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वैराग्य शतकम् भर्तृहरिविरचितम् -1.1

॥ वैराग्य शतकम् भर्तृहरिविरचितम् ॥

 


  भ्रतृहरि परिचय-

 

       भर्तृहरि एक महान संस्कृत कवि थे। संस्कृत साहित्य के इतिहास में भर्तृहरि एक नीतिकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके शतकत्रय (नीतिशतक, शृंगारशतक, वैराग्यशतक) की उपदेशात्मक कहानियाँ भारतीय जनमानस को विशेष रूप से प्रभावित करती हैं। प्रत्येक शतक में सौ-सौ श्लोक हैं। बाद में इन्होंने गुरु गोरखनाथ के शिष्य बनकर वैराग्य धारण कर लिया था इसलिये इनका एक लोकप्रचलित नाम बाबा भरथरी भी है।

 

           जनश्रुति और परम्परा के अनुसार भर्तृहरि विक्रमसंवत् के प्रवर्तक सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के अग्रज माने जाते हैं। विक्रमसंवत् ईसवी सन् से 56 वर्ष पूर्व प्रारम्भ होता है, जो विक्रमादित्य के प्रौढ़ावस्था का समय रहा होगा। भर्तृहरि विक्रमादित्य के अग्रज थे, अतः इनका समय कुछ और पूर्व रहा होगा। विक्रमसंवत् के प्रारम्भ के विषय में भी विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ लोग ईसवी सन् 78 और कुछ लोग ईसवी सन् 544 में इसका प्रारम्भ मानते हैं। ये दोनों मत भी अग्राह्य प्रतीत होते हैं। फारसी ग्रंथ कलितौ दिमनः में पंचतंत्र का एक पद्य शशिदिवाकर योर्ग्रहपीडनम्श का भाव उद्धृत है। पंचतंत्र में अनेक ग्रंथों के पद्यों का संकलन है। संभवतः पंचतंत्र में इसे नीतिशतक से ग्रहण किया गया होगा। फारसी ग्रंथ 571 ईसवी से 581 ई० के एक फारसी शासक के निमित्त निर्मित हुआ था। इसलिए राजा भर्तृहरि अनुमानतः 550 ई० से पूर्व हम लोगों के बीच आए थे। भर्तृहरि उज्जयिनी के राजा थे। ये विक्रमादित्य उपाधि धारण करने वाले चन्द्रगुप्त द्वितीय के बड़े भाई थे। इनके पिता का नाम चन्द्रसेन था। पत्नी का नाम पिंगला था जिसे वे अत्यन्त प्रेम करते थे। इन्होंने सुन्दर और रसपूर्ण भाषा में नीति, वैराग्य तथा शृंगार जैसे गूढ़ विषयों पर शतक-काव्य लिखे हैं। इस शतकत्रय के अतिरिक्त, वाक्यपदीय नामक एक उच्च श्रेणी का व्याकरण ग्रन्थ भी इनके नाम पर प्रसिद्ध है। कुछ लोग भट्टिकाव्य के रचयिता भट्टि से भी उनका एक्य मानते हैं। ऐसा कहा जाता है कि नाथपंथ के वैराग्य नामक उपपंथ के यह ही प्रवर्तक थे। चीनी यात्री इत्सिंग और ह्वेनसांग के अनुसार इन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण किया था।

 

     इनके जीवन से सम्बन्धित कुछ किंवदन्तियां इस प्रकार है-

 

      एक बार राजा भर्तृहरि अपनी पत्नी पिंगला के साथ जंगल में शिकार खेलने के लिए गए हुए थे। वहां काफी समय तक भटकते रहने के बाद भी उन्हें कोई शिकार नहीं मिला। निराश पति-पत्नी जब घर लौट रहे थे, तभी रास्ते में उन्हें हिरनों का एक झुण्ड दिखाई दिया। जिसके आगे एक मृग चल रहा था। भर्तृहरि ने उस पर प्रहार करना चाहा तभी पिंगला ने उन्हें रोकते हुए अनुरोध किया कि महाराज, यह मृगराज 700 हिरनियों का पति और पालनकर्ता है। इसलिए आप उसका शिकार न करें। भर्तृहरि ने पत्नी की बात नहीं मानी और हिरन पर बाण चला दिया। इससे वह मरणासन्न होकर भूमि पर गिर पड़ा। प्राण छोड़ते-छोड़ते हिरन ने राजा भर्तृहरि से कहा, ‘तुमने यह ठीक नहीं किया। अब जो मैं कहता हूं उसका पालन करो। मेरी मृत्यु के बाद मेरे सींग श्रृंगी बाबा को, मेरे नेत्र चंचल नारी को, मेरी त्वचा साधु-संतों को, मेरे पैर भागने वाले चोरों को और मेरे शरीर की मिट्टी पापी राजा को दे देना। मरणासन्न हिरन की करुणामयी बातें सुनकर भर्तृहरि का हृदय द्रवित हो उठा। हिरन का कलेवर घोड़े पर लाद कर वह मार्ग में चलने लगे। रास्ते में उनकी मुलाकात बाबा गोरखनाथ से हुई। भर्तृहरि ने इस घटना से अवगत कराते हुए उनसे हिरन को जीवित करने की प्रार्थना की। इस पर बाबा गोरखनाथ ने कहा- मैं एक शर्त पर इसे जीवनदान दे सकता हूं कि इसके जीवित हो जाने पर तुम्हें मेरा शिष्य बनना पड़ेगा। राजा ने गोरखनाथ की बात मान ली।

 

काव्य शैली

 

        भर्तृहरि संस्कृत मुक्तककाव्य परम्परा के अग्रणी कवि हैं। इन्हीं तीन शतकों के कारण उन्हें एक सफल और उत्तम कवि माना जाता है। इनकी भाषा सरल, मनोरम, मधुर,रसपूर्ण तथा प्रवाहमयी है। भावाभिव्यक्ति इतनी सशक्त है कि वह पाठक के हृदय और मन दोनों को प्रभावित करती है। उनके शतकों में छन्दों की विविधता है। भाव और विषय के अनुकूल छन्द का प्रयोग, विषय के अनुरुप उदाहरण आदि से उनकी सूक्तियाँ जन-जन में प्रचलित रही हैं और समय-समय पर जीवन में मार्गदर्शन और प्रेरणा देती रही हैं।

 

 संघर्ष

 

      प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द, ये तीन प्रमाण अर्थात् सत्य ज्ञान के साधन हैं। प्राय: सभी प्राचीन भारतीय दार्शनिकों ने ये तीनों प्रमाण माने हैं। जिस विषय में तीनों प्रमाणों का संवाद है, उस विषय में निर्णय लेना सरल बात है, जैसे की 'अग्नि ठडंक को नष्ट करती है', 'सूर्य चराचर सृष्टि है', 'सत्य में सारा विश्व प्रतिष्ठित स्थिर है', इत्यादि। परन्तु जिस विषय के बारे में प्रमाणों में विरोध उत्पन्न होता है, उसके बारे में कौन-सा प्रमाण सबल और कौन-सा दुर्बल है, यह समस्या बड़ी ही कठिन है। ऐसे विषय में भर्तृहरि का कथन इस प्रकार है- प्रत्यक्ष और अनुमान, ये दो प्रमाण व्यावहारिक व्यक्त विषयों के बारे में कुछ सीमा तक ज़रूर निर्णायक होंगे, अर्थात् स्वीकार्य भी होंगे, परन्तु अत्यन्त सूक्ष्म पारमार्थिक विषयों में इन प्रमाणों को बिल्कुल स्थान नहीं देना चाहिए। उन सूक्ष्म विषयों का निर्णय केवल अपौरुषेय वेद रूप शब्द प्रमाण से ही संभव है।

 

प्रत्यक्ष प्रमाण

 

     प्रत्यक्ष प्रमाण से केवल स्थूल और वर्तमानकालीन पदार्थ का ही ज्ञान होता है। सूक्ष्म, भूतकालीन, भविष्यकालीन और दूरस्थ वस्तुओं के बारे में वह प्रमाण पूर्णतया निरुपयोगी है। समूचे विश्व का मूल कारण क्या है? विश्व का और उसके कारण का सत्य स्वरूप क्या है। इस विषय में तथा धर्म, अधर्म, पाप, पुण्य, परलोक, साध शब्द और असाधु शब्द, अपभ्रंश आदि परोक्ष विषयों में वह प्रमाण सर्वथा दुर्बल है। यह सारे प्राचीन शास्त्रकारों की निर्विवाद मान्यता है। इसलिए भर्तृहरि ने प्रत्यक्ष का समर्थन या निराकरण कुछ भी नहीं किया है। सिर्फ़ एक दो स्थानों पर उसने उसका उल्लेख किया है। अनुमान प्रमाण भी प्रत्यक्षावलंबी ही है। इस कारण से सर्वथा अप्रत्यक्ष, अत्यन्त सूक्ष्म और जिस विषय का प्रत्यक्ष के साथ दूर से भी संबंध नहीं हो सकता, ऐसे विषय में अनुमान प्रमाण से निर्णय लेना अनर्थकारी होगा। ऐसा सिद्धांत भर्तृहरि ने स्पष्ट रूप से बताया है।

 

वैराग्य शतकम् - Part 1

 

॥ वैराग्य शतकम् भर्तृहरिविरचितम् ॥

 

 मंगलाचरणम्

 

दिक्कालाद्यनवच्छिन्नाऽनन्तचिन्मात्रमूर्त्तये ।

स्वानुभूत्येकमानाय नमः शान्ताय तेजसे ।। १ ।।

 अर्थ:

     जो दशों दिशाओं और तीनो कालों में परिपूर्ण है, जो अनन्त है, जो चैतन्य स्वरुप है, जो अपने ही अनुभव से जाना जा सकता है, जो शान्त और तेजोमय है, ऐसे ब्रह्मरूप परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ ।

 

 बोद्धारो मत्सरग्रस्ताः प्रभवः स्मयदूषिताः।

 अबोधोपहताश्चान्ये जीर्णमंगे सुभाषितम्।। २ ।।

 अर्थ:

     जो विद्वान् हैं, वे इर्षा से भरे हुए हैं; जो धनवान हैं, उनको उनके धन का गर्व है; इनके सिवा जो और लोग हैं, वे अज्ञानी हैं; इसलिए विद्वत्तापूर्ण विचार, सुन्दर सुन्दर सारगर्भित निबन्ध या उत्तम काव्य शरीर में ही नाश हो जाते हैं ।

 

     जो विद्वान् हैं, पण्डित हैं, जिन्हें अच्छे बुरे का ज्ञान या तमीज है, वे तो अपनी विद्वता के अभिमान से मतवाले हो रहे हैं, वे दूसरों के उत्तम से उत्तम कामों में छिद्रान्वेषण करने या नुक्ताचीनी करने में ही अपना पांडित्य समझते हैं; अतः ऐसो में कुछ कहने में लाभ की जरा भी सम्भावना नहीं ।

      दुसरे प्रकार के लोग जो धनी हैं, वे अपने धन के गर्व से भूले हुए हैं । उन्हें धन-मद के कारण कुछ सूझता ही नहीं, उन्हें किसी से बातें करना या किसी की सुनना ही पसन्द नहीं; अतः उनसे भी कुछ लाभ नहीं ।

 

     अब रहे तीसरे प्रकार के लोग; वे नितान्त मूर्ख या अज्ञानी हैं; उन गँवारों में अच्छे बुरे की तमीज नहीं, अतः उनसे कुछ कहने या अपनी कृति दिखाने सुनाने को दिल नहीं चाहता; इसलिए हमारे मुंह से निकल सकने वाले उत्तमोत्तम विचार, निबन्ध, काव्य या सुभाषित, संसार के सामने न आकर, हमारे शरीर में ही नष्ट हुए जाते हैं । हमारा परिश्रम व्यर्थ हो जाता है और संसार हमारे कामों के देखने और लाभान्वित होने से वञ्चित रह जाता  है ।

 

     शिक्षा: जो तुम्हारी तरफ मुखातिब हों, तुम्हारी बातों पर कान दे, तुम्हारी बातों को ध्यान से सुने, उन्ही को अपनी बातें सुनाओ । जो तुम्हारी बातें सुनना न चाहें, उनके गले मत पड़ो । ऐसा करने से आपकी आत्म-प्रतिष्ठा में बट्टा लगेगा - आपका अपमान होगा ।

 

पण्डित मत्सरता भरे, भूप भरे अभिमान ।

 और जीव या जगत के, मूरख महाअजान ।।

मूरख महाअजान, देख के संकट सहिये ।

 छन्द प्रबन्ध कवित्त, काव्यरस कासों कहिये ।।

 वृद्धा भई मनमांहि, मधुर बाणी मुखमण्डित ।

 अपने मन को मार, मौन घर बैठत पण्डित ।।

 

     न संसारोत्पन्नं चरितमनुपश्यामि कुशलं विपाकः पुण्यानां जनयति भयं मे विमृशतः ।

 महद्भिः पुण्यौघैश्चिरपरिगृहीताश्च विषया महान्तो जायन्ते व्यसनमिव दातुं विषयिणाम् ।। ३ ।।

 अर्थ:

     मुझे संसारी कामों में जरा सुख नहीं दीखता । मेरी राय में तो पुण्यफल भी भयदायक ही हैं । इसके सिवा, बहुत से अच्छे अच्छे पुण्यकर्म करने से जो विषय-सुख के सामान प्राप्त किये और चिरकाल तक भोगे गए हैं, वे भी विषय सुख चाहनेवालो का, अन्त समय में दुखों के ही कारण होते हैं ।

 

     इस जीवन में सुख का लेश भी नहीं है । जिनके पास अक्षय लक्ष्मी, धन-दौलत, गाडी-घोड़े, मोटर, नौकर-चाकर, रथ-पालकी प्रभृति सभी सुख के सामान मौजूद हैं, राजा भी जिनकी बात को टाल नहीं सकता, जिनके इशारों से ही लोगों का भला बुरा हो सकता है, ऐसे सर्वसुख संपन्न लोग भी, चाहे ऊपर से सुखी दीखते हों, पर वास्तव में सुखी नहीं हैं; भीतर ही भीतर उन्हें घुन खाये जाता है; किसी न किसी दुःख से वे जरजरित हुए जाते हैं ।  दो कहानियां सुनते हैं -

 

       एक महात्मा अपने शिष्य के साथ किसी नगर में गए । वहां उन्होंने देखा कि, एक साहूकार इन्द्रभवन जैसे मकान में बैठा है, सैकड़ों सेवक आज्ञापालन को तैयार खड़े हैं, जोड़ी-गाडी द्वार पर खड़ी है, हाथी झूम रहे हैं, सामने सोने-चंडी और हीरे-पन्नो के ढेर लग रहे हैं । महात्मा को देखकर सेठ ने अपने एक कर्मचारी को उनको भोजन कराने की आज्ञा दी । जब गुरु-चेले भोजन करने बैठे, तब चेला बोलै - "गुरु जी ! आप कहते थे, संसार में कोई भी सुखी नहीं है । देखिये यह सेठ कैसा सुखी है ! इसे किस बात का अभाव है ? लक्ष्मी इसकी दासी हो रही है ।" गुरु ने कहा - "जरा सब्र करो । हम पता लगाकर कुछ कह सकेंगे ।" महात्मा ने जब भोजन कर लिया, तब सेठ से कहा - "सेठ जी ! परमात्मा ने आपको सभी सुख दिए हैं ।" सेठ ने रोककर कहा - "महाराज ! मेरे समान इस जगत में कोई दुखी नहीं है । मुझे परमात्मा ने धनैश्वर्य सब कुछ दिया है, पर पुत्र एक भी नहीं । पुत्र बिना, ये सुख बिना नमक के पदार्थ की तरह बेस्वाद हैं । मेरा दिल रात दिन जला करता है, कभी मुझे सुख की नींद नहीं आती । मैं इसी सोच में जला जाता हूँ कि पुत्र बिना इस संपत्ति को कौन भोगेगा ?" सेठ की बातें सुनकर चेले ने कहा - "हाँ गुरूजी, आपकी बात राई-रत्ती सच है । संसार में कोई सुखी नहीं । कोई किसी बात से दुखी है तो कोई किसी दुःख से ।"

  संसारी सुख अनित्य हैं

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 सांसारिक सुख-भोग असार, अनित्य और नाशवान हैं । ये सदा स्थिर रहनेवाले नहीं; आज जो लक्ष्मी का लाल है, वह कल दर दर का भिखारी देखा जाता है; जो आज जवान पट्ठा है, मिर्जा अकड़बेग की तरह अकड़ता हुआ चलता है, वही कल बुढ़ापे के मारे लकड़ी टेक टेक कर चलता है । जिसे पहले सब लोग खूबसूरत कहते थे और मुहब्बत से पास बिठाते थे, अब उसके पास खड़ा होना भी नहीं चाहते । मतलब यह कि यौवन, जीवन, मन-धन, शरीर-छाया और प्रभुता, यह सब अनित्य और चञ्चल हैं; अतः दुःख के कारण हैं । काया में मरण, लाभ में हानि , जीत में हार, सुन्दरता में असुन्दरता, भोग में रोग, संयोग में वियोग और सुख में दुःख - ये सब दुःख के कारण हैं । अगर बिना मृत्यु का जीवन, बिना रंज की ख़ुशी, बिना बुढ़ापे की जवानी, बिना दुःख का सुख, बिना वियोग का संयोग और सदा-सर्वदा रहने वाला धन होता, तो मनुष्य को इस जीवन में अवश्य सुख होता ।

    विषय भोगों में सुख नहीं है । ये असार हैं; केले के पत्ते या प्याज के छिलको की तरह सारहीन हैं । फिर भी, मोहवश मनुष्य विषयों में फंसा रहता है । पर एक न एक दिन मनुष्य को इन विषय-भोगों से अलग होना ही पड़ता है । अलग होने के समय विषय भोगी को बड़ा दुःख होता है इससे विषय परिणाम में दुःखदायी ही हैं ।

      इसके सिवा, तरह तरह के पुण्य सञ्चय करने, यज्ञ-याग आदि करने अथवा दान करने से मनुष्य को स्वर्ग मिलता है । वहां वह अमृत पीता और अप्सराओं को भोगता है, कल्पवृक्ष से मनवांछित पदार्थ पाता है, पर पुण्य कर्मो के नाश हो जाने या उनके फल भोग चुकने पर वह स्वर्ग से नीचे गिरा दिया जाता है, उसे फिर इसी मृत्युलोक में आना होता है । उस समय वह स्वर्ग सुखों की याद कर करके मन ही मन रोता और दुखी होता है । इसी से मुझे पुण्यफल भी भयावह मालूम होते हैं । परिणाम में वे भी दुखो के ही कारण होते हैं । तात्पर्य यह कि, संसार मिथ्या और सारहीन है । इसके सुखभोग अनित्य, चञ्चल और सदा न रहने वाले हैं, इसी से दुःख के कारण हैं । मृत्युलोक और स्वर्गलोक में कहीं भी प्राणी को सुख नहीं है ।

 

    शिक्षा: अगर मनुष्य दुखों से दूर रहना चाहे, सदा सुख भोगना चाहे, तो उसे अनित्य और नाशमान पदार्थों से अलग रहना चाहिए । उनमें मोह न रखना चाहिए । बुद्धिमान को लोक-परलोक की असारता और संयोग-वियोग का विचार करके अनित्य पदार्थो से प्रेम न करना चाहिए उसे सदा नित्य अविनाशी परमात्मा से प्रेम करना चाहिए ।

 

उत्खातं निधिशंकया क्षितितलं ध्माता गिरेर्धातवो

 निस्तीर्णः सरितां पतिर्नृपतयो यत्नेन संतोषिताः ।

 मन्त्राराधनतत्परेण मनसा नीताः श्मशाने निशाः

 प्राप्तः काणवराटको‌ऽपि न मया तृष्णेऽधुना मुञ्चमाम् ।। ४ ।।

 अर्थ:

     धन मिलने की उम्मीद से मैंने जमीन के पैंदे तक खोद डाले; अनेक प्रकार की पर्वतीय धातुएं फूंक डाली; मोतियों के लिए समुद्र की भी थाह ले आया; राजाओं को भी राजी रखने में कोई बात उठा न राखी; मन्त्रसिद्धि के लिए रात रात भर श्मसान एकाग्रचित्त से बैठा हुआ जप करता रहा; पर अफ़सोस की बात है, कि इतनी आफ़ते उठाने पर भी एक कानि कौड़ी न मिली । इसलिए हे तृष्णे ! अब तो तू मेरा पीछा छोड़ ।

 

      इसका यही मतलब है कि, भाग्य के विरुद्ध चेष्टा करना व्यर्थ है । जितना धन भाग्य में लिखा है, उतना तो बिना कोशिश किये, बिना किसी कि खुशामद किये, बिना देश-विदेश डोले, घर बैठे ही मिल जाएगा । भाग्य के लिखे से अधिक हजारों चेष्टाएं करने पर भी न मिलेगा । सिकंदर अमृत के लिए अँधेरी दुनिया में गया; पर अमूर्त के कुण्ड के पास पहुँच जाने पर भी, वह अमृत को चख न सका; क्योंकि उसके भाग्य में अमृत न था । मूर्ख मनुष्य भाग्य पर सन्तोष नहीं करता; धन के लिए मारा मारा फिरता है । जब कुछ भी हाथ नहीं लगता, तब रोता और कलपता है ।

 

भ्रान्तं देशमनेकदुर्गविषम् प्राप्तं न किञ्चित्फलम्

 त्यक्त्वा जातिकुलाभिमानमुचितं सेवा कृता निष्फला ।

 भुक्तं मानविवर्जितम परगृहेष्वाशङ्कया काकव-

 त्तृष्णे दुर्मतिपापकर्मनिरते नाद्यापि संतुष्यसि ।। ५ ।।

 अर्थ:

      मैं अनेक कठिन और दुर्गम स्थानों में डोलता फिरा, पर कुछ भी नतीजा न निकला । मैंने अपनी जाति और कुल का अभिमान त्यागकर, पराई चाकरी भी की; पर उससे भी कुछ न मिला । शेष में, मैं कव्वे की तरह डरता हुआ और अपमान सहता हुआ पराये घरों के टुकड़े भी खाता फिरा । हे पाप-कर्म करने वाली और कुमतिदायिनी तृष्णे ! क्या तुझे इतने पर भी सन्तोष नहीं हुआ ?

 

खलोल्लापाः सोढाः कथमपि तदाराधनपरै:

 निगृह्यान्तर्वास्यं हसितमपिशून्येन मनसा ।

 कृतश्चित्तस्तम्भः प्रहसितधियामञ्जलिरपि

 त्वमाशे मोघाशे किमपरमतो नर्त्तयसि माम् ।। ६ ।।

 अर्थ:

 मैंने दुष्टों की सेवा करते हुए उनकी तानेजानि और ठट्ठेबाज़ी सही, भीतर से, दुःख से आये हुए आंसू रोके और उद्विग्न चित्त से उनके सामने हँसता रहा । उन हंसने वालों के सामने, चित्त को स्थिर करके, हाथ भी जोड़े । हे झूठी आशा ! क्या अभी और भी नाच नचाएगी ?

 

 आदित्यस्य गतागतैरहरहः संक्षीयते जीवितम्

 व्यापारैर्बहुकार्यभारगुरुभिः कालो न विज्ञायते ।

 दृष्ट्वा जन्मजराविपत्तिमरणं त्रासश्च नोत्पद्यते

 पीत्वा मोहमयीं प्रमादमदिरामुन्मत्तभूतं जगत् ।। ७ ।।

 अर्थ:

      सूर्य के उदय और अस्त के साथ मनुष्यों की ज़िन्दगी रोज़ घटती जाती है । समय भागा जाता है, पर कारोबार में मशगूल रहने के कारण वह भागता हुआ नहीं दीखता । लोगों को पैदा होते, बूढ़े होते, विपत्ति ग्रसित होते और मरते देखकर भी उनमें भय नहीं होता । इससे मालूम होता है कि मोहमाया, प्रमादरूपी मदिरा के नशे में संसार मतवाला हो रहा है ।

 किसी ने खूब कहा है :

 सुबह होती है शाम होती है ।

 योंही उम्र तमाम होती है ।।

     विचारकर देखने से बड़ा विस्मय होता है कि दिन और रात कैसे तेजी से चले जाते हैं । जिनको कोई काम नहीं है अथवा दुखिया है, उन्हें तो ये बड़े भारी मालूम होते हैं, काटे नहीं कटते, एक एक क्षण, एक एक वर्ष की तरह बीतता है; पर जो कारोबार या नौकरी में लगे हुए हैं, उनका समय हवा से भी अधिक तेजी से उड़ा चला जा रहा है, यानी कारोबार या धंधे में लगे रहने के कारण उन्हें मालूम नहीं होता । वे अपने कामों में भूले रहते हैं और मृत्युकाल तेजी से नजदीक आता जाता है ।

 

  शंकराचार्य जी ने 'मोहमुद्गर' में कहा है :

 दिन यामिन्यौ सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।

 कालः क्रीडति गच्छत्यायु तदपि न मुञ्चत्याशावायुः।।

 

     दिन-रात, सवेरे-सांझ, शीत और वसंत आते और जाते हैं, काल क्रीड़ा करता है, जीवनकाल चला जाता है, तो भी संसार आशा को नहीं छोड़ता ।

     शिक्षा: मनुष्यों ! मिथ्या आशा के फेर में दुर्लभ मनुष्य देह को योंही नष्ट न करो । देखो ! सर पर काल नाच रहा है: एक सांस का भी भरोसा न करो । जो सांस बाहर निकल गया है, वह वापस आवे या न आवे इसलिए गफलत और बेहोशी छोड़कर, अपनी काया को क्षणभंगुर समझकर, दूसरो की भलाई करो और अपने सिरजनहार में मन लगाओ; क्योंकि नाता उसी का सच्चा है; और सब नाते झूठे हैं ।

 

कहा है -

 माया सगी न मन सगा, सगा न यह संसार।

 परशुराम या जीव को, सगा सो सिरजनहार।।

 

दीना दीनमुखैः सदैव शिशुकैराकृष्टजीर्णाम्बरा

 क्रोधद्भिः क्षुधितैर्नरैर्न विधुरा दृश्या न चेद्गेहिनी ।

 याच्ञाभङ्गभयेन गद्गदगलत्रुट्यद्विलीनाक्षरं

 को देहीति वदेत् स्वदग्धजठरस्यार्थे मनस्वी जनाः ।। ८ ।।

 अन्वयः

 

शिशुकैः + आकृष्ट

 क्षुधितैः + निरन्न

 चेत् + गेहिनी

 याचना + भङ्ग + भयेन -> मांग पूरी न होने का भय, जबान खली जाने का भय

 

अर्थ:

 स्त्री के फटे हुए कपड़ों को दीनातिदीन बालक खींचते हैं, घर के और मनुष्य भूख के मारे उसके सामने रोते हैं - इससे स्त्री अतीव दुखित है । ऐसी दुखिनी स्त्री अगर घर में न होती तो कौन धीर पुरुष, जिसका गला मांगने के अपमान और इन्कारी के भय से रुका आता है, अस्पष्ट भाषा या टूटे-फूटे शब्दों में, गिड़गिड़ा कर "कुछ दीजिये" इन शब्दों को, अपने पेट की ज्वाला शान्त करने के लिए, कहता?

    भूख से बिल्लाते बच्चे जिस मां की फटी पुरानी साडी को पकड़ कर खींचते हुए रो रहे हों और मां भी खुद भूख से बेताब हो, ऐसी स्त्री को यदि घर में देखना न पड़े, तो कोई ऐसा व्यक्ति न होगा जो अपना निजी पेट भरने के लिए किसी के सामने सवाल करने जाय और वह भी जबकि सवाल करने से पहले ही मन में यह दुविधा हो कि कहीं जबान खाली न जाय और इस डर से मुंह से शब्द भी न निकलें अर्थात घर में बच्चो और स्त्री कि यह दशा देख नहीं सकता इसलिए अपने अपमान का ध्यान न कर औरो से मांगने पर मजबूर हो जाता है ।

     याचना करने से त्रिलोकी भगवान् को भी छोटा होना पड़ा, तब औरो कि कौन बात है ? इसीलिए तुलसीदास जी ने कहा है -

 

तुलसी कर पर कर करो, कर तर कर न करो ।

 जा दिन कर तर कर करो, ता दिन मरण करो ।।

 

      हाथ के ऊपर हाथ करो, पर हाथ के नीचे हाथ न करो, जिस दिन हाथ के नीचे हाथ करो, उस दिन मरण करो; यानी दूसरों को दो, पर दूसरों के आगे हाथ न फैलाओ । जिस दिन दूसरों के आगे हाथ फ़ैलाने की नौबत आये, उस दिन मरण हो जाए तो भला ।

   स्त्री पुरुषों के पालन पोषण की चिन्ता में सारी आयु बीत जाती है; पर परमात्मा के भजन में उसका मन नहीं लगता ! मन तो तब लगे जबकि वह शुद्ध हो । उसे तो हरदम, नून-तेल, आटे-दाल की चिन्ता लगी रहती है । ईश्वर में मन न लगने से और शेष दिन आ जाने से, उसे फिर जन्म-मरण के झंझटों में फंसना होता है । यह स्त्री माया ही संसार वृक्ष का बीज है । शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध उसके पत्ते; काम, क्रोधादि उसकी डालियाँ और पुत्र-कन्या प्रभृति उसके फल हैं । तृष्णा रुपी जल से यह संसार-वृक्ष बढ़ता है । संसारबंधन से मुक्त होने में "कनक और कामिनी" ये दो ही बाधक हैं ।

 कहा है :

 चलूँ चलूँ सब कोई कहै, पहुंचे विरला कोय ।

 एक कनक और कामिनी, दुर्लभ घाटी दोय ।।

 एक कनक और कामिनी, ये लम्बी तलवारि ।

 चाले थे हरिमिलन को, बीचहि लीने मारि ।।

 नारि नसावै तीन सुख, जेहि नर पास होये ।

 भक्ति-मुक्ति अरु ज्ञान में, पैठ सके न कोय ।।

 

       एक बार व्यास जी ने शुकदेव जी को शादी करने को कहा । व्यास जी ने समझाने में घटा न रखा, पर शुकदेव जी ने एक न मानी । उन्होंने कहा "पिताजी ! लोह और काठ की बेड़ियों से चाहे छुटकारा हो जाय; पर स्त्री पुत्र प्रभृति की मोहरूपी बेड़ियों से पुरुष का पीछा नहीं छूट सकता   हे पिता ! गृहस्थाश्रम जेलखाना है; इसमें जरा भी सुख नहीं । स्त्री के लिए पुरुष को संसार में नीच से नीच काम करने पड़ते हैं । जिनके मुंह देखने से पाप लगता है उसकी खुशामदें करनी पड़ती हैं, इसके वास्ते मैं स्त्री बंधन में नहीं पड़ना चाहता ।"

 *व्यास-शुकदेव संवाद स्कंदपुराण से है।

 

निवृता भोगेच्छा पुरुषबहुमानो विगलितः

 समानाः स्‍वर्याताः सपदि सुहृदो जीवितसमाः ।

 शनैर्यष्टयोत्थानम घनतिमिररुद्धे च नयने

 अहो धृष्टः कायस्तदपि मरणापायचकितः ।। ९ ।।

 अर्थ:

 बुढ़ापे के मारे भोगने की इच्छा नहीं रही; मान भी घट गया; हमारी बराबर वाले चल बसे; जो घनिष्ट मित्र रह गए हैं, वे भी निकम्मे या हम जैसे हो गए हैं । अब हम बिना लकड़ी के उठ भी नहीं सकते और आँखों में अँधेरी छा गयी है । इतना सब होने पर भी, हमारी काया कैसी बेहया है, जो अपने मरने की बात सुनकर चौंक उठती है ?

   जगत की विचित्र गति है ! इस जीवन में जरा भी सुख नहीं है । मनुष्य के मित्र और नातेदार मर जाते हैं, आप निकम्मा हो जाता है, आँख कान प्रभृति इन्द्रियां बेकाम हो जाती हैं, आँखों से सूझता नहीं और कानो से सुनाई नहीं देता, घर-बाहर के लोग अनादर करते हैं, बुढ़ापे के मारे चला फिरा नहीं जाता, खाने को भी कठिनाई से मिलता है; तो भी मनुष्य मरना नहीं चाहता, बल्कि मरने की बात सुनकर चौंक उठता है। इसे मोह न कहें तो क्या कहें ?

 लकड़हारा और मौत

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    एक वृद्ध अतीव निर्धन था । बेटे पोते सभी मर गए थे । एक मात्र बुढ़िया रह गयी थी । बूढ़े के हाथ पैरों ने जवाब दे दिया था । आँखों से दीखता न था । फिर भी, अपने और बूढी के पेट के लिए, वह जंगल से लकड़ी काटकर लाता और बेचकर गुज़ारा करता था । एक दिन उसने जीवन से निहायत दुखी होकर मृत्यु को पुकारा । उसके पुकारते ही मृत्यु मनुष्य के रूप में उसके प्रत्यक्ष आ खड़ी हुई । बूढ़े ने पुछा - "तुम कौन हो ?" उसने कहा - "मैं मृत्यु हूँ, तुम्हें लेने आयी हूँ ।" मृत्यु का नाम सुनते ही लकड़हारा चौंक उठा और कहने लगा - "मैंने आपको ये भार उठवाने को बुलवाया था ।" मृत्यु उसका भार उठवा कर चली गयी ।

     देखिये ! बूढा लकड़हारा हर तरह दुखी था, उसे जीवन में जरा भी सुख नहीं था, फिर भी वह मरना न चाहता था; अपितु मृत्यु को देखते ही चौंक पड़ा था । यही गति संसार की है ।

 एक दुखित बूढ़ा सेठ

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      एक वैश्य ने उम्र भर मर-पचकर खूब धन जमा किया । बुढ़ापे में पुत्रों ने सारे धन पर अधिकार कर बूढ़े को पौली में एक टूटी सी खाट और फटी सी गुदड़ी पर डाल दिया और कुत्ता मारने के लिए हाथ में लकड़ी दे दी । सुबह शाम घर का कोई आदमी बचा-खुचा, बासी-कूसी उसे खाने को दे जाता । सेठ बड़े दुःख से अपना जीवन जीता था । पुत्र-वधुएं दिन भर कहा करती थी - "यह मर नहीं जाते, सबको मौत आती है पर इनको नहीं आती। दिन भर पौली में थूक-थूक कर मैला करते हैं ।"  एक दिन एक पोता उन्हें पीट रहा था । इतने में नारद जी आ निकले उन्होंने सारा हाल देखकर कहा - "सेठजी ! आप बड़े दुखी हैं । स्वर्ग में कुछ आदमियों की आवश्यकता है । अगर तुम चलो तो हम ले चलें ।" सुनते ही सेठ ने कहा - "जा रे वैरागीड़ा ! मेरे बेटे पोते मुझे मारते हैं चाहे गाली देते हैं, तुझे क्या ? तू क्या हमारा पञ्च है ? मैं इन्हीं में सुखी हूँ । मुझे स्वर्ग की आवश्यकता नहीं ।" सेठ की बातें सुनकर नारद जी को बड़ा आश्चर्य हुआ । कहने लगे - "ओह ! संसार सचमुच ही मोह-पाश में फंसा है । मोह की मदिरा के मारे इसे होश नहीं । मनुष्य ने कब्र में पैर लटका रखे हैं; फिर भी विषयों में ही उसका मन लगा है ।" किसी ने ठीक ही कहा है :

 

गतं तत्तारुण्यं तरुणिहृदयानन्दजनकं

 विशीर्णा दन्तालिर्निजगतिरहो यैष्टिशरणां ।

 जड़ी भूता दृष्टिः श्रवणरहितं कर्णयुगलं

 मनोमे निर्लज्जं तदपि विषयेभ्यः स्पृहयति ।।

 तरुणियों के ह्रदय में आनन्द पैदा करने वाली जवानी चली गयी है, दन्तपंक्ति गिर गयी है, लकड़ी का सहारा लेकर चलता हूँ, नेत्र ज्योति मारी गयी है, दोनों कानों से सुनाई नहीं देता, तो भी मेरा निर्लज्ज मन विषयों को चाहता है ।

 

शंकराचार्यकृत चर्पटपञ्जरिका स्तोत्र से:

 

अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम्।

 वृध्दो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम्।।

 

हिंसाशून्यमयत्नलभ्यमशनं धात्रामरुत्कल्पितं

 व्यालानां पशवः तृणांकुरभुजः सृष्टाः स्थलीशायिनः ।

 संसारार्णवलंघनक्षमधियां वृत्तिः कृता सा नृणां

 यामन्वेषयतां प्रयांति संततं सर्वे समाप्ति गुणाः ।। १० ।।

 अर्थ:

 विधाता ने हिंसारहित, बिना उद्योग के मिलने वाली हवा का भोजन साँपों की जीविका बनाई, पशुओं को घास खाना और जमीन पर सोना बताया; किन्तु जो मनुष्य अपनी बुद्धि के बल से भवसागर के पार हो सकते हैं, उनकी जीविका ऐसी बनाई कि जिसकी खोज में उनके सारे गुणों की समाप्ति हो जाये, पर वह न मिले ।

    विधाता ने सांपो के लिए तो हवा का भोजन बता दिया, जिसके हासिल करने में किसी प्रकार की हिंसा भी नहीं करनी पड़ती और वह बिना किसी प्रकार की चेष्टा के उन्हें अपने वासस्थानों में ही मिल सकता है । जानवरों के लिए घास चरने को और जमीन सोने को बता दी, इससे उनको भी अपने खाने के लिए विशेष चेष्टा नहीं करनी पड़ती, वे जंगल में उगी उगाई घास तैयार पाते हैं और इच्छा करते ही पेट भर लेते हैं । उन्हें सोने के लिए पलँगो और गद्दे-तकियों की फ़िक्र नहीं करनी पड़ती, जमीन पर ही जहाँ जी चाहता है पड़ रहते हैं । सर्प और पशुओं के साथ भगवान् ने पक्षपात किया, उन्हें बेफिक्री की ज़िन्दगी भोगने के उपाय बता दिए, किन्तु मनुष्यों के साथ ऐसा नहीं किया ! उन बेचारों को बुद्धि तो ऐसी दे दी कि जिससे वे संसार सागर के पार हो सकें अथवा दुर्लभ मोक्षपद को प्राप्त हो सकें; पर उन्हें जीविका ऐसी बताई कि जिसकी खोज में उनकी सारी कोशिशें बेकार हो जाएं, पर जीविका का ठिकाना न हो । यह क्या कुछ कम दुःख की बात है ? यदि विधाता मनुष्यों को भी साँपों और पशुओं की सी ही जीविका बताता, तो कैसा अच्छा होता ? मनुष्य जीविका की फ़िक्र न होने से, सहज में ही अपनी बुद्धि के जोर से मोक्ष पा जाते ।

 उस्ताद ज़ौक़ भी कुछ इस तरह शिकायत करते हैं -

 बनाया ज़ौक़ जो इंसां को उसने जुजव ज़ईफ़ ।

 तो उस ज़ईफ़ से कुल काम दो जहाँ के लिए ।।

   ए ज़ौक़ ! ईश्वर को देखो, कि उसने मनुष्य को कितना कमज़ोर बनाया, पर काम उससे दोनों लोकों के लिए । उसे इस लोक और परलोक, दोनों कि फ़िक्र लगा दी ।

 किसी ने ठीक कहा है -

 

 घृतलवणतैलतण्डुल शोकन्धन चिन्तयाऽअनुदिनम् ।

 विपुल मतेरपि पुंसो नश्यति धीरमन्दविभावत्वात् ।।

    घी, नोन, तेल, चावल, साग और ईंधन की चिंता में बड़े बड़े मतिमानों की उम्र भी पूरी हो जाती है; पर इस चिंता का ओर छोर नहीं आता । इसी से मनुष्य को ईश्वर भजन या परमात्मा की भक्ति-उपासना को समय नहीं मिलता । अगर मनुष्य इतनी आपदाओं के होते हुए भी परलोक बनाना चाहे, तो उसे चाहिए कि अपनी ज़िन्दगी की जरूरतों को कम करे, क्योंकि जिसकी आवश्यकताएं जितनी ही कम हैं, वह उतना ही सुखी है । इसलिए महात्मा लोग महलों में न रहकर वृक्षों के नीचे उम्र काट देते हैं । वन में जो फल-फूल मिलते हैं, उन्हें खाकर और झरनो का शीतल जल पीकर पेट भर लेते हैं । आवश्यकताओं को कम करना ही सुख-शांति का सच्चा उपाय है ।

 

 

 

वैराग्य शतकम् भ्रतृहरि विरचित भाग 1-2

 

 


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