रश्मिरथी
श्रीरामधारी सिंह दिनकर
सूत का सूतपुत्रो वा यो वा को वा भवाम्यहम,
देवायत्तं कुले जन्म, मदायत्तं तु पौरुषम् |
भूमिका
इस सरल--सीधे काव्य को भी किसी भूमिका की जरूरत है, ऐसा में नहीं
मानता; मगर,
कुछ न लिखूं तो वे पाठक जरा उदास हो जायेंगे जो मूल पुस्तक के पढ़ने
में हाथ लगाने से पूर्व किसी-न-किसी पूर्वाभास की खोज करते हैं । यों भी हर चीज का
कुछ-न-कुछ इतिहास होता है और “रव्मिरथी” नामक यह विनम्र कृति भी इस नियम का अपवाद नहीं है ।
बात यह है कि “कुरुक्षत” को रचना कर चुकने के बाद ही मुझमें यह भाव जगा कि मैं कोई ऐसा काव्य भी लिखूं जिसमें केवल विचारोत्तेजकता ही नहीं, कुछ कथा-संवाद और वर्णन का भी माहात्म्य हो। स्पष्ट ही यह उस मोह का उद्गार था जो मेरे भीतर उस परंपरा के प्रति मौजूद रहा है जिसके सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि राष्ट्रकवि श्रीमैथिलीशरणजी गुप्त हैं । इस परंपरा के प्रति मेरे बहुत-से सहधर्मियों के क्या भाव हें, इससे मैं अपरिचित नहीं हूँ । मुझे यह भी पता है कि जिन देशों अथवा दिशाओं से आज हिन्दी-काव्य की प्रेरणा पार्सल से मोल या उघार मँगाई जा रही है, वहाँ कथा-काव्य की परंपरा निःशेष हो चुकी है और जो काम पहले प्रवन्ध-काव्य करते थे वही काम अब बड़े मजे में, उपन्यास कर रहे हें । कितु, अन्य बहुत-सी बातों की तरह मैं एक इस बात का भी महत्त्व समझता हूँ कि भारतीय जनता के हृदय में प्रवन्ध-काव्य का प्रेम आज भी काफी प्रबल है और वह अच्छे उपन्यासों के साथ-साथ ऐसी कविताओं के लिए भी बहुत ही उत्कंठित रहती हैं । अगर हम इस सात्विक काव्य-प्रेम की उपेक्षा कर दें तो, मेरी तुच्छ सम्मति में, हिन्दी कविता के लिए यह कोई बहुत अच्छी बात नहीं होगी | परंपरा केवल वही मुख्य नहीं है जिसकी रचना बाहर हो रही है, कुछ वह भी प्रधान हैं जो हमें अपने पुरखों से विरासत के रूप में मिली है, जो निखिल भूमंडल के साहित्य के बीच हमारे अपने साहित्य की विशेषता है और जिसके भीतर से हम अपने हृदय को अपनी जाति के हृदय के साथ आसानी से मिला सकते हैं ।
मगर, कलाकारों की रुचि आज जो कथाकाव्यों की ओर नहीं जा रही है, उसका भी कारण है और वह यह कि विशिष्टीकरण की प्रक्रिया में महीन होते-होते
कविता केवल चित्र, चिन्तन और विरल संगीत के धरातल पर जा अटकी
है और जहाँ भी स्थूलता एवं वर्णन के संकट में फँसने का भय हैं, उस ओर कवि-कल्पना जाना नहीं चाहती । लेकिन, स्थूलता
और वर्णन के संकट का मुकाबिला किये बिना कथाकाव्य लिखने वाले का काम नहीं चल सकता
। कथा कहने में, अक्सर, ऐसी
परिस्थितियाँ आकर मौजूद हो जाती हैजिनका वर्णन करना तो जरूरी होता है, मगर, वर्णन काव्यात्मकता में व्याघात डाले बिना निभ
नहीं सकता । रामचरितमानस, साकेत और कामायनी के कमजोर स्थल इस
बात के प्रमाण हे। विशेषत:, कामायवीकार ने शायद इसी प्रकार
के संकटों से बचने के लिए कथासूत्र को अत्यन्त विरल कर देने की चेष्टा की थी।
किन्तु यह चेष्टा सर्वत्र सफल नहीं हो सकी ।
आजकल लोग बाजारों से ओट्स (जई) मँगाकर खाया करते हैं
। आंशिक तुलना में यह गीत और मृक्तक का आनन्द हैं । मगर, कथाकाव्य का आनन्द खेतों में देशी
पद्धति से जई उपजाने के आनन्द के सभान हैँ; यानी इस पद्धति से
जई के दाने तो मिलते ही हैं, कुछ घास और भूसा भी हाथ आता हैं,
कुछ लहलहाती हुई हरियाली देखने का भी सुख प्राप्त होता है और हल
चलाने में जो मेहनत पड़ती है, उससे कुछ तन्दुरुस्ती भी बनती
है ।
फिर भी यह सच है कि कथाकाव्य की रचना, आदि से अन्त तक, केवल दाहिने हाथ के भरोसे नहीं की जा सकती । जब मन ऊबने लगता है और
प्रतिभा आगे बढ़ने से इनकार कर देती है, तब हमारा उपेक्षित
बायां हाथ हमारी सहायता को आगे बढ़ता है। मगर, बेचारा बायाँ
हाथ तो बायाँ ही ठहरा । वह चमत्कार तो क्या दिखलाये, कवि की
कठिनाइयों का कुछ परदा ही खोल देता है । और इस क्रम में खूलने वाली कमजोरियों को
ढँकने के लिए कवि को नाना कौशलों से काम लेना पड़ता है ।
यह तो हुई महाक्राव्यों की बात | अगर इस “रश्मिरथी”
काव्य को सामने रखा जाये, तो मेरे जानते इसका
आरंभ ही बायें हाथ से हुआ है और आवश्यकतानूसार अनेक बार कलम बायें से दाहिने और
दाहिने से बायें हाथ आती-जाती रही है । फिर भी, खत्म होने पर
चीज मुझे अच्छी लगी।
विशेषत: मुझे इस बात का संतोष है कि अपने अध्ययन और
मनन से मैं कर्ण के चरित्र को जैसा समझ सका हूँ, वह इस काव्य में ठीक से उतर आया है और उसके वर्णन के
बहाने में अपने समय और समाज के विषय में जो कुछ कहना चाहता था, उसके अवसर भी मुझे यथास्थान मिल गये हैं ।
इस काव्य का आरम्भ मैंने १६ फरवरी, सन् १६५० ई० को किया था। उस समय
मुझे केवछ इतना ही पता था कि प्रयाग के यशस्वी साहित्यकार पं० लक्ष्मीनारायणजी
मिश्र कर्ण पर एक महाकाव्य की रचना कर रहे हैं। किन्तु, “रश्मिरथी
” के पूरा होते-होते हिन्दी में कर्णचरित पर कई नुतन और
रमणीय काव्य निकछ गये । यह युग दलितों और उपेक्षितों के उद्धार का युग है । अतएव,
यह बहुत स्वाभाविक है कि राष्ट्र-भारती के जागरूक कवियों का ध्यान
उस चरित की, ओर जाये जो हजारों वर्षों से हमारे सामने
उपेक्षित एवं कलंकित मानवता का मूक प्रतीक बनकर खड़ा रहा है । रश्मिरथी में स्वयं
कर्ण के मुख से निकला है-
मैं उनका आदर्श,
कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे,
पूछेगा जग;
किन्तु, पिता का नाम, न बोल
सकेंगे,
जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा,
मन में लिये उमंग जिन्हें चिर-काल कल्पना होगा |
कर्ण-चरित के उद्धार की चिन्ता इस बात का प्रमाण है
कि हमारे समाज में मानवीय गुणों की पहचान बढ़नेवाली है। कुछ और जाति का अहंकार
विदा हो रहा है । आगे, मनुष्य
केवल उसी पद का अधिकारी होगा जो उसके अपने सामर्थ्य से सूचित होता है, उस पद का नहीं, जो उसके माता पिता या वंश की देन है
। इसी प्रकार, व्यक्ति अपने निजी गुणों के कारण जिस पद का
अधिकारी है, वह उसे मिलकर रहेगा, यहाँ
तक कि उसके माता-पिता के दोष भी इसमें कोई बाधा नहीं डाल सकेंगे। कर्णचरित का
उद्धार एक तरह से, नई मानवता की स्थापना का ही प्रयास है और
मुझे संतोष है कि इस प्रयास में मैं अकेला नहीं, अपने अनेक
सुयोग्य सहधर्मियों के साथ हूँ ।
कर्ण का भाग्य,
सचमुच, बहुत दिनों के बाद जगा है । यह उसी का
परिणाम है कि उसके पार जाने के लिए आज जलयान पर जलयान तैयार हो रहे हैं । जहाजों
के इस बड़े बेड़े में मेरी ओर से एक छोटी-सी डोंगी ही सही ।
मुजफ्फरपुर |
विनीत दिनकर
संवत् २००९
समर्पण
मित्रतवर पंडित जनार्दनप्रसाद भा द्विज के, योग्य
एक रोज तो हमें स्वयं सब - कुछ देना पड़ता है।
बचते वही समय पर जो सर्वस्व दान करते हैं,
ऋतु का ज्ञान नहीं जिनको वे देकर भी मरते हैं।
[रश्मि-रथी: चतुर्थ सर्ग]
ब्राह्मणयः सत्यवादी च तपस्वी नियतव्रतः;
रिपुष्वपि दयावांश्च तस्मात् कर्णो वृषः स्मृतः ।
| श्रीकृष्णवचन |
बहुनात्र किमुक्तेव संक्षेपात् श्रृणु पाण्डव,
तत्समं त्वद्विशिष्टं वा कर्णे मन््ये महारथम् |
हृदय का निष्कपट, पावन क्रिया का,
दलित - तारक, समुद्धारक
त्रिया का,
बड़ा बेजोड़ दानी था, सदय था,
युधिष्ठिर ! कर्ण का अद्भुत हृदय था।
रश्मि-रथीः सप्तम सर्ग ]
प्रथम सर्ग
“जय हो, जग में जले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को,
जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, बल को ।
किसी वृन््त पर खिले विपिन में,
पर, नमस्य हे फूल,
सुधी खोजते नहीं गुणों का आदि,
शक्ति का मूल ।
ऊँच - नीच का भेद न मानें, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,
दया - धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।
क्षत्रिय वही, भरी
हो जिसमें निर्भयता की आग,
सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है हो जिसमें तप - त्याग |
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतलाके,
पाते हैं जग से प्रशस्ति अपना करवतब दिखलाके।
हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,
वीर खींचकर ही रहते हैं. इतिहासों में लीक ।
जिसके पिता सूर्य थे, माता कुन्ती सती कुमारी,
उसका पलना हुईं धार पर बहती हुई पिठारी।
सूत - वंश में पला, चखा भी नहीं जननि का क्षीर,
निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अदभुत वीर |
तन से समरशूर, मन
से भावुक, स्वभाव से दानी,
जाति-गोत्र का नहीं, शील का, पौरुष का अभिमानी।
ज्ञान-ध्यान, शस्त्रास्त्र,
शास्त्र का कर सम्यक् अभ्यास,
अपने गुण का किया कर्ण ने आप स्वयं सुविकास |
अलग नगर के कोलाहल से, अलग पुरी - पुरजन से,
कठिन साधना में उद्योगी लगा हुआ तन - मन से।
निज समाधि में निरत, सदा निज कर्मठता में चूर,
वन्य कुसुम - सा खिला कर्ण जग की आँखों से दूर ।
नहीं फूलते कुसुम सिर्फ राजाओं के उपवन में,
अमित बार खिलते वे पुर से दूर कुंज - कानन में |
समझे कौन रहस्य ? प्रकृति का बड़ा अनोखा हाल,
गुदड़ी में रखती चुन - चुनकर बड़े कीमती लाल।
जलद-पटल सें छिपा किन्तु, रवि कबतक रह सकता है ?
युग की अवहेलना शूरमा कबतक सह सकता है?
पाकर समय एक दिन आखिर उठी जवानी जाग,
फूट पड़ी सबके समक्ष पौरुष की पहली आग।
रंग-भूमि में अर्जुन था जब समाँ अनोखा बाँधे,
बढ़ा भीड़- भीतर से सहसा कर्ण शरासन साधे।
कहता हुआ, तालियों
से क्या रहा गर्व में फूल
अर्जुन ! तेरा सुयश अभी क्षण में होता है घूल।
तूने जो - जो किया, उसे मैं भी दिखला सकता हूं,
चाहे तो कुछ नई कलाएँ भी सिखला सकता हूँ।
आँख खोलकर देख, कर्ण
के हाथों का व्यापार,
फूले सस्ता सुयश प्राप्त कर, उस नर को धिक्कार।
इस प्रकार कह लगा दिखाने कर्ण कलाएँ रण की
सभा स्तब्ध रह गई, गई रह आंख टँगी जन-जन की ।
मंत्र - मुग्ध - सा मौन चतुर्दिक् जन का पारावार,
गूँज रही थी सिर्फ कर्ण की धन्वा की टंकार।
फिरा कर्ण, त्यों
साधु-साधु कह उठे सकल नर-नारी |
राजवंश के नेताओं पर पड़ी मुसीबत भारी।
द्रोण, भीष्म,
अर्जुन, सब फीके, सब हो
रहे उदास,
एक सुयोधन वढ़ा, बोलते हुए,--/वीर ! शाबाश !”
द्वन्द्व-युद्ध के लिए पार्थ को फिर उसने ललकारा,
अर्जुन को चुप ही रहने का, गुरु ने किया इशारा ।
कृपाचार्य ने कहा-- सुनो हे वीर युवक अनजान !
भरत - वंश - अवतंस पांडु की अर्जुन है संतान ।
क्षत्रिय है, यह
राजपुत्र है, यों ही नहीं लड़ेगा,
जिस - तिससे हाथपाई में कैसे कूद पड़ेगा ?
अर्जुन से लड़ना हो तो मत गहो सभा में मौन,
नाम-धाम कुछ कहो, बताओ कि तुम जाति हो कौन?”
जाति ! हाय री जाति ! कर्ण का हृदय छोभ से डोला,
कुपित सूर्य को ओर देख वह वीर क्रोध से बोला ।
“जाति-जाति रटते, जिनकी पूँजी, केवल
पाषंड,
मैं कया जानूँ जाति? जाति हैं ये मेरे भुजदंड ।
ऊपर सिर पर कनक-छत्र, भीतर काले के काले,
शरमाते हैं नहीं जगत में जाति पूछनेवाले।
सूतपुत्र हूँ मैं, लेकिन थे पिता पार्थ' के कौन ?
हिम्मत हो तो कहो, शर्म से रह जाओ मत मौन |
मस्तक ऊँचा किये, जाति का नाम लिये चलते हो,
मगर असल में, शोषण
के बल से सुख में पलते हो।
अधम जातियों से थर-थर कॉँपते तुम्हारे प्राण,
छल से माँग लिया करते हो अंगूठे का दान ।
पूछी मेरी जाति, शक्ति हो तो, मेरे भुजबल से,
रवि-समान दीपित ललाट से, और कवच-कुण्डल से ।
पढ़ो उसे जो झलक रहा है मुझमें तेज-प्रकाश,
मेरे रोम-रोम में अंकित है मेरा इतिहास।
अर्जुन बड़ा वीर क्षत्रिय है तो आगे वह आवे,
क्षत्रियत्व का तेज जरा मुझकों भी तो दिखलावे।
अभी छीन इस राजपुत्र के कर से तीर-कमान,
अपनी महाज़ाति की दूँगा मैं तुमको पहचान।?”
कृपाचार्य ने कहा--“वृथा तुम क्रुद्ध हुए जाते हो,
साधारण-सी बात, उसे
भी समझ नहीं पाते हो।
राजपुत्र से लड़े बिना होता हो अगर अकाज,
अर्जित करना तुम्हें चाहिए पहले कोई राज।”
कर्ण हतप्रभ हुआ तनिक, मन-ही-मन कुछ भरमाया,
सह न सका अन्याय, सुयोधन बढ़कर आगे आया।
बोला--“बड़ा पाप
है करना इस प्रकार, अपमान,
उस नर का जो दीप रहा हो, सचमुच, सूर्य -समान ।
मूल जानना बड़ा कठिन है नदियों का,
वीरों का,
धनुष छोड़कर और गोत्र क्या होता रणधीरों का?
पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर,
जाति-जाति का शोर मचाते केवल कायर,
कूर।
किसने देखा नहीं कर्ण जब निकल भीड़ से आया,
अनायास आतंक एक संपूर्ण सभा पर छाया?
कर्ण भले ही सूतपुत्र हो अथवा श्वपच, चमार,
मलिन, मगर,
इसके आगे हैं सारे राजकुमार ।
करना क्या अपमान ठीक है इस अनमोल रतन का,
मानवता की इस विभूति का, घरती के इस धन का ?
विना राज्य यदि नहीं वीरता का इसको अधिकार,
'तो मेरी यह खुली घोषणा सुने सकल संसार।
अंगदेश का मुकुट कर्ण के मस्तक पर धरता हूँ,
एक राज्य इस महावीर के हिंत अर्पित करता हूँ।”
रखा कर्ण के सिर पर उसने अपना मुकुट उतार,
गूंजा रंगभूमि में दुर्योधन का जय-जय-कार।
कर्ण चकित रह गया सुयोधन की इस परम कृपा से,
फूट पड़ा मारे कृतज्ञता के भर उसे भुजा से।
दुर्योधन ने हृदय लगाकर कहा--“बन्धु ! हो शान्त,
मेरे इस क्षुद्रोपहार से क्यों होता उद्भ्रान्त ?
किया कौन-सा त्याग अनोखा, दिया राज यदि तुमको ?
अरे, धन्य हो
जाये प्राण, तू प्रहदण करे यदि मुझको ।”
कर्ण और गल गया, “हाय, मुझपर भी इतना स्नेह !
वीर बन्धु ! हम हुए आज से एक प्राण,
दो देह।
भरी सभा के बीच आज तूने जो मान दिया है,
पहले-पहल मुझे! जीवन में जो उत्थान दिया है।
उऋण भला होऊँगा उससे चुका कौन-सा दाम
कृपा करें दिनमान कि आऊ तेरे कोई काम ।”
घेर खड़े हो गये कर्ण को मुदित,
मुग्ध पुरवासी,
होते दी हैं लोग शूरता-पूजन के अभिलाषी।
चाहे जो भो कहे द्वेष, ईर्ष्या, मिथ्या अभिमान,
जनता निज आराध्य वीर को पर, लेती पहचान |
लगे लोग पूजने कर्से को कुंकुम और कमल से,
रंग-भूमि भर गई चतुर्दिक् पुलकाकुल कलकल से।
विनयपूर्ण प्रतिवन्दन में ज्यों झुका कर्ण सविशेष।
जनता विकल पुकार उठी, “जय महाराज अंगेश !?
“महाराज अंगेश!” तीर-सा लगा हृदय सें जाके,
विफल क्रोध में कहा भीम ने और नहीं कुछ पाके--
“हय की झाड़े पूँछ, आजतक रहा यही तो काज,
सूतपुत्र किस तरह चला पायेगा कोई राज ”?
दुर्योधन ने कहा--भीम ! झूठे बकबक करते हो,
कहलाते घर्मज्ञ, द्वेष का विष मन में घरते हो।
बड़े वंश से क्या होता है, खोटे हों यदि काम
नर का गुण उज्ज्वल चरित्र है, नहीं वंश-धन-धाम |
सचमुच ही तो कहा कर्ण ने तुम्हीं कौन हो, बोलो ?
जन्मे थे किस तरह ? ज्ञात हो तो रहस्य यह खोलो ।
अपना अवगुण नहीं देखता, अजब जगत का हाल,
निज आँखों से नहीं सूझता, सच है, अपना भाल |”
कृपाचार्य आ पड़े बीच में, बोले-“छिः ! यह क्या है
तुमलोगों में बची नाम को भी क्या नहीं हया है?
चलो, चलें घर को,
देखो, होने को आई शाम,
थके हुए होगे तुम सब, चाहिए तुम्हें आराम ।”
रंग-भूमि से चले सभी पुरवासी मोद मनाते,
कोई कर्ण, पार्थ
का कोई गुण आपस में गाते।
सबसे अलग चले अर्जुन को लिये हुए गुरु द्रोण,
कहते हुए--“पार्थ
! पहुँचा यह राहु नया फिर कौन ?
जन्मे नहीं जगत में अर्जून ! कोई प्रतिबल तेरा,
टंगा रहा है एक इसी पर ध्यान आजतक मेरा।
एकलव्य से लिया अंगूठा, कढ़ी न मुख से आह,
रखा चाहता हूँ निष्कंटक बेटा! तेरी राह।
मगर, आज जो कुछ
देखा उससे धीरज हिलता है,
मुझे कर्ण में चरम वीरता का लक्षण मिलता है।
बढ़ता गया अगर निष्कंटक यह उद्भट भट बाल,
अर्जुन! तेरे लिए कभी वह हो सकता है काल |
सोच रहा हूँ, क्या
सलूक में इसके साथ करूँगा,
इस प्रचंडतम घूमकेतु का कैसे तेज हरूँगा?
शिष्य बनाऊंगा न कर्ण को, यह निश्चित है बात,
रखना ध्यान विकट प्रतिभट का पर तू भी हे तात !”
रंगभूमि से लिये कर्ण को, कौरव शंख बजाते,
चले झूमते हुए खुशी में गाते, मौज मनाते।
सोने के दो शैल-शिखर-सम सुगठित,
सुघर, सुवर्ण,
गलबाँही दे चले परस्पर दुर्योधन औ”
कर्ण।
बड़ी तृप्ति के साथ सूर्य शीतल अस्ताचल पर से,
चूम रहे थे अंग पुत्र का स्निग्घ,
सुकोमल कर से।
आज न था प्रिय उन्हें दिवस का समय-सिद्ध अवसान,
विरम गया क्षण एक क्षितिज पर गति को छोड़ विमान |
ओर हाय, रनिवास
चला वापस जब राजभवन को,
सबके पीछे चलीं एक विकला मसोसती मन को ।
उजड़ गये हों स्वप्न कि जैसे द्वार गई हो दाँव,
नहीं उठाये भी उठ पाते थे कुन्ती के पाँव।
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