देवी का
वरदान
सुरथ धर्मपरायण तथा दानशील राजा थे। अधर्मी उनकी धर्मपरायणता से चिढ़ते थे।
एक बार उन्होंने सुरथ पर आक्रमण कर उन्हें पराजित कर दिया । सुरथ वन में मुनि
सुमेधा के आश्रम में पहुंच गए । राजा ने उन्हें अपनी कहानी सुनाई । मुनि ने उन्हें
धैर्य रखने का सुझाव देते हुए कहा, वन में रहकर अच्छा समय आने की प्रतीक्षा करो । देवी की आराधना
के बल पर तुम्हारा कल्याण होगा ।
उन्हीं दिनों समाधि नामक परम धर्मात्मा और संतोषी वैश्य अपने दुर्व्यसनी
पुत्र से प्रताडित होकर वन में आया । राजा सुरथ से उसकी भेंट हो गई । संकटग्रस्त
होने के कारण दोनों मित्र बन गए । सुमेधा मुनि द्वारा बताई गई विधि के अनुसार
दोनों जगदंबा देवी की उपासना में लग गए । सुरथ और समाधि ने निर्णय लिया कि यदि
देवी प्रसन्न नहीं हुई, तो वे अग्निकुंड में अपना शरीर अर्पित कर देंगे । जैसे ही यज्ञ
की अग्नि में वे शरीर की आहुति देने को उद्यत हुए कि देवी ने प्रकट होकर कहा, शरीर बड़े भाग्य से
सत्कर्मों के लिए मिलता है । इसे इस तरह नष्ट नहीं करना चाहिए । देवी ने प्रसन्न
होकर राजा सुरथ को पुनः राजा बनने का वरदान दिया, फिर देवी ने समाधि को भी कुछ माँगने को कहा ।
समाधि ने हाथ जोड़कर कहा, अब मुझे न घर लौटने की इच्छा है, न धन की । मुझे मोक्ष देने वाला दिव्य ज्ञान
प्रदान करें । देवी ने कहा , तुम वास्तव में संसार की असारता को जान गए हो । तुम्हें ज्ञान
प्राप्त हो चुका है । देखते - देखते देवी अंतर्ध्यान हो गई ।
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