क्षमा माँगो
एक बार प्रहलाद दानवों के साथ नैमिषारण्य तीर्थ पहुँचे। उन्होंने अनेक ऋषियों के दर्शन कर उनका आशीर्वाद लिया। तीर्थ में भ्रमण करते हुए विशाल शाखाओं से घिरे एक वृक्ष के नीचे पहुँचे। वे वृक्ष के नीचे विश्राम के लिए बैठ गए। अचानक उनकी दृष्टि वृक्ष की शाखाओं पर गई। शाखाएँ बाणों से बिंधी हुई थीं। उन्हें यह देखकर क्रोध आया कि किसी ने वृक्ष की इन हरी-भरी शाखाओं को भी बाणों का निशाना बनाकर पाप किया है। उनकी दृष्टि बाई ओर गई, तो दो मुनि तपस्या में लीन थे। उनके पास ही धनुष-बाण रखे थे।
प्रह्लाद ने समझा कि मुनि वेशधारी ये दोनों दुष्ट प्रवृत्ति के हैं तथा अहंकार से ग्रस्त होकर उन्होंने वृक्ष की शाखाओं का बाणों से विनाश किया है। उन्होंने बल के अहंकार में दोनों को युद्ध करने की चुनौती दे दी। वे मुनि प्रह्लाद के साथ युद्ध करने लगे। दोनों मुनियों ने प्रहलाद के वारों को विफल कर डाला। निराश होकर प्रहलाद ने भगवान् विष्णु की स्तुति की। भगवान् विष्णु ने प्रकट होकर कहा, 'प्रहलाद, ये दोनों मुनि साक्षात नर-नारायण हैं। इन्हें कोई भी नहीं जीत सकता । नर-नारायण को चुनौती देकर तुमने भारी भूल की है। तुम्हारी भलाई इसी में है कि अभी आराधना कर उन्हें प्रसन्न करो । '
प्रह्लाद का बलशाली होने का अहंकार चूर-चूर हो गया। वह हिरण्याक्ष के पुत्र अंधक को राज्य सौंपकर बद्रीनाथ चले गए। वहाँ उन्होंने नर-नारायण की स्तुति कर उनसे क्षमा माँगी।
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