वेदों का संक्षिप्त परिचय
चत्वारो वेदाः
!!!---: ऋग्वेद का
सामान्य परिचय :---!!!
=======================
(१) ऋग्वेद की शाखा
:----
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महर्षि पतञ्जलि के अनुसार ऋग्वेद की २१
शाखाएँ हैं, किन्तु पाँच ही शाखाओं के नाम उपलब्ध होते हैं:
(१) शाकल
(२) बाष्कल
(३) आश्वलायन
(४) शांखायन
(५) माण्डूकायन
संप्रति केवल शाकल शाखा ही उपलब्ध है !
ऋग्वेद के ब्राह्मण
===============
(१) ऐतरेय ब्राह्मण
(२) शांखायन ब्राह्मण
ऋग्वेद के आरण्यक
==============
(१) ऐतरेय आरण्यक
(२) शांखायन आरण्यक
ऋग्वेद के उपनिषद
(१) ऐतरेय उपनिषद्
(२) कौषीतकि उपनिषद्
ऋग्वेद के देवता
तिस्र एव देवताः इति नैरुक्ताः !
(१) अग्नि (पृथिवी
स्थानीय )
(२) इन्द्र या वायु
(अन्तरिक्ष स्थानीय )
(३) सूर्य (द्यु स्थानीय
)
ऋग्वेद में बहु प्रयोग छंद
(१) गायत्री,
(२) उष्णिक्
(३) अनुष्टुप्,
(४) त्रिष्टुप्
(५) बृहती,
(६) जगती,
(७) पंक्ति,
ऋग्वेद के मंत्रों के तीन
विभाग
(१) प्रत्यक्षकृत मन्त्र
(२) परोक्षकृत मन्त्र
(३) आध्यात्मिक मन्त्र
ऋग्वेद का विभाजन
(१)
अष्टक क्रम : ----
८ अष्टक
६४ अध्याय
२००६ वर्ग
(२) मण्डलक्रम :---
१० मण्डल
८५ अनुवाक
१०२८ सूक्त
१०५८०---१/४
!!!---: यजुर्वेद का
सामान्य परिचय :--!!!
यजुर्वेद यज्ञ
कर्म के लिए उपयोगी ग्रन्थ है । गद्यात्मक भाग के "यजुः" कहा जाता है ।
यजुस् की प्रधानता के कारण इसे यजुर्वेद" कहा जाता है ।
यजुष् के अन्य अर्थः---
(१.) यजुर्यजतेः
(निरुक्त--७.१२)
(यज्ञ से सम्बद्ध
मन्त्रों को यजुष् कहते हैं ।)
(२.) इज्यते अनेनेति
यजुः ।
(जिन मन्त्रों से यज्ञ
किया जाता हैं, उन्हें यजुष् कहते हैं ।)
(३.) अनियताक्षरावसानो यजुः
।
(जिन मन्त्रों में
पद्यों के तुल्य अक्षर-संख्या निर्धारित नहीं होती है, वे
यजुष् हैं ।)
(४.) शेषे यजुःशब्दः ।
(पूर्वमीमांसा--२.१.३७)
(पद्यबन्ध और गीति से
रहित मन्त्रात्मक रचना को यजुष् कहते हैं ।)
(५.) एकप्रयोजनं
साकांक्षं पदजातमेकं यजुः ।
(एक उद्देश्य से कहे हुए
साकांक्ष एक पद-समूह को यजुः कहेंगे ।)
इस वेद की दो परम्पराएँ हैं:---
- कृष्ण और शुक्ल ।
शुक्ल यजुर्वेद में शुद्ध रूप में
मन्त्र मात्र संकलित है, किन्तु कृष्ण यजुर्वेद में मन्त्रों के साथ ब्राह्मण मिश्रित है ।
शाखाएँ :--
=======
महर्षि पतञ्जलि
ने महाभाष्य में यजुर्वेद की १०१ शाखाएँ बताई है, किन्तु उपलब्धता कम है ।
(१) शुक्ल यजुर्वेद :----
इसकी कुल १६ शाखाएँ बताईं जाती हैं, किन्तु सम्प्रति २ ही
शाखाएँ उपलब्ध हैं---
(१.) माध्यन्दिन
(वाजसनेयी) शाखा,
(२.) काण्व शाखा |
माध्यन्दिन-शाखा
के मुख्य ऋषि याज्ञवल्क्य हैं । ये मिथिला के निवासी थे । इनके पिता वाजसनि थे, अतः याज्ञवल्क्य
वाजसनेय कहलाए । उनके नाम पर इस यजुर्वेद को वाजसनेयी शाखा भी कहते हैं ।
याज्ञवल्क्य ऋषि
ने आदित्य ऋषि से इसे दिन के मध्य भाग में प्राप्त किया था, अतः इसे माध्यन्दिन
शाखा कहा गया । इस शाखा का सर्वाधिक प्रचार उत्तर भारत में है ।
काण्व ऋषि के
पिता बोधायन थे । काण्व के गुरु याज्ञवल्क्य ही थे । काण्व शाखा का सर्वाधिक
प्रचार महाराष्ट्र में हैं । (२) कृष्ण यजुर्वेद :-----
============
इसकी कुल ८५
शाखाएँ बताईं जाती हैं किन्तु सम्प्रति ४ शाखाएँ ही उपलब्ध हैं---
(१.) तैत्तिरीय-संहिता,
(२.) मैत्रायणी -संहिता,
(३.) कठ-संहिता,
(४.) कपिष्ठल-संहिता,
शुक्ल और कृष्ण यजुर्वेद में अन्तर
:---
(१.) शुक्लयजुर्वेद
===========
(१.)
यह आदित्य सम्प्रदाय का प्रतिनिधि ग्रन्थ है |
(२.) इसमें यज्ञ में
प्रयोग किए जाने वाले मन्त्र है ।
(३.) यह विशुद्ध है,
अर्थात् केवल मन्त्र है, कोई मिश्रण नहीं है ।
(४.) इस ग्रन्थ की
प्राप्ति आदित्य से हुई है । आदित्य शुक्ल होता है, अतः इसका
नाम शुक्ल-यदुर्वेद रखा गया । शुद्धता के कारण भी इसे शुक्ल कहा गया है ।
(५.) इसमें व्याख्या,
विवरण और विनियोगात्मक भाग नहीं है, अर्थात्
विशुद्ध है ।
(२.) कृष्णयजुर्वेद
==========
(१.) यह
ब्रह्म-सम्प्रदाय का प्रतिनिधि ग्रन्थ है ।
(२.) इसमें मन्त्रों के
साथ-साथ ब्राह्मण भी मिश्रित है, अतः मिश्रण के कारण कृष्ण
कहा गया ।
(३.) आदित्य के प्रकाश
के विपरीत होने से भी इसे कृष्ण कहा गया ।
(४.) यह अव्यवस्थित है ।
(५.) इसमें व्याख्या,
विवरण और विनियोगात्मक भाग है, अर्थात्
विशुद्ध नहीं है, अस्वच्छ है, मिश्रित
है ।
मन्त्रः---
=====
(१.) शुक्लयजुर्वेदः---
=============
शुक्लयजुर्वेद की वाजसनेयी - शाखा में
कुल---
४० अध्याय हैं,
१९७५ मन्त्र हैं ।
वाजयनेयी संहिता में कुल अक्षर २,८८,००० (दो लाख, अट्ठासी हजार ) हैं ।
कण्व शाखा में भी ४० ही अध्याय हैं, किन्तु मन्त्र २०८६
हैं ।
अनुवाक --- ३२८ हैं ।
(२.) कृष्णयजुर्वेदः--
==========
तैत्तिरीय-शाखा में कुल ७ काण्ड हैं,
४४ प्रपाठक हैं,
६३१ अनुवाक हैं ।
मैत्रायणी-शाखा में कुल ४ काण्ड हैं,
५४ प्रपाठक हैं,
३१४४ मन्त्र हैं ।
काठक (कठ) संहिता में कुल ५ खण्ड हैं,
स्थानक ४० हैं,
वचन १३ हैं,
५३ उपखण्ड हैं,
८४३ अनुवाक हैं,
३०२८ मन्त्र हैं ।
कपिष्ठल अपूर्ण रूप में उपलब्ध है ।
इसमें ६ अष्टक ही उपलब्ध है,
४८ अध्याय पर समाप्ति है ।
ब्राह्मण :---
शुक्लयजुर्वेद ·
शतपथ ब्राह्मण
कृष्णयजुर्वेद - - तैत्तिरीय ब्राह्मण, मैत्रायणी, कठ और कपिष्ठल
इन चारों
संहिताओं में जो ब्राह्मण भाग हैं, वही कृष्णयजुर्वेद के ब्राह्मण है ।
आरण्यक : ---
शुक्लयजुर्वेद --- बृहदारण्यक
कृष्णयजुर्वेद---- तैत्तिरीय
आरण्यक
उपनिषद्ः—
शुक्लयजुर्वेद ---- ईशोपनिषद्, बृहदारण्यकोपनिषद्,
प्रश्नोपनिषद् ।
कृष्णयजुर्वेद---- तैत्तिरीय
उपनिषद्, महानारायण, मैत्रायणीय, कठोपनिषद्,
श्वेताश्वरोपनिषद् ।
श्रौतसूत्र :---
======
शुक्लयजुर्वेद ---
६ --- कात्यायन (पारस्कर)
कृष्णयजुर्वेद----आपस्तम्ब, बोधायन, हिरण्यकेशी (सत्याषाढ), भारद्वाज, वैखानस, वाधुल, मानव, मैत्रायणी, वाराह ।
गृह्यसूत्र :---
=======
शुक्लयजुर्वेद-
६ - कात्यायन (पारस्कर)
कृष्णयजुर्वेद----आपस्तम्ब, बोधायन, सत्याषाढ, वैखानस, कठ ।
----
धर्मसूत्र :-
========
शुक्लयजुर्वेद - कोई नहीं ।
कृष्णयजुर्वेद--- वसिष्ठ-सूत्र ।
शुल्वसूत्र:---
=============
शुक्लयजुर्वेद-व
६ --- कात्यायन ।
कृष्णयजुर्वेद--- बोधायन, आपस्तम्ब, मानव, मैत्रायणी, वाराह और
वाधुल ।
!!!---: सामवेद :
सामान्य परिचय :---!!!
वैदिक वाङ्मय में सामवेद का स्थान
अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । गीता (१०.२२) में श्रीकृष्ण ने स्वयं के लिए सामवेद कहा
है---" वेदानां सामवेदोऽस्मि ।"
इस वेद का महत्त्व इस बात से अधिक है
कि सामवेद को द्यु कहा गया है, जबकि ऋग्वेद को पृथिवी कहा है---"साम वा असौ द्युलोकः,
ऋगयम् भूलोकः । " (ताण्ड्य ब्राह्मण--४.३.५)
सामवेद वेदों का सार है। सारे वेदों का
रस या सार सामवेद ही है --"सर्वेषामं वा एष वेदानां रसो यत् साम ।" (शतपथ-१२.८.
३.२३) (गोपथ-ब्राह्मण--२.५.७)
सामवेद के लिए गीतियुक्त होना अनिवार्य
है-" गीतिषु सामाख्या ।" (पूर्वमीमांसा-२.१.३६)
ऋग्वेद और सामवेद का अभिन्न सम्बन्ध
हैं ।
सामवेद के बिना यज्ञ नहीं होता---"नासामा
यज्ञो भवति ।" (शतपथ--१.४.१.१)
जो पुरुष "साम" को जानता है, वही वेद के रहस्य को
जान पाता है- "सामानि यो वेत्ति स वेद तत्त्वम् ।" (बृहद्देवता)
"साम" का
शाब्दिक अर्थ है--- देवों को प्रसन्न करने वाला गान ।
सामवेद का प्रकाश आदित्य ऋषि के हृदय
में हुआ ।
आचार्य सायण के अनुसार ऋग्वेद के गाए
जाने वाले मन्त्रों को "साम" कहते हैं-"ऋच्यध्यूढं साम ।"
अर्थात् ऋचाओं पर ही साम आश्रित है ।
सामवेद उपासना का वेद है ।
(१.) सामवेद के प्रमुख
ऋषि---आदित्य,
सामवेद सूर्य है और सामवेद के मन्त्र
सूर्य की किरणें हैं---"(आदित्यस्य) अर्चिः सामानि ।" (शतपथ--१०.५.१.५)
(२.) सामवेद के गायक
ऋत्विज्---उद्गाता,
(३.) सामवेद के देवता
--- आदित्य ।
सामवेद की उत्पत्ति सूर्य से हुई है ।
यह सूर्य-पुत्र है । इसमें सूर्य की शक्ति है---"सूर्यात् सामवेदः अजायत
।" (शतपथ---११.५.८. ३)
(४.) ऋषि व्यास ने
सामवेद का अध्ययन कराया---जैमिनि को ।
जैमिनि ने सामवेद की शिक्षा अपने पुत्र
सुमन्तु को, सुमन्तु ने सुन्वान् को और सुन्वान् ने अपने पुत्र सुकर्मा को दी ।
सामवेद का विस्तार इसी सुकर्मा ऋषि ने
की थी । सुकर्मा के दो शिष्य थे--- हिरण्यनाभ कौशल्य औ पौष्यञ्जि ।
हिरण्यनाभ का शिष्य कृत था । कृत ने
सामवेद के २४ प्रकार के गान स्वरों का प्रवर्तन किया था ।
कृत के बहुत से अनुयायी हुए । इनके
अनुयायी सामवेदी आचार्यों को "कार्त" कहा जाता है----
"चतुर्विंशतिधा येन प्रोक्ता वै सामसंहिताः ।
स्मृतास्ते प्राच्यसामानः
कार्ता नामेह सामगाः ।" (मत्स्यपुराणः--४९.६७)
(५.) शाखाएँ---
ऋषि पतञ्जलि के अनुसार सामवेद की १०००
हजार शाखाएँ थीं---"सहस्रवर्त्मा सामवेदः" (महाभाष्य) ।
सम्प्रति इसकी तीन ही शाखाएँ समुपलब्ध
है--
(क) कौथुम,
(ख) राणायणीय,
(ग) जैमिनीय,
शाखा के अनुसार सामवेद के दो भाग
हैं---(क) पूर्वार्चिक, (२.) उत्तरार्चिक ।
(क) पूर्वार्चिक:----
इसमें कुल चार काण्ड हैं--- (क) आग्नेय, (ख) ऐन्द्र, (ग) पावमान (घ) आरण्य-काण्ड ।
परिशिष्ट के रूप में १० मन्त्र
महानाम्नी आर्चिक हैं ।
पूर्वार्चिक में ६ प्रपाठक हैं । कुल
मन्त्र ६५० हैं ।
प्रपाठकों में अध्याय है, अध्यायों में खण्ड हैं,
जिन्हें "दशति" कहा जाता है, खण्डों
में मन्त्र हैं ।
इसके प्रपाठकों के विभिन्न नाम हैं ।
जिसमें जिस देवता की प्रधानता है, उसका वही नाम है । जैसे---
(क) प्रथम प्रपाठक का
नाम--"आग्नेय-पर्व"
हैं, क्योंकि
इसमें अग्नि से सम्बद्ध मन्त्र हैं । इसके देवता अग्नि ही है । इसमें कुल ११४
मन्त्र हैं ।
--"ऐन्द्र-पर्व"
है, क्योंकि इनमें इन्द्र की स्तुतियाँ की गईं हैं। इसके
देवता इन्द्र ही है ।
(ख) द्वितीय से चतुर्थ
प्रपाठक का नाम ---" इसमें ३५२ मन्त्र हैं ।
(ग) पञ्चम प्रपाठक का
नाम --"पवमान-पर्व"
है, क्योंकि
इसमें सोम की स्तुति की गई है । इसके देवता सोम ही है । इसमें कुल ११९ मन्त्र हैं
।
(घ) षष्ठ प्रपाठक का नाम
--" अरण्यपर्व" है,
क्योंकि इसमें अरण्यगान के ही मन्त्र है । इसके देवता इन्द्र,
अग्नि और सोम हैं । इसमें कुल ५५ मन्त्र हैं ।
(ङ) महानाम्नी आर्चिक-यह परिशिष्ट हैं। इसके देवता
इन्द्र हैं । इसमें कुल १० मन्त्र हैं ।
इस प्रकार कुल मिलाकर पूर्वार्चिक में
६५० मन्त्र हुए ।
इसका अभिप्राय यह है कि प्रथम से पञ्चम
प्रपाठक तक के मन्त्रों का गान गाँवों में हो सकता है । इसलिए इन्हें
"ग्रामगान" कहते हैं ।
सामगान के चार प्रकार होते हैं---
(क) ग्रामगेय गान--इसे "प्रकृतिगान"
और "वेयगान " भी कहते हैं । यह ग्राम या सार्वजनिक स्थानों पर गाया जाता
था । (ख) आरण्यगान या आरण्यक गेयगान ---यह वनों या पवित्र स्थानों पर गाया
जाता था । इसे "रहस्यगान" भी कहते हैं ।
(ग) उहगान—"ऊह" का अर्थ
है --विचारपूर्वक विन्यास | यह सोमयाग या विशेष धार्मिक
अवसरों पर गाया जाता था ।
(घ) उह्यगान या रहस्यगान --- रहस्यात्मक होने के कारण
यह सार्वजनिक स्थानों पर नहीं गाया जाता था ।
(ख) उत्तरार्चिक----
इसमें कुल २१ अध्याय और ९ प्रपाठक हैं
। कुल मन्त्र १२२५ हैं । इसमें कुल ४०० सूक्त हैं ।
पूर्वार्चिक में ऋचाओं का छन्द देवताओं
के अनुसार है, जबकि उत्तरार्चिक में यज्ञों के अनुसार है । । दोनों मिलाकर १८७५ हुए ।
पूर्वार्चिक में ६५० मन्त्र है, जबकि उत्तार्चिक में
१२२५ मन्त्र
पूर्वार्चिक के २६७ मन्त्रों की
आवृत्ति उत्तरार्चिक में हुई है । १५०४ मन्त्र ऋग्वेद से आगत है ।
साममवेदस्थ सामगान मन्त्रों के ५ भाग
हैं----
(क) प्रस्ताव--इसका गान
"प्रस्तोता" नामक ऋत्विक् करता है । यह "हूँ ओग्नाइ" से
प्रारम्भ होता है ।
(ख) उद्गीथ - इसे साम का प्रधान ऋत्विक्
उद्गाता गाता है । यह "ओम् " से प्रारम्भ होता है ।
(ग) प्रतिहार --- इसका गान
"प्रतिहर्ता" नामक ऋत्विक् करता है । यह दो मन्त्रों को जोडने वाली कडी
है । अन्त में "ओम्" बोला जाता है ।
(घ) उपद्रव----इसका गान उद्गाता ही करता है ।
(ङ) निधन ---- इसका गान तीनों ऋत्विक
करते हैं -- प्रस्तोता, उद्गाता और प्रतिहर्ता ।
(६.) सामवेद के कुल
मन्त्र ---- १८७५ हैं ।
ऋग्वेद से आगत मन्त्र हैं -- १७७१
सामवेद के अपने मन्त्र हैं-- १०४ =
१८७५
ऋग्वेद से संकलित १७७१ मन्त्रों में से
भी २६७ मन्त्र पुनरुक्त हैं ।
सामवेद के अपने १०४ मन्त्रों में से भी
५ मन्त्र पुनरुक्त हैं ।
इस प्रकार पुनरुक्त मन्त्रों की संख्या
२७२ है ।
सारांशतः---
सामवेद में ऋग्वेदीय मन्त्र १५०४ +
पुनरुक्त २६७ कुल हुए= १७७१
सामवेद के अपने मन्त्र - ९९ + पुनरुक्त
५, इस
प्रकार कुल हुए = १०४
दोनों को मिलाकर कुल मन्त्र हुए ---
१७७१ + १०४ = १८७५
सामवेद में ऋग्वेद से लिए गए अधिकांश
मन्त्र ऋग्वेद के ८ वें और ९ वें मण्डल के हैं ।
८ वें मण्डल से ४५० मन्त्र लिए गए हैं,
९ वें मण्डल से ६४५ मन्त्र लिए गए हैं
।
१ वें मण्डल से २३७ मन्त्र लिए गए हैं
।
१० वें मण्डल से ११० मन्त्र लिए गए हैं
।
सामवेद में कुल अक्षर ४००० * ३६ = १,४४,००० (एक लाख, चौवालीस हजार ( हैं ।
सामवेद के ४५० मन्त्रों का गान नहीं हो
सकता, अर्थात्
ये गेय नहीं है ।
कौथुम शाखा में कुल मन्त्र १८७५ हैं, जबकि जैमिनीय शाखा में
१६८७ मन्त्र ही है ।
इस प्रकार जैमिनीय-शाखा में १८८ मन्त्र
कम है ।
जैमिनीय शाखा में गानों के ३६८१ प्रकार
हैं, जबकि
कौथुमीय में केवल २७२२ ही हैं, अर्थात् जैमिनीय शाखा में ९५९
गान- प्रकार अधिक हैं ।
जैमिनीय-शाखा की संहिता, ब्राह्मण, श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्र सभी उपलब्ध हैं, किन्तु
कौथुमीय के नहीं ।
ब्राह्मणः--
पञ्चविंश (ताण्ड्य) महाब्राह्मण, षड्विंश, सामविधान, आर्षेय, देवताध्याय,
वंश, जैमिनीय, तलवकार ।
आरण्यक कोई नहीं ।
उपनिषद् -- छान्दोग्य, केनोपनिषद् ।
श्रौतसूत्र---खादिर, लाट्यायन, द्राह्यायण ।
गृह्यसूत्र----खादिर, गोभिल, गौतम ।
धर्मसूत्र---गौतम ।
शुल्वसूत्र कोई नहीं ।
सामवेद से तीन प्रमुख शिक्षाएँ मिलती
हैं---
(क) समत्व की भावना
जागृत करना ।
(ख) समन्वय की भावना |
पति-पत्नी को एकत्रित करना। समाज को एकत्रित करना । सबको मिलाना ।
किसी को अलग नहीं
करना ।
(ग) साम प्राण है । जीवन
में प्राणशक्ति का बड़ा महत्त्व है । प्राणी इसी से जीता है ।
!!!---: अथर्ववेद एक
सामान्य परिचय :---!!!
अथर्ववेद का अर्थ--अथर्वों का वेद,
वेदों में अन्यतम अथर्ववेद एक महती
विशिष्टता से युक्त है ।
अथर्ववेद का अर्थ---अथर्वों का वेद
(ज्ञान), और
अङ्गिरों का ज्ञान अर्थात् अभिचार मन्त्रों से सम्बन्धित ज्ञान ।
(१.) अथर्वन्--- स्थिरता से युक्त योग ।
निरुक्त (११.१८) के अनुसार "थर्व" धातु से यह शब्द बना है, जिसका अर्थ है---गति
या चेष्टा । अतः "अथर्वन्" शब्द का अर्थ है--स्थिरता । इसका अभिप्राय है
कि जिस वेद में स्थिरता या चित्तवृत्तियों के निरोधरूपी योग का उपदेश है, वह अथर्वन् वेद है---"अथर्वाणोऽथर्वणवन्तः । थर्वतिश्चरतिकर्मा,
तत्प्रतिषेधः ।" निरुक्त (११.१८)
(२.) गोपथ-ब्राह्मण के अनुसार - समीपस्थ
आत्मा को अपने अन्दर देखना या वेद वह जिसमें आत्मा को अपने अन्दर देखने की विद्या
का उपदेश हो ।
प्राचीन काल में अथर्वन् शब्द
पुरोहितों का द्योतक था ।
अन्य नाम
=======
अथर्वाङ्गिरस्,
आङ्गिरसवेद,
ब्रह्मवेद,
भृग्वाङ्गिरोवेद,
क्षत्रवेद,
भैषज्य वेद,
छन्दो वेद,
महीवेद
मुख्य ऋषि --अङ्गिरा,
ऋत्विक्---ब्रह्मा
प्रजापति ब्रह्म ने इस वेद का ज्ञान
सर्वप्रथम अङ्गिरा ऋषि को दिया ।
शाखाएँ
=====
ऋषि पतञ्जलि ने महाभाष्य में इस वेद की
९ शाखाएँ बताईं हैं, जिनके नाम इस प्रकार है----
(१.) पैप्लाद,
(२.) तौद, (स्तौद)
(३.) मौद,
(४.) शौनकीय,
(५.) जाजल,
(६.) जलद,
(७.) ब्रह्मवद,
(८.) देवदर्श,
(९.) चारणवैद्य ।
इनमें से सम्प्रति केवल २ शाखाएँ ही
उपलब्ध है:-- शौनकीय और पैप्लाद | शेष मुस्लिम आक्रान्ताओं न नष्ट कर दी । आजकल सम्पूर्ण भारत
वर्ष में शौनकीय शाखा ही प्रचलित है और यही अथर्ववेद है ।
(१.) शौनकीय शाखा
काण्ड---२०,
सूक्त---७३०,
मन्त्र---५९८७,
(२.) पैप्लाद -शाखा---
यह अपूर्ण है । इसका प्रचलन पतञ्जलि के
समय था ।
उपवेद---अर्थर्वेद
=========
गोपथ-ब्राह्मण (१.१.१०) में
इसके पाँच उपवेदों का वर्णन हुआ है-
सर्पवेद,
पिशाचवेद,
असुरवेद,
इतिहासवेद,
वेद |
शतपथ-ब्राह्मण (१३.४.३.९) में भी इन
उपवेदों का नाम आया है ---
सर्पविद्यावेद,
देवजनविद्यावेद, (रक्षोवेद या
राक्षसवेद),
मायावेद (असुरवेद या
जादुविद्यावेद),
इतिहासवेद,
पुराणवेद
ऋषि व्यास ने इसका ज्ञान सुमन्तु को
दिया
ब्राह्मण---गोपथ-ब्राह्मण
आरण्यक --- कोई नहीं
उपनिषद्---मुण्डकोपनिषद्, माण्डूक्योपनिषद्
श्रौतसूत्र--वैतान
===========
गृह्यसूत्र---कौशिक,
========
धर्मसूत्र---कोई नहीं ।
शुल्वसूत्र---कोई नहीं ।
अथर्वा ऋषि महान् वैज्ञानिक थे ।
उन्होंने इस धरा धाम पर सर्वप्रथम अग्नि का आविष्कार किया था । उन्होंने
अरणि-मन्थन से अग्नि का और जल-मन्थन से जलीय - विद्युत् का आविष्कार किया था---
(१.) "अग्निर्जातो
अथर्वणा" (ऋग्वेदः--१०.२१.५)
(२.) "अथर्वा त्व
प्रथमो निरमन्थदग्ने ।" (यजुर्वेद - ११.३२)
(३.) अथर्वा ऋषि ने ही
उत्खनन के द्वारा पुरीष्य अग्नि (प्राकृतिक गैस अर्थात् Oil and Natural Gas) का
आविष्कार किया था--"पुरीष्योऽसि विश्वभरा अथर्वा त्वा प्रथमो निरमन्थदग्ने
।" (यजुर्वेद --११.३२)
(4.) आज हम जिस अग्नि के
द्वारा यज्ञ करते है, उस अग्नि में सर्वप्रथम अथर्वा ने यज्ञ
किया था - "यज्ञैरथर्वा प्रथमः पथस्तते ।" (ऋग्वेद:- दः - १.८३.५)
अथर्वा ऋषि अध्यात्मवाद के प्रथम प्रचारक थे ।
अथर्वा ऋषि का दृष्टिकोण व्यापक था ।
उन्होंने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कार्य किया था ।
अथर्ववेद के सूक्त
=====
(१.) पृथिवी - सूक्त,
अन्य नाम ---
---भूमि- सूक्त (१२.१)
कुल ६३ मन्त्र ।
(२.) ब्रह्मचर्य - सूक्त
-- (११.५) कुल २६ मन्त्र ।
(३.) काल-सूक्त -दो
सूक्त हैं--११.५३ और ११.५४, कुल मन्त्र १५
(४.) विवाह - सूक्त -
पूरा १४ वाँ काण्ड । इसमें २ सूक्त और १३९ मन्त्र हैं ।
(५.) व्रात्य सूक्त ---
१५ काण्ड के १ से १८ तक के सूक्तों में २३० मन्त्र
(६.)
मधुविद्या-सूक्त---९ वें काण्ड के सूक्त १ के २४ मन्त्रों में यह सूक्त है ।
ये सभी व्रात्य सूक्त हैं ।
(७.)
ब्रह्मविद्या-सूक्त-अथर्ववेद के अनेक सूक्तों में ब्रह्मविद्या का विस्तृत वर्णन है।
वैदिक सभ्यता और संस्कृति के विस्तृत
ज्ञान के लिए अथर्ववेद चारों वेदों में सबसे अधिक उपयोगी है ।
अथर्ववेद सामाजिक और राजनीतिक स्थिति
का सबसे सुन्दर चित्रण करता है ।
अथर्ववेद एक प्रकार का विश्वकोश है ।
यह सार्वजनीन वेद है । इसमें सभी
वर्गों और सभी आश्रमों का विस्तृत वर्णन है ।
यही एक वेद है जो एक साथ लौकिक और
पारलौकिक दोनों क्षेत्रों का वर्णन करता है ।
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