क्रोध अधर्म
है
निमि इक्ष्वाकु के पुत्र थे। वे परम धर्मात्मा थे तथा विधि -विधान के अनुसार
यज्ञ कराने में पारंगत थे। अपने कल्याण के लिए वे समय- समय पर अपने पुरोहित
वशिष्ठजी से यज्ञ कराते रहते थे। एक बार निमि ने वशिष्ठजी से यज्ञ कराने का अनुरोध
किया । इसी बीच इंद्र ने उनको यज्ञ कराने के लिए बुला भेजा । वशिष्ठ निमि के यज्ञ
की जगह इंद्र का यज्ञ कराने चले गए । वशिष्ठ के नहीं रहने पर निमि ने ऋषि गौतम को
आमंत्रित कर यज्ञ करा लिया । वशिष्ठ इंद्रलोक से लौटे तथा यह पता चलने पर कि निमि
ने दूसरे ऋषि से यज्ञ करा लिया है, वे क्रोध से भर उठे और निमि को मृत्यु का श्राप दे दिया ।
तत्काल निमि की मृत्यु हो गई ।
अन्य मुनियों को यह बहुत बुरा लगा कि वशिष्ठ ने शास्त्र -मर्यादा का पालन
नहीं किया और अपने ही शिष्य को श्राप दे दिया । मुनिगण यह भी जानते थे कि निमि पग-
पग पर धर्म के नियमों का दृढ़ता से पालन करते थे। मुनियों के आग्रह करने पर
देवताओं ने निमि को जीवित हो जाने का वरदान दिया , लेकिन निमि ने देवताओं से विनम्रतापूर्वक कहा, वशिष्ठ मेरे
पुरोहित हैं । मैं उनके श्राप को स्वीकार कर अब जीवित नहीं होना चाहता ।
वशिष्ठजी को इसका पता चला कि वरदान मिलने के बावजूद निमि ने जीवित होने से
इनकार कर दिया है, तो वे द्रवित हो उठे । उन्हें लगा, जैसे भगवान् कह रहे हों कि क्रोध पर नियंत्रण रखकर धैर्य का
परिचय देना ही ऋषि मुनियों का सच्चा कर्तव्य है । क्रोध में श्राप देकर तुमने
अधर्म ही किया है ।
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