दृश्यतेह्यनेनेति दर्शनम् (दृष्यते हि अनेन इति दर्शनम्)
अर्थात् असत् एवं सत् पदार्थों का ज्ञान ही दर्शन है। पाश्चात्य फिलॉस्पी शब्द फिलॉस (प्रेम का)+सोफिया (प्रज्ञा) से मिलकर बना है। इसलिए फिलॉसफी का शाब्दिक अर्थ है बुद्धि प्रेम। पाश्चात्य दार्शनिक (फिलॉसफर) बुद्धिमान या प्रज्ञावान व्यक्ति बनना चाहता है। पाश्चात्य दर्शन के इतिहास से यह बात झलक जाती है कि पाश्चात्य दार्शनिक ने विषय ज्ञान के आधार पर ही बुद्धिमान होना चाहा है। इसके विपरीत कुछ उदाहरण अवश्य मिलेंगें जिसमें आचरण शुद्धि तथा मनस् की परिशुद्धता के आधार पर परमसत्ता के साथ साक्षात्कार करने का भी आदर्श पाया जाता है। परंतु यह आदर्श प्राच्य है न कि पाश्चात्य। पाश्चात्य दार्शनिक अपने ज्ञान पर जोर देता है और अपने ज्ञान के अनुरूप अपने चरित्र का संचालन करना अनिवार्य नहीं समझता। केवल पाश्चात्य रहस्यवादी और समाधीवादी विचारक ही इसके अपवाद हैं।
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः| स्वं स्वं चरित्रें शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः||
अर्थात् समग्र विश्व भुमंण्डल के मानव भारतवर्ष के लोगों से चरित्र की शिक्षा ग्रहण करके अपने चरित्र को बिशुद्ध बनावें| इसी देश के प्राणायाम विद्युतिय ज्ञान से देश में सब प्रकार की सुख शान्ति थी|
भारतीय दर्शन में परम सत्ता के साथ साक्षात्कार करने का दूसरा नाम ही दर्शन हैं। भारतीय परंपरा के अनुसार मनुष्य को परम सत्ता का साक्षात् ज्ञान हो सकता है। इस प्रकार साक्षात्कार के लिए भक्ति ज्ञान तथा योग के मार्ग बताए गए हैं। परंतु दार्शनिक ज्ञान को वैज्ञानिक ज्ञान से भिन्न कहा गया है। वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त करने में आलोच्य विषय में परिवर्तन करना पड़ता है ताकि उसे अपनी इच्छा के अनुसार वश में किया जा सके और फिर उसका इच्छित उपयोग किया जा सके। परंतु प्राच्य दर्शन के अनुसार दार्शनिक ज्ञान जीवन साधना है। ऐसे दर्शन से स्वयं दार्शनिक में ही परिवर्तन हो जाता है। उसे दिव्य दृष्टि प्राप्त हो जाती है। जिसके द्वारा वह समस्त प्राणियों को अपनी समष्टि दृष्टि से देखता है। समसामयिक विचारधारा में प्राच्य दर्शन को धर्म-दर्शन माना जाता है और पाश्चात्य दर्शन को भाषा सुधार तथा प्रत्ययों का स्पष्टिकरण कहा जाता है।
यह जानने से पहले थोड़ा हमें और समझना होगा कि भारत कैसे, कहां से उपस्थित हुआ? इस भुमंडल पर । इससे पहले हमें यह जानना चाहेंगे कि यह पृथीवी कैसे प्रकट हो गई? दृश्य मय इस सौर मंडल में उससे पहले यह सौर्य मंडल सूर्य आदि कैसे आये ? ऐसे बहुत सारे सौर्यमंडल आकाशगंगा में विद्यमान है ऐसी बहुत सारी आकाश गंगाये है जो ब्रह्माण्ड में विद्ययमान है। अब प्रश्न उठता है कि यह आकाशगंगाओं को धारण करने वाला ब्रह्माण्ड कैसे आया ? बहुत सारे लम्बें समय तक कई साल मैने सोध किया इन सारे प्रश्नों के उत्तर को जानने के लिये, जिससे मुझे सबसे श्रेष्ठ प्रमाणिक ज्ञान मिला उसको मै संक्षिप्त रूप से आप सबके सामने आप सब को बाटने के लिये उपस्थित हुआ हुं। इसको मैने बहुत अधिक संघर्ष और अथाह दुःखों के पहाड़ों, समंदर और रेगिस्तान की यात्रा करने के बाद बहुत सारे दिव्य गुरुओं के सानिध्य में कई सालों तक बिताने के बाद मिला, इसके लिये मुझे संपूर्ण भारत वर्ष का भ्रमण करना पड़ा जिसके उपरान्त यह दिव्य अद्भुत ज्ञान की प्राप्ती हुई यह किसी प्रकार के मुल्य से उपलब्ध होने योग्य नहीं है। इसमे योगियों, विद्वानों वैज्ञानिको और बहुत प्रकार के श्रोतो के माध्यम से यह ज्ञान प्राप्त हुआ है। जिसमें मैने कुछ अपने वुद्धि से सोध के जरिये भी जो कुछ अनुभव किया है उसको भी जोड़ा है।
यह सब ज्ञान प्राप्त करने के लिए मैंने बहुत सारे शास्त्रों का बहुत गहराई से व्यक्तिगत रूप से अध्यन, चिन्तन, मनन , स्वाध्याय करके ज्ञान को संश्लेषित किया जिसमें सबसे प्रमुख है । वेद, वैदिक षट् दर्शन, उपनिषद्, १८ पुराण और इसके अतिरिक्त नास्तिक दर्शन बौद्ध, जैन, चार्वाक दर्शन पाश्चात्य दर्शन इत्यादि के साथ आधुनिक साहित्य गद्य, पद्, लगभग हर प्रकार के उन सब श्रोतों का उपयोग किया जिससे मुझे लगा कि मुझे कुछ जानकारी ज्ञान प्राप्त हो सकता है। जिससे अपने ज्ञान को विकषित किया जा सकता है। वह सब साधन मैने उपयोग किया, अपने जो सामर्थ के अनुसार वह सब किया जो मेरे सामर्थ्य का चर्मेत्कर्ष है।
सबसे प्रमुख जो इस भुमंडल का सबसे श्रेष्ठ अद्वितिय, अजेय, अद्भुत, अलौकिक ज्ञान का श्रोत है जिनसे लग- भग हमारे सारे प्रश्न का और समस्या का समाधान मुझको मिला वह एक मुक्त कन्ठ शब्दों में कहा जाये तो वेद है। तो फिर हम सर्व प्रथम कालजई, अपौरुषेश, ईश्वर कृत वेद के बारे में जानते है। उससे पहले हम हम सर्वप्रथम ईश्वर को पाते है। इसलिये यह ज्ञान के श्रोत को परमेश्वर के ज्ञान से ही सुरु करते है। सर्व प्रथम ईश्वर क्या है कहां है कैसा है? क्योंकि सर्वप्रथम ईश्वर ही था है और वही रहेगा यह सब हमें शब्द के माध्यम से प्राप्त हुआ है, इसलिए इन्हें शब्द ब्रह्म कहा गया। अर्थात ईश्वर शब्द रुप है उसे शब्दों के माध्यम से जान सकते है शब्द रहस्य पूर्ण है जो सबसे श्रेष्ठ शब्द है उनसे ही ईश्वर प्रकट होता है। हमारी खोज में जो सबसे श्रेष्ठ शब्द का संकलन है ईश्वर के बारे में वह निसंदेह एक सार्वभौमिक सत्य है कि वह वेद ही है इसलिये हम वेद के मंत्रों को समझते है जो ईश्वर के संबन्ध में है। जो ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव स हमेे परीचित कराते है।
ओ३म् तदेवाग्निस्तदादित्ययस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः।
तदेव शुक्रं तद् ब्रह्मा ताऽआपः स प्रजापतिः।। यजुर्वेद ३२,१
हे मनुष्यों! वह परमेश्वर सर्वज्ञ सर्वव्यापी सनातन अनादि सर्वाधार सच्चिदानन्दस्वरूप नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्तस्वभाव, न्यायकारी, दयालु जगत विश्व ब्रह्माण्ड का श्रष्टा, धारण करता और सब का अन्तर्यामी है। ज्ञानस्वरूप और स्वयं प्रकाशित होने से वह अग्नि के समान है। वह आदित्य सूर्य के समान बलवान शक्ति का जिसके कोई पार नहीं है प्रलय के समय सब को ग्रहण करने से आदित्य के समान जिस प्रकार सूर्य अपनी गुरुत्वाकर्षण की शक्ती से सम्पूर्ण सौर्य मंडल के ग्रहों को धारण कर रहा है, ठीक ऐसे ही इससे भी बड़े जिसमें अनन्त ब्रह्माण्ड है उसको भी परमेश्वर धारण कर रहा है। वह परमेश्वर वायु के समान अनन्त बलवान् और सबका कर्ता होने से वायु नाम से भी जाना जाता है। जैसा कि ऋगवेद का मंत्र कहता है।
(ओ३म् द्वाविमौ वातौ वात आसिन्धोरा परावतः|
दक्षं ते अन्य आवतु परान्यो वातु यद्रपः|| ऋग्वेद १० , १३७-२
यहां दो प्रकार के वायु बहते है एक वायु भीतर हृदय तक बहता है दूसरा बाहर वायुमंडल में बहता है| उसमें एक तेरे अन्दर तेरे लिये शक्ती बल को बहा कर लाये दूसरा तेरे से बाहर तेरे रोग बिमारी को बाहर बहा कर ले आवे |) वह परमेश्वर आनन्दस्वरूप और आनन्द कारक होने से चन्द्रमा के समान है। वही परमेश्वर शुक्रम शीघ्रकारी अथवा शुद्ध भाव से शुक्र विर्य के कण के समान है। वह महान होने से ब्रह्मा सर्वत्र व्यापक होने से प्रजापति। भी कहलाता है।
वेद क्या है कितने पुराने है?
एक समय वह भी था जब सारे संसार का एक ही धर्म था-वैदिक धर्म।एक ही धर्मग्रन्थ था वेद।एक ही गुरु मंत्र था-गायत्री।सभी का एक ही अभिवादन था-नमस्ते। एक ही विश्वभाषा थी-संस्कृत। और एक ही उपास्य देव था-सृष्टि का रचयिता परमपिता परमेश्वर,जिसका मुख्य नाम ओ३म् है। तब संसार के सभी मनुष्यों की एक ही संज्ञा थी-आर्य। सारा विश्व एकता के इस सप्त सूत्रों में बँधा, प्रभु का प्यार प्राप्त कर सुख शान्ति से रहता था।दुनिया भर के लोग आर्यावर्त कहलाने वाले इस देश भारत में विद्या ग्रहण करने आते थे।अध्यात्म और योग में इसका कोई सानी नहीं था।
किन्तु महाभारत युद्ध के पश्चात् ब्राह्मण वर्णीय जनों के 'अनभ्यासेन वेदानां' अर्थात् वेदों के अनभ्यास तथा आलस्य और स्वार्थ बुद्धि के कारण स्थिति बदली और क्षत्रियों में "जिसकी लाठी उसकी भैंस" वाली एकतांत्रिक सामन्तवादी प्रणाली चल पड़ी। धर्म के नाम पर पाखंडियों अर्थात् वेदनिन्दक ,वेदविरुद्ध आचरण करने वालों की बीन बजने लगी,यह विश्वसम्राट् एवं जगतगुरु भारत विदेशियों का क्रीतदास बनकर रह गया। जो जगतगुरु सबका सरताज कहलाने वाला था उसे मोहताज बना दिया गया।
दासता की इन्हीं बेड़ियों को काटने और धर्म का वास्तविक स्वरुप बताने के लिए युगों-युगों के पश्चात् इस भारत भूमि गुजरात प्रान्त के टंकारा ग्राम की मिट्टी से एक रत्न पैदा हुआ जिसका नाम मूलशंकर रखा गया। जो बाद में'महर्षि दयानन्द सरस्वती' के नाम से विश्वविख्यात् हुआ। जब उसने धर्म के नाम पर पल रहे घोर अधर्म, अन्धविश्वास, रुढ़िवाद, गुरुड़मवाद, जन्मगत मिथ्या जात्याभिमान, बहुदेववाद, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध और मूर्ति पूजा आदि बुराइयों के विरुद्ध पाखण्ड-खण्डिनी पताका को फहराते हुए निर्भय नाद किया तो सारा भूमंडल टंकारा वाले ऋषि की जय जयकार कर उठा।
उसकी इस विजय के पीछे सबसे बड़ा कारण चिरकाल से सोई हुई मानव जाति को उसके वास्तविक धर्म से परिचित कराना था। महर्षि ने धर्म के नाम पर लुटती मानवता को अज्ञान अन्धकार से बाहर निकालकर सत्य सनातन वैदिक धर्म में पुनः स्थापित किया। आज यदि हम निष्पक्ष होकर तुलना करें कि वैदिक सम्पत्ति को हमारे समक्ष किसने प्रस्तुत किया तो वह मुक्तात्मा देव दयानन्द है, जिसके ऋण से उऋण हम तभी हो सकते हैं जब वैदिक धर्म को भली-भाँति समझकर अपने जीवन को उसके प्रकाश से आलोकित करें।
वैदिक धर्म संसार के सभी मतों और सम्प्रदायों का उसी प्रकार आधार है जिस प्रकार संसार की समस्त भाषाओं का आधार संस्कृत भाषा है जो सृष्टि के प्रारम्भ से अभी तक अस्तित्व में है। संसार भर के अन्य मत ,पन्थ किसी पीर-पैगम्बर, मसीहागुरु,महात्मा आदि द्वारा चलाये गये हैं,किन्तु चारों वेदों के अपौरुषेय होने से वैदिक धर्म ईश्वरीय है, किसी मनुष्य का चलाया हुआ नहीं है।
वैदिक धर्म में एक निराकार, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, न्यायकारी ईश्वर को ही पूज्य माना जाता है,उसी की उपासना की जाती है, उसके स्थान पर अन्य देवी-देवताओं की नहीं।
धर्म की परिभाषा:-जिसका स्वरुप ईश्वर की आज्ञा का यथावत पालन और पक्षपातरहित न्याय सर्वहित करना है, जो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित और वेदोक्त होने से सब मनुष्यों के लिए मानने योग्य है , उसे धर्म कहते हैं।
उत्तम मानवीय गुण-कर्म-स्वभाव को धारण करना ही धर्म की सार्थकता को सिद्ध करता है।
अब वेद क्या है? उसको जानते है वेद विद् धातु से बनता है जिसका मतलब बिदित होना जिससे शुद्ध ज्ञान होता है। वेद मुख्यतः चार प्रकार के है जो मानव कृत नही है वेदों को परमेमश्वर ने श्रृष्टि के प्रारम्भ चार ऋषियों के हृदय में प्रकट किया था। प्रथम ऋग्वेद का साक्षात्कार अग्नि ऋषि ने किया जो ज्ञान काण्ड के रूप में जगत में विख्यात है, इसमे दस हजार से उपर मंत्र है जिनको ऋचाए कहते है। दूसरा यजुर्वेद है जिसमें १९७५ मंत्र है, जो कर्म काण्ड है जिसका साक्षात्कार वायु ऋषि ने किया था। तिसरा वेद साम वेद है जिसमें १८७५ मंत्र है। जो उपाषना काण्ड है। जिसका साक्षात्कार आदित्य ऋषि ने किया था। चौथा वेद अथर्वेद है जिसमें पांच हजार से अधिक मंत्र है इसमें प्राय सभी मंत्र पहले तिन वेदों से ही लिए गये है कुछ ही मंत्र इसके अतिरीक्त है। जो विज्ञान कांड के रूप में जाना जाता है जिसका साक्षात्कार अङ्गिरा ऋषि ने किया था। वेदों को पहले त्रई विद्या के रूप में जानते थे। इनका मुख्य विषय ज्ञान, कर्म, उपाषना ही है। या ईश्वर, जीव, प्रकृती का ज्ञान वेदों में सर्वत्र विद्यमान है। वेदों को श्रुती भी कहते है क्योंकि लाखों करोणों अरबों सालों पहलें से गुरु शिष्य परम्परा से सुरक्षित किये गये है । कंठस्त कर करके यहां तक लाये गये है । जिसे ओरल या मौखिक भाषा कहते है। वेदों को श्रृष्टि के प्रारम्भ में दिया गया था इसलिये वेद उतने ही प्राचिन है जितना की श्रृष्टि है, श्रृष्टि की आयु आज सन दो हजार सत्तरह में एक अरब छानबें करोण आठ लाख तीरपन हजार एक सौ सत्तरह साल हो गये है। वेदों में किसी प्रकार की कोई मिलावट अब तक नहीं हुई है क्योंकि वेदों के प्रत्येक अकक्षर शब्द मात्राओं को गिनती की गई है इसमें कुछ भी मिलावट नही कि जा सकती है। स्वरों से बांधा गया है हर मंत्र के तिन अर्थ होते है दैविक, दैहिक, आध्यात्मिक यही तिन प्रकार के मुख्य दुःख है जिनसे मुक्त होने का केवल एक मार्ग बताया गया है यह है पुरषार्थ। इसके अतिरिक्त वेदों के छः अंग और छः उपांग है अंगों में क्रमशः शीक्षा, कल्प, निरुक्त, छन्द, व्याकरण और ज्योतिषी आते है। षड् दर्शन में जो वेदों के उपांग है। योग दर्शन, योगी पंतजली ऋषि, सांख्य दर्शन कपिल मुनी द्वारा रचित, न्याय दर्शन गौतम ऋषि द्वारा रचित, वैशेषिक दर्शन कणाद ऋषि द्वारा रचित है। मिमांशा दर्शन जैमिनी ऋषी द्वारा निर्मित है। वेदान्त दर्शन महर्षि व्यास द्वारा रचित है।
ब्रह्माण्ड की उत्पत्ती वेदों के अनुसार-:
शब्द ही प्रथम परमेश्वर के द्वारा उच्चारित किया जिसे नाद ब्रह्म कहते है। जो अदृश्य से दृश्य में प्रकट हुये, परमेंश्वर ने सर्वप्रथम अपना ही स्मरण किया और अपने निज मुख्य नाम ओ३म् का उच्चारण किया क्योंकि यह ओ३म् अपने आप अद्भुत रहस्य पूर्ण अलौकिक दिव्य आश्चर्यमय ब्रह्म है इसमें मुख्यतः तीन तत्त्व श्रृष्टि की अनादी सत्ताये विद्यमान है जिसको हम ब्रह्मा, वीष्णु, महेश, के रूप में पहचानते है। इस ओ३म् में तिन सत्तायें विद्यमान है जिसे ईश्वर, जीव, प्रकृति के रूप में जानते है। अ उ म अकार उकार मकार अर्थात सत्, रज, तम जिसे वैज्ञानिक भाषा में इलेक्ट्रान, न्युट्रान, प्रोटान के रूप में जानते है यह एक परमाणु रूप ब्रह्म शब्द है। यह शब्द की सुक्ष्तम ध्वनी उर्जा की प्रारम्भीक बीन्दु है जो रेडीयो तरंग से भी सुक्ष्म है और स्थुल रूप में यही परमाणु है। और एक परमाणु में सभी प्रमुख मुल रूप से ईश्वर, जीव, प्रकृति के समग्र गुण विद्यमान है। जैसे पानी के एक अणु में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में शेस पानी के रूप समंदर के पानी में भी वही मुख्य गुण है।
कैसे हुई स्थूल जगत की रचना संसार चेतन (आत्मा) और योग(साधना) गुण और दोष कर्ता शरीर के अन्दर आत्मा का संघटन रूप शरीर योगी और ज्ञानी आज्ञा-चक्र आज्ञा प्रधान विधान पिण्ड और ब्रह्माण्ड रूप स्वराट और विराट शरीर आत्म-ज्योति का रहस्य सौर मण्डल अथवा सौर परिवार तेज-पुंज से पिण्ड रूप पृथ्वी हिरण्य गर्भ से गर्भ स्थित शरीर तक 'हम' अथवा 'मैं' क्या है ? अज्ञानी सांसारिक व्यक्ति में ‘हम’ ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और तथाकथित गॉड पार्टिकल नहीं रहता कण-कण में भगवान सभी आध्यात्मिक गुरु शिष्यों के लिए नहीं है परमेश्वर स्वयं में विद्यमान है।
ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और तथाकथित गॉडपार्टिकल जेनेवा स्थित यूरोपियन ऑर्गनाइज़ेशन न्यूक्लियर रिसर्च (सर्न) द्वारा दुनिया के सबसे बड़े महाप्रयोग में १०० से ज्यादा देशों के करीब ८००० वैज्ञानिकों ने हिस्सा लिया और इस पर १० अरब अमेरिकी डॉलर से भी ज्यादा खर्च हुये जिसके परिणाम में तथाकथित गॉड पार्टिकल (हिग्स बोसोन) की खोज करने का दावा कर रहे वैज्ञानिकों की यह सारी खोज आधी अधूरी अपूर्ण के साथ-साथ अनुमान पर आधारित है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि “हिग्स बोसोन” यानि वस्तु में मिलने वाला वह सूक्ष्म कण जिसके कारण वस्तु में भार है। जिसके कारण ही सभी वस्तुएं आपस में संघठित हैं, जो अरबों साल पहले हुये एक महाविस्फोट के बाद अस्तित्व में आया जिसे ही आज के वैज्ञानिक हिग्स बोसोन, ईश्वरीय कण, ब्रह्म कण को अलग-अलग नामों से सम्बोधित कर रहे हैं। इस वैज्ञानिक खोज को भारतीय धर्म गुरु धर्माचार्य भी यह कहते हैं कि कण-कण में भगवान है जिसको विज्ञान ने भी प्रमाणित कर दिया। वैज्ञानिकों का मानना है कि हिग्स बोसोन (ब्रह्म कण) समझ लेने से ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के रहस्य को जानने में बड़ी मदद मिलेगी, यह पता चल सकेगा कि ब्रह्माण्ड जिससे हमारी धरती, चाँद, सूरज सितारे, आकाश गंगायें हैं, कैसे बना? अभीतक विज्ञान मान रहा है कि अरबों साल पहले हुये एक महाविस्फोट जिसे बिग बैंग कहा जाता है, के बाद पदार्थ बने और फिर हमारा ब्रह्माण्ड, लेकिन यह महाप्रयोग उस राज से पर्दा उठा देगा कि ऊर्जा से पदार्थ कैसे बनता है?
विज्ञान के इस आधे-अधूरे अप्रमाणित अनुमानित खोज से कई प्रश्न पैदा हो जाते हैं, जैसे कि महाविस्फोट कब और कहाँ हुआ? महाविस्फोट किन-किन पदार्थों के बीच हुआ ? महाविस्फोटमें प्रयोग होने वाले पदार्थों की उत्पत्ति कैसे हुई और कब हुई ?ये हिग्स बोसोन के कारण जो वस्तुओं में भार है इसका ओरिजिन कहाँ से है? फिर इस कण से आगे यह ऊर्जा की उत्पत्ति कहाँ से हुई ? फिर यह ब्रह्माण्ड जिस विस्फोट से बना आखिर वह महाविस्फोट क्यों हुआ ? उसका कारण क्या था? महाविस्फोट में कौन कौन से पदार्थ थे और पदार्थों की उत्पत्ति कब और कैसे हुई ? ब्रह्माण्ड में पदार्थों में पायी जाने वाली ऊर्जा शक्ति की उत्पत्ति कहाँ से हुई ? आदि आदि बहुत प्रश्न हैं जिसका जवाब न तो इन वैज्ञानिक के पास है, न इन तथाकथित धर्मगुरूओं के पास है। पदार्थ में पाये जाने वाले सूक्ष्म कण हिग्स बोसोन को ही कण कण में भगवान घोषित करना आधे-अधूरे ज्ञान की पहचान है। कण कण में उर्जा है जीव भी नहीं है, चेतन भी नहीं है बल्कि जिस कण में चेतन विहीन शक्ति है, चेतन विहीन शक्ति को ही आजकल के वैज्ञानिक और आध्यात्मिक लोग परमात्मा-परमेश्वर-भगवान कह कर घोषित करने में लगे हैं और परमात्मा-परमेश्वर-भगवान-खुदा-गॉड के पृथक अस्तित्व को मिटाने में लगे हैं जो कि घन घोर भगवद्द्रोही कार्य है। जब-जब धरती पर ऐसा असुरता रूप नास्तिकता फैलता है तब-तब इस धरती पर स्वयं परम प्रभु-परमेश्वर-खुदा-गॉड-भगवान सम्पूर्ण सृष्टि ब्रह्माण्ड के रहस्यों को उजागर करने हेतु तथा विज्ञान और अध्यात्म का भी रहस्य उजागर करने के लिए अवतरित होते हैं। वास्तव में इस सृष्टि ब्रह्माण्ड का रहस्य और भगवान का रहस्य इस संसार से लेकर सम्पूर्ण सृष्टि में कोई जानता ही नहीं चाहे वैज्ञानिक लोग महाप्रयोग करें और आध्यात्मिक लोग जितने भी आध्यात्मिक अनुसन्धान करें, पूरा जीवन लगा दें, लाखों करोड़ों वर्ष लगा दें तब भी इस सृष्टि का और परमात्मा का रहस्य कोई नहीं जान पाएगा। यह सम्पूर्ण सृष्टि ब्रह्माण्डों का रचनाकार उत्पत्ति कर्ता स्वयं परमात्मा-परमेश्वर-भगवान हैं, इस सृष्टि के सम्पूर्ण रहस्य मात्र उसी के पास हैं।
विज्ञान की पहुँच पदार्थ (कण) जड़ तक ही होती है। पदार्थ से पहले शक्ति का रहस्य, इसका उत्पत्ति रहस्य विज्ञान से मिलना कदापि सम्भव नहीं है। ठीक उसी प्रकार किसी भी ध्यान-साधना की अवस्था में दिखाई देने वाले आत्मा ज्योति, दिव्य ज्योति, ब्रह्म ज्योति, शिव शक्ति, अलिमे नूर की उत्पत्ति का रहस्य किसी भी योगी यति आध्यात्मिक के पास नहीं होता। अर्थात वैज्ञानिकों का जड़ पदार्थ और अध्यात्मिकों का चेतन ज्योति का रहस्य केवल अवतार भगवान के तत्त्वज्ञान में होता है।
ऋग्वेद का नासदिय सुक्त इसके संदर्भ कुछ इस तरह से कहता है।-:
ब्रम्हांड एक खुला स्थान है, जिसकी कोई सीमायें नहीं हैं, कोई अंत नहीं है। इसकी लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई और गहराई अनंत हैं। पर इसकी रचना कैसे और क्यों हुई? नासदीय सूक्तः जो की सृष्टि की रचना के मंत्र के रूप में भी जाना जाता है, ऋग्वेद के 10वें मंडल का 129वां सूक्त है। इसका संबंध ब्रह्मांड विज्ञान और ब्रह्मांड की उत्पत्ति के साथ है। नासदीय सूक्त में कुल ७ मन्त्र हैं:-
नासदीय सूक्त के ७ मंत्रों की हिंदी में संछिप्त व्याख्या :
१. नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् ।
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद्गहनं गभीरम् ॥ १॥
इस जगत् की उत्पत्ति से पहले ना ही किसी का आस्तित्व था और ना ही अनस्तित्व, मतलब इस जगत् की शुरुआत शून्य से हुई।
तब न हवा थी, ना आसमान था और ना उसके परे कुछ था, चारों ओर समुन्द्र की भांति गंभीर और गहन बस अंधकार के आलावा कुछ नहीं था।
२. न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः ।
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किञ्चनास ॥२॥
उस समय न ही मृत्यु थी और न ही अमरता, मतलब न ही पृथ्वी पर कोई जीवन था और न ही स्वर्ग में रहने वाले अमर लोग थे,
उस समय दिन और रात भी नहीं थे।
उस समय बस एक अनादि पदार्थ था(जिसे प्रकृति कहा गया है), मतलब जिसका आदि या आरंभ न हो और जो सदा से बना चला आ रहा हो।
३. तम आसीत्तमसा गूहळमग्रे प्रकेतं सलिलं सर्वाऽइदम् ।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम् ॥३॥
शुरू में सिर्फ अंधकार में लिपटा अंधकार और वो जल की भांति अनादि पदार्थ था जिसका कोई रूप नहीं था, अर्थात जो अपना आयतन न बदलते हुए अपना रूप बदल सकता है।
फिर उस अनादि पदार्थ में एक महान निरंतर तप् से वो 'रचयिता'(परमात्मा/भगवान) प्रकट हुआ।
४. कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत् ।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ॥४॥
सबसे पहले रचयिता को कामना/विचार/भाव/इरादा आया सृष्टि की रचना का, जो की सृष्टि उत्पत्ति का पहला बीज था, इस तरह रचयिता ने विचार कर आस्तित्व और अनस्तित्व की खाई पाटने का काम किया।
५. तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासीदुपरि स्विदासीत् ।
रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ॥५॥
फिर उस कामना रुपी बीज से चारों ओर सूर्य किरणों के समान ऊर्जा की तरंगें निकलीं, जिन्होंने उस अनादि पदार्थ(प्रकृति) से मिलकर सृष्टि रचना का आरंभ किया।
६. को अद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः ।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥६॥
अभी वर्तमान में कौन पूरी तरह से ठीक-ठीक बता सकता है की कब और कैसे इस विविध प्रकार की सृष्टि की उत्पत्ति और रचना हुई, क्यूंकि विद्वान लोग तो खुद सृष्टि रचना के बाद आये। अतः वर्तमान समय में कोई ये दावा करके ठीक-ठीक वर्णण नहीं कर सकता कि सृष्टि बनने से पूर्व क्या था और इसके बनने का कारण क्या था।
७. इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न ।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ॥७॥
सृष्टि रचना का स्रोत क्या है? कौन है इसका कर्ता-धर्ता?
सृष्टि का संचालक, अवलोकन करता, ऊपर कहीं स्वर्ग में है बैठा।
हे विद्वानों, उसको जानों.. तुम नहीं जान सकते तो कौन जान सकता है?
“जब कहीं कुछ भी नहीं था, न यह सृष्टि था, न यह ब्रह्माण्ड, न यह ब्रह्माण्ड में दिखाई देने वाला आकाश, वायु, अग्नि, जल,थल, न सूरज, न चाँद, न तारे, न आकाश गंगायें, न पदार्थ, न चेतन न यह हिग्स बोसोन, न यह ब्रह्म कण अर्थात् जब यह सृष्टि थी ही नहीं तब वह परमात्मा-परमेश्वर-भगवान-खुदा-गॉड‘शब्द रूप’ वचन रूप में परम अदृश्य शुन्य रूप परम धाम में था। उसे ही शब्द ब्रह्म भी कहा जाता है। जिस शब्द वचन रूप परमात्मा के अन्दर सृष्टि रचना का संकल्प हुआ। संकल्प यानी कुछ हो, भव, कुछ यह भाव होते ही उस शब्द रूप परमात्मा से एक शब्द निकल कर अलग हुआ यानी एक शब्द उस परमात्मा से छिटका जो शब्द प्रचण्ड तेज पुञ्ज से युक्त था यानी उस में इतना ज्योति तेज शक्ति से युक्त था। इसको ही आदिशक्ति, मूल प्रकृति, अव्यक्त प्रकृति भी कहा जाता है। उस शब्द रूप परमात्मा से एक शब्द छिटकने के पश्चात्त भी उस परमात्मा वाले शब्द में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं हुआ बल्कि वह एक सम्पूर्ण शब्द ही बना रहा, यही इस परमात्मा की आश्चर्यमय विशेषता थी। शब्द रूप भगवान से जो शब्द निकला, जो प्रचण्ड तेज पुञ्ज अक्षय ज्योति से युक्त था उसको ही सम्पूर्ण सृष्टि का कार्य भार सौपा गया। यानी मूल प्रकृति को ही सृष्टि का कार्यभार परमात्मा ने सौंपा और सृष्टि करने के लिए इच्छा शक्ति दिया। (इसी शब्द रूप भगवान से एक शब्द निकलकर छिटककर प्रचण्ड तेज पुञ्ज हुआ इसको विज्ञान अनुमान के आधार पर महाविस्फोट कहता है ) फिर इस प्रचण्ड तेज पुञ्ज शब्द शक्ति से शक्ति उर्जा निकलकर पृथक हुई जो आगे चलकर आकाश, वायु, अग्नि, जल और थल का रूप लिया यानी पदार्थ का रूप लिया फिर इस सृष्टि का संरचना हुआ यानी उस शब्द मय उर्जा शक्ति से ही पदार्थ बनते हुये इस ब्रह्माण्ड की रचना हुई।
सृष्टि-उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय
सर्गारम्भ के पूर्व जगत् की अवस्था
सृष्टि-उत्पत्ति से पूर्व यह जगत् अन्धकार से आवृत्त और जानने के अयोग्य था। उस समय न पृथिवी थी, न आकाश और न भूलोक। मनुष्य, पशु-पक्षी तथा कीट-पतङ्ग और वृक्षादि प्राणिजगत् भी उस समय नहीं था। पश्चात् परमेश्वर ने अपने सामर्थ्य से इसे कारणरूप से कार्यरूप में परिवर्तित कर दिया। जो परमात्मा इस विविध प्रकार की सृष्टि को उत्पन्न कर इसका धारण और अन्त में प्रलय करता है, वही परमात्मा जानने योग्य है। वेदान्त दर्शन में भी कहा है- ‘जन्माद्यस्य यतः’ जिस परमात्मा से इस जगत् का जन्म, स्थिति और प्रलय होता है, वही ब्रह्म जानने योग्य है।
सृष्टि का निमित्त कारण प्रभु
यह जगत् निमित्त कारण परमात्मा से उत्पन्न हुआ है, परन्तु इसका उपादान कारण प्रकृति है। ‘सलिलं सर्वमा इदम्’- यह सम्पूर्ण जगत की उत्पति से पूर्व अपने उपादान कारण प्रकृति में लीन था और प्रकृति से आवृत्त था। परमात्मा के तप की महिमा से यह संसार प्रकट हो जाता है। इस उत्पन्न हुए जगत् का धारण वे परमात्मा ही करते हैं, उसी के आधार में जीव रहते हैं और अन्ततः उसी में प्रवेश करते हैं। इस ब्रह्म को ही जानने की कामना करनी चाहिए।
तीन अनादि पदार्थ
तीन अनादि पदार्थ हैं। एक ईश्वर, दूसरा जीव और तीसरा जगत् का कारण- प्रकृति। ये न कभी उतपन्न होते हैं और न कभी नष्ट होते हैं। इसमें ॠग्वेद [1।164।20] का निम्न प्रमाण है-
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकाशीति॥
जीव और ब्रह्म दोनों परस्पर मित्रतायुक्त अनादि हैं। इसी प्रकार कारणरूप प्रकृति भी अनादि है। तीनों के गुण-कर्म-स्वभाव भी अनादि हैं। जीव और ब्रह्म में जीव तो इस वृक्षरूपी संसार में पाप-पुण्यरूपी फलों को भोगता है और परमात्मा कर्म फलों को न भोगता हुआ बाहर-भीतर सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा है।
सृष्टि- उत्पत्ति
‘सदेव सौम्येदमग्र आसीत्’- हे सौम्य ! श्वेतकेतो ! सृष्टि-उत्पत्ति से पूर्व प्रलयावस्था में भी यह जगत् अपने कारण में विद्यमान था। असद्वा इदमग्र आसीत्- सृष्टि के पूर्व ये सब लोक-लोकान्तर अदृश्य-से, असत्-से थे। आत्मैवेदमग्र आसीत्- सृष्टि से पूर्व प्रलयावस्था में भी आत्मा थे ही। ब्रह्म वा इदमग्र आसीत्- इन आत्माओं को कर्मानुसार फल देनें के लिए, सृष्टि का निर्माण करनेवाले ब्रह्म तो अनादि काल से हैं ही।
प्रलय की समाप्ति पर ‘तदैक्षत बहु स्याम प्रजायेयेति’ परमात्मा ने ईक्षण [ज्ञान, तप, प्रेरणा] के द्वारा प्रकृति से इस सृष्टि के लोक-लोकान्तरों का निर्माण कर दिया। प्रकृति सत् है, अनादि है, यह कभी उत्पन्न नहीं होती। वे सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान् परमात्मा अपने ज्ञानरूप तप=ईक्षण से प्रकृति को इस सृष्टिरूप विकृति में ले-आते हैं। नियत समय तक इसके धारण के पश्चात् वे प्रलय कर देते हैं, विकृति पुनः प्रकृति के रूप में परिवर्तित हो जाती है।
‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’- इस उत्पन्न सृष्टि में प्रत्येक पिण्ड परमात्मा की सत्ता से व्याप्त है। सबमें समाया हुआ वह ब्रह्म ‘सर्व’ है। तज्जलानिति शान्त उपासीत्-तत्- वह परमात्मा ‘ज’ इस जगत् को उत्पन्न करनेवाले ‘ल’ अन्त में इसका प्रलय कर देनेवाले और ‘अन्’ वर्त्तमान में इसका धारण करनेवाले हैं। जीव को चाहिए कि वह शान्त होकर ‘जलान्’ उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयकर्त्ता के रूप में परमात्मा की उपासना करे। नेह नानास्ति किञ्चन- उस चेतनमात्र, अखण्डैकरस ब्रह्म में नाना वस्तुओं का मेल नहीं है, किन्तु ये सभी लोक-लोकान्तर पृथक्-पृथक् स्वरूप में परमेश्वर के आधार में स्थित हैं।
जगत्-उत्पत्ति के तीन कारण
जगत् की उत्पत्ति के तीन कारण हैं यथा-
1- निमित्तकारण- निमित्तकारण उसको कहते हैं कि जिसके बनाने से कुछ बने, न बनाने से न बने। आप स्वयं बने नहीं, दूसरे को प्रकारान्त बना देवे। यह निमित्तकारण भी दो प्रकार का होता है- एक मुख्य और दूसरा गौण। सब सृष्टि को कारण से बनाने, और उसका धारण करने और प्रलय करने तथा सबकी व्यवस्था रखनेवाला मुख्य निमित्तकारण परमात्मा है। परमात्मा की सृष्टि में से पदार्थों को लेकर अनेकविध कार्यान्तर करनेवाला गौण निमित्त कारण जीव है।
2- उपादानकारण- उपादानकारण उसको कहते हैं जिसके बिना कुछ न बने, वही अवस्थान्तर रूप होके बने और बिगडे भी। प्रकृति उपादान-कारण है। यह संसार को बनाने की सामग्री है। यह जड होने से आप-से-आप न बन और बिगड सकती है, किन्तु दूसरे के बनाने से बनती और बिगाडने से बिगडती है। कहीं-कहीं जड के निमित्त से जड भी बन और बिगड जाते हैं। जैसे परमेश्वर के रचित बीज पृथिवी में गिरने और जल पाने से वृक्षाकार हो जाते हैं और अग्नि आदि जड के संयोग से बिगड भी जाते हैं, परन्तु इसका नियमपूर्वक बनाना और बिगाडना परमेश्वर और जीव के अधीन है।
3- साधारणकारण- साधारणकारण उसको कहते हैं जो बनाने में साधन और साधारणनिमित्त हो। जब कोई वस्तु बनाई जाती है तब जिन-जिन साधनों से अर्थात् ज्ञान, दर्शन, बल, हाथ और नाना प्रकार के साधन तथा दिशा, काल और आकाशादि साधारण निमित्तकारण कहाते हैं।
एक उदाहरण लीजिए। घडे को बनानेवाला कुम्हार निमित्तकारण है, मिट्टि घडे का उपादानकारण है और दण्ड, चक्र, दिशा, काल, प्रकाश, हाथ, ज्ञान, क्रिया आदि साधारण निमित्तकारण हैं। इन तीन कारणों के बिना न कोई भी वस्तु बन सकती है और न बिगड सकती है।
परमात्मा और जगत् में भेद
नवीनवेदान्ती ईश्वर को ही जगत् का अभिन्ननिमित्तोपादनकारण मानते हैं। वे कहते हैं कि ‘यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च’- जैसे मकडी बाहर से कोई पदार्थ नहीं लेती, अपने ही में से तन्तु निकाल, जाला बनाकर आप ही उसमें खेलती है, वैसे ब्रह्म अपने में से जगत् को बना, आप जगदाकार बन आप ही क्रीडा कर रहा है, परन्तु यह बात ठीक नहीं है। वास्तव में यहाँ मकडी का जड-रूप शरीर तन्तुओं का उपादानकारण है और जीवात्मा निमित्तकारण है। इसी प्रकार व्यापक ब्रह्म ने अपने भीतर व्याप्त प्रकृति से इस जगत् जाल को तना है। यदि ब्रह्म को जगत् का उपादानकारण मानें तो ब्रह्म परिणामी, अवस्थान्तरयुक्त, विकारी हो जाए। तथा ‘उपादानकारण के गुण कार्य में आते हैं’- इस सिद्धान्त के अनुसार जगत् यदि परमात्मा का विकार होता तो पृथिव्यादि कार्य भी चेतन होने चाहिएँ।
जगत् में परमात्मा के गुण, धर्म नहीं हैं, इसे दर्शाने के लिए यहाँ जगत् और परमात्मा के गुणों की तुलना की जाती है-
1- परमात्मा सत्, चित् और आनन्दस्वरूप है, परन्तु जगत् कार्यरूप से असत् अर्थात् सदा न रहनेवाला, जड और आनन्द-रहित है।
2- परमात्मा अज अर्थात् उत्पन्न नहीं होता और जगत् उत्पन्न हुआ है।
3- परमात्मा अदृश्य है और जगत् दृश्य है।
4- परमात्मा अखण्ड है और जगत् के खण्ड हो सकते हैं।
5- परमात्मा विभु है और जगत् परिछिन्न है।
सृष्टि-उत्पत्ति का प्रयोजन
कुछ लोग यह कुतर्क किया करते हैं कि परमात्मा ने यह सृष्टि क्यों बनाई? यदि परमात्मा इस सृष्टि को न बनाते तो स्वयं भी आनन्द में रहते और जीवों को भी सुख-दुःख प्राप्त न होता। इस शङ्का का समाधान निम्न है-
1- ये आलसी और दरिद्र लोगों की बातें हैं, पुरुषार्थी की नहीं।
2- जीवों को प्रलय में क्या सुख वा दुःख है? सृष्टि में दुःख की तुलना में सुख कई गुणा अधिक है और बहुत-से पवित्रात्मा जीव मुक्ति के साधन करके मोक्ष के आनन्द को भी प्राप्त होते हैं। प्रलय में वे निक्कमें और सुषुप्ति में पडे़ रहते हैं।
3- यदि सृष्टि न बने तो प्रलय के पूर्व सृष्टि में किये पाप-पुण्यों का फल परमात्मा कैसे दे सके और जीव क्योंकर भोग सके।
4- ईश्वर में जगत् रचना का जो विज्ञान, बल और क्रिया है उसका जगत् की उत्पत्ति के अतिरिक्त और क्या प्रयोजन हो सकता है? परमात्मा के न्याय, दया आदि गुण भी तभी सार्थक हो सकते हैं जब वो जगत् को बनाए।
बीज पहले या वृक्ष
बीज पहले है और वृक्ष पीछे। बीज, हेतु, निदान, निमित्त और कारण इत्यादि शब्द एकार्थ- वाचक हैं। कारण का नाम बीज होने से वह कार्य के प्रथम ही होआ है। जैसे बीज से वृक्ष अंकुरित होता है वैसे ही प्रकृतिरूप बीज से संसारवृक्ष अंकुरित होता है। परमात्मा इस बीज रूपी प्रकृति से ही संसाररूपी वृक्ष को उत्पन्न करते हैं
निराकार ईश्वर से जगत् की उत्पत्ति
सृष्टि उत्पत्ति के लिए ईश्वर को साकार मानने की कोई आवश्यकता नहीं। वस्तुतः जो साकार है वह ईश्वर ही नहीं, क्योंकि साकार परिमित शक्तियुक्त तथा भूख-प्यास आदि से युक्त होगा। साकार ईश्वर सृष्टि का निर्माण कर ही नहीं सकता। यदि परमात्मा साकार होता तो हमारी भाँति त्रसरेणु, अणु, परमाणु और प्रकृति को अपने वश में ला ही नहीं सकता। परमात्मा अपनी अनन्त शक्ति, बल और पराक्रम द्वारा वह सब कार्य करता है जोकि जीव और प्रकृति से कभी हो ही नहीं सकते। देहधारी न होने से परमात्मा प्रकृति से भी सूक्ष्म और उसमें व्यापक है, अतः वह प्रकृति को पकडकर जगदाकार कर देता है। ‘निराकार परमात्मा का बनाया जगत् भी निराकार होना चाहिए’- ऐसा कहना लडकपन की बात है, क्योंकि परमात्मा जगत् का उपादानकारण नहीं है, अपितु निमित्तकारण है। इस जगत् का उपादानकारण प्रकृति है। यदि प्रकृति निराकार होती तो संसार भी निराकार होता। उपादानकारण प्रकृति के बिना प्रभु संसार को नहीं बना सकते। यह प्रकृति अनादि है। इस प्रकृति का और कोई कारण नहीं है। क्योंकि मूले मूलाभावादमूलं मूलम्- मूल-का-मूल अथवा कारण-का-कारण नहीं हुआ करता। जगत् की उत्पत्ति से पूर्व परमेश्वर, प्रकृति और जीव तीनों अनादिरूप से विद्यमान थे। यदि इनमें से एक भी न हो तो यह जगत् भी न हो।
सृष्टि के विषय में नास्तिकों के मत
पहला नास्तिक कहता है- “शून्य ही एक पदार्थ है। सृष्टि के पूर्व शून्य था, अन्त में शून्य होगा, क्योंकि जो भाव है उसका अभाव होकर शून्य हो जाएगा।“ इसका उत्तर यह है कि- शून्य आकाश, अदृश्य, अवकाश और बिन्दु को भी कहते हैं। शून्य जड पदार्थ है, इस शून्य में सब पदार्थ अदृश्य रहते हैं। जैसे एक बिन्दु से रेखा, रेखाओं के वर्तुलाकार होने से भूमि, पर्वतादि ईश्वर की रचना से बनते हैं और शून्य का जाननेवाला शून्य कभी नहीं होता।
दूसरा नास्तिक कहता है- “अभाव से भाव की उत्पत्ति होती है जैसे बीज का मर्दन किये बिना अंकुर उत्पन्न नहीं होता, परन्तु बीज को तोडकर देखें तो उसमें अंकुर का अभाव है, अतः अभाव से उत्पति हुई।” इसका उत्तर- बीज का उपमर्दन करनेवाला पहले ही बीज में था, जो न होता तो उपमर्दन कौन करता और उत्पन्न भी कभी न होता।
तीसरा नास्तिक कहता है-“कर्मों का फल प्राप्त होना ईश्वर के अधीन है। जिस कर्म का फल ईश्वर देना चाहे देता है, जिस कर्म का फल न देना चाहे नहीं देता।” इसका उत्तर यह है कि यदि कर्म फल ईश्वर के अधीन होता तो ईश्वर बिना कर्म किये भी फल दे देता, परन्तु बिना कर्म किये फल नहीं मिलता। वस्तुतः मनुष्य जैसा कर्म करता वैसा ही ईश्वर फल देता है।
चौथा नास्तिक कहता है- “बिना निमित्त के पदार्थ की उत्पत्ति होती है। जैसे बबूल आदि वृक्षों में तीक्ष्ण अणिवाले काँटे न जाने कहाँ से आ जाते हैं, ऐसे ही सृष्टि के आरम्भ में शरीर आदि पदार्थ बिना निमित्त के होते हैं।” इसका उत्तर स्पष्ट है। यदि अनिमित्त से ही पदार्थ उत्पन्न होते तो बिना काँटेवाले वृक्षों में भी काँटे उत्पन्न हो जाने चाहिएँ थे।
नवीनवेदान्ती पाँचवे नास्तिकों की कोटि में आते हैं, उनका कहना है कि- “सब पदार्थ उत्पत्ति और विनाशवाले हैं, इसलिए सब अनित्य हैं।” इसका उत्तर यह है कि जो उत्पति और विनाश वाले पदार्थ हैं वे निश्चय ही अनित्य हैं, परन्तु ब्रह्म, जीव तथा जगत् का उपादानकारण प्रकृति- ये तीनों उत्पत्ति, विनाशवाले न होने से अनादि, नित्य एवं सत्य हैं।
छठा नास्तिक कहता है कि- “पाँच भूतों के नित्य होने से सब जगत् नित्य है।” यह बात सत्य नहीं, क्योंकि स्थूलजगत्, शरीर तथा घट-पटादि पदार्थों को उत्पन्न और नष्ट होते हुए हम देखते ही हैं, अतः कार्यपदार्थों को नित्य नहीं माना जा सकता।
सातवाँ नास्तिक कहता है कि- “सब पदार्थ पृथक्-पृथक् हैं उनसे भिन्न कोई सम्मिश्रित (अवयवी) पदार्थ नहीं हैं।” इसका उत्तर यह है कि स्वरूप से सब पदार्थ पृथक्-पृथक् हैं, परन्तु स्वरूपतः पृथक् होते हुए अवयवों में एक अवयवी भी है। एक वन में वृक्ष अलग-अलग हैं। उन सब वृक्षों से ही वन की सत्ता है।
आठवाँ नास्तिक कहता है कि- “सब पदार्थों में इतरेतर अभाव की सिद्धि होने से सब अभावरूप हैं, जैसे गाय घोडा नहीं और घोडा गाय नहीं, अतः सबको अभावरूप मानना चाहिए।” इसका उत्तर यह है कि चाहे सब पदार्थों में इतरेतराभाव का योग हो, परन्तु गाय-में-गाय और घोडे-में-घोडे का भाव ही है, अभाव नहीं। जो पदार्थों का भाव न हो तो इतरेतराभाव किसमें कहा जाए।
नववाँ नास्तिक कहता है- “स्वभाव से जगत् की उत्पत्ति होती है जैसे पानी, अन्न एकत्र हो, सडने से कृमि उत्पन्न होते हैं, हल्दी, चूना और नींबू का रस मिलने से ‘रोली’ बन जाती है, वैसे सब जगत् तत्त्वों के स्वाभाविक गुणों से उत्पन्न हुआ है, इसके बनानेवाला कोई भी नहीं।" इसका उत्तर यह है कि यदि उत्पत्ति स्वभाव से होती है तो उसका विनाश नहीं होना चाहिए और यदि विनाश भी स्वभाव से मानो तो उत्पत्ति नहीं हो सकेगी । जो उत्पत्ति और विनाश दोनों को एक साथ मानोगे तो उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। जो उत्पत्ति और विनाश दोनों को एक साथ मानोगे तो उत्पत्ति और विनाश की व्यवस्था कभी नहीं हो सकेगी। जो पदार्थ संयोग से बनते हैं उनको भी कोई मिलानेवाला चाहिए जैसे हल्दी, चूना और नींबू का रस अपने-आप आकर नहीं मिलते, किसी के मिलाने से मिलते हैं। वैसे ही परमात्मा प्रकृति के पदार्थों को ज्ञान और युक्ति से मिलाते हैं। इसप्रकार सृष्टि-स्वभाव से नहीं अपितु ईश्वर की रचना से होती है।
ईश्वर की आवश्यकता
प्रश्न उत्पन्न होता है कि जगत्कर्त्ता ईश्वर के मानने की आवश्यकता ही क्या है? यह जगत् अनादि काल से जैसे-का-तैसा बना हुआ है। न कभी इसकी उत्पत्ति हुई और न कभी विनाश होगा। इसका उत्तर यह है कि कर्त्ता के बिना न कोई क्रिया हो सकती है और न क्रियाजन्य पदार्थ बन सकते हैं। पृथिवी आदि पदार्थों में संयोग विशेष से रचना दिखाई देती है, अतः वे अनादि कभी नहीं हो सकते। जो पदार्थ संयोग से बनता है वह संयोग के पूर्व नहीं होता और वियोग के अन्त में नहीं रहता। सृष्टि की उत्पति और प्रलय के लिए किसी चेतन कर्त्ता का मानना आवश्यक है।
देखो ! शरीर में किसप्रकार की ज्ञानपूर्वक सृष्टि रची है कि जिसको विद्वान् लोग देखकर आश्चर्य मानते हैं। भीतर हाडों का जोड, नाडियों का बन्धन, मांस का लेपन, चमडी का ढक्कन, प्लीहा, यकृत्, फेफडा, पंखा-कला का स्थापन, जीव का संयोजन, शिरोरूप मूलरचन, लोम-नखादि का स्थापन, आँख की अतीव सूक्ष्म शिरा का तारवत् ग्रन्थन, इन्द्रियों के भोगों का प्रकाशन, जीव के जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति अवस्था के भोगने के लिए स्थान विशेषों का निर्माण, सब धातु का विभागकरण, कला-कौशल से स्थापनादि अद्भुत् सृष्टि को बिना परमेश्वर के कौन कर सकता है? इसके बिना नाना प्रकार के रत्न-धातु से जडित भूमि, विविध प्रकार के वटवृक्षादि के बीजों में अतिसूक्ष्म रचना, असंख्य हरित, श्वेत, पीत, कृष्ण, चित्ररूपों से युक्त पत्र, पुष्प, फल, मूलनिर्माण, मिष्ट, क्षार, कटुक, कसाय, तिक्त, अम्लादि विविध पत्र, पुष्प, फल, अन्न कन्द-मूलादि रचन, अनेकानेक करोडों भूगोल, सूर्य, चन्द्रादि लोकनिर्माण, धारण, भ्रामण, नियमों में रखना आदि कार्यों को परमेश्वर के बिना कोई भी नहीं कर सकता।
जीव परमेश्वर नहीं हो सकता
जैन मतावलम्बियों के मत में ‘अनादि ईश्वर कोई नहीं, किन्तु जीव ही योगाभ्यास करते-करते परमेश्वर हो जाता है।’ यह मत ठीक नहीं। यदि जगत् सृष्टा अनादि ईश्वर न हो जीवों के शरीर और इन्द्रियों का निर्माण कौन करे? इनके बिना जीव साधन नहीं कर सकता और साधन न होने से सिद्ध भी नहीं हो सकता। एक बात और, जीव चाहे जितना साधन करे वह ईश्वर कभी नहीं हो सकता। जीव का ज्ञान परम अवधि तक बढे तो भी वह परिमित ज्ञान और सामर्थ्य-वाला होता है, अनन्त ज्ञान और सामर्थ्य-वाला कदापि नहीं हो सकता। आज तक कोई भी योगी ईश्वरकृत सृष्टि-नियम (आँख से देखना और कान से सुनना) को बदलनेवाला न हुआ है, न होगा।
कल्पनान्तर में एक-जैसी सृष्टि
परमात्मा पूर्ण है, उसका ज्ञान भी पूर्ण है, अतः परमात्मा द्वारा निर्मित्त यह सृष्टि भी पूर्ण है। इसमें परिवर्त्तन, परिवर्धन या सुधार की अपेक्षा नहीं होती। कल्प-कल्पान्तरों में परमात्मा विलक्षण सृष्टि (नये-नये मॉडल) नहीं बनाता अपितु जैसी अब है वैसी ही पहले थी और ऐसी ही आगे भी होगी। देखो-
सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्।
परमात्मा पूर्वकल्प के अनुसार ही सूर्य, चन्द्र आदि लोक-लोकान्तरों का निर्माण करते हैं। परमेश्वर के कार्य बिना भूल-चूक के होने से सदा एकरस हुआ करते हैं। जो अल्पज्ञ है और जिसका ज्ञान वृद्धि-क्षय को प्राप्त होता है, उसी के काम में भूल-चूक होती है, ईश्वर के काम में नहीं।
शास्त्रों में अविरोध
कुछ लोगों के मत में सृष्टि-उत्पत्तिक्रम में शास्त्रों में परस्पर विरोध है। ‘तैत्तिरीय उपनिषद्’ के अनुसार सर्वप्रथम आकाश हुआ, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथिवी। ‘छान्दोग्य उपनिषद्’ में अग्न्यादि क्रम से सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन है, ‘ऐतरेय’ में जलादि क्रम से सृष्टि हुई। वेदों में कहीं पुरुष कहीं हिरण्यगर्भादि से, मीमांसा में कर्म, वैशेषिक में काल, न्याय में परमाणु, योग में पुरुषार्थ, सांख्य में प्रकृति और वेदान्त में ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति मानी है।
यह विरोध-सा प्रतीत होता है वस्तुतः विरोध है नहीं। जब महाप्रलय होता है तब सृष्टि-उत्पत्ति आकाश आदि क्रमसे होती है। जब आकाश और वायु का प्रलय नहीं होता तब अग्नि आदि क्रम से और जब अग्नि का भी प्रलय नहीं होता तब जल के क्रम से सृष्टि होती है, अर्थात् जिस-जिस प्रलय में जहाँ-जहाँ तक प्रलय होता है वहाँ-वहाँ से सृष्टि की उत्पत्ति होती है।
पुरुष और हिरण्यगर्भादि नाम परमेश्वर के हैं, अतः यहाँ भी विरोध नहीं है।
दर्शनों में भी विरोध नहीं है अपितु यहाँ एक-दूसरे की पूरकता झलकती है। सृष्टि छह कारणों से बनी है। उन छह कारणों की व्याख्या एक-एक दर्शनकार ने की है, अतः उनमें परस्पर विरोध नहीं है।
सृष्टि-उत्पत्ति का क्रम
नासतो विद्यते भावः- अभाव से भाव नहीं हो सकता, अतः मूल उपादानकारण के बिना सृष्टि-रचना नहीं हो सकती। जब सृष्टि का समय आता है तब परमात्मा प्रकृति के परम सूक्ष्म परमाणुओं को इकट्ठा करता है। परमाणुओं के उस संघात का नाम, जो परम सूक्ष्म प्रकृतिरूप कारण से कुछ स्थूल होता है, महतत्त्व है। महतत्त्व से जो कुछ स्थूल होता है उसका नाम अहङ्कार, अहङ्कार से भिन्न-भिन्न पाँच सूक्ष्मभूत, श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, ध्राण- पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा- पाँच कर्मेन्द्रियाँ और ग्यारहवाँ मन- ये कुछ स्थूल उत्पन्न होते हैं। उनसे नाना प्रकार की औषधियाँ, वृक्ष आदि, उनसे अन्न, अन्न से वीर्य, वीर्य से शरीर होता है।
आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि
आदि सृष्टि मैथुनी नहीं होती। जब परमात्मा स्त्री-पुरुषों के शरीर बनाकर उनमें जीवन का संयोग कर देता है तदन्तर मैथुनी सृष्टि चलती है।
सृष्टि का आरम्भ तथा क्रम
पहले पृथिवी आदि की रचना हुई तत्पश्चात् मनुष्य आदि की उत्पत्ति हुई, क्यों कि यदि पृथिवी न होती तो मनुष्य कहाँ उत्पन्न होता और वनस्पति आदि के बिना उसका पालन-पोषण भी कैसे होता?
सृष्टि के आदि में एक नहीं अपितु अनेक मनुष्य उत्पन्न हुए थे जिन-जिन जीवों के कर्म अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न होने के थे, उन्हें परमात्मा ने सृष्टि के आदि में जन्म दिया। सृष्टि में देखने से भी निश्चित होता हैकि मनुष्य अनेक माता-पिता के सन्तान हैं।
आदि सृष्टि के आरम्भ में युवा
आदि सृष्टि में जो मनुष्य उत्पन्न हुए वे सब युवावस्था में उत्पन्न हुए थे, क्यों कि यदि बालक उत्पन्न होते तो उनका पालन-पोषण कौन करता? यदि वृद्धावस्था में उत्पन्न होते तो उनकी सन्तति आगे न चल सकती । अब पाश्चात्य विद्वानों ने भी इस बात को स्वीकार कर लिया है। डा॰ क्लार्क ने लिखा है- Man aappeared able to think, walk and defand himself.
सृष्टि प्रवाह से अनादि
यह सृष्टि प्रवाह से अनादि है। इस सृष्टि का न तो कभी प्रारम्भ हुआ और न अन्त होगा, जैसे दिन के पूर्व रात और रात के पूर्व दिन तथा दिन के पीछे रात और रात के पीछे दिन बराबर चला आता है, इसीप्रकार सृष्टि के पूर्व प्रलय और प्रलय के पूर्व सृष्टि तथा सृष्टि के पीछे प्रलय और प्रलय के पीछे सृष्टि- यह चक्र अनादिकाल से चला आ रहा है। इस चक्र का न आदि है और न अन्त, परन्तु जैसे दिन और रात का आरम्भ और अन्त देखने में आता है, उसी प्रकार सृष्टि और प्रलय का आदि अन्त होता रहता है।
कर्मानुसार-जन्म
ईश्वर ने किन्हीं जीवों को मनुष्य जन्म, किन्हीं को सिंहादि क्रूर जन्म, किन्हीं कोहिरण, गाय आदि पशु, किन्हीं को वृक्षादि तथा किन्हीं को कृमि-कीट-पतङ्ग आदि जन्म दिये हैं, इससे परमात्मा में पक्षपात नहीं आता, क्योंकि परमात्मा ने ये जन्म उन जीवों के पूर्व सृष्टि में किये कर्मों के अनुसार दिये हैं। यदि बिना कर्मों के जन्म देता तो पक्षपाती होता।
मनुष्य सृष्टि का आदि स्थान
मनुष्यों की आदि त्रिविष्टप अर्थात तिब्बत में हुई। आदि सृष्टि में एक ही मनुष्यजाति थी। कालान्तर में इनमें आर्य और दस्यु दो भेद हो गये। जो श्रेष्ठ थे वे आर्य, विद्वान् अथवा देव कहलाये और जो दुष्ट और मुर्ख थे वे दस्यु अर्थात् डाकू कहलाये।
जब आर्यों और दस्युओं में लडाई-झगडा रहने लगा तब आर्यलोग भारत भूमि को भूगोल में सर्वोत्तम जानकर यहाँ आ बसे। इसी से इस देश का नाम आर्यावर्त्त हुआ।
आर्यावर्त्त की सीमा
उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पूर्व और पश्चिम में समुद्र तथा सरस्वती, पश्चिम में अटक नदी, पूर्व में दृषद्वती=ब्रह्मपुत्रा तक जो फैला हुआ है, दूसरे शब्दों में हिमालय की मध्य रेखा से दक्षिण में रामेश्वरपर्यन्त विन्ध्याचल के भीतर जितने देश हैं उन सबको आर्यावर्त्त कहते हैं। आर्यों के आगमन से पूर्व इस देश में न तो और कोई लोग बसते थे और न इस देश का और कोई नाम था। आर्यलोग सृष्टि के आदि में कुछ काल पश्चात् तिब्बत से आकर इसी देश में बसे।
आर्य बाहर से नहीं आये
यह कहना कि आर्य लोग ईरान से यहाँ आये और यहाँ की जङ्गली जातियों कोल, भील, द्रविड आदि को मारकर यहाँ बस गये सर्वथा गप्प है। आर्यों से पहले यहाँ कोई नहीं रहता था यदि रहता था तो इस देश का नाम क्या था? इक्ष्वाकु से लेकर कौरव-पाण्डव तक भूगोल में सर्वथा आर्यों का राज्य और वेदों का प्रचार था।
स्वराज्य- महिमा
एक समय था जब समस्त भू मण्डल में आर्यों का चक्रवर्त्ती राज्य था, परन्तु अब अभाग्योदय से और आर्यों के आलस्य- प्रमाद तथा परस्पर के विरोध से अन्य देशों पर राज्य करने की कथा ही क्या, किन्तु आर्यावर्त्त में भी आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्यैस समय नहीं है। जो कुछ है वह भी विदेशियों से पादाक्रान्त हो रहा है। जब दुर्दिन आता है तब देशवासियों को अनेक प्रकार केदुःख भोगने पडते हैं। कोई कितना ही करे जो स्वदेशी राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मतमतान्तर के आग्रह रहित, अपने और पराये का पक्षपात शून्य, प्रजा पर पिता-माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ भी विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायी नहीं होता।
सृष्टि-उत्पत्ति का समय
इस सृष्टि को उत्पन्न हुए एक अरब छियानवे करोड, आठ लाख, तरेपन हज़ार वर्ष हो गये हैं। इतना ही समय वेद को उत्पन्न हुए हो गया है।
पृथिवी का धारण
इस पृथिवी का धारण कौन करता है? कोई कहता है कि पृथिवी सहस्त्र फनवाले साँप के सिर पर खडी है, कोई कहता है कि यह बैल के सींगों पर ठहरी हुई है। इसी प्रकार अन्य मतवादी भी भिन्न-भिन्न वस्तुओं पृथिवी का आधार मानते हैं, परन्तु ये सभी विचार भ्रामक एवं मिथ्या हैं। यदि पृथिवी साँप और बैल के उपर स्थित है तो साँप और बैल के जन्म से पूर्व यह किसपर ठहरी हुई थीऔर साँप तथा बैल किसपर ठहरे हुए हैं? जो लोग शेष के फन पर पृथिवी का स्थिर होना मानते हैं वे शेष के वास्तविक अर्थ को न जानकर भ्रम में पडे हैं। शेष का अर्थ है ‘बाकी’। परमात्मा उत्पत्ति और प्रलय से बाकी अर्थात् पृथक् रहता है, इसी से उसे शेष कहते हैं। उसी परमात्मा के आधार पर यह पृथिवी ठहरी हुई है। किसी कवि ने ‘शेषाधारा पृथिवी’ ऐसा कहा होगा कि पृथिवी शेष के आधार पर है। किसी ने भ्रमवश शेष का अर्थ सर्प कर दिया। ॠग्वेद में कहा है- ‘सत्येनोत्तभिता भूमिः’- जो त्रैकाल्याबाध्य, जिसका कभी नाश नहीं होता उस परमात्मा ने भूमि, आदित्य=सूर्य और सब लोकों को धारण किया हुआ है।
शेष की भाँति किसी ने ‘अनड्वान् दाधार पृथिवीमुत द्याम्’- इस मन्त्र में अनड्वान् को बैल समझकर पृथिवी को बैलों के सींग पर स्थित मान लिया। यहाँ अनड्वान् का अर्थ परमात्मा ही है, क्योंकि वे ही संसाररूपी गाडी को खेंचते हैं। वस्तुतः ‘स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमाम्’ वह परमात्मा ही इस द्युलोक, अन्तरिक्ष और पृथिवीलोक को धारण कर रहे हैं।
पृथिवी आदि लोकों का भ्रमण
ये पृथिवी आदि सभी लोक स्थिर न होकर गति में हैं। वेद में कहा है-
आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन् मातरं पुरः। पितरं च प्रयन्त्स्वः॥ -यजुः-3।6
जल सहित यह पृथिवी सूर्य के चारों ओर घूमती है। सूर्य पृथिवी के चारों ओर नहीं घूमता अपितु अपनी परिधि में घूमता है। यदि सूर्य अपनी परिधि में न घूमता तो एक राशि से दूसरी राशि में गति न करता।
सूर्य प्रकाशक और चद्रमा आदि प्रकाश्य हैं
एक ब्रह्माण्ड में एक सूर्य प्रकाशक और दूसरे सब लोक-लोकान्तर प्रकाश्य हैं। वेद में कहा है- ‘दिवि सोमो अधिश्रितः’- जैसे चन्द्रलोक सूर्य से प्रकाशित होता है वैसे ही पृथिव्यादि लोक भी सूर्य के प्रकाश से ही प्रकाशित होते हैं।
चन्द्र और तारा आदि में मनुष्य सृष्टि और वैदिक ज्ञान
पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्र, नक्षत्र और सूर्य- इनका नाम वसु है, क्योंकि इन्हीं में सब पदार्थ और प्रजा बसती है और ये ही सबको बसाते हैं- ऐतेषु हीद\ सर्वं वसु हितमेते हीद\ सर्वं वासयन्ते। जब पृथिवी के समान सूर्य, चन्द्र, और नक्षत्र वसु हैं तब उनमें इस प्रकार की प्रजा होने में क्या सन्देह? इन सबलोक-लोकान्तरों में आकृति का थोडा-बहुत भेद सम्भव है, परन्तु जिस जाति की जैसी सृष्टि इस देश में है उस जाति की वैसी ही सृष्टि अन्य लोकों में भी है। जिन वेदों का प्रकाश इस लोक में है उन्हीं वेदों का प्रकाश अन्य लोकों में भी है। जैसे एक राजा की राज्य-व्यवस्था, नीति सब देशों में समान होती है, उसी प्रकार राजराजेश्वर परमात्मा की वेदोक्त नीति अपने-अपने सृष्टिरूप सब राज्यों में एक सी है।
आदि के पूर्व में जब मात्र “परमतत्त्वम् आत्मतत्त्वम् रूप शब्द ब्रह्म ही थे। उन्हे संकल्प उत्पन्न हुआ कि कुछ हो। चूँकि वे सत्ता सामर्थ्य से युक्त थे और उनके कार्य करने का माध्यम संकल्प ही है। इसलिए कुछ हो संकल्प करते ही उन्ही शब्द ब्रह्म का अंग रूप शब्द शक्ति अदृश्य उर्जा सः (आत्मा) छिटककर अलग हो गयी,जो संकल्प रूपा आदि शक्ति अथवा मूल प्रकृति कहलायी। तत्त्व ज्ञान शब्द ब्रह्म के निर्देशन में (सः आत्मा) रूप शब्द शुन्य उर्जा शक्ति को सृष्टि उत्पत्ति सम्बन्धी कार्य भार मिला अर्थात् सृष्टि (ब्रह्माण्ड) के सम्बन्ध में निर्देशन, आज्ञा एवं आदेश परमतत्त्वम् आत्मतत्त्वम् रूप शब्द ब्रह्म स्वयं अपने पास, उत्पत्ति संचालन और संहार से सम्बंधित क्रिया-कलाप (सः) आत्मा रूप शब्द शक्ति के पास सौंपा परन्तु स्वयं को इन क्रिया कलापों से परे रखा।”
शब्द शक्ति रूप आदि-शक्ति ही मूल प्रकृति भी कहलायी, क्योंकि प्रकृति की उत्पत्ति इसी आदिशक्ति रूप में हुई इसलिए यह मूल प्रकृति भी कहलायी। पुनः आदिशक्ति ने शब्द उर्जा अदृश्य ब्रह्म के निर्देशन एवं सत्ता-सामर्थ्य के अधीन कार्य प्रारम्भ किया। इन्हे कार्य के निष्पादन हेतु इच्छा शक्ति मिला। तत्पश्चात् आदिशक्ति ने सृष्टि उत्पत्ति की इच्छा की तो इच्छा करते ही शब्द शक्ति रूपा आदिशक्ति का तेज दो प्रकार की ज्योतियों में विभाजित हो पहला भोग प्रकृती दूसरा भोक्ता जीवात्मा हो गये, जिसमें पहली ज्योति तो आत्मा ज्योति अथवा दिव्य ज्योति कहलायी तथा दूसरी ज्योति मात्र ज्योति ही कहलायी अर्थात् पहली ज्योति आत्मा जो चेतनता से युक्त है तथा दूसरी ज्योति शक्ति कहलायी इसी से प्राकृति पदार्थ की उत्पत्ति हुई।
ब्रह्माण्ड की उत्तपत्ति के विषय में वेदों में ऋग्वेद कहता है की सर्व प्रथम कुछ भी नहीं था यहां तक आकाश भी नहीं था केवल परमेश्वर था जो अपनी अद्वितिय अद्भुत सामर्थ से शांसे ले रहा था । सर्व प्रथम उसमें इच्क्षा उत्तपन्न हुई की वह विश्व ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हों, ऐसी इच्छा परमेश्वर के हृदय में आते ही शब्द रूप ब्रह्म प्रकट हुआ उसके साथ हि भोग और भेक्ता भी शब्द रूप शुन्य उर्जाये प्रकट हुई अदृश्य जगत से दृश्य जगत में, जिससे एक अद्भुत अलौकिक अकल्पनिय अचानक अग्निपिण्ड प्रकट होगया भोग रूप प्रकृति और दूसरा उसका भोग करे वाला जीव उसमें प्रवेश करके उसका विस्तार करने लगा। और उसमें निरंन्तर बिस्फोट होने लगा जिसमें अनन्त ब्रह्ममाण्ड, जिसमें से सबसे छोटा ब्रह्माण्ड हमारा है। उसमें भी सबसे छोटी आकाश गंगा हमारी है। उसमें एक किनारें पर हमारा सूर्य अपने सौर्यमंडल उपस्थित है। जो आकाश गंगा के केन्द्र का अपने सम्पूर्ण ग्रहों के साथ चक्कर लगा रहा है। अनन्त आकाश गंगायें, अनन्त सौर्य मंडल के साथ बहुत सारे सूर्य पैदा हो गये छोटे सुर्य हमारे सौर्य मंडल का उत्पन्न हुआ और इसमें भी विस्फोट हुआ जिससे सभी ग्रह उत्तपन्न हुये जिसमें से ही एक हमारी पृथिवी भी है। हमारी पृथिवी लग- चार अरब वर्ष पुरानी हो चुकी है।
जैसा की पृथवी हमें आज दिखाई देती है वह प्रारम्भ में ऐसा बिल्कुल नहीं थी। यह अपने प्रारम्भीक काल में, सूर्य से निकलने के कारण सूर्य के समान भयंकर ज्वलनशील गैसों का अग्निपिण्ड थी । इसको ठंडा किया गया लगातार अरबों सालों तक बारीष के कारण से, उसके बाद एक बीशाल धुम केतु आकर अंतरीक्ष से हमारी पृथवी से टकरा गया, जिसकी वजह से पृथवी दो टुकड़ों में बिभक्त हो गई, और उसके बाद एक छोटा टुकड़ा जिसे हम चंद्रमा कहते वह पृथवी से तीन लाख चौरासी हजार किलोमिटर दूर होकर पृथ्वी का चक्कर लगाने लगा। जैसा की पृथवी सूर्य का चक्कर लगाती है । सुर्य आकाशगंगा के केन्द्र का चक्कर लगाता है। आकाशगंगायें ब्रह्माण्ड के केन्द्र का चक्कर लगाती है । और यह सारें ब्रह्माण्ड परमेंश्वर जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों का केन्द्र है अदृश्य केन्द्र बिन्दु ध्वनी रूप शब्द ब्रह्म का चक्कर लगाते है अस्तु। इस ब्रह्माण्ड में तीन प्रकार के मुख्य कार्य हो रहे है पहला कार्य ईश्वर द्रष्टा स्वरूप साक्षी बन कर निष्पक्ष हो कर सभी प्रकार के कृत्यों को देख रहा है। जो भोक्ता रूप जीव जिसे आत्मा कहते वह प्रकृती रूप भोग सामग्री का हर प्रकार से उपभोग कर रहा है। दूसरा कार्य जीव नये - नये रूपों में स्वयं को निरंतर बिभक्त कर रहा है। प्रकृती के पदार्थों के आवरण के अन्दर व्यवस्थित होकर । जिसमें से एक सबसे श्रेष्ठ अद्भुत रूप मानव शरीर के रूप में भी विद्यमान है। तीसरा कार्य प्रकृती स्वयं निष्पक्ष भाव से जीव का हर प्रकार से रक्षात्मक सहोग कवच की भाती बन कर कर रही है।
जब पृथवी के दो टुकड़े हो गये उसके बाद पृथवी पर बहुत सालों तक सूर्य का प्रकाश पृथवी की सतह तक नहीं आसका क्योंकि धुमकेतु के टकराने से इतना भयानक बिस्फोट हुआ जिसकी कल्पना हम नही कर सकते है। चन्द्रमा पृथवी के जिस हिस्से से अलग हुआ वहां पृथवी में बहुत बड़ा गड्ढा बन गया जो करीब बारह किलोमिटर गहरा था। जिसमें पानी जो अन्तरीक्ष से बरसता है धिरे -धिरे अपने मिट्टी के कड़ों को बहा ले जा कर उसमें जमा एकत्रीत होने लगा। जो सबसे गहरा महा सागर प्रशान्त के रूप में आज पृथवी पर विद्यमान है। क्योंकि चन्द्रमा के उपर का जो पर्वत है वह ठीक उतना ही उचां है जितना गहरा प्रशान्त महासागर है। अर्थात पृथवी का वही का टुकड़ा चांद है जहां पर आज प्रशान्त महासागर के रूप में उपस्थीत है।
जब पृथवी से चंद्रमा अलग हुआ जिसकी वजह से धुल - धुसर का बवन्डर गुबार पृथवी के वायुमंल में दसों दिशाओं से छा गये, और पृथवी का सतह बहुत तिब्रता से ठंडा होने लगा। जिस प्रकार से एक वाल्टी में बहुत सारे पदार्थों के कुछ बहुत हल्के कचरें को पानी में घोल कर कुछ समय के लिये किसी ठंडे स्थान पर रख दे तो जो कचरा का भारी हिस्सा होगा वह तलहटी में जम जायेगा। और जो हल्का होगा वह सबसे उपर पानी में तैरने लगेगा, ठीक इसी प्रकार से पृथवी के साथ भी हुआ। एक प्रकार से पृथवी जैसे किसी लिफाफे में बन्द हो गई। और लाखों वर्षों तक सुर्य के प्रकाश से दूर रही। पृथवी में उपस्थित बिभिन्न प्रकार की गैसे पानी को पाकर अपने को वास्पित करके पृथवी की सतह से उपर उठने लगी । जो गैस ज्यादा द्रव्यमान वाली थी वह निचे रही, और जो बहुत अधिक हल्की थी वह पृथवी की सतह से बहुत उपर उठकर अपने चर्मोत्कर्ष पर जाकर जमने लगी। जैसे ओजोन की परत है। जिसके कारण सूर्य की बैगनी खतरनाक किरणें पृथवी की सतह पर नही आ पाती है। वह ओजन की परत से टकरा कर जिस प्रकार सीसा किसी सूर्य के प्रकाश की किरोणों वापिस उसी दिशा में भेज देता है, ठीक इसी प्रकार से यह पारदर्शी ओजोन की परत है। जो पृथ्वी के लिये वह अवस्था पैदा करती है। जिससे कोई जीव यहां पर जीवित रह सके, एक प्रकार से यह ओजोन पर जीवन के लिए पृथवी पर किसी प्राणी के लिये सुरछा कवच का कार्य करती है। ओजोन की परत आक्सिजन के दो कणों से मिल कर बनी है। पानी में आक्सिजन का केवल एक अणु है, जो दो अणु हाइड्रोजन का लेकर पानी का एक परमाणु बनाता है। यह ओजोन कि परत बनने के बाद जो पानी अन्तरिक्ष से सिधा पृथवी की सतह पर आकर बरषता था । वह भी बन्द होगया, क्योंकि इस परत के कारण पानी के कणों में विद्यमान आक्सिजन ओजोन के कणों के साथ मिलक रासायनिक अभीक्रिया कर के ओजोन की परत को और सक्त बनाने लगा, जिसके कारण अतंरीक्ष के पानी का दूसरा कण हाइड्रोज ओजोन की परत से दूर सूर्य कि कीरणों के साथ मिल कर वापिस अतंरीक्ष में जाने लगा। इस प्रकार से पृथवी पर जो वारीष हुई थी, पहले वह विद्यमान पानी जब पुनः सुर्य प्रकाश का ताप पृथवी की सतह पर आना प्रारम्भ हुई शुद्ध रूप में तो यह जीवन के लिये सहयोगी बना, और दूसरी तरफ पृथवी पर उपस्थित पानी वास्पित हो कर पृथवी के वायुमंडल में बादल के रूप में एकत्रीत होने लगा और समय - समय पर जैसे पृथ्वी जब सूर्य के करीब से गुजरती तब यह बादल पानी की बुदों के रुप में बरषने लगे, इस प्रकार से पृथवी पर ऋतुए मौसम का प्रारम्भ हो गया। सर्दि, गर्मी, बरसात, बसन्त पतझण इत्यादी।
अभी भी पृथवी काफि गरम थी फर्क सिर्फ यह आया था की लाखों करोंणों सालों तक बारिष हुई, जब पृथवी से चन्द्रमा अलग नहीं हुआ था । वारिष का पृथवी पर यह असर पड़ा की पृथवी के सम्पर्क में आने से पहले ही पानी की बुदें वास्प में परीवर्तन होती रही, यह प्रकृया लाखों सालों तक चलता रहा। यह वास्प जब पृथवी के सतह पर बहुत सघन हो गये तो स्टिम की एक मोटी परत पृथवी के सतह से कुछ किलोमिटर उपर तक बना लिया। इस वास्प स्टिम के कई किलोमिटर उपर ठिक उससे सट कर झाग फाग कोहरे बादलों का कई एक किलोमिटर मोटाई में चारों तरफ लेयर की परत बन गई। ठीक इसके उपर बर्फ की मोटि परत कई एक किलोमिटर मोटी पर बन गई। जिस प्रकार से पृथवी का उत्तरिय और दक्षिणी ध्रुव है जहां विसों किलोमिटर मोटाई में समन्दर के वर्फ की परत है। यहां फर्क यह है कि यह बर्फ की मोटी परत समन्दर के ठंडे पानी के उपर है । जबकि पहले जो पृथवी के चारों तरफ बर्फ की कई एक कीलोमिटर की जो परत थी वह फाग कोहरें, बादलों और स्टिम, भाप के उपर थी। उसके निचे पृथवी ज्वलन शिल भयंकर गैसों की पिंड थी। पृथवी के केन्द्र से सतह के विच में लग- भग तीस से चालिस किलोमिट अन्दर तक कुछ बिल्कुल तरल बिभिन्न प्रकार की गैसे उसके उपर ठोस और सबसे उपर सतह से कुछ किलो मिटर तक भयंकर गैसों की वास्प की परत थी। जब पृथवी से धुमकेतु टकराया उसके कारण स्वरूप पृथवी से चन्द्रमा अलग हुआ। और जब सूर्य कि कीरणों से पृथवी का सिधा सम्पर्क ना होने के कारण । क्योंकि पृथवी से धुमकेतु के टक्कर के बाद धुल -धुसर का बवन्डर कई एक सालों तक पृथवी के चारों तरफ फैला रहा । जिसके परिणाम स्वरूप ही पृथवी का वायुमंड बना और पृथवी पर मौसम ऋतुवों का अभिर्भाव हुआ। अब तक पृथवी पर पानी का बहुत बड़ा भंडार जमा हो चुका था। कई लाखों साल तक अंतरीक्ष से बारीष होने के कारण। जब पृथवी पर सूर्य का प्रकाश नही आरहा था। उससे पृथवी की सतह ठंडी होने के कारण सारा वास्प जो पृथवी के सतह के ठीक उपर जमा था। कई एक किलोमिट वह सब जम कर बर्फ का रूप धारण करने लगे। और पृथवी बहुत अधिक ठंडी होगई, कई किलोमिटर अन्दर तक सतह से बिल्कुल ठोस रूप होगई। इस तरह धुमकेतु से जब कई सौ सालों के बाद जब सब धुल - धुसर चन्द्रमा के पृथवी के अलग होने के कारण उठ रहे थे। सब शान्त और व्यवस्तित होगये। और उजोन की परत के कारण वायुमंडल बन गया पृथवी पर, सूर्य का प्रकाश शुद्ध रूप से बिना बैगनी किरणों के पृथवी की सतह तक पुनः आने लगे। तब उसके बाद सिर्फ बारीष चार महिनों तक होने लगी, चार महिने गर्मि और चार महीने सर्दी पड़ने लगी। जब बारीष होती तो वह पानी रूप तरल बन कर बर्फ के निचे बह कर हर तरफ से उस स्थान पर एकत्रीत होने लगा। जो बिशाल गड्ढा पृथवी चन्द्रमा के निकलने के कारण बना था। पानी के साथ बहुत सारे रसायन मिट्टि के कण भी बर्फ की परत के निचे उस गड्ढें में जाकर एकत्रीत होने लगे, लाखों सालों तक यह प्रक्रिया चलने के कारण उस गड्ढे में सबसे उपर बर्फ उसके निचे पानी तरल रूप में खारा कई किलोमिटर निचे पृथवी के समकछ सतह तक भर गया। जिसमें कोई लहर नहीं थी, ना ही उसमें कोई ज्वार भाटा ही आता था। क्योंकि सारा पानी बर्फ के निचे विद्यमान था। उस पानी के निचे जो पृथवी के चारों तरफ से काचड़ा बह कर जाता था। वह पानी के निचे एकत्रीत होने लगा। जो आगे चल कर लाखों सालों में पर्वत बन कर उभरा पृथवी कि सतह से उपर, इसके पिछे कारण है कि पृथ्वी दोनों ध्रुओं से बधी एक बिशाल चट्टान रूप है। जो फैल तो सकती नहीं, और पानी या बर्फ पृथवी की सतह से उपर जा नही सकेत क्योंकि पृथवी इतनी तीब्रता से घुम रही है पुरब से पश्चिम की तरफ इस तरह से एक बैक्युम बन गया है। जो पृथवी को फैलने से रोकता है। जो समन्दर के अन्दर पर्वत बनने का कारण बना। इस तरह से पृथवी पर उपस्थित समन्दर से हिमालय रूपी सर्वप्रथम पर्वत का जन्म हुआ जो समन्दर की सतह से आज लगभग नौ किलोमिटर उचां है। और आज भी वह बढ़ रहा है। जहां आज पृथवी पर हिमालय पर्वत है, कभी वहां बहुत लाखों करोड़ों साल पहले टेनिथ नामक समन्दर हुआ करता था। आज भी हिमालय पर बहुत बड़ी मात्रा में बर्फ के अतिरीक्त उसकी चोटियां नमक से ढकी है। जो यह सिद्ध करती है की यह हिमालय की चोटी पर समन्दर से आई है।
जैसा की ध्रूओं पर है ऐसा ही पृथवी के चारों तरफ बर्फ था । पहले जब हिमालय नहीं था ना ही कोई समन्दर ही था। जो अभी पृथवी के वायुमंडल गरम होने के कारण बहुत तिब्रता से ध्रुओं की बर्फ गल कर समन्दर के पानी में मिल कर समन्दर की सतह को उचां कर रहा ऐसा ही चलता रहा तो कुछ एक सौ सालों के अन्दर ही समन्दर के किनारे जो बड़े - बडे़ देश बशायें गयें है। वह सब समन्दर में डुब जायेगें। ऐसा पहले भी हो चुका है। समन्दर में महाभारत कालिन कृष्ण की द्वारीका नगरी जो अहमदा के पास थी वह समन्दर में समा गई है । समन्दर के एक या दो किलोमिटर अन्दर आज भी कृष्ण की नगरी द्वारीका का अवषेश विद्यमान है।
हिमालय के पैदा होने के बाद कई लाख सालों में सुक्ष्म जीव बैक्टेरीया आक्सिजन के कारण सर्व प्रथम पृथवी पर जो उत्तपन्न हुये। वह सर्व प्रथम देव युग प्रारम्भ हुआ। जो कुल ३३ देवता है १२ आदित्य, अर्थात बारह साल के महिने क्रमशः चैत्र, वैषाख, जेठ, अषाढ़, सावन, भाद्र, क्वार, कार्तिक, अगहन, पौष, मांघ, फालिगुन, ११ रुद्र अर्थात पांच मुख्य पांच उप प्राण, मन और दो अश्वनी कुमार अर्थात दो प्रकार की विद्युत किरणें मित्रा, वरुणा जिसको एसी, और डीसि के रूप में जानते है। यह युग १.५ अरब सालों तक निरंतर चलता रहा। इसे बाद बनस्पती युग का प्रारम्भ हुआ, यह पृथवी पर आक्सिजन से बैक्टेरीया और उससे बनस्पतीयों के युग की शुरुआत थी । जो १.५ अरब सालों तक रहां इके उपरांत मनुष्य युग का उदय इस पृथ्व पर हुआ। जैसा की हमें ज्ञान प्राप्त होता है की मनुष्य इस पृथ्वी पर आने से पहले मंगल ग्रह पर रहता था। वहां जब मंगल ग्रह की संस्कृती सभ्यता विकास के चर्मोत्कर्ष को छु लिया । जब वहां सब कुछ नष्ट होने के कगार पर पहुंच गया था। तो वह यहां पर आने के लिये उद्दत था। मंगल ग्रह के जीवन के बारें मे यजुर्वेद के १६अध्याय के ६ मंत्र में कुछ संकेत मिलते है । इससे संबधित। मंत्र इस प्रकार से है।
ओ३म् असौ यस्ताम्रोऽअरुणऽउत बभ्रुः सुमंगलः। ये चैनं रुद्राऽअभितो दिक्षु श्रिताः सहस्रशोऽवैषां हेडऽईमहे।।
मंत्र का सरलतम् भाव कुछ इस तरह से है जैसा की मंत्रों में तिन प्रकार का ज्ञान है भौतिक, दैविक, आध्यात्मिक । यहां हम भौतिक अर्थ को समझते है। यह जो सुन्दर मंगल ग्रह है जो बहुत मजबुत सुनहरे हल्के पिले रंग की दृढ़ चट्टानों से बना है जिस पर सूर्य का तेजोमय किरणें ताम्रवत देदिप्यमान प्रकाश के साथ इसकी सतह से टकरा कर इसको और जीवन्त जाज्वल्यमान कर देती हैै। जैसे तांबें पर सोने की परत चढ़ा दि गई हो। यह अती सुन्दर मंगलग्रह हर प्रकार के जीव जन्तु प्राणियों से आप्लावित प्रल्वित पुस्पित सुगंधित हो रहा है। इस पर रहने वाले जो बहुत पहले से श्रेष्ठ और निकृष्ट मानव जाती है। जिसमें वह लोग जो अत्यधिक निकृष्ट दुष्ट है जो दुष्टाचरण में ही हमेश तल्लीन रहते है जिनकी संख्या लाखों में है। इनको नियंत्रित यथा योग्य दण्डित करने वाला यहां का रुद्र के समान इन्हे रुलाने कष्ट देने वाला राजा इनको मानवता के बिपरीत।आचरण करने वालों को अपने युवा विर सैनिको को एकत्रीत करके इनको पकड़े और अपने सैन्य चक्रव्युह में जकड़ कर निरंतर पिड़ीत करती रहे जिससे यह सुमार्ग के पथिक बने, और इसके बिरुद्धाचरण करने की इच्छा हम सब श्रेष्ठ पुरुष कभी ना करें।
मंत्रों में राकेट सपैसक्राफ्ट, जो मन की गती सूर्य की किरणो की गती के समान चलने वाले विमान की भी कुछ चर्चायें विद्यमान है। मोबाईल, कम्प्युटर, रीबोट, सैटेलाइट बाइनरी कोड के लिये भी मंत्र है।
जैसे यह मंत्र कहता है की मन की गति से चलने वाले वायुयान, विमान, स्पैसक्राफ्ट का प्रयोग किया गया मंगल ग्रह से पृथ्वि के हिमालय पर उसके उपर श्रृंग पर आने के लिये।
ओ३म् हिरण्यशृंङ्गोऽयोअस्य पादा मनोजवाअवरऽइन्द्रआसित्। देवाऽइदस्य हविरद्यमायन्येऽअर्वन्तं प्रथमोऽअख्यतिष्ठित।। यजुर्वेद २९,२०
स्वर्णमय तेज युक्त सौर्य उर्जा से चलने, वाले भीमकाय सपैसक्राफ्ट जीनका उपयोग पैरों के अस्थान पर करके अंतरिक्षयात्रा के योग्य जिस प्रकार शरीर में मन इन्द्रियों का उपयोग करके शरीर के अन्दर बैठे आत्मा का भ्रमण एक स्थान से दूसरे अस्थान पर अपने ज्ञान और अनुभव से पहुंचाता और कराता है। ठीक इसी प्रकार से यह विमान मानव को अपने अन्दर वैठा कर यात्रा कराने योग्य हो। जिस प्रकार से सूर्य की रश्मियां घोड़े के समान एक अस्थान से दूसरे अस्थान पर शिघ्र पहुंच जाती है उसी प्रकार यह पहुंचने वाला हो। यह विमान अग्नि, वायु, जल से चलने वाला हो।
विजली के समान गतीवाला जो स्वर्ण से निर्मित इसके पंख मन के समानवेग वाले हो इसके उपर अर्थात एक राकेट के उपर दूसरा यान व्यवस्थित हो विद्वता के साथ उसको संचालित किया जाये अर्था कम्प्युटर से कंट्रोल किया जाने वाला जिस पर सैटेलाइट से हमेशा निगरानी किया जा सके । जिसके अन्दर रहने खाने सोने अर्थात हर प्रकार की जीवनोपयोगी वस्तु उसमें विद्यमान हो वह मानव के लिये लम्बि यात्रा में आरामदायक हो इसमें वायु, अग्नी जल की उपयोग की व्यवस्था भी हो। ऐसे यानो को मानव प्राप्त करके बना कर उसमें स्थित बैठ कर सबसे पहले पहुंचा। ऐसा तुमलोग भी जानो।
और अच्छि तरह से समझने के लिये पौराणिक आख्यान को देखते है।
हिन्दू पुराणों के अनुसार इस संसार में चार युग सतयुग , त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलयुग हुए | हर युग को भगवान ब्रह्मा का एक दिन माना जाता है और भगवान ब्रह्मा का एक दिन लगभग 4 अरब वर्ष होता है |हर युग के अंत में भगवान ब्रह्मा सो जाते है | भगवान ब्रह्मा की शक्तियों का सृजन वेदों में बताया गया है | जब भगवान ब्रह्मा सो जाते है तो कोई सृजन नही होता है और दुनिया का अंत हो जाता है | भगवान विष्णु को सरंक्षण का भगवान माना जाता है और जब दुनिया खतरे में होती है तो बुरी शक्तियों से संसार को बचाने के लिए पृथ्वी पर अवतार लेते है | भगवान विष्णु के दस अवतार है और भगवान विष्णु का प्रथम अवतार मतस्य अवतार है | आइये आपको मतस्य अवतार की कहानी बताते है |
सतयुग में मनु नाम का एक राजा था जो भगवान विष्णु का परम भक्त था | उसकी भगवान विष्णु को अपने आखों से देखने की प्रबल इच्छा थी जिसके लिए उसने हजारो वर्ष तक गंभीर तपस्या की थी | सतयुग खत्म होने की कगार पर था और एक भीषण बाढ़ इस पृथ्वी पर सभी जीवो का विनाश कर नये युग में प्रवेश करने वाली थी |भगवान ब्रह्मा एक दिन का सृजन कर थक गये थे इसलिए वो सोना चाहते थे|
जब ब्रह्मा सो रहे थे तब असुर हयग्रीव भगवान ब्रह्मा की नाक से प्रकट हुआ | असुर हयग्रीव ने सोचा कि भगवान ब्रह्मा सो रहे है और वेदों का ज्ञान लेने का सही समय है | हयग्रीव ने अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए वेदों का सारा ज्ञान पी लिया और ये सोचकर समुद्र के गहराई में छिप गया कि कोई उसे वहा पर खोज नही पायेगा | भगवान विष्णु को जब इस बात का पता चला तो वो बहुत चिंतित हो गये कि अगर वेदों को असुर ने चुरा लिया और वेद अब अगले युग में नही जा पायेंगे | रक्षक होने के नाते वेदों का ज्ञान अगले युग मे पहुचाना भगवान विष्णु का दायित्व था |
भगवान विष्णु ने विचार करते हुए मनु को तपस्या में लींन देखा | भगवान विष्णु ने एहसास किया कि ये व्यक्ति ही वेदों को अब बचा सकता है | अगली सुबह मनु प्रार्थना शुरू करने के लिए नदी के निकट गये | उन्होंने जल को अपने दोनों हाथो में लिया और भगवान विष्णु की प्रार्थना करते हुए जल को भगवान को समर्पित कर दिया | जैसे ही वो पानी नदी में चढ़ाने वाले थे तभी उसको अपने हाथो से आवाज आयी “हे महान राजा , मुझे पुनः नदी में मत प्रवाहित करो ” | मनु अपने हाथो की तरफ देखने लग गये और उन्होंने अपने हाथो में एक छोटी मछली को देखा |
मछली मनु की तरफ देखकर प्रार्थना करने लगी “मुझे पुनः पानी में मत प्रवाहित करो , इस पानी में कई बड़ी मछलिया है जो मुझको निगल जायेगी ” | मनु ने दयाभाव से उस मछली की ओर देखा | एक राजा होने के नाते उसके पास मदद के लिए आने वाले हर जीव की हिफाजत करना उसका कर्तव्य था | राजा मछली की बात से सहमत होते हुए उसे अपने कमंडल में डाल दिया | मनु ने अपनी तपस्या खत्म की ओर रात्रि विश्राम के लिए घर चले गये | मनु ने मछली को कमंडल में ही रखा ताकि वो सुरक्षित रहे |
अगली सुबह जब वो जागा तो उसे तेज आवाज आयी “हे राजा …. मेरी मदद करो … तुम्हारे कमंडल में मेरा दम घूंट रहा है और मै सांस नही ले पा रही हु ” | मनु ने आश्चर्य से कमंडल में देखा कि वो छोटी मछली इतनी बड़ी हो गयी कि उसका मुह कमंडल के शीर्ष तक आ गया था और वो उस कमंडल में ठीक से समा नही रही थी | मनु ये देखते ही दौड़ता हुआ घर में जाकर एक बड़ा पात्र लेकर आया उअर मछली को उसमे डाल दिया | मछली ने राहत की साँस ली और मनु को धन्यवाद किया |
मनु मुस्कुराता हुआ अब अपनी प्रात: काल की प्रार्थना के लिए रवाना होने वाला था तभी उसे पहले से तेज आवाज आयी “राजा ये पात्र भी मेरे लिए छोटा पड़ गया है मुझे किसी ओर पात्र में स्थान दो ” | मनु उदास होते हुए मछली की ओर देखने लगा कि उसने अभी कुछ समय पहले ही उसे एक बड़े पात्र में डाला था ये अभी इतनी बड़ी कैसे हो गयी | मनु ने अपने घर से ओर बड़ा पात्र लेकर आ गये और मछली को उसमे डाल दिया | मछली ने राजा को फिर धन्यवाद दिया और जैसे ही वो प्रार्थना के लिए अपने घर के द्वार तक पंहुचा फिर से आवाज आयी “मुझे माफ़ करना ये पात्र भी मेरे लिए पर्याप्त नहीं है ” |
मनु को अपनी आँखों पर विश्वास नही हुआ कि उस पात्र में मछली का आकर इतना विशाल कैसे हो गया | हालांकि उसने सोचा कि ये वक़्त प्रश्न करने का नही है वो उस मछली को लेकर दौड़ता हुआ नदी के समीप ले गये जहा पर उसे वो मिली थी और उस मछली को उस नदी में डाल दिया | मछली ने अब राहत की सांस ली और फिर राजा को धन्यवाद किया और कहा “हे महान राजा तुमने मेरी रक्षा की है इसलिए मुझे तुम यहा अकेला छोडकर मत जाओ , मुझे डर है कि बड़ी मछलिया मुझे निगल ना जाए ”
मनु ने उसको संदेह भरी निगाहों से देखा लेकिन एक राजा होने के नाते उसको किसी भी जीव की रक्षा करना उसका कर्तव्य था | वो मछली की ओर देख रहा था तभी उसने देखा कि मछली तो ओर भी बड़ी होती जा रही थी और उसने अब पुरी नदी को ढक लिया | फिर से मछली ने वही राग अलापा | मनु उसको एक नदी से दुसरी नदी में ले जाते रही लेकिन हर बार उसका आकार बढ़ता जा रहा था | अंत में उसने मछली को समुद्र में छोड़ दिया | तभी उसकी आँखे फटी की फटी रह गयी कि मछली ने अपना आकार बढ़ाते हुए समुद्र को एक तरफ से पूरा ढक दिया था |
इस विशाल मछली को देखते वक़्त मनु के सामने एक प्रकाश आया | मनु अब उस मछली के आगे झुकते हुए बोला “नारायण …..आप नारायण हो ….मेरे भगवान ” | मछली ने हँसते हुए कहा “तुम मुझे देखना चाहते थे और मै आ गया ” | मनु की आँखों में आंसू आ गये और तभी उस मछली के सिर पर एक विशाल सींग उग गया |
मनु ने मछली के आगे साष्टांग प्रणाम करते ही कहा “मेरे भगवान , आपने मेरी एकमात्र इच्छा पुरी कर दी, अब मुझे कुछ नही चाहिए , अब आप मुझसे क्या चाहते है ? ”
मछली के रूप में नारायण ने उत्तर दिया “मनु , युग सात दिनों बाद समाप्त होने वाला है , एक भीषण बाढ़ आयेगी और इस संसार के सारे जीव नष्ट हो जायेंगे , मै चाहता हु कि तुम एक बड़ी नौका बनाओ : सभी पौधों के बीज , सभी प्राणियों के नर और मादा और सात ऋषियों को अपने परिवार के साथ उस नौका पर लेकर जाओ ” |
मनु ने सिर हिलाया और फिर से मछली ने अपनी बात जारी रखी “नागो के देवता , वासुकी को साथ ले जाना मत भूलना” | मनु ने फिर सिर हिलाया और वो मछली समुद्र के दुसरी ओर चली गयी |
मछली ने अपना आधा काम समाप्त करदिया था और समुद्र के दुसरी ओर अपने अवतार का उद्देश्य पूरा करने के लिए चली गयी | समुद्र के दुसरी तरफ मछली ने देखा कि हयग्रीव वेदों की रक्षा कर रहा था | इस विशाल मछली को देखकर वो डर गया | वो कुछ सोच पाता उससे पहले मछली ने उस पर प्रहार करदिया | वो मछली इतनी विशाल थी कि एक प्रहार ने असुर को चपेट में ले लिया | फिर भी घबड़ाया हुआ हयग्रीव मछली से लड़ने का प्रयास करता रहा लेकिन मछली बहुत बड़ी और शक्तिशाली थी | कुछ देर संघर्ष करने के बाद असुर की मृत्यु हो गयी |जैसे ही असुर मर गया उस मछली ने वेदों को पी लिया और ब्रह्मा के पास गयी जो अभी भी सो रहे थे |
उधर दुसरी तरफ मनु ने नौका तैयार कर दी थी | वो सात ऋषियों के साथ उनके परिवार को भी लेकर आ गया था | अचानक वहा पर मूसलाधार बारिश शुर हो गयी और पानी का स्तर बढ़ने लगा | कुछ समय बाद बाढ़ आ गयी | नौका डगमगाने लगी और कई बार उलटने वाली थी लेकिन मनु और अन्य सभी दृढ़ थे कि भगवान विष्णु उनकी रक्षा करेंगे | तभी वादे के अनुसार मछली वहा पर आ गयी और कहा “मनु , वासुकि नाग का रस्सी की तरह उपयोग कर मेरे सींगो से नौका को बांध दो “|
एक बार जब नौका को मछली से बाँधा तो मछली ने नौका को समुद्र में मार्ग दिखाया और तूफ़ान के वक़्त नौका को सुरक्षित रखा | मछली ने अब यात्रा के दौरान वेदों का ज्ञान मनु और दुसरे प्राणियों को सिखाये | जैसे ही तूफ़ान समाप्त हुआ सब कुछ पृथ्वी पर तबाह हो चूका था |मछली ने नौका को हिमवन पर्वत पर छोड़ दिया और वहा से नौका पर सवार प्राणियों ने नये युग का आरम्भ किया |
यह कहानी बहुत पुरानी है इसमें बहुत फेर बदल कर दिया गया है जिससे यथार्थ लग-भग लुप्त हो चुका है। यह कहानी मत्स्य अवतार की एक बहुत अद्भुत दृष्टांत है। मुल बात इसमें यह है कि जब श्रृष्टि का उदय मंगल ग्रह पर हुआ ब्रह्मा, विष्णु, महेश अर्थात इश्वर, जीव, प्रकृती के द्वारा बहुत समय तक सब कुछ ठीक- ठाक चल रहा था । जब वहां सब कुछ तबाह होने वाले था उसके पहले उन्हें ईश्वरी प्रेरणा से यह ज्ञान हुआ की यह श्रृष्ट इस ग्रह की नष्ट होने वाली है। इससे बचने के लिये उन्होंने अपने ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान का उपयोग करके विमान बनाया पहले छोटा, फिर उससे बड़ा यहां मछली का मतलब विमान से है और सागर का मतलब अंतरिक्ष से है। जब वहां मंगल ग्रह पर तबाही मच गई तो वहां एक बडे़े राकेट के समान यंत्र जो अंतरीक्ष को वहुत जल्दी नाप देता है अर्थात एक ग्रह से दूसरे ग्रह पर पहुंच जाता है। उसे बनाया और उसके उपर एक दुसरा विमान जिसमें सारी सुबिधा के काफी सामान और व्यक्तियों के साथ बैठ कर मनु पृथवी के हिम सिखर पर आये और यहां सर्व प्रथम एक विशाल लैब का निर्माण किया क्योंकि पहले केवल हिमालय का कुछ भाग ही समन्दर से बाहर निकला था । बाकी जमिन बहुत समय के बाद थोड़ा-थोड़ा करके पानी से बाहर निकली, सर्व प्रथम एक विशाल द्विप था, बाद में एक, विशाल द्विप कई छोटे- बड़े द्विप बन गये। जिसमें सबसे बड़ा एसिया महाद्विप जिस पर हिमालय और भारत स्थित।है। उस समय हिमालय के शिखर पर आक्सिजन नहीं था, आज भी नहीं इस तरह से वे सब लैब में सर्व प्रथम रहे। यहां पृथ्वी पर जो आगे चल कर स्वर्ग के रुप में विकसीत हुआ। मन से मनु बने और मनु से यह मनुष्य बना जो आदिमका प्रथम प्रवर्तक हुये।
मंत्रों में बाईनरी कोड के भी कुछ संकेत मिलते है।
ओ३म् उद्वयं तमसस्परि स्वः पश्यन्त उत्तरम्। देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम्।।
अर्थात जो स्वयं देख कर समझने का सामर्थ रखता है जिसे हम कृतिम वुद्धि कहते है जो तर्क करता, अंक गणित, आदि समझता है जिसका उदय और अंत ही मुख्य प्रतिक है ०१ जीरों मतलब आफ एक मतलब आन जिसे बाईनरी कोड का उपयोग कम्प्युटर प्रोग्राम साफ्टवेयर बनाने में उपयोग होता है। इससे यह सिद्ध होता है की मानव के पास पहले मोबाईल, कम्प्युटर आदि यंत्र बहुत विकसित अवस्था में थे।
अमैथुन श्रृष्टी का दो मतलब यह है कि जिसमें स्त्री पुरुष के अंडाणु और शुक्राणु को लेकर उनको भ्रुण बनने तक परख नली में रखा जाता है पुनः उस भ्रुण युग्मनज को मां या स्त्री के गर्भ में सिंचित कर दिया जाता है। इसे पैदा होने वाल शीशु को परखनली बच्चा कहते है। निसेचन दो प्रकार का होता है। एक आंतरिक निसेचन जो कि मां के गर्भ में होता है। दूसरा बाहरी निसेचन जो बाहर होता है जैसे मेढक या मछली का।
मनुष्य वह है जो चिन्तन, मनन, विचार और सत्य का निर्णय करने में सक्षम हो, जिसके पास यह सामर्थ नहीं है। वह मानव कहलाने के योग्य नहीं है। हम प्रायः दूसरे को बदलना चाहते है, दूसरे को सुन्दर समझते है, दूसरे से प्रेम करते है । दूसरे जैसा बनना चाहते है। हर वस्तु को अपने इच्छा, राग, द्वेश से देखते है। यहां तक हम स्वयं को भी पूर्णतः नही स्विकारते है। हमेशा हम दूसरे का ही अनुसरण करते है। क्योंकि यह तरीका बहुत परिश्रम से तैयार किया गया है, जो मानव और मानवता के शत्रु सदा से है, जैसे बिल्ली चुहे की शत्रु के रुप में इस जगत में विद्यमान है। इन तरीको के माध्यम से ही निरंतर मानव का शोषण अबाध रूप से भरपुर करने में सफलता निरंतर मिलती रही है। आज दुनिया एक अजायब घर या यातना गृह बन कर रह गई है, इसको बनाने वाला कोई और नहीं वही लोग है, जो दूसरे जैसा बनने में लगे है। जबकी यह हम नही जानते की हम कौन है? जब हम स्वयं को जान जायेगे तो हमारे जैसा कोई दूसरा नहीं है, यह सिद्धी हमें प्राप्त होती है। अन्यथा हम दूसरों कि उपलब्धियों को देख उससे इर्ष्या आजीवन करते है। हम अद्वित और अद्भुत शक्ति से सम्पन्न है। हम हमेशा दूनिया को समझना चाहते है । दुनिया को बदलना चाहते या फिर दुनिया के साथ चलना चाहते है। जबकी दुनिया बहरी, लुली, लंगड़ी, अपाहिज और ब्यर्थ के समान है जब तक हम यहां रहने का जीने का तरिका नहीं जानते है, तब तक यह एक भयंकर पीड़ा क्लेश और दुःखों के सागर के अतिरीक्त कुछ नहीं है। जब हम यहां रहने के नियम और कला को जान जाते है, तो यह एक खेल नाटक अभिनय से अधिक नहीं है, समस्या यह है कि हमें अभिनय नाटक खेलना नही आता है, हम यहां जीने के नियम से अपरचित ही रहते है, जीवन तो बहुत जीते है लेकिन वह बिना अनुभव के, जैसे बड़ा हुवा ते क्या हुवा जैसे पेड़ खजुर पंछी को छाया नही फल लागे अति दूर, ऐसे ही हम सब है यहां सब कुछ जण नश्वर है उसके साथ रहते रहते हम सब भी जड़ ही बन कर ह जाते है। जैसा कहा गया है की व्यक्ती जैसे वायुमंडल में रहता है वैसा ही बन जाता है। हम स्वयं को प्रेम करें स्वयं को बदले स्वयं के लिये जिवन को जीये, हमारे लिये सब कुछ संभव है, जब हमारा ध्यान स्वयं पर होगा। तभी हमें स्वयं का ज्ञान होगा। हम सबसे पहले भारतिय है हमारा पहला धर्म है, भारत को जानना भारत कोई व्यक्ति नहीं भारत एक अद्भुत सार्वभैमि आत्मा का प्रमुख श्रोत है । इसलिये भारत की बहुत बड़ी जीम्मेदारी है की वह स्वयं बहुमुल्यता को संसार में बनाये रखने के लिये निरंतर पुर्षाथरत रहे। अर्थात भारतिय स्त्री पुरुष का यह सबसे प्रमुख धार्मिक उद्देश्य है। जबकी भारत आज दुनिया में सबसे अधिक कामुक देश के रुप में पहचाना जाता है, सबसे अधिक शोषण, भ्रष्टाचार, अज्ञान को प्रचारित करने के लिये प्रशिद्ध हो रहा है। इसका मुल कारण है की भारतियों कि भारतिय अपने संस्कृत सभ्यता से बिमुख हो कर दूसरें जो भ्रष्ट संस्कृती सभ्यता वाले लोग है उनका अनुसरण करने लग गया है। जिससे यहां पर दोगली नस्लों की संख्या अत्यघिक बढ़ रही है। जिसका भय अर्जुन को महाभारत युद्ध से पहले हुआ था। वह संकर वर्ण आज अपने चर्मोत्कर्ष पर पहुंच रही है। जिस प्रकार बिना आत्मा के शरिर रुपी पृथ्वी बेकार उसी प्रकार बिना भारत के बिना दुनिया का अस्तित्व संभव नही है। क्योंकि दुनिया का प्रारम्भ या श्रृष्टि का प्रथम अवतण भारतिय उप महाद्विप तिब्बत के हिमालय के शिखर पर हुआ, यह श्रृष्टि अमैथुन श्रृष्टि थी अर्थात बिना किसी गर्भ की सहायता के यहां पृथ्वी पर उपस्थित सभी प्रकार के जीवों को युवा ज्वान रूप में पैदा किया गया था। इसके पिछे बहुत बड़ा कारण था कि बच्चों को पैदा किया जाता है । तो उनका पालन कौन करता? यदि वृद्धों को पैदा किया जाता है। तो उनकी सेवा कौन करता? इस कारण से सभी जीवों को युवा रुप में उत्तपन्न किया गया था। या दूसरे शब्दों में कहे तो क्लोनिगं के रुप उत्पन्न किया गया। यह क्लोनिगं करने वाले कौन थे ? वह मनु और सप्तऋषि थे। यह मंगल ग्रह पर से आये थे क्योंकि वहां पर जब भयानक परमाणु युद्ध होना शुरु हुआ देवता और दैत्य में अर्थात आर्य और अनार्य में जिसके कारण वहां की मानवता संस्कृत सभ्यता बहुत तिब्रता से नष्ट होने लगी। इसके साथ वहां का वायुमंडल अत्यधिक गर्म होने लगा और वायुमंडल लगभग समाप्त होने के कगार पर पहुंच गया, जिसके कारण मंगल ग्रह के चनंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण कम होगया और वह मंगल के सतह से टकराने के लिये उसके तरफ बढ़ने लगा।
यह ज्ञान वहां के वैज्ञानिक और सप्तऋषि मनु जो वहां के प्रमुख थे उनको हुआ तो वह जीवन और श्रृष्टि के बिज को आगे बढ़ाने के लिये सभी जीवों के जीन डि एन ए जो पहले से एकत्रित वैज्ञानिक ऋषियों के द्वारा किये गये थे । वह सब लिया और एक बड़े स्पैशसिप विमान कि सहायता से हिमालय के शिखर पर आये यहां एक बिशाल लैब अस्थापित की और उसमें सभी प्रकार के जीवों की मानव समेत क्लोनिगं की गई जिसके माध्यम से श्रृष्टि के प्रक्रम को आगे बढ़ाया गया। मंगल ग्रह पर उसका उप ग्रह चंद्रमा कुछ समय पश्चात टकरा गया वहां का सब कुछ सर्वनाश होगया क्योंकि बिशाल ग्रहों के टक्कर के कारण कई वर्षों तक सूर्य का प्रकाश नहीं पहुंच पाया उस मंगल ग्रह के सतह पर, जिसके कारण मंगल ग्रह पर किसी प्रकार के जीव का जीवीत रहना संभव नहीं रह सका। सिवाय कुछ सुक्ष्म वैक्टेरिया के जो अब भी वहां विद्यमान है।
इस तरह से सर्वप्रथम मानव समेत सभी जीव जन्तु प्राणी का उदय पृथ्वी पर हुया, हिमालय के शिखर पर जो अब तिब्बत में है। पहले वहां पर स्वर्ग बनाया गया था यह स्वर्ग महाभारत काल तक विद्ययमान था, जहां पर देवी - देवता अर्थात दिव्य, तपश्वी, अत्यधिक श्रेष्ठ स्त्री, पुरुष रहते तो जो हजारों सालों लाखों सालों तक जीदां रहते थे। यहां साधरण जो जीव मैथुनी श्रृष्टि से पैदा होते थे, उनको यहां स्वर्ग में रहने की अनुमती नहीं थी । इसलिये यहां रहने के लिये प्रायः युद्ध होते जिसमें वहां स्वर्ग में रहने वाले हमेंशा अपने योग बल से बिश पड़ते और साधरण जन जो मैथुनी श्रृष्टि से पैदा हुये वह देवतावों से कमजोर थे। और उस वातावरण में जीने के योग्य भी नहीं थे। जब उनकी संख्या बहुत तेजी से बढ़ने लगी तो इन सब के लिये हिमालय के निचे घाटियों में बड़े नगर बशाये गये। जैसा की हम जानतेे है की काशी को शीव ने बशाया था जहां पर राजा हरिश्चन्द की निलामी हुई थी। और एक घटना महाभारत में आती है। जब अर्जुन स्वर्ग में जाकर अपने सगे पिता इन्द्र के यहां रहता है, और वहां से कई प्रकार की कला और अश्त्र शश्त्र ले कर आता है। यहां हिमालय पर साधना करके शिव को प्रशन्न करके उनसे भी अश्त्र प्राप्त करता है। शीव और हनुमान महाभारत और रामायण दोनों समय में विद्यमान है जिससे सिद्ध होता है की वह लोग जो स्वर्ग में रहते थे लाखों सालों तक जीन्दा रहते थे।
राजा हिरिश्चन्द राम के पुर्वज थे, राम के पीता दसरथ, दसरथ के पीता रघु और रघु के पिता अज थे। राम जिस धनुश को धारण करते थे वह अज नाम से ही जाना जाता है राम के इनसे कई पिढ़ी पहले हरिश्चन्द हुये उनके पिता त्रिशंकु थे। जो महर्षि वैज्ञानिक विश्वामित्र के बहुत बड़े भक्त थे। एक बार महर्षि को भी किसी कारण बश वहा स्वर्ग से निस्काशित कर दिया गया क्योंकि वह त्रीशंकु अपने भक्त को भी वहां स्वर्ग में स्थान दिलान या रखना चाहते थे। देवतावों ने यह प्रस्ताव ऋषी विश्वामित्र का अस्विकार कर दिया, और कारण बताया की वह त्रिशंकु बिलाशी राजा है जो यहां स्वर्ग में रहने योग्य नहीं है। यह देवतावों की बात सुन कर ऋषि बिश्वामित्र को अपना अपमान समझ में आया इसलिये उन्होने स्वर्ग का त्याग कर दिया और निचे संसार में रहने लगे, देवतावों से अपने अपमान का बदला लेने के लिये उन्होंने एक बहुत बड़ी योजना बनाई त्रीशंकु के साथ मिल कर जो पृथ्वी का चक्रवर्ति सम्राट था । उसके लिये अंतरिक्ष में एक नया स्वर्ग बनाने की।
विश्वामित्र भी पहले एक सम्राट थे वह भी राज्य कर चुके थे, पृथ्वी पर वह पहले त्रीशंकु के पुर्वज थे।
ऋषि विश्वामित्र के संदर्भ में एक बहुत प्रसिद्ध आख्यान प्रचलित है। एक वार ऋषि विश्वामित्र जब सम्राट हुआ करते थे, उस समय एक युद्ध इनका दैत्यों से हुवा था । उसको जित कर विश्वामित्र अपनी लाखों की सेना के साथ वापिस अपने राज्य की तरफ लौट रहे थे। उनकी सेना और वह बहुत थके हुये थे, वह आराम चाहते थे कुछ समय के लिये, उस समय उनके पास कुछ रसद सामान शेष नहीं बचा हुआ था। तभी उनको उन्हें अपने गुप्तचरों द्वारा ज्ञात हुवा की यहां कुछ दूर पर ब्रह्मऋषि वषिष्ट का आश्रम है। तो विश्वामित्र ने अपने एक सेवक को भेजा वषिष्ट के आश्रम में, और यह सेवक भेज कर याचना कि उनके लिये और उनके सेना के लिये कुछ रसद खाने पिने का सामान उपलब्ध करायें, वषिष्ट ने उत्तर में कहलवाया की ठीक है, आप सब आराम करें कुछ समय में सभी सामग्री आप सब के पास पहुच जायेगी।
इस तरह से विश्वामित्र की सेना और वह स्वयं आश्रम के समिप एक नदी किनार अपना पड़ाव डाल दिया। जैसा की उनको बताया गया था, कि कुछ समय में सभी वस्तु उनके पास पहुच जायेगी। ठीक वैसा हुआ थोड़े ही समय में सभी सेना के लिये खाने पिने रहने के लिये सभी प्रकार का पर्याप्त सामान पहुचा दिया गया, यह जान कर विश्वामित्र को बहुत बड़ा आश्चर्य के साथ संदेह हुवा । कि जो कार्य मैं पूर्ण करने में बिवश हो रहा हुं, इस जंगल में, वह कार्य एक साधु ने इतना जल्दि कैसे संभव कर दिया? इस कारण को जानने के लिये वह स्वयं वषिष्ट से मिलने के लिये उनके आश्रम में गये, और ब्रह्म ऋषि वषिष्ट से विश्वामित्र ने पुछा की आप ने यह सब कैसे संभव किया ? इतने बड़े लाव लस्कर सेना को तृप्त कर दिया। तब ब्रह्म ऋषि वषिष्ट ने अपने पास विद्यमान एक गाय काम धेनु के बारे में बताया कि यह सब तो काम धेनु गाय ने किया है। यह जानकर विश्वामित्र काम धेनु को देखना चाहा । जब ब्रह्मॠषि ने, विश्वामित्र को काम धेनु गाय का दर्शन कराया गया, तो उसको देखकर विश्वामित्र बहुत मोहित हो गये और उन्होंने वह कामधेनु को अपने महल में ले जाने की इच्छा जाहिर कर दी। यह काम धेनु जो सागर मंथन से निकली थी जिसको देवता और दैत्यों ने मिल कर किया था । ब्रह्मऋषि वषिष्ट ने कहा यह तो कामधेनु स्वयं निश्चय करती है कि इसे कहा रहना है। कामधेनु ने विश्वामित्र के महल में जाने से मना कर दिया। विश्वामित्र ने अपनी सभी प्रकार की नितियों का प्रयोग किया कामधेनु को अपने महल में ले जाने के लिये। साम, दाम, दण्ड, भेद लेकिन वह किसी प्रकार से सफल नहीं हुये । अन्त में उन्हें अपनी पराजय स्विकार करनी पड़ी। फिर उन्होंने अपने पास के सभी विद्वान मंत्री से मंत्रणा की यह कैसे संभव हो गया ? कि कामधेनु एक सम्राट को छोड़ कर आश्रम में क्यों रहना चाहती है? तब उनके सभी विद्वान मंत्रीयों और सहयोगीयों ने उन्हें बताया कि वषिष्ट कोई साधारण मानव नहीं ब्रह्मऋषि है। विश्वामित्र ने कहा क्या वह सम्राट से बड़े है? उनको उत्तर मिला हां महाराज, इस तरह से विश्वामित्र ब्रह्मऋषि वषिष्ट के सरण में आकर रहने लगे। और अपने राज्य का त्याग कर दिया, ब्रह्मऋषि के साधना में तल्लिन हो गये । काफी समय बाद वह ब्रह्मऋषि की उपाधी से, ब्रह्मऋषि वषिष्ट द्वारा संबोधित किये गये। और उनको स्वर्ग में अस्थान मिल गया, वहां बहुत समय रहने के बाद उन्होंने त्रीशंकु को बचन दिया था उसे की वह त्रीशंकु भी स्वर्ग में स्थान दिलायेंगें, लेकिन जब त्रीशंकु को स्वर्ग में स्थान न मिलने के कारण महर्षि विश्वामित्र ने भी स्वर्ग का त्याग कर दिया । और अपन भक्त त्रीशंकु और अपने लिये एक नया स्वर्ग बनाने में जुट गये।
महर्षि विश्वामित्र जो एक महान वैज्ञानिक थे अपने शिष्यों के साथ मिलकर त्रीशंकु को जीवित स्वर्ग में पहुंचाने के लिये, उन्होंने एक नये उपग्रह स्वर्ग नाम से अंतरिक्ष में निर्वाण किया । और उसे पृथ्वि और चंद्रमा के मध्य में स्थापित कर दिया, वह पुरी तरह से मानव निर्मित एक उपग्रह था। वहां मानव को रहने की सभी सुबिधायें थी, वह एक कृतिम उपग्रह था। जैसा कि आज के समय में अमेरिका, चाईना, रुश आदि देशों ने अपना एक स्पैश स्टेशन अंतरिक्ष में बना रखा है, यद्यपि यह बहुत छोटे है यहां पर कुछ एक मानव वैज्ञानिक सोध करने के लिये रहते है, भविष्य में मानव यहां पर घुमने जा सकता है। जहां पर कल्पना चावला जा कर जब वापिस आ रही थी, उसका स्पैश क्राफ्ट रास्ते में ब्लास्ट कर गया, जिससे उस स्पैशक्राफ्ट के सभी सात सदस्य कल्पना चावला समेत मारे गये थे। वहां भारतिय मुल की सुनिता बिलियम्स भी जा कर आ चुकी है।
विश्वामित्र का बनाया गया उपग्रह काफि बड़ा और सब प्रकार की सुख सुबिधा समपन्न था वहां पर त्रीशंकु अपने काफी आदमियों के साथ रहने लगे। लेकिन यह बात और दूसरे देवता वैज्ञानिक ऋषि जो हिमालय के स्वर्ग पर रहते थे उन्हें अच्छी नहीं लगी, कि कोई उनसे श्रेष्ठ अस्थान पर रहे और उनसे अच्छा जीवन जीये। क्योंकि जो स्वर्ग महर्षि विश्वामित्र ने बनाया था वहां रहने वाले की उम्र भी बढ़ जाती थी। और बहुत प्रकार कि सुबिधा थी, जो पृथ्वी पर विद्यमान स्वर्ग था वहां के लोगों को गवारा नहीं था। उन सब ने विश्वीमित्र को निचा दिखाने के लिये बहुत प्रकार के सणयंत्र रचने लगे। जिसमे सबसे पहले विश्वामित्र को जहां से सबसे अधिक धन मिलता था अर्थात त्रीशंकु के राज्य से जो अब उनके पुत्र राजा हरिश्चंद के अधिपत्य में चलता था। सभी देवता गड़ राजा हरिश्चंद को झुठा और असत्य सिद्ध करने के लिये संसार में प्रचारित करने लगे, गुप्त रुप से यह हरिश्चन्द को बहुत बुरा लगा। उन्होंने सम्पूर्ण संसार में अपनी प्रतिष्ठा को सिद्ध करने के लिये, यह घोषणा कर दि की जो कोई उनको झुठा सिद्ध कर देगा वह उन्हें अपना सर्वश्व दान कर देगें, यहां तक राजा हरिश्चंद ने स्वप्न में भी झुठ नही बोलने की कसम खा रखी थी। विश्वामित्र को अपने कार्यक्रम अंतरिक्ष में बनाये स्वर्ग के लिये निरनंतर धन की आवश्यक्ता थी वह जानते थे देवता गड़ राजा हरिश्चंद को यदी झुठा सिद्ध कर दिया । अपने सणयंत्र के द्वारा और उनसे राज्य और उनका धन छिन लिया तो स्वर्ग का उनका कार्यक्रम रुक सकता है । या कोई भयानक विध्न पड़ सकता है। यह बिचार कर करके उन्होंने एक योजना बनाई कि राजा हरिश्चंद को भी उनके साम्राज्य समेत स्वर्ग में स्थापित किया जाये और पृथ्वि का त्याग कर दिया जाये, जिससे यहां पृथ्वी के दैत्य हिमालय के स्वर्ग के देवता में संघर्ष होगा । और हम देवता के सणयंत्र से बच जायेगे, और हमारा अंतरिक्ष का स्वर्ग सामाराज्य के साथ सुरक्षित हो जायेगा। यह बात जब राजा हरिश्चंद को महर्षि विश्वामित्र ने उनके स्वप्न में आ कर बताया और कहा कि यह इच्छा उनके पिता की भी है। लेकिन राजा हरिश्चंद को अपनी सत्य के प्रति निष्ठा और संसार में अपनी प्रतिष्ठा अपने पिता त्रीशंकु की इच्छा से बहुत अधिक बहुमूल्य था । वह किसी किमत पर पृथ्वी को छोड़ना नहीं चाहते थे। भले हि इसके लिये उनको अपना सर्वस्व राज्य पाठ धन, सम्पदा, मान, मर्यादा सब कुछ दाव पर लगाना पड़े । वह बिल्कुल तैयार थे, उनके साथ उनकी पत्नि और उनका बेटा भी तैयार था। जब महर्षि विश्वामित्र और त्रीशंकु को यह ज्ञात हो गया, कि किसी भी प्रकार से राजा हरिश्चंद अपने बचन से अडिग नहीं होने वाला है, सत्य मार्ग से जो इसके सर पर चढ़ गया है। इससे इसका सब कुछ छिन लिया जाये तो सायद दुःखों के थपेड़ों और कष्ट पूर्ण क्लेशों कि आधियों से बौखला कर हमारी सरण में आ जाये। त्रिशंकु की सहमति से महर्षि विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद से कहा कि मैं अगले दिन सुबह तुम्हारे दरबार में आउंगा और तुम अपना सब कुछ जो राज्य पाठ तुम्हारे पिता के द्वारा तुम्हे मिला है । उनकी आज्ञा का पालन न करने के कारण मुझे दान कर देना, जिसके लिये राजा हरिश्चंद तैयार हो गये। सुबह होने पर जैसे ही दरबार लगा राजा हरिश्चंद सिंहाषन पर बिराजमान हुये तभी महर्षि विश्वामित्र उनके सामने उपस्थित हो गये, और अपना स्वप्न में आने की बात का याद दिला राज्य को लेने कि बात की, जिसके लिये राजा हरिश्चंद सहर्ष तैयार हो गये । और वह अपनी पत्नी और पुत्र को साथ लेकर भिखारी के भेष में राज्य से बाहर जाने के लिये तैयार हुये। तब महर्षि विश्वामित्र ने कहा कि यह दान जो तुमने दिया है यह तुम्हारे पिता कि बिराषत है। तुम्हारी स्वयं की नहीं है, इसके अतिरीक्त तुम्हें दक्षिणा देना होगा पांच सहस्त्र जो तुम्हें कही और से पांच दिन में व्यवस्था करना होगा, इसके लिय भी राजा हरिश्चंद तैयार होगये। और राज्य से प्रस्थान किया। बहुत दुःखों कष्टों पिड़ावों को सह- सह कर चुर हो गयें भुखे प्यासे, उनकी कोई सहायता करने वाला नहीं खड़ा हुआ, क्योंकि जो उनकी सहायता करने का प्रयाश करता वह देवताओं और महर्षि विश्वामित्र के कोप का भाजन बनता था। जिससे किसी कि हिम्मत ही नहीं हुई, की वह राजा हरिश्चंद और उनके परिवार की किसी प्रकार से सहायता कर सके, इसके अतिरिक्त रोज महर्षि विश्वामित्र अपने दक्षिणा को लेने के लिये निरंतर दबाव बनाते रहते थे। क्योंकि महर्षि विश्वामित्र नहीं चाहते थे कि यह राजा हरिश्चंद केवल सत्य और अपने बचन कि रक्षा के लिये महान अशहनिय कष्टों को सहे, वह समझते थे राजा हरिश्चंद झुक जायेगें, और अपने बचन से बिमुख हो जायेंगे। लेकिन यह नहीं हो सका राजा हरिश्चंद ने भयानक कष्टों को सहा, और अंत में कई दिनों में अयोद्धा से काशी शिव की नगरी पहुचें गये। जहां उनको कोई पहचानता नहीं था वहां एक चौराहे पर खड़े हो गये जहां दाश - दाशियां बिकते थे वहां पर वह अपने पत्नी और बच्चे को एक व्यापारी के हाथों में बेच दिया, और स्वयं को एक डोम ( धैइकार) को बेच दिया। जिससे उन्हे पांच शहश्त्र स्वर्ण मुद्रायें मिली जिसे उन्होंने प्रेम से महर्षि विश्वामित्र का दक्षिणा रूप ॠण दे कर उऋण हुये। स्वयं को डोम के सम्सान घाट पर मुर्दा फुंक -फुंक कर जीवको पार्जन करने में लगा लिया। और पत्नी बच्चा उस ब्यापारी के घर की दाशी बन कर जीवको पार्जन करने लगे।
विश्वामित्र अपने साथ अपना सारा धन सामराज्य और स्त्री - पुरष, पशु, धन इत्यादि सामग्री को लेक कर अपने बनायें स्वर्ग में चले गयें और वहां उसका बिस्तार करने लगें ।
जब हिमालय के देवताओं को अपनी योजना सफल होती नजर नहीं आई महर्षि विश्वामित्र के स्वर्ग का विस्तार उनकी आंखों तिनके की तरह दुखने लगा। वह सब यह बर्दास्त नहीं कर पा रहे थे, कि उनके स्वर्ग से निस्कासित किया गया कोई महर्षि या राजा कैसे अपने लिये अन्तरिक्ष में स्वर्ग बनाकर रह सकता है? यह उनके सम्मान और साधारण जनों में उनके प्रति लोगों की आस्था भी बहुत कम होने लगी थी। और ज्यादा से ज्यादा लोग अब महर्षि विश्वामित्र के द्वारा बनाये हुये स्वर्ग में राजा त्रिशंकु के साथ रहना चाहते थे। यह सब पृथ्वी पर उपस्थित स्वर्ग के देवताओं को कदापि गवारां नहीं था, कि उनके प्रति लोगों कि आस्था कम हो, यह उन सब के अस्तित्व को लेकर बहुत बड़ा खतरा संकेत था। और दूसरा कारण था कि पृथ्वी और चंद्रमा के मध्य में स्थित बनाये गये, महर्षि विश्वामित्र का स्वर्ग अपना सारा कार्य सौर्य उर्जा से करता था। जिसके कारण पृथ्वी पर पर्याप्त मात्रा में सुर्य का प्रकाश भी ना मिलने से पृथ्वी ठंडी होने लगी थी। और यहां पर जीवन के लिये खतरा मंडराने लगा। यदि ऐसा ही चलता रहा कुछ हजार या लाख साल में पृथ्वी पर कोई मानव जीव जन्तु प्राणी जीवित ना बचे । और दूसरा कारण बताया गया कि चन्द्रमा का गुरुत्त्वाकर्षण आकर्षण बल कम होगया। क्योंकि उस गुरुत्वाकर्षण बल का उपयोग महर्षि विश्वामित्र नें अपने स्वर्ग को व्यवस्थित रखने में बहु ज्यादा मात्रा में करने लगे थे । जिसके कारण पृथ्वी पर उपस्थित समंदर में ज्वारभाटा के समय में परि वर्तन आने लगा। सुर्य कि गर्मि कम पड़ने के कारण समंदर का पानी वास्प बहुत कम बनता था, और जिसके कारण बारिष की मात्रा पृथ्वी पर कम होगई। और इस वजह से पृथ्वी अनाज, फल, सब्जियां की पैदावार कम होने लगी थी। लोग हिंसक होने लगे जानवरों प्राणियों को मार -मार कर उनका भोजन के रुप मे उपयोग करने लगे। जिसके कारण हिंसक दैत्यों की संख्या में इजाफा होने लगा। हर प्रकार से देवताओं के साथ सभी मानवों पर गलत प्रभाव पड़ने लगा। इन सब जानकारियों से महर्षि विश्वामित्र को परिचित कराया गया और सिफारिश की गई की वह अपने बनाये अन्तरिक्ष को नष्ट करके पृथ्वी वापस आकर बश जायें। लेकिन महर्षि विश्वामित्र ने जबाब में देवतावों को बहुत तिखा उत्तर दिया की जब देवता हमारे उपर ध्यान नहीं दिये जब हम पृथ्वि पर रहते थे, अब जब कि हम अपना सर्वस्व लगाकर बहुत आगें निकल आये है तो हमे वापिस आने कि बात करके हमे नष्ट करना चाहते है। यह कदापि संभव नहीं है हमारे लिये। यहां हमे कोई नुकसान नहीं है। आप अपनी रक्षा किजीये और मेरे से किसी प्रकार के सहयोग कि कामना ना करें।
पृथ्वि के स्वर्ग के देवतावों को जब सकारात्मक परिणाम नहीं मिला तब उन्हेंने एक बहुत बुरा दूसरा सणयंत्र रचा पहले तो देवतावों का राजा इन्द्र ने त्रीशंकु के पुत्र राजा हरिश्चंद को अपनी तरफ मिलाने कि योजना बनाई।
आगे चलकर गुप्त रुप से सिधा - सिधा राजा हरिश्चंद्र से ना मिल कर इनके परिवार अर्थात इनकी पत्नी शैब्या और पुत्र रोहताश्च को भी इसमें एकत्रित रुप से मिला जाये। जब शैब्या राजा हरिश्चंद्र की पत्नी अपने बेटे रोहताश्च के साथ जिस व्यापारी के यहां दासी थी । उसकी पत्नी बहुत दुष्ट और निक्रिष्ट स्वभाव की थी वह शैब्या से बहुत अधिक काम लेती बदले में उसे बहुत थोड़ा भोजन देती थी फिर भी सभी शारिरीक मानसिक।पिड़ाओं को सहकर शाब्या अपनी मालकिन को प्रशन्न रखने का हमेंशा प्रयाश करती रहती थी। फिर भी उसकी मालकिन बहुत नाराज रहती और तरह- तरह के उलाहने निरंतर शाब्या को दिया करती थी। यहां तक रोहताश्च से भी वह काम लेती, ऐसा ही चल रहा था, एक दिन रोहताश्च को जंगल में लकड़ीयों को लेने भेज दिया वह लकड़ी लेकर आरहा था तभी देवताएं का राजा इन्द्र उसे काटने के लिये एक सांप भेज दिया जिसने रोहताश्च को काट लिया जिसके कारण रोहताश्च की हालत बिगड़ गई, यह बात जब शैब्या को बहुत समय तक रोहताश्च लकड़ी लेकर नहीं आया। तब शाब्या उसकी तलाश में जंगल में गई जहां उसने उसे रास्ते में मृत पड़ा पया तब उसे पता चला की वह अपने प्रीय पुत्र को खो चुकी है। वह बहुत रोई बिलखी और उसे मरा हुआ मान कर उसके अंतिम संस्कार के लिये अपने गोद में लेकर नदी किनारे रात्री के समय उसी सम्शान घाट पर पहुंची जहां पर राजा हरिश्चंद्र पहरा देते थे और मुर्दा जलाने से पहले सभी मुर्दा फुकने वाले से कर लेते थे। रात्री का समय सायं - सायं करती रात चारों तरफ जलती लाशें इधर-उधरी बीखरी थी। चारों तरफ के वायुमंडल में मांस के जलने की भयानक बदबु से भर रहा था, जहां कुत्ते भौक रहें थे वह उस स्थान को और भयानक बना रहे थे। आज भी वह राजा हरिश्चंद्र का मुर्दा फुकने वाला घाट काशी (वाराणसी) में प्रशिद्ध है। जब राजा हरिश्चंद ने देखा की शब्या को और उसके गोद में उनके बेटे रोहताश्च की लाश है, वह पहचान गये लेकिन अपने सत्य धर्म की रक्षा के लिये उन्हेंने ऐसा व्यवहार किया की दोनो अपरचित है। उन्होंने शब्या से कहा यहा किसी शरीर का दाह संस्कार करने से पहले मुझे कर देना होगा उसके बाद ही तुम कोई दाह संस्कार कर सकती हो। शब्या बिलख- बिलख रोते हुये कहा मेरे पास कुछ नहीं है शिवाय यह वस्त्र जिससे मैने अपने शरिर को धक रखा है उसमें आधा ले सकतो तुम दाह संस्कार करने के बदले में। जिसके लिये रजा हरिश्चंद्र तैयार हो गये। शैब्या अपनी साड़ी को फाड़ने के लिये हाथ बढ़ाया तभी देवतावों का राजा इन्द्र उन दोनो के मध्य प्रकट हुआ और कहा कि अब बहुत हो गया तुम जीत गये राजा हरिश्चंद सत्यवादी हो धर्मात्मा हो मै तुम्हें इस कृत्य से मुक्त करता हूं और तुम्हारे पुत्र को जीवित करता तुम सब अब हमारे साथ रहो हम तुम्हे अपने साथ रखते है।
इस तरह से हरिश्चंद्र देवतावों के साथ हो लिये।
राजा हरिश्चंद्र की सत्यनिष्ठा और धार्मिक्ता के प्रति समर्पण से प्रशन्न हो कर महर्षि विश्वामित्र ने उनका राज्य पुनः हरिश्चंद्र को वापिस दे दिया और स्वयं समाधि में लिन होगये। त्रीशंकु राजा हरिश्चंद्र के पिता सत्यब्रत अपना सब कुछ यहां तक स्वर्ग को भी जो महर्षि विश्वामित्र ने उनके लिये बनाया था । उसे भी राजा हरिश्चमद्र को दे कर शरीर त्याग कर के परमात्मा में विलीन हो गये।इस तरह से देवतावों स्वर्ग को पृथ्वी को बचाया और महर्षि विश्वामित्र के बनाये अन्तरिक्ष में स्वर्ग को अपनी दिव्य अश्त्रों से नष्ट कर दिया।
ऐसा बोला जाता था कि ऋषि अगस्त्य ने विश्व के सभी समुद्रों का जल पी लिया था.
इसका तात्पर्य यह नहीं है कि यह जल इन्होनें पेट में उतार लिया था. इसका अर्थ यह है कि अगस्त्य ऋषि सात समुद्रों की यात्रा कर चुके थे. समुद्र पर विजय प्राप्त करने के लिए अगर किसी महात्मा का नाम आता है तो वह इन्हीं का नाम है. इन्होनें ना सिर्फ सनातन धर्म का प्रचार पूरे विश्व में किया था बल्कि विश्व के कई देशों में कृषि और पशुपालन का भी ज्ञान लोगों को दिया था.
क्या कहते हैं हिन्दू धर्म शास्त्र
अगस्त्य ऋषि को लेकर हमारे वेदों में कई कथायें लिखी हुई है.
राम के समय दक्षिण में इनके आश्रम का जिक्र आया है. जब यह विश्वभर का भ्रमण कर रहे थे तब पानी के जहाज या अन्य सुविधा जनक चीजें नहीं होती थीं, बल्कि यह हाथ वाली पतवार से ही विश्वभर में हिन्दू धर्म का प्रचार करते हुए घूम रहे थे. ऐसा बोला जाता है कि यह ऋषि कुछ 5000 साल तक जीवित रहे थे.
महर्षि अगस्त्य के भारतवर्ष में अनेक आश्रम मौजूद हैं. उत्तराखंड से लेकर तमिलनाडु तक इनके कई आश्रम आज भी हैं. कहते हैं कि एक बार महर्षि ने तप करके आतापी-वातापी नामक दो असुरों का वध किया था. भारत के कई राज्यों में इनकी पूजा इष्टदेव के रुप में आज भी होती है.
क्या है सबूत कि अगस्त्य ऋषि ने विश्वभर का क्या था भ्रमण?
तो सबूत के लिए आप कम्बोडिया के शिव मंदिरों की निर्माण गाथा को पढ़ सकते हैं. अगर आप कम्बोडिया के भी इतिहास को पढेंगे तो आपको यहाँ कई तरह की रोचक जानकारी पढ़ने को मिलेगी और यहीं पर पता लगेगा कि कम्बोडिया में इस ऋषि ने मंदिरों के निर्माण के अलावा, यहाँ के लोगों को कृषि करना भी सिखाया था.
कम्बोडिया से आगे बोरनियों तक अगस्त्य ऋषि गये थे. यहाँ जहाँ-जहाँ हिन्दू संस्कृति मौजूद है उसका पूरा श्रेय इसी ऋषि को जाता है.
जावा द्वीप समूह में भी अगस्त्य ऋषि का नाम आया है. इसके अलावा अमेरिका तक का भ्रमण अगस्त्य ऋषि ने किया था. आर्य परिवार से होने के कारण इनको घूमना बहुत पसंद था.
मार्शल आर्ट भी इनको आती थी
कई जगह ऐसा भी जिक्र है कि अगस्त्य ऋषि को मार्शल आर्ट भी आती थी और भारत के अन्दर इस आर्ट को बढ़ाने का काफी श्रेय अगत्स्य ऋषि को ही जाता है.
तो अब अगस्त्य ऋषि के पूरे इतिहास को देखने का जब आप प्रयास करेंगे तब आपको नजर आएगा कि जो लोग भारत की खोज करने का दम भरते हैं वह गलत हैं क्योकि विश्व के कई देश तो हमारे ऋषियों ने ही खोजे थे और ऋषियों के बताये गये रास्तों पर चलकर यह लोग भारत पहुंचे थे.
क्रमशः
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