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अथर्ववेद में ब्रह्मचर्य-सूक्त



 अथर्ववेद में ब्रह्मचर्य-सूक्त 


सर्व वेदात्प्रसिध्यति, 'प्रमाणं परम॑ श्रुतिः । 

 (धर्मज्ञभूषण मनु ) 


      सब कुछ वेद से सिद्ध होता है। कारण यह है कि वेद में सभी प्रकार के विषयों का संग्रह है । 

      सब से बढ़ कर प्रमाण वेद है । जिस बात का समर्थन वेद में है, वह अन्य ग्रन्थ के प्रमाणों की उपेक्षा नहीं करता । 


“इष्टप्राप्त्यनिष्टपरिहारयोरलौकिक मुपायं यो वेदयति स वेदः”।। 

( भाष्यकार सायणाचार्य ) 

जो इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट के ' नाश करने का सदुपाय बताते हैं, उसे वेद कहते हैं । 

     इस खण्ठ में हम अनेक प्रकार के प्रमाणों और उदाहरणों से ब्रह्मचर्य का महत्व दिखला चुके हैं। अब हम इसे वेद से दिखलाना चाहते हैं । क्‍योंकि मानवी-सभ्यता के सर्व श्रेष्ठ ग्रन्थ वेद ही हैं । 

     ब्रह्मचर्य बहुत ही महत्वपू्र्ण विषय है। वेद जैसे सार्वभौम ग्रन्थ में इसके आदर्शों की महिमा का वर्णन न होना अत्यन्त असम्भव है । 

     यों तो प्रायः सभी वैदिक ग्रन्थों में ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में कुछ न कुछ भाव प्रकट किया गया है, पर हमारे अथर्वेवेद में तो एक सूक्त का सूक्त ही, इस महत्व-पूर्ण विषय से परिपूर्ण है । इस सूक्त का नाम ही 'ब्रह्मचारी? या “ब्रह्मचर्य-सूक्त” पड़ गया है। इस सूक्त में सत्र २६ मन्त्र हैं। इनमें ब्रह्मचारी की महत्ता कर्त्तव्यशीलता और व्यवहारनिष्ठा--ब्रह्मचर्य की महिमा, कार्यसिद्धि और व्यापकता, एवं आचार्य के धर्म, महत्व तथा उपदेश का वर्णन अलङ्कार-मयी भाषा में बड़े सार-गर्भित रूप से किया गया है। यह बड़े काम का है। यदि एक एक कर के भाव सहित सब मन्त्र कण्ठस्थ कर लिये जाये, तो बहुत ही लाभ पहुँच सकता है। एतद्थ हम सम्पूर्ण सूक्त को अर्थ तथा भावार्थ सहित पाठकों के हित की दृष्टि से लिख देना चाहते हैं । 


     आजकल वेदों का विज्ञान-युक्त अर्थ करने वाले बहुत ही कम लोग हैं । इसीलिये अनर्गल अर्थों से लोगों में केवल भ्रम फैल जाता है, और लाभ कुछ नहीं होता । वेदों की भाषा अपोरुषेय है, इसलिये देश, काल और पात्र के अनुकूल एक ही ऋचा के कई अर्थ हो जाते हैं। पंडितवर रावण, महीधर, सायणाचार्य, शङ्कराचार्य और स्वामी दयानन्द--जितने भाष्यकार हुये है, प्रायः सबने अपने-अपने समय के अनुकूल अर्थ किया है। 'ऋग्वेद-भाष्य-भूमिका? में पुराने भाष्यों की अनर्थंता और उलके भ्रमों का युक्ति-युक्त खण्डन किया गया है और यह बात सिद्ध की गई है कि वेद में विज्ञान-विरुद्ध अर्थ है ही नहीं । 


       हम इस ब्रह्मचर्य-सूक्त का वास्तविक अर्थ काशी के एक विद्वान-वेदज्ञ-ब्राह्यण से समझना चाहते थे, पर खेद है, वे इस कार्य सें असमर्थ ज्ञात हुये । और उन्होंने यह भी कहा कि यहाँ की पंडितमण्डली तो वही पुराना अर्थ करेगी। अतः हमने स्वयं परिश्रम कर, सुसद्भात भ्रावों के निकालने की चेष्टा की । और उसी पर संतोष किया, उन्हें पाठक स्वयं आगे देखेंगे :--- 


ब्रह्मचर्य-सूक्त 


(१) 

ब्रह्मचा॒रीष्णंश्च॑रति॒ रोद॑सी उ॒भे तस्मि॑न्दे॒वाः संम॑नसो भवन्ति। 

स दा॑धार पृथि॒वीं दिवं॑ च॒ स आ॑चा॒र्यं तप॑सा पिपर्ति ॥

पदार्थ -

(ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी [वेदपाठी और वीर्यनिग्राहक पुरुष] (उभे) दोनों (रोदसी) सूर्य और पृथिवी को (इष्णन्) लगातार खोजता हुआ (चरति) विचरता है, (तस्मिन्) उस [ब्रह्मचारी] में (देवाः) विजय चाहनेवाले पुरुष (संमनसः) एक मन (भवन्ति) होते हैं। (सः) उस ने (पृथिवीम्) पृथिवी (च) और (दिवम्) सूर्यलोक को (दाधार) धारण किया है [उपयोगी बनाया है], (सः) वह (आचार्यम्) आचार्य [साङ्गोपाङ्ग वेदों के पढ़ानेवाले पुरुष] को (तपसा) अपने तप से (पिपर्ति) परिपूर्ण करता है ॥१॥


भावार्थ - ब्रह्मचारी वेदाध्ययन और इन्द्रियदमनरूप तपोबल से सब सूर्य, पृथिवी आदि स्थूल और सूक्ष्म पदार्थों का ज्ञान पाकर और सबसे उपकार लेकर विद्वानों को प्रसन्न करता हुआ वेदविद्या के प्रचार से आचार्य का इष्ट सिद्ध करता है ॥१॥


टिप्पणी -

१−भगवान् पतञ्जलि मुनि ने इस सूक्त का सारांश लेकर कहा है−[ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः−योगदर्शन, पाद २ सूत्र ३८] (ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायाम्) ब्रह्मचर्य [वेदों के विचार और जितेन्द्रियता] के अभ्यास में (वीर्यलाभः) वीर्य [वीरता अर्थात् धैर्य, शरीर, इन्द्रिय और मन के निरतिशय सामर्थ्य] का लाभ होता है ॥२−भगवान् मनु ने आचार्य का लक्षण इस प्रकार किया है−[उपनीय तु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद्द्विजः। संकल्पं सरहस्यं च तमाचार्यं प्रचक्षते-मनुस्मृति, अध्याय २ श्लोक १४०] ॥जो द्विज [ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य] शिष्य का उपनयन करके कल्प [यज्ञ आदि संस्कार विधि] और रहस्य [उपनिषद् आदि ब्रह्मविद्या] के साथ वेद पढ़ावे, उसको “आचार्य” कहते हैं ॥१−(ब्रह्मचारी) अ० ५।१७।५। ब्रह्म+चर गतिभक्षणयोः-आवश्यके णिनि। ब्रह्मणे वेदाय वीर्यनिग्रहाय च चरणशीलः पुरुषः (इष्णन्) इष आभीक्ष्णे-शतृ। पुनः पुनरन्विच्छन् (चरति) विचरति। प्रवर्त्तते (रोदसी) अ० ४।१।४। द्यावापृथिव्यौ (उभे) (तस्मिन्) ब्रह्मचारिणि (देवाः) विजिगीषवः (संमनसः) समानमनस्काः (भवन्ति) (सः) ब्रह्मचारी (दाधार) धृतवान् (पृथिवीम्) (दिवम्) सूर्यलोकम् (च) (सः) (आचार्यम्) चरेराङि चागुरौ। वा० पा० ३।१।१००। इति प्राप्ते। ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। आङ्+चर गतिभक्षणयोः-ण्यत्। आचार्यः कस्मादाचार्य आचारं ग्राहयत्याचिनोत्यर्थानाचिनोति बुद्धिमिति वा०-निरु० १।४। साङ्गोपाङ्गवेदाध्यापकं द्विजम् (तपसा) इन्द्रियनिग्रहेण (पिपर्ति) पॄ पालनपूरणयोः। पूरयति ॥


(१ ) ब्रह्मचारी पृथिवी और आकाश को वश में करता हुआ चलता है। ( २ ) उसमें देव लोग मन के साथ रहते हैं । (३ ) वह पृथिवी और आकाश को धारण करता है और (४) वह आचार्य को तप से पू्र्ण करता है । 


( १ ) ब्रह्मचारी ऐहिक और पारलौकिक उन्नतियों को अपने अधिकार में करने के लिये, सदैव उद्योग करता है । है ( 2 ) इस उद्योग-साधना से उसके हृदय भे सद्गुणों का आविर्भाव होता है । (३ ) प्राप्त दिव्य गुणों के प्रभाव से, वह ऊपर के दोनों उच्च उद्देश्यों को प्राप्त करने में दक्ष हो जाता है । (४ ) और इस प्रकार वह योग्य बनकर अच्छी योग्यता से अपने आचार्य को पूर्ण-काम करता है । 


     ब्रह्मचारी ऐहिक और पारलौकिक सुखों को साधने वाली विद्याका भली भाँति अध्ययन करता है । ज्यों ज्यों अध्ययन करता है, त्यों - त्यों उसके हृदय में उत्तम ज्ञान प्राप्त होता है । कुछ समय के अनन्तर, वह विद्वान बन जाता है, और वह अपने आचार्य के निरन्तर के परिश्रस को भी इस प्रकार सफल करता है । 


(२) 

ब्र॑ह्मचा॒रिणं॑ पि॒तरो॑ देवज॒नाः पृथ॑ग्दे॒वा अ॑नु॒संय॑न्ति॒ सर्वे॑। ग॑न्ध॒र्वा ए॑न॒मन्वा॑य॒न्त्रय॑स्त्रिंशत्त्रिश॒ताः ष॑ट्सह॒स्राः सर्वा॒न्त्स दे॒वांस्तप॑सा पिपर्ति ॥


    (सर्वे) सब (देवाः) व्यवहारकुशल, (पितरः) पालन करनेवाले, (देवजनाः) विजय चाहनेवाले पुरुष (पृथक्) नाना प्रकार से (ब्रह्मचारिणम्) ब्रह्मचारी [मन्त्र १] के (अनुसंयन्ति) पीछे-पीछे चलते हैं। (त्रयस्त्रिंशत्) तेंतीस, (त्रिशताः) तीन सौ और (षट्सहस्राः) छह सहस्र [६,३३३ अर्थात् बहुत से] (गन्धर्वाः) पृथिवी के धारण करनेवाले [पुरुषार्थी पुरुष] (एनम् अनु) इस [ब्रह्मचारी] के साथ-साथ (आयन्) चले हैं, (सः) वह (सर्वान्) सब (देवान्) विजय चाहनेवालों को (तपसा) [अपने] तप से (पिपर्ति) भरपूर करता है ॥२॥

सब विद्वान् पुरुषार्थी जन पूर्वकाल से जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी के अनुशासन में चलकर आनन्द पाते आये हैं और पाते हैं ॥२॥

(१ ) ब्रह्मचारी को पितर, देवजन, अन्य देव और गन्धर्व 'सभी लोग अनुसरते हैं ।( २ ) वह अपने तप से ३०, ३०० और ६००० देवों को परिपूर्ण करता है । 

( १) ब्रह्मचारी के पिता-पितामहादि, शुभैषी पुरवासी तथा गुणग्राही लोग, सभी उसका कल्याण चाहते हैं।

(२ ) और वह अपने अनुष्ठान से सर्वाङ्ग की दिव्य शक्तियों को विकसित करता है। 

    ब्रह्मचारी के सभी हितैषी (चाहने वाले) उसकी आशा लगाये रहते हैं कि वह अपने व्रत से विचलित न होने पावे । जब उसका ब्रह्मचर्य पूर्ण हो जाता है, और वह विद्या पढ़ लेता है, तब उसका मानसिक और शारीरिक विकास होता है। 


      इस मन्त्र में जो देवों की संख्या गिनाई गई है । उसका अभिप्राय यह है कि इस शरीर में भी सब देवों के अंश हैं । एक भी अङ्ग ऐसा नहीं, जिसमें कि एक न एक प्रकार की देवी ( प्राकृतिक ) शक्ति न हो । उन्हीं के आधार पर मनुष्य जीवित रहता है । उन्हीं तीन, तीस, तीन सौ और छः सहस्त्र--गुण, धर्म, योग्यता ओर विषय के मूल को देव नाम से अमिहित किया ! 


(३) 

आ॑चा॒र्य उप॒नय॑मानो ब्रह्मचा॒रिणं॑ कृणुते॒ गर्भ॑म॒न्तः। 

तं रात्री॑स्ति॒स्र उ॒दरे॑ बिभर्ति॒ तं जा॒तं द्रष्टु॑मभि॒संय॑न्ति दे॒वाः ॥


विषय - ब्रह्मचर्य के महत्त्व का उपदेश।


पदार्थ -

(ब्रह्मचारिणम्) ब्रह्मचारी [वेदपाठी और जितेन्द्रिय पुरुष] को (उपनयमानः) समीप लाता हुआ [उपनयनपूर्वक वेद पढ़ाता हुआ] (आचार्यः) आचार्य (अन्तः) भीतर [अपने आश्रम में उसको] (गर्भम्) गर्भ [के समान] (कृणुते) बनाता है। (तम्) उस [ब्रह्मचारी] को (तिस्रः रात्रीः) तीन राति (उदरे) उदर में [अपने शरण में] (बिभर्ति) रखता है, (जातम्) प्रसिद्ध हुए (तम्) उस [ब्रह्मचारी] को (द्रष्टुम्) देखने के लिये (देवाः) विद्वान् लोग (अभिसंयन्ति) मिलकर जाते हैं ॥३॥


भावार्थ - उपनयन संस्कार कराता हुआ आचार्य ब्रह्मचारी को, उसके उत्तम गुणों की परीक्षा लेने और उत्तम शिक्षा देने के लिये, तीन दिन राति अपने समीप रखता है और ब्रह्मचर्य और विद्या पूर्ण होने पर विद्वान् लोग ब्रह्मचारी का आदर मान करते हैं ॥३॥मन्त्र ३-७ महर्षि दयानन्तकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वर्णाश्रमविषय पृ० २३५-२३७ में, और मन्त्र ३, ४, ६, संस्कारविधि वेदारम्भप्रकरण में व्याख्यात हैं ॥


टिप्पणी -

३−(आचार्यः) म० १। साङ्गोपाङ्गवेदाध्यापकः (उपनयमानः) संमाननोत्सञ्जनाचार्यकरण०। पा० १।३।३६। इत्यात्मनेपदम्। स्वसमीपं गमयन्। उपनयनपूर्वकेण वेदाध्यापनेन प्रापयन् (ब्रह्मचारिणम्) म० १। वेदपाठिनं वीर्यनिग्राहकम् (कृणुते) करोति (गर्भम्) गर्भरूपम् (अन्तः) मध्ये। स्वाश्रमे (तम्) ब्रह्मचारिणम् (तिस्रः रात्रीः) त्रिदिनपर्यन्तम् (उदरे) स्वशरणे (बिभर्ति) धारयति (तम्) (जातम्) प्रसिद्धम् (द्रष्टुम्) अवलोकयितुम् (अभिसंयन्ति) अभिमुखं संभूय गच्छन्ति (देवाः) विद्वांसः ॥

(१) ब्रह्मचारी को प्राप्त करने वाला आचार्य, उसे अन्तर्गत करता है (२) उसे तीन रात तक अपने उदर में रखता है और 

(३) उसके उत्पन्न होने पर देव-गण उसे देखने आते हैं । 

(१) आचार्य अपने यहाँ आये हुये ब्रह्मचारी को अपने अधिकार में कर लेता है । वह बिना आचार्य की आज्ञा, कुछ भी नहीं कर सकता । अथार्त ब्रह्मचारी से आज्ञा-पालन करवाता है। 

(२) जब तक उस ब्रह्मचारी के त्रिविध अज्ञान दूर नहीं हो जाते, तब तक घह उसे अपने संरक्षण में रखता है । 

(३) जब बह सुबोध हो जाता है---उसकी बुद्धि परिपक्व हो जाती है, तब आचार्य उसे अपने बन्धन से मुक्त कर देता है । फिर विद्वान लोग उसका आदर-सत्कार करते हैं । 

      उपनयन-संस्कार के हो जाने पर, ब्रह्मचारी अपने आचार्य के सन्निकट जा कर उससे विद्या पढ़ने की प्रार्थना करता है। वह आचार्य उस ब्रह्मचारी को अपने आत्म में रहने, तथा निरन्तर अध्ययन करने की आज्ञा देता है। वह उसे क्रमशः आधिभौतिक, आधिदैविक और अध्यात्मिक--इन तीन दुःखों से बचने के लिये ज्ञानोपदेश करता है । जब वह समझ लेता है कि अब ब्रह्मचारी सुयोग्य और परिपक्व-बुद्धि हो गया, तब वह उसे स्वतन्त्र कर देता है । अर्थत घर जाने की आज्ञा देता है, इस बात से उस ब्रह्मचारी की हितकामना करने वाले लोग, उससे मिल कर प्रसन्न हाते हैं. । 


(४) 

इ॒यं स॒मित्पृ॑थि॒वी द्यौर्द्वि॒तीयो॒तान्तरि॑क्षं स॒मिधा॑ पृणाति। 

ब्र॑ह्मचा॒री स॒मिधा॒ मेख॑लया॒ श्रमे॑ण लो॒कांस्तप॑सा पिपर्ति ॥


पदार्थ -

(इयम्) यह [पहिली] (समित्) समिधा (पृथिवी) पृथिवी, (द्वितीया) दूसरी [समिधा] (द्यौः) सूर्य [समान है], (उत) और (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष को [तीसरी] (समिधा) समिधा से (पृणाति) वह पूर्ण करता है। (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी (समिधा) समिधा से [यज्ञानुष्ठान से], (मेखलया) मेखला से [कटिबद्ध होने के चिह्न से] (श्रमेण) परिश्रम से और (तपसा) तप से [ब्रह्मचर्यानुष्ठान से] (लोकान्) सब लोकों को (पिपर्ति) पालता है ॥४॥


भावार्थ - ब्रह्मचारी हवन में तीन समिधाएँ छोड़ कर और कटिबन्धन आदि से उद्योग का अभ्यास प्रकट करके व्रत करता है कि वह ब्रह्मचर्य के साथ पृथिवी, सूर्य और अन्तरिक्ष विद्या को जानकर संसार का उपकार करेगा ॥४॥


टिप्पणी -

४−(इयम्) दृश्यमाना प्रथमा (समित्) होमीयकाष्ठम् (पृथिवीः) भूमिविद्यारूपा (द्यौः) सूर्यविद्या (द्वितीया) समित् (उत) अपि च (अन्तरिक्षम्) समिधा (तृतीयेन) होमीयकाष्ठेन (पृणाति) पूरयति (ब्रह्मचारी) (समिधा) (मेखलया) अ० ६।१३३।१। कटिबन्धनेन (श्रमेण) परिश्रमेण (लोकान्) जनान् (तपसा) तपश्चरणेन (पिपर्ति) पालयति ॥


(१) यह पृथिवी पहली समिधा है ।.(२) दूसरी समिधा आकाश है, जिससे वह अन्तरिक्ष को प्रसन्न करता है और (३) ब्रह्मचारी की समिधा, मेखला, श्रम और तप से लोक को पूर्ण करता है । 

(१) पहली 'परा विद्या! है, जिससे भौतिक वस्तुओं का बोध होता है । 

(२) दूसरी 'अपरा विद्या है जिससे अध्यात्मिक अनुभव किया ' जाता है और जिसके प्राप्त होने पर आत्मानन्द प्राप्त होता है । 

(३) और ब्रह्मचारी अपनी विद्या, कटिबद्धता, परिश्रम तथा अनुष्ठान से लोगों कों तृप्त करता है । 


     ब्रह्मचारी अपने आचार्य से भौतिक और अध्यात्मिक विद्यायें सीखता है। अध्यात्मिक ज्ञान हो जाने से उसकी आत्मा: सन्तुष्ट हो जाती है। तत्पश्चात्‌ वह अपने आचार्य से विलग हो कर अपनी विद्या, कटिबद्धता, परिश्रम और अध्यवसाय से समाज-सेवा में लग जाता है । यहीं से उसका सामाजिक जीवन प्रारम्भ होता है । 


(५) 

पूर्वो॑ जा॒तो ब्रह्म॑णो ब्रह्मचा॒री घ॒र्मं वसा॑न॒स्तप॒सोद॑तिष्ठत्। 

तस्मा॑ज्जा॒तं ब्राह्म॑णं॒ ब्रह्म॑ ज्ये॒ष्ठं दे॒वाश्च॒ सर्वे॑ अ॒मृते॑न सा॒कम् ॥


पदार्थ -

(ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी [मन्त्र १] (ब्रह्मणः) वेदाभ्यास [के कारण] से (पूर्वः) प्रथम [गणना में पहिला] (जातः) प्रसिद्ध होकर (घर्मम्) प्रताप (वसानः) धारण करता हुआ (तपसा) [अपने ब्रह्मचर्यरूप] तपस्या से (उत् अतिष्ठत्) ऊँचा ठहरा है। (तस्मात्) उस [ब्रह्मचारी] से (ज्येष्ठम्) सर्वोत्कृष्ट (ब्राह्मणम्) ब्रह्मज्ञान और (ब्रह्म) वृद्धिकारक धन (जातम्) प्रकट [होता है], (च) और (सर्वे देवाः) सब विद्वान् लोग (अमृतेन साकम्) अमरपन [मोक्ष सुख] के साथ [होते हैं] ॥५॥


भावार्थ - ब्रह्मचारी वेदों के अभ्यास और जितेन्द्रियता आदि तपोबल के कारण बड़ा सत्कार पाकर सबको धर्म और सम्पत्ति का मार्ग दिखाकर विद्वानों को परमानन्द पहुँचाता है ॥५॥


टिप्पणी -

५−(पूर्वः) प्रथमः। प्रधानः (जातः) प्रसिद्धः सन् (ब्रह्मणः) वेदाभ्यासात् (ब्रह्मचारी) म० १। वेदपाठी वीर्यनिग्राहकश्च (घर्मम्) घृ दीप्तौ-मक्। प्रतापम् (वसानः) आच्छादयन्। धारयन् (तपसा) ब्रह्मचर्यरूपेण तपश्चरणेन (उत्) ऊर्ध्वः (अतिष्ठत्) स्थितवान् (तस्मात्) ब्रह्मचारिणः सकाशात् (ब्राह्मणम्) ब्रह्मज्ञानम् (ब्रह्म) ब्रह्म धननाम-निघ० २।१०। वृद्धिकरं धनम् (ज्येष्ठम्) प्रशस्यतमम् (देवाः) विद्वांसः (च) (सर्वे) समस्ताः (अमृतेन) मरणस्य दुःखस्य राहित्येन। मोक्षसुखेन (साकम्) सह ॥

(१ ) ब्रह्म के पहले ब्रह्मचारी होता है। (२) उष्णता के साथ तप से ऊपर उठता है। (३ ) उससे ज्येष्ठ ब्रह्म उत्पन्न होता है और ( ४ ) सब देव अमृत के साथ रहते हैं । 

( १ ) ब्रह्मचारी ज्ञान-प्राप्ति के पहले से ब्रह्मचर्य का पालन करता है। 

(२ ) वह अपने ब्रह्मतेज के प्रताप से उन्नति करता है । 

(३) ब्रह्मचर्य-व्रत के पालन से ही उसे श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त होता है। 

( ४ ) और परमोत्तम ज्ञान के होने पर, उसके सभी दिव्य गुण, सुख के साधन बन जाते हैं ।  

ब्रह्मचारी जब तक विद्याध्ययन न करले, तब तक ब्रह्मचर्य ( वीर्यरक्षण ) का यथावत पालन करे । विद्या से ब्रह्मतेज और उस तेज के कारण ही, उसकी आत्म-विकास को प्राप्त कर सकती है । क्योंकि जिसकी आत्मा विकसित होती है, वही पुरुष धार्मिक दृष्टि से श्रेष्ठ ज्ञान का अधिकारी है। जो ज्ञानी होता है, उसके सद्गुण-  उसे निश्चय ही मोक्ष प्राप्त करा देते हैं । 


(६) 

ब्र॑ह्मचा॒र्येति स॒मिधा॒ समि॑द्धः॒ कार्ष्णं॒ वसा॑नो दीक्षि॒तो दी॒र्घश्म॑श्रुः। 

स स॒द्य ए॑ति॒ पूर्व॑स्मा॒दुत्त॑रं समु॒द्रं लो॒कान्त्सं॒गृभ्य॒ मुहु॑रा॒चरि॑क्रत् ॥


पदार्थ -

(ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी (समिधा) [विद्या के] प्रकाश से (समिद्धः) प्रकाशित, (कार्ष्णम्) कृष्ण मृग का चर्म (वसानः) धारण किये हुए (दीक्षितः) दीक्षित होकर [व्रत धारण करके] (दीर्घश्मश्रुः) बड़े-बड़े दाढ़ी-मूछ रखाये हुए (एति) चलता है। (सः) वह (सद्यः) अभी (पूर्वस्मात्) पहिले [समुद्र] से [अर्थात् ब्रह्मचर्याश्रम से] (उत्तरम् समुद्रम्) पिछले समुद्र [गृहाश्रम] को (एति) प्राप्त होता है और (लोकान्) लोगों को (संगृभ्य) संग्रह करके (मुहुः) बारम्बार (आचरिक्रत्) अतिशय करके पुकारता रहे ॥६॥


भावार्थ - ब्रह्मचारी वस्त्र और केश आदि शारीरिक बाहिरी बनावट की उपेक्षा करके सत्य धर्म और ब्रह्मचर्य से विद्या ग्रहण करके गृहाश्रम में प्रवेश करता हुआ लोगों में सत्य का प्रचार करे ॥६॥


टिप्पणी -

६−(ब्रह्मचारी) म० १। ब्रह्मचर्येण युक्तः (एति) गच्छति (समिधा) ञिइन्धी दीप्तौ-क्विप्। विद्याप्रकाशेन (समिद्धः) प्रदीप्तः (कार्ष्णम्) कृष्णमृगचर्मः (वसानः) धारयन् (दीक्षितः) प्राप्तदीक्षः। धृतनियमः (दीर्घश्मश्रुः) लम्बमानमुखस्थलोमा (सः) ब्रह्मचारी (सद्यः) तत्क्षणम् (एति) आप्नोति (पूर्वस्मात्) प्रथमसमुद्ररूपाद् ब्रह्मचर्याश्रमात् (उत्तरम्) अनन्तम् (समुद्रम्) गृहाश्रमरूपं समुद्रम् (लोकान्) जनान् (संगृभ्य) संगृह्य (मुहुः) बारम्बारम् (आचरिक्रत्) आङ्+करोतेर्यङ्लुगन्ताल् लेटि रूपम्। लेटोऽडाटौ। पा० ३।४।९४। इत्यट्। इतश्च लोपः परस्मैपदेषु। पा० ३।४।९७। इकारलोपः। अतिशयेन आकारयेत् आह्वयेत् ॥



( १ ) ब्रह्मचारी समिधा से विभूषित, कृष्ण हरिण-चर्म पहनता हुआ और दीर्घ श्मश्रु को धारण करता हुआ आगे बढ़ता है । (२ ) वह पूर्व से उत्तर समुद्र तक शीघ्र पहुँचता है और ( ३ ) लोक-संग्रह कर के बार-बार उत्तेजित करता है। 

( १ ) ब्रह्मचारी अपने को विद्या से उन्नत करता है। वह काले हरिण का चर्म पहनता है; और मुछदाढ़ी को बढ़ने देता है । वह प्रगति करने के लिये चेष्टित रहता है । 

(२ ) इस प्रकार वह विद्या का साङ्गोपाङ्ग अध्ययन कर, ज्ञानरूपी समुद्र के आदि से अन्त तक पहुँचता हैं । 

( ३ ) और संसार के साथ सद्व्यवद्वार कर, उसे सत्कर्म के लिये उत्साहित करता है । 

ब्रह्मचारी पहले विद्याध्ययन से अपनी उन्नति करता है । काले रंग के मृगचर्म और बड़े-बड़े केश आदि के धारण करने से उसकी पवित्रता, सरलता और निरभिमानता सूचित होती है । अर्थात्‌ वह शुद्ध और साधु-बेष में रहता है। वह अपनी प्रगति पर विशेष ध्यान देता है । इसी से वह थोड़े ही समय में वेद-- वेदाङ्गों के ज्ञान में पांरज्ञत हो जाता है। इसके अनन्तर वह कार्यक्षेत्र में पदार्पण करता है। यहाँ वह अपने अनुपम उपदेशों से लोगों में एकता उत्पन्न करता है, और उन्हें सत्कर्म करने के लिये बार-बार उत्साहित करता रहता है । अर्थात्‌ जनता को सुसंस्कृत करना ही उसका ध्येय होता है"... 


(७) 


ब्र॑ह्मचा॒री ज॒नय॒न्ब्रह्मा॒पो लो॒कं प्र॒जाप॑तिं परमे॒ष्ठिनं॑ वि॒राज॑म्। 

गर्भो॑ भू॒त्वामृत॑स्य॒ योना॒विन्द्रो॑ ह भू॒त्वासु॑रांस्ततर्ह ॥


पदार्थ -

(ब्रह्म) वेदविद्या (अपः) प्राणों, (लोकम्) संसार और (प्रजापतिम्) प्रजापालक (परमेष्ठिनम्) सबसे ऊँचे मोक्ष पद में स्थितिवाले (विराजम्) विविध जगत् के प्रकाशक [परमात्मा] को (जनयन्) प्रकट करते हुए (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी ने (अमृतस्य) अमरपन [अर्थात् मोक्ष] की (योनौ) योनि [उत्पत्तिस्थान अर्थात् ब्रह्मविद्या] में (गर्भः) गर्भ (भूत्वा) होकर [गर्भ के समान नियम से रहकर] और (ह) निस्सन्देह (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाला [अथवा सूर्यसमान प्रतापी] (भूत्वा) होकर (असुरान्) असुरों [दुष्ट पाखण्डियों] को (ततर्ह) नष्ट किया है ॥७॥


भावार्थ - ब्रह्मचारी वेदविद्या, प्राणविद्या, लोकविद्या, और ईश्वरस्वरूप का प्रकाश करके मोक्षमार्ग में दृढ़ होकर ऐश्वर्य प्राप्त करता और पाखण्डों को नष्ट करता है ॥७॥


ब्रह्मचारी लोक, प्रजापति और तेजस्वी परमेश्वर को उत्पन्न करता हुआ, अमृत के गर्भ में रहकर, इन्द्र हो कर, निश्चय पूवर्क असुरों का नाश करता है । जो ब्रह्मचारी प्रजा, राजा और परमात्मा को तुष्ट करने के लिये, सत्कर्म कर रहा था, वही अब ज्ञान के गूढ़ विषयों से परि- पूर्ण हो कर--विद्धानों में श्रेष्ठ बन कर-दुर्गुणों का नाश करता है। अर्थात संसार को उपदेश देता है । 

     ब्रह्मचारी प्रजा, राजा और ईश्वर को प्रसन्न रखने के लिये ब्रह्मचर्य-पूर्वक विद्या का अध्ययन करता है । इससे सत्कर्म का जन्म-दाता है । क्‍योंकि इस संसार में राजा, प्रजा और ईश्वर-- इन्हीं तीनों के प्रति ही सभी कर्तव्य होते हैं । जब वह विद्या से पूर्ण हो जाता है, तब सुखमय गृहस्थाश्रम सें प्रवेश कर देश, जाति और समाज की योग्य सेवा करता है । वह अपने उत्तम विचारों का प्रचार कर, लोगों के कुसंस्कारों और दुर्गुणों का नाश करता है । 


(८) 

आ॑चा॒र्यस्ततक्ष॒ नभ॑सी उ॒भे इ॒मे उ॒र्वी ग॑म्भी॒रे पृ॑थि॒वीं दिवं॑ च। 

ते र॑क्षति॒ तप॑सा ब्रह्मचा॒री तस्मि॑न्दे॒वाः संम॑नसो भवन्ति ॥


(आचार्यः) आचार्य [साङ्गोपाङ्ग वेद पढ़ानेवाले] ने (उभे) दोनों (इमे) इन (नभसी) परस्पर बँधी हुई, (उर्वी) चौड़ी, (गम्भीरे) गहरी (पृथिवीम्) पृथिवी (च) और (दिवम्) सूर्य को (ततक्ष) सूक्ष्म बनाया है [उपयोगी किया है]। (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी (तपसा) तप से (ते) उन दोनों की (रक्षति) रक्षा करता है, (तस्मिन्) उस [ब्रह्मचारी] में (देवाः) विजय चाहनेवाले पुरुष (संमनसः) एकमन (भवन्ति) होते हैं ॥८॥


भावार्थ - आचार्य और ब्रह्मचारी श्रवण, मनन और निदिध्यासन से विद्या प्राप्त करके संसार के पृथिवी सूर्य आदि सब पदार्थों का तत्त्व जानकर उन्हें उपयोगी बनाते हैं ॥८॥इस मन्त्र का चौथा पाद प्रथम मन्त्र के दूसरे पाद में आ चुका है ॥


(१ ) आचार्य बड़े गम्भीर दोनों लोकों--पृथवी और आकाश को बनाता है। ( २) ब्रह्मचारी अपने तप से उनकी रक्षा करता है । और (३ ) देव लोग उसके मन के साथ रहते है । 

(१ ) आचार्य अत्यन्त महत्वपूर्ण भौतिक और अध्यात्मिक ज्ञान का उपदेश करता है । (२ ) ब्रह्मचारी उनको अपने अनुप्ठित व्रत के साथ हृदयङ्गम करता जाता हैं । ( ३ ) और इस प्रकार उस (ब्रह्मचारी) में सभी दिव्य -गुण विकसित होते हैं। 


आचार्य ही भौतिक और अध्यात्मिक ज्ञान का कर्ता है। जब वह अपने शिन्ष्य को पंडित बना देता है, तब वह भी उसी की भाँति अपनी प्राप्त विद्या की रक्षा करता है। आचार्य जो कुछ उस ( ब्रह्मचारी ) को सिखाता है, वह उसे भूलने नहीं देता । ब्रह्मचर्य के प्रभाव से उसकी विद्या रक्षित रहती है, समयानुल बढ़ती भी जाती है । इसलिये उसके दिव्य गुण सारे संसार में विख्यात होते हैं । 

(9)  

इ॒मां भूमिं॑ पृथि॒वीं ब्र॑ह्मचा॒री भि॒क्षामा ज॑भार प्रथ॒मो दिवं॑ च। 

ते कृ॒त्वा स॒मिधा॒वुपा॑स्ते॒ तयो॒रार्पि॑ता॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ॥.


पदार्थ -

(इमाम्) इस (पृथिवीम्) चौड़ी (भूमिम्) भूमि (च) और (दिवम्) सूर्य को (प्रथमः) पहिले [प्रधान] (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी ने (भिक्षाम्) भिक्षा (आ जभार) लिया था। (ते) उन दोनों को (समिधौ) दो समिधा [के समान] (कृत्वा) बनाकर (उप आस्ते) [ईश्वर की] उपासना करता है, (तयोः) उन दोनों में (विश्वा) सब (भुवनानि) भुवन (आर्पिता) स्थापित हैं ॥९॥


भावार्थ - महाविद्वान् पुरुष पृथिवी और सूर्य आदि के तत्त्वों को जानकर और उपयोगी बनाकर, होमीय अग्नि में दो काष्ठ छोड़कर उन [भूमि और सूर्य] को लक्ष्य में रखता है कि वह इस प्रकार सब संसार का ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करे ॥९॥


 ( १) पहले ब्रह्मचारी ने इस विस्तृत भूमि और आकाश की भिक्षा ग्रहण की । ( ९ ) अब उनकी दो समिधायें बनाकर, उपासना करता है । और ( ३ ) इन्हीं के बीच में सब भुवनों की स्थिति है। 

 (१ ) ब्रह्मचारी प्रथमतः भौतिक और आध्यात्मिक विषयों की शिक्षा प्राप्त करता है। _ (४) फिर उन परा और अपरा विद्याओं का मनन' करता है । जिन्हें आचार्य उसे देता है ।  


(३ ) और इन्हीं दोनों के बीच में सब कुछ भरा पड़ा है । ब्रह्मचारी अपने आचार्य से भौतिक और आध्यात्मिक ज्ञान का भिक्षा लेता है। 'ऐहिक ओर पारलौलिक' विद्या की प्राप्ति से उसका उद्देश्य सिद्ध हो जाता है । इस यज्ञ के पूर्ण हो जाने पर फिर उसके सारे मनोरथ स्वयं सधते हैं । यही उसकी भिक्षा का आदर्श है। 


( १० ) 


अ॒र्वाग॒न्यः प॒रो अ॒न्यो दि॒वस्पृ॒ष्ठाद्गुहा॑ नि॒धी निहि॑तौ॒ ब्राह्म॑णस्य। 

तौ र॑क्षति॒ तप॑सा ब्रह्मचा॒री तत्केव॑लं कृणुते॒ ब्रह्म॑ वि॒द्वान् ॥


(ब्राह्मणस्य) ब्रह्मज्ञान के (निधी) दो निधि [कोश] (गुहा) गुहा [गुप्त दशा] में (निहितौ) गढ़े हैं, (अन्यः) एक (अर्वाक्) समीपवर्ती और (अन्यः) दूसरा (दिवः) सूर्य की (पृष्ठात्) पीठ [उपरिभाग] से (परः) परे [दूर] है। (तौ) उन दोनों [निधियों] को (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी (तपसा) अपने तप से (रक्षति) रखता है, (ब्रह्म) ब्रह्म [परमात्मा] को (विद्वान्) जानता हुआ वह (तत्) उस [ब्रह्म] को (केवलम्) केवल [सेवनीय, निश्चित] (कृणुते) कर लेता है ॥१०॥


भावार्थ - परमेश्वर का ज्ञान निकट और दूर अवस्था में रहकर सब स्थानों में वर्तमान है, अनन्यवृत्ति, ब्रह्मचारी योगी तप की महिमा से ब्रह्म का साक्षात् करके और उसकी शरण में रहकर अपनी शक्तियाँ बढ़ाता है ॥१०॥


(१ ) एक पास है और दूसरा आकाश से भी दूर है। वे' दोनों कोश ब्रह्मण की गुहा में धरे हुये हैं। (२) ब्रह्मचारी अपने तप से उनकी रक्षा करता है । वह ,रहस्य ब्रह्म-विद्वान ही जान सकता है । 

( १ ) भौतिक ज्ञान पास, और आध्यात्मिक ज्ञान बहुत दूर है। वे दोनों वेद में छिपे हुये है । ( २ ) ब्रह्मचारी अपने तपोनुष्ठान से उन दोनों को अपने अधिकार में कर लेता है । 

(३ ) इन दोनों के रहस्य को ब्रह्मज्ञानी पुरुष ही समुचित जानता है ।  भौतिक-विज्ञान से भी कठिन: ब्रह्मविज्ञान है। आचार्य उन दोनों को, अपने शिष्य को वेदाध्ययन से सिखला देता है। वह उसको फिर किसी प्रकार नष्ट नहीं होने देता । जो पुरुष वेद का ज्ञाता नहीं, उसे यह रहस्य नहीं विदित होता । 


(११)


अ॒र्वाग॒न्य इ॒तो अ॒न्यः पृ॑थि॒व्या अ॒ग्नी स॒मेतो॒ नभ॑सी अन्त॒रेमे। 

तयोः॑ श्रयन्ते र॒श्मयोऽधि॑ दृ॒ढास्ताना ति॑ष्ठति॒ तप॑सा ब्रह्मचा॒री ॥


(अग्नी) दो अग्नि (इमे) इन दोनों (नभसी अन्तरा) परस्पर बँधे हुए सूर्य और पृथिवी के बीच (समेतः) मिलती हैं, (अन्यः) एक [अग्नि] (अर्वाक्) समीपवती, और (अन्यः) दूसरी (इतः पृथिव्याः) इस पृथिवी से [दूर] है। (तयोः) उन दोनों की (रश्मयः) किरणें (दृढाः) दृढ़ होकर (अधि) अधिकारपूर्वक [पदार्थों में] (श्रयन्ते) ठहरती हैं, (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी (तपसा) तप से (तान्) उन [किरणों] में (आतिष्ठति) ऊपर बैठता है ॥११॥


भावार्थ - पृथिवी और सूर्य की दोनों अग्नि मिलकर पदार्थों में बल प्रदान करती हैं। ब्रह्मचारी योगी सूक्ष्म दृष्टि [अथवा अणिमा लघिमा सिद्धियों] द्वारा उन किरणों में प्रवेश करता है ॥११॥


( १ ) यहाँ एक है, और दूसरी इस लोक से बहुत दूर है । ये दोनों अग्नि, पृथ्वी और आकाश के बीच में मिल जाती हैं । 

(२) उनकी तीव्र किरणें फैलती हैं और ब्रह्मचारी उनको तप से अधिकार में करता है । 

(१ ) कर्म ऐहिक और ज्ञान पारलौकिक--ये दो अग्नि हैं । इन दोनों का मिलाप भौतिक और आध्यात्मिक साधनों से होता है। 


(२) इन दोनों की गति बड़ी तीब्र है, जो सर्वत्र प्रस्फुटित होती है। ब्रह्मचारी उन दोनों को अपनी तपस्या से साध लेता है। 

ब्रह्मचारी आचार्य के यहाँ रहकर वैदिक कर्म' और “आत्मज्ञान दोनों की साथना करता है। “कर्म और ज्ञान'--दोनों में ही गूढ़ तत्व भरा हुआ है। जहाँ ये दोनों मिलते हैं---वहाँ इनका समान रूप से आदर किया जाता है, वहीं अच्छी प्रगति और सफलता मिलती है। इसी से ब्रह्मचर्य की अवस्था में दोनों का बराबर अनुष्ठान करना पड़ता है। 


( १२ ) 


अ॑भि॒क्रन्द॑न्स्त॒नय॑न्नरु॒णः शि॑ति॒ङ्गो बृ॒हच्छेपोऽनु॒ भूमौ॑ जभार। 

ब्र॑ह्मचा॒री सि॑ञ्चति॒ सानौ॒ रेतः॑ पृथि॒व्यां तेन॑ जीवन्ति प्र॒दिश॒श्चत॑स्रः ॥



पदार्थ -

(अभिक्रन्दन्) सब ओर शब्द करता हुआ, (स्तनयन्) गरजता हुआ, (शितिङ्गः) प्रकाश और अन्धकार में चलनेवाला, (अरुणः) गतिमान् [वा सूर्य के समान प्रतापी पुरुष] (भूमौ) भूमि पर (बृहत्) बड़ा (शेषः) उत्पादन सामर्थ्य (अनु) निरन्तर (जभार) लाया है। (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी (पृथिव्याम्) पृथिवी के ऊपर (सानौ) पहाड़ के सम स्थान पर (रेतः) बीज (सिञ्चति) सींचता है, (तेन) उससे (चतस्रः) चारों (प्रदिशः) बड़ी दिशाएँ (जीवन्ति) जीवन करती हैं ॥१२॥


भावार्थ - विद्वान् पुरुषार्थी ब्रह्मचारी यन्त्र, कला, नौका, यान, विमान आदि वृद्धि के अनेक साधनों से पृथिवी के जल, थल और पहाड़ों को उपजाऊ बनाता है ॥१२॥इस मन्त्र का चौथा पाद-अथर्व० ९।१०।१९, के पाद ४, तथा ऋग्वेद १।१६४।४२, पाद २ में है ॥



( १ ) घोर गर्जना करता हुआ, भूरा और साँवला तथा बड़े आकार वाला मेघ भूमि का पोषण करता है । ( २ ) अपने रेतस से पृथवी और पर्वत को सींचता है। और (३) उससे चारो दिशायें जीवित होती हैं । 

( १ ) उच्च स्वर से संसार को सचेत करता हुआ, जाज्ज्वल्य-स्वरूप लाला तथा हृष्ट-पुष्ट अङ्गों पाङ्गों वाला ब्रह्मचारी संसार का पालन करता है। 

(२ ) बह बड़े से लेकर छोटे तक, सब के हित का उपदेश देता है। अर्थत वह समदृष्टि होता है । 

(३ ) और उसके उपदेश से चारों ओर लोगों सें जीवन पड़ जाता है । अर्थात्‌ सर्वत्र जागृति उत्पन्न होती है । 

     इस मन्त्र में ब्रह्मचारी को मेघ बना कर, उससे उसके कार्यों की तुलना की गई है । जैसे मेघ भीमनाद करता है, वैस वेद-घोष करने वाला ब्रह्मचारी भी ओजस्वी व्याख्यान देता है। मेघ के स्वरूप में जो सुन्दरता है, वह उसमें भी है। मेघ जैसे बृहंत्काय हे वैसे यह हृष्ट-पुष्ट शरीर वाला होता है। वह पृथिवी का पोषण करता है यह भी जनता का सुधार करता है । वह अपना जल पर्वत से पुथिवी परयन्त बरसाता है। यह भी अपना ज्ञानोपदेश, बड़े-छोटे का भेद-भाव छोड़कर, सब लोगों को ससान रूप से देता है । उसकी वर्षा में चारो दिशाओं में आनन्द होता है। इसकी भी शिक्षा से सर्वत्र सुख ही सुख उत्पन्न हो जाता है। अतः गुण,  धर्म तथा स्वभाव के मिल जाने से, ब्रह्मचारी भी मेघ और मेघ भी ब्रह्मचारी ठहरा । दोनों में कैसी अच्छी समता दरसाई गई है । 


( १३ ) 


अ॒ग्नौ सूर्ये॑ च॒न्द्रम॑सि मात॒रिश्व॑न्ब्रह्मचा॒र्यप्सु स॒मिध॒मा द॑धाति। 

तासा॑म॒र्चींषि॒ पृथ॑ग॒भ्रे च॑रन्ति॒ तासा॒माज्यं॒ पुरु॑षो व॒र्षमापः॑ ॥



पदार्थ -

(ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी (अग्नौ) अग्नि में, (सूर्ये) सूर्य में, (चन्द्रमसि) चन्द्रमा में, (मातरिश्वन्) आकाश में चलनेवाले पवन में और (अप्सु) जलधाराओं में (समिधम्) समिधा [प्रकाशसाधन] को (आ दधाति) सब प्रकार से धरता है। (तासाम्) उन [जलधाराओं] की (अर्चींषि) ज्वालाएँ (पृथक्) नाना प्रकार से (अभ्रे) मेघ में (चरन्ति) चलती हैं, (तासाम्) उन [जलधाराओं] का (आज्यम्) घृत [सार पदार्थ] (पुरुषः) पुरुष, (वर्षम्) वृष्टि और (आपः) सब प्रजाएँ हैं ॥१३॥


भावार्थ - ब्रह्मचारी अपने विद्याबल से अग्नि, सूर्य आदि के तत्त्वों को जान लेता है और उस जल का भी ज्ञान प्राप्त करता है, जो बिजुली के संसर्ग से वृष्टि होकर मनुष्य, जल, और सब प्राणी आदि की सृष्टि का कारण होता है ॥१३॥


 (१) ब्रह्मचारी अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, वायु भौर जल में समिधा डालता है । ( २) उनकी किरणों अन्य मेघों में पहुँचती हैं । और (३ ) उनसे घृत, पुरुष, वर्ष और जल की उत्पति होती है। 


( १ ) ब्रह्मचारी वाणी, नेत्र, मन, प्राण और वीर्य की शाक्तियों को बढ़ाता है । 


( २ ) इन शक्तियों के प्रभाव से वह दूसरे उपकारी लोगों 'को भी प्रभावित करता है । 

(३ ) और उन शक्तियों के कारण बुद्धि, बल, ज्ञान, सुख और शान्ति की उत्पत्ति होती है। 

 ब्रह्मचारी अपने ब्रह्मचर्य और विद्याभ्यास से अपनी आत्मिक और शारीरिक शक्तियों को बढ़ाता है । फिर वह अन्य सुपात्र लोगों को इन शक्तियों के बढ़ाने का उपदेश करता है । इस प्रकार उसके कारण उनमें बुद्धि बल, ज्ञान, सुख और शान्ति की वृद्धि होती है। ऊपर के मन्त्र का यही मूल तात्पर्य है। । 



(१४) 

आ॑चा॒र्यो मृ॒त्युर्वरु॑णः॒ सोम॒ ओष॑धयः॒ पयः॑। जी॒मूता॑ 

आस॒न्त्सत्वा॑न॒स्तैरि॒दं स्वराभृ॑तम् ॥


पदार्थ -

(आचार्यः) आचार्य (मृत्युः) मृत्यु [रूप] (वरुणः) जल [रूप], (सोमः) चन्द्र [ओषधयः] ओषधें [अन्न आदि रूप] और (पयः) दूध [रूप] हुआ है। (जीमूताः) अनावृष्टि जीतनेवाले, मेघ [उसके लिये] (सत्वानः) गतिशील वीर [रूप] (आसन्) हुए हैं, (तैः) उन के द्वारा (इदम्) यह (स्वः) मोक्षसुख (आभृतम्) लाया गया है ॥१४॥


भावार्थ - आचार्य, साङ्गोपाङ्ग और सरहस्य वेदों का पढ़ानेवाला पुरुष, दोषों के नाश करने को मृत्युरूप और सद्गुणों के बढ़ाने को जल, चन्द्र आदि रूप होकर संसार में मेघों के समान सुख बढ़ाता है ॥१४॥




आचार्य मृत्यु, वरुण, -सोस, औषध और पय है।' उसके सद्भाव मेघ हैं, उनसे यह तेज रक्षित होता है । आचार्य अज्ञान-नाशक, सदाचार-शिक्षक, शान्ति-दायक, शुद्धि कारक और उत्साह-वर्द्धक होता है । उसके सात्विक गुणों से यह अधिकार प्राप्त होता है । 

आचार्य अपने ब्रह्मचारी शिष्य के अज्ञान-रुपी शरीर का नाश कर, उसको सदाचार की शिक्षा देता है। उसकी शान्ति और पवित्रता के लिये यत्न करता है, और सत्कर्म करने के लिये सदा उत्साहित करता रहता है । उसके सात्विक गुणों से ही विद्यार्थी पर उत्तम प्रभाव पड़ता है । इसीलिये उसका इतना महत्व है । वास्तव में ब्रह्मचारी के लिये वह सब कुछ है। 



(१५ ) 


अ॒मा घृ॒तं कृ॑णुते॒ केव॑लमाचा॒र्यो भू॒त्वा वरु॑णो॒ यद्य॒दैच्छ॑त्प्र॒जाप॑तौ। 

तद्ब्र॑ह्मचा॒री प्राय॑च्छ॒त्स्वान्मि॒त्रो अध्या॒त्मनः॑ ॥


पदार्थ -

(वरुणः) श्रेष्ठ पुरुष (आचार्यः) आचार्य (भूत्वा) होकर [उस वस्तु को] (अमा) घर में (घृतम्) प्रकाशित और (केवलम्) केवल [सेवनीय] (कृणुते) करता है, (यद्यत्) जो (प्रजापतौ) प्रजापति [प्रजापालक परमेश्वर] के विषय में (ऐच्छत्) उस ने चाहा है। और (तत्) उसको (मित्रः) स्नेही (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी ने (आत्मनः) अपने से (अधि) अधिकारपूर्वक (स्वान्) ज्ञाति के लोगों को (प्र अयच्छत्) दिया है ॥१५॥


भावार्थ - मनुष्य को योग्य है कि जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी होकर ब्रह्मविद्या का उपार्जन करे और उसको आत्मीय वर्गों में यथावत् फैलावे ॥१५॥



(१) आचार्य शिष्य के सम्मेलन से केवल घृत निकालता है । और (२) वरुण बन कर, जो जो प्रजापति के लिये चाहता है, सो सो सूर्य ब्रह्मचारी अपनी आत्मिकता से प्रदान करता है । 


- (१) आचार्य अपने यहाँ रहने वाले ब्रह्मचारी के सहवास से परमोत्तम ज्ञान को उत्पन्न करता है । (२) और मार्गदर्शक बन कर प्रजा के पालन के लिये, जो विचार करता है, उसे वह सूर्य सा प्रतिभावान्‌ ब्रह्मचारी अपनी योग्यता से पूर्ण करता है । 

    अचार्य अपने शिष्य ब्रह्मचारी को पास रख कर, गूढ़ तत्वों का उपदेश करता है। उसकी शंकाओं का समाधान करता है । वह जिन श्रेष्ठ विचारों' को जनता के हित के लिए, उस पर प्रकट करता है, वह भी योग्य हो कर, अपने आचार्य की आज्ञा का पालन करता है । 


( १६ ) 

आ॑चा॒र्यो ब्रह्मचा॒री ब्र॑ह्मचा॒री प्र॒जाप॑तिः। 

प्र॒जाप॑ति॒र्वि रा॑जति वि॒राडिन्द्रो॑ऽभवद्व॒शी ॥


पदार्थ -

(ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी (आचार्यः) आचार्य, और (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी [ही] (प्रजापतिः) प्रजापति [प्रजापालक मनुष्य होता है]। और (प्रजापतिः) प्रजापति [प्रजापालक होकर] (वि) विविध प्रकार (राजति) राज्य करता है, (विराट्) विराट् [बड़ा राजा] (वशी) वश में करनेवाला, [शासक] (इन्द्रः) इन्द्र, [बड़े ऐश्वर्यवाला] (अभवत्) हुआ है ॥१६॥


भावार्थ - ब्रह्मचारी सर्वशिक्षक और प्रजापालन नीति में चतुर होकर प्रजा का पालन और शासन करके बड़ा प्रतापी होता है, यह नियम पहिले से चला आता है ॥१६॥



( १ ) आचार्य ब्रह्मचारी है ( २ ) प्रजापति ब्रह्मचारी है । प्रजापति विराजित होता है, (३) और संयमी विराट इन्द्र है । 

(१) आचार्य ब्रह्मचारी रह कर, ज्ञानोपदेश करता है । (२) राज्याधीश भी ब्रह्मचर्य का पालन कर शासन करता है। (३) और संयमी राजा भी नृपेन्द्र कहलाता है। 


    आचार्य शिष्य पर और राजा प्रजा पर शासन करता है। इस लिये इन दोनों को ब्रह्मचारी होना योग्य है। अर्थात्‌ इन्हें ज्ञानी और बली होना चाहिये। क्‍योंकि आचार्य का अनुकरण उसके शिष्य तथा राजा के आचरण का अनुकरण उसकी प्रजा करती है। यदि ये ब्रह्मचारी न हों, कुमार्गगामी हों, तो इन दोनों शिष्य और प्रजा के ब्रह्मचर्य में वाधा पहुँचती है। ठीक हैः-- 

“यथा गुरुस्तथा शिष्यो, यथा राजा तथा प्रजा ॥” 


 (१७). 


ब्र॑ह्म॒चर्ये॑ण॒ तप॑सा॒ राजा॑ रा॒ष्ट्रं वि र॑क्षति। 

आ॑चा॒र्यो ब्रह्म॒चर्ये॑ण ब्रह्मचा॒रिण॑मिच्छते ॥



पदार्थ -

(ब्रह्मचर्येण) वेदविचार और जितेन्द्रियतारूपी (तपसा) तप से (राजा) राजा (राष्ट्रम्) राज्य को (वि) विशेष करके (रक्षति) पालता है। (आचार्यः) आचार्य [अङ्गों, उपाङ्गों और रहस्य सहित वेदों का अध्यापक] (ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य [वेदविद्या और इन्द्रियदमन] से (ब्रह्मचारिणम्) ब्रह्मचारी [वेद विचारनेवाले जितेन्द्रिय पुरुष] को (इच्छते) चाहता है ॥१७॥


भावार्थ - ब्रह्मचर्यरूप तपस्या धारण करनेवाला राजा प्रजापालन में निपुण होता है और ब्रह्मचर्य के कारण आचार्य, विद्यावृद्धि के लिये ब्रह्मचारी से प्रीति करता है ॥१७॥मन्त्र १७, १८, १९ स्वामी दयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका वर्णाश्रमविषय पृष्ठ २३७ और मन्त्र १७, १८ संस्कारविधि वेदारम्भ प्रकरण में व्याख्यात हैं ॥


(१) ब्रह्मचर्य के तप से राजा राष्ट्र की रक्षा करता है। और (२) आचार्य ब्रह्मचर्य से ब्रह्मचारी को चाहता है । (१) ब्रह्मचर्य के प्रभाव से राजा अपनी प्रजा को अधिकार में रखता है ।  (२) और आचार्य ब्रह्मचर्य के ही कारण अपने विद्यार्थी, का 'प्रिय करता है ।  

     देश की सुख-शान्ति के दो ही स्तम्भ हैं। एक राजा और दूसरा आचार्य। इन दोनों को बह्मचारी होना चाहिये। एक 'बल' से और दूसरा ज्ञान! से लोक-सेवा करता है । इस दृष्टि से यहाँ दोनों में समानता है, जिस राजा में विक्रम नहीं, उसकी प्रजा उच्छृङ्खल हो जाती है और जिस आचार्य में बोध नहीं, उसका शिष्य भी  अपठ, अयोग्य तथा मूर्ख हो जाता है । विक्रम और बोध दोनों का मूल ब्रह्माचर्य' ही है । 


( १८ ) 

ब्र॑ह्म॒चर्ये॑ण क॒न्या॒ युवा॑नं विन्दते॒ पति॑म्। 

अ॑न॒ड्वान्ब्र॑ह्म॒चर्ये॒णाश्वो॑ घा॒सं जि॑गीर्षति ॥


पदार्थ -

(ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य [वेदाध्ययन और इन्द्रियनिग्रह] से (कन्या) कन्या [कामनायोग्य पुत्री] (युवानम्) युवा [ब्रह्मचर्य से बलवान्] (पतिम्) पति [पालनकर्ता वा ऐश्वर्यवान् भर्ता] को (विन्दते) पाती है। (अनड्वान्) [रथ ले चलनेवाला] बैल और (अश्वः) घोड़ा (ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य के साथ [नियम से ऊर्ध्वरेता होकर] (घासम्=घासेन) घास से (जिगीर्षति) सींचना [गर्भाधान करना] चाहता है ॥१८॥


भावार्थ - कन्या ब्रह्मचर्य से पूर्ण विदुषी और युवती होकर पूर्ण ब्रह्मचारी विद्वान् युवा पुरुष से विवाह करे, और जैसे बैल घोड़े आदि बलवान् और शीघ्रगामी पशु घास-तिनके खाकर ब्रह्मचर्यनियम से समय पर बलवान् सन्तान उत्पन्न करते हैं, वैसे ही मनुष्य पूर्ण ब्रह्मचारी, विद्वान् युवा होकर अपने सदृश कन्या से विवाह करके नियमपूर्वक बलवान्, सुशील सन्तान उत्पन्न करें ॥१८॥वैदिक यन्त्रालय अजमेर, और गवर्नमेंट बुक डिपो बम्बई के पुस्तकों में (जिगीर्षति) पद है, जिसका अर्थ [सींचना चाहता है] है, और सेवकलाल कृष्णदासवाले पुस्तक और महर्षि दयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में (जिगीषति) है, जिसका अर्थ [जीतना चाहता है] है ॥



(१) ब्रह्मचर्य से कन्या युवक पति वरती है और (२) वृषभ तथा अश्व भी ब्रह्मचर्य-पालन से घास खाता है। 

(१) कन्या ब्रह्मचर्य का पालन कर लेने पर, योग्य और युवा पति को प्राप्त करती है। (२) और वीर्यवान इन्द्रिय-समूह भी ब्रह्मचर्य-बल से ही अपने विषयों का उपभोग कर सकता है । 


     जैसे बालक ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, वैसे ह्वी कन्यायें भी ब्रह्मचर्य का पालन करती हैं । तत्पश्चात्‌ वे अपने -सदृश वर से परिणय करने योग्य होती हैं। अनड्वान का अभिप्राय वीर्यवान' और अश्व का इन्द्रिय-समूह” और घास का उसके “विषय से है । ब्रह्मचर्य के पालन से इन्द्रिय-समूह वीर्यवान् (परिपुष्ट) हो जाता है। परिपुष्ट होने पर, ही वह्‌ अपने व्यापार को समुचित रूप में कर सकता है।  

      उदाहरण के लिये एक इन्द्रिय नेत्र” को ही लीजिये-। इसका विषय अवलोकन है । यदि यह अशक्त हो जाये, तो ठीक-ठीक देखने का व्यापार नहीं हो सकता । अनड्वान, अश्व और घास का प्रचलित अर्थ नहीं । यदि ऐसा होता, तो वेद की, इस कन्या के ब्रह्मचर्य वाली ऋचा के साथ यह असंगत बात न कही जाती । 

      ऊपर 'के मन्त्र में' अलङ्कार-रूप से यही बात समझाई गई है। इससे पुरुष-स्त्री सब के लिये ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक प्रतीत होता है । । 

 (19) 


ब्र॑ह्म॒चर्ये॑ण॒ तप॑सा दे॒वा मृ॒त्युमपा॑घ्नत। 

इन्द्रो॑ ह ब्रह्म॒चर्ये॑ण दे॒वेभ्यः॒ स्वराभ॑रत् ॥



पदार्थ -

(ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य [वेदाध्ययन और इन्द्रियदमन], (तपसा) तप से (देवाः) विद्वानों ने (मृत्युम्) मृत्यु [मृत्यु के कारण निरुत्साह, दरिद्रता आदि] को (अप) हटाकर (अघ्नत) नष्ट किया है। (ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य [नियमपालन] से (ह) ही (इन्द्रः) सूर्य ने (देवेभ्यः) उत्तम पदार्थों के लिये (स्वः) सुख अर्थात् प्रकाश को (आ अभरत्) धारण किया है ॥१९॥


भावार्थ - विद्वान् लोग वेदों को पढ़ने और इन्द्रियों को वश में करने से आलस्य, निर्धनता आदि दूर करके मोक्षसुख प्राप्त करते हैं, और सूर्य, ईश्वरनियम पूरा करके, अपने प्रकाश से संसार में उत्तम-उत्तम पदार्थ प्रकट करता है ॥१९॥


(१) ब्रह्मचर्य के तप से देवों ने मृत्यु को जीता। और (२)  अखण्ड ब्रह्मचर्य के पालने से ही विद्वानों ने अकाल मृत्यु को वश में किया।  

( २.) और ब्रह्मचर्य के ही प्रताप से सब-श्रेष्ठ विद्वान, योग्य पुरुषों को ज्ञानोपदेश करता है। प्राचीन समय में कई अखण्ड ब्रह्मचारी हो-गये हैं, जो मृत्यु- को भी कुछ नहीं समझते थे । जब उनकी इच्छा होती थी, तभी शरीर छोड़ते थे । यही मृत्यु पर विजय प्राप्त करना कहलाता है । 

      बिना ब्रह्मचर्य के कोई उत्तम विद्वान नहीं हों सकता । इसी- लिये जो परमोत्तम विद्वान होना चाहे, वह ब्रह्मचर्य का अवश्य पालन करे ।-ब्रह्मचर्य के प्रभाव से ही वह जनता के योग्य पुरुषों में प्रतिष्ठित हो सकता है । 



ओष॑धयो भूतभ॒व्यम॑होरा॒त्रे वन॒स्पतिः॑। 
सं॑वत्स॒रः स॒हर्तुभि॒स्ते जा॒ता ब्र॑ह्मचा॒रिणः॑ ॥



पदार्थ -
(ओषधयः) ओषधें [अन्न आदि पदार्थ] और (वनस्पतिः) वनस्पति [पीपल आदि वृक्ष], (भूतभव्यम्) भूत और भविष्यत् जगत्, (अहोरात्रे) दिन और राति। (ऋतुभिः सह) ऋतुओं के सहित (संवत्सरः) वर्ष [जो हैं], (ते) वे सब (ब्रह्मचारिणः) ब्रह्मचारी [वेदपाठी और इन्द्रियनिग्राहक पुरुष] से (जाताः) प्रसिद्ध [होते हैं] ॥२०॥

भावार्थ - ब्रह्मचारी पिछले मनुष्यों के उदाहरण से भविष्यत् सुधार कर ओषधि और समय आदि से उपकार लेकर उन्हें प्रसिद्ध करता है ॥२०॥


पार्थि॑वा दि॒व्याः प॒शव॑ आर॒ण्या ग्रा॒म्याश्च॒ ये। 
अ॑प॒क्षाः प॒क्षिण॑श्च॒ ये ते जा॒ता ब्र॑ह्मचा॒रिणः॑ ॥


पदार्थ -
(पार्थिवाः) पृथिवी के और (दिव्याः) आकाश के पदार्थ और (ये) जो (आरण्याः) वन के (च) और (ग्राम्याः) गाँव के (पशवः) पशु हैं। (अपक्षाः) विना पंखवाले (च) और (ये) जो (पक्षिणः) पंखवाले जीव हैं, (ते) वे (ब्रह्मचारिणः) ब्रह्मचारी से (जाताः) प्रसिद्ध [होते हैं] ॥२१॥

भावार्थ - ब्रह्मचारी ही पृथिवी आदि के पदार्थों और जीवों के गुणों को प्रकाशित करता है ॥२१॥


पृथ॒क्सर्वे॑ प्राजाप॒त्याः प्रा॒णाना॒त्मसु॑ बिभ्रति। 
तान्त्सर्वा॒न्ब्रह्म॑ रक्षति ब्रह्मचा॒रिण्याभृ॑तम् ॥


पदार्थ -
(सर्वे) सब (प्राजापत्याः) प्रजापति [परमात्मा] के उत्पन्न किये प्राणी (प्राणान्) प्राणों को (आत्मसु) अपने में (पृथक्) अलग-अलग (बिभ्रति) धारण करते हैं। (तान् सर्वान्) उन सब [प्राणियों] को (ब्रह्मचारिणि) ब्रह्मचारी में (आभृतम्) भर दिया गया (ब्रह्म) वेदज्ञान (रक्षति) पालता है ॥२२॥

भावार्थ - परमेश्वर के नियम से सब प्राणी शरीर धारण करके ब्रह्मचर्य के पालन से उन्नति करते हैं ॥२२॥


दे॒वाना॑मे॒तत्प॑रिषू॒तमन॑भ्यारूढं चरति॒ रोच॑मानम्। 
तस्मा॑ज्जा॒तं ब्राह्म॑णं॒ ब्रह्म॑ ज्ये॒ष्ठं दे॒वाश्च॒ सर्वे॑ अ॒मृते॑न सा॒कम् ॥


पदार्थ -
(देवानाम्) प्रकाशमान लोकों का (परिपूतम्) सर्वथा चलानेवाला, (अनभ्यारूढम्) कभी न हराया गया, (रोचमानम्) प्रकाशमान (एतत्) यह [व्यापक ब्रह्म] (चरति) विचारता है, (तस्मात्) उस [ब्रह्मचारी] से (ज्येष्ठम्) सर्वोत्कृष्ट (ब्राह्मणम्) ब्रह्मज्ञान और (ब्रह्म) वृद्धिकारक धन (जातम्) प्रकट [होता है], (च) और (सर्वे देवाः) सब विद्वान् (अमृतेन साकम्) अमरपन [मोक्षसुख] के साथ [होते हैं] ॥२३॥

भावार्थ - ब्रह्मचारी सर्वप्रेरक सर्वशक्तिमान् परमात्मा के गुणों को प्रकट करके संसार में ज्ञान और धन बढ़ाकर सबको मोक्षसुख का अधिकारी बनाता है ॥२३॥इस मन्त्र का तीसरा, और चौथा पाद मन्त्र ५ में आ चुका है ॥


ब्र॑ह्मचा॒री ब्रह्म॒ भ्राज॑द्बिभर्ति॒ तस्मि॑न्दे॒वा अधि॒ विश्वे॑ स॒मोताः॑। 
प्रा॑णापा॒नौ ज॒नय॒न्नाद्व्या॒नं वाचं॒ मनो॒ हृद॑यं॒ ब्रह्म॑ मे॒धाम् ॥


पदार्थ -

    (भ्राजत्) प्रकाशमान (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी [वेदपाठक और वीर्यनिग्राहक पुरुष] (ब्रह्म) वेदज्ञान को (बिभर्ति) धारण करता है, (तस्मिन्) उस [ब्रह्मचारी] में (विश्वे देवाः) सब उत्तम गुण (अधि) यथावत् (समोताः) ओत-प्रोत होते हैं। वह [ब्रह्मचारी] (प्राणापानौ) प्राण और अपान [श्वास-प्रश्वास विद्या] को, (आत्) और (व्यानम्) व्यान [सर्वशरीरव्यापक वायुविद्या] को, (वाचम्) वाणी [भाषणविद्या] को, (मनः) मन [मननविद्या] को, (हृदयम्) हृदय [के ज्ञान] को, (ब्रह्म) ब्रह्म [परमेश्वरज्ञान] को और (मेधाम्) धारणावती बुद्धि को (जनयन्) प्रकट करता हुआ [वर्तमान होता है] ॥२४॥

भावार्थ - ब्रह्मचारी वेदों के शब्द, अर्थ और सम्बन्ध जानकर और सम्पूर्ण उत्तम गुणों से सम्पन्न होकर अनेक विद्याओं का प्रकाश करता और बुद्धि का चमत्कार दिखाता है ॥२४॥यह मन्त्र महर्षि दयानन्दकृत संस्कारविधि वेदारम्भप्रकरण में व्याख्यात है ॥


चक्षुः॒ श्रोत्रं॒ यशो॑ अ॒स्मासु॑ धे॒ह्यन्नं॒ रेतो॒ लोहि॑तमु॒दर॑म् ॥

पदार्थ -
[हे ब्रह्मचारी !] (अस्मासु) हम लोगों में (चक्षुः) नेत्र, (श्रोत्रम्) कान, (यशः) यश, (अन्नम्) अन्न, (रेतः) वीर्य, (लोहितम्) रुधिर और (उदरम्) उदर [की स्वस्थता] (धेहि) धारण कर ॥२५॥

भावार्थ - मनुष्यों को योग्य है कि वेदवेत्ता विवेकी विद्वान् से नेत्रादि की स्वस्थता की शिक्षा प्राप्त करके आत्मा की शुद्धि से यशस्वी बलवान् होवें ॥२५॥


तानि॒ कल्प॑द् ब्रह्मचा॒री स॑लि॒लस्य॑ पृ॒ष्ठे तपो॑ऽतिष्ठत्त॒प्यमा॑नः समु॒द्रे। 
स स्ना॒तो ब॒भ्रुः पि॑ङ्ग॒लः पृ॑थि॒व्यां ब॒हु रो॑चते ॥


पदार्थ -
(ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी (तानि) उन [कर्मों] को (कल्पत्) करता हुआ (समुद्रे) समुद्र [के समान गम्भीर ब्रह्मचर्य] में (तपः तप्यमानः) तप तपता हुआ [वीर्यनिग्रह आदि तप करता हुआ] (सलिलस्य पृष्ठे) जल के ऊपर [विद्यारूप जल में स्नान करने के लिये] (अतिष्ठत्) स्थित हुआ है। (सः) वह (स्नातः) स्नान किये हुए [स्नातक ब्रह्मचारी] (बभ्रुः) पोषण करनेवाला और (पिङ्गलः) बलवान् होकर (पृथिव्याम्) पृथिवी पर (बहु) बहुत (रोचते) प्रकाशमान होता है ॥२६॥

भावार्थ - तपस्वी ब्रह्मचारी वेदपठन, वीर्यनिग्रह, और आचार्य की सन्तुष्टि से विद्या में स्नातक होकर और समावर्तन करके अपने उत्तम गुण कर्म से संसार का उपकार करता हुआ यशस्वी होता है ॥२६॥यह मन्त्र महर्षि दयानन्दकृत संस्कारविधि समावर्तनप्रकरण में व्याख्यात है ॥

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