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रश्मिरथि रामधानी सिंह दिनकर षष्ठ सर्ग

 

षष्ठ सर्ग

 


नरता कहते हैं जिसे, सत्त्व

क्या वह केवल लड़ने में है?

पौरुष क्‍या केवल उठा खड्ग

मारने और मरने में है?

तब उस गुण को क्‍या कहें

मनुज जिससे न मृत्यु से डरता है ?

लेकिन, तब भी मारता नहीं,

वह स्वयं विश्व-हित मरता है।

 

 

है वन्द्नीय नर कौन ?विजय-हित

जो करता है प्राण हरण !

या सबकी जान बचाने को

देता है जो अपना जीवन ?

चुनता आया जय-कमल आजतक

विजयी सदा कृपाणों से,

पर, आह निकलती हीं आईं

हर वार मनुज के प्राणों से।

 

 

आकुल अंतर की आह मनुज की

इस चिन्ता से भरी हुई,

इस तरह रहेगी मानवता

कब तक मनुष्य से डरी हुई ?

पाशविक वेग की लहर लहू में

कब तक धूम मचायेगी ?

कब तक मनुष्यता पशुता के

आगे यों झुकती जायेगी

 

 

यह जहर न छोड़ेगा उभार ?

अंगार न क्‍या बुझ पायेंगे?

हम इसी तरह क्या हाय, सदा

पशु के पशु ही रह जायेंगे ?

किसका सिंगार ? किसकी सेवा ?

नर का ही जब कल्याण नहीं ?

किसके विकास की कथा ? जनों के

ही रक्षित जब प्राण नहीं?

 

 

इस विस्मय का क्या समाधान ?

रह-रह कर यह क्या होता है १

जो है अग्रणी वही सबसे

आगे बढ़ धीरज खोता हे।

फिर उस्रकी क्रोधाकुल पुकार

सबको बेचैन बनाती है,

नीचे कर क्षीण मनुजता को

ऊपर पशुत्व को लाती है।

 

 

हाँ, नर के मन का सुधाकुण्ड

लघु है, अब भी कुछ रीता हे,

वय अधिक आज तक व्यालों के

पालन-पोषण में बीता है।

ये व्याल नहीं चाहते, मनुज

भीतर का सुधाकुण्ड खोले,

जब जहर सभी के मुख में हो

तब वह मीठी बोली बोले।

 

 

थोड़ी-सी भी यह सुधा मनुज का

 

सन शीतल कर सकती है,

बाहर की अगर नहीं, पीड़ा

भीतर की तो हर सकती है।

लेकिन धीरता किसे ? अपने

सच्चे स्वरूप का ध्यान करे;

जब जहर वायु में उड़ता हो

पीयूष-विन्दु का पान करे।

 

 

पांडव यदि केवल पाँच ग्राम

लेकर सुख से रह सकते थे,.

तो विश्व-शांति के लिए दुःख

कुछ और न क्या सह सकते थे?'

सुन कुटिल बचन दुर्योधन का

केशव्‌ ने क्‍यों यह कहा नहीं--

हम तो आये थे शांति-हेतु,

पर, तुम चाहो जो, वही सही |:

 

 

तुम भड़काना चाहते अनल

धरती का भाग जलाने को,.

नरता के नव्य प्रसूनों को

चुन-चुन कर क्षार बनाने को।

पर शान्ति-सुन्दरी के सुहाग

पर, आग नहीं धरने दूँगा,

जब तक जीवित हूँ, तुम्हें

बान्धवों से न युद्ध करने दूगा।:

 

 

लो, सुखी रहो, सारे पांडव

फिर एक बार वन जायेंगे,

इस बार, माँगने को अपना

वे स्वत्व न वापस आयेंगे।.

धरती की शान्ति बचाने को

आजीवन कष्ट सहेंगे वे.

नूतन अकाश फैलाने को

तप में मित्र निरत रहेंगे वे।

 

 

शत लक्ष मानवों के सम्मुख

दस-पाँच जनों का सुख क्या है ?

यदि शान्ति विश्व की बचती हो,

वन में बसने सें दुख क्या है

सच है कि पाण्डुनन्दन वन में

सम्राट नहीं कहलायेंगे,

पर, कातल-ग्रन्थ में उससे भी

ये कहीं श्रेष्ठ पद पायेंगे।

 

 

होकर कृतज्ञ आनेवाला युग

मस्तक उन्हें. झुकायेगा,

नवधर्म - विधायक की प्रशस्ति

संसार युगों तक गायेगा।

सीखेगा जग, हम दलन युद्ध का

कर सकते त्यागी होकर,

मानव - समाज का नयन मनुज

कर सकता वैरागी होकर ।

 

 

पर, नहीं, विश्व का अहित नहीं...

होता क्या ऐसा कहने से?

प्रतिकार अनय का हो सकता

क्या उसे मोन हो सहने से

क्या वही धर्म है, लौ जिसको

वो-एक मनों में जलती है?

या वह भी जो' भावना सभी

के भीतर छिपी मचलती है।

 

 

सबकी पीड़ा के साथ व्यथा

अपने मन की जो जोड़ सके,

मुड़ सके जहाँ तक समय, उसे

निर्दिष्ट दिशा में मोड़ सके।

युगपुरुष वही सारे समाज का

विहित धर्मगुरू होता है,

सबके मन का जो अंधकार

अपने प्रकाश, से धोता है।

 

 

द्वापर की कथा बड़ी दारुण

लेकिन, कलि ने क्‍या दान दिया ?

नर के वध की प्रक्रिया बढ़ी,

कुछ और उसे आसान किया।

पर, हाँ, जो युद्ध स्वर्गंमुख था,

वह आज निन्य-सा लगता है।

बस, इसी मन्दता से विकास का _

भाव मनुज में जगता है।

 

 

धीमी कितनी गति है? विकास

कितना अदृश्य हो चलता है?

इस महावृक्ष सें एक पत्र

सदियों के बाद निकलता है।

थे जहाँ सहस्त्रों वर्ष पूर्व

लगता है वहीं खड़े हैं हम,

है वृथा गर्व, उन गुफावासियों से

कुछ बहुत बड़े हैं हम।

 

 

अनगढ़ पत्थर से लड़ो, लड़ो

किटकिटा नखों से, दाँतों से,

या लड़ो ऋक्ष के रोमगुच्छ-पूरित

वज्रीकृत हाथों. से;

या चढ़ विमान पर नर्म मुट्ठियों से

गोलों की बृष्टि करो,

आ जाय लक्ष्य में जो कोइ,  

निष्ठुर हो सबके प्राण हरो।

 

 

ये तो साधन के भेद, किन्तु,

भावों में तत्त्व नया क्‍या है?

क्या खुली प्रेम की आँख अधिक ?

भीतर कुछ बढ़ी दया क्‍या है?

झर गई पूछ, रोमान्त झरे,

पशुता का मरना बाकी है;

बाहर-बाहर तन संवर चुका

मन अभी सँवरना बाकी है;

 

 

देवत्व अल्प, पशुता अथोर,

तमतोस प्रचुर, परिमित आभा,

द्वापर के मन पर भी प्रसरित  

थी यही आज वाली द्वाभा।

इसी तरह, तब भी ऊपर  

उठने को नर अकुलाता था,

पर पद-पद्‌ पर वासना-जाल में

उलझ-उलझ रह जाता था।

 

 

! जिस प्रकार हम आज बेल-

बुटों के बीच खचित करके

देते हैं रण को रम्य रूप

विप्लवी उमंगों में भरके,

कहते, अनीतियों के विरुद्ध

जो युद्ध जगत में होता है

वह नहीं जहर का कोष, अमृत का

बड़ा सलोना सोता है।

 

बस, इसी तरह, कहता होगा

द्वाभा-शासित द्वापर का नर,

निष्ठुरताएँ हों भले, किन्तु,

है महामोक्ष का द्वार समर।

सत्य ही, समुन्नति के पथ पर

चल रहा चतुर मानव प्रबुद्ध,

कहता है क्रान्ति उसे जिसको

पहले कहता था धर्मयुद्ध |

 

 

सो, धर्मयुद्ध छिड़ गया, स्वर्ग

तक जाने के सोपान लगे,

सद्गतिकामी नर-बीर खड़्ग से

लिपट गंवाने प्राण लगे।

छा गया तिमिर का सघन जाल,

मुँद गये मनुज के ज्ञान-नेत्र,

द्वाभा की गिरा पुकार जठी

जय धर्मक्षेत्र ! जय कुरुक्षेत्र !

 

 

हाँ, धर्मक्षेत्र इसलिए कि बन्धन

द पर अबन्ध की जीत हुईं,

"कर्त्तव्यज्ञान पीछे. छूटा,  

आगे मानव की प्रीत हुई।

प्रेमातिरिक में केशव ने  

प्रण भूल चक्र सन्‍्धान किया,

भीष्म ने शत्रु को बड़े प्रेम से

अपना जीवन दान दिया।

 

2

 

'गिरि का उदग्र गौरवाधार

गिर जाय श्रृङ्ग ज्यों महाकार,

अथवा सूना कर आसमान

त्यों गिरे दूट रवि भासमान,

कौरव-दल का कर तेज हरण।

ज्यों गिरे भीष्म आलोकवरण ।

 

 

कुरुकुल का दीपित ताज गिरा,

थक कर बूढ़ा जब बाज गिरा,

भूलुठित पितामह को बिलोक,

'छा गया समर में महा शोक,

कुरुपति ही धैर्य न खोता था,

अर्जुन का मन भी रोता था।

 

 

रो-घो कर तेज नया दमका,

दूसरा सूर्य सिर पर चमका,

कौरवी तेज दुरर्जेय उठा,

रण करने को राधेय छठा,

सबके रक्षक गुरु आर्य हुए,.

सेनानायक. आचार्य हुए।

 

 

राधेय किन्तु, जिनके कारण,

था अब तक किये मौन धारण,

उनकी शुभ आशिष पाने को,

अपना सद्धर्मं निभाने को,

वह शर-शय्या की ओर चला,

पग-पग हो विनय-विभोर चला।

 

 

छू भीष्मदेव के चरण युगल,

बोला वासी राधेय सरल,

हे तात! आपका प्रोत्साहन

पा सका नहीं जो लांछित जन,

यह वहीं सामने आया हैं,.

उपहार अश्रु का लाया हे।

 

 

आज्ञा हो तो अब धनुष धरू,

रण में चलकर कुछ काम करू;

देखू, है कौन प्रलय उतरा,

जिससे डगमग हो रही धरा।

कुरुपति को विजय दिलाऊँ मैं,.

या स्वयं वीरगति पाऊँ मैं।

 

 

अनुचर के दोष क्षमा करिए,

मस्तक पर वरद पाणि घरिए,

आखिरी मिलन की वेला हे,

मन लगता बड़ा अकेला है।

मद-मोह त्यागने आया हूँ,

पद-धूलि माँगने आया हूँ।

 

 

भीष्स ने खोल निज सजल नयन

देखे कर्ण के आर्द्र लोचन,

बढ़ खींच पास में ला करके

छाती से डसे लगा करके,

'बोले--क्या तत्त्व विशेष बचा!

बेटा, आँसू ही शेष बचा।

 

 

मैं रहा रोकता ही क्षण-क्षण,

पर, हाय, हटी यह दुर्योधन

अंकुश विवेक का सह न सका,

मेरे कहने में रह न सका,

क्रोधान्ध, भ्रान्त, मद में विभोर

ले ही आया संग्राम घोर ।

 

 

अब कहो, आज क्‍या होता है?

किसका समाज यह रोता है?

किसका गौरव ? किसका सिंगार ?

जल रहा पंक्ति के आर-पार ?

किसका वन-बाग उजड़ता है?

यह कौन मारता-मरता है?

 

 

फूटता द्रोह-दव का पावक,

हो जाता सकल समाज नरक,

सबका वेभव, सबका सुहाग,

जाती डकार यह कुटिल आग,

जब बन्धु विरोधी होते हें,

सारे कुलवासी रोते हैं।

 

 

इसलिए, पुत्र ! अब भी रुक कर,

मन में सोचो, यह महासमर

किस ओर तुम्हें ले जायेगा?

'फल अलभ कौन दे पायेगा ?

मानवता ही मिट जायेगी,

फिर विजय सिद्धि क्या लायेगी ?

 

 

ओ मेरे प्रतिद्वन्द्वि मानी!

निश्छल, पवित्र, गुणमय, ज्ञानी !

मेरे मुख से सुन परुष वचन

'तुम बृथा मलिन करते थे मन,

में नहीं निरा अवशंसी था,

मन ही मन बड़ा प्रशंसी था।

 

 

सो भी इसलिए कि दुर्योधन

पा सदा तुम्हीं से आश्वासन,

मुझको न मानकर चलता था,

पग-पग पर रूठ मचलता था;

अन्यथा पुत्र! तुमसे बढ़कर

मैं किसे मानता वीर प्रवर ?

 

 

'पार्थॉपम रथी  धनुर्धारी,

केशव-समान रणुभट भारी,

'धमर्ज्ञ, धीर, पावन - चरित्र,

दीनों, दलितों के विहित मित्र ।

अर्जुन को मिले कृष्ण जेंसे,

तुम मिले कौरवों को वैसे।

 

 

'पर, हाय, वीरता का संबल

रह जायेगा धनु ही केवल ?

या शान्ति हेतु शीतल, शुचि श्रम

भी कभी करेंगे वीर परम ?

ज्वाला भी कभी बुझायेंगे ?

या लड़कर ही मर जायेंगे ?

 

 

चल सके सुयोधन पर यदि वश,

बेटा ! लो जग में नया सुयश,

लड़ने से बढ़ यह काम करो,

आज ही बन्द संग्राम करो।

यदि इसे रोक तुम पाओगे,

जन के त्राता कहलाओगे।

 

 

जा कहो वीर दुर्याधन से,

कर दूर द्वेष-विष को मन से

वह मिले पाण्डवों से जाकर,

मरने दे मुझे शान्ति पाकर;

मेरा अन्तिम बलिदान रहे,

सुख से सारी सन्तान रहे।

 

 

 हे पुरुषसिंह !”? कर्ण ने कहा,

अब ओर पंथ क्या शेष रहा ?

संकटापन्न जीवन - समान

है बीच सिन्धु में महायान,

इस पार शान्ति, उस पार विजय

अब क्या हो भला नया निश्चय ?

 

 

जय मिले बिना विश्राम नहीं,

इस समय सन्धि का नाम नहीं,

आशिष दीजिए विजय कर रण

फिर देख सकूँ ये भव्य चरण;

जलयान सिन्धु से तार सकू,,.

सबको मैं पार उतार सकूँ।

 

 

कलतक था पथ शान्ति का सुगम,

पर, हुआ आज वह अति दुर्गम,

अब उसे देख ललचाना क्‍या?

पीछे को पाँव हटाना क्‍या

जय को कर लक्ष्य चलेंगे हम,

अरि - दल का गर्व दलेंगे हम ।

 

 

है महाभाग, कुछ दिन जीकर

देखिए और यह महासमर,

मुझको भी प्रलय मचाना है,

कुछ खेल नया दिखलाना है;

इस दम तो मुख मोड़िए नहीं,

मेरी हिम्मत तोड़िए नहीं ॥

 

 

'करने दीजिए स्वत्रत पालन,

अपने महान प्रतिभट से रण,

अर्जुन का शीश उड़ाना है,

'कुरुपति का हृदय जुड़ाना है,

करने को पिता! अमर मुझकों

है बुला रहा संगर मुझको।”?

 

 

'गांगेय निराशा में भर कर

बोले--तब हे नरवीर प्रवर !

जो भला लगे वह काम करो,

जाओ, रण में लड़ नाम करो,

.भगवान शमित विष तूर्ण करें,

अपनी इच्छाएँ पूर्ण करें।

 

भीष्म का चरण-वन्दन करके,

ऊपर सूर्य को नमन करके,

देवता वज्र - धनु - धारी - सा,

केसरी अभय मगचारी-सा, क्‍

राधेय समर की ओर चला,

करता गर्जन. घनघोर चला,

 

 

पाकर प्रसन्न आलोक नया,

कोरव - सेना का शोक गया,

आशा की नवल् तरंग उठी,

जन - जन में नई उमंग उठी,

मानों, बाणों का छोड़ शयन,

आ गये स्वयं गंगानन्दन |

 

 

सेना समग्र हुंकार उठी,

जय - जय राधेय !! पुकार उठो,

उल्लास मुक्त हो ,.छहर उठा,

रण - जलधि घोष में घद्दर उठा,

बज उठी समर - भेरी भीषण,.

हो गया शुरू संग्राम गहन।

 

 

सागर-सा गर्जित, क्षुमित घोर,

विकराल दण्डघधर -सा कठोर,

अरिद्ल पर कुपित कर्ण टूटा,

धनु पर चढ़ महामरण छूटा,

ऐसी पहली ही आग चली,

पाण्डव की सेना भाग चली॥,

 

 

झंझा की घोर झकोर चली,

डालों को क्‍ तोड़ - मरोड़ चली,

पेड़ों की जड़ टूटने लगी,

हिम्मत सबकी छूटने लगी,

ऐसा प्रचंड तूफान. उठा,.

पर्वत का भी हिल प्राण उठा।

 

 

प्लावन का पा दुर्जय प्रहार

जिस तरह काँपती दे कगार,

या चक्रवात में यथा कीर्ण

उड़ने लगते पत्ते विशीर्ण;

त्यों उठा काँप थर - थर अरिदल,.

मच गई बड़ी भीषण हलचल ।

 

 

सब रथी व्यग्न बिललाते थे,

कोलाहइल रोक न पाते थे,

सेना को यों बेहाल देख,

सामने उपस्थित काल देख,

गरजे अधघीर हो मघुसूदन,.

बोले पार्थ से निगूढ़ वचन।,

 

 

दे अचिर सैन्य को अभयदान,

अर्जुन ! अर्जुन ! हो सावधान ।

तू नहीं जानता है यह क्या,

करता न शत्रु पर कर्ण दया!  

दाहक प्रचंड इसका बल है,.

यह मनुज नहीं, कालानल है।

 

 

बड़वानल, यम या कालपवन

करते जब कभी कोप भीषण,

सारा सर्वस्व न लेते हैं,

उच्छिष्ट छोड़ कुछ देते हैं।

पर, इसे क्रोध जब आता है,

कुछ भी न शेष रह पाता है।.

 

 

बाणों का अप्रतिहृत प्रहार,

अप्रतिम तेज, पौरुष अपार,

त्यों गर्जन पर गर्जन निर्भय,

आ गया स्वयं सामने प्रलय;

तू इसे रोक भी पायेगा

या खड़ा मूक रह जायेगा

 

 

यह महामत्त मानव - कुंजर

कैसे अशंक हो रहा विचर,

कर को जिस ओर बढ़ाता हैं,

पथ उधर स्वयं बन जाता है,

तू. नहीं शरासन तानेगा,

अंकुश किसका यह मानेगा ?

 

 

अर्जुन ! विलंब पातक द्वोगा,

शैथिल्य प्राण - घातक होगा,

उठ, जाग वीर ! मूढ़ता छोड़,

'धर धनुष - बाण अपना कठोर |

तू नहीं जोश में आयेगा,

आज ही समर चुक जायेगा।?

 

 

केशव का सिंह दहाड़ उठा,

मानों, चिग्धार पहाड़ उठा,

बाणों की फिर लग गई झड़ी,

भागती फौज हो गई खड़ी।

जूझने लगे. कौन्तेय - कर्ण,

ज्यों लड़ें परस्पर दो सुपर्ण।

 

 

'एक ही वृन्‍्त के दो कुडमल, एक ही कुक्षी के दो कुमार,

एक ही वंश के दो भूषण, विभ्राट वीर पर्वताकार,

बेधने परस्पर लगे सहज-सोदर शरीर में प्रखर बाण,

दोनों की किंशुक देह हुई, दोनों के पावक हुए प्राण ।

 

अन्धड़ बनकर उनन्‍माद उठा,

दोनों दिशि जय-जय कार हुई,

दोनों पक्षों के वीरों पर

मानों, भेरवी सवार हुई।

कट-कट कर गिरने लगे क्षिप्र

रुण्डों से मुण्ड अलग होकर,

बह चली मनुज के शोणित की

घारा पशुओं के पग धोकर ।

 

 

लेकिन, था कौन ? हृदय जिसका

कुछ भी यह देख दहलता था,

था कोन?  नरों की लाशों पर

जो नहीं पाँव धर चलता था ।

तन्‍वी करुणा की झलक झीन

किसको दिखलाई पड़ती थी?

किसको कटकर मरनेवालो की,

चीख सुनाई पड़ती थी।

 

 

केवल अलात का घूर्णि-चक्र,

केवल  वज्रायुध का प्रहार,

केवल. विनाशकारी नर्तन,

केवल गर्जन, केवल पुकार !

है कथा, द्रोण की छाया में

यों पाँच दिनों तक युद्ध चला,

क्या कहें, धर्मं पर कौन रहा,

या उसके कोन विरुद्ध चला ?

 

 

था किया भीष्म पर पांडव ने

जसे छल-छद्मों से प्रहार

कुछ उसी तरह निष्ठुरता से

हत हुआ वीर अर्जुन-कुमार !

फिर भी, भावुक कुरुवृद्ध भीष्म

थे युग पक्षों के लिए शरण,

कहते हैं, होकर विकल

मृत्यु का किया उन्होंने स्वयं वरण।

 

 

अर्जुन-कुमार की कथा किन्तु,

अब तक भी हृदय हिलाती है,

सभ्यता नाम लेकर उसका

अब भी रोती, पछताती है।

पर, हाय युद्ध अन्तक-स्वरूप,

अन्तक-सा दही दारुण, कठोर,

देखता नहीं ज्यायान-युवा,

देखता नहीं बालक-किशोर।

 

 

सुत के वध की सुन कथा पार्थ का

दहक उठा शोकार्त हृदय,

फिर किया क्रुद्ध होकर उसने, यह

महा लोम-हर्षक निश्चय,

कल अस्तकाल के पूर्व जयद्रथ

को न मार यदि पाऊँगा मैं,

सोगन्ध धर्म की मुझे, आग में

स्वयं कूद जल जाऊं मैं।

 

 

 

तब कहते हैं, अर्जुन के हित

हो गया. प्रकृति-क्रम विपर्यस्त,

साया की सहसा शाम हुई,

समय दिनेश हो गये अस्त |

ज्यों-त्यों करके इस भाँति वीर

अर्जुन का वह प्रण पूर्ण हुआ,

"सिर कटा जयद्रथ का, मस्तक

निर्दोष पिता का चूर्ण हुआ।

 

 

'हाँ, यह भी हुआ कि सात्यकि से

जब निपट रहा था भूरिश्रवा,

पार्थ ने काट ली, अनाहूत,

शर से उसकी दाहिनी भुजा।

? भूरिश्रवा अनशन करके

जब बैठ गया लेकर मुनि-व्रत,

'सात्यकि ने मस्तक काट लिया

जब था वह निश्चल, योग-निरत |

 

 

है वृथा धर्म का किसी समय

करना विग्रह के साथ ग्रथन,

करुणा से कढ़ता घर्म विमल,

है मलिन पुत्र हिंसा कारण।

जीवन के परम ध्येय--सुख--की

सारा समाज अपनाता है,

देखना यही है, कौन वहाँ

तक किस प्रकार से जाता है।

 

 

है धर्म पहुँचना नहीं,धर्म तो

जीवन भर चलने में है,

फैला कर पथ पर स्निग्घ ज्योति

दीपक - समान जलने में है

यदि कहें विजय, तो विजय प्राप्त

हो जाती परतापी को भी,.

सत्य ही, पुत्र, दारा, धन, जन

मिल जाते हैं पापी को भी।

 

 

इसलिए, ध्येय में नहीं, धर्म तो

सदा निहित साधन में है.

वह नहीं किसी भी प्रधान-कर्म,

हिंसा, विग्रह या रण में है।

तब भी जो नर चाहते, धर्म

समझे मनुष्य संहारों को,

गूथना चाहते वे फूलों के

साथ तप्त अंगारों को।

 

 

हो जिसे धर्म से प्रेम कभी

वह कुत्सित कर्म करेगा क्‍या?

बबेर, कराल, दंष्ट्री बन कर

मारेगा और मरेगा क्‍या?

पर, हाय, मनुज के भाग्य अभी

तक भी खोटे के खोटे हैं,

हम बढ़े बहुत बाहर, भीतर

लेकिन, छोटे के छोटे हैं।.

 

 

संग्राम धर्मगुण का विशेष्य

किस तरह भत्ता हो सह्ता है ।

केसे मनुष्य अंगारों से

अपना प्रदाह धो सकता है?

'सर्पिणी - उदर से जो निकला,

पीयूष नहीं दे पायेगा,

निश्छल होकर संग्राम धर्म का

साथ न कभी निभायेगा।

 

 

मानेगा यह दंष्ट्री कराल

विषधर भुजंग किसका यंत्रण !

'पल-पल असि को कर धर्मसिक्त

नर कभी जीत पाया है रख।

जो जहर हमें बरबस उभार,

संग्राम - भूमि में लाता है,

'सत्पथ से कर विचलित अधर्म

की ओर वही ले जाता है।

 

 

'साधन को भूल सिद्धि पर जब

टकटकी हमारी लगती है,

फिर विजय छोड़ भावना और

कोई न हृदय में जगती है।

'तब जो भी आते विध्न रूप,

हों घर्म, शील या सदाचार,

'एक ही सदृश हम करते हैं

सबके सिर पर पाद -प्रहार।

 

 

उतनी भी पीड़ा हमें नहीं

होती है इन्हें कुचलने में,

जितनी होती है रोज कंकड़ों

के ऊपर हो चलने में।

सत्य ही, ऊर्ध्व - लोचन कैसे

नीचे मिट्टी का ज्ञान करे?

जब बड़ा लक्ष्य हो खींच रहा

छोटी बातों का ध्यान करे?

 

 

चलता हो अन्ध ऊर्ध्वलोचन

जानता नहीं, क्‍या करता है;

नीचे पथ में है कौन ! पाँव

जिसके मस्तक पर धरता है।

काटता शत्रु को वह लेकिन,

साथ ही, धर्म कट जाता है,

फाड़ता विपक्षी को, अन्तर

मानवता का फट जाता है।

 

 

वासना - वह्नि से जो निकला,

कैसे हो वह संयुग कोमल ।

देखने हमें देगा वह क्‍यों,

करुणा का पन्‍थ सुगम शीतल ?'

जब लोभ सिद्धि का, आँखों पर

माड़ी बन कर छा जाता है,

तब वह मनुष्य से बड़े - बड़े

दुश्चिंत्य. कृत्य करवाता है॥

 

 

फिर क्‍या विस्मय, कौरव-पांडव

भी नहीं धर्म के साथ रहे?

जो रंग युद्ध का है, उससे ;

उनके भी अलग न हाथ रहे।

दोनों ने कालिख .छुईं, शीश

पर जय का तिलक लगाने को,

सत्पथः से. दोनों डिगे, दौड़

कर विजय-बिन्दु तक जाने को |

 

 

इस विजय-द्वन्द्व के बीच युद्ध के

दाहक कई दिवस बीते;

पर, विजय किसे मिल सकती थी

जब तक थे द्रोण-कर्ण जीते ।

था कौन, सत्य-पथ पर डटकर

जो उनसे योग्य समर करता ?

धर्म से मार कर उन्हें जगत में

अपना नाम अमर करता।

 

 

था कौन, देखकर उन्हें समर में

जिसका हृदय न कंपता था।'

मन ही मन जो निज इष्ट देव का

भय से नाम न जपता था

कमलों के वन को जिस प्रकार

विदलित करते मदकल कुंजर,

थे विचर रहे पांडव-दल में

त्यों मचा ध्वंस दोनों नरवर ।

 

 

संग्राम - बुभुक्षा से पीड़ित,

सारे जीवन से छुला हुआ,

राधेय. पांडवो के ऊपर

दारुण अमर से जला हुआ;

इस तरह शत्रुदल पर टूटा,

जैसे हो दावानल अजेय,

या टूट पड़े हों स्वयं स्वर्ग से

उतर मनुज्ञ पर कार्त्तिकेय।

 

 

संघटित याकि उनचास मरुत

कर्ण के प्राण में छाये हों,

या कुपित सूर्य आकाश छोड़

नीचे भूतल पर आये हों।

अथवा रण में हो गरज रहा

धनु लिये अचल प्रालेयवा।न,

या महाकाल बन टूटा हो

भू पर ऊपर से गरुत्मान।

 

 

बाणों पर बाण सपक्ष उड़े,

हो गया शत्रुदल खण्ड-खण्ड,

जल उठी कर्ण के पौरुष की

कालानल - सी ज्वाला प्रचण्ड।

दिग्गज - दराज वीरों की भी

छाती प्रह्रार से उठी हहर,

सामने अलय को देख गये

 गजराजों के भी पाँच उखड़।

 

 

'जन-जन के जीवन पर कराल,

दुर्मद कृतान्त जब कर्ण हुआ,

पांडव - सेना का ह्र्रास देख

केशव का बदन विवर्ण हुआ।

सोचने लगे, छूटेंगे क्‍या

सबके विपन्न आज ही प्राण !

सत्य ही, नहीं क्‍या है कोई

इस कुपित प्रलय का समाधान ?

 

 

है कहाँ पार्थ, है कहाँ पार्थ ?”

राधेय गरजता था क्षण - क्षण

करता क्‍यों नहीं प्रकट होकर

अपने कराल प्रतिभट से रण

क्या इन्हीं मूलियों से मेरी

रणकला निपट रह जायेगी?

या किसी वीर पर भी अपना

वह चमत्कार दिखलायेगी

 

 

हो छिपा जहाँ भी पार्थ सुने,

अब हाथ समेटे लेता हूँ,

सबके समक्ष द्वैरथ रण की

में उसे चुनौती देता हूँ।

हिम्मत हो तो वह बढ़े, व्यूहब से

निकल जरा सम्मुख आये

दे मुझे जन्म का लाम और  

साहस हो तो खुद भी पाये ॥

 

 

पर, चतुर पार्थ-सारथी आज

रथ अलग नचाये फिरते थे,

कर्ण के साथ द्वैरथ रण से

शिष्य. को बचाये फिरते थे।

चिन्ता थी, एकन्नी कराल

यदि द्विरथ-युद्ध में छूटेगी,

पार्थ का निधन होगा, किस्मत

पांडव - समाज की फूठेगी।

 

 

नटनागर ने इसलिए, युक्ति का

नया योग. संघान किया,

एकघ्नि-हव्य के लिए घटोत्कच

का हरि ने आह्वान किया |

बोले, “बेटा! क्‍या देख रहा ?

हाथ से विजय जाने पर है,

अब सबका भाग्य एक तेरे

कुछ करतब दिखलाने पर है।

 

 

यह देख, करण की विशिख-बृष्टि

कैसी कराल झड़ लाती है?

गो के समाव पांडव - सेना

भय - विकल भागती जाती है।

तिल भर भी भूमि न कहीं, खड़े

हों जहाँ लोग सुस्थिर क्षण भर,

सारी रण - भू पर बरस रहे

एक ही कर्ण के बाण प्रखर |

 

 

यदि इसो भाँति सब लोग

मृत्य. के घाट उतरते जायेंगे,

कल प्रात कौन सेना लेकर

पांडव संगर में आयेंगे

है बड़ी विपद्‌ की घड़ी,

करो का निर्भर, गाढ़, प्रहार रोक,

बेटा |! जैसे भी बने, पांडवी

सेना का संहार रोक |”

 

 

फूटे ज्यों बह्निमुखी पर्वत,

ज्यों उठे सिन्धु में प्रलय - ज्वार,

कूदा रण में त्यों महाघोर

गर्जन का दानव किमाकार।

सत्य ही, असुर के आते ही

रण का वह क्रम टूटने लगा,

कौरवी अनी भयभीत हुई,

धीरज उसका छूटने लगा ।

 

 

है कथा, दानवों के कर में

थे बहुत - बहुत साधन कठोर,

कुछ ऐसे भी जिनपर मनुष्य का

चल पाता था नहीं जोर।

उन अगम साधनों के मारे

कौरव - सेना चिंग्घार उठी,

ले नाम करण का बार-बार

व्याकुल कर हाहाकार उठी।

 

 

लेकिन अजस्त्र-शर-बृष्टि-निरत,

अनवरत-युद्ध-रत, धीर कर्ण

मन ही मन था हो रहा स्वयं

इस रण से कुछ विस्मित, विवरण ।

बाणों से तिल भर भी अबिद्ध

था कहीं नहीं दानव का तन,

पर, हुआ जा रहा था बह पशु

पल-पल कुछ और अधिक भीषण |

 

 

जब किसी तरह भी नहीं रुद्ध

हो सको महादानव की गति,

सारी सेना को विकल देख

बोला कर्ण से स्वयं कुरुपति !

क्या देख रहे हो सखा ! दस्यु

ऐसे क्‍या कभी मरेगा यह ?

दो घड़ी और जो देर हुई,

सबका संहार करेगा यह।

 

 

है वीर ! विलपते हुए सैन्य का

अचिर किसी विधि त्राण करो,

अब नहीं अन्य गति, आँख मूँदे

एकग्नी का संधान करो।

अरि का मस्तक है दूर, अभी

अपनों के शीश बचाओ तो,

जो मरण - पाश है पड़ा, प्रथम

उसमें से हमें छुड़ाओ तो।

 

 

सुन सहम उठा राधेय मित्र की

और फेर निज चकित नयन,

झुक गया विवशता सें कुरुपति का

अपराधी, कातर आनन |

मन ही मन बोला कर्ण, “पार्थे !

तू वय का बड़ा बली निकला,

या यह कि आज फिर एक बार

मेरा भाग्य ही छली निकला |

 

 

रहता आया था मुदिति कर्ण

जिसका अजेय संबल लेकर,

था किया प्राप्त जिसको उसने

इन्द्र को कवच - कुंडल देकर,.

जिसकी करालता में जय का

विश्वास अभय हो पत्ता था,

केवल अर्जुन के लिए जिसे

राधेय जुगाये चलता था।

 

 

वह काल - सर्पिणी की जिह्वा,

वह अटल मृत्यु को सगी स्वसा,.

घातकता की वाहिनी, शक्ति

यम की प्रचंड, वह अनल - रसा,.

लपलपा आग - सी एकघ्नी

तूणीर छोड़ बाहर आई,

चाँदनी मंद पड़ गई, समर में

दाहक. उज्ज्वलता छाई।

 

 

कर्ण ने भाग्य को ठोंक उसे

आखिर दानव पर छोड़ दिया,

विहल हो कुरुपति को विलोक

फिर किसी ओर मुख मोड़ लिया ।

उस असुर - प्राण को वेध, दृष्टि

सबको छण भर त्रासित करके,

एकध्नी ऊपर लीन हुई

अम्वर को उद्भासित करके।

 

 

पा धमक धरा धँस उछल पड़ी

ज्यों गिरा दस्यु पर्वताकार,

हा |! हा !की चारों ओर मची

पांडव - दल सें व्याकुल पुकार ।

नरवीर युधिष्ठटिर, नकुल, भीम,

रह सके कहीं कोई न धीर,

जो जहाँ खड़े थे लगे वहीं

करने कातर क्रन्‍दन गंभीर |

 

 

सारी सेना थी चीख रही,

सब लोग व्यग्र बिलखाते थे,

पर, बड़ी विलक्षण बात :

हँसी नटनागर रोक न पाते थे।

टल गई विपद कोई सिर से

या मिली कहीं मन ही मन जय ?

क्या हुई बात ? क्‍या देख हुए.

केशव इस तरह विगत - संशय ?

 

 

लेकिन, समर को जीतकर,

निज वाहिनी को प्रीत कर,

वलयित गहन गुंजार से,

पूजित परम जयकार से,

राघेय संगर से चला मन में कहीं खोया हुआ,

जय - घोष की झंकार से आगे बहुत सोया हुआ।

 

 

हारी हुई पांडव - चमू में हंस रहे भगवान थे,

पर, जीत कर भी कर्ण के हारे हुए -से प्राण थे।

क्या, सत्य ही, जय के लिए केवल नहीं बल चाहिए ?

कुछ बुद्धि का भी घात, कुछ छल-छद्म -कोशल चाहिए ।

 

 

क्या भाग्य का आघात है!

कैसी अनोखी बात है!

मोती छिपे आते किसी के आँसुओं के तार में,

हँसता कहीं अभिशाप ही आनन्द के उच्चार में।

 

 

सगर, यह कर्ण की जीवन - कथा हे,

नियति का, भाग्य का इंगित वृथा है।

मुसीबत को नहीं जो झेल सकता,

निराशा से नहीं जो खेल . सकता,

पुरुष क्‍या, श्रृखला को तोड़ करके,

चले आगे नहीं जो जोर करके ?

 

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