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हम ही शत्रु स्वयं के परम मीत्र भी हम ही है

हम ही शत्रु स्वयं के परम मीत्र भी हम ही है



     हम कैसे इस सत्य से मुख मोड़ सकते है, जो कर्मों का अटल सिद्धान्त है। हमने यह अनुभव किया है की हम जैसा कर्म करते उसके उपयुक्त ही हमें फल मिलता है हम स्वयं अपने सबसे बड़े शत्रु है और हम स्वयं के सबसे बड़े मीत्र भी है हमें बहुत दुःख और पिड़ा के साथ कहना पड़ रहा है कि हम जिस समाज में रहते है यहां पर स्वयं से नफरत और शत्रुता का पाठ हर कदम पर पढ़ाया जाता है हम अपने हि स्वयं के जीवन के संहारक बन जाते है, यह सिर्फ हमारे साथ ही नहीं हो रहा है यह परीवार समाज देश और विश्व के साथ भी हम यही कर रहे है। हमें अपने शरीर का शोषण करना सिखाया जाता है हमें संसाकारीत किया जाता है कि हम स्वयं को भयंकर रुप से कैसे तबाह और जल्दी बर्बाद कर सकते है और उस में कोई कसर नहीं छोड़े, इसलिये हमें आधुनिक रूप से शिक्षीत किया जाता है और यही हम करते है जब तक हमारा पुर्ण रूप से सर्वनाश नहीं हो जाता है। जब हमारी समझ यह रहस्यपूर्ण सत्य का उद्घाटन होता है तब तक हमारे हाथ से समग्र स्वयं को संयमित बश में करने का अधिकार हम खो चुके होते है। बचपन के संसकार बड़े प्रबल होते है जैसे गर्म लोहा जब ठंडा होजाता है तब वह फौलाद के समान होता है। जैसे किसी इमारत कि निव की तरह होते वह लाख हमारे प्रयाश से बदलने वाले नही होते है। यह समाज बहुत निकृष्ट दांव पेंच का उपयोग बचपन से ही करके किसी व्यक्ती को सम्पूर्ण रुप से बेबश करके बश में करने के लिये उपयोग करता है। यह बहुत बड़ा अछम्य भयंकर अपराध है। किसी को पूर्ण रूप से विकसित नहीं होने का कभी मौका नहीं देता है यह समाज सभी के पर काटता है और सभी को अपंग के रूप में स्विकारता है, और यह सब पंगुओं का समाज है, यहां मनुष्य नहीं बनाए जाते है। यहां जानवरों पर मनुष्य की खाल चढ़ाया जाता है जो लम्बें समय तक आरोपित रहने से संसकारित आवरण को ही सत्य मान लेते है। कुछ ऐसे भी होते है जो इनकी जाल से किसी तरहसे बच जाते है मेरे जैसे, मुझे बहुत समय बाद यह ज्ञात हुआ की एक और समाज है जो ज्ञानियों से बहुत बड़े गुणी लोगो से भरा पड़ा है जहां हर व्यक्ती ज्ञान पुर्ण समझ पूर्ण प्रेम पुर्ण श्रद्धा आस्था से  लबालब भरे हुये समर्पण पूर्ण संयम स्वस्थ  व्यक्तियों के द्वारा संचालित समाज है जहां मुझे पहुचने पर मुझे ज्ञात हुआ की स्वर्ग कहीं और नहीं इन महापूरुषों के सानिद्ध्य में ही है। तब मैने अनुभव किया की हम पहले इन लोगों के सम्पर्क में क्यों नहीं आये ? हम ने यह अनुभव किया हम तो अभी तक ऐसे समाज में रहते हुये आये है जहां पर हर तरफ निर्दोष मानवों को फसांने के लिये जाल फैलाया गया है और चारा डाला गया है। जिसमें धारदार गुप्त काटें लगे है जो हमारें गले में अटक जातें है और हमारी जान लेकर ही वह हमें मुक्त करते है। जब हमारी आत्मा बिलखती है कि हमने वह क्यों नही किया जिसके लिये इस चलती फिरती शरीर रुपी चिता को धारण किया था जिसमें हर पल सड़ने गलने जलने की आसंका सुक्ष्म संदेश संम्प्रेशित होते रहते है।
   जब ज्ञान हो तभी सबेरा होता मेरे जीवन का यह प्रथम सबेरा है।
क्रमशः

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