अ॒ग्निमी॑ळे पु॒रोहि॑तं य॒ज्ञस्य॑ दे॒वमृ॒त्विज॑म्। होता॑रं रत्न॒धात॑मम्॥
यहाँ प्रथम मन्त्र में अग्नि शब्द करके ईश्वर ने अपना और भौतिक अर्थ का उपदेश किया है।
पदार्थ -
हम लोग (यज्ञस्य) विद्वानों के सत्कार सङ्गम महिमा और कर्म के (होतारम्) देने तथा ग्रहण करनेवाले (पुरोहितम्) उत्पत्ति के समय से पहिले परमाणु आदि सृष्टि के धारण करने और (ऋत्विजम्) वारंवार उत्पत्ति के समय में स्थूल सृष्टि के रचनेवाले तथा ऋतु-ऋतु में उपासना करने योग्य (रत्नधातमम्) और निश्चय करके मनोहर पृथिवी वा सुवर्ण आदि रत्नों के धारण करने वा (देवम्) देने तथा सब पदार्थों के प्रकाश करनेवाले परमेश्वर की (ईळे) स्तुति करते हैं। तथा उपकार के लिये हम लोग (यज्ञस्य) विद्यादि दान और शिल्पक्रियाओं से उत्पन्न करने योग्य पदार्थों के (होतारम्) देनेहारे तथा (पुरोहितम्) उन पदार्थों के उत्पन्न करने के समय से पूर्व भी छेदन धारण और आकर्षण आदि गुणों के धारण करनेवाले (ऋत्विजम्) शिल्पविद्या साधनों के हेतु (रत्नधातमम्) अच्छे-अच्छे सुवर्ण आदि रत्नों के धारण कराने तथा (देवम्) युद्धादिकों में कलायुक्त शस्त्रों से विजय करानेहारे भौतिक अग्नि की (ईळे) वारंवार इच्छा करते हैं।
भावार्थ -
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार से दो अर्थों का ग्रहण होता है। पिता के समान कृपाकारक परमेश्वर सब जीवों के हित और सब विद्याओं की प्राप्ति के लिये कल्प-कल्प की आदि में वेद का उपदेश करता है। जैसे पिता वा अध्यापक अपने शिष्य वा पुत्र को शिक्षा करता है कि तू ऐसा कर वा ऐसा वचन कह, सत्य वचन बोल, इत्यादि शिक्षा को सुनकर बालक वा शिष्य भी कहता है कि सत्य बोलूँगा, पिता और आचार्य्य की सेवा करूँगा, झूठ न कहूँगा, इस प्रकार जैसे परस्पर शिक्षक लोग शिष्य वा लड़कों को उपदेश करते हैं, वैसे ही अग्निमीळे० इत्यादि वेदमन्त्रों में भी जानना चाहिये। क्योंकि ईश्वर ने वेद सब जीवों के उत्तम सुख के लिये प्रकट किया है। इसी वेद के उपदेश का परोपकार फल होने से अग्निमीळे० इस मन्त्र में ईडे यह उत्तम पुरुष का प्रयोग भी है। (अग्निमीळे०) इस मन्त्र में परमार्थ और व्यवहारविद्या की सिद्धि के लिये अग्नि शब्द करके परमेश्वर और भौतिक ये दोनों अर्थ लिये जाते हैं। जो पहिले समय में आर्य लोगों ने अश्वविद्या के नाम से शीघ्र गमन का हेतु शिल्पविद्या आविष्कृत की थी, वह अग्निविद्या की ही उन्नति थी। परमेश्वर के आप ही आप प्रकाशमान सब का प्रकाशक और अनन्त ज्ञानवान् होने से, तथा भौतिक अग्नि के रूप दाह प्रकाश वेग छेदन आदि गुण और शिल्पविद्या के मुख्य साधक होने से अग्नि शब्द का प्रथम ग्रहण किया है ॥१॥
I invoke and worship Agni light of life, self- refulgent lord of the universe, foremost leader and inspirer, blazing light of yajnic creation, high-priest of cosmic dynamics, controller of natural evolution, and most generous giver of the treasures of life.
स नः॑ पि॒तेव॑ सू॒नवेऽग्ने॑ सूपाय॒नो भ॑व। सच॑स्वा नः स्व॒स्तये॑॥
हे (सः) उक्त गुणयुक्त (अग्ने) ज्ञानस्वरूप परमेश्वर ! (पितेव) जैसे पिता (सूनवे) अपने पुत्र के लिये उत्तम ज्ञान का देनेवाला होता है, वैसे ही आप (नः) हम लोगों के लिये (सूपायनः) शोभन ज्ञान, जो कि सब सुखों का साधक और उत्तम पदार्थों का प्राप्त करनेवाला है, उसके देनेवाले (भव) हूजिये तथा (नः) हम लोगों को (स्वस्तये) सब सुख के लिये (सचस्व) संयुक्त कीजिये॥९॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। सब मनुष्यों को उत्तम प्रयत्न और ईश्वर की प्रार्थना इस प्रकार से करनी चाहिये कि-हे भगवन् ! जैसे पिता अपने पुत्रों को अच्छी प्रकार पालन करके और उत्तम-उत्तम शिक्षा देकर उनको शुभ गुण और श्रेष्ठ कर्म करने योग्य बना देता है, वैसे ही आप हम लोगों को शुभ गुण और शुभ कर्मों में युक्त सदैव कीजिये॥९॥
As a father is ever one with his child in love, so may Agni, lord of life and light and father guardian of His creation, be ever close to us in love and benediction. Father of us all, give us the grace of life divine.
स्व॒स्ति नो॑ मिमीताम॒श्विना॒ भगः॑ स्व॒स्ति दे॒व्यदि॑तिरन॒र्वणः॑। स्व॒स्ति पू॒षा असु॑रो दधातु नः स्व॒स्ति द्यावा॑पृथि॒वी सु॑चे॒तुना॑ ॥११॥
हे मनुष्यो ! जैसे (अश्विना) अध्यापक और उपदेशक जन (अनर्वणः) अश्वरहित का (स्वस्ति) सुख (मिमीताम्) रचें और (भगः) ऐश्वर्य्य को करनेवाला वायु (नः) हम लोगों के लिये (स्वस्ति) सुख (देवी) प्रकाशित (अदितिः) अखण्डविद्या (नः) हम लोगों के लिये (स्वस्ति) सुख (सुचेतुना) उत्तम विज्ञापन से (द्यावापृथिवी) प्रकाश और भूमि हम लोगों के लिये (स्वस्ति) सुख और (पूषा) पुष्टि करनेवाला दुग्धादि पदार्थ और (असुरः) मेघ हम लोगों के लिये सुख को (दधातु) धारण करे, वैसे आप लोगों के लिये भी वे सुख को धारण करें ॥११॥
भावार्थ - जो मनुष्य पदार्थविद्या से जिन पदार्थों को उपयुक्त करें अर्थात् काम में लावें, वे इनसे उपकार ग्रहण करने को समर्थ होवें ॥११॥
May the Ashvins, complementarities of nature and humanity such as teachers and preachers, day and night, sun and moon, prana and apana energies, bring us peace and well-being. May Bhaga, lord of glory, bless us with peace and honour. May the eternal imperishable Mother Nature and indivisible Vedic revelation of omniscience bless the independent scholars with peace and spiritual joy and vision. May the nourishment and showers of the life-giving cloud bring us peace and joy. And may the heaven and earth bless us with peace of mind, joy of knowledge and spiritual illumination.
स्व॒स्तये॑ वा॒युमुप॑ ब्रवामहै॒ सोमं॑ स्व॒स्ति भुव॑नस्य॒ यस्पतिः॑। बृह॒स्पतिं॒ सर्व॑गणं स्व॒स्तये॑ स्व॒स्तय॑ आदि॒त्यासो॑ भवन्तु नः ॥१२॥
हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग (स्वस्तये) सुख के लिये (वायुम्) वायुविद्या और (सोमम्) ऐश्वर्य्य का (उप, ब्रवामहै) उपदेश देवें, वैसे सुनकर आप लोग अन्यों के प्रति उपदेश दीजिये और (यः) जो (भुवनस्य) लोक का (पतिः) स्वामी है वह (स्वस्तये) उपद्रव दूर होने के लिये (सर्वगणम्) सम्पूर्ण समूह जिसमें उस (बृहस्पतिम्) बड़ी वेदवाणियों के स्वामी को और (नः) हम लोगों के लिये (स्वस्ति) सुख को धारण करे और जैसे (आदित्यासः) अड़तालीस वर्ष परिमित ब्रह्मचर्य्य से किया विद्याभ्यास जिन्होंने तथा जो मास के सदृश सम्पूर्ण विद्याओं में व्याप्त वे हम लोगों के अर्थ (स्वस्तये) अत्यन्त सुख के लिये (भवन्तु) होवें, वैसे आप लोगों के लिये भी हों ॥१२॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । मनुष्य परस्पर पदार्थविद्या को सुन और अभ्यास करके विद्वान् होवें ॥१२॥
Let us study and describe Vayu, wind, energy, and pursue programmes of peace and joy for our social good and well-being. May the lord ruler who controls and sustains the world be good and kind to us. Let us pray to the Lord of the expansive universe and honour the head of all the world communities for our peace and progress. May the scholars of the highest order and the cycle of the solar phases of time and seasons be good and kind to us for our well-being.
विश्वे॑ दे॒वा नो॑ अ॒द्या स्व॒स्तये॑ वैश्वान॒रो वसु॑र॒ग्निः स्व॒स्तये॑। दे॒वा अ॑वन्त्वृ॒भवः॑ स्व॒स्तये॑ स्व॒स्ति नो॑ रु॒द्रः पा॒त्वंह॑सः ॥१३॥
हे मनुष्यो ! जैसे (अद्या) आज (विश्वे, देवाः) सम्पूर्ण विद्वान् जन (स्वस्तये) सुख के लिये (नः) हम लोगों की (अवन्तु) रक्षा करें और (स्वस्तये) सुख के लिये (वैश्वानरः) समस्त मनुष्यों में प्रकाशमान (वसुः) सर्वत्र वसनेवाला (अग्निः) अग्नि रक्षा करे और (ऋभवः) बुद्धिमान् (देवाः) विद्वान् जन (स्वस्तये) विद्यासुख के लिये रक्षा करें और (रुद्रः) दुष्टों को दण्ड देनेवाला (स्वस्ति) सुख की भावना करके (नः) हम लोगों की (अंहसः) अपराध से (पातु) रक्षा करे ॥१३॥
भावार्थ - विद्वानों की योग्यता है कि उपदेश और अध्यापन से सब मनुष्यों की निरन्तर रक्षा करके वृद्धि करावें ॥१३॥
May all the generous divinities of nature and brilliant sages of the world be good and kind to us for our well-being today. May the all pervasive vitality of life’s energy be kind and favourable for our peace and well-being. May all the generous scholars and brilliant experts be for our good and advancement in peace with joy. May Rudra, lord of law and justice, be good and kind and save us from sin for our well-being. May all the divinities protect us.
स्व॒स्ति मि॑त्रावरुणा स्व॒स्ति प॑थ्ये रेवति। स्व॒स्ति न॒ इन्द्र॑श्चा॒ग्निश्च॑ स्व॒स्ति नो॑ अदिते कृधि ॥१४॥
हे (अदिते) खण्डितविद्या से रहित (रेवति) बहुत धन से युक्त ! आप (पथ्ये) मार्गयुक्त कर्म्म में जैसे (मित्रावरुणा) प्राण और उदान (नः) हम लोगों के लिये (स्वस्ति) सुख (इन्द्रः, च) और वायु (स्वस्ति) सुख को (अग्निः, च) और बिजुली (स्वस्ति) सुख (नः) हम लोगों के लिये करती है, वैसे (स्वस्ति) सुख (कृधि) करिये ॥१४॥
भावार्थ - जो सब जीवों के लिये सुख देता है, वही विद्वान् प्रशंसित होता है ॥१४॥
May Mitra and Varuna, sun and moon, prana and udana energies of nature, rich in life’s wealth of vitality, be for our good and well-being and guard us to move on the right path of action. May the universal electric energy and the vital heat of life’s vitality be kind and good for our well-being. O Mother Nature, eternal and imperishable one, do us good, be kind and gracious.
स्व॒स्ति पन्था॒मनु॑ चरेम सूर्याचन्द्र॒मसा॑विव। पुन॒र्दद॒ताघ्न॑ता जान॒ता सं ग॑मेमहि ॥१५॥
हम लोग (सूर्याचन्द्रमसाविव) सूर्य्य और चन्द्रमा के सदृश (स्वस्ति) सुख (पन्थाम्) मार्गों के (अनु, चरेम) अनुगामी हों और (पुनः) फिर (ददता) दान करने (अघ्नता) और नहीं नाश करनेवाले (जानता) विद्वान् के साथ (सम्, गमेमहि) मिलें ॥१५॥
भावार्थ - हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य्य और चन्द्रमा नियम से दिनरात्रि चलते हैं, वैसे न्याय के मार्ग को प्राप्त हूजिये और सज्जनों के साथ समागम करिये ॥१५॥
Let us follow the path of peace, progress and well-being like the sun and moon, moving forward with men of knowledge and self-awareness, giving, receiving and giving again, in our orbit without hurting and encroachment on the rights of others, at the same time maintaining our own identity.
ये दे॒वानां॑ य॒ज्ञिया॑ य॒ज्ञिया॑नां॒ मनो॒र्यज॑त्रा अ॒मृता॑ ऋत॒ज्ञाः। ते नो॑ रासन्तामुरुगा॒यम॒द्य यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥१५॥
(ये) जो (देवानाम्) विद्वानों के बीच विद्वान् (यज्ञियानाम्) यज्ञ करने के योग्यों में (यज्ञियाः) यज्ञ करने योग्य (मनोः) विचारशील के (यजत्राः) सङ्ग करने (अमृताः) अपने स्वरूप से नित्य वा जीवन्मुक्त रहने (ऋतज्ञाः) और सत्य के जाननेवाले हैं (ते) वे (अद्य) आज (नः) हम लोगों के लिये (उरुगायम्) बहुतों ने गाये हुए विद्याबोध को (रासन्ताम्) देवें, हे विद्वानो ! (यूयम्) तुम (स्वस्तिभिः) विद्यादि दानों से (नः) हम लोगों की (सदा) सर्वदा (पात) रक्षा करो ॥१५॥
भावार्थ - हे मनुष्यो ! जो अत्यन्त विद्वान् अत्यन्त शिल्पी सत्य आचरण करनेवाले जीवन्मुक्त ब्रह्मवेत्ता जन हम लोगों को विद्या और सुन्दर शिक्षा से निरन्तर उन्नति देते हैं, उनको हम लोग रखकर सदा सेवें ॥१५॥
Those who are most venerable of the venerable divines of brilliance honoured by the wise, immortal knowers of truth and divine law, may bless us with knowledge universally celebrated. May you all, O divine sages and natural powers of divinity, protect and promote us with peace and joy for happiness and well being for all time.
येभ्यो॑ मा॒ता मधु॑म॒त्पिन्व॑ते॒ पय॑: पी॒यूषं॒ द्यौरदि॑ति॒रद्रि॑बर्हाः । उ॒क्थशु॑ष्मान्वृषभ॒रान्त्स्वप्न॑स॒स्ताँ आ॑दि॒त्याँ अनु॑ मदा स्व॒स्तये॑ ॥
(येभ्यः) जिन विद्वानों के लिए (माता) जगत् की माता या जगत् का निर्माता परमात्मा (मधुमत् पयः पिन्वते) मधुर वेदज्ञान रस को सींचता है-देता है (अद्रिबर्हाः) प्रशंसाकर्ताओं को बढ़ानेवाला (अदितिः) अखण्डित (द्यौः) ज्ञानप्रकाशमान परमात्मा (पीयूषम्) अमृत मोक्षानन्द को सींचता है-देता है (तान्-उक्थशुष्मान्) उन वेदवाणीबलवालों को (आदित्यान्) अखण्डित ब्रह्मचर्यवाले विद्वानों को (स्वस्तये-अनुमद) कल्याण के लिए हर्षित कर तृप्त कर ॥३॥
भावार्थ - ज्ञानप्रकाशमान जगत् का रचयिता परमात्मा जिन अखण्डित ब्रह्मचारियों को वेदज्ञान अमृत मोक्ष प्रदान करता है, उनको प्रत्येक प्रकार से अपने कल्याणार्थ तृप्त करना चाहिए ॥३॥
Serve, exhilarate and replenish those Adityas, children of light on earth and brilliancies of nature for whom mother earth yields and augments honey sweets of the milk of life, the sun, mother infinity and the cloud bearing sky shower nectar sweets of rain. Be grateful and rejoice with those, Adityas, who bring the resonance of mantric power to yajna, who move the mighty clouds of rain and who perform the noblest creative acts for the good, happiness and all round well being of life.
नृ॒चक्ष॑सो॒ अनि॑मिषन्तो अ॒र्हणा॑ बृ॒हद्दे॒वासो॑ अमृत॒त्वमा॑नशुः । ज्यो॒तीर॑था॒ अहि॑माया॒ अना॑गसो दि॒वो व॒र्ष्माणं॑ वसते स्व॒स्तये॑ ॥
(देवासः) वे विद्वान् (नृचक्षसः) नरों के चेतानेवाले (अनिमिषन्तः) अपने कर्त्तव्यों में निमेष-अन्तर न करते हुए (अर्हणा) सर्वथा योग्य (बृहत्-अमृतत्वम्-आनशुः) महान् अमृत तत्त्व-मोक्षसुख को प्राप्त करते हैं (ज्योतिः-रथाः) ज्ञानप्रकाश में रमण जिनका है, वे (अहिमायाः) न हनन करने योग्य प्रज्ञावाले (अनागसः) पापरहित (दिवः-वर्ष्माणम्) मोक्ष के सुखवर्षक पद को (स्वस्तये वसते) कल्याण करने के लिए आच्छादन करते हैं ॥४॥
भावार्थ - अकुण्ठित बुद्धिवाले अपने कर्त्तव्यों में अन्तर न करनेवाले पापरहित होकर मोक्षसुख को प्राप्त करते हैं और संसार में भी कल्याण को, जो अपने ऊपर आच्छादित है ॥४॥
Ever watchful inspirers of humanity, active without a wink, adorable in their own right, mighty brilliant and generous, they attain to the freedom of immortality. They ride the chariot of light and, inviolable of might and free from sin and evil, they abide on top of heaven. May they come and bless our yajna for the good and all round well being of life. Serve them, exhilarate them, be grateful and rejoice.
स॒म्राजो॒ ये सु॒वृधो॑ य॒ज्ञमा॑य॒युरप॑रिह्वृता दधि॒रे दि॒वि क्षय॑म् । ताँ आ वि॑वास॒ नम॑सा सुवृ॒क्तिभि॑र्म॒हो आ॑दि॒त्याँ अदि॑तिं स्व॒स्तये॑ ॥
(ये) जो (सम्राजः) ज्ञान से सम्यक् प्रकाशमान (सुवृधः) उत्तम गुणवृद्ध (अपरिह्वृताः) कामादि से अविचलित या विचलित न होनेवाले (यज्ञम्-आययुः) अध्यात्मयज्ञ या यज्ञरूप सङ्गमनीय परमात्मा को साक्षात् किये हुए हैं या करते हैं (दिवि क्षयं दधिरे) मोक्षधाम में निवास धारण करते हैं या धारण करने योग्य हैं (तान्-आदित्यान्) उन अखण्डित ज्ञान ब्रह्मचर्य से युक्त हुओं की (नमसा सुवृक्तिभिः) उत्तम अन्न आदि भोग से या शुभ प्रशंसाओं से (अदितिं स्वस्तये-आविवास) अखण्डित कल्याणस्वरूप मुक्ति के लिए सेवा सङ्गति कर ॥५॥
भावार्थ - जो ज्ञानवृद्ध और गुणवृद्ध तथा कामादि दोषों से रहित मोक्ष के अधिकारी जीवन्मुक्त महानुभाव हैं, उनकी सङ्गति करनी चाहिए अपनी कल्याण कामना के लिए ॥५॥
Those illustrious children of light, self-refulgent and steadily rising in knowledge and wisdom, who come and grace the yajna and, straight and unassailable in action and character, abide in the sphere of the light of divinity, those great children of inviolable mother Infinity and Mother Nature, serve, exhilarate and replenish with homage and humility for the good and all round well being of life. Be grateful with holy words of praise and rejoice.
को व॒: स्तोमं॑ राधति॒ यं जुजो॑षथ॒ विश्वे॑ देवासो मनुषो॒ यति॒ ष्ठन॑ । को वो॑ऽध्व॒रं तु॑विजाता॒ अरं॑ कर॒द्यो न॒: पर्ष॒दत्यंह॑: स्व॒स्तये॑ ॥
(विश्वेदेवासः) हे सब विषयों में प्रविष्ट विद्वानों ! (मनुषः-यति-स्थन) तुम मननशील जितने हो (यं जुजोषथ) जिस परमात्मा को तुम उपासित करते हो-सेवन करते हो (वः) तुम्हारे मध्य में (कः स्तोमं राधति) कौन स्तुतियोग्य परमात्मा को साधित करता है-साक्षात् करता है (वः) तुम्हारे मध्य में (तुविजाताः) बहुत प्रसिद्ध विद्वान् (वः) तुम्हारे मध्य में (कः) कौन (अध्वरम्-अरं करत्) अध्यात्मयज्ञ को पूर्ण करता है (यः-अंहः पर्षत्) जो पाप से हमें पार करता है (स्वस्तये) कल्याण के लिए ॥६॥
भावार्थ - विद्वानों के पास जाकर के अपने कल्याणार्थ उनसे जिज्ञासा प्रकट करे और कहे कि आप महानुभाव समस्त विद्याओं में प्रविष्ट हो, हम कैसे पाप से पृथक् रहें और परमात्मा का साक्षात्कार कैसे करें, यह हमें समझाइये, जिससे हम कल्याण को प्राप्त कर सकें ॥६॥
O Vishvedevas, brilliancies of nature and humanity, O thoughtful people, all of you born on the earth that abide on the vedi, who leads your song of divinity to success? Whom do you love and serve with adoration? Who leads your yajna to auspicious completion? He that cleanses us of sin and evil. That same divinity whom you love and adore, that same lord of yajna, serve and exhilarate for the sake of the good and all round well being of life. Be grateful and rejoice.
येभ्यो॒ होत्रां॑ प्रथ॒मामा॑ये॒जे मनु॒: समि॑द्धाग्नि॒र्मन॑सा स॒प्त होतृ॑भिः । त आ॑दित्या॒ अभ॑यं॒ शर्म॑ यच्छत सु॒गा न॑: कर्त सु॒पथा॑ स्व॒स्तये॑ ॥
(समिद्धाग्निः-मनुः) अग्रणायक परमात्मा जिसने साक्षात् कर लिया, ऐसा मननशील उपासक (येभ्यः) जिन जीवन्मुक्त विद्वानों से (प्रथमां होत्रां मनसा-आयजे) प्रमुख वेदरूप वाणी को या उसमें प्रतिपादित स्तुति को अवधान से आत्मसात् करता है-अपनाता है (सप्तहोतृभिः) सात संख्यावाले ग्रहणकर्ता साधनों-मन बुद्धि चित्त अहङ्कार श्रोत्र नेत्र वाणियों से (ते-आदित्याः) वे अखण्डज्ञान ब्रह्मचर्यवाले (नः-अभयं शर्म यच्छत) हमारे लिए भयरहित सुख प्रदान करें (सुपथा सुगा कर्त) शोभन पथवाले अच्छे गन्तव्य-ज्ञानसम्पादन करो (स्वस्तये) कल्याण के लिए ॥७॥
भावार्थ - ऐसे जीवन्मुक्त, जिन्होंने मन बुद्धि चित्त अहङ्कार श्रोत्र नेत्र और वाणी को परमात्मा में समर्पित किया हुआ है, उनसे वेद का ज्ञान तथा वेदोक्त स्तुति का शिक्षण लेकर अपने अन्दर परमात्मा का साक्षात् करे, यह कल्याण का साधन है ॥७॥
Those Adityas, children of eternal light blest with knowledge and wisdom of divinity, for whom Manu, omniscient creator, lighted the first fire of creative yajna with thought and tapas and conducted the yajna with seven priests (five elements with mahat and Ahankara, seven pranas, sevenfold sense and mind complex, seven rays of the sun, seven sages and seven chhandas of the Veda) may, we pray, bring a peaceful life and home with freedom from fear and make our paths of life simple, straight and clear from darkness and evil for the good and all round well being of life.
य ईशि॑रे॒ भुव॑नस्य॒ प्रचे॑तसो॒ विश्व॑स्य स्था॒तुर्जग॑तश्च॒ मन्त॑वः । ते न॑: कृ॒तादकृ॑ता॒देन॑स॒स्पर्य॒द्या दे॑वासः पिपृता स्व॒स्तये॑ ॥
(ये) जो (प्रचेतसः) प्रकृष्ट सावधान (मन्तवः) मननशील (विश्वस्य भुवनस्य) सब उत्पन्न हुए (स्थातुः-जगतः-च) स्थावर और जङ्गम तथा उन सम्बन्धी ज्ञान का (ईशिरे) स्वामित्व करते हैं, उनके ज्ञान में समर्थ हैं अथवा परमात्मा उनके ज्ञान में समर्थ है (ते देवासः) वे विद्वान् या परमात्मा (नः) हमें (कृतात्-अकृतात्-एनसः-अद्य पिपृत) किये या किये जानेवाले सङ्कल्पमय पाप से आज अथवा इस जीवन में हमारी रक्षा करें (स्वस्तये) कल्याण के लिए ॥८॥
भावार्थ - मननशील सावधान विद्वान् अथवा परमात्मा सब उत्पन्न हुए स्थावर जङ्गम के जाननेवाले होते हैं। वे हमें वर्तमान और भविष्य में होनेवाले पापों से हमारे कल्याण के लिए हमें सावधान किया करते हैं। उनके उपदेश और सङ्गति में जीवन बिताना चाहिए ॥८॥
Those divine, brilliant and generous powers of nature and humanity with a noble heart and mind that know and rule the entire moving and unmoving world of existence may, we pray, save us today and protect us from sin and evil whether past or future for the good and all round well being of life.
भरे॒ष्विन्द्रं॑ सु॒हवं॑ हवामहेंऽहो॒मुचं॑ सु॒कृतं॒ दैव्यं॒ जन॑म् । अ॒ग्निं मि॒त्रं वरु॑णं सा॒तये॒ भगं॒ द्यावा॑पृथि॒वी म॒रुत॑: स्व॒स्तये॑ ॥
(भरेषु) काम वासना आदि के साथ प्राप्त संघर्षों में (सुहवम्-अंहोमुचं सुकृतम्) सुगमता से पुकारने योग्य, पाप से छुड़ानेवाले, उत्तम सृष्टिकर्त्ता (दैव्यं जनम्-इन्द्रम्) दिव्यगुणसम्पन्न तथा उत्पन्न करनेवाले परमात्मा (अग्निं मित्रं वरुणं भगम्) ज्ञानप्रकाशक, संसार में कर्म करने के लिए प्रेरक, मोक्ष के लिए वरनेवाले ऐश्वर्यवान् (द्यावापृथिवी मरुतः सातये स्वस्तये) ज्ञानदाता, सर्वधारक, जीवनप्रदाता परमात्मा को भोगप्राप्ति के लिए, कल्याण मोक्षप्राप्ति के लिए (हवामहे) आह्वान करते हैं-बुलाते हैं ॥९॥
भावार्थ - कामवासना आदि दोषों से बचने के लिए तथा सुख शान्ति और मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रेरक धारक ज्ञानदाता परमात्मा की शरण लेनी चाहिए और उसकी स्तुति प्रार्थना उपासना करनी चाहिए ॥९॥
For success in our yajnic struggles of life and for victory against negativity and evils of the world, we call upon and pray to Indra, mighty ruler of the world, instant listener, noble doer and deliverer from sin and adversity. We call upon Agni, spirit of light and fire, Mitra, loving power of friendship, Varuna, power of judgement and discrimination, Bhaga, lord of power and prosperity, earth and heaven, Maruts, tempestuous forces, and the noble and brilliant people dedicated to positive good action so that we may enjoy the good life of all round well being.
सु॒त्रामा॑णं पृथि॒वीं द्याम॑ने॒हसं॑ सु॒शर्मा॑ण॒मदि॑तिं सु॒प्रणी॑तिम् । दैवीं॒ नावं॑ स्वरि॒त्रामना॑गस॒मस्र॑वन्ती॒मा रु॑हेमा स्व॒स्तये॑ ॥
(सुत्रामाणम्) सुखपूर्वक संसारसागर से रक्षा करनेवाली (पृथिवीम्) प्रथित (द्याम्) ज्ञान से दीप्त (अनेहसम्) पापरहित- (सुशर्माणम्) उत्तम सुखरूप (अदितिम्) अखण्डित (सुप्रणीतिम्) आत्मा का सुप्रणयन करनेवाली (स्वरित्राम्) शोभन अरित्रोंवाली जैसी सुरक्षित (अस्रवन्तीम्) छिद्ररहित दृढ़ (दैवीं नावम्) दैवी नौका को-उत्तम स्तुतियोग्य मुक्तिरूप नौका को (स्वस्तये-आरुहेम) कल्याण के लिए प्राप्त करें ॥१०॥
भावार्थ - मुक्ति संसारसागर से त्राण करनेवाली, उत्तम सुख देनेवाली, आत्मा को अपने स्वरूप में लानेवाली आदि सद्गुणों से युक्त दिव्य नौका के समान है। उसे हमें प्राप्त करना चाहिए ॥१०॥
In order to cross the oceanic flood of life and its challenges, let us board the boat of life equipped with sure safety measures, vast like earth, high and bright like the regions of light, free from sin and evil, comfortable and peaceful, unbreakable, well structured and well steered, divine and brilliant, fitted with fine oars, faultless and free from leakage, so that we may cross the flood with ease and enjoy the good life with all round well being.
विश्वे॑ यजत्रा॒ अधि॑ वोचतो॒तये॒ त्राय॑ध्वं नो दु॒रेवा॑या अभि॒ह्रुत॑: । स॒त्यया॑ वो दे॒वहू॑त्या हुवेम शृण्व॒तो दे॑वा॒ अव॑से स्व॒स्तये॑ ॥
(विश्वे यजत्राः) हे सब विद्याओं में प्रविष्ट सङ्गमनीय विद्वानो ! (ऊतये) रक्षा के लिए (अधि वोचत) शिष्यरूप से अधिकार में लेकर हमें उपदेश करो (दुरेवायाः (अभिह्रुतः-नः-त्रायध्वम्) दुःख को प्राप्त करानेवाली कुटिल मनोभावना से हमें-हमारी रक्षा करो (देवाः) हे विद्वानों ! (शृण्वतः-वः) तुम प्रार्थना सुननेवालों को (देवहूत्या सत्यया) देवों को प्रार्थित करते हैं जिससे, उस शुद्ध स्तुति के द्वारा (अवसे स्वस्तये हुवेम) रक्षा के लिए कल्याण के लिए प्रार्थित करते हैं ॥११॥
भावार्थ - विद्याओं में निष्णात विद्वानों के पास शिष्यभाव से उपस्थित होकर विद्या ग्रहण करनी चाहिए। अपनी दुर्वासनाओं या दुष्प्रवृत्तियों को उनकी सङ्गति द्वारा दूर करना चाहिए। उनकी प्रशंसा अपने कल्याण के लिए-सद्भाव से करनी चाहिए ॥११॥
Meaning -
O Devas, brilliant and venerable sagely scholars of the science and vision of yajna, pray enlighten us on our defence and protection. Protect us from chronic evils and strengthen us with safe-guards against sudden calamities. In earnest truth we call upon you with words of divinity, pray listen and come for our protection so that we may live the good life with all round well being and happiness.
अपामी॑वा॒मप॒ विश्वा॒मना॑हुति॒मपारा॑तिं दुर्वि॒दत्रा॑मघाय॒तः । आ॒रे दे॑वा॒ द्वेषो॑ अ॒स्मद्यु॑योतनो॒रु ण॒: शर्म॑ यच्छता स्व॒स्तये॑ ॥
(देवाः) हे विद्वानो ! (विश्वाम्) सब (अमीवाम्) रोगस्थिति को (अप) दूर करो (अनाहुतिम्-अप) अप्रार्थना-नास्तिकता को दूर करो (अरातिम्-अप) अदानभावना को दूर करो (दुर्विदत्राम्-अप) दुष्टानुभूति-भ्रान्ति को दूर करो (अघायतः) हमारे प्रति पाप चाहनेवाले शत्रुओं को दूर करो (द्वेषः-अस्मत्-आरे युयोतन) द्वेषभाव को हमसे दूर करो (नः-उरु शर्म स्वस्तये यच्छत) हमारे लिए-हमें बड़ा सुख कल्याणार्थ प्रदान करो ॥१२॥
भावार्थ - विद्वानों से आत्मिक मानसिक शारीरिक दोषों को दूर करने के लिए नम्र प्रार्थना करनी चाहिए, जिससे सब प्रकार की सुख शान्ति और निरोगता प्राप्त हो सके ॥१२॥
Brilliant divinities of nature and humanity, pray remove all sickness and disease of the world, eliminate indifference and opposition to divine service, remove selfishness and miserliness, remove the malignance of the sinner souls, throw off hate and jealousy far from us and give us a spacious peaceful happy home so that we may live the good life with happiness and all round well being.
अरि॑ष्ट॒: स मर्तो॒ विश्व॑ एधते॒ प्र प्र॒जाभि॑र्जायते॒ धर्म॑ण॒स्परि॑ । यमा॑दित्यासो॒ नय॑था सुनी॒तिभि॒रति॒ विश्वा॑नि दुरि॒ता स्व॒स्तये॑ ॥
(आदित्यासः) हे अखण्ड ज्ञान ब्रह्मचर्यवाले विद्वानों ! (यं सुनीतिभिः) तुम जिस मनुष्य को शोभन नयन क्रियाओं द्वारा तथा सदाचरणशिक्षाओं द्वारा (विश्वानि दुरिता अति) सब पापों को अतिक्रमण कराकर (स्वस्तये नयथ) कल्याण के लिए ले जाते हो, (सः-विश्वः-मर्तः-अरिष्टः-प्र-एधते) वह सकल मनुष्य अपीडित होता हुआ बढ़ता है (प्रजाभिः-धर्मणः परि जायते) पुत्रादियों द्वारा गुण में अधिष्ठित हुआ प्रसिद्ध होता है ॥१३॥
भावार्थ - अखण्ड ज्ञान ब्रह्मचर्यवाले विद्वानों के उपदेश व बताये हुए सदाचरण में जो मनुष्य रहता है, वह पाप से बचकर स्वस्थ रहता है और सन्तानों का सुख प्राप्त करता है ॥१३॥
Unhurt does the mortal advance in the world, rises in values and practice of Dharma and thrives with family and progeny whom you, O brilliant divines, lead by noble paths of rectitude. Indeed, he crosses over all evils of the world whom you enlighten and guide for the good life and well being all round.
यं दे॑वा॒सोऽव॑थ॒ वाज॑सातौ॒ यं शूर॑साता मरुतो हि॒ते धने॑ । प्रा॒त॒र्यावा॑णं॒ रथ॑मिन्द्र सान॒सिमरि॑ष्यन्त॒मा रु॑हेमा स्व॒स्तये॑ ॥
(मरुतः-देवासः) हे जीवन्मुक्त विद्वानों ! (यं वाजसातौ) जिसको अमृतभोगप्राप्ति के निमित्त (यं शूरसाता) जिसको पापनाशनार्थ प्राप्ति के हेतु (हिते धने) हितकर अध्यात्मधन के निमित्त (अवथ) सुरक्षित रखते हो (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (प्रातर्यावाणं रथम्) जीवन के प्रातः अर्थात् ब्रह्मचर्य से चलने की शक्तिवाले रमणीय (सानसिम्) शाश्वत सुखरूप (अरिष्यन्तम्) हिंसित न होनेवाले मोक्षधाम को (स्वस्तये-आरुहेम) कल्याण के लिए आरोहण करें-प्राप्त होवें ॥१४॥
भावार्थ - जीवन्मुक्त विद्वानों के सङ्ग से अमृत अन्न भोग प्राप्ति और पापरहित शुद्ध वृत्ति सम्पादन के लिए उपदेश ग्रहण करना चाहिए। उससे परमात्मा पूर्ण ब्रह्मचर्य से सम्पन्न को मुक्तिसुख प्रदान करता है ॥१४॥
O Lord Almighty, Indra, O Maruts, vibrant and enlightened heroes of nature and humanity, let us ride that chariot of life, unhurt, inviolable and victorious, taking off early morning at dawn, which you protect in the battle of the brave when the action is on for the victory and attainment of food, energy, culture and advancement of all for the good life and well being all round. (The chariot here is the human body for the individual, and the social, economic and the organismic commonwealth of humanity on the political level.)
स्व॒स्ति न॑: प॒थ्या॑सु॒ धन्व॑सु स्व॒स्त्य१॒॑प्सु वृ॒जने॒ स्व॑र्वति । स्व॒स्ति न॑: पुत्रकृ॒थेषु॒ योनि॑षु स्व॒स्ति रा॒ये म॑रुतो दधातन ॥
(मरुतः) हे जीवन्मुक्त विद्वानों ! (नः स्वस्ति पथ्यासु धन्वसु) हमारे लिए स्वस्ति-कल्याण हो मार्ग में आनेवाले मरुप्रदेशों में (स्वस्ति अप्सु) जलप्रदेशों में कल्याण हो (स्वर्वति वृजने) सुखवाले दुःखवर्जित मोक्ष में कल्याण हो (पुत्रकृथेषु योनिषु नः स्वस्ति) सन्तानकर्मों में और गृहों में कल्याण हो (स्वस्ति राये दधातन) धन प्राप्त करने में कल्याण हो ॥१५॥
भावार्थ - जीवन्मुक्त विद्वानों के शिक्षण से अपने मार्गों में आये मरुस्थलों, जलस्थलों, सन्तानोत्पत्तिवाले गृहस्थलों, धनप्रसङ्गों, दुःखरहित मोक्षों को सुखमय बनाना चाहिए ॥१५॥
O winds, O vibrant scientists and engineers, let there be peace, security and well being on the highways and desert lands, all well over the waterways, rivers and seas, all good and well being in our programmes of enlightened advancement for general happiness. Let there be general good and universal well being among our women’s lives and in family development programmes. O Maruts, bring us auspiciousness in our programmes of economic development for the growth of national wealth.
स्व॒स्तिरिद्धि प्रप॑थे॒ श्रेष्ठा॒ रेक्ण॑स्वत्य॒भि या वा॒ममेति॑ । सा नो॑ अ॒मा सो अर॑णे॒ नि पा॑तु स्वावे॒शा भ॑वतु दे॒वगो॑पा ॥
(स्वस्तिः-इत्-हि) कल्याण भावना ही (प्रपथे) पथाग्र-मार्ग के प्रारम्भ में (श्रेष्ठा) श्रेष्ठरूप (रेक्णस्वती) धनधान्यवाली (या वामम्-अभ्येति) जो सेवन करनेवालों को प्राप्त होती है (सा नः) वह हमें (अमा) घर में (सा नु-अरणे) वह ही जंगल में (निपातु) निरन्तर रक्षा करे (देवगोपा स्वावेशा भवतु) विद्वानों द्वारा सुरक्षित शोभन प्रवेशवाली होवे ॥१६॥
भावार्थ - विद्वानों द्वारा कल्याणभावना तथा रक्षा जीवन के प्रारम्भिक मार्ग पर, घर में अथवा जंगल में हमें सदा प्राप्त होती रहे, ऐसा सदा यत्न करना चाहिए ॥१६॥
Let there be peace, goodness and all round well being of the highest order in our long term programmes of development, only that which brings abundant wealth, noble success and honour and splendour of grace. May that peace and splendour strengthen us at home and protect us abroad and may that peace, protected by noble and brilliant divine souls, have the rightful passion and pride of self-confidence.
इ॒षे त्वो॒र्जे त्वा॑ वा॒यव॑ स्थ दे॒वो वः॑ सवि॒ता प्रार्प॑यतु॒ श्रेष्ठ॑तमाय॒ कर्म॑ण॒ऽआप्या॑यध्वमघ्न्या॒ऽइन्द्रा॑य भा॒गं प्र॒जाव॑तीरनमी॒वाऽअ॑य॒क्ष्मा मा व॑ स्ते॒नऽई॑शत॒ माघश॑ꣳसो ध्रु॒वाऽअ॒स्मिन् गोप॑तौ स्यात ब॒ह्वीर्यज॑मानस्य प॒शून् पा॑हि॥१॥
हे मनुष्य लोगो! जो (सविता) सब जगत् की उत्पत्ति करने वाला सम्पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त (देवः) सब सुखों के देने और सब विद्या के प्रसिद्ध करने वाला परमात्मा है, सो (वः) तुम हम और अपने मित्रों के जो (वायवः) सब क्रियाओं के सिद्ध करानेहारे स्पर्श गुणवाले प्राण अन्तःकरण और इन्द्रियां (स्थ) हैं, उनको (श्रेष्ठतमाय) अत्युत्तम (कर्मणे) करने योग्य सर्वोपकारक यज्ञादि कर्मों के लिये (प्रार्पयतु) अच्छी प्रकार संयुक्त करे। हम लोग (इषे) अन्न आदि उत्तम-उत्तम पदार्थों और विज्ञान की इच्छा और (ऊर्जे) पराक्रम अर्थात् उत्तम रस की प्राप्ति के लिये (भागम्) सेवा करने योग्य धन और ज्ञान के भरे हुए (त्वा) उक्त गुणवाले और (त्वा) श्रेष्ठ पराक्रमादि गुणों के देने हारे आपका सब प्रकार से आश्रय करते हैं। हे मित्र लोगो! तुम भी ऐसे होकर (आप्यायध्वम्) उन्नति को प्राप्त हो तथा हम भी हों। हे भगवन् जगदीश्वर! हम लोगों के (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य्य की प्राप्ति के लिये (प्रजावतीः) जिनके बहुत सन्तान हैं तथा जो (अनमीवाः) व्याधि और (अयक्ष्माः) जिनमें राजयक्ष्मा आदि रोग नहीं हैं, वे (अघ्न्याः) जो-जो गौ आदि पशु वा उन्नति करने योग्य हैं, जो कभी हिंसा करने योग्य नहीं, जो इन्द्रियां वा पृथिवी आदि लोक हैं, उन को सदैव (प्रार्पयतु) नियत कीजिये। हे जगदीश्वर! आपकी कृपा से हम लोगों में से दुःख देने के लिये कोई (अघशंसः) पापी वा (स्तेनः) चोर डाकू (मा ईशत) मत उत्पन्न हो तथा आप इस (यजमानस्य) परमेश्वर और सर्वोपकार धर्म के सेवन करने वाले मनुष्य के (पशून्) गौ, घोड़े और हाथी आदि तथा लक्ष्मी और प्रजा की (पाहि) निरन्तर रक्षा कीजिये, जिससे इन पदार्थों के हरने को पूर्वोक्त कोई दुष्ट मनुष्य समर्थ (मा) न हो, (अस्मिन्) इस धार्मिक (गोपतौ) पृथिवी आदि पदार्थों की रक्षा चाहने वाले सज्जन मनुष्य के समीप (बह्वीः) बहुत से उक्त पदार्थ (ध्रुवाः) निश्चल सुख के हेतु (स्यात) हों। इस मन्त्र की व्याख्या शतपथ-ब्राह्मण में की है, उसका ठिकाना पूर्व संस्कृत-भाष्य में लिख दिया और आगे भी ऐसा ही ठिकाना लिखा जायगा, जिसको देखना हो वह उस ठिकाने से देख लेवे॥१॥
भावार्थ - विद्वान् मनुष्यों को सदैव परमेश्वर और धर्मयुक्त पुरुषार्थ के आश्रय से ऋग्वेद को पढ़ के गुण और गुणी को ठीक-ठीक जानकर सब पदार्थों के सम्प्रयोग से पुरुषार्थ की सिद्धि के लिये अत्युत्तम क्रियाओं से युक्त होना चाहिये कि जिससे परमेश्वर की कृपापूर्वक सब मनुष्यों को सुख और ऐश्वर्य की वृद्धि हो। सब लोगों को चाहिये कि अच्छे-अच्छे कामों से प्रजा की रक्षा तथा उत्तम-उत्तम गुणों से पुत्रादि की शिक्षा सदैव करें कि जिससे प्रबल रोग, विघ्न और चोरों का अभाव होकर प्रजा और पुत्रादि सब सुखों को प्राप्त हों, यही श्रेष्ठ काम सब सुखों की खान है। हे मनुष्य लोगो! आओ अपने मिलके जिसने इस संसार में आश्चर्यरूप पदार्थ रचे हैं, उस जगदीश्वर के लिये सदैव धन्यवाद देवें। वही परम दयालु ईश्वर अपनी कृपा से उक्त कामों को करते हुए मनुष्यों की सदैव रक्षा करता है॥१॥
O, Lord, we resort to Thee for the supply of foodstuffs and vigour. May the Creator, the fountain of happiness and knowledge, inspire us for the performance of noblest deeds with our organs. May the cows, which should never be killed, be healthy and strong. For the attainment of prosperity and wealth, may the cows be full of calves, free from consumption and other diseases. May a thief and a sinner be never born amongst us. May the lord of land and cattle be in constant and full possession of these. May Ye protect the cattle, wealth and progeny of the virtuous soul.
आ नो॑ भ॒द्राः क्रत॑वो यन्तु वि॒श्वतोऽद॑ब्धासो॒ऽअप॑रीतासऽउ॒द्भिदः॑।दे॒वा नो॒ यथा॒ सद॒मिद् वृ॒धेऽअस॒न्नप्रा॑युवो रक्षि॒तारो॑ दि॒वेदि॑वे॥१४॥
हे विद्वानो! जैसे (नः) हम लोगों को (विश्वतः) सब ओर से (भद्राः) कल्याण करने वाले (अदब्धासः) जो विनाश को न प्राप्त हुए (अपरीतासः) औरों ने जो न व्याप्त किये अर्थात् सब कामों से उत्तम (उद्भिदः) जो दुःखों को विनाश करते वे (क्रतवः) यज्ञ वा बुद्धि बल (आ, यन्तु) अच्छे प्रकार प्राप्त हों (यथा) जैसे (नः) हम लोगों की (सदम्) उस सभा को कि जिसमें स्थित होते हैं, प्राप्त हुए (अप्रायुवः) जिन की अवस्था नष्ट नहीं होती, वे (देवाः) पृथिवी आदि पदार्थों के समान विद्वान् जन (इत्) ही (दिवेदिवे) प्रतिदिन (वृधे) वृद्धि के लिये (रक्षितारः) पालना करने वाले (असन्) हों, वैसा आचरण करो॥१४॥
भावार्थ - सब मनुष्यों को परमेश्वर के विज्ञान और विद्वानों के संग से बहुत बुद्धियों को प्राप्त होकर सब ओर से धर्म का आचरण कर नित्य सब की रक्षा करनेवाले होना चाहिये॥१४॥
May auspicious force of wisdom come to us from every side, continual, unhindered, and as remover of afflictions. May thereby the learned persons, our guardians, advanced in age, attend our assembly day by day for our gain.
दे॒वानां॑ भ॒द्रा सु॑म॒तिर्ऋ॑जूय॒तां दे॒वाना॑ रा॒तिर॒भि नो॒ निव॑र्त्तताम्।दे॒वाना॑ स॒ख्यमुप॑सेदिमा व॒यं दे॒वा न॒ऽआयुः॒ प्रति॑रन्तु जी॒वसे॑॥१५॥
हे मनुष्यो! जैसे (देवानाम्) विद्वानों की (भद्रा) कल्याण करने वाली (सुमतिः) उत्तम बुद्धि हम लोगों को और (ऋजूयताम्) कठिन विषयों को सरल करते हुए (देवानाम्) देने वाले विद्वानों का (रातिः) विद्या आदि पदार्थों का देना (नः) हम लोगों को (अभि, नि, वर्त्तताम्) सब ओर से सिद्ध करे, सब गुणों से पूर्ण करे (वयम्) हम लोग (देवानाम्) विद्वानों की (सख्यम्) मित्रता को (उपा, सेदिम) अच्छे प्रकार पावें (देवाः) विद्वान् (नः) हम को (जीवसे) जीने के लिये (आयुः) जिस से प्राण का धारण होता, उस आयुर्दा को (प्र, तिरन्तु) पूरी भुगावें, वैसे तुम्हारे प्रति वर्त्ताव रक्खें॥१५॥
भावार्थ - सब मनुष्यों को चाहिये कि पूर्ण शास्त्रवेत्ता विद्वानों के समीप से उत्तम बुद्धियों को पाकर ब्रह्मचर्य आश्रम से आयु को बढ़ा के सदैव धार्मिक जनों के साथ मित्रता रक्खें॥१५॥
May the auspicious favour of the learned be ours. May the bounty of the righteous fill us with virtues. May we devoutly seek the friendship of the learned. May they extend our life that we may live.
तमीशा॑नं॒ जग॑तस्त॒स्थुष॒स्पतिं॑ धियञ्जि॒न्वमव॑से हूमहे व॒यम्।पू॒षा नो॒ यथा॒ वेद॑सा॒मस॑द् वृ॒धे र॑क्षि॒ता पा॒युरद॑ब्धः स्व॒स्तये॑॥१८॥
हे मनुष्यो (वयम्) हम लोग (अवसे) रक्षा आदि के लिये (जगतः) चर और (तस्थुषः) अचर जगत् के (पतिम्) रक्षक (धियञ्जिन्वम्) बुद्धि को तृप्त प्रसन्न वा शुद्ध करने वाले (तम्) उस अखण्ड (ईशानम्) सब को वश में रखने वाले सब के स्वामी परमात्मा की (हूमहे) स्तुति करते हैं, वह (यथा) जैसे (नः) हमारे (वेदसाम्) धनों की (वृधे) वृद्धि के लिये (पूषा) पुष्टिकर्त्ता तथा (रक्षिता) रक्षा करने हारा (स्वस्तये) सुख के लिये (पायुः) सब का रक्षक (अदब्धः) नहीं मारने वाला (असत्) होवे, वैसे तुम लोग भी उस की स्तुति करो और वह तुम्हारे लिये भी रक्षा आदि का करने वाला होवे ॥१८॥
भावार्थ - सब विद्वान् लोग सब मनुष्यों के प्रति ऐसा उपदेश करें कि जिस सर्वशक्तिमान् निराकार सर्वत्र व्यापक परमेश्वर की उपासना हम लोग करें तथा उसी को सुख और ऐश्वर्य का बढ़ाने वाला जानें, उसी की उपासना तुम लोग भी करो और उसी को सब की उन्नति करने वाला जानो॥१८॥
Him we invoke for aid who reigns supreme, the Lord of all that stands or moves, and inspirer of wisdom. May He the Nourisher of all, our Keeper and our Guard Non-violent, promote, the increase of our wealth for our good.
स्व॒स्ति न॒ऽइन्द्रो॑ वृ॒द्धश्र॑वाः स्व॒स्ति नः॑ पू॒षा वि॒श्ववे॑दाः।स्व॒स्ति न॒स्तार्क्ष्यो॒ऽअरि॑ष्टनेमिः स्व॒स्ति नो॒ बृह॒स्पति॑र्दधातु॥१९॥
हे मनुष्यो! जो (वृद्धश्रवाः) बहुत सुनने वाला (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवान् ईश्वर (नः) हमारे लिये (स्वस्ति) उत्तम सुख जो (विश्ववेदाः) समस्त जगत् में वेद ही जिस का धन है, वह (पूषा) सब का पुष्टि करने वाला (नः) हम लोगों के लिये (स्वस्ति) सुख जो (तार्क्ष्यः) घोड़े के समान (अरिष्टनेमिः) सुखों की प्राप्ति कराता हुआ (नः) हम लोगों के लिये (स्वस्ति) उत्तम सुख तथा जो (बृहस्पतिः) महत्तत्त्व आदि का स्वामी वा पालना करने वाला परमेश्वर (नः) हमारे लिये (स्वस्ति) उत्तम सुख को (दधातु) धारण करे, वह तुम्हारे लिये भी सुख को धारण करे॥१९॥
भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि जैसे अपने सुख को चाहें, वैसे और के लिये भी चाहें, जैसे कोई भी अपने लिये दुःख नहीं चाहता, वैसे ओर के लिये भी न चाहें॥१९॥
May the Master of vast knowledge, may Mighty God prosper us. May the Nourisher of all, the Author of all the Vedas prosper us. May He the Giver of all comforts like the horse prosper us. May God the Lord of all the elements of Nature vouchsafe us prosperity.
Just as a horse takes us from one place to the other and gives us pleasure, so does God give us happiness by fulfilling our wants.
भ॒द्रं कर्णे॑भिः शृणुयाम देवा भ॒द्रं प॑श्येमा॒क्षभि॑र्यजत्राः। स्थि॒रैरङ्गै॑स्तुष्टु॒वा स॑स्त॒नूभि॒र्व्यशेमहि दे॒वहि॑तं॒ यदायुः॑॥२१॥
हे (यजत्राः) संग करने वाले (देवाः) विद्वानो! आप लोगों के साथ से हम (कर्णेभिः) कानों से (भद्रम्) जिस से सत्यता जानी जावे, उस वचन को (शृणुयाम) सुनें (अक्षभिः) आंखों से (भद्रम्) कल्याण को (पश्येम) देखें (स्थिरैः) दृढ़ (अङ्गैः) अवयवों से (तुष्टुवांसः) स्तुति करते हुए (तनूभिः) शरीरों से (यत्) जो (देवहितम्) विद्वानों के लिये सुख करने हारी (आयुः) अवस्था है, उस को (वि, अशेमहि) अच्छे प्रकार प्राप्त हों॥२१॥
भावार्थ - जो मनुष्य विद्वानों के साथ से विद्वान् होकर सत्य सुनें, सत्य देखें और जगदीश्वर की स्तुति करें तो वे बहुत अवस्था वाले हों। मनुष्यों को चाहिये कि असत्य का सुनना, खोटा देखना, झूठी स्तुति, प्रार्थना, प्रशंसा और व्यभिचार कभी न करें॥२१॥
O sociable learned persons, may we with our ears listen to what is good, and with our eyes see what is good. With limbs and bodies firm may we extolling God lead a life conducive to the good of the sages.
Ayu may also mean full age of one hundred years.
अ꣢ग्न꣣ आ꣡ या꣢हि वी꣣त꣡ये꣢ गृणा꣣नो꣢ ह꣣व्य꣡दा꣢तये । नि꣡ होता꣢꣯ सत्सि ब꣣र्हि꣡षि꣢ ॥१॥
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (अग्ने) सर्वाग्रणी, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वसुखप्रापक, सर्वप्रकाशमय, सर्वप्रकाशक परमात्मन् ! आप (गृणानः) कर्तव्यों का उपदेश करते हुए (वीतये) हमारी प्रगति के लिए, हमारे विचारों और कर्मों में व्याप्त होने के लिए, हमारे हृदयों में सद्गुणों को उत्पन्न करने के लिए, हमसे स्नेह करने के लिए, हमारे अन्दर उत्पन्न काम-क्रोध आदि को बाहर फेंकने के लिए और (हव्य-दातये) देय पदार्थ श्रेष्ठ बुद्धि, श्रेष्ठ कर्म, श्रेष्ठ धर्म, श्रेष्ठ धन आदि के दान के लिए (आ याहि) आइए। (होता) शक्ति आदि के दाता एवं दुर्बलता आदि के हर्ता होकर (बर्हिषि) हृदयरूप अन्तरिक्ष में (नि सत्सि) बैठिए ॥ द्वितीय—विद्वान् के पक्ष में। विद्वान् भी अग्नि कहलाता है। इसमें विद्वान् अग्नि है, जो ऋत का संग्रहीता और सत्यमय होता है।’ ऋ० १।१४५।५।, विद्वान् अग्नि है, जो बल प्रदान करता है। ऋ० ३।२५।२ इत्यादि मन्त्र प्रमाण हैं। हे (अग्ने) विद्वन् ! (गृणानः) यज्ञविधि और यज्ञ के लाभों का उपदेश करते हुए आप (वीतये) यज्ञ को प्रगति देने के लिए, और (हव्य-दातये) हवियों को यज्ञाग्नि में देने के लिए (आ याहि) आइये। (होता) होम के निष्पादक होकर (बर्हिषि) कुशा से बने यज्ञासन पर (नि सत्सि) बैठिए। इस प्रकार हम यजमानों के यज्ञ को निरुपद्रव रूप से संचालित कीजिए। ॥ तृतीय—राजा के पक्ष में। राजा भी अग्नि कहलाता है। इसमें हे नायक ! तुम प्रजापालक, उत्तम दानी को प्रजाएँ राष्ट्रगृह में राजा रूप में अलंकृत करती हैं। ऋ० २।१।८, राजा अग्नि है, जो राष्ट्ररूप गृह का अधिपति और राष्ट्रयज्ञ का ऋत्विज् होता है। ऋ० ६।१५।१३ इत्यादि प्रमाण है। हे (अग्ने) अग्रनायक राजन् ! आप (गृणानः) राजनियमों को घोषित करते हुए (वीतये) राष्ट्र को प्रगति देने के लिए, अपने प्रभाव से प्रजाओं में व्याप्त होने के लिए, प्रजाओं में राष्ट्र-भावना और विद्या, न्याय आदि को उत्पन्न करने के लिए तथा आन्तरिक और बाह्य शत्रुओं को परास्त करने के लिए, और (हव्य-दातये) राष्ट्रहित के लिए देह, मन, राजकोष आदि सर्वस्व को हवि बनाकर उसका उत्सर्ग करने के लिए (आ याहि) आइये। (होता) राष्ट्रयज्ञ के निष्पादक होकर (बर्हिषि) राज-सिंहासन पर या राजसभा में (नि सत्सि) बैठिए ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। तये, तये में छेकानुप्रास है ॥१॥
भावार्थ -
जैसे विद्वान् पुरोहित यज्ञासन पर बैठकर यज्ञ को संचालित करता है, जैसे राजा राजसभा में बैठकर राष्ट्र की उन्नति करता है, वैसे ही परमात्मा रूप अग्नि हमारे हृदयान्तरिक्ष में स्थित होकर हमारा महान् कल्याण कर सकता है, इसलिए सबको उसका आह्वान करना चाहिए। सब लोगों के हृदय में परमात्मा पहले से ही विराजमान है, तो भी लोग क्योंकि उसे भूले रहते हैं, इस कारण वह उनके हृदयों में न होने के बराबर है। इसलिए उसे पुनः बुलाया जा रहा है। आशय यह है कि सब लोग अपने हृदय में उसकी सत्ता का अनुभव करें और उससे सत्कर्म करने की प्रेरणा ग्रहण करें ॥१॥
O God, we realise Thee, as Thou art Luminous, Pervading and Giver of enjoyable objects. Thou art Worthy of adoration, present in the world and our soul, like a Hota in the Yajna.
Translator Comment -
आ याहि literally means ‘come. ' The coming of God means His realisation. Griffith has translated Agni as material fire, whereas it refers to God.
त्व꣡म꣢ग्ने य꣣ज्ञा꣢ना꣣ꣳ हो꣢ता꣣ वि꣡श्वे꣢षाꣳ हि꣣तः꣢ । दे꣣वे꣢भि꣣र्मा꣡नु꣢षे꣣ ज꣡ने꣢ ॥२॥
पदार्थ -
हे (अग्ने) परमात्मन् ! (त्वम्) आप (विश्वेषाम्) सब (यज्ञानाम्) उपासकों से किये जानेवाले ध्यानरूप यज्ञों के (होता) निष्पादक ऋत्विज् हो, अतः (देवेभिः) विद्वानों के द्वारा (मानुषे) मनुष्यों के (जने) लोक में (हितः) स्थापित अर्थात् प्रचारित किये जाते हो ॥२॥ इस मन्त्र की श्लेष द्वारा सूर्य-पक्ष में भी अर्थ-योजना करनी चाहिए। तब परमात्मा सूर्य के समान है, यह उपमा ध्वनित होगी ॥२॥
भावार्थ -
जैसे सूर्य सौर-लोक में सब अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, दक्षिणायन, उत्तरायण, वर्ष आदि यज्ञों का निष्पादक है, वैसे ही परमात्मा अध्यात्ममार्ग का अवलम्बन करनेवाले जनों से किये जाते हुए सब आन्तरिक यज्ञों को निष्पन्न करके उन योगी जनों को कृतार्थ करता है और जैसे सूर्य अपनी प्रकाशक किरणों से मनुष्य-लोक में अर्थात् पृथिवी पर निहित होता है, वैसे ही परमात्मा विद्वानों से मनुष्य-लोक में प्रचारित किया जाता है ॥२॥
O God, Thou art the Accepter of all prayers. The learned have held Thee Adorable by mankind, like fire in a yajna.
ये त्रि॑ष॒प्ताः प॑रि॒यन्ति॒ विश्वा॑ रू॒पाणि॒ बिभ्र॑तः। वा॒चस्पति॒र्बला॒ तेषां॑ त॒न्वो॑ अ॒द्य द॑धातु मे ॥
(ये) जो पदार्थ (त्रि-सप्ताः) १−सबके संतारक, रक्षक परमेश्वर के सम्बन्ध में, यद्वा, २−रक्षणीय जगत् [यद्वा−तीन से सम्बद्ध ३−तीनों काल, भूत, वर्तमान और भविष्यत्। ४−तीनों लोक, स्वर्ग, मध्य और भूलोक। ५−तीनों गुण, सत्त्व, रज और तम। ६−ईश्वर, जीव और प्रकृति। यद्वा, तीन और सात=दस। ७−चार दिशा, चार विदिशा, एक ऊपर की और एक नीचे की दिशा। ८−पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ, अर्थात् कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, नासिका और पाँच कर्म इन्द्रियाँ, अर्थात् वाक्, हाथ, पाँव, पायु, उपस्थ। यद्वा, तीन गुणित सात=इक्कीस। ९−महाभूत ५, प्राण ५, ज्ञान इन्द्रियाँ ५, कर्म इन्द्रियाँ ५, अन्तःकरण १ इत्यादि] के सम्बन्ध में [वर्त्तमान] होकर, (विश्वा=विश्वानि) सब (रूपाणि) वस्तुओं को (बिभ्रतः) धारण करते हुए (परि) सब ओर (यन्ति) व्याप्त हैं। (वाचस्पतिः) वेदरूप वाणी का स्वामी परमेश्वर (तेषाम्) उनके (तन्वः) शरीर के (बला=बलानि) बलों को (अद्य) आज (मे) मेरे लिये (दधातु) दान करे ॥१॥
भावार्थ - आशय यह है कि तृण से लेकर परमेश्वरपर्यन्त जो पदार्थ संसार की स्थिति के कारण हैं, उन सबका तत्त्वज्ञान (वाचस्पतिः) वेदवाणी के स्वामी सर्वगुरु जगदीश्वर की कृपा से सब मनुष्य वेद द्वारा प्राप्त करें और उस अन्तर्यामी पर पूर्ण विश्वास करके पराक्रमी और परोपकारी होकर सदा आनन्द भोगें ॥१॥ भगवान् पतञ्जलि ने कहा है−योगदर्शन, पाद १ सूत्र २६। स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ॥ वह ईश्वर सब पूर्वजों का भी गुरु है क्योंकि वह काल से विभक्त नहीं होता ॥
Thrice seven are the entities which bear, wear and comprise the entire world of forms in existence. May Vachaspati, omniscient lord of speech, awareness and the phenomenal world bless me with the body of knowledge pertaining to their essences, names, forms, powers, functions and relationships here and now. Note: The ‘thrice-seven’ of phenomenal world is to be explained: The phenomenal world is an evolution of one basic material cause, Prakrti or Nature. The efficient cause of the evolution is Vachaspati, Supreme Spirit, immanent, transcendent, omniscient, omnipresent, omnipotent. The evolution is initiated and sustained by the will and presence of the spirit immenant implosive in Nature, therefore it is creative and intelligent evolution, not blind and wild growth. The initiation is like the spark, the Big Bang. With the big bang the one basic material cause, Prakrti, takes on the evolutionary process of diversification. The phenomenal world, whatever it may be at any time, is the consequence of that one cause according to the laws of evolution. Prakrti originally is non-descript. When the divine will initiates the process of evolutionary change and development, it takes on the name and character of Mahat. Mahat then changes into Ahankara, a generic identity, which then evolves into two directions: physical and psychic. The psychic direction develops into the mind, intellect and the senses and the physical develops into the five elements, akasha, vayu, agni, apah and Prthivi. The physical development passes through two stages, subtle and gross from Ahankara. The subtle elements are called Tanmatras, and Tanmatras then develop into the gross elements, akash or space, vayu or energy, agni or heat and light, apah or liquids, and Prthivi or solids. The five gross elements, their subtle precedents, and Ahankara are the ‘seven’ of the mantra. These seven entities, further, have their qualitative character. All phenomenal forms have their qualitative characteristics. Even human beings have qualitative, characteristic differences. A person may be intellectually very high, a research oriented introvert, another an energetic playful extrovert, still another may be dull. Why this? Nature, the basic material cause of our physical existence, itself has its qualitative modes and variants. These are Satva (mind, intellect, transparency), Rajas (energy, activeness), and Tamas (matter, inertia). We may call them thought, energy and matter, or, matter, motion and mind. That matter and energy, and even mind, are interconvertible is a very late scientific rediscovery of a Vedic truth, or it may just be a reminder of something we had forgot, though actually it was lying deposited in a dormant account. The seven variants of Prakrti into one direction of evolution, further qualified and characterised by these three qualitative modes, makes the phenomenal forms into thrice seven. A great intellectual with an agitated mind may be a great destroyer, another great intellectual with a balanced mind may be a great creative innovator. The two are human physically, yet different in character and achievement. Prayer: May Vachaspati enlighten us about these thrice seven. This is the Atharva-vediya projection of knowledge and education. This is the prayer for our intelligential development in terms of facts, processes and values.
इति स्वस्तिवाचनम्
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