा धनुष पर
चढ़ शरव्य - सा जाने दे,
इस महाशत्रु को अभी तुरत
स्यन्दन में मुझे सुलाने दें
कर वमन गरल जीवन भर का
संचित प्रतिशोध उतारूगा,
तू मुझे सहारा दे, बढ़कर
मैं अभी पार्थ को मारूंगा ।
राधेय. जरा हँसकर बोला,
“रे कुटिल! बात क्या कहता है !
जय का समस्त साधन नर का
अपनी बाँहों में रहता है।
उस पर भी साँपों से मिलकर
मैं मनुज मनुज से युद्ध करू ?
जीवन भर जो निष्ठा पाली
उससे आचरण विरुद्ध करू ?
तेरी सहायता से जय तो मैं
अनायास पा जाऊंगा,
आनेवाली मानवता को
लेकिन, क्या
मुख दिखलाऊँगा !
संसार कहेगा जीवन का
सब सुकृत कर्ण ने क्षार किया,
प्रतिभट के बंध के लिए सर्प का
पापी ने साहाय्य लिया।
रे अश्वसेन ! तेरे अनेक
वंशज हैं छिपे नरों में भी
सीमित वन में ही नहीं, बहुत
बसते पुर - ग्राम - घरों में भी ।
ये नर -भुजंग मानवता का
पथ कठिन बहुत कर देते हैं,
प्रतिबल के बध के लिए नीच
साहाय्य सर्प का लेते हैं।
ऐसा न हो कि इन सांपों में
मेरा भी उज्ज्वल नाम चढ़े,
पाकर मेरा आदर्श और
कुछ नरता का यह पाप बढ़े ।
अर्जुन है मेरा शत्रु, किन्तु,
वह सर्प नहीं, नर
ही तो है,
संघर्ष सनातन नहीं, शत्रुता
इस जीवन भर ही तो है।
अगला जीवन किसलिए भला
तब हो द्वेषान्ध बिगांडू' मैं!
सांपों की जाकर शरण
सर्प बन क्यों मनुष्य को मारूँ मैं ,
जा भाग, मनुज का
सहज शत्रु
मित्रता न मेरी पा सकता,
मैं किसी हेतु भी यह कलंक
अपने पर नहीं लगा सकता।”
काकोदर को कर विदा कर्ण
फिर बढ़ा समर में गर्जमान,
अम्बर अनन्त झंकार उठा,
हिल उठे निर्जरों के विमान।
तूफान उठाये चला कर्ण
बल से घकेल अरि के दल को
जैसे प्लावन की धार बहाये
चले सामने के जल को।
पाण्डव - सेना भयभीत - भागती
हुई जिधर भी जाती थी
अपने पीछे दौड़ते हुए
वह आज कर्ण को पाती थी।
रह गई किसी के भी मन में
जय की किंचित् भी नहीं आश,
आखिर, बोले
भगवान सभी' को
देख व्यग्र, व्याकुल,
हताश।
“अर्जुन ! देखो, किस तरह कर्ण
सारी सेना पर टूट रहा,
किस तरह पाण्डवों का पौरुष
होकर अशंक वह लूट रहा।
देखो, जिस तरफ,
उधर उसके
ही बाण दिखाई पड़ते हैं
बस, जिधर सुनो,
केवल उसके
हुंकार सुनाई पड़ते है।
केसी करालता! क्या लाघव !
कितना पौरुष ! कैसा प्रहार !
किस गोरव से यह वीर द्विरद
कर रहा समर-वन में विहार !
व्यूहों पर व्यूह फटे जाते,
संग्राम उजड़ता जाता है,
ऐसी तो नहीं कमलवन में
भी कुंजर धूम मचाता है।
इस पुरुषसिंह का समर देख
मेरे तो हुए निहाल नयन,
कुछ बुरा न मानों, कहता हूँ
मैं आज एक चिर-गुढ़ वचन।
कर्ण के साथ तेरा बल भी
में खूब जानता आया हूँ,
मन ही मन तुमसे बड़ा वीर
पर, इसे मानता
आया हूँ।
ओ! देख चरम वीरता आज तो
यही सोचता हूँ मन में,
है भी कोई जो जीत सके
इस अतुल घनुर्धर को रण में
में चक्र सुदर्शन धरूँ और
गाण्डीव अगर तू तानेगा,
तब भी शायद ही, आज
कर्ण
आतंक हमारा मानेगा।
यह नहीं देह का बल केवल,
द अन्तर्मन के भी विवस्वान
हैं किये हुए मिलकर इसको
इतना प्रचण्ड जाज्वल्यमान |
सामान्य पुरुष यह नहीं, वीर
यह तपोनिष्ठ व्रतधारी है,
मृत्तिका - पुंज यह मनुज
ज्योतियों के जग का अधिकारी है ।
कर रहा काल - सा घोर समर
जय का अनन्त विश्वास लिये,
है घूम रहा निर्भय जानें,
भीतर क्या दिव्य प्रकाश लिये,
जब भी देखो तब आँख गड़ी
सामने किसी अरिजन पर है,
भूल ही गया है एक शीश
इसके अपने भी तन पर हे।
अर्जुन | तुम भी
अपने समस्त
विक्रम - बल का आह्वान करो,
अर्जित असंख्य विद्याओं का
हो सजग हृदय में ध्यान करो ।
जो भी हो तुममें तेज, चरम पर
उसे खींच लाना होगा,
तैयार रहो, कुछ
चमत्कार
तुमको भी दिखलाना होगा ।”
दिनमणि परिचम की ओर ढले
देखते हुए संग्राम घोर,
गरजा सहसा राघधेय, न जानें,
किस प्रचंड सुख में विभोर।
“सामने प्रकट हो प्रलय |! फाड़
तुमको मैं राह बनाऊंगा,
जाना है तो तेरे भीतर
संहार मचाता जाऊँगा।
क्या धमकाता है काल ? अरे,
आ जा, मुट्ठि
में बन्द करूं,
छुट्टी पाऊं, तुझको
समाप्त
कर दूं, निज को
स्वच्छन्द करूं ।
ओ शल्य ! हयों को तेज करो,
ले चलो उड़ा कर शीघ्र वहाँ,
गोविन्द-पार्थ के साथ डटे हों
चुन कर सारे वीर जहाँ।
हो शस्त्रों का झन-झन निनाद,
दंताबल हों चिंग्घार रहे,
रण को कराल घोषित करके
हों समरशुर हुँकार रहे।
कटते हों अगणित रुण्ड-मुण्ड,
उठता हो आर्त्तनाद क्षण-क्षण,
झनझना रही हों तलवारें,
उड़ते हों तिग्म विशिख सन-सन |
संहार देह धर खड़ा जहाँ
अपनी पैंजनी बजाता हो,
भीषण गर्जन में न जहाँ रोर
ताण्डव का डूबा जाता हो।
ले चलो जहाँ फट रहा व्योम,
मच रहा जहाँ पर घमासान,
साकार ध्वंस के बीच पैंठ
छोड़ना मुझे है आज प्राण।”
समझ में शल्य की कुछ भी न आया,
हयों को जोर से उसने भगाया,
निकट भगवान के रथ आन पहुँचा,
अगम अज्ञात का पथ आन पहुँचा।
अगम की राह पर, सचमुच,
अगम है,
अनोखा ही नियति का कार्यक्रम है।
न जानें, न््याय
भी पहचानती है;
कुटिलता ही कि केवल जानती है?
रहा दीपित सदा शुभ धर्म जिसका;
चमकता सूर्य -सा था कर्म जिसका,
अबाधित दान का आधार था जो,
धरित्री का अतुल श्रंगार था जो,
क्षुधा जागी उसी की हाय, भू को,
कहें क्या मेदिनी मानव -प्रसू को!
रुधिर के पंक में रथ को जकड़ कर,
.गई वह बैठ चक्के को पकड़ कर।
लगाया जोर अश्वों ने न थोड़ा,
नहीं लेकिन, मही
ने चक्र छोड़ा।
वृथा साधन हुए जब सारथी के,
कहा लाचार हो उसने रथी से।
“बड़ी राधेय! अद्भुत बात है यह,
किसी दुःशक्ति का ही घात है यह,
जरा - सी कीच में स्यन्दन फंसा है,
मगर, रथ - चक्र
कुछ ऐसा धँसा है;
निकाले से निकलता ही नहीं है,
हमारा जोर चलता ही नहीं है।
जरा तुम भी इसे झकझोर देखो,
लगा अपनी भुजा का जोर देखों।”
हँसा राघेय कर कुछ याद मन में,
कहा, “हाँ,
सत्य ही सारे भुवन में
विलक्षण बात मेरे ही लिए है,
नियति का घात मेरे ही लिए है।
मगर है ठीक, किस्मत
ही फंसे जब,
धरा ही कर्ण का स्यन्दन ग्रसे जब,
सिवा राधेय के पौरुष प्रबल से
निकाले कौन उसको बाहुबल से !”
उछल कर कर्ण स्यन्दन से उतर कर,
फंसे रथ - चक्र को भुज-बीच भर कर,
लगा ऊपर उठाने जोर करके,
कभी सीधा, कभी झकझोर
करके।
मही डोली, सलिल-आगार
डोला,
भुजा, के जोर से
संसार डोला,
न डोला किन्तु, जो
चक्का फंसा था,
चला वह जा रहा नीचे घंसा था।
बिपद में करण को यों ग्रस्त पाकर,
शरासनहीन, अस्त
- व्यस्त पाकर,
जगाकर पार्थ., को
भगवान बोले--
“खड़ा है देखता क्या मौन भोले?
शरासन तान, बस,
अवसर यहीं है,
घड़ी फिर और मिलने को नहीं है,
विशिख कोई गले के पार कर दे,
अभी ही शत्रु का संहार कर दे।”
श्रवण कर विश्वगुरु की देशना यह,
विजय के हेतु आतुर एषणा यह,
सहम उट्ठा जरा कुछ पार्थ का मन,
विनय में ही मगर, बोला अकिंचन |
“नरोचित, किन्तु, क्या यह कर्म
होगा ?
मलिन इससे नहीं क्या धर्म होगा!”
हँसे केशव, 'वृथा
हठ ठानता है;
अभी तू धर्म को क्या जानता है!
कहूँ जो, पाल उसको,
धर्म है यह,
हनन कर शत्रु का, सत्कर्म है यह,
क्रिया को छोड़ चिन्तन में फंसेगा,
उलट कर काल तुमको ही ग्रसेगा।”
भला क्यों पार्थ कालाहार होता ,
वृथा क्यों चिन््तना का भार ढोता !
सभी दायित्व हरि पर डाल करके,
मिली जो शिष्टि उसको पाल करके,
लगा राधेय को शर मारने वह,
विपद् में शत्रु को संहारने वह,
शरों -.से बेंधने तन को, बदन को,
दिखाने वीरता निःशश्र जन को |
विशिख-सन्धान में अर्जुन निरत था,
खड़ा राधेय निःसंबल, विरथ था;
खड़े निर्वाक सब जन देखते थे,
अनोखे धर्म का रण देखते थे।
नहीं जब पार्थ को देखा सुधरते,
हृदय में धर्म का टुक ध्यान धरते,
समय के योग्य धीरज को सँजो कर
कहा राधेय ने गंभीर होकर |
“नरोचित धर्म से कुछ काम तो लो,
बहुत खेले, जरा
विश्राम तो लो,
फंसे रथचक्र को जब तक निकालू,
धनुष धारण करूँ, प्रहरण सँभालू;
रुको तब तक, चलाना
बाण फिर तुम,
हरण करना, सको
तो, प्राण फिर तुम ।
नहीं अर्जुन ! शरण मैं माँगता हूँ,
समर्थित घर्मं से रण माँगता हूँ।
कलंकित नाम सत अपना करो तुम,
हृदय में ध्यान इसका भी धरो तुम;
विजय तन की घड़ी भर की दमक है,
इसी संसार तक उसकी चमक है;
भुवन की जीत मिटती है भुवन में,
उसे क्या खोजना गिर कर पतन में ?
शरण केवल उजागर धर्म होगा;
सहारा अन्त में सत्कर्म होगा।”
उपस्थित देख यों न्यायार्थ अरि को,
निहारा पार्थ ने हो खिन्न हरि को,
मगर, भगवान किंचितू
भी न डोले,
कुपित हो ब्रज्र -सी यह बात बोले।
“प्रलापी ! ओ
उज़ागर धर्म वाले !
बड़ी निष्ठा, बड़े
सत्कर्म वाले !
मरा अन्याय से अभिमन्यु जिस दिन,
कहाँ पर सो रहा था धर्म उस दिन?
हलाहल भीम को जिस दिन पड़ा था,
कहाँ पर धर्म यह उस्र दिन धरा था ?
लगी थी आग जब लाक्षाभवन में,
हँसा था धर्म ही तब क्या भुवन में ?
सभा में द्रौपदी को खींच लाके,
सुयोधन की उसे दासी बताके,
सुवामा - जाति को आदर दिया जो,
बहुत सत्कार तुम सबने किया जो,
नहीं वह और कुछ, सत्कर्म ही था,
उजागर, शीलमभूषित
धर्म ही था।
जुए में हारकर धन-धाम जिस दिन,
हुए पांडव यती निष्काम जिस दिन,
चले वनवास को तब धर्म था वह,
शकुनियों का नहीं अपकर्म था वह;
अवधि कर पूर्ण जब लेकिन, फिरे वे,
असल में धर्म से ही थे गिरे वे।
बड़े पापी हुए जो ताज माँगा,
किया अन्याय, अपना
राज माँगा।
नहीं धर्माथ वे क्यों हारते हैं?
अघी हैं, शत्रु
को क्यों मारते हैं
हमीं धर्माथ क्या दहते रहेंगे !
सभी कुछ मौन हो सहते रहेंगे?
कि देंगे धर्म को बल अन्य जन भी?
तजेंगे, क्रुरता-छल
अन्य जन भी;
न दी क्या यातना इन कोरवों ने?
किया क्या-क्या न निर्धिन कौरवों ने ?
मगर, तेरे लिए
सब धर्म ही था,
दुरित निज मित्र का सत्कर्म ही था।
किये का जब उपस्थित फल हुआ है,
ग्रसित अभिशाप से संबल हुआ है,
चला है खोजने तू धर्म रण में,
मृषा किल्विष बताने अन्य जन में!
शिथिल कर पार्थ ! किंचित् भी न मन तू,
न धर्माधर्म में पड़ भीरू बन तू,
कड़ा कर वक्ष को, शर मार इसको,
चढ़ा शायक, तुरत
संहार इसको ।”
हसा राधेय, हां,
अब देर भी क्या!
सुशोभन कर्म में अवसेर भी क्या!
कृपा कुछ और दिखतलाते नहीं क्यों !
सुदर्शन ही उठाते हैं नहीं क्यों!
थके बहुविध स्वयं ललकार करके,
गया थक पार्थ भी शर मार करके,
मगर, यह वक्ष
फटता ही नहीं है,
प्रकाशित शीश कटता ही नहीं है।
शरों से मृत्यु झड़ कर छा रही है,
चतुर्दिक घेर कर मंडला रही है,
नहीं, पर लीलती
वह पास आकर,
रुकी हे भीति से अथवा लजाकर।
जरा तो पूछिए, वह
क्यों डरी है!
शिखा दुर्द्धर्ष क्या मुझमें भरी है!
मलिन वह हो रही किसकी दमक से ?
लजाती किस तपस्या की चमक से ?
जरा बढ़ पीठ पर निज पाणि धरिए,
सहमती मृत्यु को निर्भीक करिए,
न अपने - आप मुझको खायगी वह,
सिकुड़ कर भीति से मर जायगी वह।
कहा जो आपने, सब
कुछ सही है,
मगर, अपनी मुझे!
चिन्ता नहीं है,
सुयोधन - हेतु ही पछुता रहा हूँ,
विना विजयी बनाये जा रहा हूँ।
वृथा है. पूछना किसने किया क्या;
जगत के धर्म को खंबल दिया क्या।
सुयोधन था खड़ा कल तक जहाँ पर,
न हैं. क्या आज पाण्डब ही वहाँ पर !
उन्होंने कौन-सा अपधर्म छोड़ा
किये से कोन कुत्सित कर्म छोड़ा ?
गिनाऊँ क्या ? स्वयं
सब जानते हैं,
जगदूगुरू आपको हम मानते हैं।
शिखंडी को बनाकर ढाल -अर्जुन !
हुआ गांगेय का जो काल अर्जुन !
नहीं वह पाप था, सत्कर्म ही था,
हरे | कह दीजिए,
बह धर्म ही था!
हुआ सात्यकि बली का त्राण जैसे,
गये भूरिश्रवा के प्राण जैसे,
नहीं वह कृत्य नरता से रहित था,
पतन वह पांडवों का धर्म -हित था।
कथा अभिमन्यु को तो बोलते हैं!
नहीं पर, भेद यह
क्यों खोलते हैं?
कुटिल षड़यंत्र से रण से विरत कर,
महामट द्रोण को छल से निहत कर,
पतन पर दूर पांडव जा चुके हैं,
चतुर्गुण मोल वलि का पा चुके हैं ।
रहा क्या पुण्य अब भी तोलने को !
उठा मस्तक, गरज
कर बोलने को !
वृथा है. पूछना, था दोष किसका !
खुला पहले गरल का कोष किसका ?
जहर अब तो सभी का खुल रहा है,
हलाहल से हलाहल घुल रहा है।
जहर की कीच में ही आ गये जब,
कलुष बन कर कलुष पर छा गये जब,
दिखाना दोष फिर क्या अन्य जन में !
अहं से फूलना क्या व्यर्थ मन में ।
सुयोधन को मिले जो फल किये का,
कुटिल परिणाम द्रोहानल पिये का,
मगर, पांडव जहाँ
अब चल रहे हैं,
विकट जिस वासना में जल रहे हैं,
अभी पातक बहुत करवायेगी वह,
उन्हें, जानें,
कहाँ ले जायेगी वह,
न जानें, वे इसी
बिष से. जलेंगे,
कहीं या बर्फ में जाकर गलेंगे।
सुयोधन पूत या अपवित्र ही था,
प्रतापी वीर मेरा मित्र ही था;
किया मेंने वही सत्कर्म था जो,
निभाया मित्रता का धर्म था जो।
नहीं किचित् मलिन अन्तर्गगन है,
कनक - सा ही हमारा स्वच्छ मन है,
अभी भी शुभ्र उर की चेतना है,
अगर है तो यही, बस,
बेदना है,
वधूजन को नहीं रक्षण दिया क्यों?
समर्थन पाप का उस दिन किया क्यों ?
न कोई योग्य निष्कृति पा रहा हूँ,
लिये यह दाह मन में जा रहा हूँ।
विजय दिलवाइए केशव ! स्वजन को,
शिथिल, सचमुच,
नहीं कर पार्थ | मन को;
अभय हो बेघता जा अंग अरि का,
द्विधा क्या, प्राप्त
है जब संग हरि का ?
“मही ! ले सॉंपता हैँ आप रथ मैं,
गगन में खोजता हूँ अन्य पथ में,
भले ही लील ले इस काठ को तू,
न पा सकती पुरुष बिभ्राट् को तू।
महा निर्वाण का क्षण आ रहा है,
नया आलोक - स्यन्दन आ रहा है,
तपस्या से बने हैं यन्त्र जिसके,
कसे जप -याग से हैं तंत्र जिसके;
जुते हैं कीर्त्तियों के वाजि जिसमें,
चमकती है किरण की राजि जिसमें,
हमारा पुण्य जिसमें झूलता हे,
विभा के पद्म-सा जो फूलता है।
रचा मेंने जिसे निज पुण्य-बल से,
दया से, दान से,
निष्ठा अचल से;
हमारे प्राण -सा ही पूत है जो,
हुआ सर्द्धम से उद्भूत है जो।
न तत्त्वों की तनिक परवाह जिसको,
सुगम सर्वत्र ही है राह जिसको,
गगन में जो अभय हो घूमता है,
विभा की ऊर्मियों पर झूमता है।
अहा | आलोक -
स्यन्दन आन पहुँचा,
हमारे पुण्य का क्षण आन पहुँचा,
विभाओ सूर्य की ! जय - गान गाओ,
मिलाओ, तार
किरणों के मिलाओ।
प्रभा - मंडल | भरो
झंकार! बोलो!
जगत की ज्योतियो ! निज द्वार खोलो !
तपस्या. रोचिभूषित ला रहा हूँ,
चढ़ा में रश्मि - रथ पर आ रहा हूँ।”
गगन में बद्ध कर दीपित नयन को
किये था कर जब सूयस्स्थ मन को,
लगा शर एक. ग्रीवा में सँमल के,
उड़ी ऊपर प्रभा तन से निकल के।
गिरा मस्तक सही पर छिन्न होकर,
तपस्याधाम तन से भिन्न होकर |
छिटक कर जो उड़ा आलोक तन से,
हुआ एकात्म वह मिल कर तपन से।
उठी कौन्तय की जयकार रण में,
मचा घनघोर हाहाकार रण में।
सुयोधन बालकों - सा रो रहा था,
खुशी से भीस पागल हो रहा था।
फिरे आकाश से सुरयान सारे,
नतानन देवता नभ से सिधारे,
छिपे आदित्य होकर आर्त घन में,
उदासी छा गई सारे भुवन में।
अनिल मंथर व्यथित -सा डोलता था,
ने पंक्षी भी पवन में बोलता था।
प्रकृति निस्तब्ध थी, यह हो गया क्या?
हमारी गाँठ से कुछ खो गया क्या!
मगर, कर भंग इस
निस्तव्ध लय को,
गहन करते हुए कुछ और भय को,
जयी उन्मत्त हो हुंकारता था,
उदासी के हृदय को फाड़्ता था।
युधिष्ठिर प्राप्त कर निस्तार भय से,
प्रफुल्लित हो बहुत दुर्लभ विजय से,
दृगों में मोद के मोती सजाये
बड़े ही व्यग्र हरि के पास आये।
कहा, “केशव !
बड़ा था त्रास मुझको,
नहीं था यह कभी विश्वास मुझको,
कि अर्जुन यह विपद् भी हर सकेगा,
किसी दिन कर्ण रण में मर सकेगा।
इसी के त्रास में अन्तर पगा था,
हमें वनवास में भी भय लगा था।
कभी निश्चिन्त मैं क्या हो सका था !
न तेरह वर्ष सुख से सो सका था।
बली योद्धा बड़ा विकराल था वह,
हरे ! कैसा भयानक काल था वह,
मुषल विष में बुझे थे, बाण क्या थे!
शिला निर्मोध ही थी, प्राण क्या थे !
मिला कैसे समय निर्भीत है यह?
हुईं सौभाग्य से ही जीत है यह ?
नहीं यदि आज ही वह काल सोता,
न जानें, क्या
समर का हाल होता !”
उदासी में भरे भगवान बोले,
“न भूलें आप केवल जीत को ले।
नहीं पुरुषार्थ केवल जीत में है,
विभा का सार शील पुनीत में है।
विजय, क्या
जानिए, बसती कहाँ है ?
विभा उसकी अजय हँसती कहाँ है!
भरी यह जीत के हुंकार में है,
छिपी अथवा लहू की धार में है?
हुआ, जाने नहीं
क्या आज रण में?
मिला किसको विजय का ताज रण में ।
किया क्या प्राप्त ? हम सबने दिया क्या.?
चुकाया मोल क्या? सौदा लिया क्या !
समरया शील की, सचमुच,
गहन है,
समस्या पाता नहीं कुछ क्लान्त मन है,
न हो निश्चिन्त कुछ अवधानता है,
जिसे तज़ता, उसी
को मानता है।
मगर, जो हो,
मनुज सुवरिष्ठ था वह,
धनुर्धर ही नहीं, धर्मिष्ठ था वह,
तपस्वी, सत्यवादी
था, व्रती था,
बड़ा ब्रह्मण्य था, मन से यती था।
हृदय का निष्कपट, पावन क्रिया का,
दलित-तारक, समुद्धारक
त्रिया का,
बड़ा बेजोड़ दानी था, सदय था;
युधिष्ठिर ! कर्ण का अदभुत हृदय था।
किया 'किसका
नहीं कल्याण उसने ?
दिये क्या-क्या न छिपकर दान उसने ?
जगत के हेतु ही सर्वस्व खोकर,
मरा वह आज रण में निःस्व होकर ।
उगी थी ज्योति जग को तारने को,
न जन्मा था पुरुष यह हारने को।
मगर, सब कुछ
लुटाकर दान के हिंत,
सुयश के हेतु, नर-कल्याण
के हित,
दया कर शत्रु को भी त्राण देकर,
खुशी से मित्रता पर प्राण देकर,
गया है कर्ण भू को दीन करके,
मनुज-कुल को बहुत बलहीन करके।
युधिष्ठिर ! भूलिए, विकराल था वह,
विपक्षी था, हमारा
काल था वह |
अहा ! वह शील में कितना विनत था !
दया में, धर्म
में कैसा निरत था!
समझ कर द्रोण मन में भक्ति भरिए,
पितामह की तरह सम्मान करिए ।
मनुजता का नया नेता उठा है,
जगत से ज्योति का जेता उठा है।”
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